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समवाय ३०॥
समवायाङ्ग
॥११॥
उपाध्याये श्रुतज्ञान अने विनय-चारित्र ग्रहण करावेल होय-शिखवेल होय, तेमनी जजे निंदा करे एटले आ गुरु अल्पश्रुत छ एम तेना ज्ञाननी निंदा करे, आ अन्य तीथिकोनी साथे संबंध राखनारा छे एम कही तेना दर्शननी निंदा करे, अने पार्श्वस्थादिकना स्थानमा वर्तनार होवाथी मंद धर्मवाळा छ एम कही तेना चारित्रनी निंदा करे, आवा प्रकारनो ते बाळ-मृढ महामोहने करे छे. ए एकवीशम स्थान. २४-२१. आचार्य के उपाध्याय विगेरे के जेओ ज्ञानदानवडे अने ग्लानादिक अवस्थाने विषे सारसंभाळ विगेरे करवावडे सम्यक् प्रकारे उपकार करनारा छे, तेओ प्रत्ये जे कोइ विनय, आहार अने उपधि विगेरे बडे प्रत्युपकार करतो नथी, तथा पूजा करनार थतो नथी, तथा स्तब्ध-मानवाळो थाय छे, ते महामोहने करे छे. ए बावीशमुं स्थान. २५-२२. बहुश्रुत न होय एवो जे कोइ श्रुतवडे पोताना आत्मानी श्लाघा करे के 'हुं श्रुतवान छ, अनुयोगने धारण करनार छु' इत्यादि कहे अथवा 'तमे अनुयोगाचार्य छो के वाचक छो' एम कोइ पूछे त्यारे. 'हा, है तेवो जर्छ' एम स्वाध्यायनो वाद बोले अने 'हुं विशुद्ध पाठक छु' इत्यादि जे बोले, ते श्रुतना अलाभना कारणरूप महामोहने करे छे. ए त्रेवीशमुं स्थान. २६-२३. 'अतवस्सीए-आ श्लोक सुगम छे. पूर्वार्धनो अर्थ पूर्वनी जेम ज छे. विशेष ए के–'सर्वलोकात्-'भावचोर होवाथी आ सर्व जनोथी मोटामां मोटो चोर छे, तेथी ते अतपस्वीपणाना कारणरूप महामोहने करे छे.: ए चोवीशमुं स्थान. २७-२४. साधारण कार्यने माटे कोई ग्लान साधु प्राप्त थये सते जे कोई आचार्यादिक पोते समर्थ छतां उपदेशवडे अने औषधादिक आपवावडे पोते अथवा अन्यद्वारा उपकार न करे अर्थात् तेना कार्यनी उपेक्षा करे. क्या अभिप्रायथी तेनुं कार्य न करे ? ते कहे छे-'आ साधु पोते समर्थ छतां द्वेपने लीधे मारुं पण