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समवाय २१॥
समवायाङ्ग
-: चोथु अंग
. ते देवो एकवीश अर्धमासे (पखवाडीए) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे (१)। ते देवोने एकवीश हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२)। एवा केटलाक भवसिद्धिक (भव्य) जीवो छे के जेओ एकवीश भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे, अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे. (३)॥
टीकार्थ:-हवे एकवीशम स्थानक कहे छे. तेमां स्थितिसूत्र सिवायना (पहेला) चार सूत्रो सुगम छे. विशेष ए छ के-शवल एटले कावरचित्रु चारित्र जे क्रियाविशेषवडे थाय ते शबल क्रिया कहेवाय छे, तेना योगथी (संबंधथी) साधु पण शवल कहेवाय छे. ते आ प्रमाणे छे-तेमा हस्तकर्म एटले वेदनो विशेष प्रकारनो विकार, तेने करतो अथवा उपलक्षणथी करावतो एवो साधु शबल थाय छ १, एज प्रमाणे अतिक्रमादिक त्रण प्रकारे मैथुनने सेवतो पण शवल थाय छ २, तथा रात्रिभोजन एटले दिवसे ग्रहण करेलं दिवसे खाई इत्यादिक चार भांगे अथवा अतिक्रमादिकवडे भोजन करनार शवल थाय छे ३, तथा आधाकर्म खानार शबल थाय छे ४, सागारिक एटले स्थान आपनार, तेनो पिंड खानार शवल थाय छ ५, औदेशिक, क्रीत अने आहुत्य आपेल आहारने खानार तथा उपलक्षणथी पामिच्च, आच्छेद्य अने अनिसृष्टनुं ग्रहण पण अहीं जाणवु (अर्थात् आवो आहार खानार शबल थाय छे) ६, अहीं मूळ सूत्रमा 'जाव-यावत् ' लख्यो छे, तेनाथी ग्रहण करेला पदोनो अर्थ आ प्रमाणे जाणवो.-(वारंवार प्रत्याख्यान करीने अशनादिक खानार शवल थाय छे ७,
१ अतिक्रम, व्यतिक्रम अने, अतिचार ए त्रणवडे मैथुन सेवतां चारित्र शबल थाय छे अने अनाचार सेवतां चारित्र नष्ट थाय छे.. .
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