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समवाय २७॥
समवाया
चोधु अंग
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नामना चोथा ग्रैवेयक विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति छवीश सागरोपमनी कही छे (६)॥ ... ते देवो छवीश अर्ध मासे ( पखवाडीए) आन ले छे, प्राण ले छे एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे (१)।ते देवोने छवीश हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२)। एवा केटलाक भव्य जीवो छे के जेओ छवीश भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे, अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे (३)॥
टीकार्थः-छवीशU स्थानक प्रगट ज छ. विशेप ए के-उद्देशन काळ एटले जे श्रुतस्कंधमां अने जे अध्ययनमा जेटला अध्ययनो के उद्देशा कह्या होय तेमां तेटला ज उद्देशन काळ एटले श्रुतना उपचाररूप उद्देशनो काळ-अवसर होय छे (१)। तथा अभव्योने त्रण पुंज करवाना न होवाथी सम्यक्त्वमोहनीय अने मिश्रमोहनीयरूप वे प्रकृति सत्तामां होती नथी तेथी छवीश कर्मप्रकृति होय छे (२)॥ सूत्र २६ ॥ | हवे सत्तावीशमुं स्थानक कहे छे.
मू०-सत्तावीसं अणगारगुणा पन्नत्ता, तं जहा-पाणाइवायाओ वेरमणं १, मुसावायाओ वेरमणं २, अदिन्नादाणाओ वेरमणं ३, मेहुणाओ वेरमणं ४, परिग्गहाओ वेरमणं ५, सोइंदियनिग्गहे ६, चक्खिदियनिग्गहे ७, घाणिंदियनिग्गहे ८, जिभिदियनिग्गहे ९, फासिंदियनिग्गहे १०, कोहविवेगे ११, माणविवेगे १२, मायाविवेगे १३, लोभविवेगे १४, भावसच्चे १५, करणसच्चे १६,
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