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श्री
समवायाङ्ग
सूत्र ॥
॥ ३१ ॥
अभिजित नक्षत्र साधक व मुहूर्त्त सुधी चंद्रनी साथे योग (संबंध ) ने पामे छे ( १ ) | अभिजित् विगेरे नव नक्षत्रो चंद्रन साथै उत्तर दिशामां योगने पामे छे, ते नक्षत्रो आ छे - अभिजित्, श्रवण, यावत् भरणी ( २ ) । आ रत्नप्रभा पृथ्वीना अति सरखा अने रमणीय भूमिभागथकी नव सो योजन ऊर्ध्वलोकमां एटले उपला भागमां (नेत्र सो योजन ऊंचे जइए त्यांसुधी ) ताराओ चारने चरे छे ( चाले छे-गति करे छे रहेला छे ) ( ३ ) ॥
जंबूद्वीप नामना द्वीपमा ( लवणसमुद्रमांथी ) नव योजन प्रमाणवाळा मत्स्यो प्रवेश करता हता, ( प्रवेश करे छे प्रवेश कर ) ( १ ) | विजयद्वारनी एक एक बाहाने विषे ( वे पडखे ) नव नव भौम एटले नगरो ( भूमिगृहो ) कला छे ( २ ) । वानव्यंतर देवोनी सुधर्मा नामनी सभाओ नव योजन ऊर्ध्व ऊंची कही छे ( ३ ) । दर्शनावरणीय कर्म व उत्तरप्रकृतिओ कही छे, ते आ प्रमाणे- निद्रा, प्रचला, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानद्धिं चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण अने केवळदर्शनावरण (४) ॥
आ रत्नप्रभा पृथ्वीने विषे केटलाक नारकीओनी नव पल्योपमनी स्थिति कही छे (१) । चोथी पृथ्वीने विषे केटलाक नारीओनी नव सागरोपमनी स्थिति कही छे (२) । केटलाक असुरकुमार देवोनी नव पल्योपमनी स्थिति कही छे (३) । सौधर्म ने ईशान कल्पमां केटलाक देवोनी नव पल्योपमनी स्थिति कही छे (४) । ब्रह्मलोक कल्पने विषे केटलाक देवोनी नव सागरोपमनी स्थिति कही छे (५) । जे देवो पक्ष्म, सुपक्ष्म, पक्ष्मावर्त, पक्ष्मप्रभ, पक्ष्मकांत, पक्ष्मवर्ण, पक्ष्मलेश्य, पक्ष्म११. ज्योतिषचक्र समभूतलाथी सात सो नेवुथी नव सो योजन सुधीमां ज छे.
चोथुं अंग ॥
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