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तेम भगवान धर्मना विषयमां बीजा धर्मना रचनाराओने विष अतिशयवाळा (चडीयाता ) होवाथी धर्मवरचातुरंतचक्रवर्ती कहेवाय छे. (चार गतिनो अंत करनार होवाथी पण चातुरंतचक्रवर्ती कहेवाय छे.) आ धर्मदायक विगेरे पांच विशेषणो प्रकृष्ट ज्ञानादिकनो योग सते ज संभवे छे, तेथी करीने कहे छे के-अप्रतिहत एटले टाटुं, भींत के पर्वत विगेरे वडे स्खलना | न पामे तेवा अथवा विसंवाद रहित एवा अथवा क्षायिकभावना होवाथी 'वर' प्रधान एवा केवळज्ञान अने केवलदर्शनने जे धारण करे छे ते अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधर कहेवाय छे. वळी आवा प्रकारनी ज्ञानसंपदावडे सहित छतां पण जो ते छद्मवान एटले मिथ्या उपदेश करनार होय तो ते उपकारी थता नथी, तेथी छद्मरहितपणुं जणाववाने माटे व्यावृत्तछम कहे छे अथवा तो आ भगवानने अप्रतिहत ए, संवेदन (ज्ञान-दर्शन ) शी रीते प्राप्त थयुं ? तेना जवाबमां कहे छे के-आवरणनो सर्वथा अभाव थवाथी, ए ज बावत कहे छे के-व्यावृत्त एटले सर्वथा नाश पाम्युं छे छद्म एटले अज्ञानीपणुं अथवा ज्ञानावरण जेनुं ते व्यावृत्तछद्म कहेवाय छे. वळी आ भगवानने माया अने आवरणनो अभाव रागादिकनो जय करवाथी थयो छे, तेथी कहे छ के-रागद्वेषादिक आभ्यंतर शत्रुओने जे जीते छे-दूर करे छे, ते जिन कहेवाय छे तेमने. वळी आ भगवाने रागादिक शत्रुओने जीत्या छे ते रागादिकना स्वरूपने अने तेना जयना उपायने जाणवापूर्वक ज जीत्या छे तेथी कहे छे के-छाद्मस्थिक चार ज्ञानवडे जे जाणे छे ते ज्ञापक कहेवाय छे. आ विशेषणोबडे आ भगवाननी स्वार्थसंपत्तिनो
उपाय कह्यो (एटले के पोताना आत्माने ज गुण करनार कह्या), हवे स्वार्थसंपत्तिपूर्वक परार्थसंपत्तिपणाने छ विशेषणोवडे Ki कहे छ.-'तीर्ण' संसाररूपी सागरने तरी गयानी जेवाजे तरी गयेला, ते तीर्ण कहेवाय छे. तथा 'तारक' पोताना उपदेश