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पयसयसहस्साइं पयग्गेणं पन्नत्ता । संखेज्जाणि अक्खराणि अणंता गमा अणंता पज्जवा जाव एवं चरणकरणपरूवणया आघविजंति । से तं विवागसुए ॥ ११॥ सूत्रम्-१४६ ॥ ___ मूलार्थः--ते विपाकश्रुत कयुं छे ? विपाकश्रुतने विपे सुकृत अने दुष्कृत (शुभ अने अशुभ) कर्मना फळविपाक कहेवाय छे. ते (विपाक) संक्षेपथी वे प्रकारे कह्यो छेः ते आ प्रमाणे--दुःखविपाक अने सुखविपाक. तेमां दश दुःखविपाक अने दश सुखविपाक छे. (प्रश्न)-ते दुःखविपाक केवा छे ? (उत्तर)-दुःखविपाकने विपे दुःखविपाकवाळा जीवोना नगर, उद्यान, चैत्य, वनखंड, राजा, मातापिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, नगरमा प्रवेश, संसारनो विस्तार अने दुःखनी परंपरा कहेवाय छे. ते आ प्रमाणे दुःखविपाक छे. (प्रश्न)-ते सुखविपाक केवा छे ? (उत्तर)सुखविपाकने विषे सुखविपाकवाळा जीवोना नगर, उद्यान, चैत्य, वनखंड, राजा, मातापिता, समवसरण, धर्माचार्य, धर्मकथा, आलोक अने परलोक संबंधी विशेष प्रकारनी (उत्तम) समृद्धि, भोगनो त्याग, प्रव्रज्या, श्रुतनुं ग्रहण, तपोपधान, दीक्षापर्याय, प्रतिमावहन, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान (अनशन), पादपोपगमन, देवलोकमां जq, त्यांथी उत्तम
कुळमां अवतरवू, फरीथी बोधिनी प्राप्ति अने अंतक्रिया ए सर्व कहेवाय छ । हवे दुःखविपाकने विपे प्राणातिपात, मृपावाद, IN चोरी, परदारमैथुन अने परिग्रह सहितपणाए करीने तथा महातीव्र कपाय, इंद्रिय, प्रमाद, पापप्रयोग अने अशुभ अध्य
वसाये करीने संचय करेला अशुभ कर्मना अशुभ रसवाळा फळना विपाक (कहेवाय छे), ते वळी जीवोए नरकगतिमां