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________________ विपे केटलाक देवोनी तेर सागरोपमनी स्थिति कही छे (५) जे देवो वज्र, सुवज्र, वज्रावर्त, वज्रप्रभ, वज्रकांत, वज्रवर्ण, समवाय वजलेश्य, वज्ररूप, वज्रशृंग, वज्रसृष्ट, वज्रकूट, वीतरावतंसक, वइर, वइरावर्त, वइरप्रभ, वइरकांत, वइरवर्ण, चइरलेश्य, समवायाङ्ग १३॥ वहररूप, वइरशृंग, वइरसृष्ट, वइरकूट, वइरोत्तरावतंसक, लोक, लोकावर्त, लोकप्रभ, लोककांत, लोकवर्ण, लोकलेश्य, लोकरूप, चोधू अंगालोकशृंग, लोकसृष्ट, लोककूट, लोकोत्तरावतंसक नामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया होय, ते देवोनी उत्कृष्ट तेर all सागरोपमनी स्थिति कही छे (६)॥ ... ते देवो तेर अर्धमासे (तेर पखवाडीए) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छास ले छे, निःश्वास ले छे (१)। ते देवोने तेर हजार वर्षे आहार करवानी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२)। एवा केटलाक भवसिद्धिक ( भव्य) जीवो छे के जेओ तेर भव ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे, अर्थात् सर्व दुःखनो अंत करशे (३)॥ टीकार्थ:-आ तेर स्थानकना सूत्रमा कांइक लखे छे-अहीं स्थितिना (६) सूत्रोनी पहेलां आठ सूत्रो छे. तेमां करवू ते क्रिया एटले कर्मबंधना कारणभूत चेष्टा, ते( क्रिया )नां जे स्थानो एटले भेदो अर्थात् पर्यायो, ते क्रियास्थानो कहेवाय छे. तेमां अर्थने माटे एटले पोताना शरीर, स्वजन अने धर्मादिकना प्रयोजन माटे जे दंड करवो एटले त्रस-स्थावर जीवोनी हिंसा करवी, ते अर्थदंड कहेवाय छ, आ पहेलु क्रियास्थान थयुं १, आनाथी जे विलक्षण एटले प्रयोजन विना जे दंड करवो ( हिंसा करवी) ते अनर्थदड कहेवाय छे २, तथा हिंसाने आश्रीने एटले आ शत्रु विगेरेए मारी हिंसा करी हती, हिंसा करे छे अथवा हिंसा करशे एम धारीने जे तेनो दंड एटले विनाश करवो ते हिंसादंडा ॥५०॥
SR No.010536
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJethalal Haribhai
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1939
Total Pages681
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size44 MB
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