SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 559
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राभृतिका छे, संख्याती प्राभृतप्राभृतिका छे, सर्व मळीने संख्याता लाख पदो कहेला छे, वळी संख्याता अक्षरो, अनंत गमा, अनंत पर्यायो, परित्त त्रसो, अनंता स्थावरो, (द्रव्यार्थिक नयनी अपेक्षाए) शाश्वत छे अने (पर्यायार्थिक नयनी अपेक्षाए) ला कृत-करेला छे, तथा निबद्ध अने निकाचित एवा जिनेश्वरे कहेला भावो आमां कहेवाय छे, प्रज्ञापना कराय छे, प्ररूपणा कराय छे, देखाडाय छे, निदर्शन कराय छे, उपदेशाय छे. ए प्रमाणे भावो जाण्या छ, विशेषे करीने जाण्या छे, ए रीते चरणकरणनी प्ररूपणा कहेवाय छे, ते आ दृष्टिवाद कह्यो. ते आ बार अंगरूप गणिपिटक कयु. ॥ १२ ॥ सूत्र-१४७॥ ___टीकार्थः-से किं तं दिहिवाए त्ति'-दृष्टि एटले दर्शन, वदनं एटले बोलवू, ते वाद कहीए. दृष्टिनो जे वाद IN ते दृष्टिवाद अथवा दृष्टिनो पात (पड ) छे जेमां ते दृष्टिपात, अर्थात् सर्व नयनी दृष्टि ज अहीं कहेवाय छे. ते बावत कहे छ-'दिट्ठिवाए णमित्यादि' दृष्टिवादवडे अथवा दृष्टिपातवडे सर्व भावनी प्ररूपणा कहेवाय छे. 'से समासओ पंचविहे ' (ते संक्षेपथी पांच प्रकारे छे ) इत्यादि आ सर्व प्राये करीने विच्छेद पाम्युं छे, तो पण जेवू जोयु ते प्रमाणे काइक लखाय छे-तेमां गणितना परिकर्मनी जेम परिकर्म जे ते सूत्रादिकने ग्रहण करवानी योग्यता प्राप्त करवामां समर्थ होय छे, अने ते परिकर्मश्रुत सिद्धश्रेणिका विगेरे परिकर्मना मूळ भेदे करीने सात प्रकारचं छे, अने उत्तरभेदे करीने तो मातृकापद विगेरे त्राशी प्रकारचें छे. आ सर्व मूल अने उत्तरभेद सहित सूत्रथी अने अर्थथी विच्छेद पाम्युं छे. ए सात परिकर्ममा प्रथमना छ परिकर्म स्वसमय संबंधी ज छे अने गोशाळके प्रवर्तावेल आजीविका नामना पाखंडी सिद्धांतना मते तो च्युताच्युतश्रेणिका नामना परिकर्म सहित साते परिकर्म कहेला छे. हवे ते साते परिकर्मने विपे नयनी
SR No.010536
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJethalal Haribhai
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1939
Total Pages681
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size44 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy