Book Title: Uttaradhyayanani Part 03 And 04
Author(s): Bhavvijay Gani, Harshvijay
Publisher: Vinay Bhakti Sundar Charan Granthmala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर व - • श्रीविनय-भक्ति-सुन्दर-चरणमामालायाः त्रयोदशचतुर्व पुष्पम् . WINE श्री विनय III XX საუკუნემდე მიმდინარეობის მიღმა ॐ ऐं नमः श्री शान्तिनाथाय नमः प्रशान्तपीयूषपाथोधि-तपागच्छालङ्कारश्रीमद्विजयभद्रसूरीश्वरेभ्यो नमः तपागच्छीय-महामहोपाध्याय श्रीमद्भावविजयगणिविरचितया वृत्या समलंकृतानि पूर्वोद्धृतजिनभाषितश्रुतस्थविरसन्टन्धानि । श्रीउत्तराध्ययनानि , (तृतीयतुर्यभागौ सम्पूर्णात्मको) सं०-सच्चारित्रचूडामणि-तपोमूर्ति-जैनाचार्यश्रीमद्विजयभद्रसूरीश्वरशियापासप्रवरश्रीमत्सुन्दरविजयगणिवर्य शिष्य-प्रखरवक्त-पंन्यासश्रीचरणविजयगणिवरशिष्या-हर्षविजयो मुनिः र प्रकाशक:-श्रीविनय-भक्तिसुन्दरचरणग्रन्थमाला तरफथी शा ककलचंद रंगजी बेणप निवासी । प्रतीनां पञ्चशती . मूल्यं रु०१० साधुसाध्वीने । . वीरसंवत २४८५ Sahetsaid इदं पुस श्रीबीकानेरे गोपाल प्रिन्टींग प्रेसे श्रीजीतमलात्मजेन भंवरलाल पुरोहितेन मुद्रितम् । Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशन अंगे __ आसवन संपूर्ण प्रकाशन श्री जैन भास्करोदय मुद्रणालय जामनगरमां कंट्राक्टरथी छापवा आपेल अने कागलपेटे पैसा पण आपेल छतां १७ अध्य० छापी अध्य० १८ ना पांच फरमा छापी बंध करी दीधु तेमने वारंवार लखवा छतां काई उत्तर न मलवाथी छेवटे नाईलाजे छापेल फोरम रद करी बीकानेरमा पू० हर्षविजयजी मा० ना चोमासामां श्री गोपाल प्रेस मा श्रीमान् झवरलालजी बांठिया हस्तक छपावीने श्री विनय-भक्ति-सुन्दर-चरण ग्रंथमाला पोताना १३-१४ पुष्प तरीके आज पणा लांबाटाईमे जनता समक्ष धरेछे आ सूत्रनु संशोधन पूज्य महाराज श्री हर्षविजयजी मुनिराजे कयुछे अने कालजी पूर्वक संशोधन करवा छतां जे अशुद्धि रहि गई तेनु शुद्धि पत्रक साथ मां दीधुछ सेमुनत्र सुधारीने पांचवा विनंतिछे, आ सूत्रमा पूज्य मुनि महाराज + श्री हर्षविजयजी महाराजना उपदेशथी जे गहस्थो मदद करीछे ते सदा धन्यवाद ने पात्रछे अने ते बदल पूज्य महाराज श्री - नो तथा मददकरनार महाशयोनो आभार मानीए छीए । श्रीमान् अगरचंदजी नाहटाने प्रस्तावना लखी आपवानी उदारता दाखवी को तदर्थ तेमना आभारी छीए । मदद करनार गृहस्थोनी नामावली ३५२) श्री कोशीलाव श्री प्रोसवाल संघ तरफथी ज्ञान खाताना .. ५१) श्रीमान् लक्ष्मीचंदजी फतेचंदजी कोचर बीकानेर ... ४००) श्रीमान् जीवराजजी नथमलजी रामपुरीया बीकानेर ५१) श्रीमान मनलचंदजी शिवचंदजी भावक बीकानेर ली प्रकाशक Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे ॥१॥ प्रस्तावना ॥१॥ -प्रस्तावना - प्रस्तुत उत्तराध्ययन सूत्र प्राचीन जैन आगमों में से एक है । इसकी अंतिम गाथा के अनुसार भगवान महावीर स्वामी ने इन ३६ अध्ययनों वाले-उत्तराध्ययन सूत्र को प्रकट करने के अनन्तर निर्वाण पद को प्राप्त किया इइ पाउकरे बुद्ध, नायए परि-निव्वुए । छतीसं उत्तरझाए, भवसिद्धिय संमए ॥ (गा० २६६) कल्पसूत्रमें भगवान महावीर के निर्वाणप्रसङ्गका उल्लेख करते हुए कहा गया है कि भगवान महावीरस्वामी ७२ वर्ष की आयु को | पूर्ण कर पावापुरी के हस्तिपाल राजा की राजसभा में षष्ठभक्त तप करके प्रातःकाल के समय पयासनमें बैठे हुए कल्याणफलके देने वाले ५५ और पापफलके देने वाले ५५ अध्ययनों तथा ३६ अपृष्ट व्याकरणों-उत्तराध्ययन रूप ३६ अध्ययनों का कथन करके प्रधान नाम || के अध्ययन का चिंतन करते हुए निर्वाणपदको प्राप्त हो गये। । इन दोनों उल्लेखों से स्पष्ट है कि उत्तराध्ययन सूत्र भगवान महावीर की अंतिम वाणी है इसलिए इस सूत्र का महत्व सर्वाधिक ना है। इस वाणी में आत्मोद्धार की पूर्ण क्षमता है। _इस सत्र के नाम पर विचार करते हैं तो इसमें उत्तर और अध्ययन दो शब्द सम्मिलित पाते हैं। इनमें से 'उत्तर' शब्द के दो | अर्थ हैं, और दोनों ही इस सूत्र के लिए पूर्णतः सार्थक हैं। प्रथम अर्थ है श्रेष्ट, प्रशस्त, प्रधान, और दूसरा अर्थ है पश्चाद्-भावी अर्थात् अन्त का पीछे का। इनमें से दसरा अर्थ तो उपरोक्त उत्तराध्ययन की अंतिम गाथा और कल्पसूत्र के उल्लेख से स्पष्ट है ही कि भगवान महावीर ने इसे अंतिम समय में कहा था अर्थात उनके दिया हुआ सबसे पीछे का उपदेश इसमें है। और प्रथम अर्थ भी Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WY प्रस्तावना उत्तराध्ययनसूत्रे ॥२॥ ॥२॥ EveEvereeeeeeeeeeeeee इसलिए सार्थक है कि समस्त आगमों में सर्व जनोपयोगी सरल ओर प्रबोधक हृदयस्पर्शी उपदेशों का संग्रह रूप यह सूत्र है। इसमें कुछ सुन्दर कथाएं हैं। कुछ अध्ययनों में सैद्धांतिक विवेचन है और कुछ में मर्मस्पर्शी उपदेश हैं। 'अध्ययन' शब्द का अर्थ नियुक्तिकार ने किया है- "केवल आत्म चिन्तन-आत्मस्वाध्याय अर्थात् आत्मा में तदाकार वृत्ति का सम्पादन करना ही अध्ययन है।" खरी आध्यात्मिकता का सम्पादन करना ही वास्तविक अध्ययन है। अतः उत्तराध्ययन शब्द का अर्थ है "श्रेष्ट आध्यात्मिक स्वाध्याय" विद्वानोंने इसे विशिष्ट श्रमणकाव्य की संज्ञा दी है। इस सूत्र में ३६ अध्ययन हैं। समवायांग सूत्र के ३६वें स्थान में भी इन ३६ अध्ययनों के नाम दिए हुए हैं। अध्ययनों के नाम | इस प्रकार हैं (१) विनय श्रुत, (२) परिपह, (३) चतुरंगीय, (४) असंस्कृत, (५) अकाममरणीय, (६) क्षुल्लक निग्रंथीय, (७) एलेक, (८) कापिलिक, (6) नमिप्रव्रज्या, (१०) द्रुमपत्रक, (११) बहुश्रुत पूज्य, (१२) हरिकेशीय, (१३) चित्तसंभूतीय, (१४) इषुकारीय, (१५) स-भिक्खू, (१६) ब्रह्मचर्य-समाधि स्थान, (१७) पाप श्रमणीय, (१८) संयतीय, (१६) मृगापुत्रीय, (२०) महानिग्रंथीय, (२१) समुद्रपालीय, (२२) रथनेमीय, (२३) केशीगौतमीय, (२४) समितियां, (२५) यज्ञीय, (२६) समाचारी, (२७) खंलुकीय, (२८) मोक्षमार्ग गति, (२६) सम्यकत्व पराक्रम, (३०) तपोमार्ग, (३१) चरणविधि, (३२) प्रमादस्थान, (३३) कर्मप्रकृति, (३४) लेश्या, (३५) अणगार (मार्ग), (३६) जीवाजीव विभक्ति । इनमें से अध्ययन २४, २६, २८, २९, ३०, ३१, ३३, ३४, ३६ इन 8 में तो सिद्धान्तिक चर्चा है। और अध्ययन है, १२, १३, १४, १८, १९, २०, २१, २२, २३ और २५ इन ११ में कथा प्रसङ्ग हैं। अवशेष उपदेश प्रधान हैं। कथाएं भी RRRRRRRRRRRRमरमसलक Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना उत्तराध्ययनसूत्रे ॥३॥ seeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeveey बहुत प्रबोधक हैं और उपदेश आत्मा को जाग्रत एवं झंकृत करने वाले हैं। ___उत्तराध्ययन सूत्र मुख्यतः प्राकृत-पद्यबद्ध है । केवल २६, २, १६ अध्ययन के प्रारम्भ का भाग और छठे अध्ययन की अंतिम थोड़ी पंक्तियां गद्य में हैं। पद्य कुल १६४३ हैं। इस सूत्र की भाषा के संबंध में डा० हार्मन याकोबी आदि पाश्चात्य भाषा शास्त्रियों का मत है कि "भाषा शास्त्र की दृष्टि से देखने पर उत्तराध्यन सूत्र की भाषा अति प्राचीन ढंग की है और जैनागमों में जिन सूत्रों में, सबसे प्राचीन भाषा सुरक्षित हैं उनमें से यह सूत्र भी एक है। उनके मतानुसार सबसे प्राचीन भाषा आचारांग की है, उसके बाद सूत्रकृतांग और तीसरा स्थान उत्तराध्ययन सूत्र का है । अतः भाषा की दृष्टि से भी इसकी प्राचीनता निर्विवाद है। इस सूत्र का महत्व तब और भी बढ़ जाता है जबकि इसकी कई गाथाएं बौद्ध ग्रंथ 'धम्मपद' में ज्यों की त्यों या सामान्य अंतर के साथ मिल जाती है । सूत्र निपात और अंगुतर निकाय से भी इसका कुछ भाषा और विषय साम्य है। इसी प्रकार सुप्रसिद्ध महाभारत में भी, इस ग्रंथ की कई गाथाओं का भाषा और विषय साम्य पाया जाना उल्लेखनीय है। यही नहीं इसमें आई हुई कुछ कथाएं भी बौद्ध जातकों और ब्राह्मण ग्रंथों में पाई जाती हैं। जैसे चित्तसम्भूत जातक में उत्तराध्ययन सूत्र के १३वें अध्ययन का विषय संग्रहीत हुआ है। नमि राजा का संवाद भी सूत्तनिपात की प्रत्येक बुद्ध कथा की याद दिलाता है। कपिल मुनि की कथा ब्राह्मण ग्रन्थों से भी कुछ मिलती हैं । इसी प्रकार १४वें और २२वें अध्ययन की कथाएं भी समझीए । १ देखें-स्थानकवासी आचार्य प्रात्मारामजी के उत्तराध्ययन सूत्र की प्रस्तावना २ देखें-उपेन्द्रराय मांडेसरा का "महाभारत और उत्तराध्ययन सूत्र" (एक तुलनात्मक अभ्यास-स्वाध्याय साथे) नामक ग्रन्थ । मानसशस Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे ॥४॥ प्रस्तावना ॥४॥ कुछ कथा प्रसङ्ग जैन दृष्टि से बड़े महत्वपूर्ण हैं । जिनमें २३वें अध्ययन का केशी गौतम संवाद वास्तव में ही एक ऐतिहासिक महत्वपूर्ण प्रसङ्ग है। जिसमें भगवान महावीर और पार्श्वनाथ के आचार भेद सम्बन्धी कुछ अन्तर और उनकी वास्तविक एकता की चर्चा || है। इसी प्रकार २२वें रथनेमि अध्ययन में २२वें तीर्थकर अरिष्टनेमि और श्री कृष्ण का उल्लेख महत्वपूर्ण है । राजीमति के स्थनेमि को कहे हुए प्रबोध वाक्य एक सती साध्वी के महान् उद्गार हैं। प्रथम अध्ययन में विनीत और अविनीत के लक्षण, विनय का महत्व है । दूसरे में परिषह के समय शांत और सहिष्णु रहने का, तीसरे में मनुष्यत्व, धर्मश्रवण, श्रद्धा और संयम में पुरुषार्थ करना-इन चार बातों की दुर्लभता, चोथे में जीवन की चञ्चलता, दुष्ट कर्मों के दुखद परिणाम और स्वच्छंदता को रोकने का उपदेश है। पांचवें में भोगों की आसक्ति का दुष्परिणाम, अकाय और सकाय मरण और छठे में धन परिवार का शरण भूत न होना, मैत्री भाव, परिग्रह त्याग और संयमाचार का विवरण है । सातवें में नीच गति जाने वाले जीवों के लक्षण, लेशमात्र भूलका दुखद परिणाम और मानव जीवन के कर्तव्य का वर्णन हैं। आत्म प्रबोधक दसवां अध्ययन बहुत ही महत्व का है। उसमें गौतम स्वामी को संबोधन करते हुए "समय मात्र भी प्रमाद न करने का" जो उपदेश दिया है वह प्रत्येक व्यक्ति के लिए महान् लाभ प्रद है। ग्यारहवें में ज्ञानी और अज्ञानी के लक्षण, १५वें में आदर्श भिक्षु का स्वरूप, १६ में ब्रह्मचर्य, पालन के लिए दस समाधि | स्थान, १७वें पाप श्रमण और सूक्ष्म दोषों का विवेचन, चोबीसवें में अष्ट प्रवचन माता का वर्णन है। पच्चीसवें में वास्तविक यज्ञ का स्वरूप वर्णन है। २६ वें में भिक्षु की दिनचर्या । २८ वें में मोक्ष मार्ग के साधन, २६ वें में सामान्य भूमिका से मोक्ष तक की भूमिकाओं का और ७३ गुणों का वर्णन । ३० वें में तप का महात्म्य, उसके प्रकार और प्रभाव का वर्णन है । इसी प्रकार ३१ ३ में एक से लेकर तेतीस CERVEEEE VEETEEVEEEEEEEE Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे ॥ ५ ॥ ' तक की वस्तुओं का वर्णन, ३२ वें में प्रमाद स्थानों और असंयम के दुष्परिणामों, ३३ वें में आठ कर्मों के भेद प्रमेद, ३४ में में ६. लेश्याओं, ३५ वें में अणगार का स्वरूप और ३६ में में सम्पूर्ण लोक के पदार्थों का - जीव और अजीव का सुन्दर विवरण है। इस अकार यह सूत्र साधकीय जीवन के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण सूचनाएं और प्रेरणाएं देने वाला है। प्रत्येक मुमुक्षु को इसका पुनः पुनः अध्ययनकर आत्म जागृति और निर्मलता करनी चाहिये । अवशेष अध्ययनों की कथाएँ भी बड़ी प्रबोधक हैं। प्राचीन काल से ही यह सूत्र बहुत ही आदरणीय रहा है। ४ मूल सूत्र में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। इस पर टीकाएं भी सबसे अधिक मिलती है। इसकी कुछ प्रतियां सचित्र भी मिलती हैं। ज्ञात टीकाओं का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है: (१) नियुक्ति, कर्ता भद्रबाहु, प्राकृत गाथाएं ६०७, प्रकाशित । (२) चूर्णि, जिरंणदास गणिमहत्तर, ग्रंथाग्रंथ ५४५० प्रकाशित । (३) शिष्यहिता टीका, शांत्याचार्य -- वादिवेताल, ग्रन्थ १६००० प्रकाशित । ( ४ ) सुबोधा टीका, नेमिचंदमूरि, संवत् ११२६, ग्रन्थ १४००० प्रकाशित । (५) अवचूरि, ज्ञानसागरसूरि, सम्वत् १९४१, (६) वृत्ति, विनियहंस, अंचलगच्छ, सम्वत् १५६७-८१, (७) टीका, कीर्तिवल्लभ गणी, सम्बत् १५५२ अंचलगच्छ । (८) वृत्ति, खरतर, कमलसंयम, संवत् १५५४, जैसलमेर प्रकाशित । (६) लघु वृत्ति, ख. तपोरत्नवाचक सं० १५५०, (१०) टीका दीपिका, माणक्यशेखरसूरि अंचलगच्छ, अप्राप्त, (११) टीका अजितदेवरि, पल्लीवाल मच्छ, सं० १६२६, (१२) चूर्णि, गुणशेखर, (१३) दीपिका खरतर, लक्ष्मीवल्लभ, १८ वीं शताब्दी, प्रकाशित, (१४) वृत्ति भावविजयगणी, सं० १६८६, ग्रन्थ १६२५५, प्रकाशित, (१५) टीका, हर्षनन्दनगणी खरतर गच्छ, सं० १७११, बीकानेर के बड़े ( उपाश्रय) भंडार में है, (१६) टीका मकरंद, धर्ममन्दिर, सं० १७५०, लींबड़ी भंडार में प्रति है । (१७) टीका, SCOPE रह प्रस्तावना ॥ ५॥ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना उत्चराध्ययनसूत्रे ॥६॥ ANGEORGEOEGEGREENEONEONETION उदयसगार, अंचलगच्छ, सं० १५४६, ग्रन्थ ८५००, (१८) दीपिका, सं० १६३७ रचित ग्रन्थ १०७०७, (१६) दीपिका हर्षकुल, (२०) टीका, अमरदेवमूरि, चंद्रगच्छ, सम्भव है नं. ४ वाली ही हो । (२१) वृत्ति, शांतिभद्राचार्य, ग्रंथाग्रंथ १८२६५, (२२) वृत्तिदीपिका, ग्रन्थाग्रन्थ, ११०००, (२३) वृत्ति कर्ता अज्ञात ग्रन्थाग्रन्थ १६०७०, (२४) दीपिका, सं० १६४३ लिखित, (२५) टीका, मुनिचंद्रसूरि, ग्रन्थाग्रन्थ १४०००, (२६) अवचूरि ज्ञानशीलगणी, ग्रन्थाग्रन्थ ३६००, (२७) वृहदवृत्ति सम्भव है नं० ३ ही हो । (२८) अक्षरार्थ लवलेश, सं० १६२१ लिखित, (२६) अवचूरि, सं० १४६१ रचित, (३०) अवचूरियां अनेक, १६ वी १७ वीं शताब्दि लिखित, (३१) टब्बा, मेघराजवाचक पायचंदगच्छ, (३२) बालावबोध, समरचंद्र, पायचंदगच्छ, (३३) बालावबोध, कमललाम खरतरगच्छ, सं० १६७४-६8 के बीच, (३४) बालावबोध सं० १७४१ मानविजय, (३५) बालावबोध, अन्य अनेक हैं, स्थानकवासी मुनियों ने भी बनाये हैं। (३६) टब्बा, आदिचंद्र या राजचंद्र, हमारे संग्रह में है, (३७) वृत्ति, खरतर मतिकीर्ति शिष्य रचित, अपूर्णप्रति अभी हमारे संग्रह में है, (३८) उत्तराध्ययन कथा, पद्मसागरगणि सं० १६५७ पीपाड़ में रचित, (३६) उत्तराध्ययन कथा, पुन्यनन्दनगणी तपागच्छ, (४०) उत्तराध्ययन कथा संग्रह, मुनिसुन्दर शिष्य (शुभशील)। (४१) उत्तराध्ययन गीत, महिमासिंह सम्वत् १६७५ । (४२) स्वाध्याय, ब्रह्मऋषि सं० १५९६ ग्रन्थाग्रन्थ ७०० । (४३) उत्तराध्ययन छत्तीसी, पार्श्वचंद्रसूरि । (४४) उत्तराध्ययन छत्तीस, उदयविजय, १८ वीं शताब्दी, प्रकाशित । (४५) उत्तराध्ययन गीत छत्तीस, खरतर राजशील, ग्रंथ ४१६, १६ वीं शताब्दी, (४६) उत्तराध्ययन गीत छत्तीस, राजलाभ, खरतरगच्छ १८ वीं शताब्दी अपूर्ण । (४७) से (५०) स्थानकवासी, तेरहपंथी संप्रदाय के कई टब्बे पद्यानुवाद जीतमलजी का स्थानकवासी आचार्य आत्मारामजी की आत्मज्ञान प्रकाशिका टीका, घासीलालजी की टीका आदि | SVEGVESVEEVELEVAvelevee Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे प्रस्तावना ॥७॥ NEOYEGreecVEGEGYEEYEGeeeeeeeeee और भी कुछ फुटकर साहित्य खोज करने पर मिलेगा। इस सूत्र के अनेक संस्करण अनेक स्थानों से निकल चुके हैं । मूल और टीकाओं के गुजराती व हिन्दी में अनुवाद कई प्रकाशित हुए हैं। अंग्रेजी में डा. हार्मन याकोबी ने अनुवाद किया और रोमन अक्षरों में श्रीमूलमूत्र प्रकाशित हो चुका है। | इस ग्रंथ में भावविजयगणी रचित टीका प्रकाशित हो रही है। उन्होंने रोहिणीपुर में संवत १६८६ में इसकी रचना की है। इनके गुरुभ्राता विजयहर्षगणि ने इसकी रचना में सहायता की थी। ये तपागच्छीय विजयदानमरि के शिष्य विमलहर्ष शि० उपाध्याय मुनिविमल के शिष्य थे । प्रस्तुत टीका में उन्होंने कथाएं पद्यबद्ध रची है। ये बहुत अच्छे विद्वान् थे। इन्होने सं० १६७६ में पत्रिंशज्जल्पविचार और सं० १७०८ वीजापुर में चम्पकमाला कथा की रचना की है। इससे इनका साहित्य सृजन का काल ३० वर्षे का सिद्ध होता है। इन्होंने अन्य विद्वानों के रचित कई ग्रंथों का संशोधन भी किया है। जैसे सं० १६७७ में जयविजयकृत कल्पसूत्र दीपिका और | सं० १६६६ विनयविजयकृत सुबोधिका टीका तथा उन्हीं के सं० १७०८ में रचित लोकप्रकाश नामक बृहत ग्रंथ का संशोधन किया है। | इससे आपकी विद्वता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। प्रस्तुत टीका का प्रकाशन सं० १६७४ में आत्मान्द सभा, भावनगर द्वारा दो भागों में हुआ था। वह अप्राप्त होने से मुनि श्री हर्षविजयजी ने यह संस्करण बड़े परिश्रम से संशोधन करके प्रकाशित करवाया है। मुनि श्री का यह प्रयत्न प्रत्येक स्वाध्याय प्रेमी और | व्याख्यानदाता मुनियों के लिए लाभप्रद होगा। इसी तरह वे और अन्य ग्रंथों के सम्पादन और प्रकाशन में प्रयत्नशील रहकर जैन साहित्य की अच्छी सेवा करते रहेंगे इस शुभ आशा के साथ यह प्रस्तावना पूर्ण की जा रही है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्यपनपत्रे ॥