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समवाय १४॥
समवायाङ्ग
पत्र॥
चोधू अंग
परिपूर्ण न थइ होय तेवा, आ एक ग्राम-समूह थयो. एज प्रमाणे आ सूक्ष्म पर्याप्ता एटले ते ज प्रमाणे (पर्याप्त नाम कर्मना उदयने लीधे) पोतानी पर्याप्ति परिपूर्ण थइ होय तेवा, आ बीजो ग्राम थयो. ए ज प्रमाणे बादर एटले बादर नामकर्मना उदयने लीधे बादर एवा पृथ्व्यादि एकेंद्रियो, ते पण पर्याप्त अने अपर्याप्त भेदने लीधे वे प्रकारना जाणवा. एज प्रमाणे
द्वींद्रियादिक पण जाणवा. विशेष ए के-पंचेंद्रिय वे प्रकारना छे, एक संज्ञी एटले मनपर्याप्ति सहित अने बीजा असंज्ञी एटले | मनपर्याप्ति रहित (१) तथा 'उप्पायपुवे' इत्यादिक त्रण गाथा छे. तेमां प्रथम उत्पादपूर्व एटले जेमां उत्पत्तिने आश्रीने द्रव्यो तथा पर्यायोनी प्ररूपणा करी छे ते उत्पाद पूर्व कहेवाय छे, जेमां ते द्रव्यादिकना ज अग्र एटले परिमाणने आश्रीने में तेनी प्ररूपणा करी छे ते अग्राणीय पूर्व कहेवाय छे, 'तइयं च वीरियं पुव्वं'-जेमां जीवादिकनुं वीर्य कहेवामां आवेल छ ते वीर्यप्रवाद नामनुं त्रीशुं पूर्व छ, 'अत्थीनत्थिपवायं'-जे (वस्तु) जे प्रकारे लोकमां छे अने जे वस्तु जे प्रकारे लोकमां नथी, ते ( वस्तु ) ते प्रमाणे जेमां कही छे ते अस्तिनास्तिप्रवाद नामर्नु (४) पूर्व छे, 'तत्तो नाणप्पवायं च'-जेमां मत्यादिक ज्ञान तेना स्वरूप अने भेदो विगेरे सहित कहेवामां आवेल छे ते ज्ञानप्रवाद (५)पूर्व छ, 'सचप्पवायपुव्वं' जेमां सत्य एटले संयम अथवा सत्य वचन भेद सहित अने प्रतिपक्ष सहित कहेवामां आवेल छे ते सत्यप्रवाद (६) पूर्व छ, त्यारपछी 'आयप्पवायपुव्वं '-जेमां आत्मा एटले जीव अनेक नयोबडे कहेवामां आवेल छे ते आत्मप्रवाद (७) पूर्व छे, जेमा ज्ञानावरणादिक कर्मोनु स्वरूप कहेवामां आवेल छे ते कर्मप्रवाद (८) पूर्व छे, 'पचक्खाणं भवे नवमं' जेमा प्रत्याख्याननुं स्वरूप वर्णन करेल छे ते प्रत्याख्यानप्रवाद नामर्नु नवमुं (९) पूर्व छे, 'विजाअणुप्पवायं'
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