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श्री.
समवायाङ्ग
सूत्र ॥
चोथुं अंग
॥२७३॥
नना देवोनुं भवधारणीय शरीर. यावत् ( सनत्कुमारथी आरंभीने) तेओना शरीरमां एक एक रत्नीनी ( हाथनी ) हानि थाय छे। हे भगवान! आहारक शरीर केटला प्रकारनं कयुं छे! हे गौतम! एक ज आकारवाळु (प्रकार) कबुं छे. हे भगवान ! जो एक ज आकारनुं कर्तुं छे तो शुं ते मनुष्यनुं आहारक शरीर के अमनुष्यनुं आहारक शरीर ? हे गौतम ! मनुष्यनुं आहारक शरीर कयुं छे पण अमनुष्यनुं आहारक शरीर की नथी. हे भगवान! जो आ प्रमाणे मनुष्यनुं आहारक शरीर छे तो शुं गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर के संमूर्छिम मनुष्यनुं आहारक शरीर ? हे गौतम ! गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर, पण संमूर्छिम मनुप्यनुं आहारक शरीर नहीं. हे भगवान ! जो गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर छे तो ते कर्मभूमिमां रहेला गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर के अकर्मभूमिमां रहेला गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर ? हे गौतम ! कर्मभूमिमां रहेला गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर पण अकर्मभूमिमा रहेला गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर नहीं. हे भगवान ! जो कर्मभूमिमां रहेला गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर छे तो संख्याता वर्षना आयुष्यवाळा कर्मभूमिमां रहेला गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर के असंख्याता वर्षना आयुवाळा कर्मभूमिमा रहेला गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर ? हे गौतम ! संख्याता वर्पना आयुष्यवाळा कर्मभूमिमां रहेला गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर छे, पण असंख्याता वर्पना आयुष्यवाळा कर्मभूमिमां रहेला गर्भज मनुष्यनुं आहारक शरीर नहीं. हे भगवान! जो संख्याता वर्षना आयुष्यवाळानुं तो शुं ते पर्याप्तानुं के अपर्याप्तानुं ? हे गौतम ! पर्याप्तानुं पण अपर्याप्तानुं नहीं. हे भगवान ! जो पर्याप्तानुं तो शुं ते सम्यग्दृष्टिनुं । मिथ्यादृष्टिनुं ? के सम्यग्मिथ्यादृष्टिनुं ? हे गौतम! सम्यग्डष्टिनुं, पण मिध्यादृष्टिनुं नहीं, तेम ज सम्य मिध्यादृष्टिनुं पण नहीं. हे भगवान ! जो सम्यग्दृष्टिनुं तो शुं ते
पांच प्रकार शरीर
विचार ॥
॥२७३॥