८॥ वास्तव में प्रस्तुत ग्रंथ रत्न की प्रस्तावना लिखने का अधिकारी में कुछ भी नहीं हूँ। आगमज्ञ विद्वान् ही इसके अधिकारी है। प्रस्तावना | मैंने अपनी असमर्थता भी मुनि श्री से निवेदित की पर प्रस्तुत भाग बीकानेर में छपा है और मुनि श्री को इसे शीघ्र ही प्रकाशित करवा ॥८ ॥ विहार करना है इसलिए बाहर के अन्य किसी विद्वान् से प्रस्तावना मंगाकर प्रकाशित करने का समय न देखकर मुझे ही लिख देने का कि उन्होंने भादेश दिया, जो मेरे लिए शिरोधार्य करना कर्तव्य हो गया । पुनः इस प्रसंग से प्रस्तुत सूत्र के प्रकाशित कई संस्करणों को पुनः देख जाने का मुझे सुयोग मिला इसके लिए में मुनि श्री का आभारी हूँ। प्रस्तुत सूत्र में बहुत मर्मस्पर्शी उपदेश और सुभाषित गाथाओं का अनुपम संग्रह है। उनमें से कुछ सुनी हुई गायींओं को अर्थ ॥ सहित प्रस्तावना में देने का विचार था पर प्रस्तावना अधिक विस्तृत न हो जाय, इस भय से उस लोम का संवरण करना पड़ा है। इसी प्रकार भावविजय गणि की टीका में जो बहुत सी रोचक और प्रेरणादायक कथाएं हैं उनकी और भी पाठकों का ध्यान दिलाना श्राव श्यक था पर ग्रंथ छपा हुआ तैयार था अतः प्रस्तावना के लिए प्रकाशन में विलम्ब करना उचित नहीं समझा गया। आशा है कि भगवान महावीर की इस उदात्त वाणी के स्वाध्याय में हम सब अधिकाधिक प्रयत्नशील होंगे। -अगरचन्द नाहटा Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ e उत्तराध्ययनसूत्रम् अध्य०१८ -NENEFeeeeeeeeeeeeeeeeer श्रीउत्तराध्ययनसूत्रं भाग ३॥ अथ अष्टादशमध्ययनम् ॥ उक्त सप्तदशमध्ययनमथाष्टादशं संयतीयाख्यमारभ्यते, अस्य चायं सम्बन्धः, इहानन्तराध्ययने पापस्थानवर्जनमुक्त, तच्च भोगद्धित्यागेन सञ्जयनृपवद्विधेयमिति सम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्मुलम्-कंपिल्ले नयरे राया, उदिण्णबलवाहणे। नामेणं संजए नाम, मिगव्वं उवनिग्गए ॥ १ ॥ व्याख्या--'काम्पील्ये' काम्पील्यनाम्नि नगरे राजा उदीर्णम्-उदयप्राप्तं बलं-चतुरङ्ग वाहनं च-शिबिकादिरूपं यस्य स तथा, स च नाम्ना सञ्जयो 'नामे'ति प्राकाश्ये, ततः सञ्जय इति प्रसिद्धो 'मृगव्यां' मृगयां प्रतीति शेषः, 'उपनिर्गतो' निर्यातः पुरादिति गम्यते, इति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ स च कथं निर्गतः ? किं चकारेत्याह-- मूलम्-हयाणीए गयाणीए रहाणीए तहेव य । पायत्ताणीए महया, सव्वओ परिवारिए ॥ २ ॥ मिए छुभित्ता हयगओ, कंपिल्लुजाणकेसरे । भीए संते मिए तत्थ, वहेइ रसमुच्छिए ॥३॥ व्याख्या सर्वत्र सुळ्यत्ययात् हयानीकेन गजानीकेन रथानीकेन तथैव च पदातीनां समूहः पादातं तदनीकेन च महता सर्वतः परिवारितः मृगान् ‘क्षिप्त्वा' प्रेर्य 'हयगतो' अश्वारूढः काम्पील्यस्य सम्बन्धिनि केसरनाम्निउद्याने 'भीतान्' त्रस्तान् 'श्रान्तान्' इतस्ततः प्रेरणेन खिन्नान् ‘मितान्' परिमितान् 'तत्र' तेषु मृगेषु मध्ये "वहेइ”ति हन्ति 'रसमूच्छितः' तन्मांसास्वादलुब्ध इति सूत्र| यार्थः ॥ २-३ ॥ तदा च यदभूत्तदाह Veeeeeeeeeeeeeeeeee Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनमूत्रम् ॥ २ ॥ -यो-थोरया य मूलम् — अह केसरंमि उज्जाणे, अणगारे तवोधणे । सज्झायाण संजुत्ते, धम्मज्भाणं क्रियायइ ॥ ४ अफोवमंडवंसि, झायइ झवित्रासवे । तस्सागए मिए पासं, वहेइ से नराहिवे ॥ ५ ॥ ‘अथ' अनन्तरं केसरोद्याने अनगारस्तपोधनः स्वाध्यायध्यानसंयुक्तो यथावसरं तदासेवनात् श्रत एव धर्मध्यानं ध्यायति ॥ अफोव इति-वृक्षाद्याकीर्णः स चासौ मण्डपथ - नागकन्यादिसम्बन्धी अफोवमण्डपस्तस्मिन् ध्यायति धर्मध्यानमिति शेषः, पुनरस्याभिधानमतिशयद्योतकं, "वित्र" त्ति क्षपिता श्रश्रवाः हिंसादयो येन स तथा 'तस्य' मुनेः श्रागतान् मृगान् 'पाथ' समीपं "वहे" हिन्ति नराधिप इति सूत्राद्वयार्थः ॥ ४-५ ॥ मूलम् - ह सगो राया, खिप्पमागम्म सो तहिं । हए मिए उपासित्ता, अणगारं तत्थ पासई ॥६॥ व्याख्या–‘अथ' अनन्तरमश्वगतो राजा चिप्रमागम्य स ' तस्मिन् मण्डपे हतान् "मिए उ" त्ति मृगानेव न पुनमु निमित्यर्थः, दृष्टा नगरं तत्र पश्यति इति सूत्रार्थः || ६ || ततोऽसौ किं चकार १ इत्याह मूलम् - हराया तत्थ संभंतो, अणगारो माह । मए उ मंदपुराणेणं, रसगिद्धे ण घरगुरणा ॥७॥ संविसज्जइत्ता, अणगारस्स सो निवो। विणणं वंदए पाए, भगवं एत्थ मे खमे ॥८॥ अह मोणेण सो भयवं, अणगारो भाणमस्ति । रायाणं न पडिमंतेइ, तो राया भयदुओ ॥६॥ अध्य० १८ ॥२॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥ ३ ॥ संजय अहमस्सीति, भयवं वाहराहि मे । कुद्धे तेपण अणगारे, दहिज्ज नरकोडियो ॥ १० ॥ व्याख्या - अथ राजा 'तत्र' मुनिदर्शने जाते सति 'सम्भ्रान्तो' भीतो यथाऽनगारो 'मनाक्' स्तोकेनैव 'आहतो' न मारितः तदासन्नमृगहननादिति भावः, मया 'तुः' पूर्ती, मन्दपुण्येन रसगृद्धेन "घरगुण "त्ति 'घातुकेन' हननशीलेन ॥ अश्व 'विसृज्य' विमुच्य अनगारस्य स नृपः बिनयेन वन्दते पादौ वक्ति च यथा भगवन् ! 'अत्र' मृगवधे 'मे' ममापराधमिति शेषः, क्षमस्व ॥ अथ मौनेन स भगवान् अनगारो ध्यानमाश्रितः राजानं 'न प्रतिमन्त्रयति' न प्रतिवक्ति यथा ग्रहं क्षमिष्ये न वेति, 'ततो' हेतो राजा 'भयद्रुतो' भयत्रस्तोऽभूत् यथा न ज्ञायते किमयं क्रुद्धः करिष्यतीति ।। प्रोचे च यथा - सञ्जयनामा राजाहमस्मि न तु नीच इति भावः इति एतस्माद्धेतोर्हे भगवन् ! 'व्याहर' सम्भाषय "मे" इति मां किमेवं भवान् भयद्रुत इत्याह- क्रुद्धस्तेजसाऽनगारो दहेन्नरकोटीरास्तां शतं सहस्र' चेत्यतो भयद्रुतोऽहमिति सूत्रचतुष्कार्थः ॥ ७-१० ॥ इत्थं तेनोक्ते मुनिराह मूलम् - भो पत्थिवा तुब्भं, अभयदा या भवाहि अ । अणिच्चे जीवलोगंमि, किं हिंसाए पसज्जसि ? ११ जया सव्यं परिच्चज, गंतव्वमवसस्स ते ! अनिच्चे जीवलोगंमि, किं रज्जमि पसज्जसि ? ॥ १२ ॥ जीवि चैव रूवं च, विज्जुसंपायचंचलं । जत्थ तं मुज्झसी राय, पेच्चत्थं नावबुज्झते ॥ १३ ॥ दाराशि सुझा चेव, मित्ताय तहा बंधवा । जीवंतमणुजीवंति, मयं नाणुव्वयं ति ॥ १४ ॥ NNNNNN अध्य० १८ ॥३॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतराध्य यन मूत्रम् || 8 || निहरंति मयं पुत्ता, पिचरं परमदुक्ख । पिरोऽवि तहा पुत्ते, बंधू रायं तवं चरे ॥ १५ ॥ तेज दव्वे, दारे परिरक्खिए । कोलंतन्ने नरा राय, हट्टतुट्ठा अलंकि ॥ १६ ॥ विजं कयं कम्मं, सुहं वा जइ वाऽसुहं । कम्मुखा तेण संजुत्तो, गच्छइ उ परं भवं ॥ १७॥ व्याख्या – अभयं पार्थिव ! तव न तु कोऽपि त्वां दहतीति भावः, इत्थं समाश्वास्योपदिशति 'अभयदाता च' प्राणिनां प्राणत्राणकर्ता "भवाहिय" त्ति भव, यथा तव मृत्युभयं तथाऽन्येषामपीति भावः, अनित्ये जीवलोके किं हिंसायां प्रसज्जसि ? नरकहेतुरियं कत्तु नोचितेति भावः । किञ्च – यदा 'सर्व' कोशान्तः पुरादि परित्यज्य गन्तव्यं भवान्तरमिति शेषः, 'अवशस्य' अस्वतन्त्रस्य 'ते' तव ततोऽनित्ये जीवलोके किं राज्ये प्रसज्जसि ? ॥ अनित्यतामेव भावयति - जीवितं चैव रूपं च विद्युत्सम्पातो - विद्युच्चञ्चलं विद्युत्सम्पातचञ्चलं 'यत्र' जीविते रूपे च त्वं मुह्यसि हे राजन् ! 'प्रेत्यार्थं ' परलोककार्यं नावबुध्यसे ॥ तथा दाराश्च सुताचैव मित्राणि च तथा बान्धवाः जीवन्तं ‘अनुजीवन्ति' तदर्जितवित्ताद्युपभोगेन मृतं नानुव्रजन्त्यपि चशब्दस्याऽप्यर्थत्वात् कथं पुनः सहायाः स्युरित्यतः कृतध्नेषु तेषु नास्था कार्येति भावः || "निहरंति" निस्सारयन्ति मृतं पुत्राः पितरं परमदुःखिता अपि पितरोऽपि तथा पुत्रान् "बंधू" ति बन्धवश्च बन्धूनिति शेषः, ततो राजंस्तप: 'चरेः' आसेवेथाः || 'ततो' निस्सारणानन्तरं 'तेन' पित्रादिनाऽर्जिते द्रव्ये सति दारेषु च परिरक्षितेषु क्रीडन्ति तेनैव वित्तेन तैर्दारैश्चेति गम्यं, अन्ये नरा राजन् ! 'हृष्टतुष्टा अलंकृताः तत्र हृष्टाः - बहिः पुलकादिमन्तः तुष्टाःआन्तरप्रेमभाजः, अलंकृताः-विभूषिताः यतः ईदृशी भवस्थितिस्ततो राजंस्तपश्चरेरिति सम्बन्धः || मृतस्य का वार्त्ता ? इत्याह- तेना अध्य०१८ 11811 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०१८ उत्तराध्य A यनसूत्रम् PARA ऽपि यत्कृतं कर्म शुभं वा यदिवा अशुभं कर्मणा तेन 'उत्तरतुशब्दस्यैवकारार्थस्येह योगात्तेनैव' न तु धनादिना संयुक्तो गच्छति, 'परम्' अन्यं भवं, यत एवं शुमाशुभयोरेवानुयायित्वं ततः शुभहेतु तप एव चरेरिति सूत्रसप्तकार्थः ॥ ११-१७ ॥ ततश्चमुलम्-सोऊण तस्स सो धम्मं, अणगारस्स अंतिए । महया संवेगनिव्वेअं, समावण्णो नराहिवो १८ संजो चढउं रज' निक्खंतो जिणसासणे । गहभालिस्स भगवो, अणगारस्स अंतिए ॥१६॥ चिच्चा रह पव्वइए, खत्तिए परिभासई । जहा ते दीसइ रूवं, पसन्न ते तहा मणो ॥२०॥ किं नामे ? किंगोत्ते ?, कस्सट्टाए व माहणे ?। कहं पडिअरसी बुद्ध ? कहं विणीएत्ति वुच्चसी ?॥२१॥ मा व्याख्या-स्पष्टं, नवरं "महय"त्ति महत् 'संवेगनिर्वेद' तत्र संवेगो-मोक्षाऽभिलाषः निर्वेदः-संसारोद्वेगः ॥ सञ्जयस्त्यक्त्वा राज्यं निष्क्रान्तः' प्रबजितो जिनशासने न त्वन्यत्र, गईभालेभगवतोऽनगारस्याऽन्तिके॥ स चैवं प्रव्रज्याधिगतश्रुतः सामाचारीरतोऽप्रतिबद्धतया विहरन कश्चित्सन्निवेशमगात्तत्र च यदभूत्तदाह-त्यक्त्वा 'राष्ट्र' देशं प्रवजितः 'क्षत्रियः' क्षत्रियजातिरनिर्दिष्टनामा कोपि मुनिः परिभाषते सञ्जयराजर्षिमिति शेषः, स हि पूर्वभवे वैमानिकोऽभूत्ततश्च्युतश्च क्षत्रियकुले राजा जातस्तत्र च कुतोऽपि निमिताज्जातजातिस्मृतिस्तत एवं विरक्तः प्रव्रज्य विहरन् सञ्जयमुनि प्रेक्ष्य तत्परीक्षार्थमिदमाचख्यौ,यथा ते दृश्यते रूपं 'प्रसन्न' निर्विकारं 'ते' तव तथा मनोऽपि प्रसन्नं वर्तते इति शेषः, अन्तः कालुष्ये हि सति बहिनॆवं प्रसन्नता स्यादिति भावः ॥ किञ्च-कि नामा ? किं गोत्रः ? "करसहाएव"त्ति कस्मै वा अर्थाय 'माहनः प्रवजितः ? 'कथं केन प्रकारेण 'प्रतिचरसि' सेवसे 'बुद्धान्' आचार्यादिन् ? ADAVE Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् CODeeeeeeeeeeeeeeeeev | कथं विनीत इत्युच्यसे ? इति सूत्रचतुष्कार्थः ॥ १८-२१ ॥ सञ्जयमुनिराह| मूलम् -संजयो नाम नामेणं, तहा गोत्तेण गोअमो । गद्दभाली ममायरिया, विज्जाचरणपारगा ॥२२॥ अध्य०१८ . . व्याख्या–सञ्जयो नाम नाम्ना, तथा गोत्रेण गौतमोऽहमिति शेषः, शेषप्रश्नत्रयोत्तरमाह-गईभालयो. ममाऽऽचार्याः, in 'विद्याचरणपारगा. श्रुतचारित्रमरगामिनः अयं भावः- गर्दभालिनामाचार्जीवधातान्निवर्तितोऽहं तनिवृत्तौ च तैः मुक्तिरूपं फलं दर्शितं ततस्तदर्थ माहनोऽस्मि, यथा तदुपदेशं गुरून् प्रतिचरामि, तदुपदेशासेवनाच्च विनीतोऽहमिति सूत्रार्थः ॥ २२ ॥ ततस्तद्गुणाकृष्टचेता अपृष्टोऽपि क्षत्रिय इदमाहमूलम् -किरिअं अकिरिअं विणयं, अण्णाणं च महामुणी ।। एएहिं चउहि ठाणेहिं मेअण्णे किं पभासति १२३ ... व्याख्या-‘क्रिया अस्ति जीव इत्यादिरूपा, नपुंसकत्वं प्राकृतत्वात्,, एवमग्नेऽपि, 'अक्रिया' तद्विपरीता, 'विनयो' नमस्कारादिः, 'अज्ञानं तवाऽनवगमः, 'च' समुच्चये, हे महामुने ! 'एतैः क्रियादिभिश्चतुभिः स्थानः “मेराणेति मेयं-ज्ञेयं जीवादिवस्तु जानन्ति इति मेयज्ञाः, क्रियादिभिः स्वस्वाभिप्रायकल्पितैः वस्तुतत्त्वपरिच्छेदिन इत्यर्थः । 'किमिति : कुत्सितं "पभासत"त्ति प्रभाषन्ते विचाराक्षमत्वात् तदुक्तीनां । तथाहि-ये तावत् क्रियावादिनः ते अस्तिक्रियाविशिष्टमात्मानं मन्यमाना अपि विभुरविभुः कर्ता अकर्ता मूर्तोऽमूर्तोऽसावित्याद्येकान्तवादमभ्युपगताः, कुत्सितभाषणञ्चैतन, युक्तिवाधितत्वात् । इह हि विभुत्वं व्यापित्वं, तच्चात्मनोन घटते, देह एव तल्लिङ्गभूतचैतन्योपलब्धेः, न च वाच्यं आत्मानो अव्यापित्वे तद्गुणयोधर्माधर्मयोरपि अध्यापित्वं, तथा च द्वीपान्त CELESECEVEEVeeve EVA Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N उत्तराध्य अध्य०१८ ॥७ ॥ यनसूत्रम् ॥७॥ VeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeYC रगतदेवदत्तादृष्टाकृष्टमणिमुक्तादीनामिहागमनं न स्यादिति, भिन्न देशरथस्याप्ययरकान्तादेलोहाद्याकर्षणशत्तिदर्शनात् शरीरच्यापिनोरपि धर्माऽधर्मयो(रस्थस्याऽपि वस्तुन आकर्षणमुपपद्यत एवेति न विभुत्वमात्मनो युज्यते । तथाऽविभुरप्यङ गुष्टपर्वमात्रायधिष्ठानो यैरिष्यते तेषामपि शेषावयवेषु चैतन्याभावाच्छस्त्रादिना छेदने वेदनानुभवाभावः स्यान्न चैवं दृश्यते, एवं कर्तृत्वाद्यकान्तवादोऽपि स्वधियाऽपासनीयः । अक्रियावादिनस्तु अस्तिक्रियाविशिष्टमात्मानं नेच्छन्त्येव, तदप्यसङ्गत्तरं, अहं सुखीत्यादिप्रत्ययानामन्यथानुपपत्या मानसप्रत्यक्षादिप्रमाणगम्यत्वात् तस्य । विनयवादिनस्तु सुरनृपमुनिगजवाजिगोमृगकरभमहिषकुक्कुरलगलशृगालकाकमकरादिनमस्कारकरणादेव कर्मक्षयमभ्युपगताः, दुष्टञ्चैतद्, लोकसमयवेदेषु गुणाधिकस्यैव विनयाहतया प्रतीतत्वात, तदन्यविनयस्य चाशुभफलत्वात् । अज्ञानवादिनश्च ज्ञानस्य मोक्षं प्रत्यनुपयोगित्वात् केवलं कष्टमेव कार्य, न हि कष्टविनेष्टसिद्धिरिति प्रतिपन्नाः, इदमप्ययुक्तमेव, ज्ञानमन्तरेण हेयोपादेयनिवृत्तिप्रवृत्त्यभावात, ज्ञानं विना च भूयोपि कर्मानुष्ठानं पशोरिव व्यर्थमेव स्यादिति सर्वेऽप्यमी कुत्सितमेव प्रभाषन्ते इति स्थितमिति सूत्रार्थः ॥ २३ ॥ न चैतत्स्वाभिप्रायेणैवोच्यते इत्याहमूलम् - इइ पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिव्वुडे । विज्जाचरणसंपन्ने, सच्चे सच्चपरक्कमे ॥२४॥ व्याख्या-'इति' एते क्रियावाद्यादयः कुत्सितं प्रभासन्ते इत्येवं रूपं "पाउकरे"त्ति 'प्रादुरकार्षीत् ' प्रकटितवान् 'बुद्धो' ज्ञाततत्त्यो | ज्ञात एव 'ज्ञातक' क्षत्रियः, स चात्र प्रस्तावाद् महावीरः, 'परिनिवृतः कषायानल विध्यापनाच्छीतीभूतः विद्याचरणाभ्यां क्षायिकज्ञानचारित्राभ्यां सम्पन्नो यः स तथा, अत एव 'सत्यः' सत्यवाक् 'सत्यपराक्रमः सत्यवीर्यः इति सूत्रार्थः ॥२४॥ तेषां फलमाह EGVESEVEGVANG VEGVES Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥ ८ ॥ मूलम् — पडंति नरए घोरे, नरा पावकारिणो । दिव्वं च गई गच्छति, चरित्ता धम्ममारि ॥ २५ ॥ 'व्याख्या - पतन्ति नरके 'घोरे' रौद्रे ये नरा उपलक्षणत्वादन्ये च जीवाः, पापमिह प्रस्तावादसत्प्ररूपणारूपं कर्त्तुं शीलं येषां ते पापकारिणः, ‘दिव्यां’ देवसन्बन्धिनीं सर्वगतिप्रधानां वा सिद्धिरूपां गतिं गच्छन्ति 'चरित्वा' आसेव्य 'धर्मम्' इह सत्प्ररूपणारूपं 'आर्यम्' ततोऽसत्प्ररूपणां हित्वा सत्प्ररूपणापरेणैव भवता भवितव्यमिति भावः, इति सूत्रार्थः ॥ २५॥ अथ कथममी पापकारिणः ९ इत्याहमूलम् - मायाबुइ अमेयं तु, मुसाभासा निरत्थिया । संजममाणो वि अहं, वसामि इरिश्रामि ॥२६॥ उत्तमम् व्याख्या - मायया - शाठ्येन “बुइयं" ति उक्तं मायोक्तं 'एतद्' अनन्तरोक्तं क्रियादिवादिभिरुक्तं, 'तुः ' एवकारार्थः स च मायोक्तमेवेत्यत्र योज्यः, अत एव तेषां मृषा भाषा 'निरर्थिका' सम्यगभिधेयशून्या, ततः " संजममाणो वि "त्ति अपिरेवकारार्थः, ततः 'संयच्छन्नेव' उपरमन्नेव तदुक्तिश्रवणादेः 'अहमि' त्यात्मनिर्देशो विशेषेण तं स्थिरीकत्तु 'वसामि' तिष्ठामि उपाश्रय इति शेषः, "इरिआमिश्रति 'ईरे च' गच्छामि च गोचरादाविति सूत्रार्थः ||२६|| कुतस्त्वं तदुक्ताकर्णनादुपरमसि ? इत्याह मूलम् सव्वे ते विइया मझ, मिच्छादिट्ठी अणारिया । विज्जमाणे परे लोए, सम्मं जाणामि अप्पयं ॥२७॥ व्याख्या-सर्वे 'ते' क्रियादिवादिनो विदिता मम यथाऽमी मिध्यादृष्टयः तत एव 'अनार्याः' पशुहिंसाद्यनार्य कर्मप्रवृत्ताः कथमीदृशाः 'ते' तत्र विदिताः ? इत्याह-विद्यमाने 'परलोके ' अन्यजन्मनि सम्पन् जानाम्यात्मानं भवान्तरादागतं, ततः परलोकात्मनोः सम्यग्वेदनाद् १० दिव्यां वा सर्वगतिप्रधानां सिद्धि० इति हर्षप्रतौ । अध्य०१८ ॥ ८ ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥ ६॥ मम ते तादृशा विदिताः, ततोऽहं तदुक्ताकर्णनादेः संयच्छामि इति सूत्रार्थः ।। २७ ।। कथमात्मानमन्यभवादागतं वेत्सि ? इत्याहमूलम् - मासि महापाणे, जुइमं वरिससवमे । जा सा पाली महापाली, दिव्वा वरिससवमा ॥ २८ ॥ से 'चुए वंभलोआओ, माणुस्तं भवमाग । अपणो अ परेसिं च, आउं जाणे जहा तहा ॥२६॥ व्याख्या—“श्रहमासि”त्ति अहमभूवं 'महाप्राणे' ब्रह्मलोकविमाने द्युतिमान् वर्षशतजीविना उपमा यस्याऽसौ वर्षशतोपमः, मध्यपदलोपी समासः, अयमथ-यथेह सम्प्रति वर्षशतजीवी पूर्णायुरुव्यते तथाऽहमपि तत्र पुर्णायुरभूवम् । तथाहि या सा पालिखि पालि:जीवितजलधारणाद्भवस्थितिः सा चोत्तरत्र महाशब्दोपादानादिह पल्योपमप्रमाणा, 'महापाली' सागरोपमप्रमाणा, तस्या एव महत्त्वात् । दिनि भवा दिव्या वर्षशतैः–केशखण्डोद्धारहेतुभिरुपमा अर्थात् पल्यविषया यस्यां सा वर्षशतोपमा, तत्र मे महापाली दशकरूपा दिव्या भवस्थितिरासीदित्युपस्कारः, ततश्चाहं वर्षशतोपमायुरभूवमिति भावः ।। " से " इति अथ स्थितिपालनानन्तरं च्युतो ब्रह्मलोकाद् मानुष्यं भवमागत इत्थमात्मनो जातिस्मरणात्मकमतिशयमुक्त्वाऽतिशयान्तरमाह - श्रात्मनश्च परे व आयुर्जानामि 'यथा' येन प्रकारेण स्यात् ' तथा ' तेनैव प्रकारेण न त्वन्यथेति भाव इति सूत्रद्वयार्थः ॥ २८- २६ ॥ इत्थं प्रसङ्गादमपि स्त्रवृत्तान्तमाचख्योपदेष्टुमाह मूलम् - नाणा रुइं च छंदं च, परिवज्जिज्ज संजए । अट्ठा जे अ सव्वत्था, इइ विज्जाम संचरे ॥३०॥ व्याख्या—'नाना' अनेकधा 'रुचिं च' प्रक्रमात् क्रियावाद्यादिमतविषां वाञ्छ 'छन्दश्व' स्वमतिकल्पितमाशयम् । इहापि नानेति सम्बन्धादनेकत्रिधं परिवर्जयेत् संयतः । तथा 'अनर्थाः' निःप्रयोजनाः ये च व्यापारा इति गम्यं, “सव्वत्था” अत्राऽऽकारस्यालाक्षणिकत्वात् अध्य०१८ ॥ ६॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥ १० ॥ 'सर्वत्र' क्षेत्रादौ तानपि परिवर्जयेदिति सम्बन्ध इत्येवंरूपां 'त्रियां' सम्यग्ज्ञानरूपां 'अनु' लक्षीकृत्य 'सञ्चरे: ' सम्यक् संयमाध्वनि यायाः इति सूत्रार्थः ॥ ३० ॥ तथा मूलम् - पडिक मामि परिणाणं, परमंतेहिं वा पुणो । अहो उट्टिए अहोरायं, इइ विज्जा तवं चरे ॥ ३१ ॥ व्याख्या– 'प्रतिक्रमामि' प्रतिनिवत्तें “पसिगाणं” ति 'प्रश्नेभ्यः' शुभाशुभसूचकेभ्योऽङ्ग ुष्ठप्रश्नादिभ्यः, तथा परे-गृहस्थाः तेषां मन्त्राः-तत्कार्यालोचनरूपास्तेभ्यो, 'वा' समुच्चये, 'पुनः' विशेषणे, अतिसावद्यत्वं तेषां विशिनष्टि, सोपस्कारत्वात्सूत्रस्य यश्चैवं संयमं प्रति उत्थानवान् सः 'अहो' इति विस्मये 'उत्थितो' धर्मम्प्रत्युद्यतः, कश्चिदेव हि महात्मा एवंविधः स्यादित्याश्चयं, 'अहोरात्र' अहर्निशं 'इति' एतदनन्तरोक्त' "बिज्ज" ति 'विद्वान्' जानन् “तवं" ति गम्यत्वादवधारणस्य तप एव न तु प्रश्नादि 'चरे:' आसेवेथा इति सूत्रार्थः ||३१|| अथ सञ्जययतिना कथमायुर्वेत्सीति पृष्टोऽसावाह मूलम् - जं च मे पुच्छसी काले, सम्मं सुद्धे चेअसा । ताई पाउकरे बुद्ध, तं नाणं जिणसासणे ॥ ३२॥ घ्याख्या—यच्च 'मे' इति मां पृच्छसि 'काले' कालविषयं सम्यक् शुद्धेन चेतसोपलक्षितः, "ताई" ति सूत्रत्वात् तत् 'प्रादुष्कृतवान्' प्रकटितवान् 'बुद्ध:' सर्वज्ञोऽत एव तज्ज्ञानं जिनशासने सावधारणत्वाद्वाक्यस्य जिनशासने एव न त्वन्यत्र सुगतादिशासनेऽतो जिनशासने एव यत्नः कार्यो येन यथाऽहं जानामि तथा त्वमपि ज्ञास्यसि इति भाव:, इति सूत्रार्थः ॥ ३२ ॥ पुनरुपदेष्टमाहमूलम् - किरि च रोए धीरो, अकिरिअं परिवजिए । दिट्ठिए दिट्टिसंपन्ने, धम्मं सुदुच्चरं ॥३३॥ अध्य०१८ ॥ १० ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०१८ ॥११॥ AMAR व्याख्या--'क्रियां च' अस्ति जीव इत्यादिरूपां सदनुष्ठानात्मिका वा रोचयेत् 'धीरः' अक्षोभ्यः, तथा 'प्रक्रियां' नास्त्यात्मा उत्तराध्या इत्यादिकां परिवर्जयेत्, ततश्च ‘दृष्टया' सम्यग्दर्शनरूपया उपलक्षिता या दृष्टिः-बुद्धिःसा चेह प्रक्रमात् सम्यग्ज्ञानात्मिका तया सम्पनो पर यनसूत्रम् AME दृष्टिसम्पन्नः, एवं च सम्यग्दर्शनज्ञानान्वितः सन् धर्म 'चर' सेवरख 'सुदुश्चरं' अत्यन्तकष्टानुष्ठेयमिति नत्रार्थः ॥३३॥ पुनः क्षत्रियमुनिरेख ॥११॥ सञ्जयमुनि महापुरुषदृष्टान्तैः स्थिरीकत्तु माह मूलम्-एअं पुण्णपयं सोच्चा, अस्थधम्मोवसोहिअं । भरहो वि भारहं वास, चिच्चा कामाई पव्वए ॥३४॥ _ व्याख्या- 'एतत्' पूर्वोक्तं पुण्यहेतुत्वात् पुण्यं पद्यते-गम्यतेऽर्थोऽनेनेति पदं पुण्यं च तत् पदं च 'पुण्यपदं' क्रियावादादिलक्षणनानारुचिवर्जनादिज्ञापकं शब्दसन्दर्भ श्रुत्वा अर्थः-अर्थ्यमानतया स्वर्गाऽपवर्गादिः, धर्मः तदुपायभूतः श्रुतधर्मादिस्ताभ्यामुपशोभितं अर्थधर्मोपशोभितं, 'भरतः प्रथमचक्री, अपिशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चये, भारतं वर्ष' क्षेत्रं त्यक्त्वा "कामाई" ति चस्य गम्यत्वात् , कामांश्च "पच्चए" त्ति प्रावाजीत् तत्कथांशस्त्वेवम् 'तथाहि . अत्रैव भरते शक्रा-जया श्रीदेन निर्मिता । अस्त्ययोध्या पुरी स्वर्ग-प्रतिस्पर्द्धिसमृद्धिका ॥१॥ प्रथमः 'प्रथितः पृथ्व्यां, पुत्रः श्रीवृषभप्रभोः । सार्वभौमोऽभवत्तत्र, भरतो भरतेश्वरः ॥२॥ चतुर्दशानां रत्नानां, विभुर्नवनिधिप्रभुः । द्वात्रिंशता सहस्रभूIA भुजां सेवितपत्कजः ॥३॥ लक्षश्चतुरशीत्याऽश्व-रथेभानां समाश्रितः ।। ग्रामाणां च पदातीनां, कोटिपएणवतेः पतिः॥४॥ लोका १ हर्षप्रतो नास्ति । २ ख्यातः। ३ सेवितरणकमलः। ANNEAEGNEVENLEVEGVEENEE VEEvereeve Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥ १२ ॥ Core त्रिंशत्सहस्र - देशानां धृतशासनः । संत्पत्तन सहस्राणां द्विचतुर्विंशतेर्विभुः ॥ ५ ॥ द्वासप्ततेः श्रेष्ठपुर - सहस्राणामधीश्वरः । सहस्रोनं द्रोणमुख- लक्षं च परिरक्षयन् ॥ ६ ॥ गुह्यकानां षोडशभिः सहस्रः सेवितोऽनिशम् ॥ षट्खण्डं भरतक्षेत्र - मखण्डाज्ञः प्रपालयन् || ७ || चतुषष्टिसहस्रान्तः–पुरस्त्रीभिः सहान्ब्रहम् ॥ क्रीडन् पूर्वोक्तपुण्यद्रु-पुष्पाभं सौख्यमाश्रयन् ॥ ८ ॥ ऋषभस्वामि निर्वाणा, पदे ऽष्टापदपर्वते ॥ चैत्ये स्वकारि भक्त्या, जिनबिम्बानि पूजयन् ॥ ६ ॥ साधर्मिकाणां वात्सल्यं कुर्वन्नाश्रितवत्सलः । पूर्वलक्षाणि षट् क्षोणीहर्यत्वात् ॥ १० ॥ [ अष्टभिः कुलकम् ] अन्यदा प्रातरभ्यक्तो- द्वर्त्तितस्नपिताङ्गकः ।। आदर्शसदनं सोऽगा-सर्वालङ्कारभूषितः ॥ ११॥ तत्राऽऽत्मदर्शे महति, पश्यंवक्री निजं विपुः ॥ अष्टाङ्गुलीयकामेकां, ददर्श स्वकराङ्ग ुलीम् ॥ १२ ॥ श्रशोभमानां तां प्रेक्ष्य, प्रेक्षावान् क्ष्माधवाग्रणीः ॥ सकलानप्यलङ्कारा- नेकैकमुदतारयत् ॥ १३ ॥ तत 'उज्झितपाथोजं, पद्माकरमिवाऽऽत्मनः ॥ विलोक्य वपुरश्रीकमिति दध्यौ धराधवः ॥ १४ ॥ अहो ! आगन्तुकैरेव -द्रव्यैरङ्ग' विराजते । स्वाभाविकं तु सौन्दर्य, किमप्यस्य न दृश्यते ॥ १५ ॥ स्वरूपा सारवां वक्ति, यस्य संस्कारसारता || मोहादेव तदप्यङ्ग' जना जानन्ति मञ्जुलम् ॥ १६ ॥ मनोज्ञमप्यन्नपान - पुष्पगन्धांशुकादिकम् ॥ विनश्यत्यस्य सङ्गन, ब्रह्मचर्यमित्र स्त्रियाः ।। १७ ।। तदहो निर्विवेकत्वं विदुषामपि बालवत् ।। ये देहस्येदृशस्यापि कृते पापानि कुर्वते ! ॥ १८ ॥ तन्मोक्षदायि मानुष्यं शरीरार्थेन पाप्मना ॥ द्यूतेनेव सद्रत्नं युक्तं नाशयितुं न मे ॥ १६ ॥ ध्यायन्नित्यादि सम्प्राप्तः, संवेगमधिकाधिकम् ।। आरूढः क्षपकश्रेणीं, निश्रेणीं शिवसद्मनः ॥ २० ॥ घनघातिदयं कृत्वा, भावचारित्रमाश्रितः । अज्ञानतिमिरादित्यं, केवलज्ञानमाप सः ॥ २१ ॥ [ युग्मम् ] कृत्वा लोचं शक्रदत्तं मुनिवेशं दधनतः । निर्जगाम गृहाच्चक्रि - साधुर्भानुरिवाम्बु१ यज्ञानाम् । २ भूमीन्द्रः । ३त्यक्तकमलम् । ४ सीडी इति भा० । अध्य०१८ ॥ १२ ॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१३॥ अध्य०१८ ॥१३॥ FELEVAVAVAVATEATEATGRASAV दात् ॥२२॥ तमुपात्तव्रतं वीक्ष्य, क्षामसंसारवासनाः ॥ भूपा दश सहस्राणि, दीक्षामाददिरे मुदा ॥ २३॥ ततः शक्रादयो देवा-स्तं नत्वा स्वाश्रयं ययुः। भुवि व्यहार्षीद्भगवा-नपि भव्यान् प्रबोधयन् ॥२४॥ सप्तसप्ततिलक्षाणि, पूर्वाणां भरतप्रभोः।कौमारे मण्डलित्वे तु, सहस्र 'शरदामभूत् ॥ २५॥ 'चक्रित्वेऽष्ट(च)सहस्रोनाः, पूर्वलक्षा रसोन्मिताः ॥ पूर्वाणां लक्षमेकं तु, केवलीत्वे व्रतेऽपि च ॥ २६ ॥ सर्वायुषा चतुरशीतिमितानि पूर्व-लक्षाणि सम्यगतिगम्य महेन्द्रनम्यः ।। कर्मक्षयेण भरतेश्वरसाधुराजो, भेजे महोदयरमामुदितोदितश्रीः ॥२७॥ इति भरतचक्रिकथालेशः ॥३४॥ मूलम्-सगरोवि सागरंत, भरहवासं नराहियो । इस्सरिअं केवलं हिच्चा, दयाए परिनिव्वुए ॥ ३५॥ ___ व्याख्या-'सगरोऽपि' द्वितीयचक्री 'सागरान्तं' पूर्वादिदिक्त्रये समुद्रपर्यन्तं, उत्तरस्यां तु हिमवदन्तं भरतवर्ष नराधिपः, ऐश्वर्यञ्च 2 'केवलं' परिपूर्ण हित्वा 'दयया' संयमेन परिनिवृतो मुक्तः । तद्वृत्तलेशो यथा, तथाहि अयोध्यायां पुरिक्ष्मापो, जितशत्रुरभूज्जयी । युवराजोऽनुजस्तस्य, सुमित्रविजयाह्वयः॥१॥तयोमहिष्यौ विजया-यशोमत्या बभूवतुः । शक्रेशानाभ्यां स्वकल्प-सारे देव्यालिवार्पिते ! ॥२॥ तयोश्चतुर्दशस्वप्न-यूचितौ सद्गुणाञ्चितौ ॥ सुतावभूतामजित-सगरौ जिनचक्रिणौ ॥३॥ जितशत्रुसुमित्राभ्या-मेकदा स्वीकृते व्रते ॥ नृपोऽभूदजितस्वामी, युवराट सगरः पुनः॥४॥ न्यस्यान्यदाऽनुज राज्ये, प्रावाजीदजितप्रभुः॥ ततो बभूव सगर-चक्रवर्ती महाभुजः ॥५॥ क्रमात्षष्टिसहस्राणि, तनयास्तस्य जज्ञिरे ॥ तेषु ज्येष्ठो| ऽभवज्जन्हुः, सोऽन्यदाऽप्रीणयन्नृपम् ॥६॥ ततः पित्रा वरे दत्ते, सोऽवादीत्त्वत्प्रसादतः॥ दिदृक्षेऽहं महीं भ्रातृ-युक्तो दण्डादिरत्ना १ वर्षाणाम् । २ एकवर्षसहनोन-पूर्वलक्षाणि षट् तथा । आर्षभितिचक्राम, चक्रवर्तित्वमुदइन् ।। इति प्रथमपर्वे weeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्यत यनसूत्रम् ॥१४॥ अध्य०१८ ॥१४॥ सBPRERNADEReere ॥ राजाऽनुज्ञातोऽथ जन्हुः ससैन्यः प्रस्थितस्ततः ॥ विहिताश्चर्यसन्दर्भा, 'रत्नगर्भा विलोकयन्॥८॥ चतुर्योजनविस्तारं, योजनाष्टकमुन्नतम् ॥ प्राप्तोऽष्टापदमारोह-त्सह सर्वैः सहोदरैः ॥६॥ [युग्मम् ] क्रोशद्वयपृथु क्रोश-त्रयोच्चं योजनायतम् ॥ चतुमुखं रत्नमय, तत्र चैत्यं ददर्श सः ॥१०॥ऋषभावहतामाः', स्वस्वमानादिशोभिताः स्तूपांश्च भरतादीनां, शतं तत्र ननाम सः ॥११॥ सुषमा तस्य शैलस्य चैत्यस्य च विलोकयन् ॥ पीतामृत इवात्यर्थ, जहर्ष सगराङ्गजः ॥१२॥ केनेदं कारितं चैत्य-मित्यमात्यं च पृष्टवान् ? ॥ सोऽप्यूचे भरताख्येन, चक्रिणा पूर्वजेन वः ॥१३॥ अथाख्यत्सेवकान् जन्हु-रीदृशं भरतेऽपरम् ॥ पश्यताद्रिं यथाऽस्माभिः, कार्यते चैत्यमीदृशम् ॥१४॥ तेऽपि गत्वाऽऽगताः प्रोचुर्नास्त्यऽन्योत्राऽद्रिरीदृशः ॥ ततो जगाद जन्हुस्त-द्रक्षामस्यैव कुर्महे ॥ १५ ॥ कालानुभावतो लुब्धा, "भाविनो a भाविनो जनाः ।। उपद्रोष्यन्ति तेह्यत्र, तद्रक्षास्य महाफला ॥१६॥ इत्युक्ला दण्डरत्नेन, जन्हुस्तं परितो गिरिम् ।। सहस्रयोजनोद्वेधां, विदधे परिखां क्षणात् ॥१७॥ तदा च दण्डरत्नेन, तेन दारयता महीम् ॥ क्रीडागेहानि नागानि, मृत्पात्राणीव पुस्फुटुः ॥१८॥ तं प्रेक्ष्यो|| पद्रवं क्षुब्धा, भुजङ्गा ज्वलनप्रभम् । उपेत्य स्वप्रभुसौध-भङ्गच्यतिकरं जगुः ॥१६॥सोऽपि ज्ञात्वाऽवधेः क्रुद्धोऽभ्येत्योचे सगराङ्गजान्॥ भुवं भवद्भिर्मिन्दान-भोः ! किमेतत्कृतं जडैः ॥२०॥ उपद्रुता हि युष्माभि-नागास्तद्गेहभेदनैः । ते च क्रुद्धा हनिष्यन्ति, युष्मान् सिंहा इव "द्विपान् ॥२१॥ तन्नू स्ववधायैव, प्रयत्नो भवतामयम् ।। पतङ्गानां दीपपात-कृते पक्षबलं यथा ॥२२॥ जन्हुर्जगौ तीर्थरक्षा-कृतेऽस्माभिरदः कृतम् ।। तन्मन्तुमेनं भोगीन्द्र !, क्षमस्वाज्ञानसम्भवम् ।।२३।। आगः सोढमिदं नैवं, पुनः कार्यमिति ब्रुवन् ।। अहीन्द्रोगात्ततो जन्हु-रिति दध्यौ सहानुजैः ॥२४॥ परिखाऽसौ विना वारि, पांशुभिः पूरयिष्यते ।। तदेनां पूरयामोऽथ, पुण्यैर्मन्दाकिनीजलैः" १ पृथ्वीम् । २ मूर्तयः। ३ परमशोभाम। ४ भविष्यन्ति । ५ गजान । ६ नागेन्द्र । ७ गङ्गाजलैः। ܢܨܕܦܕܕܦܬܕܤܦܕܣܠܕܣܬܕܣܓܕܟܕܦܦܕܒܬܕܒܬ#B Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AL२५॥ तत्रार्थे सोदराः सर्वे, ज्यायांसमनुमेनिरे ॥ यादृशं भवितव्यं स्या-त्सहायाः खलु तादृशाः! ॥२६॥ ततः स दण्डेनाऽऽउत्तराध्य- कृष्य, तत्र चिक्षेप जान्हवीम् ।। उपाद्र्यन्त भूयोऽपि, भोगिगेहास्तदम्भसा ॥२७॥ नागलोक पुनर्वीक्ष्य, शुभितं ज्वलनप्रभः ॥ अध्य०१८ यनसूत्रम् 1. कोपावेशाद्रभूवाशु, प्रज्वलज्ज्वलनप्रभः ॥२८॥ सोऽथ दृष्टिविषान् प्रैपी-तद्वधाय महोरगान् ।। तैश्च निर्गत्य ते दृष्टा, दृष्टिभिर्विषवृष्टिभिः ॥ ॥१५॥ ।।२७।। ततस्ते, भस्मतां भेजुः, सर्वेऽपि सगरात्मजाः ॥ तं चोत्पातं प्रेक्ष्य 'चक्रि-चक्र चक्रन्द तद्भशम् ॥३०॥ ततः सैन्यानिति प्रोचे, | सचिवः शोचितैरलम् ।। नावश्यम्भाविनं भाव-मतिक्रामति कोऽपि हि ! ॥३१॥ तीर्थसेवातीर्थरक्षा-करणोपक्रियादिभिः ॥ कृतपुण्यार्जनाः || शोच्या, न चामी स्वामिसूनवः ॥३२॥ तद्विमुच्य शुचं सर्वैः, क्षिप्रं प्रस्थियतामितः ।। स्थाने सोपद्रवे स्थातु, धीधनानां हिनोचितम् AL ॥३३॥ इति मन्त्रिगिरा त्यक्ता-क्रन्दास्ते चलितास्ततः ।। इत्ययोध्यामुगागत्य, सामन्ताद्या व्यचिन्तयन् ॥३४॥ दग्धाः स्वामिसुताः सर्वे ऽप्यागता वयमक्षताः || लज्जाकरमिदं राज्ञो-ऽग्रे कथं कथयिष्यते ? ।।३।। प्रविशामस्ततो बन्हि - मनन्यगतिका वयम् ।। तानिति ध्यायतोEL sभ्येत्य, विप्रः कोपीत्यभाषत ॥३६॥ कर्मणा शुभमन्यद्वा, नाङ्गिनां किं भवे भवेत ? ।। तद्व्याकुला भवत मा, वक्ष्याम्येतदहं प्रभोः ॥३७॥ E, इत्युदित्वा द्विजः कञ्चि-दनाथं शुवमुद्वहन् । गत्वा राजकुलद्वारे, व्यलापीदुच्चकैःमुहुः ॥३८॥ तत् श्रुत्वा चक्रिणाऽऽहूय, पृष्टः किं रोदिपीति सः १ ॥ प्रोचे ममैक एवासौ, मनुष्टो महाहिना ॥३६॥प्राप्तो निश्चेष्टतां देव !, तदेनं जीवयाऽधुना ।। जाङ गुलीकमथादिक्ष-तंत्र कणि भूधवः ॥४०॥ ज्ञातभूपापत्यमृत्यु-रित्यूचे सोऽपि कोऽपि हि ॥ मृतो न स्याद्यत्र तस्मा-भस्माऽऽनयत मन्दिरात् ॥४१॥ यथाऽहं जीवयाMAIL. म्येन-मिति तेनोदितो नृपः । तद्भस्मामार्गयद्भूत्यैः, पुयां सर्वेषु वेश्मसु ॥४२॥ तेऽप्यागत्यावदनाथ !, सकला वीक्षिता पुरी ॥ परं पुरा १ ज्येष्ठम् । २ गङ्गाम । ३ जलेन । ४ चक्रिदलम् । AAAAAAAPIROYEDIAAAAAD Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । अध्य०१८ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१६॥ EVEGGEVELE EGEA का यत्र मृतो, न कश्चिन्नास्ति तद्न हम् ॥४३॥ राजाऽप्यूचेस्माकमपि, भूयांसः पूर्वजाः मृताः ॥ सर्वसाधारण मृत्यौ, तत्कि कोविद ! खिद्यसे ? | ॥४४॥ किं शोचसि ? मृतं पुत्रं, किञ्चिदात्महितं कुरु ॥ सिंहेनेव मृगो याव-मृत्युना त्वं न गृह्यसे ! ॥४॥ भूदेवोऽथावदद्देव, जानाम्येतदहं परम् ॥ अद्यौव जायते पुत्र-मन्तरा मे कुलक्षयः॥४६॥ तद्बलाक्रान्तविक्रान्त-दीनानाथैकनाथ ! हे। कथञ्चिज्जीवयित्वाऽमुं', पुत्रभिक्षां प्रदेहि मे ॥४७॥ भूयोऽभ्यधान्मन्त्रतन्त्र-शस्त्रादीनामगोचरे ॥ अदृष्टविद्विषि विधी, कः पराक्रमते ? कृतिन् ! ॥४८॥ तन्मुञ्च शोकं शोको हि, विपदि क्रियते जडै: आयस्तु कार्य तत्रापि, धर्मकमैव शर्मकृत् ॥४६॥ विप्रः प्रोचे प्रभो ! पष्टि-सहस्राणि सुतास्तव॥ सममेव विपन्नास्त-च्छोकं त्वमपि मा कृथाः ! ॥५०॥ आः ! किमेतदिति क्षमाप-स्ततो यावदचिन्तयत् ॥ सामन्तमुख्यास्ते पूर्व-सङ्केताताबदाययुः ॥५१॥ यथावृत्तेऽथ तैः प्रोक्ते, वज्राहत इव क्षणात् ॥ मूछितो न्यपतद्भूमौ सार्वभौमः स विष्टरात् ॥५२॥ कथञ्चिल्लब्धसङ्ग्रस्तु, । व्यलापीदिति भूपतिः ।। हा ! पुत्रा मां विमुच्यैकं, यूयं सर्वेऽपि किं गताः ? ॥५३॥ अरे दुर्दैव ! तान् सर्वा-नपि संहरतः शिशून् ॥ न ते कृपाणाय-क्ररचित्तस्य काप्यभूत् ॥५४॥ सुतानपि मृतान् श्रुत्वा, शतधा यन्न भिद्यसे ॥ तत्त्वां हृदय ! मन्येऽहं, निष्ठुरेभ्योऽपि निष्ठुरम् ॥५॥ अतृप्तान् सर्वसौख्यानां, परलोकपथं श्रितान् ।। यत्सुतान्नान्वगच्छं त-प्रेम कृत्रिममेव में ॥५६॥ विलपन्तमिति प्रोच्चैः, स विप्रः स्माह चक्रिणम् ॥ मां निषिध्याऽधुनैव त्वं, स्वामिन् ! रोदिषि किं स्वयम् ? ॥५५॥ वियोगः प्रेवसां नाथ !, न स्यात्कस्याऽतिदुःसहः ॥ सहते किन्तु तं धीरो, वडवानिमिवार्णवः ॥५८॥ शिक्षादानं परेषां हि, तेषामेव विराजते ॥ आत्मानमपि ये काले, शिक्षयन्ति विचक्षणाः॥।। इति तद्वचनैर्मन्त्रि-वाक्यैश्च विविधैश्चिरात् ॥आलम्ब्य धीरतां चक्री, चक्रे कालोचितक्रियाम् ॥६॥ तदा चाष्टापदासन्न-ग्रामेभ्योऽभ्येत्य मानवाः ।। राज्ञे व्यजिज्ञपन्नेवं, मुकुल कृतपाणयः ॥६१॥ श्रोतस्त्रिस्रोतसो देवा-ऽऽनिन्ये यद्भवतां सुतैः ॥ प्रपूर्य EVEeveeeve EVAATA Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०१८ ॥१७॥ उत्तराध्य-H-11 परिखां ग्रामान, प्लावयत्तनिवार्यताम् ॥६२॥ राज्ञादिष्टस्ततः शिष्टः, पुषपुत्रो भगीरथः॥ तत्र गत्वाऽष्टमं कृत्वा-ऽऽराधयज्ज्वलनप्रभम् ॥६३॥ प्रदचदर्शनं तं चे-त्यूचे युष्मत्प्रसादतः ॥ गङ्गां नीत्वाम्बुधौ लोकान्, करोमि निरुपद्रवान् ॥६४॥ वारयिष्यामि भुजगा-नहं भरत वासिनः । तत्कुरुवाऽभयोऽभीष्ट-मित्युक्त्वाऽगात्ततोऽहिराट् ॥६५॥ नागपूजा, ततः कृत्वा, दण्डरत्नेन जन्हुजः ॥ नीत्वा 'सुपर्वसयनसूत्रम् । ML.रितं, पूर्वाधाबुदतारयत् ।। ६६ ॥ भगीरथो भोगिपूजा,तत्रापि विधिवत् व्यधात् ॥ गङ्गासागरसङ्गाख्यं, तत्तीर्थ पप्रथे ततः ।। ६७ ॥ मङ्गापि जन्हुनाऽऽनीते त्युक्ता लोकेन जान्हवी भगीरथेन नीताब्धा-विति भागीरथी तथा ॥ ६८ ।। अथो भगीरथोऽयोध्यां, गतस्तुष्टेन चक्रिणा ॥ सोत्सवं, निदधे राज्ये, मूर्त्यन्तरमिवात्मनः ॥६६॥ स्वयं तु व्रतमादृत्य, सन्निधावजितप्रभोः ।। सुदुस्तपं तपस्तेपे, सगरस्सत्यसङ्गरः ॥७०॥ क्रमाच केवलज्ञानं, ध्वस्ताज्ञानमवाप्य सः ।। द्वासप्ततिं पूर्वलक्षाः, समाप्यायुः शिवं ययौ ।।७१॥ सर्वे समायुषो जन्हु-मुख्याः किं जज्ञिरे ? प्रभो ! ॥ ज्ञानी भगीरथेनेति, पृष्टोऽन्येद्य रदोऽवदत् ।।७२॥ संघः पुरा जिनानन्तु, सम्मेतादि ब्रजन्महान् ॥ सम्प्राप्य गहनप्रान्तं, प्रान्तग्रामे क्वचिद्ययौ ॥७३॥ अनार्यस्तद्गतः पष्टि-सहस्रप्रमितेर्जनैः ।। एकेन कुम्भकारेण, वार्यमाणैरपि स्फुटम् ७४|| स संघो मुषितो लुब्धैः, कथञ्चिदगमत् पुरः।। तैस्तु तत्प्रत्ययं सर्वैः, पापकर्म निकाचितम् ॥७॥[युग्मम् अन्यदा कोऽपि तत्रत्योन्यत्र चौर्य व्यधात् पुरे ॥ पुरारक्षास्ततो ग्राम-मीयुस्तं तत्पदानुगाः ॥७६॥ ग्रामद्वाराणि चावृत्या- ऽज्वालयन् परितोऽनलम् स कुलालस्तु तत्रान्हिः, ग्राममन्यं गतोऽभवत् ॥७७॥ तं विना ते ततः सर्वे, पलुष्टा दुष्टा विपेदिरे ॥ मात्रिचाहकजीवत्वे-नाष्टव्यां चोपपेदिरे ॥७॥ KH पिण्डीभूय स्थितास्तेऽथ, तत्रायांतस्य हस्तिनः॥ पादेन मर्दिता मृत्या, चिरं भ्रमः कुयोनिषु ॥७९॥ पुण्यं च प्राग्भवे किश्चि-त्कृत्वा ते १ गङ्गाम् । २ सत्यप्रविजः। SAMBreprerit AAAAAAEXAPARAMAY Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥ १८ ॥ संघदस्यवः ।। जज्ञिरे चक्रिणः षष्टि- सहस्राणि सुता इमे || ८०॥ प्राग्भवैः दुर्भवैस्तस्य, बहुभुक्तस्य, कर्मणः । शेषांशेन मृता एते, सममेव महीपते ! ॥ ८१ ॥ कुलालोऽप्यन्यदा मृत्वा सोऽभूत् क्वापि पुरे धनी ॥ तत्रापि सुकृतं कृत्वा, विपद्य क्वाप्यभून्नृपः ॥ ८२ ॥ भूयोऽपि सोऽन्यदा दीक्षां, लात्वा मृत्वा सुरोऽभवत् । ततश्च्युतश्च त्वं जन्हु-जातो जातोऽसि भूपते ! ॥ ८३ ॥ भगीरथक्षोणिधवोऽथ वाचं, वाचंयमस्येति निशम्य सम्यक् ॥ सुश्राद्धधर्मं प्रतिपद्य हृद्य, सद्योऽनवद्यः स्वपुरीं जगाम ॥ ८४॥ इति श्री सगरचक्रवर्त्तिकथा लेशः ॥ ३५॥ मूलम् - चइत्ता भारहं वासं, चक्कवट्टी महिड्डीओ । पव्वज्जमन्भुवगो, मघवं नाम महायसो ॥३६॥ व्याख्या—सुगमं, तत्कथालेशस्त्वेवं तथाहि अभूदिहैव भरते महीमण्डलसत्पुरे ॥ वासुपूज्यप्रभोस्तीर्थे, नाम्ना नरपतिनृपः ॥ १॥ स्वप्रजावत् प्रजाः सम्यक्, पालयित्वा चिरं स राट् ॥ सन्त्यज्य राज्यमन्येद्य - विरक्तो व्रतमाददे ॥ २॥ अप्रमत्तविरं दीक्षां, पालयित्वा विपद्य च ॥ अहमिन्द्रः स गीर्वाणो, मध्यग्रैवेयकेऽभवत् ॥३॥ इतश्चात्रैव भरते, श्रावस्त्यां पुरि भूपतिः ॥ श्रिया समुद्रविजयी, समुद्रविजयोऽभवत् ॥४॥ तस्य भार्याऽभवद्भद्रा, भद्राकारजितामरी ॥ सोऽथ देवोऽन्यदा च्युत्वा तस्याः कुक्षाववातरत् ॥ ५ ॥ चतुर्दशमहास्वप्नांस्तदा च प्रेक्ष्य सा मुदा । राज्ञे जगाद चक्री ते, सुतो भावीति सोऽप्यवक् ||६|| क्रमाच्च सुषुवे पुत्रं, राज्ञी पूर्वेव भास्करम् ॥ महोत्सवैर्नृपस्तस्य, मघवेत्यऽभिधां व्यधात् ॥७॥ सम्प्राप्तः सोऽथ तारुण्यं, दत्तराज्यो महीभुजाः । उत्पन्नचक्रः षट्खण्ड, साधयामास भारतम् ||८|| भुक्त्वा चिरं चक्रिरमां विरक्तः, प्रान्ते परिव्रज्य स चक्रवर्त्ती ।। पञ्चान्दलक्षीमतिवाह्य सर्वा ऽऽयुष सुरोऽभूत्रिदिवे तृतीये ||६|| इति श्रीमघवचक्रिकथा ||३६|| veeeevere अध्य०१= ॥ १८ ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१६॥ अध्य०१८ ॥१६॥ DEO SUSNERSNEYGEEVAVEE-E-VEEY मूलम्-सणंकुमारो मणुस्सिदो, चक्कवट्टी महिड्ढीओ । पुत्तं रज्जे ठवित्ता णं, सोवि राया तवं चरे ॥३७॥ व्याख्या स्पष्टं-तच्चरितं चैवं, तथाहि अस्तीह काञ्चनपुरं समृद्धं काञ्चनदिभिः । तत्रासीद्विवमयशा. विक्रमाक्रान्तभूपः ॥१॥ तस्य पञ्च शतान्यासन, राड्यो विश्वमनोहराः तत्र चाभूत पुरे नाग--दत्ताहः 'सार्थपो धनी ॥२॥ रूपलावण्यसौभाग्य-निर्जितामरसुन्दरी ॥ विष्णुश्रीरिति तस्यासीत्कान्ता विष्णोरिवाब्धिजा ॥३॥ तां चान्यदा नृपोऽपश्य-मनसः पश्यतोहराम् ॥ दध्यौ घेमा घिना जन्म, राज्यं चैतन्ममाऽफलम् ! ॥४॥ चिक्षेप क्षितिपः क्षिप्र-मन्तरन्तःपुरं च ताम् ॥ प्राणिनो हि प्रियः प्रायो-ऽन्यायोऽपथ्यमिवाऽपटोः ॥॥ विनाऽपि विप्रियं त्यक्त्वा, प्रियं क्वासि गता प्रिये ! ॥ विलपमिति सार्थेशो, बभ्रामोन्मत्तवत्ततः!॥६॥ शुद्धान्तनारीसहिता, लज्जा लोकापवादजां ॥ विमुच्य रेमे भूपस्तु, नित्यं विष्णुश्रिया समम् ॥७॥ जातासूयास्ततो राइयो-कारयन् कार्मणं तथा । मृगाक्षी क्षीयमाणा सा, व्यपद्यत यथा स्वयम् ॥८॥ ततस्तस्या वियोगेन, दुस्सहेन दवाग्निवत् ।। नागदत्त इवोन्मत्तः, पृथ्वीनाथोऽभवद्भशम् ।। ६॥ नाग्नौ क्षेप्तुमदात्तस्याः, शवं स स्नेहमोहितः ।। ऊचे च मत्प्रिया मौनं, धत्ते प्रणयकोपतः ॥१॥ सचिवाः किञ्चिदालोच्य, वञ्चयित्वा च पार्थिवम् ॥ विपिने' क्षेपयंस्तस्या, धेनोरिव शवं ततः ॥११॥ ताञ्चापश्यन्नश्रुनीर-धाराभिः स धराधरः॥ धरां धाराधर इव, सिञ्चन्नाटीदितस्ततः ॥१२॥ कान्ते ! कान्तस्त्वदेकान्त-स्वान्तो विरहविह्वलः ॥ हास्यानोपेक्षणार्हः स्यादिति चाक्रन्ददुच्चकैः ॥ १३ ॥ इत्थं त्यक्तानपानस्य, गते राज्ञो दिनत्रये ।। अमात्या म्रियतां माय-मिति तं काननेऽनयन् ॥१४॥ तत्र च प्रसरतपूती-क्लिन्न क्रमिकुलाकुलम् ।। गध्रविक्षिप्तवदोज वायसाकृष्टलो १ सार्थवाहः । २ लक्ष्मी । ३ अपराधम् । ४ अन्तःपुरनारीसहिताम् । ५ प्रेमकोधतः । ६ वने । ७ राजा। 5 महीं मेघ इव । । पूती दुर्गन्धिः।। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥ २० ॥ चनम् ॥१५॥ आकृष्टान्त्रं शृगालीभिरावृत्तं मक्षिकागणैः । विष्णुश्रियो वपुर्वीक्ष्या -ऽध्यासीदिति महीपतिः || १६ | [ युग्मम् ] हो सारे संसारे, सारं किञ्चिन्न दृश्यते ॥ मया त्वसौ सारमिति - ध्याता मूढेन धिक् चिरम् ||१७|| कुलशीलयशोलज्जा - स्त्यक्ता यस्याः कृते त्वया ।। रे जीव ! मत्त ! पश्याद्य, तस्या जातेदृशी दशा ! || १८ || प्रियेति यां पृथक्कतु -मभुवं न प्रभुः क्षणम् || वीक्ष्य तामपि शीतामित्र मे वेपते वपुः ।।१६।। ततो धर्मक्रियानीरैः, पापपङ्कपरिप्लुतम् ।। आत्मानं विमलीकत्तु, साम्प्रतं मम साम्प्रतम् ।। २० ।। विनश्येति विरक्तात्मा, सुव्रताचार्य सन्निधौ । राज्यं रज इवोत्सृज्य, प्रव्रज्यामाददे नृपः ।। २१ ।। तपोभिः विविधैः साकं, कर्मभिः शोषयन् वपुः ।। चिरं विहृत्य व्यापन्न-स्तृतीयं स्वर्जगाम सः ॥ २२ ॥ ततश्च्युतो रत्नपुरे, जिनधर्माऽभिधोऽभवत् ॥ श्रेष्ठिपुत्रः श्राद्धधर्मं, शुद्धं बाल्यादपि श्रितः ।। २३ ।। इतश्च कान्ताविरहा-नागदत्तोऽतिदुःखितः ॥ मृत्वार्त्तध्यानतो भ्रामं भ्रामं तिर्यक्षु भूरिशः ॥ २४ ॥ अग्निशर्माहयो त्रिप्रा, पुरे सिंहपुरेऽभवत् ॥ पुण्याशया त्रिदण्डित्वं, स्वीचकार स चैकदा ||२५|| [ युग्मम् ] द्विमासादि तपः कुर्वन् सोऽगाद्रत्नपुरेऽन्यदा ।। त्रिदण्डिभक्तस्तत्राभू-भूपतिर्नरवाहनः ।। २६ ।। तेन राज्ञा तपस्वीति, भोक्तु नीतो निजे गृहे ॥ सोऽपश्यज्जिन वर्म तं; दैवात्तत्रागतं तदा ।। २७ ।। ततः प्राग्भववैरेण, कोपाटोपारुणेक्षणः ॥ नरवाहनभूमीश - मित्यूचे स त्रिदण्डिकः ॥ २८ ॥ अस्याढ्यस्य न्यस्य पृष्टे, पात्रमत्यूष्णपायसम् ।। चेद्विभो ! भोजयसि मां तदा भुजे भवद्गृहे ॥ २६ ॥ स्थालमन्यस्य विन्यस्य, पृष्ठे त्वां भोजयाम्यहम् ॥ नृपेणेत्युदितो रुष्टो दुष्टो भूयोऽवदद्व्रती ॥३०॥ पृष्ठेऽस्यैव न्यस्य पात्रं, भुञ्जे गच्छामि वाऽन्यतः ॥ तद्भक्तः स ततो भूपः, प्रत्यपद्यत तद्वचः ॥३१॥ नृपादेशात्ततः पृष्ठे, तेन दत्ते स तापसः । अत्युष्णपायसं स्थालं, न्यस्य भोक्तुं प्रचक्रमे ।। ३२ ।। श्राद्धोऽपि स्थालतापं तं, सोऽधिसेहे विशुद्धधीः ।। स्वस्यैव कर्मणोऽयं हि, विपाक इति चिन्तयन् || ३३ || भुक्ते भिदौ श्रेष्ठष्ठा-त्समं त्वग्मांसशोणितैः ।। अध्य०१८ ॥ २० ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥२१॥ अध्य०१८ ॥२१॥ CEEAAVEEV Veevee ever जनैः स्थालं तदुत्खातं, ततः श्रेष्ठी गृहं ययौ ॥३४॥ सत्कृत्य क्षमयित्वाऽथ, स्वजनान् पूर्जनांस्तथा ॥ जिनधर्मो गुरूपान्ते, प्रव्रज्य जिन2 धर्मवित् ॥३।। पुरान्निर्गत्य विहिता-ऽनशनोऽदिशिरस्थितः ॥ पक्षं पचं कृतोत्सर्गः, क्रमादस्थाच्चतुर्दिशम् ॥३६॥ [युग्मम् ] गत्रकाकादि- | भिर्भक्ष्य-माणपृष्ठोऽपि तत्र सः ।। सहमानो व्यथामुग्रां, स्मरन् पञ्चनमस्क्रियाः ॥३७॥ विपद्य प्रथमस्वर्गे, बभूव त्रिदशाधिपः।आनषकि AII फलं हयेतत, जिनधर्मविधायिनाम ॥३८॥ [युग्मम् ] तापसोऽपि मृतस्तेना-ऽऽभियोग्येन कुकर्मणा । ऐरावणाहयो हस्ती, जज्ञे तस्यैव वाहनम् ॥३६॥ ततश्च्युत्वा भवे भ्रान्त्वा, कृत्वा बालतपः क्वचित् ।। यक्षोऽसिताक्षनामाभू-ज्जीवस्तस्य त्रिदण्डिनः ॥४०॥ इतश्चात्रैव भरते, विषये कुरुजङ्गले । अस्ति स्वस्तिपदं श्रीम-नगरं हस्तिनापुरम् ॥४१॥ जैत्रसेनोऽश्वसेनाह्व-स्तत्राभूतभाजी वरः ॥ सहदेवीति तस्यासी-देवी देवीव भूगता ॥४२।। तस्याः कुक्षौ जिनधर्म-जीवः स्वर्गात्परिच्युतः॥ चतुर्दश महास्वप्नान दर्शन समवातरत् ॥ ४३॥ पूर्णे कालेऽथ साऽसूत, सुतं लक्षणलक्षितम् ।। जगज्जनमनोहारि, रूपं लक्ष्मीरिव स्मरम् ॥ ४४ ॥ सनत्कुमार | इत्याख्या, चक्रे तस्योत्सवैनृपः ॥ सोऽथ क्रमेण ववृधे, कल्पद्रुम इवोद्गतः ॥४५॥ श्रीमान् महेन्द्रसिंहाख्यः, कालिन्दीसूरयोः सुतः॥ | सपांशक्रीडितस्तस्य, वयस्यः शस्यधीरभूत् ।। ४६ ॥ समं तेन वयस्येन, कलाचार्यस्य सन्निधौ ॥ सनत्कुमारः सकलाः, कला जग्राह लीलया ॥४७॥ अमन्वयन्त्रनिश्शेष-कामिनीजनकार्मणम् ॥ लावण्यपुण्यं तारुण्यं, कुमारः प्राप स क्रमात् ॥४८॥ उद्यानं मकरन्दाख्य वसन्तसमयेऽन्यदा ।। समं महेन्द्रसिंहेन, क्रीडायै भूपभूर्ययौ ॥४६॥ नानाक्रीडाभिरक्रीड-सत्रा' मित्रेण तत्र सः । तदा च राज्ञोऽश्व पति-र्यान्' वाहानढौकयत् ॥५०॥ हयं जलधिकल्लोला-इयं भूपभुवोऽप्यधात् ।। कुमारोऽपि तमारोह-तद्गतिं द्रष्टुमुत्सुकः ॥ ११॥ १ पर्वतशिखरस्थितः। २ देशे। ३ राझी। ४ मित्रः। ५ साधम् । ६ अश्वान् । ܟܦܝܕܦܦܕܦܕܦܦܦܕܦܕܦܦܕܦܕܦܝܩܬܗ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य- यनसूत्रम् ॥२२॥ 'कशां चोरिक्षप्य तं यावत् , प्रेरयामास भूपभूः । सोऽश्वस्ताबद्दधावोच्चैयुजेतुमना इव ॥५२॥ यथा यथाकृषद्बल्गा', रक्षितुतं नृपाङ्गजः। सबक्रशिचिंतो बाहो, वहयावतया तथा ॥५३॥राज्ञा समचमाराणां सादिनां धावतामपि । मध्यात्कुमारं हलाया, क्षणात्सोऽगाददृश्यताम् ३५४ा ततोऽत्र्यसेनाभूप्सको, शात्काध्यापहतं सुतम् । प्रत्यानेतु ससम्योगाम्यावद्वाजिपदानुगः १५५॥ तानद्भरिरजःपुञ्ज-दिग्मूढीकृतसैन्यया। | भग्मानि पादचिन्हानि, तस्य वाहस्थ वात्यया ॥५६॥ निरुपावे ततोऽत्यर्थ, व्याकुले सकले पले । महेन्द्रसिंहो भूमीन्द्र सिंहमित्थं व्यजिक्षपत् ॥५७। देव ! देवादिदं सर्व-मजनिष्टासमञ्जसम् । तथापि मित्रमन्विष्या-ऽऽनेष्यामि न चिरादहम् ।। प्रभोःप्रभूतसैन्यस्य, कान्तारे दुष्करा श्रमिः । सुकरा सा खगस्येव, स्वल्पतन्त्रस्य मे पुनः हातत्तिष्टतु प्रभुर्यामि, स्वामिन् ! सुहृदमन्वहम् । सेनेत्युक्तीपलिष्टीवींपरिश्रजलाविलः।६० धीरो महेन्द्रसिंहस्त, मितसारपरिच्छदः । क्रीडावनी यमस्यैवा-रण्यानीं प्रविवेश ताम् ।६१प्रौढपादरुपदन्तैः, I प्रक्षरन्मदनिझरैः। करीन्द्रश्च गिरीन्द्रश्च, क्वापि दुर्गमतां गताम ।६२। क्यापि प्रारब्धसमर-सैरिमोत्खातपादपाम् । सङ्कीणा केशरीव्याघ्रव्यालभल्लूकसकरैः५१६३। 'भानुभानुगणाभेद्य-निफुखनिकरः क्वचित । "अन्तःपुरपुरन्ध्रीव-दसूर्यम्पश्यजम्बुकाम् ॥६४वचित्कण्ठीरवरवत्रस्यन्मृगकुलाकुलाम् । क्वापि दावाग्निसन्ताप-मुरीभूतभूतलाम ।६शक्वचिच्छरभसंरम्म-सम्भ्रान्तोद्भ्रान्तकुञ्जराम् । शाखारूढेरजगरः, ववापि कुञ्जीकृतद्रुमाम् ।६६। तस्याटवीं तामटतो, भीषणेभ्योऽपि भीपणाम । शनैः शनैरगात्सर्वः, खेदखवः परिच्छदः ।६७। [ पडिभः | कुलकम् ] तत एकोपि कुजेषु, कन्दरासु च भूभताम् । भिल्लेश इव सोऽभ्राम्य-न्मित्रं द्रष्टु धनुद्धरः ६८। "निदाघवर्षाशीततून , क्षुधा १ अश्वादेस्ताडनोकशा । २'लगाम' इति भा। राजानम् । ४ स्वल्पपरिवारस्य । ५ व्यालः सर्पः भल्लूकः रीछ' इति भा०। ६ सूर्यकिरणसमूहाभेद्य । ७ अन्तःपुरराज्ञीवत् । = कण्ठोरवः सिंहः। शरभः अष्टापदः। १० प्रीभ । AYee Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥२३॥ अध्य०१८ ॥२३॥ Var everGVEGEVENVERVEENEVE तृष्णाश्रमांश्च स । मित्रकतानो नाज्ञासी-योगीव ध्यानतत्परः । ६६ । तस्यैवं भ्राम्यतोऽटव्यां, व्यतीते वत्सरेऽन्यदा । कर्णातिथित्वमगमत्सरसः सारसध्वनिः ७० घ्राणं' चाप्रीणयद्वायुः, कमलामोदमेदुरः । ततः पद्मसरसः किञ्चि-दिहास्तीति विवेद सः।७१। सोऽथ पद्माकरमभि-व्रजन् वीरव्रजाग्रणीः । सद्गीतमिश्रमश्रौषी-द्वेणुवीणाकलक्वणम् । ७२ । ततः प्रमुदीतः प्राज्ञ-पुरोगस्स पुरो गतः । ददर्श दर्शनसुधा-अनं मित्रं वधूवृतम् ।७३। किं मनोविभ्रमः किं वा, सखाऽसौ मे सुखाकरः । सोऽथ ध्यायनिति तदे-त्यश्रोषीद्वन्दिनो वचः।७४। कुरुवंशावतंसश्री- अश्वसेननृपात्मज ! । सनत्कुमार ! सौभाग्य-जितमार ! चिरं जय ७५। निशम्येति प्रमोदाश्र-पृष्टिमेघायितेक्षणः । गत्वा स दृक्पथं सख्युपतत् पादपद्मयोः ७६। अभ्युत्थाय कुमारोऽपि, दोामादाय सादरम् । तमालिलिङ्ग सर्वाङ्ग', 'हर्षात्रैः | स्नपयन्निव ७७। अथाचिन्त्यमिथःसङ्गा-तौ भृशं जातविस्मयौ । हर्षोदञ्चद्रोमहर्षा-वासीनावसनद्वये ।७८ । वीक्षितौ खेचरगणैः, स्मयमानैः सविस्मयैः। क्षणं बाष्पाम्बुपूर्णाक्षी, परस्परमपश्यताम् ।७६। [ युग्मम् ] खेचरीनिकरे त्यक्त-गीतादितुमुले ततः। कुमारः स्वदृशोरथ, प्रमृज्य तमदोवदत् ।। त्वमत्रागाः किमेकाकी, कथं वा मामिहाऽविदः ? । 'अन्तरा मामियन्तं चा-ऽगमयः समयं कथम् १।। पित्रोः का विद्यते "हृद्य !, मद्वियोगवशादशा । पितृभ्यां प्रहितो हन्त, त्वमिहापि किमेककः १ ।२। तेनेति पृष्टः स्निग्धेषु, प्रष्ठो गद्गदयागिरा । महेन्द्रसिंहः सकलं, प्राच्यं वृत्तान्तमब्रवीत् ।८३॥ ततः स्नेहं च धैर्य च, सकएर्णस्तस्य वर्णयन् । कुमारोऽकारयत् स्नान-भोजनादि वधू| जनैः।४। महेन्द्रोऽथ कुमारेन्द्र-मित्युवाच कृताञ्जलिः । आरम्याश्वापहारात्स्वां, वातां बेहि प्रसद्य मे !।८॥ तेनेत्युक्तः कुमारोऽन्तरिति दयौ विशुद्धधीः । स्वनामेव स्वयं वक्तुमयुक्ता स्वकथा सताम् ! । ८६ । स्वतुल्यस्य वयस्यस्य, वाच्या चावश्यमस्य सा। १ नाशिकाम् । २ हर्षाभुभिः । ३ ऋते । ४ मित्र!। RAPAARADAR Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥ २४ ॥ कथयामि तदन्येन, केनाप्येनां सविस्तराम् i८७| ध्यात्वेति कान्तां बकुल-मत्याहामिति सोऽवदत् । प्रियेऽस्मै मत्कथां तथ्यां वद विज्ञाय विद्यया | ८ | शुभाशये ! शयेऽहं तु निद्राघूर्णितलोचनः 1 इत्युदित्वा रतिगृहं प्रविश्याशेत भूपभूः [et ततो महेन्द्रसिंह सा-वदत्तव सुहृतदा । निन्ये हयेन हृत्वाऽऽशु, कान्तारमतिमीपणम् । ६० । द्वितोयेऽपि दिने तत्र प्रजन् वाजी जवेन सः । तस्थौ मध्यन्दिने कृष्ट्ना, रसनां क्षुत्तृषातुरः ॥ ६१॥ ततः स्तन्धक्रमाच्छ्वासा - पूर्णकण्ठात् श्रमाकुलात् । तस्मादुत्तीर्यार्यपुत्रः, पर्याणमुदतारयत् 1821 - घूर्णित्वाऽश्वस्ततो-ऽपप्तत्, प्राणैश्च मुमुचे द्रुतम् । तृषाकुलः सखा ते तु, 'तदाटीत्परितोऽम्भसे । ६३ । तच्चाप क्वापि न ततः, तृषाक्रान्तः श्रमातुरः । दवदग्धा 1 ताप-तप्तोऽसौ व्याकुलीभवत् ॥६४॥ वीक्ष्य सप्तच्छदं दूरे, गत्वा तस्य तले द्रुतम् । निविष्टोऽयं चणात्क्षोणौ, पपातः भ्रमितेक्षग्यः ॥१५॥ पुण्येन प्रेरितो यक्ष- स्तदासप्तच्छदालयः । सर्वाङ्गेषु सिषेचामुळे, शीतलैर्विमलैर्जलैः । ६६ । प्राप्तसञ्ज्ञस्ततस्तोयं, पीत्वासौ यचढौकितम् । कस्त्वं कुतो जलं चैत-दानीतमिति पृष्टवान् ? | ६७ सोवादीदस्मि यक्षोऽहमिहत्यस्त्वत्कृते कृतिन् । । "सरसः सरसं- नीर - मानयं मानसादिदम् ६८ | सुहत्तवाचे तापोऽयं, मानसे मञ्जनं विना । न मेऽपगन्ता विरह - इवेष्टप्राप्तिमन्तरा । ६६ । तवाभीष्टं करोमीति, प्रोच्यामुः यचराट् ततः । कृत्वा पाणिपुटेऽनैपी - मानसं स्वच्छमानसः । १०० । तत्राऽसु' विहितस्नान-मपनीतपरिश्रमम् । यत्रोऽसिताक्षः प्राग्जन्म - विपक्षः चिप्रमैक्षत । १०१ । क्रोधाध्मातः सोऽथ वाढं विकुर्वन् गुह्यत्र वः । आर्यपुत्राय चिक्षेप, वृक्षमुत्क्षिप्य तत्क्षणम् । १०२ । तमायान्तं निहत्यायं पाणिनाऽपातयत्तरुम् । यक्षस्तमोमयं विश्वं, ततश्वके रजोत्रजैः । १०३ । भीमाट्टहासान् धूमाभ- भूघनान् विकृताकृतीन् । पिशाचांश्च ज्वलज्ज्वालाकरालवदनान् व्यधात् । १०४ । तैरप्यभीतं त्वन्मित्रं, नागपाशैर्बबन्ध सः । तान्सद्योऽत्रोटयदयं, जीर्णरज्जुरिव द्विपः । १०५ । ततो यचः करा १ वल्गाम् । २ तत्राटीत् हर्षप्रोतौ । ३ जक्षाय । ४ सरोवरात् । अध्य०१८ ॥ २४ ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्यपनसूत्रम् १२ घात-घोर रेतमताडयत् । असौ तु तं न्यहन्मुष्टया, वज्रणेव गिरि हरिः।