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र सत्तर सो ने एकवीश योजन ऊर्ध्वपणे (ऊंचा) कह्या छे (४)। लवणसमुद्र सत्तर हजार योजन सर्वानवडे (तळीयेथी शिखा पर्यंत)
ऊंचो कह्यो छे (५)। आरत्नप्रभा नामनी पृथ्वीना अत्यंत सरखा रमणीय भूमिभाग(भूमितळ)थी कांइक अधिक सत्तर हजार योजन ऊंचे ऊडीने-उपडीने त्यारपछी चारणो (जंघाचारण अने विद्याचारण मुनिओ)नी तिरछी गति कही छे (केमके रत्नप्रभा पृथ्वीथी साधिक सोळ हजार योजन प्रमाण ऊंची लवणसमुद्रनाजळनी शिखा छे तेथी तेना करतां पण हजार योजन अधिक। एटले सत्तर हजार योजन ऊंचा गया पछी तिरछी गति थइ शके छे (६) । असुरना राजा चमर नामना असुरेंद्रनो तिगिछिकूट नामनो उत्पात पर्वत सत्तर सो ने एकवीश योजन ऊर्ध्वपणे (ऊंचो) कह्यो छे (७)। बलि नामना असुरेंद्रनो रुचकेंद्र नामनो उत्पात पर्वत पण सत्तर सो ने एकवीश योजन ऊर्ध्वपणे (ऊंचो) कह्यो छे (८)। सत्तर प्रकारे मरण का छे, ते आ प्रमाणेआवीचि मरण, अवधि मरण, आत्यंतिक मरण, वलाय ( वलन् ) मरण, वैशात मरण, अंतःशल्य मरण, तद्भव मरण, बाल मरण, पंडितं मरण, बोलपंडित मरण, छमस्थ मरण, केलि मरण, वैहायस मरण, गृध्रपृष्ठ मरण, भक्तप्रत्याख्यान मरण, इंगिनी मरण, पादोपैगमन मरण (९)। सूक्ष्मसंपराय भगवान (पूज्य) सूक्ष्मसंपरायना भावमां वर्तता सता (ते गुणस्थानके रह्या होय त्यारे ) सत्तर कर्मप्रकृतिओने बांधे छे, ते आ प्रमाणे-आभिनिबोधिक (मति) ज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनपर्यवज्ञानावरण, केवळज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवळदर्शनावरण, सातवेदनीय, यश-कीर्ति नाम, उच्च गोत्र, दानांतराय, लाभांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय, वीर्यातराय (१०)॥ - आ रत्नप्रभा नामनी पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी सत्तर पल्योपमनी स्थिति कही छे (१)। पांचमी पृथ्वीने