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जरा, मरण अने योनि ( जन्म ) रूपी क्षोभ पाम्युं छे चक्रवाळ जेमां एवा, सोळ कपायरूपी अत्यंत प्रचंड श्वापदो छे जेमां एवा आ अनादि अनंत संसारसमुद्रने परिमित करे छे, तथा जे प्रकारे देवसमूहनेविषे जवारूप आयुष्यने वांधे छे तथा जे प्रकारे देवगणना विमानना अनुपम सुखोने भोगवे छे, अने त्यांथी काळांतरे चवीने आज मनुष्यलोकमां आवीने विशेष प्रकारना (उत्तम) आयुष्य, शरीर, वर्ण, रूप, जाति, कुळ, जन्म, आरोग्य, बुद्धि अने मेधा, तथा विशेष प्रकारना मित्रजन, स्वजन, धन
धान्यना वैभव तथा समृद्धिनी सारवस्तुओना समुदाय, तथा घणा प्रकारना कामभोगथी उत्पन्न थयेला विशेष प्रकारना सुख उत्तम वा सुखविपाकने विषे कहेवाय छे। तथा अनुक्रमे अशुभ अने शुभ कर्मना निरंतर परंपराना संबंधवाळा घणा कारना विपाको आविपाकश्रुतने विषे भगवान जिनेश्वरे संवेगने उत्पन्न करवा माटे कहेला छे, ए विगेरे वीजा पण पदार्थों का छे. आ प्रमाणे घणा प्रकारनी पदार्थनी प्ररूपणा विस्तारथी कहेवाय छे । आ विपाकश्रुतनी संख्याती वाचना छे, संख्याता अनुयोगद्वार छे, यावत् संख्याती संग्रहणीओ छे, ते आ अंगार्थकपणाए करीने अग्यारमुं अंग छे, तेमां वीश अध्ययनो छे, वीश उद्देशन काळ छे, वीश समुद्देशन काळ छे, कुल संख्याता लाख पदो छे, संख्याता अक्षरो छे, अनंत गमा छे, अनंत पर्यायो छे, यावत् आ प्रमाणे चरण-करणानी प्ररूपणां कहेवाय छे. ते आ प्रमाणे विपाकश्रुत क. ११ ॥ सूत्र - १४६ ॥
टीकार्थ:-' से किं तमित्यादि ' – जे पकाचधुं ते विपाक कहेवाय छे एटले शुभाशुभ कर्मनो परिणाम, ते विषाकने कहेनारुं जे श्रुत ते विपाकश्रुत कहेवाय छे । ' विवागसुए णं' इत्यादि सूत्र सुगम छे. विशेष ए के ' फलविपा