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________________ हुर्त ओछी दश हजार वर्षनी अने उत्कृष्टथी अंतर्मुहूर्त ओछी तेत्रीश सागरोपमनी कही छे. आ रत्नप्रभा पृथ्वी विगेरेने | विषेए जप्रमाणे कहेवु यावत् विजय, वैजयंत, जयंत अने अपराजित देवोनी केटलो काळ स्थिति कही छे ? हे गौतम! जघन्यथी वत्रीश सागरोपम अने उत्कृष्टथी तेत्रीश सागरोपम कही छे. तथा सर्वार्थसिद्धने विष जघन्य अने उत्कृष्ट रहित तेत्रीश सागरोपमनी स्थिति कही छे. ॥ सूत्र-१५१ ॥ टीकार्थ-नेरइयाणं भंते' इत्यादि सूत्र सुगम छे. विशेष आ प्रमाणे--स्थिति एटले नारकादिक पर्याये करीने जीवोने रहेवानो काळ ' अपज्जत्तयाणं ति--नारकीओ लब्धिथकी तो पर्याप्ता ज होय छे, पण करणथकी तो उत्पत्तिने काळे एक अंतर्मुहर्त सुधी अपर्याप्ता ज होय छे अने त्यारपछी पर्याप्ता होय छे. तेथी तेओनी अपर्याप्तापणानी स्थिति जघन्यथी अने उत्कृष्टथी पण एक अंतर्मुहूर्त्तनी ज होय छे अने पर्याप्तानी तो जे ओघे कही छे ते ज एक अंतर्मुहूर्त ओछी जघन्यथी अने उत्कृष्टथी होय छे. अहीं पर्याप्ता अने अपर्याप्तानो विभाग आ प्रमाणे छे (वे गाथानो अर्थ )--" नारकी देवों, गर्भज तिर्यंच, अने गर्भज मनुष्य जे असंख्य वर्षना आयुष्यवाळा छे ते सर्वे उपपात( उत्पत्ति )ने समये अपर्याप्ता जाणवा (१)। अने बाकीना तिर्यच अने मनुष्यो लब्धिने पामीने उपपातने समये पर्याप्ता जने इतर (अपर्याप्ता) एम वे प्रकारे विभाग करवा. एवं जिनेश्वरनुं वचन छे. (२) इति "॥ सामान्यपणे नारकोनी स्थिति कही. हवे विशेषथी ते स्थितिने कहेवा माटे आ प्रमाणे कहे छे-'इमीसे णं' इत्यादि. सर्व स्थितिनुं प्रकरण प्रज्ञापना सूत्रमा प्रसिद्ध छे, तेथी तेनो अतिदेश (भळामण) करता सता कहे छेके-"एवमिति"-जेम प्रज्ञापना सूत्रमा सामान्य पर्याप्ता
SR No.010536
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJethalal Haribhai
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1939
Total Pages681
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size44 MB
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