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असुरगणाणं आहारुस्सासलेसाआवाससंखआययप्पमाणउववायचवणओगाहणोहिवेयणविहाण। उवओगजोगइंदियकसाय, विविहा य जीवजोणी, विक्खंभुस्सेहपरिरयप्पमाणं विहिविसेसा य | मंदरादीणं महीधराणं, कुलगरतित्थगरगणहराणं सम्मत्तभरहाहिवाण चक्कीणं चेव चकहरहल
हराण य, वासाण य निगमा य समाए। एए अण्णे य एवमाइ एत्थ वित्थरेणं अत्था समाहिज्जति। NI समवायस्स णं परित्ता वायणा जाव से णं अंगट्टयाए चउत्थे अंगे एगे अज्झयणे एगे सुयक्खंधे
एगे उद्देसणकाले एगे समुद्देसणकाले एगे चउयाले पदसतसहस्से पदग्गेणं पन्नत्ते । संखेज्जाणि अक्खराणि जाव चरणकरणपरूवणया आघविजंति । से तं समाए ॥ ४॥ सूत्रम्-१३९॥ ___मूलार्थ:-ते समवाय कयो छे ? समवायने विषे स्वसमय सूचवन कराय छे, परसमय सूचवन कराय छे, स्वसमय परसमय सूचवन कराय छे यावत् लोक अलोक सूचवन कराय छ । समवायने विषे एकथी आरंभीने केटलाक पदार्थोनी एक अधिकवाळी अने अनेक अधिकवाळी वृद्धि कहेवाय छे, तदा द्वादशांगीरूप गणिपिटकना पर्यवोर्नु परिमाण एटले सो स्थानकनुं परिमाण कहेवाय छे, तथा चार प्रकारना विस्तारवाळा अने जगतना जीवोने हितकारक भगवान श्रुतज्ञाननो संक्षेपथी समवतार कहेवाय छे, तेमा विविध प्रकारना भेदवाळा जीव अने अंजीव विस्तारथी वर्णव्या छे, वीजा