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टीकार्थः- हरिवासेत्यांदि'-आ अर्थने माटे अर्ध गाथा आ प्रमाणे छे-" हरिवर्षनो विस्तार एकवीश अने चोराशी सो (८४२१) योजन अने उपर एक कळा जेटलो छ."(१)।। ८०००॥ सूत्र-१२१॥ हवे नव हजारमुं स्थान कहे छे
मू०-दाहिणड्डभरहस्स णं जीवा पाईणपडीणायया दुहओ समुदं पुट्ठा नव जोयणसहस्साइं | आयामेणं पन्नत्ता । १॥ ९००० ॥ सूत्रम्-१२२ ॥ a मूलार्थः-दक्षिणार्ध भरतक्षेत्रनी जीवा पूर्व-पश्चिम लांबी अने बन्ने बाजुए समुद्रने अडकेली छे ते नव हजार योजन - लांबी कही छे (१)॥९००० ॥
टीकार्थः-'दाहिणेत्यादि'-भरतक्षेत्रनो जे दक्षिण भाग ते दक्षिणार्ध भरत कहेवाय छे. तेनी जीवाना जेवी जीवा एटले सीधी सीमा, वळी ते पूर्व अने पश्चिम दिशाए लांबी छे, ते बन्ने बाजुए एटले पूर्व अने पश्चिम बाजुए लवणसमुद्रने अडकेली छे. ते जीवा अहीं नव हजार योजन लांबी कही छे. परंतु अन्य स्थाने आ प्रमाणे विशेष कह्यो छे-"नव हजार, सात सो ने अडताळीश योजन अने उपर बार कळा" (१)।९००० ॥ सूत्र-१२२ ॥ हवे दश हजारमुं स्थान कहे छे
मू-मंदरेणं पवए धरणितले दस जोयणसहस्साइं विक्खंभेणं पन्नत्ते॥१॥१०००० ॥सूत्रम्-१२३॥