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श्री
समवाय १९॥
समवायाङ्ग
चोधू अंग ॥७४॥
ओगणीश सागरोपमनी कही छे (७)॥ ..
ते देवो ओगणीश अर्धमासे (पखवाडीए) आन ले छे, प्राण ले छे, एटले उच्छ्वास ले छे, निःश्वास ले छे (१)। ते देवोने ओगणीश हजार वर्षे आहारनी इच्छा उत्पन्न थाय छे (२)। एवा केटलाक भवसिद्धिक ( भव्य) जीवो छे के जेओ ओगणीश भवने ग्रहण करवावडे सिद्ध थशे, बुद्ध थशे, मुक्त थशे, परिनिर्वाण पामशे, अर्थात् सर्व दुःखना अंतने करशे (३)॥
टीकार्थः-हवे ओगणीशU स्थानक कहे छे-तेमां स्थितिनां सूत्रनी पहेला पांच सूत्रो कयां छे अने ते सुगम छे. विशेष ए के-ज्ञात एटले दृष्टांत, तेने कहेनासं जे अध्ययनो ते ज्ञाताध्ययन कहेवाय छे. ते छठा अंगना पहेला श्रुतस्कंधमां रहेला छे. ते ओगणीशनां नामो आपवा माटे 'उक्खित्त' इत्यादि अढी गाथा कही छे. आ विषेनी सर्व हकीकत छठा अंगनी व्याख्याथी जाणी लेवी (१), तथा 'जंबूद्दीवेणं' ए सूत्रनो भावार्थ आ प्रमाणे छे-जंबूद्वीपना बन्ने सूर्यो पोताना स्थानथी उपर एक सो योजन अने नीचे अढार सो योजन तपे छे-प्रकाश आपे छे. तेमां समभूतलथी आठ सो योजन सूर्य ऊंचो छे ते ८०० अने चाकीना दश सो (१०००) योजन एटले पश्चिम महाविदेह क्षेत्रमा जगतीनी पासेना प्रदेशमा एटलं नीचाण छे; कारण के जंबुद्वीपना पश्चिम महाविदेह क्षेत्रमा शरूआतथी ज नीचे नीचे थतुं (ढाळवाडं थतुं) क्षेत्र छेवटे विजयद्वारनी पासे अधोलोकना प्रदेशमा प्राप्त थयुं छे' (ते नीचाण दश सो योजन जेटलुं छे); परंतु बीजा
१. एक हजार पैकी ९०० योजन तिलोकना ने १०० योजन अधोलोकना समजवाना छे.
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