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________________ श्री समवायाङ्ग सूत्र ॥ चोधुं अंग ॥२०२॥ वाईसंपया होत्था । ५ ॥ ८०० ॥ सूत्रम् - १११ ॥ मूलार्थ:-- महाशुक्र अने सहस्रार ए वे कल्पने विषे रहेला विमानो आठ सो योजन ऊंचा कला छे (१) । आ रत्नप्रभा पृथ्वीना पहेला कांडमां (मध्यना) आठ सो योजनने विषे वानव्यंतर देवोना भूमि संबंधी विहारो ( नगरो ) कहेला छे (२) । श्रमण भगवान महावीरस्वामीने अनुत्तर विमानमां उत्पन्न थवावाळा, कल्याणकारक गतिवाळा, कल्याणकारक स्थितिवाळा अने आगामी काळमां निर्वाणरूपी भद्र थवावाळा साधुओनी उत्कृष्ट अनुत्तरोपपातिकनी संपदा हती ( ३ ) | आ रत्नप्रभा पृथ्वीना बहु समान रमणीय भूमिभागथ की आठ सो योजन उंचे सूर्य गति करे छे ( ४ ) । श्रीअरिष्टनेमि अरिहंतने देव, मनुष्य अने असुर लोकमां पण कोइथी वादमां पराजय न पाये एवा आठ सो वादीओनी उत्कृष्ट संपदा हती (५) ॥ ८०० ॥ टीकार्थ:-' इमीसे णमित्यादि ' - प्रथम खरकांड नामनुं कांड छे, ते खरकांडना सोळ विभाग छे, तेमां पहेला विभागरूप रत्नकांड छे. ते रत्नकांड हजार योजन प्रमाण छे. तेनी नीचेना (सो) अने उपरना (सो) एम बसो योजन मूकीने बाकी ना ( मध्यना ) आठ सो योजनने विषे वनमां थयेला ते वान कहीए, एवा जे व्यंतरो ते वानव्यंतर कहीए, ते वानव्यंतर संबंधी भूमि विकार होवाथी भौमेक एवा, जेने विषे विहार-क्रीडा कराय तेवा बिहारो - नगरो ते वानव्यंतर भौमेयक- विहारो कहेला छे (२) । ' अट्ठ सय त्ति '-आठ सो, कोना आठ सो ? ते कहे छे -- अनुत्तरोपपातिक देवोना एटले ते देवाने विषे ' उत्पन्न थनार होवाथी देवो अर्थात् द्रव्य देवो, तेओना आठ सो, तथा गति एटले देवगतिरूप कल्याण छे जेमनुं ते गति. कल्याण कचाय छे, ए ज प्रमाणे स्थिति एटले तेत्रीश सागरोपमरूप स्थिति छे कल्याण जेमनुं ते स्थितिकल्याण कहे समवाय ८०० ॥ ॥२०२॥
SR No.010536
Book TitleAgam 04 Ang 04 Samvayang Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJethalal Haribhai
PublisherJain Dharm Prasarak Sabha
Publication Year1939
Total Pages681
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_samvayang
File Size44 MB
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