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चोथु अंग॥
समूहवडे युक्त होवाथी तथा समग्र सुर, असुर, विद्याधर अने मनुष्योना समूहने नमवा लायक होवाथी प्रधान छे. भगवाननु - समवायाङ्ग लोकोत्तमपणुं देखाडता सता कहे छे के–'लोकनाथ' लोकना एटले संज्ञी भव्य जीवोना जे नाथ एटले प्रभु, ते लोकनाथ सूत्र ॥
कहेवाय छे. अहीं 'योगक्षेमकृन्नाथः' (जे योग अने क्षेमने करनार होय ते नाथ कहेवाय छे) एवू शास्त्रनुं वचन छ तथी नहीं प्राप्त थयेला सम्यग्दर्शनादिकनो योग करवाथी अने प्राप्त थयेला एवा ते गुणोनुं पालन-रक्षण करवाथी आ भगवाननुं नाथपणुं सिद्ध थाय छे. वळी लोकनुं हित करनार होय तो ज तेनुं ताचिक (साचुं) नाथपणुं संभवे छे, तेथी कहे छे केलोकना एटले एकेन्द्रियादिक सर्व प्राणीसमूहना हितकर एटले तेमनी अत्यंत रक्षानो प्रकर्ष थाय तेवी प्ररूपणा करवावडे अनुकूळ वर्तनार होवाथी भगवान लोकहित कहेवाय छे. वळी आ भगवाननुं नाथपणुं अने हितकरपणुं कहां, ते भव्य ।। प्राणीओने यथास्थित समग्र वस्तुसमूहने दीपाववाथी-ओळखाववाथी ज संभवे छे, अन्यथा संभवतुं नथी, तेथी कहे छे के-विशेष प्रकारना (भव्य ) तिर्यंच, नर अने देवरूप लोकना आभ्यंतर ( अज्ञानरूपी) अंधकारना समूहने नाश करवा !
पूर्वक उत्कृष्ट पदार्थोंने प्रकाश करनार होवाथी भगवान प्रदीपनी जेवा प्रदीप होवाथी लोकप्रदीप कहेवाय छे. आ । IN (लोकप्रदीप ) विशेषण द्रष्टलोक (प्राणीओ) ने आश्रीने कां छे तेथी हवे दृश्य ( देखवा लायक ) लोकने आश्रीने
विशेषण कहे छे के-जे जोवामां आवे ते लोक, एवी व्युत्पत्ति करवाथी संपूर्ण सूर्यमंडळनी जेवा समग्र पदार्थोना खभावने प्रगट करवामां समर्थ एवा केवळज्ञानपूर्वक प्रवचन (सिद्धांत ) रूपी प्रभाना सम्रहने प्रवर्ताववावडे लोकालोकरूप सर्व वस्तुसमूहना स्वभावने जे प्रद्योत-प्रकाश करवाना खभाववाळा ते लोकप्रद्योतकर कहेवाय छे. अहीं कोई शंका करे के
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