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श्री
समवाय
दस्सस
समवायाज
स्त्र ॥ “चोधू अंग
॥१५२॥
दस्स सटुिं नागसाहस्सीओ अग्गोदयं धारंति । २ । विमले णं अरहा सद्धिं धणूई उड्डे उच्चत्तेणं होत्था । ३ । बलिस्स णं वइरोयर्णिदस्स सर्टि सामाणियसाहस्सीओ पन्नत्ताओ।४। बंभस्स णं देविंदस्स देवरण्णो सटैि सामाणियसाहस्सीओ पन्नत्ताओ। ५। सोहम्मीसाणेसु दोसु कप्पेसु सटुिं विमाणावाससयसहस्सा पन्नत्ता ॥ ६ ॥ सूत्रम्-६०॥
मूलार्थ:-एक एक सूर्य साठ साठ मुहूर्ते करीने एक एक मंडळने नीपजावे छे (संपूर्ण करे छे) (१)। लवणसमुद्रना अग्रोदकने (शिखाना जळने) साठ हजार नागदेवताओ धारण करे छे (२)। श्री विमळनाथ अरिहंत साठ धनुष उंचा हता (३)। बलि नामना वैरोचनेंद्र(असुरकुमारेंद्र)ने साठ हजार सामानिक देवो कह्या छ (४)। देवोना राजा ब्रह्म नामना देवेंद्रने साठ हजार सामानिक देवो कह्या छे (५)। सौधर्म अने ईशान ए वे कल्पने विपे कुल साठ लाख विमानावास कह्या छ (६)॥
टीकार्थ:-हवे साठमुं स्थानक कहे छे-तेमां ' एगमेगे 'इत्यादि-सूर्यना एक सो ने चोराशी मंडळ छे, तेमांना दरेक व मंडळने तथाप्रकारनी गतिना स्थानरूप सूर्य साठ साठ मुहूर्ते करीने एटले बवे अहोरात्रे करीने नीपजावे छ (पूर्ण करे छे)।
अहीं भावार्थ आ प्रमाणे छे-एक दिवसे जे स्थाने सूर्य उग्यो होय, ते स्थाने फरीथी ते सूर्य के अहोरात्रे ऊगे छ (१)।
'अग्गोदयं ति'-सोळ हजार योजन ऊंची जे लवणसमुद्रनी वेळा छे, तेनी उपर वे गाउप्रमाण वृद्धि-हानिना स्वभाजाववालु जे जळ (शिखा ) छे, ते अग्रोदक (शिखानुं जळ) कहेवाय छे (२)। 'बलिस्स त्ति'-उत्तर दिशा तरफना
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॥१५२।।