________________
अंग।
समवायाङ्ग सत्र॥
॥४१॥
एवा ) अर्थमां छे, अने 'अपि' शब्द छे ते संभावनाना अर्थमां छे. आवो साधुतुल्य जे श्रावक होय ते हे श्रमण ! हे आयुष्मान! अग्यारमी प्रतिमा धारक कहेवाय छ एम सुधर्मास्वामीए जंबूस्वामीने संबोधन करवापूर्वक कां. आनो भावार्थ एछे के-पूर्वे कहेला सर्व गुणे करीने सहित जे श्रावक क्षुरवडे मस्तक मुंडावे अथवा मस्तके लोच करे, साधुनो वेष धारण करे, ईर्यासमिति विगेरे साधुना धर्मर्नु पालन करे, भिक्षाने माटे गृहस्थना कुळमां प्रवेश करे त्यारे 'प्रतिमा वहन करनारा मने-श्रमणोपासकने भिक्षा आपो'ए प्रमाणे बोले तथा 'तुं कोण छे ?' एम तेने कोइ पूछे त्यारे 'हुं प्रतिमा वहन करनार श्रमणोपासक छु,' ए प्रमाणे जवाव आपे. आ प्रमाणे अग्यार मास सुधी करे, ते अग्यारमी प्रतिमा कहेवाय छे ११ । वळी अन्य पुस्तकमां आ प्रमाणे वाचना (पाठ) छे-दर्शनश्रावक ए पहेली प्रतिमा, कतव्रतकर्मा ए बीजी, कृतसामायिक ए त्रीजी, पौषधोपवासनिरत ए चोथी, रात्रिभक्तपरिज्ञात ए पांचमी, सचित्तपरिज्ञात ए छट्ठी, दिवा ब्रह्मचारी रात्रे परिमाणकृत ए सातमी, दिवसे अने रात्रिए पण ब्रह्मचारी तथा स्नान रहित होय तथा केश, रोम अने नखने उतारे नहीं ए आठमी, आरंभपरिज्ञात अने प्रेषणपरिज्ञात ए नवमी, उद्दिष्टभक्तवर्जक ए दशमी अने श्रमणभृत एवो पण होय ते हे श्रमण ! हे आयुष्मान! अग्यारमी प्रतिमा कहेवाय छे. वळी कोइ ग्रंथमां आ प्रमाणे छे-आरंभपरिज्ञात ए नवमी, प्रेष्यारंभपरिज्ञात ए दशमी तथा उद्दिष्टभक्तवर्जक अने श्रमणभूत ए अग्यारमी. आवो पण पाठांतर छे (१)।
तथा जंबूद्वीप नामना द्वीपने विपे मेरुपर्वतथी अग्यार सो अने एकवीश अधिक एटला योजननी अवाधाए एटले व्यवधाने करीने (आंतरे) ज्योतिपर्नु चक्र चार चरे छे-भ्रमण करे छे (३)। तथाणं' ए शब्द वाक्यना अलंकार
-