________________
चो,
अंग॥
श्री:समवायाग
सूत्र॥ ॥१८॥
करी मनने जे अति स्थिर राख अने योगनो जे निरोध करवो, ते शुक्लध्यान कहेवाय छे' (२)। तथा चारित्रने विरोध करनारी स्त्री विगेरे संबंधी जे कथा ते विकथा कहेवाय छे (३) । तथा असातवेदनीय अने मोहनीय कर्मना उदयथी प्राप्त थयेल आहारनी इच्छादि रूप जे चेतनाविशेप ते संज्ञा कहेवाय छे (४)। तथा जीव कपाय सहित होवाथी कर्मने योग्य एवा पुद्गलोने जे ग्रहण करे ते बंध कहेवाय छे. (ते बंध चार प्रकारनो छे) तेमां प्रकृति एटले कर्मना अंशो-भेदो जे ज्ञानावरणीयादिक आठ, तेनो जे बंध ते प्रकृतिबंध कहेवाय छ, तथा ते प्रकृतिओनी ज स्थिति एटले जघन्यादिकपणे रहेवू, तेनो जे बंध ते स्थितिबंध कहेवाय छे, तथा तीवादिक भेदवाळो जे विपाक ते अनुभाव एटले रस कहेवाय छे, तेनो जे बंध ते अनुभावबंध कहेवाय छे. तथा जीवना असंख्याता प्रदेशोने विषे कर्मना अनंतानंत प्रदेशो के जे दरेक कर्मप्रकृतिए नियत परिमाणवाळा छे तेनो जे बंध एटले संबंध ते प्रदेशबंध कहेवाय छ (५) ।
तथा कृष्टि, सुकृष्टि विगेरे वार विमानो पूर्वे कहेला विमानना नामने अनुसारे जाणवा. (६). सूत्र ४ ॥ - मू०-पंच किरिया पन्नत्ता, तं जहा-काइया अहिगरणिया पाउसिया पारितावणिया पाणाइ
१ आर्तध्यान-इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग, रोगचिंता, अग्रशौच. रौद्रध्यान-हिंसानुबंधी, मृपानुबंधी, स्तेयानुबंधी, संरक्षणानुबंधी. धर्मध्यान-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय, संस्थानविचय. शुक्लध्यान-अन्यत्व पृथकत्व सविचार, एकत्व पृथक्त्व अविचार, सूक्ष्मक्रिया अनिवृत्ति, समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति.
॥१८॥