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दस धम्मकहाणं वग्गा, तत्थ णं एगमेगाए धम्मकहाए पंच पंच अक्खाइयासयाई एगमेगाए अक्खाइयाए पंच पंच उवक्खाइयासयाइं एगमेगाए उवक्खाइयाए पंच पंच अक्खाइयउवक्खाइयासयाई, एवमेव सपुत्वावरेणं अध्धुढाओ अक्खाइयाकोडीओ भवंतीति मक्खायाओ, एगूणतीसं उद्देसणकाला एगूणतीसं समुद्देसणकाला संखजाइंपयसहस्साइं पयग्गेणं पण्णत्ता, संखेजा अक्खरा जाव चरणकरणपरूवणया आघविज्जंति । से तं णायाधम्मकहाओ ॥ ६॥ सूत्रम्-१४१ ॥ - मूलार्थ:-हवे कइ ते ज्ञाताधर्मकथा ? ज्ञाताधर्मकथाने विषे ज्ञाताना (श्रेणिकादिक दृष्टांतना) नगरो, उद्यानो, यक्षना चैत्यो, वनखंडो, राजाओ ५, मातापिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा (देशना), आ लोक अने परलोक संबंधी ऋद्धि विशेष १०, भोगनो त्याग, प्रव्रज्या ग्रहण, शास्त्रनुं ग्रहण (अभ्यास), तपोपधान, दीक्षापर्यायनो काळ १५, संलेखना, भात -पाणीना प्रत्याख्यान, पादपोगमन, देवलोकमां जg, त्यांथी चवीने उत्तम कुळमां जन्म २०, फरीथी बोधि(समकितनी प्राप्ति २१, तथा अंतक्रिया २२, आ बावीश स्थानो कहेवाय छे, यावत् ज्ञाताधर्मकथाने विषे विनय क्रियाने करनारा जिनेश्वरना उत्तम शासनमा प्रव्रजित थयेला छतां संयम(चारित्र)नी प्रतिज्ञा पाळवामा जे धृति, मति अने व्यवसाय (उद्यम) जोइए तेने विषे दुर्बळ होय १, नियमित तप अने उपधान तपरूपी रणसंग्राम अने दुर्धर भारवडे भग्न थयेला, अत्यंत अशक्त अने भग्न शरीरवाळा होय २, घोर परीषहोवडे पराभव पामेला अने असमर्थ छता परीपहोए वश करवाने आरंमेला अने