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________________ समवायाङ्ग सूत्र ॥ अंग ॥ ८४ ॥ कल्पनेविषे देवोनी उत्कृष्ट स्थिति बावीश सागरोपमनी कही छे ( ६ ) | नव ग्रैवेयकमां सौनी नीचेना प्रथम हेहिम हम नामवाळा ग्रैवेयकना देवोनी जघन्य स्थिति बावीश सागरोपमनी कही छे ( ७ ) । जे देवों महित, विश्रुत, विमल, प्रभास, वनमाल अने अच्युतावतंसक नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय ते देवोनी उत्कृष्ट स्थिति बावीश सागरोपमनी कही छे ( ८ ) ॥ _ते देव बावीश अर्धमासे ( पखवाडीए) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे ( १ ) । ते देवोने बावीस हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे ( २ ) । एवा केटलाक भवसिद्धिक जीवो छे के जेओ बावीश भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे ( ३ ) ॥ टीकार्थ :- बावीशमा स्थाननो अर्थ प्रसिद्ध ज छे. विशेष ए छे के — स्थितिनां सूत्रोनी पहेलां छ सूत्रो आपेलां छे. मां मार्गथी भ्रष्ट न थवा माटे अने कर्मनी निर्जरा करवा माटे जे अत्यंत सहन कराय ते परीपह कहेवाय छे, ते परीषहो बावीश छे. तेमां ' दिगिंछ त्ति ' - बुभुक्षा ( क्षुधा ) ते रूपी जे परीपह ते दिगिंछा परीषह कहेवाय छे, तेनी मर्यादा उल्लंघन कर्याविना जे सहन कर ते परीपंह कहेवाय छे, ते रीते वीजे ठेकाणे पण जाणवुं १, तथा पिपासा एटले तृपा २, शीत अने उष्ण ए वे प्रसिद्ध छे ३-४, तथा दंश ( डांस ) अने मंशक ( मच्छर ) ए वे चतुरिंद्रिय छे; तेमां दंश ए मोटा होय छे अने मशक नाना होय छे एटलो ते बन्नेमा विशेष छे, अथवा दंश एटले भक्षण ( करडवु ) ते छे प्रधान - मुख्य जेने एवा जे मशक ते दंशमशक कहेवाय छे. आ कहेवाथी जू, मांकड, मंकोडा, माखी विगेरे उपलक्षणथी जाणवा ५, समवाय २२ ॥ ॥ ८४ ॥
SR No.010536
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJethalal Haribhai
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1939
Total Pages681
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size44 MB
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