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________________ - मूलार्थ-दश प्रकारनो साधुधर्म कह्यो छे, ते आ प्रमाणे-शांति १, मुक्ति (निर्लोभता )२, आर्जव ३, मार्दव ४, लाघव (अकिंचन) ५, सत्य ६, संयम ७, तप ८, त्याग (दान) ९, ब्रह्मचर्यवास १० (१) । दश चित्तनी समाधिना स्थानो कह्या छे, ते आ प्रमाणे--ते(साधु)ने सर्व धर्म जाणवाने माटे कोइ वखत पूर्वे ( जन्मांतरोमां) उत्पन्न नहीं थयेली एवी IMI धर्मचिंता ( धर्म संबंधी विचार ) उत्पन्न थाय ते १, स्वप्ननु साचेसाचुं फळ जोवाने-जाणवाने माटे तेने कोइ वखत पूर्व IA उत्पन्न नहीं थयेलं स्वप्नदर्शन उत्पन्न थाय ते २, पूर्वभवन स्मरण करवा माटे तेने कोइ वखत पूर्वे नहीं उत्पन्न थयेलुं एवं संज्ञीज्ञान ( जातिस्मरण ज्ञान ) उत्पन्न थाय ते ३, दिव्य देवनी समृद्धिने, दिव्य देवनी कांतिने अने दिव्य देवना अनुभावने जोवा माटे तेने कोइ वखते पूर्व उत्पन्न नहीं थयेलं एवं देवनुं दर्शन थाय ते ४, जवधि(मर्यादा )वडे लोकने जाणवा माटे तेने पूर्वे कोइ वखत उत्पन्न नहीं थयेलं एवं अवधिज्ञान उत्पन्न थाय ते ५, अवधिवडे लोकने जोवा माटे तेने कोइ वखत पूर्व उत्पन्न नहीं थयेलु एयु अवधिदर्शन उत्पन्न थाय ते ६, यावत् एटले अढीद्वीप अने वे समुद्रमा रहेला. संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्तकना मनमा रहेला भाव(विचार)ने जाणवा माटे तेने कोइ वखत पूर्वे उत्पन्न नहीं थयेलु एवं मनपर्यवज्ञान उत्पन्न थाय ते ७, सर्व लोकने ( तथा अलोकने पण ) जाणवा माटे तेने कोइ वखत पूर्व उत्पन्न नहीं थयेळं एवं केवळज्ञान उत्पन्न थाय ते ८, समग्र लोकने (तथा अलोकने पण) जोवा माटे तेने कोइ वखत पूर्वे उत्पन्न नहीं थयेलु केवळदर्शन उत्पन्न थाय ते ९, सर्व दुःखोनो क्षय करवा माटे ते (पूर्वे कोइ वखत नहीं थयेला) केवळी मरणवडे मरण पामे (सिद्ध थाय ) ते १० । (२) । मंदर (मेरु)पर्वतनो विष्कंभ (विस्तार) मूळने विषे (समभूतळा पृथ्वी उपर) दश हजार योजन कह्यो
SR No.010536
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJethalal Haribhai
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1939
Total Pages681
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size44 MB
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