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________________ चोथं अंग समवायाङ्ग रूपे जाणवू. आनी व्याख्या आ प्रमाणे छे.--'इह' आ लोकमां अथवा निग्रंथना तीर्थमां (जिनशासनमां ). " खलु' शब्द वाक्यनी शोभा माटे छे, अथवा निश्चय अर्थमां छे, तेथी आ ज जिनशासनमां, पण शाक्यादिक अन्य शासनमां नहीं. 'श्रमण' एटले तपस्या करनार. आ चरमजिनेश्वरनु साथे ज उत्पन्न थयेलं बीजु नाम छे. ते विषे का छे के-- "सहसंमतिए करीने एटले साथे ज संमतिपणाए करीने 'श्रमण' एबुं नाम थयुं छे." भगवाननो अर्थ प्रथम (सूत्रमां) कह्या प्रमाणे जाणवो. मोटा एवा वीर ते महावीर कहेवाय छे. आ नाम मोटा साविकपणाए करीने प्राणनो नाश करवामां समर्थ एवा परीपहो अने उपसर्गोप्राप्त थया छतां पण कंपायमान नहीं थवाथी देवेंद्रोए प्रसिद्ध कर्यु छे. ते विपे कमु छ के-- "भयंकर भयथी पण अचलित, परीपहो अने उपसर्गो प्राप्त थया छतां पण क्षमागुण धारण करवामां समर्थ अने प्रतिज्ञाना पार पामनार होवाथी देवोए तेमनुं 'महावीर' एg नाम कयु छे." ते भगवान केवा छे ? ते उपर तेमनां विशेषणो आपे छे--'आदौ करोति इत्येवं शीलः 'प्रथम आचारादिक ग्रंथरूप श्रुतधर्म ने तेनो अर्थ कहेनार होवाथी रचवाना स्वभाववाळा, तथा प्राणीओ जेना वडे संसारसागरने तरे छे ते तीर्थ एटले प्रवचन कहेवाय छे. ते प्रवचनथी भिन्न नहीं होवाथी, अहीं चतुर्विध संघज तीर्थ छे, ते तीर्थने करवाना स्वभाववाळा होवाथी भगवान तीर्थंकर कहेवाय छे. ते तीर्थंकर वीजाना उपदेशथी वोध पाम्या छे एम नथी, तेथी कहे छे के-'स्वयंसंवुद्ध' बीजाना उपदेश विना पोतानी मेळे ज हेय-उपादेय वस्तुतत्त्चने सम्यक् प्रकारे जाणनारा आ भगवाननुं पुरुषोत्तमपणुं होवाथी सामान्य मनुष्यनी जेवू स्वयंसंबुद्धपणुं संभवतुं नथी, तेथी कहे छ के-पुरुषोना मध्ये ते ते प्रकारना अतिशय रूपादिकवडे सर्वथी उपर वर्तनार ॥३ ॥
SR No.010536
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJethalal Haribhai
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1939
Total Pages681
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size44 MB
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