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________________ थयेल न होय, अथवा ते पार्श्वस्थादिक होय, अथवा तो स्त्री होय, तेने (आ सर्वने अथवा तेमांथी कोइने पण ) पोते वाचनादिक करे (आपे) तो ते ते ज प्रमाणे त्रण वार (प्रायश्चित्त लीधा) पछी असंभोग्य थाय छे (२). तथा भक्तपानना विषयमां उपधि प्रमाणे जाणवु. विशेष ए के त्यां (उपधि द्वारमा) परिकर्म अने परिभोग कह्या हता तेने बदले अहीं भोजन (जमवू) अने दान (आप) ए वे कहेवा (३). तथा 'अंजलीपग्गहे त्ति य'-अहीं ज्या ज्यां इति शब्द लख्या छ ते सर्व उपदर्शनना अर्थवाळा अने च शब्द लख्या छे ते सर्वे समुच्चयना अर्थवाळा छे एम जाणवू. अहीं अंजलिप्रग्रह-हाथ जोडवा एम लख्यु छे, तेना उपलक्षणथकी वंदनादिक पण जाणी लेवा. ते आ प्रमाणे सांभोगिक के अन्य सांभोगिक संविग्न( साधु )ने पोते वंदन करे, हाथ जोडे, क्षमाश्रमणने नमस्कार छ एम बोले, तथा आलोचनाने माटे, सूत्रने माटे अने अर्थने माटे आसन पाथरे, आ सर्वने करनार पोते शुद्ध छे, पण आ सर्व पार्श्वस्थादिकने करे तो उपर प्रमाणे (त्रण वार प्रायश्चित्त ग्रहण करतो सतो ) संभोग्य अने ( त्यारपछी ) असंभोग्य जाणवा (४). तथा 'दायणे य' दान (शिष्यगण बीजाने सोपवो ते ) तेमां एक सांभोगिक पोते पोताना ज सांभोगिकने शिष्यनो गण सोंपे अथवा तो ते सांभोगिक ते शिष्यगणने वस्त्रादिक उपग्रह आपवामां असमर्थ होय तो अन्य सांभोगिकने पोतानो शिष्यगण सोंपे, तो ते शुद्ध छे; परंतु कारण विना विसंभोगिकने के पार्श्वस्थादिकने के साध्वीने ते शिष्यगण सोंपे तो ते पूर्वनी जेम ज संभोग्य अने असंभोग्य थाय छे. (५). तथा 'निकाए अ' निकाचन एटले छंदन अर्थात् निमंत्रण करवू ते. तेमांशय्या, उपधि अने आहारवडे तथा शिष्यगण सोंपवावडे तथा स्वाध्यायवडे सांभोगिक साधु पोताना सांभोगिक साधुने निमंत्रण करे तो ते शुद्ध छे. शेष Is -
SR No.010536
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJethalal Haribhai
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1939
Total Pages681
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size44 MB
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