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'समवाय २१॥
समवायाङ्ग
चोधू अंग
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अंदर त्रण वार उदकलेप करतो शबल थाय छे ९, एक मासमांत्रण वार मायाने सेवन करतो शबल थाय छ १०, राजपिंडर्नु भोजन करतो शबल थाय छ ११, आकुट्टिवडे प्राणातिपातने करतो शवल थाय छे १२, आकुट्टिवडे मृषावादने बोलतो शवल थाय छे १३, आकुट्टिवडे अदत्तादानने ग्रहण करतो शबल थाय छे १४, आकुट्टिवडे आंतरा रहित पृथ्वी उपर स्थान के शयन विगेरे करतो शबल थाय छे १५, ए ज प्रमाणे आकुट्टिवडे सचित्त पृथ्वी उपर एज प्रमाणे आकुट्टिवडे सचित्त शिला उपर अथवा घुणना आवासवाळा काष्ठ उपर स्थान, शय्या के निषद्याने करतो शबल थाय छे १६, जीव सहित, प्राण सहित, बीज सहित, हरित सहित, उत्तिंग सहित तथा पनक, दक ( उदक) माटी अने करोळीआनी जाळवाळी तेवा प्रकारनी भूमि उपर स्थान, शय्या के निषद्याने करतो शबल थाय छे १७, आकुट्टिवडे मूळर्नु भोजन, कंदमुं भोजन, त्वचा (छाल)नु भोजन, प्रवाल, भोजन, पुष्पर्नु भोजन, फळर्नु भोजन के हरितनुं भोजन करतो शबल थाय छे १८, एक वर्षनी अंदर दश वार उदकलेप करतो शबल थाय छे १९, एक वर्षनी अंदर दश वार मायास्थानने सेवतो शबल थाय छे २०, वारंवार शीतोदकवाळा जळथी खरडायेला हाथवडे अशन, पान, खादिम, स्वादिमने ग्रहण करी भोजन करतो साधु शवल थाय छे २१. (१)।
जेनी (मोहनीय कमनी) सात प्रकृतिओ क्षय पामी छे एवा निवृत्तिबादर (आठमा) गुणस्थाने रहेला साधुने मोहनीयकर्मनी : १ नाभिसुधी जळमा प्रवेश करवो ते. २ जाणी जोइने, इरादापूर्वक, पासे जइने एवो एवो अर्थ आकुट्टि शब्दनो थाय छे. । ३ पृथ्वी पर वस्त्र विगेरेनुं अंतर राख्या विना.