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समवायाङ्ग सूत्र ॥
चो अंग
॥६६॥
विषे नारकीओनी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर सागरोपमनी कही छे ( २ ) । छठ्ठी पृथ्वीने विषे नारकीओनी जघन्य स्थिति सत्तर सागरोपमनी कही छे (३) । केटलाक असुरकुमार देवोनी सत्तर पल्योपमनी स्थिति कही छे ( ४ ) । सौधर्म अने ईशान कल्पनेविषे केटलाक देवोनी सत्तर पल्योपमनी स्थिति कही छे ( ५ ) । महाशुक्र कल्पने विषे देवोनी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर ..सागरोपमनी कही छे (६) । सहस्रार कल्पने विषे देवोनी जघन्य स्थिति सत्तर सागरोपमनी कही छे ( ७ ) । जे देवो सामान, सुसामान, महासामान, पद्म, महापद्म, कुमुद, महाकुमुद, नलिन, महानलिन, पौंडरीक, महापौंडरीक, शुक्ल, महाशुक्ल, सिंह, सिंहकांत, सिंहवीय अने भाविय नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति . सत्तर सागरोपमनी कही छे ( ८ ) |
ते देवो सत्तर अर्धमासे ( पखवाडीए) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे (१) । ते देवोने सत्तर हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे ( २ ) । एवा केटलाक भवसिद्धिक ( भव्य ) जीवो छे के जेओ सत्तर भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे. (३) ॥
टीकार्थ:- हवे सत्तर स्थानक कहे छे, तेनो अर्थ स्पष्ट छे. विशेष ए के स्थितिनां सूत्रोनी पहेलां दश सूत्रो छे. ( तेमां पहेला असंयमना सूत्रमां ) अंजीवकाय असंयम एटले सुंदर सुवर्ण तथा बहु मूल्यवाळा वस्त्र, पात्र, पुस्तक विगेरे ग्रहण करवाते. प्रेक्षाने विषे जे असंयम ते प्रेक्षा असंयम कहेवाय छे एटले के ( बेसवा विगेरेनुं ) स्थान अने उपकरण विगेरेनुं प्रत्युपेक्षण न कर अथवा विधि प्रमाणे प्रत्युपेक्षण न करवुं ते. उपेक्षा असंयम एटले असंयमना योगोमां व्यापार
समवाय
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