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________________ चोथु अंग॥ पर, एवी सख्या ) पानो विचार वाले सम्यकप्रकाना समूह कराय छे. तेमाप्रमाणे छेवाजीवादिक चिटिले विविध प्रकार दुष्ट (खोटा) संप्रदायथी अथवा खोटा तर्क करवाथी आ शास्त्रमा माराथी जे कांइ खोटुं कहेवाय, ते मारा पर अनु-समवायाङ्गकंपा करनारा बुद्धिमानीए शोध-शुद्ध करचुं, एवी रीते करवाथी मत (शास्त्रसंमत ) अर्थनी क्षति न थाओ. ... अहीं स्थानांग नामना वीजा अंगना अनुयोग (व्याख्या) पछी आ समवाय नामना चोथा अंगनो अनुयोग अनुक्रमे प्राप्त थयेलो छे, तेथी हवे तेनो आरंभ कराय छे. तेमां फळे विगेरे द्वारोनो विचार स्थानांगना अनुयोग प्रमाणे अनुक्रमे जाणी लेवो. विशेषमा आ (समवाय) नो समुदाय अर्थ आ प्रमाणे छे–'सम् ' एटले सम्यकप्रकारे, 'अव' एटले अधिकपणाए करीने 'अय (अयनं)' एटले परिच्छेद-अवधारण अर्थात् जीवाजीवादिक विविध पदार्थना समूहनुं ज्ञान जेमा छे ते 'समवाय' कहेवाय छे. अथवा 'समवयन्ति'-'समवतरन्ति-संमिलन्ति' एटले विविध प्रकारना जीवादिक पदार्थो जेने विपे अभिधेय( वाच्य )पणाए करीने अवतरे छ-एकठा थाय छ ( मळे छे-जाणवामां आवे छे) ते 'समवाय' कहेवाय छे. ते समवाय प्रवचनरूपी पुरुप, अंग होवाथी 'समवायांग' कहेवाय छे. श्री श्रमण भगवंत महावीर-वर्धमानस्वामीना पांचमा गणधर आर्य सुधर्मास्वामी जंबू नामना पोताना शिष्यने समवायांगनो अर्थ कहेवाने इच्छता सता ते वखते पोताना धर्माचार्य भगवानने विषे बहुमानने प्रगट करता तथा पोताना वचनने विषे समग्र १. तस्स फलजोगसंगल-समुदायत्था तहेव दाराई । तब्भेयनिरुत्तिकमपयोयणाई च वच्चाई ॥१॥ फळ ( प्रयोजन ), योग ( संबंध ), मंगळ, समुदायार्थ, द्वारो, तेना भेद, निरुक्ति, क्रमप्रयोजन एटली बाबत ग्रंथना प्रारंभमां प्राये कहेली होय छे. ( स्थानांगनी टीकामाथी आ गाथा लखी छे.)
SR No.010536
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJethalal Haribhai
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1939
Total Pages681
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size44 MB
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