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देवा व वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पज्जइ २ | संतेगइया भवसिद्धिया जीवा जे नवहिं भवग्गणेहिं सिज्झिस्संति जाव सवदुक्खाणमंतं करिस्संति ३ ॥ सूत्रं - ९ ॥
मूलार्थ - ब्रह्मचर्यनी गुप्तिओ नव कही छे, ते आ प्रमाणे- स्त्री, पशु अने नपुंसकना संबंधवाळा शय्या अने आसनने सेवनार न था - सेवे नहीं १, स्त्रीओनी कथा कहेनार थाय नहीं कहे नहीं २, स्त्रीओना समूहने सेवनार थाय नहीं ३, ओना मनोहर अने मनोरम इंद्रियोने ( अंगोपांगोने ) जोनार अने ध्यान करनार थाय नहीं ४, प्रणीत ( घी-दूधवाळा ) रसनुं भोजन करनार थाय नहीं ५, प्रमाणथी अधिक पान - भोजननो आहार करनार थाय नहीं ६, पूर्वे स्त्रीनी साथे करेला मैथुन के बीज क्रीडाने स्मरण करनार थाय नहीं ७, शब्दानुपाती ( कामने उद्दीपन करनारा शब्दने अनुसरनारो ) न था, एज रीते रूपानुपाती न थाय, गंधानुपाती न थाय, रसानुपाती न थाय, स्पर्शानुपाती न थाय अने श्लोकानुपाती ( पोतानी कोई श्लाघा करे तेने अनुसरनार अथवा पोते पोतानी श्लाघाने अनुसरनार ) न थाय ८, तथा साता - सुखना प्रतिबंधवाळो न थाय ९ ( १ ) । ब्रह्मचर्यनी अगुप्तिओ पण नव कही छे, ते आ प्रमाणे—स्त्री, पशु अने नपुंसकना संबंधवाळा शय्या अने आसनने सेवनार थाय, यावत् साता - सुखना प्रतिबंधवाळो थाय ( २ ) | नव ब्रह्मचर्य (ना अध्ययनो) कला छे, ते आ प्रमाणे –“ शास्त्रपरिज्ञा, लोकविजय, शीतोष्णीय, सम्यक्त्व, यावंती, धुत, विमोहायण, उपधानश्रुत अने महापरिज्ञा ॥ १ ॥ ” (३) । पुरुषोना मध्यमां आदेयनामकर्मवाळा ( मानवा लायक ) श्रीपार्श्वनाथ अरिहंत नव रत्न (हाथ) ऊर्ध्व ऊंचाइपणे हता ( ४ ) ॥
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