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________________ श्री समवायाङ्ग ..सूत्र॥ पोएं अंग ॥३०७|| वण्णओ भाणियव्यो जाव नीलगपीतगवसणा दुवे दुवे रामकेसवा भायरो भविस्संति, तं जहा- भरतमां भावी नंदे य नंदमित्ते दीहबाहू तहा महावाहू । अइबले महाबले बलभद्दे य सत्तमे ॥ ८३ ॥ दुविट्ठ चक्रवय तिविटु य आगमिस्साण विण्हुणो । जयंते विजये भद्दे सुप्पभे य सुदंसणे । आणंदे नंदणे यादि। पउमे संकरिसणे य अपच्छिमे ॥ ८४॥ - एएसि णं नवण्हं बलदेववासुदेवाणं पुव्वभविया णव नामधेज्जा भविस्संति, नव धम्मायरिया भविस्संति, नव नियाणभूमीओ भविस्संति, नव नियाणकारणा भविस्संति, नव पडिसत्तू भविस्संति, तं जहा-तिलए य लोहजंघे वइरजंघे य केसरी पहराए । अपराइए य भीमे महाभीमे य सुग्गीवे ॥ ८५ ॥ एए खल्लु पडिसत्तू कित्तीपुरिसाण वासुदेवाणं । सव्वे वि चक्कजोही हम्मिहिंति सचक्केहि ॥ ८६ ॥.. मूलार्थ:--जंबूद्वीप नामना द्वीपने विपे भरतक्षेत्रने विषे आवती उत्सर्पिणीमां नव बळदेव अने नव वासुदेवना नव पिता थशे, नव वासुदेवनी नव माता थशे, नव बळदेवनी नव माता थशे, नव दशारमंडळो थशे, ते आ प्रमाणे--उत्तम पुरुष,
SR No.010536
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJethalal Haribhai
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1939
Total Pages681
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size44 MB
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