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I ध्वज, पक्ष्मशृंग, पक्ष्मशिष्ट, पक्ष्मकूट, पक्ष्मोत्तरावतंसक, सूर्य, सुसूर्य, सूर्यावर्त, सूर्यप्रभ, सूर्यकांत, सूर्यवर्ण, सूर्यIN लेश्य, सूर्यध्वज, सूर्यशृंग, सूर्यशिष्ट, सूर्यकूट, सूर्योत्तरावतंसक, रुचिर, रुचिरावर्त, रुचिरप्रभ, रुचिरकांत, रुचिरवर्ण, रुचिर
-लेश्य, रुचिरध्वज, रुचिरशृंग, रुचिरशिष्ट, रुचिरकूट, रुचिरोत्तरावतंसक नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय ते देवोनी नव सागरोपमनी स्थिति कही छे (६)॥
ते देवो नव अर्धमासने अंते ( नव पखवाडिये ) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे (१)। ते देवोने नव हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२) । एवा केटलाक भवसिद्धिक ( भव्य ) जीवो छ के जेओ | नव भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे यावत् सर्व दुःखनो अंत करशे (३)॥ ___टीकार्थ-आ नव स्थानकनुं सूत्र पण सुगम छे. विशेष ए के-अहीं ब्रह्मगुप्ति, ते( ब्रह्म )नी अगुप्ति, ब्रह्मचर्य अध्ययन अने पार्श्वनाथ संबंधी चार सूत्रो छे, ज्योतिष्कने माटे त्रण सूत्रो छे, मत्स्य, नगर, सभा अने दर्शनावरणने माटे चार सूत्रो छे, तथा स्थित्यादिकने अंगे ते ज प्रमाणे एटले स्थितिना संबंधमा छ अने उच्छ्वासादिकना त्रण सूत्रो छे।।
तेमां ब्रह्मचर्यनी गुप्तिओ एटले मैथुननी विरतिने रक्षण करवाना उपायो (ते नव गुप्तिओ आ प्रमाणे)-स्त्री, पशु अने नपुंसकवडे संसक्त एटले व्याप्त-सहित एवा शय्या आसनने एटले शयन अने आसनने अथवा वसति ( उपाश्रय ) अने आसनने सेवनार न थाय ( सेवे नहीं) ए पहेली गुप्ति १, स्त्रीनी कथा कहेनार न थाय. ए बीजी २. स्वीओना समहने सेवनार एटले उपासक (निरंतर परिचयवाळो ) न थाय, ए त्रीजी ३, स्त्रीओना नेत्र नासिका विगेरे चित्तनुं आकर्षण