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सहस्सा पन्नत्ता । ५ । पढमपंचमछट्ठीसत्तमासु चउसु पुढवीसु चोत्तीसं निरयावाससयसहस्सा समवाय समवायाङ्ग पन्नत्ता।६॥ सूत्रम्-३४॥
३४॥ मूलार्थ:-तीर्थकरना चोत्रीश अतिशयो कह्या छे, ते आ प्रमाणे-मस्तकना केश, दाढी-मुछ, शरीरना रुंवाडा अने - चोथु अंग नख अवस्थित रहे-मर्यादामा ज रहे ( वधे नहीं) १, तेमनां शरीर रोग रहित अने मेल रहित होय २, मांस अने रुधिर
गायना दूध जेवा श्वेत होय ३, तेमना उच्छवास निःश्वास कमळ अने नीलोत्पलनी जेवा सुगंधी होय ४, आहार-नीहार ॥१२५॥
मांस(चम)चक्षुवाळा जोइ न शके तेम गुप्त होय छे ५, धर्मचक्र प्रभुनी आगळ आकाशमां चाले छे ६, आकाशमा रहेलु (चालतुं) छत्र होय छे ७, आकाशमां रहेला श्वेत उत्तम चामरो होय छे ८, आकाश जेवा स्वच्छ स्फटिकमणिमय पादपीठा
सहित सिंहासन होय छे (ते पण आकाशमां साथे चाले छे) ९, हजारो लघु पताकाओ सहित सुशोभित इंद्रध्वज N तेमनी आगळ चाले छे १०, ज्यां ज्यां अरिहंत भगवान ऊभा रहे छ अथवा वेसे छे त्यां त्यां तत्काळ पत्र सहित तथा पुष्पा
अने पल्लवे करीने युक्त, छत्र सहित, ध्वजा संहित, घंटा सहित अने पताका सहित श्रेष्ठ अशोक वृक्ष होय छे ११, काइका IM पाछळना भागमा मस्तकना प्रदेशमा प्रभामंडळ (भामंडळ) होय छे, के जे अंधकारने विपे पण दशे दिशाओ प्रकाशित करे छ THI १२, बहु सरखो अने रमणीय भूमिभाग होय छे १३, कांटाओ नीचा मुखवाळा होय छे १४, विपरीत ऋतुओ सुखे स्पर्श
कराय तेवी थाय छे १५, शीतळ, सुख स्पर्शवाळो अने सुगंधी वायु चोतरफ एक योजनप्रमाण पृथ्वीने स्वच्छ करे छ १६, । A उचित जळबिंदुनी वृष्टिवडे मेघ रज अने रेणुने समावी दे छे १७, जळ अने स्थळमां उत्पन्न थवेला, भास्वर, घणा, नीचा