१०६ । आर्यपुत्रमथो लोह-मुद्रेण जघान सः विरमन्ति हि नाकृत्या-त्कथञ्चिदपि दुर्जनाः।। १०७ । उन्मूलितेन सहसा, महता चन्दनद्रणा । तं वर्द्धिष्णु निहत्योया, सखा तेऽपातयत्ततः का अध्य०१८ १०८गिरिमुत्क्षिप्य यवोथा-ऽचिपदस्योपरि द्रुतम् । क्षणं निश्वेतनो जज्ञे, बाधितस्तेन ते सुहत् ।१०६। लब्धसञ्जस्तु तं शैल-मवधू ॥२५॥ योत्थितो द्रुतम् । आर्यपुत्रो नियुद्धेन योद्धमाङ्खास्त गुह्यकम् । ११० । ततोऽसौ बादुदण्डेन, हत्वा तं खण्डशो व्यधात् । अमरत्वात्तदा ॥ a मृत्यु-माससाद न गुह्यकः । १११ । ततो रसित्वा विरस-मसिताक्षः पलायत । पुरो हि हस्तिमल्लस्य, महिषः स्यात्किपचिरम् । ११२। | वीक्षितुं 'समराश्चर्य-मागताः सुरखेचराः । मौलौ त्वत्सुहृदः पुष्प-वृष्टिं तुष्टा वितेनिरे ।। ११३ । अपरायचे पुरो गच्छं-स्ततोऽसौ नन्दने | वने । ददर्शाष्टौ कनीः शक-महिपीरिव सुन्दराः । ११४ । कटावदक्षनयन-ददृशे ताभिरप्ययम् । अथोपेत्यार्यपुत्रस्ता-स्तद्भावं ज्ञातुमित्यवक् १११ नयनाऽऽनन्दना यूयं, कृतिनः कस्य नन्दनाः । हेतुना केन युष्माभिर्धनमेतदलंकृतम् १ ।११६। ताः प्रोचुर्भानुवेगस्थ, खेचरवा स्य सुता वयम् । इतश्च नातिदूरेस्ति, तत्पुरी प्रियसङ्गमा । ११७ । तामलङ कुत्य विश्राम्ये-त्युक्तस्ताभिः सखा तब । दर्शिताध्वा तदादिष्टन किङ्करेण जगाम ताम् ।११८। उपापरार्णवं भानु-स्तदानीयत सन्ध्यया । उपतातं मुदानायी, सौविदैस्ताभिरप्यसौ ।११३। अभ्युत्थानादिकं. will कृत्वो-चितं सोप्येनमित्यवक् । उद्बह त्वं महाभाग !, ममाष्टौ नन्दना इमाः । १२ । एतासां स प्रियो भावी, योऽसिताक्षं विजेष्यते । इत्यर्चिालिमुनिना, प्रोचे तत्प्रार्थ्यसे मया ।१२११ तेनेत्युक्तस्तव सुइत , परिणिन्ये तदैव ताः । ताभिः सहास्वपीद्वासा-वासे चाऽऽबद्धक कूणः।१२२। तदोत्क्षिप्यासिताक्षोऽमु, निद्राणं गहनेक्षिपत् । तत्र प्रेक्ष्य विनिद्रः स्वं, दध्यौ किमिदमित्ययम् ।१२३। आर्यपुत्रस्ततोऽ १ रणकौतुकम् । २ सौबिदलैः पण्डिताभिर्वा । セントートブーツシーントープトープレーントーマート Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ।। २६ ।। NEENEEVEEVCEVEVNEVEROVEVE टव्या - मेकाकी पूर्ववद्भ्रमन् । सप्तभूमीकमद्राचीत्, प्रासादमधिभूधरम । १२४। भायेयमपि कस्यापि भाविनीत्येष भावयन् । तत्समीपे गतो - saौषी - कस्याश्चिद्रुदितं स्त्रियाः । १२५ । ततस्तत्र प्रविश्याय - मारुढः सप्तमीं भुवम् । दिव्यां कनीं ददशैकां वदन्तीमिति गद्गदम् । १२६ । जगत्त्रयजनोत्कृष्ट !, कुरुत्रंशनभोरवे ! । सनत्कुमार ! भर्त्ता त्वं भूयाज्जन्मान्तरेऽपि मे । १२७ । तदाकर्ण्य ममासौ का, भवतीति विचन्तयन् । पुरोभूयार्यपुत्रस्तां, न्यग्मुखीमेवमब्रवीत् । १२८ । का त्वं सनत्कुमारेण सम्बन्धस्तव कः पुनः १ मुहुः स्मरन्ती तं चैवं केन दुःखेन रोदिषि ? | १२ | पृष्टानेनेति साऽमुष्मै, प्रदायासनमुत्तमम् । सुस्मिता विस्मिता प्रोचे, सुधामधुरया गिरा । १३० । सुराष्ट्रराजः साकेत - पुरेशस्य सुतास्म्यहम् । सुनन्दाह्रा चन्द्रयशो - देवीकुक्षिसमुद्भवा । १३१ । कलयित्वा कलाः सर्वा, वयो मध्यममध्यगाम् । धवोऽस्याः कोऽनुरूपः स्यादिति दध्यौ तदा नृपः १ । १३२ । श्रनाय्य भूपरूपाणि ततो मेऽदर्शयन्मुहुः । नारमत्तेषु मे दृष्टिः, किंशुकेषु शुकी यथा ।१३३। दूतानीतपटन्यस्तं, पित्रा दर्शितमन्यदा । रूपं सनत्कुमारस्य, वीक्ष्य व्यामुहमुच्चकैः । १३४ । हियानुक्तोपि तातेन, रागोबुध्यत तत्र प्रच्छन्नोऽपि प्रकाशः स्यातृएछन्नाभिवत्स हि । १३५ । ततः सनत्कुमाराय पितृभ्यां कल्पितास्म्यहम् । भर्त्ता तदिच्छामात्रेण स मे न तु विवाहतः । १३६ । [ इतश्च ] खेचरः कोऽपि हृत्वा मा - मिहानैषीत्स्वकुट्टिमात् । विद्याकृतेऽत्र गेहे मां, मुक्त्वा च क्वाप्यगात्कुधीः । १३७ । स्मारं स्मारं कुमारं तं ततो रोदिमि सुन्दर ! बालानामबलानां च दुःखितानां ह्यदो बलम् | १३८ | श्राख्यत्सखा ते मा रोदी-यस्मै दत्तासि सोस्म्यहम् । सानन्दाख्यत्सुनन्दाथ, दैवं जागर्त्ति देव मे । १३६ । तयोराल पतोरेव - मागात्तत्र क्रुधा ज्वलन् । नन्दनोऽशनिवेगस्य, वज्रवेगः स खेचरः । १४० । त्वन्मित्रं च समुत्पाटयो - दक्षिपद्वियति' द्रुतम् । रुदती सुदती भूमौ मूच्छिता साऽपतत्ततः । १४१ । मुष्टि १ गगने । अध्य०१८ ॥ २६ ॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अव्य.१५ ॥२७॥ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥२७॥ सससससAAAAAAAAAA घातेन दुष्टं तं, ततो व्यापाद्य तत्क्षणम् । अक्षताङ्गस्तामुपेत्या-श्वासयामास ते सखा ।१४२। वार्ता प्रोच्यात्मनः सर्वा-मुदुवाह च तां मुदा। श्रमुष्य मुख्यपत्नी सा, भाविनी भाविचक्रिणः ।१४३। स्वसाथ वज्रवेगस्य, नाम्ना सन्ध्यावली कनी। तदा तत्राययौ भ्रातृ-वधं वीक्ष्यः चुकोप च ।१४४। भावी भर्ता भ्रातृहन्ता, तकेति ज्ञानिनो गिरम् । स्मृत्वा शान्ता पतीयन्ती, साऽऽर्यपुत्रमुपासरत् ।१४। अयं तामप्युपार प्रा यस्त, सुनन्दानुज्ञया कृती । स्वयमायान्ति पात्रं हि, स्त्रियोऽर्णवमिवापगाः।१४६। अत्रान्तरे खेचरौ द्वा-वुपेत्यामु प्रणम्य च ।। प्राभती-1 या कृत्य कवचं, 'स्यन्दनं चैवमूचतुः॥१४७॥ स्वपुत्रमरणोदन्तं, ज्ञात्वा विद्याधराधिपः॥आयात्यशनिवेगोत्र, सैन्येराच्छादयन्नमः ॥१४॥ | तत आवां हरिश्चन्द्र-चन्द्रवेगौ तवान्तिके । प्रहितौ चन्द्रबेगेन भानुवेगेन चात्मज़ौ ।। १४६ ॥ आरोहारथाभं' त-तत्प्रेषितमम का स्थम् ।। कवचं चामुमामुञ्च, वज्रसन्नाहसंनिभम् ॥१५० ॥ चन्वेग-भानुवेगी, सोदरौ श्वसुरौ तव ॥ महाचमूवृतौ स्वामिन् , विद्धि सेवार्थमागतौ ॥१५१॥ तयोरेवं प्रवदतो-स्तत्र तावप्युपेयतुः ॥ खेवरेन्द्रौ चन्द्रवेग--भानुवेगौ महाबलौ ॥१५२ ॥ तदा सन्ध्यावली विद्या-मस्मै प्रज्ञप्तिकां ददौ ॥ ततोऽयमपि सन्ना, 'रथमारोहदाजये ॥ १५३ ॥ ततोऽमु चन्द्रवेगाद्याः, खेचराः परिवबिरे ॥ तदा चाशनिवेगस्य, तत्राऽगात्प्रबलं बलम् ॥ १५४ ॥ तेन सार्द्ध चन्द्रवेग-भानुवेगी बलान्वितौ ॥ योधु प्रवृत्तौ त्वन्मित्रं, निषिध्यापि रणोद्यतम् ॥१५शा योधं योधं मग्नयोश्च, सैन्ययोरुभयोश्चिरात् ।। आर्यपुत्राशनिवेगी, युयुधाते.महौजसौ ॥१५६||तयोश्च कुर्वतोयुद्धं, जयश्रीसङ्गमोत्कयोः ॥ आशुगैराशु तिरया-ञ्चक्रिरे 'भानुभानवः ।। १५७ ।। सुमोचाशनिवेगोऽथ, नागास्त्रमविभीषणम् ॥ तच्च गारुडशस्त्रेण, न्यग्रहीद्भवतः सखा ॥१५८ ॥ आग्नेयं वारुणेनैवं, वायव्यं पावतेन च ॥ वैरिशस्त्रं निजग्राह, प्रतिशस्त्रेण ते सुहत् ॥१५६ ॥ ततः १ रथम् । २ रविरथसदृशम्। ३ रणाय । ४ बाणैः। ५ सूर्यकिरणाः । AAAAA AveVeeve TEVAGE Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥ २८ ॥ कामुकमादाय, 'नाराचं मुञ्चतो द्विषः || श्रद्धेन्दुनाऽसौ चिच्छेद, मौर्वी सह जयाशया ॥ १६० ॥ अथ कृपारामाकृष्य, धावतस्तस्य ते सखा ।। बाहोरर्द्धं महाबाहु-मृणालच्छेदमच्छिनत् ॥ १६१ ॥ तथापि धावतो हन्तु ं तस्य प्रज्वलतः क्रुधा || विद्यादत्तेन चक्रेण, चक्रेऽसौ मस्तकं पृथक् ! ॥१६३॥ सन्ध्यावली सुनन्दाभ्यां, सानन्दाभ्यां युतस्ततः ॥ बैताढ्याद्रौ जगामासौ, चन्द्रवेगादिभिः समम् ॥१६४॥ तत्र चामुष्य सम्भूय, सकलैः खेचरैश्वरैः ॥ विद्याधरमहाराज्याभिषेको निर्ममे मुदा ॥ १६५॥ अथैनं शाश्वते चैत्ये, विहिताष्टाहिकोत्सवम् ।। खेचरेन्द्रश्चन्द्रवेग, इत्यूचे मत्पिताऽन्यदा ।। १६६ ॥ ममार्चिर्मालिमुनिना, प्रोक्तं यत्तुर्यचक्रभृत् । भावी सनत्कुमाराख्यः पतिः पुत्रीशतस्य ते ।। १६७ ।। स चायास्यति मासेन, मानसेऽत्र सरोवरे ॥ तत्रासिताक्षयक्षं च पराजेता महाभुजः ॥ १६८ ॥ ततो बकुलम - त्यादि - सुताशतमिदं मम ।। परिणीय प्रभो ! क्षिप्रं प्रार्थनां मे कृतार्थय ॥ १६६ ॥ विज्ञप्त इति मत्पित्रा, वयस्यस्ते महाशयः || मदादिकाः शतं कन्याः, परिणिन्ये महामहैः ॥ १७० ॥ ततो विविधलीलाभिः क्रीडन् विद्याधरीवृतः ॥ निनायासौ सुखं कालं, खेचरेन्द्रनिषेवितः ॥ १७१ ॥ अद्य तु क्रीडयात्रागा - देवाच्च मिलितो भवान् । अनुकूले हि देवे स्था-द्विनोपायमपीहितम् ॥ १७२ ॥ एवं बकुलमत्योक्ते, गृहानिर्गत्य भूपभूः || मित्रेण सह वैताढ्य, जगाम सपरिच्छदः ॥ १७३ ॥ प्राप्यावसरमन्येद्य - महेन्द्रस्तं व्यजिज्ञपत् । पितरौ त्वद्वियोगात, प्रभो ! भूरि विषीदतः ॥ १७४॥ कदा कुमारं द्रक्ष्यामो ध्यायन्तावित्यहर्निशम् ॥ स्वदर्शनेन पितरौ, प्रमोदयितुमर्हसि ॥ १७५ ॥ श्रुत्वेति सोऽपि सोत्कण्ठः, सकलत्रस्वमित्रयुक् । विमानैर्विविधैव्यग्नि, दर्शयन् शतशो रवीन् ॥ १७६ ॥ दिव्यवेषैव्यमयायि - द्विपवाहादिवाहनैः ॥ ससैन्यैः खेचराधी - वृतः शक्र इवामरैः ।। १७७ ।। वर्यत्यघनिर्घोष, रोदसी परीपूरयन् । जगाम सम्पदां धाम, पुरं श्रीहस्तिनापुरम् १ शरम् । २ जयाम् । ३ रविः । अध्य०१८ ॥२८॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्यपनसूत्रम् ॥२६॥ अध्य०१८ ॥२६॥ GELEVER EVE EVEeveeee ॥१७८॥ [ त्रिभिर्विशेषकम् ] तत्र स्वदर्शनेनाशु, पितरौ नागरांश्च सः ॥ प्राममुदश्चक्रवाकी, पनानि च यथार्यमा' ॥१७९ ॥ पश्यन्पुत्रस्य तां लक्ष्मी-मश्वसेननरेश्वरः ॥ विस्मयं च प्रमोदं च, पाप वाचामगोचरम् ॥ १८०॥ तुष्टेन राज्ञा पृष्टोऽथ, कुमारस्यात्मनश्च तम् ॥ वृत्तान्तमखिलं प्रोचे, महेन्द्रो विस्मयावहम् ॥१८१॥ ततोऽश्वसेनभूपालः, पुत्र राज्ये न्यवीविशत् । सुधीर्महेन्द्रसिंहं च, तत्सेनाधिपतिं व्यधात् ॥१८२॥ स्वयं तु श्रीधर्मनाथ-तीर्थे स्थविरसन्निधौ ।। विरक्तो व्रतमादाय, निजं जन्माकृतार्थयत् ॥ १८३ ॥ अथो सन कुमारस्य, राज्यं पालयतोऽन्यदा ॥ चक्रादीनि महारत्ना-न्यजायन्त चतुर्दश ॥१८४ ॥ ततो वर्षसहस्रण, साधयित्वा स भारतम् ।। निधानानि नवासाद्य, पुनरागानिजं पुरम् ॥ १८५ ॥ प्रविशन्तं पुरे तं चा-वधिना वीक्ष्य वासवः ।। मत्तुल्योऽसौ प्राग्भवेऽभू-दिति स्नेह ददौ भृशम् ॥१८६॥ श्रीदं चेत्यादिशच्चक्री, तुर्योऽसावस्ति मे सुहृत् ॥ राज्याभिषेकं तद्गत्वा, कुरुष्वाऽमुष्य धीनिधे ! ॥१८७ ॥ इत्युक्त्वा चामरे च्छत्रं, हारं मौलिं च कुण्डले ॥ सिंहासनं पादपीठं, देवदृष्ये च पादुके ॥ १८८ ॥ दातु सनत्कुमाराय, धनदस्य हरिददौ ॥ | रम्भातिलोत्तमादींश्च गन्तुं तेन सहादिशत् ।।१८६॥ [ युग्मम् ] ततस्तदन्वितो गत्वा, 'कुबेरो हस्तिनापुरे ॥ सौधर्माधिपतेराज्ञां, चक्रिणे तां न्यवेदयत् ॥१६०॥ तेन चानुमतः 'श्रीदो, विचक्रे योजनायतम् ॥ माणिक्यपीठं तस्योद्ध, मण्डपं च मणीमयम् ॥ ११॥ मणिपीठं च तन्मध्ये, कृत्वा सिंहासनाञ्चितम् ॥ आनाययद्वैश्रवणः , क्षीरोदादुदकं सुरैः॥१२॥ ततः सगौरवं श्रीद-श्चक्रिणं तत्र मण्डपे॥ सिंहासने निवेश्येन्द्र-अहितं प्राभूतं ददौ ॥१६३॥ चक्रे चक्रित्वाभिषेकं, तैर्जलैः सोऽथ चक्रिणः ॥ मङ्गलातोद्यनिर्घोष, तदोच्चैश्चक्रिरे सुराः ॥१६४॥ तदा मङ्गलगीतानि, जगुनि रंगायनाः॥रम्भातिलोत्तमाद्याश्च, नाटकं व्यधुरुत्तमम् ॥१६॥ पूजयित्वाथ तं वस्त्र-भूषामाल्य १ रविः। २-३-४ धनदः । EVEVEREVEEVELEVE EVEVEVEY Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥ ३० ॥ विलेपनैः ।। श्रीदः प्राविविशद्गन्ध - हस्तिना हस्तिनापुरे ॥ १६६ ॥ रत्नादिष्वृष्टया कृत्वा च तत्पुरं स्वपुरीसमम् । विसृष्टश्चक्रिणा स्वर्ग, ययौ यक्षपतिद्रुतम् ॥ १६७॥ चक्रेऽथ पार्थिवैस्तस्या-भिषेको झदशाब्दिकः । कृपालुः सोऽथ भूपालो, न्यायेनापालयत्प्रजाः ॥ १६८ ॥ भोगांचावामवामाक्षी - सम्भोगामोगमञ्जुलान् ॥ भुञ्जानोऽगमयद्भूमान्, वासरानिव वत्सरान् ॥ १६६ ॥ अन्यदा दिवि देवेन्द्रः, सुधर्मासदसि स्थितः । नाटकं नाटयन्नासी- द्रम्यं सौदामिनाभिधम् ॥ २००॥ तदा तत्रेशानकल्पा- दाययौ सङ्गमाभिधः ॥ सुपर्वा रूपतेजोभ्यां, निर्जरानिर्जयन् परान् || २०१ ॥ तस्मिन् गते सुराः शक्र -मपृच्छन्निति विस्मिताः । कुतोऽस्य तेजो रूपं च सर्वगीर्वाणगर्वहृत् ॥ २०२ ॥ इन्द्रः प्रोचेऽमुनाऽऽचाम्ल - वर्धमानाभिधं तपः । कृतं पूर्वभवे तेजो, रूपं चास्य तदीदृशम् ॥२०३॥ एवंविधोऽन्योऽपि किमस्ति भुवनत्रये ॥ इति पृष्टः पुनर्देव - देवराजोऽब्रवीदिदम् ॥ २०४ ॥ सनत्कुमारनामास्ति, नृहस्ती हस्तीनापुरे ॥ तस्य रूपं च तेजश्व, सुरेभ्योऽप्यतिरिच्यते ॥२०५॥ अश्रद्दधानौ तच्छक - वचनं त्रिदशावुभौ ॥ विजयो वैजयन्तश्च विप्ररूपमुपाश्रितौ ॥ २०६ ॥ आगत्य चक्रिप्रासाद-द्वारे तस्थतुरुत्सुकौ ॥ बभूव सार्वभौमस्तु, तदा प्रारब्धमज्जनः ॥२०७॥ [ युग्मम् ] प्रावीविशद्विशामीशो, द्वास्थेनोक्तौ तदापि तौ । वैदेशिकान् दर्शनोत्कान्, विलम्बयति नो सुधीः ॥ २०८ ॥ ततस्तौ वीक्ष्य तद्रुप-मधिकं शक्रवर्णितात् । प्राप्तौ वचोतिगं चित्रं, शिरोऽधूनयतां चिरम् ॥ २०६ ॥ दध्यतुश्चेत्यहो ! अस्य, तेजः प्राज्यं वेरिव । पयोधिजलवन्माना-तिगं लावण्यमप्यहो ! | २१० । स्थाप्यते दृष्टिरस्यांगे, यत्र यत्र ततस्ततः । कीलितेव निमग्नेव, कृच्छ्रादेव निवर्त्तते । । २११ । रूपं तदस्य शक्रेण, मिथ्या न खलु वर्णितम् । श्रद्य ययाप्यभूवावां, कृतार्थावस्य दर्शनात् । २१२ | शुभवन्तौ भवन्तौ भोः !, कुतो हेतोरिहागतौ ? । अथेत्युक्तौ नृदेवेन, भूदेवावेवमूचतुः । २१३ । रूपमप्रतिरूपं ते, वर्ण्यमानं जगज्जनैः । निशम्यावामिहायातौ तद्दर्शनकुतूहलात् । २१४ । यादृशं च तवावाभ्यां श्रुतं रूपं जनाननात् । दृश्यते सविशेषं भू-विशेषक ! अध्य०१८ ॥३०॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥३१॥ अध्य०१८ ॥३१॥ VEGEVCEV Veereereve ततोप्यदः ।२१। ऊचे रूपमदाद्भपो, युवाभ्यां भो द्विजोत्तमौ ! । किं मे मज्जनसज्जस्य, रूपमेतन्निरूपितम् १ ।२१६। तत्कृत्वा मज्जनं सार-रत्नालङ्कारभासुरः । शोभयामि सभा यावत् , क्षणं तावत् प्रतीक्ष्यताम् ।२१७। रूपं तदा च मे सम्यक, प्रेक्षणीयं मनोरमम् । इत्युक्तौ देवभूदेवी, राज्ञा तस्थतुरन्यतः।२१८। स्नात्वा भूपस्ततो भूरि-भूषाभूषितभूघनः' । सभां विभूष्य तौ विप्रो, रूपं द्रष्टुं', समादिशत् ।२१६। | अथेक्षमाणौ तौ वीक्ष्य, भूपरूपमनीदृशम् । विषण्णौ दध्यतुरहो ! नृणां रूपादि चञ्चलम् ।२२०। नृपः प्रोचे पुरा प्रेक्ष्य, मां युवां मुदि तावपि । विषादश्यामलास्यौ द्राक्, सञ्जातौ साम्प्रतं कुतः ? ।२२१॥ तावूचतुः सुरावावां, दिवि देवेन्द्रवर्णितम् । अश्रद्दधानौ त्वद्रूपं, परी| क्षितुमिहागतौ ।२२२। रूपं तब पुरा प्रेक्ष्य, श्रेष्ठमिन्द्रोदितादपि । हृष्टावपि विषीदाबो-ऽधुनाऽन्यादृगू निरीक्ष्य तत् ! ।२२३॥ एतावताऽपि | कालेनो-द्भूताः काये तवाऽऽमयाः । राक्षसैरिव तैर्ग्रस्ता, रूपलावण्यकान्तयः । ।२२४। इत्युदित्वा तयोरन्त-हितयोः स्ववपुर्नृपः । पश्यन्नपश्यद्विच्छाय, रजश्च्छन्नमिवारुणम् ।२२५॥ दध्यौ चैवमहो ! देहे, का नामास्था मनीषिणाम् ? । विविधाः व्याधयो व्याधा', इवैणं" बाधयन्ति यम् ।२२६। भीता इवामयेभ्यो ये, नष्टा रूपादयो गुणाः । भीरुभत्यैरिवोवीशः, कथं माधति तैः सुधीः१ । २२७ । सरोषा इव ये यान्ति, सेव्यमाना अपि क्षणात् । भोगेषु तेषु को नाम, प्रतिबन्धः सुमेधसाम् १।२२८। यतो गुणाः प्रणश्यन्ति, वैराग्यविनयादयः । परिग्रहे ग्रह इवा-ऽऽग्रहः कस्तत्र धीमताम् ? । २२६ । तन्ममत्वं शरीरादे-द्य श्वो वा विनाशिनः । विहाय शाश्वतसुख-प्रदायि व्रतमाददे ।२३०। ध्यात्वेति नन्दनं न्यस्य, राज्ये प्राज्यमतिनृपः । विनयन्धरमरीणा-मन्तिके व्रतमग्रहीत् । २३१ । ततः सर्वाणि रत्नानि, सर्वा राड्यो नृपाः समे । निखिला निधयो यक्षाः, सैन्या प्रकृतयस्तथा ॥२३२। गाढानुरागात्तत्पृष्ठे, पएमासी यावदभ्रमन् । प्रभो! विना १ बललकारशोभितशरीरः। २ विपरितम् इत्यर्थः। ३ शिकारिणः। ४ मृगसमूहमित्यर्थः। ५ प्रजाः । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य. यनमम यनसूत्रम् ॥३२॥ पराधं नः किं जहासीति वादिनः।२३३। [युग्मम् ] सिंहावलोकितेनाऽपि, नापश्यत्संयतस्तु तान् । ततो नत्वोनसच्च तं, यपुस्ते स्वस्वमास्पदम् ।२३४। मुनिस्तु षष्ठतपसः, पारणे गोचरं गतः। चीनकाल मजातक-युक्तं सम्प्राप्य मुक्तवान् ।२३। भूयो भूयोऽपिपष्ठाम्ते, पारणं | सोऽतनोत्तथा । ततो ववृधिरे तस्य, रोगा नीरादिषांकुराः ।२३६। कण्डूः कुपिशोः पीडे, कास-वास-क्राऽरपीः । इति सप्तामयान् सेहै, IMEIIMa ॥ सस वर्षशतानि सः।२३७तस्यैवं सहमानस्य, सर्वानपि परीपहान् । प्रर्वतस्तपस्तीत्रं, 'वारवालामकुर्वतः । २३ । मलामर्शशकृन्मूत्रसर्वोषध्यः कफौषधिः । सन्मिन्नश्रोतोऽभिधा थे त्यभूवन् सप्त लब्धयः ।२३।। [युग्मम् ] तथाप्यङ्गप्रतीकार-मकुर्वन्तं तमन्यदा । पुरुहूतः। पुरः स्वाहा-भुजामेवमवर्णयत् । २४० । अहो ! सनत्कुमारोसौ, धैर्याधरितभूवरः। त्यक्त्वा पक्रिश्रियं भार-मिवाय तप्यते तपः ! १२४१। रोमानलाब्दमालासु, लब्धास्वपि हि लब्धिषु । चिकित्सति यतिः काय-निस्पृहो नायमामयान् !२४२अश्रद्दधानौ तद्वाक्य, तावेव त्रिदशौ ततः । अमिरूपभिषग्रपौ, मुनिरूपमुपेयतुः ।