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________________ जैनसिद्धांत स्थापन कराय छे. जेथी करीने आ प्रमाणे सूत्रकृतांगमा कहेवाय छे तेथी करीने तेना सूत्र अने अर्थनुं स्वरूप कहे छे-नाणेत्यादि'-नाना एटले अनेक प्रकारे अर्थात् घणा प्रकारे 'दिटुंतवयणनिस्सारं ति'-स्याद्वादीए (जैने) पूर्वपक्षरूप करेला परवादीओना पोताना पक्षने सिद्ध करवा माटे जे दृष्टांतना वचनो अने उपलक्षणथी जे हेतुना वचनो छे, तेनी अपेक्षाए निस्सार एटले सार रहित बीजानो मत छे एम सारी रीते एटले पोताना मतनुं खंडन कोइ पण करी शके नहीं एवी रीते देखाडता एटले प्रकाश करता एवा, तथा सत्पद(छता पद )नी प्ररूपणा विगेरे अनेक अनुयोगद्वारने आश्रित होवाथी विविध प्रकारनो जे विस्तारानुगम एटले अनुगम (व्याख्या) करवा लायक जीवादिक अनेक तत्वोनुं विस्तारथी कहेवू ते विविधविस्तारानुगम कहेवाय छे, एवा तथा परम सद्भाव एटले अत्यंत सत्यता अर्थात् . वस्तुओनुं इदंपरपणुं (अनुक्रमपणुं), आ वे गुणोवडे जे सहित, ते विविधविस्तारानुगमपरमसद्भावगुणविशिष्ट कहीए, एवा, तथा 'मोक्खपहोयारग त्ति'-मोक्षमार्गमां उतारनारा एटले के प्राणीओने सम्यग्दर्शन विगेरेमा प्रवृत्ति करावनारा एवा तथा 'उदार त्ति'-सूत्र अने अर्थना समग्र दोष रहितपणाए करीने अने ते सूत्रार्थना समग्र गुण सहितपणाए | करीने उदार एवा, तथा अज्ञानरूपी तमोऽन्धकार एटले अत्यंत अंधकार अथवा उत्कृष्ट (अत्यंत) जे अज्ञान ते अज्ञानतम, अने ते रूपी जे अंधकार ते अज्ञानतमोऽधकार अथवा अज्ञानतमान्धकार कहेवाय छे, तेनावडे करीने जे दुर्ग एटले दुःखे करीने गमन करी शकाय (जाणी शकाय) एवा तत्वमार्गने विषे 'दीवभूय त्ति'-प्रकाश करनार होवाथी दीवानी उपमावाळा एवा, तथा' सिद्धिसुगतिगृहोत्तमस्य-सिद्धिरूप जे सुगति ते सिद्धिसुगति कहीए, अथवा सिद्धि एटले
SR No.010536
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJethalal Haribhai
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1939
Total Pages681
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size44 MB
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