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नारकीओनी चार सागरोपमनी स्थिति कही छे (२)। केटलाक असुरकुमार देवोनी चार पल्योपमनी स्थिति कही छे (३)।। सौधर्म अने ईशान कल्पने विपे केटलाक देवोनी चार पल्योपमनी स्थिति कही छे (४)। सनत्कुमार अने माहेंद्रकल्पने विपकेटलाक देवोनी चार सागरोपमनी स्थिति कही छे (५)। जे देवो कृष्टि, सुकृष्टि, कृष्टिकावर्त, कृष्टिप्रभ, कृष्टियुक्त, । कटिवर्ण, कृष्टिलेश्य, कृष्टिध्वज, कृष्टिशृंग, कृष्टिशिष्ट, कृष्टिकूट अने कृष्टयत्तरावतंसक नामना विमानने विषे देवपणे उत्पन्न थया होय, ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति चार सागरोपमनी कही छे (६)॥
ते देवो चार अर्ध मासे (चार पखवाडीयाने छेडे) आन ले छे, प्राण ले छे एटले उच्छास ले छे, निःश्वास ले छ (१ ते देयोने चार हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२)। एवा केटलाक भवसिद्धिक (भव्य) जीवो छ के चार भवने ग्रहण करवा वडे सिद्ध थशे, यावत् सर्व दुःखनो अंत करशे (३) सूत्र-४ ॥
टीकार्थ:-आ चार स्थान- सूत्र पण सुगम छे. विशेष ए के-कषाय, ध्यान, विकथा, संज्ञा, बंध अने योजनने माटे छ सूत्र कह्यां छे, नक्षत्रने माटे त्रण कयां छे, स्थितिने माटे छ कयां छे, अने शेष त्रण सूत्र पूर्वनी जेम जाणवां.. ____एक अंतर्मुहर्त सुधी चित्तनी एकाग्रता अने मन, वचन, कायाना योगनो जे निरोध करवो, ते ध्यान कहेवाय छे. तेमां मनोज्ञ अने अमनोज्ञ वस्तुने विषे वियोग अने संयोगादिकने कारणे चित्तनो जे व्याक्षेप ते आर्तध्यान कहेवाय छे.
चोरी अने धनना रक्षण माटे जे चित्तनी व्याकुळता ते रौद्रध्यान कहेवाय छे, आज्ञा विगेरे पदना (शब्दना) अर्थना स्वरूपनो विचार करवामां जे चित्तनी एकाग्रता ते धर्मध्यान कहेवाय छे. तथा चौद पूर्वमा रहेला श्रुतनुं अवलंबन
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