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ते इंर्गिनी मरण कहेवाय छे. आ मरण चतुर्विध आहारनुं प्रत्याख्यान करनार, शरीरनी सार-संभाळ नहीं करनार ( करावनार ) अने नियमित प्रदेशमा ज रहेनाराने होइ शके छे. तथा जेमां पादप - वृक्षनी जेम उपगमनं एटले रहेवुं होय ते पादपोपगमैन मरण कहेवाय छे. जेम कोइ वृक्ष कोइ ठेकाणे कोइपण प्रकारे पड्युं होय ते कांड पण सम के विषम स्थान विगेरेनो विचार कर्या विना निश्चळ ज रहे छे, तेवी रीते जे साधु रहे तेनुं जे मरण ते पादपोपगमन मरण कहेवाय छे. ( ९ ) ।
सूक्ष्म पराय गुणस्थानवाळो उपशमक अथवा क्षपक एम वे प्रकारनो होय छे, ते सूक्ष्म लोभ कषायनी किट्टिकाने वेदनार भगवान- पूज्य एवा साधु सूक्ष्मसंपरायना भावमां ( परिणाममां ) वर्तता एटले ते ज गुणस्थानकमां रहेला होय ते समजवा. पण अतीत के अनागत सूक्ष्मसंपरायना परिणामवाळा न समजवा. ते एक सो ने वीश प्रकृतिमांथी सतर कर्मप्रकृतिने बांधे छे, बाकीनी (१०३ ) कर्मप्रकृतिओने बांधता नथी; केमके पूर्व पूर्वना गुणस्थानकोमां बंधने आश्रीने ते प्रकृतिओ विच्छेद पामी छे. तथा वळी आ कहेली सत्तर प्रकृतिमांथी पण एक सातवेदनीय प्रकृति उपशांतमोहादिक गुणस्थानको ने विषे बंधने आश्रीने प्राप्त थाय छे अने बाकीनी सोळ प्रकृतिओनो अहीं ज विच्छेद थाय छे. ते विषे कर्तुं छे के ज्ञान अने अंतरायनुं दशक ( ज्ञानावरणनी पांच अने अंतरायनी पांच मळीने दश प्रकृति ) १०, दर्शनावरणनी चार १४, उच्च गोत्र १५ अने यशकीर्ति १६, आ सोळ प्रकृतिओ सूक्ष्म कषाय (संपरायगुणस्थान) ने विषे विच्छेद पामे छे अर्थात् सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानकथी आगळ तेनो बंध नथी. (१०) ॥
साम विगेरे १७ विमानोनां नामो आपेला छे ( ८ ) ॥ सूत्र- १७ ॥