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समवाय
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श्री हजार योजनन) जाणवू (३) । मल्लिनाथ तीर्थकरना सत्तावन सो साधुओ मनःपर्यवज्ञानवाळा हता (४)। महाहिमवान समवायाङ्ग अने रुक्मी ए बे वर्षधर पर्वतोनी जीवाना धनुःपृष्ठनी परिधि (लंबाइ) सत्तावन हजार बसो ने त्राणुं (५७२९३) योजन
पत्र तथा एक योजनना ओगणीश भाग करीए तेवा दश भाग प्रमाण कही छे (५)॥ चोधं अंग टीकार्थ:--हवे सत्तावनमा स्थानक विषे कांडक लखे छे--गणिपिडगाणं ति'--गणिना एटले आचार्यना
पिटक(पेटी)नी जेवा पिटक एटले सर्वस्वना भाजन( पेटी के. कंडीया )रूप ए अध्याहार छे. आ गणिपिटक कया कया ? ते कहे छे--आचार एटले बे श्रुतस्कंधवाल्लं पहेलं अंग, तेनी चूलिका एटले छेल्लुं अध्ययन जे विमुक्ति नामर्नु, ते आचारचूलिका कहेवाय छे, तेने वर्जीने (तेना सिवाय ), तेमा आचारांगना पहेला श्रुतस्कंधमां नव (९) अध्ययनो छ, अने बीजा श्रुतस्कंधमां निशीथ नामर्नु अध्ययन प्रस्थानांतर ( जुदा विषयवारों ) होवाथी तेनी गणतरी अहीं नहीं कर-।
वाथी सोळ अध्ययनो छे. ते सोळने मध्ये पण एक आचारचूलिकानो त्याग करवाथी शेष पंदर अध्ययनो रह्या (१५), सूत्रयू' कृत नामना वीजा अंगना पहेला श्रुतस्कंधमां सोळ (१६) अध्ययनो छे, बीजामांसात (७) छे, तथा स्थानांगमा दश (१०)।
अध्ययनो छे, ते सर्व मळीने सत्तावन अध्ययनो थाय छ (१)। 'गोथूभ०' इत्यादि सूत्रनो भावार्थ आ प्रमाणे छेताळीश हजार योजन (जंबूद्वीपनी) वेदिका अने गोस्तुभ पर्वतर्नु आंतरुं छे, गोस्तूभ पर्वतनो विष्कम एक हजार योजननो छे, ए प्रमाणे ४३ हजार योजन जतां गोस्तूभ अने वडवामुखर्नु आंतरं बावन हजार योजन प्रमाण छे तथा वडवामुखनो विष्कंभ दश हजार योजननो छे, (तेनो मध्य भाग लेवो छे तेथी) तेनुं अर्ध करवाथी पांच हजार योजन आवे छे, तेथी
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