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________________ समवाय ३००००० समवाया पोधु अंग ॥२०७॥ मूलार्थ:-मेरु पर्वत पृथ्वीतळमा दश हजार योजनना विष्कंभवाळो कह्यो छे (१)॥१००००॥ सूत्र-१२३ ॥ हवे एक लाखमुं स्थान कहे छे मू-जंबूदीवे णं दीवे एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं पन्नत्ते ॥१॥१०००००॥ सूत्रम्-१२४ ॥ मूलार्थ:-जंबूद्वीप नामनो द्वीप आयाम विष्कंभवडे एक लाख योजननो कयो छे (१) ॥१०००००॥सूत्रम्-१२४॥ हवे वे लाखमुं स्थान कहे छे मू०--लवणे णं समुद्दे दो जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पन्नत्ते ।१॥ २००००० ॥ सूत्रम्--१२५॥ मूलार्थ:--लवणसमुद्र गोळ विष्कंभवडे बे लाख योजननो कह्यो छे (१)॥२०००००। सूत्र-१२५॥ हवे त्रण लाखमुं स्थान कहे छे मू०--पासस्स णं अरहओ तिन्नि सयसाहस्सीओसत्तावसिं च सहस्साई उक्कोसिया सावियासंपया होत्था । १ ॥ ३००००० ॥ सूत्रम्-१२६ ॥ मूलार्थ:-श्रीपार्श्वनाथ अरिहंतने त्रण लाख ने सत्तावीश हजार उत्कृष्ट श्राविकानी संपदा हती(१)॥३०००००।सूत्र-१२६॥ -॥२०७॥
SR No.010536
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJethalal Haribhai
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1939
Total Pages681
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size44 MB
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