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मूलार्थः-आ जगतमां श्रमण भगवान महावीरस्वामी के जे श्रुतधर्मनी आदिने करनारा, तीर्थने करनारा, पोतानी मेळे बोध पामेला, पुरुषोने विषे उत्तम, पुरुष छतां सिंह जेवा, पुरुष छतां श्रेष्ठ पुंडरीक जेवा, पुरुष छतां श्रेष्ठ गंधहस्ती जेवा, लोकने विषे उत्तम, लोकना नाथ, लोकने हितकारक, लोकने प्रदीप समान, लोकने विपे प्रद्योत करनारा, अभयने आपनार, चक्षु ( श्रुतज्ञान ) ने आपनार, सम्यग्दर्शनादिक मार्गने आपनार, शरणने आपनार, जीवनने आपनार अथवा जीवोने विषे दयावाळा, धर्मने आपनार, धर्मनो उपदेश करनार, धर्मना नायक, धर्मना सारथि, धर्मनाला विषयमा चारे दिशाना श्रेष्ठ चक्रवर्ती समान, अस्खलित अने श्रेष्ठ एवा ज्ञान तथा दर्शनने धारण करनार, छद्मस्थपणाथी रहित थयेला, राग-द्वेषादिकने जीतनार, जीताडनार, संसारसमुद्रने तरनार, बीजाने तारनार, जीवादिक तत्त्वने जाणनार, वीजा जीवोने तत्व जणावनार, पोते मुक्त थयेला, बीजाने मुक्त करनार, सर्वज्ञ अने सर्वदर्शी तथा सुखकारक, अचलित, रोग रहित, अंत रहित, क्षय रहित, व्याबाधा रहित अने फरीथी भवमा आवq न पडे तेवा सिद्धिगति नामना स्थानने प्राप्त करवानी इच्छावाळा ते भगवाने आ द्वादशांगीरूप गणिपिटक प्ररूप्यु छे. तेना नाम आ प्रमाणे.--आचारांग १, सूत्रकृतांग २, स्थानांग ३, समवायांग ४, विवाहप्रज्ञप्ति ( भगवती) ५, ज्ञाताधर्मकथा ६, उपासकदशा ७, अंतकृत-! दशा ८, अनुत्तरोपपातिक दशा ९, प्रश्नव्याकरण १०, विपाकश्रुत ११ अने दृष्टिवाद १२. तेमां जे ते (प्रसिद्ध) चोथु अंग समवाय नामर्नु कयुं छे, तेनो आ अर्थ कह्यो छे, ते आ प्रमाणे
टीकार्थ:--आ वाचना मोटी होवाथी तेनी व्याख्या करीए छीए. आ बीजुं सूत्र संग्रहरूप प्रथम सूत्रना ज विस्तार
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