२४३॥ तं चेत्यवोचतां साधो, यदि त्वमनुमन्यसे । धर्मवैद्यौ चिकित्साव-स्तदा वां ते गदान्मुदा'।२४४। भूयो भूयः पुरोभूय, ताभ्यामित्युदितो व्रती । उपाच वाचा चितस्थं, तत्वामृतमिघोद्गिरम् ।२४। चिकित्सथी | युवां कर्म-रोगान् किं वा वपुर्णदान् ? । तावुचतुश्चिकित्साव, आवां कायामयान्मुने ! ।२४६। ततो लिप्त्वांगुली पामा-शीणां निष्ठीवनेन | All सः । स्वर्णवर्णसवर्णाभां, व्यधादेवमुवाच च ।२४७। आतङ्कान्तं नयाम्येता-दृशांस्तु स्वयमप्यहम् । चिकित्सा क्रियते कर्म-राजां कार्यते तदा ।।२४८। हन्तु कर्मामयान् शक्ता, यूयमेवेति वादिनौ । विस्मितौ तौ ततश्चक्रिमुनि नत्वैवमूचतुः । २४६ । लब्धलब्धिरपि व्याधि-- व्यथा धीरस्तितिक्षते । सनत्कुमारराजर्षि-रिति त्वां हरिरस्तवीत् । २५. । ततस्ते रूपवीक्षार्थ, यथावामागती पुरा । सथा सत्वपरीक्षार्थ १ सुखवार्ताम् । २ इन्द्रः । ३ देवानाम् । ४ रोगाग्नि विध्यापने मेघमालासु । ५-६ रोगान् । ७ 'थूकवडे' इति मा। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥३३॥ अध्य०१८ ॥३३॥ I मधुनापि समागतौ ।२५१। दृष्टं च तदपि स्पष्टं, सुराचल इवाचलम् । इत्युक्त्वा तं च नत्वा तौ, तिरोधत्तां सुधाशनौ । २५२। कौमारे मण्डलीत्वे च, लक्षाद्धं शरदामभूत् । लवं च तस्य चक्रित्ये, श्रामण्येऽपि तदेव हि ।२५३। वर्षलबत्रयीमान-मविवायाधुरित्ययम् । चकारानश प्रान्ते, सम्मेताचल मूर्द्धनि । २५४ । आयुःक्षयेणाऽथ सनत्कुमारः, सनत्कुमारविदिचे सुरोऽभूत् । ततश्च्युतवावमवाप्य देह-मन्त्यं विदेहे शिवगेहमेता २५५ इति सनत्कुनारचक्रिकथा ।३७।। मूलम् चइत्ता मारहं वासं, चक्कवटी महिड्डीओ । संती संतीकरो लोए, पत्ते गइमणुसरं ॥३८॥ व्याख्या व्यक्तं, कथासम्प्रदायस्त्विहायम् , तथाहिअत्रैव भरतक्षेत्रे, पुरे रत्नपुराभिधे । भूपःश्रीषेण नामाभू-समग्रगुणसेवधिः।१। प्रिये अभूतां तस्याभि-नन्दिताशिखिनन्दित । स्मरस्येव रतिप्रीती, परमप्रीतिभाजनम् ।। तत्राभिनन्दिताकुक्षि-प्रभवौ तस्य भूप्रमोः । इन्दुषेणविन्दुषेणाभूतां सनयावुभौ ॥३॥ सूरैविमलपोघाह्वात् , श्राद्धधर्मस पार्थिवः । प्राप लोक इवालोकं, 'कोकबन्धोस्तमोपहात् ।४। तत्र चाभूदुपाध्यायः,सत्यकिर्नाम सत्यधीः । जम्बूकाहा प्रिया तस्य, सत्यभामा च नन्दना ।। [इतश्च मगधेष्वचलग्रामे, वेदवेदाङ्गपारगः । नाम्ना धरणिजटोऽभू-द्विषो 'धरणिविश्रतः |१६॥ तस्याभूतां यशोभद्रा-मिवभार्यासमुद्भवौ । कुलीनौ द्वौ सुतौ नन्दि-भूतिश्रीभृतिसञ्ज्ञको । स च विप्रश्चिरं रेमे, दास्या कपिलया समं । तत्कुक्षिजः ततस्तस्य, सुतोऽभूत्कफ्लिाभिधः ।। स दासेरः सुतौ कुल्यौ, पितुः पाठयतोऽन्तिकात् । कर्णश्रुत्वा श्रुतीः सर्वा-स्तूष्णीकोप्यग्रहीत्सुधीः ।। ग्रामासतोऽथ निर्गत्यो-पवीतयमुद्वहन् । द्विजोत्तमोऽस्मीति वदन, पर्यटन पृथिवीतले १० पुरै रत्नपुरे सोऽगात, १ सूर्यात् । २ पृथिवीख्यातः । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥३४॥ अध्य०१८ ॥३४॥ VEZAVE GELEVEGEVEEVEEVELESS सत्यकिद्विजसन्निधौ । कस्त्वमागाः कुतश्चेति, तत्पृष्टश्चैवमब्रवीत् ।११। [युग्मम् ] पुत्रोऽहं धरणिजट-द्विजस्य कपिलाभिधः । इहागामचलग्रामात् , क्षोणीवीक्षणकौतुकी ।१२। सत्यकि पृच्छतां सोऽथ, छात्राणां निखिलानपि । चिच्छेद वेदविषया-नन्तरापि हि संशयान् ।१३ । तुष्टोऽथ सत्यकिश्छात्र-पाठने तं न्ययोजयत् । स्वपुत्री सत्यभामा च, मुदा तेनोदवाहयत् । १४ । कपिलोऽपि सुखं सत्यभामयाऽन्वहमन्वभूत् । लोकप्रदत्तद्रविणैः, समृद्धश्वाचिरादभूत् ।१॥ नाट्यं वीक्ष्याऽन्यदा तस्मि-निवृत्ते प्रावृषो निशि । 'सारं धाराधरो धारा-सारं मोक्तुं प्रचक्रमे ।१६। तदा घनान्धकारत्वा-द्विजनत्वात्पथश्च सः । क्षिप्वांशुकानि कक्षान्तनग्नीभूयाऽगमद्गृहम् । १७ । द्वारे च परिधायान्तर्गतं तं सत्यकिसुता । क्लिन्नवस्त्रोऽयमित्यन्य-वस्त्रपाणिरुपागमत् । १८ । नाद्रीभूतानि मे वृष्टा-वपि वासांसि विद्यया । अलं तदपरैर्वस्त्र-रित्यूचे कपिलस्तु ताम् ।१६। तस्याङ्ग क्विन्नमक्लिन्ना-न्यंशुकान्यथ वीक्ष्य सा । दध्यौ यो विद्यया रो-स्त्राण्यङ्ग कथं न सः १।२०। तन्नूनमागानग्नोय-मकुलीनश्च विद्यते । भवेन्नैतादृशी बुद्धिः, कुलीनानां हि जातुचित् ! ॥२१॥ वेदानपि पपाठायं, कर्णश्रुत्यैव धीबलात् । ध्यायन्तीति ततो मन्द-स्नेहा तस्मिन् बभूव सा । २२ । अन्यदा धरणिजटो, दैवात्प्राप्तोऽतिदुःस्थताम् । श्रीमन्तं कपिलं श्रुत्वा, तत्रागाद्धनलिप्सया ।२३। चकार कपिलस्तस्य, भक्तिं स्नानाशनादिना । अपरोप्यतिथिः पूज्यः, कोविदः किं पुनः पिता ! ।२४। तयोः पितापुत्रयोश्च, वीक्ष्याचारेऽन्तरं महत् । जाताशङ्का भृशं भामेत्युवाच श्वशुरं रहः ।२५। द्विजन्महत्याशपथं, दत्वा पृच्छामि वः प्रभो!। पुत्रोऽयं वः शुद्धपक्षद्वयोऽन्यो वेति कथ्यताम् ।२६। ततोऽसौ शपथच्छेद-भीरुः सूनृतमब्रवीत् । कपिलेन विसृष्टश्च, जगाम ग्राममात्मनः ।२७। सत्याथ गत्वा श्रीषेण-नृपमेवं व्यजिज्ञपत् । भ भृदकुलीनो मे, देव ! दैवनियोगतः । २८ । तस्मान्मोचय मां तेन, मुक्ता हि १ जलम् । २ मेघः। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०१८ ॥३॥ प्रबजाम्यहम् ॥ ततः कपिलमाहूय, प्रोवाचेति महीपतिः ॥२६ ॥ धर्मकर्मोद्यतां मुञ्च, विरक्तां ब्राह्मणीमिमाम् ॥ किमस्यां हि विरक्तायां, उत्तराध्य भावि भोगसुखं तब ! ॥३०॥ सोवादीदेव नैवैनां, निजा स्वक्ष्यामि कामिनीम् ॥ न क्षमोऽस्मि क्षणमपि, विनामुष्या हि जीवितुम् ॥३१॥ यनसूत्रम् | भामा प्रोचे यद्यसौ मां, न जहाति तदा प्रिये ॥ व्याजहार ततो राजा, मुधा मा म्रियतामियम् ॥ ३२ ॥ किन्तु तिष्ठत्वसौ कञ्चि, कालं ॥३५॥ कपिल ! मद्गृहे ॥ एवमस्त्विति सोप्यूये, तो बलान्नेतुमक्षमः ॥३३॥ सत्या सत्वाशया राज्ञा, पट्टराज्योस्ततोऽपिता ॥ तस्थौ स्वच्छम नास्तत्रा-चरन्ती दुश्वरं तपः ॥३४॥ अन्यदाऽनन्तमतिका, वीक्ष्य वेश्यां मनोहराम् ॥ इन्दुषेण-बिन्दुषेणा-वभूतामनुरागीणौ ॥३५॥ तां च कामयमानौ तौ, सुरमिं वृषभाविव ॥ सोदरावपि सामर्षों, युध्येते स्म परस्परम् ! ॥३६॥ तद्वीक्षितु निरोद्धचा-प्रभूः श्रीषेणभूविभुः ॥ विपेदे पबमाघाय, विषमिश्रं त्रपातुरः ॥३७॥ व्यपद्य ती तथैवाभिनन्दिताशिखिनन्दिते । शिश्राय कपिलाड़ीता, सत्यभामाऽपि तत्पथम् ! ॥३८॥ चत्वारोऽपि विपद्यव-मतीवसरलाशयाः ॥ युग्मिनो जज्ञिरे जम्बूद्वीपोत्तरकुरुष्वमी ॥ ३९ ॥ पुंस्त्रीरूपं युग्ममेकं, तत्र भूपाभिनन्दिते ॥ अभूत्तदन्यत्तु शिखि-नन्दिताकपिलप्रिये ॥४०॥ कोशत्रयोच्छ्यास्त च, पल्यत्रितयजीविताः तुर्येनाऽहनि कृताहारा, व्यतीयुः समयं सुखम् ॥ ४१ ॥ इतश्च युध्यमानौ तौं, श्रीषणनृपनन्दनौ । कोऽपि विद्याधरोम्येत्य, विमानस्थोऽब्रवी दिति ॥४२॥ अज्ञानाज्जामिमप्येना, भो ! युवा भोक्तुमुद्यतौ ॥ मा युध्येथां मुधा वाक्यं, हितेच्छोः श्रूयतां मम ॥ ४३ ॥ द्वीपेत्रवास्ति Pा विजयो, विदेहे पुष्कलावती ॥ तद्वैताढ्योत्तर श्रेण्या-मादित्याभपुरं वरम् ॥४४॥ नृपः सुकुण्डली तत्रा-जितसेना च तत्प्रिया । अहमस्मि तयोः सूनु मतो मणिकुण्डली ॥ ४५ ॥ अन्यदाहं गतो व्योम्ना, नगरी पुण्डरीकिणीम् ॥ भूरिभक्त्याऽमितयशोPA नामानमनमं जिनम् ॥४६॥ खेचरोऽहं कुतोऽभूव-मित्यपृच्छं च तं प्रभुन् ।। सर्वोऽपि ततः प्रोचे सुधामधुरया गिरी ॥४७॥ पुष्कर Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् अध्य०१८ ॥३६॥ VEEEEEEEEEEEEEEEE द्वीपपश्चा, शीतोदापाच्यरोधसि ॥ विजये सलिलावत्यां, वीतशोकास्ति पूर्वरा ॥४८॥ चक्री रत्नध्वजस्तत्र, रूपमीनध्वजोऽभवत् ।। तस्याभूतां प्रिये हेम-मालिनीकनकश्रियो ॥४६॥ तत्राद्या सुषुवे पुत्री, पद्मां नामापरा पुनः॥ पुत्रीद्वितयं कनक-लतापद्मलताभिधम ॥५०॥ पद्मा पनाद्वितीयेश्री-द्वितीयेऽपि वयस्यहो । जग्राहाजितसेनार्या-सन्निधौ दुर्द्धरं ब्रतम् ॥५१॥ चक्रे चतुर्थकं नाम, सा साध्वी दुस्तपं तपः ॥ वेश्यार्थ युध्यमानौ चा-ऽन्यदाऽपश्यन्नृपाङ्गजौ ॥५२॥ दध्यौ चैवमहो ! अस्याः, सौभाग्यं भुवनाद्भुतम् ॥ यदथमेतौ युध्येते, कुमारौ मारसुन्दरौ ॥५३॥ महिम्नाऽमुष्य तपस-स्तन्ममाप्यन्यजन्मनि ॥ भूयात्सौभाग्यमीदृक्षं, निदानमिति सा व्यधात् ॥५४॥ प्रान्ते चानशनं कृत्वा, सौधर्म चाभवत्सुरी । विमाता या पुनस्तस्याः, कनकश्रीरभृत्तदा ॥ ५५ ॥ सा तु मृत्वा भवं भ्रान्त्वा, कृत्वा जन्मन्यनन्तरे । दानादि पुण्यं त्वमभूः, खेचरो मणिकुण्डली ॥५६॥ क्रमाद्विपद्य कनक-लतापमलते तु ते ॥ भवं भ्रान्त्वा प्राग्भवे च, विधाय विविधं शुभम् ॥५७॥ द्वीपस्यास्यैव भरते, पुरे रत्नपुराहये ॥इन्दुषेणबिन्दुषेणी, जातौ श्रीषेणराट्सुतौ ॥५॥ [ युग्मम ] पद्माजीवो दिवश्व्युत्वा, तत्रैव गणिकाऽभवत् । इन्दुषेणबिन्दुषेणी, युध्येते तत्कृतेऽधुना ! ॥ ५६ ॥ श्रुत्वेति प्राग्भवान् सोऽहं. युवा युद्धानिषेधितुम् ॥ इहागां तद्विबुध्येथां मा युध्येथां स्वसुः कृते॥६०॥ माताहं युवयोः पूर्व-भवे वेश्या त्वसौ स्वसा ॥ तद्धि मोहं विहायाशु, श्रयेथा शुद्धिकद्वतम् ॥ ६१॥ ततस्तौ साधुसाध्वावां, बोधिताविति वादिनौ॥ सहस्र भृमिनाथानां, चतुर्भिः परिवारितौ ॥६२॥ गुरुर्धर्मरूचेः पावें, दीक्षामादाय धीधनौ॥ तप्त्वा चिरं तपो घोरमगातां परमं पदम् ॥६३॥ [ युग्मम् ] अथ श्रीषणजीवाद्या-श्चत्वारस्तेपि युग्मिनः॥ आयुः प्रपूर्य सौधर्म-स्वर्गमीयुः सुखास्पदम् ॥ ६४ ॥ इतश्चात्रैव भरते-ऽभवदुवैतात्यभूधरे ॥ श्रीरथनूपुरचक्रवालाहपुरमुत्तमम् ॥६५॥ तत्रार्ककीर्ति मासीत् , खेचरेन्द्रो महाबलः ॥ ज्योतिर्माला च तस्याऽभू-द्राझीन्दोरिव रोहिणी ॥६६॥ EVATE VEE VEEVEE VEE VEEVEE VEEVEGVE Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतराध्य यनसूत्रम ॥ ३७ ॥ स्वसा स्वयम्प्रभा तस्या-ऽभवत्तां चादिमो हरिः ॥ त्रिपृष्टः पोतनाधीशः, परिणिन्येऽचलानुजः ॥६७॥ श्रीषेणनृपजीवोऽथ, प्रथमस्वर्गतश्च्युतः ।। मुक्ता शुक्ताविव ज्योतिर्मालाकुक्षाववातरत् ॥ ६८ ॥ स्वप्ने तदा च सादित्यं ददर्शामिततेजसम् ।। क्रमाच्च सुषुवे पुत्रं, पवित्रं पुण्यलक्षणैः ॥६६॥ स्वप्नानुसारतस्तस्या - ऽमिततेजा इति स्फुटम् ॥ नामधेयं व्यधाद्राजा, तरुणारुणतेजसः ॥ ७० ॥ भामाजीवश्च्युतः स्वर्गा-दर्ककीर्त्तिमहीपतेः । सुताराहा सुता ज्योति-र्मालागर्भोद्भवाभवत् ॥ ७१ ॥ च्युत्वाभिनन्दिताजीव - स्त्रिपृष्ठस्य हरेभूत् ॥ स्वयम्प्रभाक्कुक्षिजन्मा, सुतः श्रीविजयायः ॥ ७२ ॥ शिखिनन्दिताजीवस्तु, च्युत्वा ज्योतिःप्रभाभिघा ।। स्वयम्प्रभाकृक्षिभवा, त्रिपृष्ठस्य सुताऽभवत् ॥ ७३ ॥ कपिलः स तु संसारे, भ्रान्त्वा विद्याधराधिपः ॥ पुर्या चमरचञ्चाया - मजन्यशनिघोषराद् ॥७४॥ सुतारामर्ककीर्तिः श्री- विजयेनोदवाहयत् । ज्योतिःप्रभां त्रिपृष्ठोऽपि, सानन्दोऽमिततेजसा ।। ७५ ।। अथान्यदाभिनन्दनजगन्नन्दनसञ्ज्ञयोः ।। चारणव्रतिनोः श्रुत्वा, सुधाभां धर्मदेशनाम् ॥७६॥ अर्ककीर्त्तिः निजे राज्ये, निधायामिततेजसम् ॥ मुक्तेः सरलमध्वानं, प्रव्रज्यामाददे मुदा ||७७|| [ युग्मम् ] ततो विद्याधराधीश- मौलिलालितशासनः । राज्यं तत्पालयामासा-ऽमिततेजा महाभुजः ॥७८॥ इतश्च मरणे विष्णो - स्त्रिष्टष्ठस्य विरक्तधीः ॥ न्यस्य श्रीविजयं राज्ये, प्रात्राजीदचलो बलः ॥७६॥ अथान्यदा सुताराश्रीविजयौ द्रष्टुमुत्सुकः ॥ जगाम पोतनपुरे ऽमिततेजा महीपतिः ॥ ८०॥ उत्तम्भितध्वजं तच्च, पुरमानन्दमेदुरम् ॥ विशेषाच्च नृपकुलं, वीक्ष्य हृष्ट ं विसिष्मिये ॥८१॥ व्योमोत्तीर्णं तं च वीक्ष्यो- दस्थात् श्रीविजयोमुदा ॥ मिथो जामिपती तौ च गाढमालिङ्गत्तां मिथः ॥ ८२॥ ततः सिंहासनासीनं, नृपं सिंहासनस्थितः ॥ पप्रच्छामिततेजास्तं, किनिमित्तोऽयमुत्सवः ॥ ८३ ॥ ततः श्रीविजयोवादी - दितोऽतीतेष्टमे दिने ॥ कोऽपि नैमित्तिकोऽञागात, प्रतिहारनिवेदितः ॥ ८४॥ किमर्थमागास्त्वमिति, मया पृष्टश्च सोऽब्रवीत् ॥ निमित्तं वक्तुमागां त- त्सावधानः शृणु KAYVEREVE अध्य०१८ ॥३७॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य अध्य०१८ ॥३८॥ ॥३८॥ प्रमो! ॥ ८५ ॥ सप्तमेऽनि दिनादस्मा-जाते मध्यन्दिने महान् ॥ पतिष्यति तडिद्दण्डः, पोतनाधीशमूर्द्धनि ॥८६॥ तत्कर्णकटुकं श्रुत्वा, कुफ्तिोऽमात्यपुङ्गवः ॥ तदा पतिष्यति किमु, त्वयीति तमवीचत ॥ ८७ ॥ दैवज्ञोऽथावदन्मय, यथादृष्टार्थवादिने ॥ प्रतीपशकुनायेव, घीसखाधीश ! मा कुपः ॥८८॥ तत्राहिन मयि तु स्वर्णरत्नवृष्टिः पतिष्यति ॥ वदन्तमिति दैवज्ञ-मित्यपृच्छमहं ततः ॥८६॥ निमित्त“मीग् दैवज्ञ-ऽधीतं न हि कुतस्त्वया ? ॥ सोवादीदचलस्वामी, प्रव्रज्यामाददे यदा ॥१०॥ तदा प्रव्रजता पित्रा, सहाई प्राव शिशुः॥ महानिमित्ताष्टाङ्ग, तत्रदं शिक्षितं मया॥४१॥ पुरं च पद्मिनीषण्ड, यौवने विहरनगाम् ।। हिरण्यलोमिकाहा मे, तत्र चास्ति पितृष्वसा ॥२॥ तया स्वपुत्री दत्तासी-बाल्याचन्द्रयशा मम ।। अहं तु प्रावजमिति, पर्यणैषं न तां तदा ॥१३॥ तां च वीक्ष्याऽधुना प्राप्त यौवनां व्यामुहं मुहुः ॥ तत्सोदरगिरा त्यक्त-व्रतः पर्यणयं च ताम् ।। १४ ॥ निमित्तेन ततः स्वार्थ, महार्थममुच ते ॥ विज्ञायाहमिहागां त-अथोचितमथो कुरु ।। ६५ ॥ तेनेत्युक्ते ब्रवीदेको, मन्त्री नाब्धौ पतेतडित् ।। तत्र तिष्ठतु सप्ताहं, नावारूढो विभुस्ततः ।। ६६ ॥ ऊचेन्यः केन तत्रापि, पतन्ती सा निरोत्स्यते १ ॥ सप्ताहं वसतु स्वामी, तद्वैताढ्यगुहान्तरे ॥ १७ ॥ तृतीयो न्यगदनाय-मुपायः प्रतिभाति मे ॥ अवश्यम्भावी भावो हि, यत्रतत्रापि जायते ! ॥८॥ तत्तपः क्रियतां सर्वैः, सर्वोपद्रववारकम् ।। तपसाक्षीयते कर्म, निकाचित मपिद्रुतम् ।। ६६ ।। तुर्यः प्रोचे पोतनोवी-पतेरुपरि कथ्यते ॥ गणकेन तडित्पाते, न तु श्रीविजयप्रभोः॥१०॥ क्रियतामपरः कोऽपि, सप्ताहमिह तन्नृपः ।। पतिष्यति तडित्तस्मिन् , स्वामी स्थास्यति चाक्षतः ॥ १.१ ॥ प्रतिपेदे मुदा देव-ज्ञेनाऽमात्यैश्च तद्वचः ॥ अहो ! साधु मतिज्ञानं, भवतामिति वादिभिः ।। १०२ ॥ ततोऽहमत्रवं त्रातु, स्वप्राणानपरं नरम् ॥ न घातयिष्ये स्वप्राणाः, सर्वेषामपि हि प्रियाः ।।१०३। ऊचिरे सचिवाः स्वामिन् !, विचारोऽसौ विमुच्यताम् । श्रीवैश्रवणयक्षस्य, मूर्ती राज्येऽभि Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०१८ ॥३६॥ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥३६॥ मीडितमुद्यानं, मुदा याकारा-सोऽनुराग eeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee षिच्यताम् । १०४ । उपद्रवो दिव्यशक्त्या, न चेद्भावी तदा शुभम् । मावी चेज्जीवहिंसायाः, पापं नाथ ! न भावि ते । १०५ । इदं हि युक्तमित्युक्त्वा, ततोऽहं जिनसमनि । गत्वास्थां पौषधं कृत्वा, दमसंस्तारकं श्रितः।१०६। राज्येऽभिषिक्तं यक्षं चा-ऽभजन्मामिव नागराः। सप्तमे चाहिन मध्यान्हे, गर्जन्नुदनमद् धनः ।१०७। उद्दण्डोऽथ तडिद्दण्डः, प्रचण्डो वडवाग्निवत् । यक्षमूत्तौ सनिर्घातः, पपात जलदात्ततः १०८। तदा च तुष्टा दैवज्ञे, रत्नानि ववृषुः प्रजाः । चैत्याच्च निर्गतं राज्येऽभ्यषिञ्चन्मां पुनर्मुदा । १०६ । मयापि पद्मिनीषण्ड, दत्वा पत्तनमुत्तमम् । व्यसर्जि गणको भूरि, तेन घु पकृतं मम ! ११०। मूर्ति च धनदस्याह, दिव्या नव्यामकारयम्। महं कुर्वन्ति पौराश्च, विघ्नो मे शान्त इत्यमुम् । १११ । तदाकर्ण्य प्रमुदितो, दिव्यैरंशुकभूषणैः । जामि सुतारामभ्या -ऽमिततेजा ययौ गृहम् । ११२ । || अथान्यदा श्रीविजयः, समं देव्या सुतारया । ययौ क्रीडितुमुद्यान, मदा ज्योतिर्वनाभिधम् ।११३। तदा च कपिलजीवः, खेचरो ऽशनिघोषराट् । सुतारां प्राग्भववधू', तत्राद्राक्षीदिवि वजन् ।११४। तस्यां प्रागभवसंस्कारा-सोऽनुरागं दधौ भशम् । ता जिहीषु मृगं हैम, तदने विद्यया व्यधात् । ११५ । सुतारा कान्तमित्यूचे, तं च वीक्ष्यातिमञ्जुलम् । आनीय मृगमेनं मे, देहि क्रीडाकृते प्रभो ! ११६। ततो ग्रहीतु तं धावन्, यावरमगान्नृपः । तावदेकाकिनी देवीं, जहाराऽशनिघोषराट् ।११७। नृपं हन्तुं प्रयुक्ता च, तेन विद्या प्रतारणी । प्रोच्चकैः पुच्चकारेति, सुतारारूपधारिणी ।११८। दष्टां कुक्कुटसर्पण, प्रिय ! त्रायस्व मां द्रुतम् । तदाकार्य नृपो यावतत्रागागाढमाकुलः ।११६। तावत्तां पतितां पृथ्व्यां, विपन्नां वीक्ष्य पार्थिवः । मूञ्छितो न्यपतद्भूमा-वनुकुर्वन्निव प्रियाम् ।१२०। सिक्तोऽथ चन्दनरसैः, प्राप्तसञ्ज्ञो धराधिपः । व्यलापीदिति हा कान्ते !, किं ते जातेदृशी दशा ? ॥१२॥ हिरण्यहरिणेनाद्य, मूढोऽहं वञ्चितोऽस्मि हा!। मय्यासन्ने हि शेषाहि-पि त्वां दंष्टुमप्रभुः । १२२ । त्वां बिना न क्षणमपि, जनोऽसौ जीवितु क्षमः । कदापि किं जीवति हि, मीनः | देहि क्रीडाकृत प्रा Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥ ४० ॥ पानीयमन्तरा ? । १२३ । तदुःखं त्वद्वियोगोत्थ- मसास हिरयं जनः । अन्तयत्वनुगम्य त्वां, सत्वरं जीवितेश्वरि । । १२५ । इत्युदीर्य महीनाथः, समं दयितया तया । विमोहमोहितोऽध्यास्त, नियुक्तै रचितां चिताम् ॥ १२५ ॥ वन्हौ ज्वलितुमारब्धे, तत्राग़ातां च खेचरौ । तयोश्चैको मन्त्रितेना-ऽसिञ्चन्नीरेण तां चिताम् । १२६ । ततः प्रतारणी कृत्वा - ट्टहासान् द्राक् पलायत । तद्वीक्ष्य दध्यौ राट् केयं, क्व मे कान्ता क्व चाऽनलः ।१२७| ध्यायन्निति नृपोऽप्राक्षीत्किमेतदिति तौ नरौ । ततौ राजानमानम्य, तावप्येवमवोचताम् । १२८ । आवां हि अमिततेजसो नन्तुमर्हतः । निर्यातौ द्रागिहायातौ, वाणीमशृणुवेदृशीम् । १२६ । हा सोदरामिततेजो !, हा श्रीविजय मत्प्रिय ! । इमां सुतारामेतस्माद्विमोचयत खेचरात् । १३० । गिरं तामनुधावद्द्भ्यां दृष्टावाभ्यां तव प्रिया । उपात्ताशनिघोषेण, सुताराऽस्मत्प्रभोः स्वसा ।१३१। तां विमोचयितु ं दुष्ट !, तिष्ठ तिष्ठेति वादिनौ । योद्धुमुत्कौ समं तेन, सुताराऽऽवामदोऽवदत् । १३२ । युवां ज्योतिर्वनं यातं, तत्र श्रीविजप्रभुम् । प्रतारण्या विप्रतार्य, मार्यमाणं च रक्षतम् । १३३ । ततोऽत्र द्रुतमेताभ्यामावाभ्यां मन्त्रितैर्जलैः । चिताग्निः शमितो दुष्टा, नाशिता च प्रतारणी ।१३४ | हृतां सुतारां ज्ञात्वाऽथ विषण्णं तं नरेश्वरम् । गाढाग्रहेण वैताढ्य, निन्यतुस्तौ नभवरौ । १३५ । तं चाभ्युदस्थात्सहसा -अमिततेजाः ससम्भ्रमः । प्रतिपत्तिं च कृत्वोच्चैः पप्रच्छागमकारणम् । १३६ । ततः श्रीविजयेनोक्तौ तौ विद्याधरकुञ्जरौ । तस्मै सर्वं सुताराया, हरणोदन्तमूचतुः | १३७। क्रुधोऽथामिततेजास्तं, प्रोचे हृत्वा तव प्रियाम् । मज्जामि च कियन्नामा - ऽशनिघोषः स जीविता ।१३८ । उक्त्वेति शस्त्रावरणीं, बन्धनीं मोचनीं तथा । विद्याममिततेजाः -श्रीविजयाय ददौ मुदा । १३६ । वृतं सैन्यान्वितैः स्वीय-सुतानां पञ्चभिः शतैः । प्रैषीत् श्रीविजयं सद्यः, सुतारानयनाय सः । १४० । ततो विद्याधरानीकै - श्छादयन् 'द्यां १ आकाशम् । अध्य०१८ 118. 11 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥४१॥ अध्य०१८ ॥४१॥ EeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeY घनैरिख । पुर्या चमरचञ्चायां, क्षिप्रं श्रीविजयो ययौ । १४१ । स्वयं त्वशनिघोषं तं, भूरिविद्याविदं विदन् । सहस्ररश्मिना साकं, स्वपुत्रेणार्ककीर्तिसूः। १४२ । महाज्वाला महाविद्या, परविद्याबलापहाम् । महासचः साधयितु, जगाम हिमवदगिरिम ।। १४३ । [ युग्मम् ] सहस्ररश्मिना रक्ष्य-माणो मासोपवासकृत् । विद्यां साधयितुं, तत्रा-ऽमिततेजाः प्रचक्रमे । १४४ । इतश्चा शनिघोषाय, दूतं श्रीविजयो नृपः । प्राहिणोत्सोऽपि गत्वा तं, प्रोवाचेति प्रगल्भवाक् । १४५ । प्रतारण्या विप्रतार्य, श्रीश्रीविजयपार्थिवम् । हरन् सुतारां किं वीरं-मन्यस्त्वं न हि लज्जितः । १४६ । यद्वा पौरुषहीनानां, छलमेव बलं भवेत् ।। किन्तु ध्वान्तमिवार्के श्री-विजये तत्कथं स्फुरेत् ? । १४७ । सुतारां देहि तत्तस्मै, तूर्ण प्रणतिपूर्वकम् । त्वत्प्राणैः सह तां नेता, नेता' श्रीविजयोऽन्यथा! KK | १४८ । शशंसाशनिघोषोऽथ, साधु धृष्टोऽसि दूत रे ! । यदि श्रीविजयोत्रागा-न्मन्दधीस्तर्हि तेन किम् ? । १४६ । शौर्यांशोKI Sपि न मे तेन, वराकेण सहिष्यते ! । भानुप्रकाशलेशोऽपि, सह्यते कौशिकेन किम् ? । १५० । यथाऽऽयातस्तथा यातु, तदसाविह तु स्थितः । सुतारां लप्स्यते नैव, लप्स्यते तु विगोपनाम् । १५१ । इति तद्वचनं दूतो, गत्वा राज्ञे व्यजिज्ञपत् । सोऽथ क्रुधो भृशं युद्धसज्जः सेनामसज्जयत् । १५२ । विज्ञायाशनिघोषोऽपि, तस्य सैन्यं रणोद्यतम् । 'सानीकानऽश्वघोषादीन, प्रजिघायाऽऽजये ऽङ्गजान् । । १५३ । पूर्णेऽथ रणतुर्याणां, निर्घोषैरभितोऽम्बरे। तयोः प्रवृते घोरं, "महानीकमनीकयोः । १५४ । तदा च समरं द्रष्टुं, देवानां दिवि तस्थुषाम् । वीराः केऽपि व्यधुर्विघ्नं, कुर्वन्तो मण्डपं शरैः । ।१५। कुन्तप्रोतान् रिपून केचिदुइधुवटकानिव । केप्यद्रीणामिवेभानां, दन्तान् दण्डैरखण्ड यत् । १५६। मुद्गरैमृदुः केपि, घटानिव भटा स्थान् । परिषैश्च परान् केचि-च्चुक्षुदुश्चणकानिव । १५७ । कृष्माण्डा १ स्वामी । २ घूकेन । ३ ससैन्यान् । ४ रणे । ५ युद्धम् । ६ खे। PRESEARRESSESसस Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥४२॥ eeeeeeeeeeeeee निव केचित्त, द्विषः खड्ग यंदारयन् । केप्यमिन्दन् द्विषन्मौलीन्, गदामिालिकेरवत् । १५८ । केप्युत्खातेभदन्तेन, प्रजहुनिष्ठितायुधाः । ॥1 योद्धारः केप्ययुध्यन्त, नियुद्धन महौजसः । १५६ । शस्त्रमन्त्रास्त्रमायाभिः, सदैवं युध्यमानयोः। किचिनो मास एको, व्यत्यगात्सै- अध्य०१८ न्ययोस्तयोंः । १६० । भटैः श्रीविजयस्याथा-ऽभज्यन्ताऽशनिघोषजाः। ततो डुढौके युद्धाया-शनिघोषनृपः स्वयम् । १६१ । ॥४२॥ इक्षन्तेव' सोऽभाङ क्षीत, सुतानमिततेजसः । ततः श्रीविजयो राजा, "जन्यायाऽढौकत स्वयम् । १६२ । साश्चर्य-चिती देव-स्तो मिथो घातबश्चिनौ । उभावपि महावीयौं, चक्रतुः समरं चिरम् । १६३ । अथ श्रीविजयश्चित्वा-ऽसिना शत्रु द्विधा व्यधात् । जातावशनिघोषी दौ, ते तत्खण्डे उभे ततः । १६४ । चत्वारोऽशनयोऽभृवं-स्तयोश्च छिन्नयोः पुनः। भूयोऽपि तेषु भिन्नेषु, तेनाष्टाशनयोऽभवन् । १६५ । प्रतिप्रहारमिति तै-र्द्धमानमुहुमुहुः । किङ्कर्त्तव्यविमूढोऽभू-धावत् श्रीविजयो नृपः । १६६ । तावत्तत्रामितसेजाः, सिद्धविद्यः समाययौ । करीव सिंहं तं वीक्ष्या-ऽशनिघोषः पलायत । १६७ । तं चानेतु' महाज्वाला-मादिदेशार्ककीर्तिसूः । ततस्तमन्व- MEI धाविष्ट, सा विद्या विश्वजित्वरी । १६८ । तस्या नश्यन् काप्यपश्यन्, शरण्यं भृशमाकुलः । विवेशाशनिघोषोऽपि, भरतार्द्धन दक्षिणे । १६६ । तत्र भ्रमंश्च सीमाद्री, तत्कालोत्पन्नकेवलम् । बलदेवर्षिमचलं, सोद्राक्षीदमरैवृतम् । १७० । तमेव शरणीचक्र-शनिघोषो ऽपि सत्वरम् । न्यवर्त्तत ततो मोघा, महाज्वाला विहाय तम् । १७१ । गत्वा च वार्ता तां सर्वा-मुवाचामिततेजसे । ततः स मुमुदे वाढं, नृपः श्रीविजयस्तथा । १७२ । ततः सुतारामानेतु, प्रेष्य मारीचिखेचरम् । ससेन्यौ तौ विमानस्थौ, द्राक सीमाद्री समेयतुः ।१७३। तत्र प्राणमतां भक्त्या-चलकेवलिनं च तौ। पुर्या चमरचञ्चायां, मारीचिखेचरोऽप्यगात् । १७४ । अहं सुतारामानेतु',प्रहितोऽ १ वृषभः। युद्धाय । EVENEVE Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्यबनसूत्रम् ॥४३॥ अध्य०१८ ॥४३॥ रासस मिततेजसा ॥ आगामिहेति च स्माहा-ऽशनिघोषस्य मातरम् ॥ १७५ ॥ ततः सुतारामादाय, सीमाद्री सो ययौ द्रुतम् ॥ अर्थयामास तां च श्री-विजयामिततेजसोः १७६ तदा च क्षमयामासा-शनिघोषोऽपि तौ मुदा ॥ अथ तेषां पुरश्चक्रे देशनामचलप्रभुः॥१७७॥ देशनान्ते च रामर्षि-मित्यूचेऽशनिघोषराट् ॥ न मया दुष्टभावेन, सुताराऽपहता प्रभो ! ॥१७८॥ किन्तु प्रतारणीविद्या, साधयित्वां गृहं व्रजन् ज्योतिर्वनेऽपश्यमिमा-मुपश्रीविजयं स्थिताम् ॥ १७६ ॥ हेतोः कुतोऽप्यभूदस्यां, मम प्रेम वचोऽतिगम् ॥ | बिहायैनां पुरो गन्तु, ततोऽहं नाऽभवं प्रभुः ॥१८॥ पार्श्व स्थिते श्रीविजये, नैनां हत्तु महं क्षमे ॥ प्रतार्येति प्रतारण्या, नृपमेनामपाहरम् ॥१८॥ अमूमपापां चामुञ्च-मातुरं मातुरन्तिके ॥ अस्यै चानुचितं किञ्चि-दवोचं वचसापि न ॥ १८२ ॥ तब्रू हि भगवनस्यां, किं मम प्रेमकारणम् ॥ श्रीषेणादीनां ततस्तां, कथामुक्त्वेत्यवग् मुनिः ॥ १८३॥ श्रीषेणसत्यभामाभि-नन्दिताशिखिनन्दिताः विपद्य युग्मिनोऽभूवं-स्ततो मृत्वाऽभवन् सुराः॥१८४ ॥ च्युत्वा ततोऽपि श्रीषेणो-ऽमिततेजा अभूदसौ ॥ ज्योतिःप्रभाह्वा भार्यास्य, जज्ञे सा शिखिनन्दिता ॥१८॥ जीवोऽभिनन्दितायास्तु सोऽयं श्रीविजयोऽभवत् । तस्य पत्नी, सुतारेयं, भामाजीवस्त्वजायत ॥१८६॥ कपिलस्तु ततो मृत्वा, भ्रान्त्वा तिर्यक्षु भूरिशः ॥ तापसस्य सुतो धर्म-रतोऽभूद्धर्मिलाभिधः ॥१८७॥ स च बालतपस्तीव्र कुर्वनारभ्य बाल्यतः ॥ खे यान्तमन्यदाऽपश्यत् खेचरं परमर्धिकम् ॥१८८ ॥ अमुष्मात्तपसो भावि भवे भूयासमीदृशः ॥ निदानमिति सोऽकापी--मृत्वा च त्वमभूस्ततः ॥१८६॥ ततः प्राग्भवसम्बन्धात्, स्नेहोऽस्यां भवतोऽभवत् ॥ शतशोऽपि भवान् याति, संस्कारः स्नेहवैरयोः ॥१६० ॥ श्रुत्वेति विस्मितेष्वन्तः, सकलेष्वर्ककीर्तिसूः ॥ भव्योऽस्मि यदि वा नास्मी-त्यपृच्छत्तं मुनिप्रभुम् ॥१६१ ॥ साधुरूचे भवादस्मा-भावी त्वं नवमे भवे ॥ क्षेत्रेन पञ्चमश्चक्री, धर्मचक्री च षोडशः॥१२॥ तस्मिन् भवे श्रीविजयो Vegeveeeeeeeeeeeeeeeeeee Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०१८ ॥४४॥ उत्तराध्य-12 ज्येष्ठपुत्री मणी च ते ॥ भावीत्याकार्य तौ श्राद्ध-धर्म स्वीचक्रतुपौ ॥१६॥ अवेत्यूचेऽशनि साधु विनासन्मानदेशकम् ।। पान्य वनसूत्रम इवारण्ये, भवे सुचिरमभ्रमम् ॥१४॥ दिष्टया त्वमध दृष्टोऽसि, सिद्धिपूर्मार्गदर्शकः । तत्प्रसव प्रभो ! तया, साधुधर्मप्रदेहि मे ॥१९॥ ॥४४॥णकाअनुसातोऽच मुनिना-शनिघोषो न्यधात्सुधीः ॥स्वपुत्रमश्वघोषाख्य-मुत्सङ्गेऽमिततेजसः॥१६॥अस्मिलपित्त्वया साधो, वर्षित व्यंखपुत्रवत् ॥तमित्युक्त्वाञ्चलस्वामि-समीपे सोपहीव्रतम् ॥१७प्रणम्याथ बलर्षि श्रीविजयामिततेजसौ॥ श्रन्येऽपि चप्रमुदिताः, स्थानं निजं निवं ययुः ॥१६॥श्राद्धधर्म पालयन्ती, द्योतयन्तौ च शासनम् ॥ काल खेचरबत्त्येशी, तौ प्राज्यमतिमिन्यतुः ॥१६॥ अथान्यदा-श्रीक्जियोऽमिततेजाश्च सजतौ॥गतौ मेरुमवन्देता-मनश्वरजिनेश्वरान् ॥२०॥ तत्र चानमत स्वपशिलास्थौ चारणीमुनी। ध्यानस्थौ विपुलमति-महामत्याहयौ मुदा॥२०१शातयोश्च देशनां सर्वभाषानित्यत्त्वशंसिनीम् अस्वातौ कियदायुनौं, शेषमस्तीत्वपृच्छताम् । ॥२०२॥ तावाख्यतां शेषमायुः, षड्विशतिरहानि वाम् ।। ततस्तौ धर्मकृत्योस्की, स्व स्वधामसमेयतुः ॥२०॥ अष्ठाहिकोत्सवं कृत्वा, तत्र चाहतधेश्मसु ॥दानंदत्वा च दीनादेः, पुत्रौ विन्यस्य राज्ययोः॥२०४॥ प्रवज्य चाभिनन्वन-जगन्नन्दनसनिधी॥तौ पादपोपगमना-नशनं का चक्रतुसुदा ॥२०॥ [युग्मम् ] स्वतो महद्धिकं तातं, तदा श्रीविजयोऽस्मरत् ।। भूयासं पितृतुल्योऽहं, निदानमिति चाकरोत् ॥२०६॥ विपद्यामिततेजा:श्रीविजयच बभूवतः॥गीर्वाणी प्राणतस्वर्ग, विंशत्यर्णवजीविती ॥२०७॥ इतव जम्बुद्वीपप्राग-विदेहावनिमण्डने ॥ विजये रमणीया, शुभाख्याऽभूत पुरी शुभा ॥२०८॥ तत्राऽऽसीद्गुणरत्नाख्यो, राजा स्तिमितसागरः ॥ वसुन्धरानुवराह पल्यौ तस्य च बन्धुरे ॥२०॥ प्रच्युस्य प्राणप्तस्वर्गा-श्रीवोऽथामिततेजसः कुक्षौ वसुन्धरादेव्याः, पुत्रत्वेनोदपधत ॥२१॥ वदने १ शाश्वत जिनान् । २ विंशतिसागरोपमायुष्कौ। ३ मनोहरे । PROSAROKeeeeeeee Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥४५॥ ACCEYEY विशतो दन्ति-वृषेन्दुकमलाकरान् । सुखसुप्ता तदापश्य-त्स्वप्ने सा कमलानना ॥ २११ ॥ तया स्वप्नफलं पृष्टश्चैवं स्माह महीपतिः ॥ स्वप्नैरेभिः शुभे ! भावी, बलदेवस्तवाङ्गजः ।। २१२ ।। तदाकर्ण्य प्रमुदिता, राज्ञी गर्भं बभार सा । क्रमाच्चाजीजनत्पुत्रं, श्वेतवर्ण सुलक्षणम् ॥ २१३ ॥ चक्रेऽपराजित इति, तस्य नामोत्सवैर्नृपः ॥ मितम्पच इव द्रव्यं तं चालालयदन्वहम् ॥ २१४ ॥ जीवः श्रीविजयस्याऽपि, च्युत्वा प्राणतकल्पतः । उदरेऽनुद्धरादेव्याः समवातरदन्यदा ।। २१५ । सिंहलक्ष्मीमानुक्रम्भा - भोधिरत्नोश्चयानलान् । मुखे प्रविशतः स्वप्ने - द्राक्षीद्राज्ञी तदा च सा ।। २१६ ॥ स्वप्नार्थमथ भूनाथः, पृष्टो मुदितया तया ॥ सानन्दमवदत्पुत्रो, विष्णुर्भावी तवाS! || २१७ ।। काले सुतं सापि, श्यामवर्णं मनोहरम् ।। तस्योत्सवैः नृपो नामा - ऽनन्तवीर्य इति व्यधात् ॥ २१८ ॥ भ्रातरौ वर्षमानौ तौ रममाणौ मिथोऽनिशम् ।। कलाकलापं सकलं गुरोर्जगृहतुद्रुतम् ॥ २१६ ॥ वसन्तेनेव माकन्दौ, यौवनेन विभूषितौ ॥ भृङ्गीरिवाङ्गनादृष्टी-स्तावमोहयतां भृशम् ॥ २२० ॥ भ्रूषोऽन्यदा वाहकेल्यां गतः स्तिमितसागरः । स्वयम्प्रभाऽभिधं साधु-सुधानस्थमवन्दत ।। २२१ ।। देशनां च ततः श्रुत्वा, प्रतिबुद्धः स बुद्धिमान् । राज्ये न्यस्यानन्तवीर्य, प्रावाजीत्तस्य सन्निधौ ॥ २२२ ॥ स रुचरितोऽप्यन्ते, किश्विदीचां व्यराधयम् ।। कालं कृत्वा च चमरा - ऽभिघोऽभूदसुराधिपः ॥ २२३ ॥ साग्रजोऽनन्तवीर्योऽपि वर्यविराजितः । आखण्डल इवाखण्ड - शासनों बुभुजे भुवम् ॥ २२४ ॥ खेचरेणान्यदैकेन, समं सख्यमभूत्तयोः ॥ स च दत्वा तयोर्विद्याः, स तापमीयिवान् ।। २२५ ।। किरातीवर्चरी सम्झे, चाभूतां चेष्टिके तयोः ॥ हरन्त्यौ जगतश्चित्तं गीतनाट्यादिकौशलात् ।। २२६ ।। पुरोऽन्यदा सोदस्यो - रास्थानस्थितयोस्तयोः ॥ प्रारब्धे नाटके ताभ्यां तत्रोपेयाय नारदः ॥ २२७ ॥ सङ्गितादिप्तचित्तान्यां ताम्यां चाकृतगौरवः । अन्तः स कुपितोऽत्यन्त-ममानात्यपर्वतम् ॥ २२८ ॥ दमितारिः प्रतिहरिस्तत्र विद्याधराधिपः ॥ द्राग अध्य० १८ ॥ ४५ ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (DE अध्य०१८ ॥४६॥ उत्तराध्य-अभ्युत्थाय तं सिंह--विष्टरेण न्यमन्त्रयत् ।। २२६ ॥ दत्ताशिषं निविष्टं च, दमितारिस्तमित्यवक ॥ त्वया हि भ्रमता स्वैर, ब्रहि दृष्टं कि-2 यनसूत्रम् मद्भुतम् ॥ २३० ॥ ततः प्रमुदितोऽवादी-नारदोऽद्य व भूपते ! ।। शुभापुर्यां गतोऽनन्त-वीर्यस्योर्वीपतेः पुरः ॥ २३ ॥ किरा तीवर्बरीसझ-चेटिकारब्धनाटकम् ॥ अहमद्भुतमद्राक्षं, दुरापं युसदामपि ! ॥२३२॥ [युग्मम् ] तद्विना राज्यमप्येतत् , फल्गु भोज्यमिवाघृतम् ॥ उक्त्वेति गगनेनागा-नारदर्षिः कलिप्रियः ॥ २३३ ॥ दूतोऽथानन्तवीर्याय, प्रहितो दमितारिणा ॥ गत्वा शुभापुरी नत्वा, साग्रज तमदोऽवदत् ॥२३४॥ विजयाद्धेत्र यत्सारं, दमितारेस्तदर्हति ॥ चेत्यौ नत्याविमे राज्य-सारे तस्मै प्रदेहि तत् ! ॥२३॥ उवाचानन्तवीर्योऽथ, यातु दूताऽधुना भवान् ।। त्वरितं प्रेषयिष्यामि, किश्चिदालोच्य चेटिके ॥२३६ ॥ ततः प्रयाते दते तो, भ्रातराविति दध्यतुः । अयं हि विद्याशक्त्यैव, भूपोऽस्मासु प्रभूयते ॥ २३७ ॥ तत्साधयामो विद्यास्ता, यास्तेन सुहृदार्पिताः॥ अविहस्तौ रहस्तो द्वौ, यावद्व्यमशतामिति ।।२३८॥ प्रज्ञप्त्याद्यास्तावदेत्य, विद्यादेव्योऽवदन्नदः ॥ याः साधयितुमिष्टा वा--मायातास्ताः स्वयं वयम् ॥२३॥ प्रागभवे साधितत्वाद्धि, नाऽधुना साधनेष्यते ॥ युवां तदनुजानीत-मस्मान् संक्रमितु तनौ ॥२४०॥ ताभ्यां चानुमताः सर्वा, विविशुस्तास्तदङ्गयोः ॥ तासां वयाँ सपयां च, मुदितौ तौ वितेनतुः ॥ २४ ॥ इतश्च प्रहितो दुतो, भूयोऽपि दमितारिणा ॥ क्षिप्रमागत्य तावेव| मवदद्वदतां वरः ।। २४२ ॥ दास्यौ दास्याव इत्युक्त्वा, युवाभ्यां प्रहिते न यत् ।। युवयोस्तदसुभ्योऽपि, ते प्रिये इति दृश्यते ! ॥२४३॥ अथ चेद्वां प्रियाः प्राणाः, तत्ते प्रेषयतं द्रुतम् ॥ अमर्षणः स हि प्राणा-नन्यथा वां हरिष्यति ! ॥ २४४ ॥ ततस्तावृचतुः स्वामी, स हि तोष्यो धनैर्धनैः ॥ आभ्यां चेत् प्रियते तर्हि, ते लात्वा त्वं प्रगे ब्रजेः॥ ४५ ॥ ताभ्यामित्युदितो दूत-स्तद्दत्ते न्यवसद्गृहे ॥ न्ययुञ्जातां राज्यभारं, सुधियौ धीसखेषु तौ ॥४६॥ प्रातश्च विद्या चेटी-भूतौ दतमुपेयतुः । साग्रजोऽनन्तवीर्यो नौ, प्रैषीदित्यूचतुश्च तम् सरासरासर EVEGEVGGGGGLEEVE Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य पनसूत्रम् 1180 11 ॥ २४७ ॥ तत आदाय ते दूतो, वैताढ्य मुदितो ययौ ॥ दमितारेश्वोपनीय, प्रोवाचेति कृताञ्जलिः ॥ २४८ ॥ प्रभो ! ऽपराजितानन्तवीर्यो त्वद्वशवत्तिनौ । इमे ते चेटिके मझ-मदत्तां प्राभृताय ते ॥ २४६ ॥ ते नटयौ नाटकं कतु, दमितारिरथादिशत् ॥ अपूर्व - दर्शनोत्को हि, विलम्बं नावलम्बते || २५० ।। ततस्ते चक्रतुर्नाट्यं, पूर्वरङ्गादिपूर्वकम् ।। रसाशेषविशेषाढ्यौं, विश्वविश्वैककार्मणम् ।। २५१ ।। प्रेक्षणीयं' प्रेक्षणीयं', प्रेक्ष्य तत् क्ष्माधवः सुधीः ॥ भूर्भुवःस्वत्रयीसारं, मेने तच्चेटिकाद्वयम् ॥ २५२ ॥ अथ नाट्यं शिक्षतु, स्वपुत्र कनकश्रियम् ॥ दमितारिस्तयोर्विश्व-जैत्ररूपश्रियं ददौ ॥ २५३ ॥ अनन्तवीर्यं गायन्त्यौ, रूपाद्ये रद्भुतं गुणैः ॥ तामशिक्षयतां नाट्यं, ते मायाचेटिके ततः ॥ २५४ ॥ युवाभ्यां गीयते भूयः, कोयमित्यथ कन्यया । पृष्टे तयात्रत्रीदेवं, मायाचेटयपराजितः ॥ २५५॥ शुभापुरीप्रभू रूप-हृतदर्पकदर्पकः ।। परापराजितो भ्राता - ऽपराजितविभोर्लघुः || २५६ ॥ गीयते जगतीगेयो ऽनन्त वीर्यायो ह्ययम् ॥ युवा युवत्या स यया, न दृष्टः तज्जनिर्मुधा ! || २५७ ॥ [ युग्मम् ] तन्निशम्योल्लसद्रोम - हर्षा 'हल्लेखमाश्रिता ॥ कथं द्रक्ष्यामि तं कान्त-मिति साऽचिन्तयच्चिरम् ।। २५८ ।। इङ्गितज्ञस्ततोऽवादी - तामेवमपराजितः । तं विश्वसुभगोत्तंसं किं मृगाचि ! दिदृक्षसे १ ।। २५६ ।। कनक श्रीरथाचख्यौ क्व नु मे तस्य दर्शनम् ॥ प्राणिनां मन्दभाग्यानां दुरापो हि दूयुसन्मणीः ॥ २६० ॥ ऊचेऽपराजितो मुश्च, शुचं नलिनलोचने ! ॥ विद्यया भ्रातृयुक्तं तं त्वत्कृतेऽहमिहानये ।। २६१ ।। हर्षगद्गदगीरेवं, कनकश्रीरथावदत् । कलावति ! कुरुष्वाशु, वचः सफलमात्मनः ॥ २६२ ॥ स्वं स्वं रूपं ततः प्रादु- वक्रतुस्तौ जितामरम् । ऊचेऽपराजितस्तां चा-नन्तवीर्यो ह्यसौ शुभे ! ॥ २६३ ॥ मदुक्तमस्य रूपादि, दृशा संवादय स्वयम् ॥ सापि प्रेक्षावती प्रेक्षा - मास तं निर्निमेषदृक् १ दृष्टु ं योग्यम् । २ नाटकम् | ३ उत्साहम् तर्क वा ।। अध्य०१८ ॥ ४७ ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRIL NEPAL अध्य०१८ ॥४८॥ वनसूत्रम् उत्तराध्य- -॥२६४ ॥ दमितारिसुता काम, कामेन, दमिता ततः ।। अपाकृत्य त्रपां मान-अपमान्येति तं जगौ ॥ २६॥ अद्ययावद् युवानोऽन्ये, बहवो वीचिताः परम ॥ त्वां विना नारमत् क्वापि, मनोरम । ममो ममः ॥२६६ ॥ तत्प्रसीद द्रुतं पाणी, गृहाणानुगहाण मां, न.हि ॥ ॥४॥ जातु जनं रक्तमुपेक्षन्ते भवादृशाः ॥२६७ ॥ प्रभाषेऽनन्तवीर्योऽथ, यचं तर्हि सुन्दरि ! ॥ एहि यावः शुभापूर्या, ततस्तं सा पुनर्जगी HET॥ २६८ ॥ एष्याम्यहं कान्त ! किन्तु, कनिथं पिता ममः ॥ प्रत्यूचे तो हरिस्मि-भैषीस्त्वं कातरे ! ततः ॥ २६ ॥ ततस्ताभ्यां सहा- रुह्य विमानं साचलन्मुदा ॥ प्रोवाचावन्तवीर्योऽथ, वाक्यमित्युबकैस्तदा ॥ २७० ।। हराम्यमन्तवीर्योऽहं, दमितारिस्तामिमाम् ॥ शूरमन्यस्ततो यः स्या-त्स स्वौजो दर्शयत्वहो! ॥ २७१ ।। तमिशम्य नृपः प्रेषी-टांस्तं हन्तुमुटान् ॥ रलानि चक्रवर्जाणि, प्रादुरासंस्तदा तयोः ॥२७२॥ दमिनारिभटांस्तांचा-मर्षमान् शस्त्रवर्षिणः ॥ सद्योऽनाशयतां सीरि-शा िणौ, तौ महारथौ ॥ २७३ ॥ दमिः । लारिस्ततो चाली-सैन्यैराच्छादयत्रभः ।। अनभ्रं विद्यु दुधोतं, कुर्वन्नुत्तेजितायुधैः । ॥ २७४ ॥ तमायान्तं वीक्ष्य भीता-माश्वास्य कन- ॥ -कश्रियम् ।। अंवलिष्ट बलिष्ठो द्राग् , यो विष्णुपलान्वितः ॥ २७५ ॥ तत्सैन्यद्विगुणं. सैन्यं, विद्यया विधे च सः ॥ योदधु प्रववृते तच मितारिभटः समम् ॥ २७६ ।। निजसैन्येन तत्सैन्या-नभान् वीक्ष्य केशवः ॥ पाञ्चजन्यं जन्यनास्य-नान्दीनादमवादयत् ।। KI ॥२७७ ॥ ततो भीतेषु मप्टेषु, खेचरेष्बखिलेष्वपि । दमितारि सहानन्त-धीर्येण युयुधे चिरम् ।। २७८ ॥ दर्जयं तं च विज्ञाया PIE स्मरचक्र' स पार्थिवः ।। पाणौ तस्य तदप्यागा-तेजसाऽन्य इवारुणः ।। २७६ ।। मुमोचानन्तवीर्याय, तच्चक्र दिमितारराट् । सोऽपि I तुम्नपातेन भूलितो' म्यपतल्क्षणम् ॥ २८० ॥ उत्थितस्तु क्षणाचक्रं, तदेवादाय केशवः । दमितारं प्रत्यमुञ्च-तत्सङ्गात्सोऽपि जीवितम् । all २८१ ॥ तदा च भो । विप्रयं, चलवायं निफेयताम् ।। बदन्त इति तन्मौलौ, पुष्पवृष्टिं व्यधुः सुराः ।। २८२ ॥ ततो नतैः खेंचरे Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥ ४६ ॥ तो विष्णुः सहाग्रजः । गच्छन् स्वपूयां कनक- गिरिं पर्वतमैचत । २८३ । इहाद्रौ सन्ति चैत्यानि तानि नत्वा व्रज प्रभो ! । त देति खेचरैरुक्त-स्वच्चैत्यानि ननाम सः । २८४ । तत्र कीर्तिधरं साधुः, तदैवोत्पन्नकेवलम् । वीक्ष्य नत्वा च सोऽश्रौषी-देशनां सपरि छदः । २८५ । बन्धूनां विरहस्तात - पातश्चाभूत्कुतो मम ? । अथेति पृष्टः कनक- श्रिया मुनिरदोऽवदत् । २८६ । धातकीखण्डभरते, शङ्खप्रामेऽभवद्वशा । श्रीवत्ताह्नाऽतीव दुःस्था, परौकः कृत्यजीत्रिका । २८७ । श्रीपर्वते गता सत्य- यशसं मुनिमन्यदा । वीक्ष्यावन्दत सा दत्ता - शिषं तं चैनमब्रवीत् । २८८ । श्रहमत्यन्तदुःस्थास्मि, तत्किञ्चित्तादृशं वद । अत्रामुत्र च येनाहं भवामि सुखिनी • विभो ! । २८६ | साधुस्तस्यै ततो धर्म' - चक्रवालं तपोऽवदत् । प्रारेमे तत्तपः सापि तं प्रणम्य गृहं गता । २६० । तन्महिम्ना शुभं भोज्यं प्राप पारणकेषु सा । स्वगेहभित्तिदेशाच्च, पतितात्काञ्चनादिकम् । २६१ । उद्यापनं तपःप्रान्ते, सा विधायोत्तमं ततः । मासोपवासिनेऽनादि, ददौ सुव्रतसाधवे । २६२ । कृताहारात्ततः साधोः, श्राद्धधर्मं च साददे । दध्यौ चान्येद्य रित्यस्माद्धर्माद्भावि फलं न वा. १ । २६३ । विचिकीत्सामनालोच्य, विपन्ना साऽन्यदा ततः । दमितारिमत्सुतस्य तनया त्वमभूः शुभे ।। २६४ । तस्यास्ते विचिकीत्सायाः फलमेतदुपस्थितम् । स्वल्पोऽपि खलु धर्मस्य, कलङ्को भूरिदुःखदः । २६५ । श्रुत्वेति जातवैराग्या, कनकश्रीजंगी हरिम् । महाभागानुजानीहि भवाद्भीतां व्रताय माम् । २६६ । ततः स विस्मितः स्माह, शुभामेहि शुभाशये । स्वयम्प्रभजिनोयान्ते प्रत्रजेस्तत्र चोत्सवैः । २६७ इत्युक्त्वा तां सहादाय, सबलः सबलानुजः । मुनिं प्रणम्य तं भक्त्या, जगाम नगरी निजाम् । ६८ प्रथमं पदं १ तत एकान्तरोपवासाः ६० इति । प्रकारद्वयेन १] अहम र एकान्तरं चतुर्थ ३७ प्रान्ते म १ इवि धर्म चक्रवालं तपः। धर्मवातंत्र प्रथमप्रकारें दिन ८२ । द्वितीय प्रकारे १२३ ॥ शुभ नगरीम अध्य०१८ 11 82 11 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०१८ उत्तराध्यपनसूत्रम् ॥५०॥ Eeeeeeeeeeeeeeeeeeeeex तत्र पूर्व प्रतिहरि-प्रहितैः खेचरेश्वरैः । भ्रातुष्पुत्रं युद्धथमानं, वीक्ष्याऽधावद बलो बली | २६8 सीरं भ्रमयतस्तस्मा-भीताः सद्यो दिशोदिशम् । दमितारिभटा नेशु-रुडादिव भोगिनः ।३००। गहं गतो चक्रित्वे-ऽथाऽभ्यषिश्चि हरिनु पैः । स्वयम्प्रभप्रभुस्तत्रा-ऽन्यदा च | समवासरत् । ३०१ । तं च श्रुत्वाऽऽगतं गत्वा, दमितारिसुतायुतः । साग्रजः प्राणमद्विष्णु-स्ततोऽश्रौषीच देशनाम् ।३०२ । ततो हरिमनुज्ञाप्य, कनकश्रीमहोत्सवैः । जिनान्तिके प्रवघ्राज, क्रमान्मुक्तिमवाप च । ३०३ । सीरिशाङ्ग धरौ तौ च, पुष्पदन्ताविवापरौ । चिरं | राज्यमभुजाता, सम्यक्त्वोद्योतशालिनौ ।३०४। पूर्वलक्षाणि चतुर-शीतिमायुरथो हरिः। प्रपूर्य कर्मविवशः, प्रथमां पृथिवीं ययौ ॥३०॥ | द्विचत्वारिंशत्सहस्र-वर्षायुष्कस्य तस्य च । दुस्सहा जज्ञिरे तत्र, वेदनाश्छेदनादिभिः ।३०६। स्वकर्मणां फलमिति, क्षममाणस्य तस्य ताः। तत्रत्य प्रागभवपिता-ऽशमयञ्चमराधिपः ।३०७ । राज्ये निवेश्य तनयं, बलोऽपि भ्रातृशोकतः। भूमीभुजां षोडशभिः, सहस्रः परिवारितः । ३०८ । परिव्रज्यां जयघर-गणाधीशान्तिकेऽश्रयत् । तपश्च तीव्र तप्त्वाऽऽयुः-प्रान्तेऽभूद्वासवोऽच्युते ।३०६। [युग्मम् ] जीवोऽथानन्तवीर्यस्य निरयानिर्गतस्ततः । वैताढ्य भरतस्यास्य, पुरे गगनवल्लभे ।३१० खेचराधिपतेर्मेघ-वाहनस्याङ्गजोऽभवत् । मेघनादाभिधः प्राप्त यौवनो राज्यमाप्य च । ३११ । साधयामास वैताब्य-श्रेण्यौ द्वे अपि स क्रमात् । विभज्य च ददौ देशा-नशेषानङ्गजन्मनाम् । ३१२ । नन्तु शाश्वतचैत्यानि, गतं तं नन्दनेऽन्यदा । तत्रायातोऽच्युताधीशः, प्रेक्ष्य प्राबुबुधन्मुदा । ३१३ । नाम्ना मरगुरुस्तत्र, चारणपिस्तदाऽऽययौ । प्राबाजीत् खेचराधीश-स्ततोऽसौ तस्य सन्निधौ । ३१४ । स व्रतं पालयस्तीव्र, सहमानः परिषहान् । विपद्यानशनेनान्ते-ऽच्युतसामानिकोऽभवत् । ३१५ । इतश्च जम्बुद्वीपेऽस्ति, प्रागविदेहविभूषणे । बिजये मङ्गलावत्यां नगरी रत्नसश्वया ॥ ३१६ ॥ तत्र क्षेमङ्कराहो-ऽभूद्विश्वक्षेमकरो नृपः ॥ रत्नमालेति तस्यासी-महिषी गुणमालिनी ।। ३१७ ॥ द्वाविंसतिसमु BIGIONALARIAGNEeeeveAAAAAAAA Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०१८ ॥५१॥ भद्रायुः, प्रपूर्य प्रच्युतोऽच्युतात् ॥ जीवोऽपराजितस्याथ, तस्याः कुक्षाववातरत् ।। ३१८ ॥ तदा च सुखसुप्ता सा, महास्वप्नांश्चतुर्दश ॥ उचराध्य - वज्रं पञ्चदशं प्रेक्ष्य, प्रबुद्धा भूभुजेऽभ्यधात् ॥ ३१६ ।। सोऽपि स्माह सुतो भावी, चक्रवर्ती तब प्रिये ! तन्निशम्य दधौ गर्भ, राज्ञी मुदित- यनसूत्रम् मानसा ॥ ३२० ।। क्रमाच्च सुषुवे पुत्रं, जगत्त्रयमनोहरम् ॥ स्वप्नानुसारात्तं भूपो, व्यधाद्वज्रायुधाऽभिधम् ।। ३२१ ॥ स क्रमाद्यौवनं प्राप्तः, प्रियमित्रं मनोभुवः' । लक्ष्मीवती नृपसुता-मुदुवाह महामहैः ॥ ३२२ ॥ जीवोऽथानन्तवीर्यस्या-ऽच्युतस्वर्गात्परिच्युतः ।। कुक्षौ लक्ष्मीवतीदेव्याः, समवातरदन्यदा ।।३२३।। समयेऽजीजनत्पुत्रं, साऽपि लक्षणलक्षितम् ॥ सहस्रायुध इत्याख्या, चक्रे तस्योत्सवैः पिता ॥ ३२४ ॥ सोऽपि कुमावर्द्धमानः, स्वीकृत्य सकलाः कलाः ॥ प्रपेदे यौवनं लीला-वनं मदनभूभृतः॥ ३२५ ॥ सुतयुक्तेऽन्यदा क्षेम-करराजे सभां श्रिते ।। वज्रायुधस्य सम्यक्त्व-मीशानेन्द्रोऽत्यवर्णयत् ॥३२६।। अश्रद्दधानस्तच्चित्र-चूलो मिथ्यामतिः सुरः।। विवादं कत्तु मागात्तां, सभां नास्तिकतां श्रितः ।। ३२७ ॥ पुण्यपापप्रेत्यभावा-स्मादि नास्तीति वादिनम् ॥ वज्रायुधोऽवधिज्ञानी, निजगादेति तं मुदा ॥ ३२८ ।। देव ! त्वमेवावधिना, पश्य प्राग्भवमात्मनः ।। धर्मकर्म च तत्रत्यं, सम्पदोऽस्या निबन्धनम् ॥ ३२६ ॥ पुण्ये प्राच्यभवे चैवं, सिद्धे जीवोऽपि विद्यते ॥ अभावः पुण्यपापादे-स्तत्कथं कथ्यते त्वया ? ॥ ३३० ।। उक्तो वज्रायुधेनेति, चित्रचूलसुरोऽब्रवीत ॥ दुर्बोधोऽपि त्वया साधु, सुबुद्धे बोधितोऽस्म्यहम् ॥ ३३१ ॥ प्रसीद बोधिरत्नं द्राग, देहि मिथ्यामतेमम ॥न हीय॑याऽपि विहितं, दर्शनं विफलं सताम् ॥ ३३२ ॥ वज्रायुधस्ततस्तस्मै, सम्यक् सम्यक्त्वमादिशत् ॥ निःस्पृहाय ददौ दिव्या, भूषास्तस्मै सुरोऽपि सः ॥ ३३३ ।। सभामीशाननाथस्य, गत्वा चैवमुवाच सः॥ वज्रायुधस्य सम्यक्त्वं, स्थानेश्लाघि त्वया प्रभो! १ कामदेवस्य। GVEGVES VEGVEGVE Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०१८ ॥५२॥ उत्तराध्य- AA ३३४ ॥ अथ लोकान्तिकैर्देवै-रुक्तः क्षेमङ्करः प्रभुः।। अर्थिभ्यो वार्षिकं दानं, ददौ राज्यं च सूनवे ॥३३२॥ वज्रायुधेन देवैश्व, यनसूत्रम् कृतनिष्क्रमणोत्सवः ।। प्रव्रज्य केवलज्ञानं, क्रमेण प्राप स प्रभुः ॥ ३३६ ॥ श्रुत्वा तद्देशनां बज्रायुधस्य गृहमीयुपः ।। उत्पत्तिं चक्ररत्न॥ ५२॥ स्या-ऽभ्यधादायुधरक्षकः ॥३३७॥ अन्यान्यपि हि रत्नानि, तदा तस्योपपेदिरे॥ ततः स चक्रे चक्रस्य, चक्री पूजां महीयसीम् ॥३३८) का चक्ररत्नानुगः सोऽथ, विजयं मङ्गलावतीम् ॥ साधयामास षट्खण्ड-मखण्डाज्ञः शशास च ॥ ३३६ ॥ क्षेमङ्करजिनस्तत्र, समवासरदKol न्यदा ॥ चक्रिणेऽर्हन्तमायात-मूचुश्च वनपालकाः ॥ ३४०॥ सार्द्धद्वादशदीनार-कोटीस्तेभ्यो वितीर्य सः ॥ गत्वा नत्वा च सर्वज्ञ-मश्री पीद्धर्मदेशनाम् ॥ ३४१ ॥ ततो वैराग्यमासाद्य, सद्यः समगतों नृपः॥ निजे न्यवीविशद्राज्ये, सहस्रायुधमादरात् ॥ ३४२ ॥ चतुर्मि निजराज्ञीनां, सहस्रः भूभुजां तथा ।। सप्तभिश्चात्मजशतैः, सहितो महितो जनैः ॥ ३४३ ॥ क्षेमङ्करप्रभोः पार्थे, गत्वा स व्रतमाददे ॥ 2H तप्यमानस्तपस्तीवं विजहार च भूतले ॥३४४॥ [युग्मम् ] सहस्रायुधराजोऽपि, राज्ये न्यस्यान्यदा सुतम् ।। गणाधीशस्य पिहिताश्रवका स्यान्तेऽग्रहीव्रतम् ॥३४॥ स क्रमात् श्रुतपारिणो, विहरन् पृथिवीतले । समगस्तान्यदा वज्रा-युधराजर्षिणा समम् ॥३४६॥ ततश्च का तो पितापुत्रौ, स्वाध्यायध्यानतत्परौ ॥ सुचिरं रुचिरस्वान्तौ, सममेव विजहतुः ॥३४७ ॥ अधिरुह्याऽन्यदा शैल-मीषत्प्रागभारसज्ञall कम् ।। पादपोपगमं नामा-ऽनशनं तौ वितेनतुः ।। ३४८॥ पूर्णे च जीविते पञ्च-विंशत्यर्णवजीवितौ ।। ग्रैवेयके तृतीये ता-वभूतां भासुरौ सुरौ ।। ३४६ ॥ इतश्च जम्बूद्वीपे प्राग-विदेहेषु महर्द्धिका ।। विजये पुष्कलावत्या-मस्ति पू: पुण्डरीकिणी ॥ ३५० ॥ प्रतीपभूपतेजोग्निशमनैकघनाघनः॥राजा घनरथस्तस्या-मभूदद्भुतविक्रमः॥३५१॥ गङ्गागौर्याविवेशस्य, तस्याभूतामुमे प्रिये ।। तत्रादिमा प्रीतिमती, द्वितीया तु मनोरमा ॥ ३५२ ।। जीवो वज्रायुधस्याथ, च्युत्वा अवेयकात्ततः॥ देव्याः प्रीतिमतीनाम्न्याः, कुक्षौ समवती ACGLASAVELERE VEVERETTAA Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०१८ ॥५३॥ वान् ॥ ३५३ प्रविशन्तं तदा वक्त्रे, गर्जन्तं विद्य दश्चितम् ॥ वर्षन्तममृतासारं, स्वप्ने मेघं ददर्श सा ॥ ३५४ ॥ प्रातः स्वप्नार्थमुझेशउत्तराध्य स्तया पृष्टोऽब्रवीदिदम् ॥ सुतस्ते भविता मेघ, इव सन्तापहृद्भुवः॥ ३५५ ॥ सहस्रायुधजीवोऽपि, ततो ग्रैवेयकाच्च्युतः ।। देव्या मनोयनसूत्रम् रमाह्वाया, उदरे समवावरत् ॥३५६ ।। सापि स्वप्ने रथं रम्यं, प्रेक्ष्य पत्ये न्यवेदयत् ।। सोऽप्युवाच प्रिये ! भावी, सुतस्तव महारथः ॥५३॥ ॥३५७ ॥ पूर्णेथ समये ताम्यां, प्रसूतावद्भुतौ सुतौ ॥ इन्द्रोपेन्द्राविव क्रीडा-वशोपातभवान्तरौ ।। ३५८ ॥ पुत्रं तत्रादिमं भूमा-बाम्ना मेघरथं जगौ ॥ परं पुनह ढरथं, राज्ञीस्वप्नानुसारतः ॥ ३५६ ।। भूषयन्तौ तौ नरेन्द्र-कुलं मेरुमिवोन्नतम् ॥ बाली क्रमादवर्द्धता, बालकल्पद्रुमाविव ॥ ३६० ॥ रत्नेन काञ्चनमिव, वसन्तेनेव काननम् ।। द्वितीयवयसा रूप-मभूष्यत तयोः क्रमात् ॥ ३६१ ॥ इतश्च निह तशत्रोः, सुमन्दिरपुरप्रभोः तिस्रोऽभुवन् सुता, विश्वत्रयश्रिय इवाहताः! ॥३६२।। तास्वाद्या प्रियमित्राहा, द्वितीया तु मनोरमा । Kll तृतीया सुमतिर्नाम, जगत्त्रयमनोरमा ॥ ३६३ ॥ तत्र मेघरथायादा-नन्दने द्वे स पार्थिवः ।। एका पुनह ढरथ-कुमाराय लघीयसीम् ॥३६४ ॥ काम्ताभिः सह ताभिस्ती, देवीभिरिच नाकिनौ ।। भुञ्जानौ विषयान् कालं, भृयांसमतिनिन्यतः ॥ ३६५ ॥ बोधितः श्रीघ- | नरथो-ऽन्यदा लोकान्तिकामरैः ।। ददौ वार्षिकदानं स-द्वातैः नुन्न इवाम्बुदः ॥ ३६६॥ राज्ये च यौवराज्ये च, ततो विन्यस्य ती सुतौ ॥ | प्रव्रज्य केवलं प्राप्य, सोऽर्हन् भव्यानबोधयत् ।। ३६७॥ नम्रोवर्वीशशिरःस्रस्त-माल्यपूजितपत्कजः ॥ अन्वशान्मेदिनीं मेघ-रथो द्या मघवानिव ।। ३६८ ॥ तस्याऽन्यदा पौषधिनः, पौषधौकसि तस्थुषः ॥ एत्य पारापतः कोऽपि, पपाताङ्क भयाकुलः ॥ ३६६ ॥ शरणं | मार्गयन् सोऽथ, शकुन्तो' मर्त्यभाषया ॥ मा भैषीरिति राज्ञोक्त-स्तदङ्क स्थितवान् सुखम् ॥ ३७॥ मम भक्षमिदं देव !, विमुञ्चेत्यु १ उपेन्द्रो विष्णुः । २ पक्षी॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एचराध्य अध्य०१८ ॥५४॥ पनपत्रम् ॥५४॥ चकैर्वदन ॥ तमन्वगादथ श्येनो, गरुत्मानिव भोगिनम् ॥३७१ ॥ नृपोऽथेत्यब्रवीदेनं, श्येन ! दास्ये न ते श्रितम् ॥प्राणान्तेऽपि हि रक्षन्ति, क्षत्रियाः शरणागतम् ॥३७२॥ अन्यच्च युज्यते नैव, भवतोऽपि विवेकिनः ।। अपहत्य परप्राणा-नेवं स्वप्राणपोषणम् ॥३७३॥ 19 स्वजीवितं यथेष्टं ते, तथान्यस्यापि तत्प्रियम् ॥ तद्रक्षसि यथात्मानं, तथान्यमपि रक्ष भोः। ॥३७४ ॥ भुक्तेनाप्यमुना भावि, सौहित्य' क्षणमेव ते ॥ सर्वस्याप्यायुषो नाशो, भविताऽस्य तु पक्षिणः ॥ ३७५ ।। आहारेणापरेणापि, चुद्व्यथा क्षीयते क्षणात् ॥ प्राणिहिंसोत्थनरक-व्यथा तु न चिरादपि ॥ ३७६ ॥ तद्विमुञ्च प्राणिहिसा, धर्ममाश्रय सन्मते ! अत्रामुत्र च येन त्वं, लभसे सुखमुत्तमम् ॥ ३७७ ॥ | ततो नरेश्वरं श्येनः, प्रोचे मनुजभाषया ॥ मत्तो भीतः कपोतोऽयं, प्रभो ! त्वां शरणं श्रितः ॥ ३७८ ॥ चुत्पीडापीडितोऽहं तु, बेहि कं शरणं श्रये ? ॥ तदेनं रक्षसि यथा, तथा त्वं रक्ष मामपि ! ॥३७६॥ धर्माधर्मविचारोऽपि, सति स्वास्थ्येऽङ्गिनां भवेत् ।। बुभुक्षितो हि । किं पापं, न करोतीति न श्रुतम् ? ॥ ३८० ॥ न चान्यैरपि भौज्यै, तुष्टिर्भवति भूपते ! ॥ सद्यो हतप्राणिपला-स्वादनैकरतो ह्यहम् । ॥ ३८१ ॥ क्षुधया म्रियमाणस्य, तदेनं देव ! देहि मे ॥ सर्वेष्वपि महात्मानो, भवन्ति हि कृपालवः ॥ ३८२ ॥ राजाऽथ श्येनमित्यूचे, कपोतप्रमितं तव ॥ ददे स्वमांसमुत्कृत्य, मा म्रियेथा मुधा क्षुधा ॥ ३८३ ।। ओमित्युक्ते तेन पारा-पतं नृपतिरेकतः॥ तुलायां न्यास्थदुत्कृत्यो-स्कृत्य स्वामिषमन्यतः॥३८॥ चिक्षेप स्वपलं भृपः, छेदं छेदं यथा यथा ॥ कपोतपोतो ववृधे, वीवधेन' तथा तथा ॥३८॥ ततस्तुलामिलापालो'-ऽध्यास्त शस्तमतिः स्वयम् । तदा च मंत्रिमुख्यास्तं, सगद्गदमदोऽवदत् ॥ ३८६ ॥ रक्षणीयाऽमुनांगेन, महीश ! निखिला मही ॥ पक्षिणो रक्षणायास्य, तद्विभो ! किं जहासि ? हा ! ॥३८७ ॥ किञ्चेयान् वीवधो नैवा-एडजे सम्भवति क्वचित् ॥ | १ तृप्तिः । २ भारेण । ३ राजा। G GEGEVEEVEEVEEAVAZALA Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या उपराध्य- कित्यस कोऽपि मापावी, भाली देखेमनार ! ॥३८ ॥ इति तेषु वदत्वेन, दिव्यालकरमासुरः ॥ प्रादुर्भूयाऽमरी भूप-मित्युषाच पनमन्त्रम् ताजनिः॥ ३८॥ धर्माचालयितु मेघ- नेशाः सुरा अपि ॥ इति ते स्तुतिमीशान-शकणोक्तामसासहिः॥ १६॥ अधि-|| ॥५५॥ ध्याय समौ वैराद् युध्यमानापियो खबम् ॥ शकसं त्वत्परीचार्य-सहमेतन्महीपते । ॥ ३६॥ [युम्मम् ] तन्महासत्त्व ! धन्यस्त्वं, यखाती प्राथिनं परम् ॥ प्रियानपि जिला-स्तुमायापि न मन्यसे ।। ३६२ ॥ इत्युक्त्वा तं नृपं सज्जं, विधाय स्वर्ययौ सुरः। मंत्र्यादयोऽपिया तद्वीक्ष्य, विस्मयं दधुरुक्कैः ॥ ३१॥ देवः कोऽसौ पुरा विस, परिणोःरमेतयोः१॥ अथेति पृष्टस्तै पो-ऽवधिज्ञानी जगाविदम ॥ ३९४ ॥ रामोऽपराजिलाहोऽहं, प्रामभवे पाश्चमेऽभवम् ॥ असौ दृहरमोनन्त-वीर्याख्योऽभूचदा हरिः॥ १५ ॥ प्रतिविष्णुर्दमितारि-स्तदाऽवास्यां इतोऽभवत् ॥ भवे भ्रान्त्वा स देवोऽसौ, बभूवामानकटतः ॥ ३६६॥ [अन्यच्च] जम्बूद्वीपस्यैरवते, पशिभीषण्डसत्तने सामरदत्तभ्यसुता-वभूतां बननम्वनी ॥ ३६७ ॥ वाणिज्याय गतौ तौ च, पुरे नागपुरेऽन्यदा। गधाविव क्रव्यपियडरलमेलमपश्यताम् ॥ ३६८॥ सोदराबप्यबुध्येतां, तस्य रलस्य लिप्सया ॥ एकद्रव्याभिलाषी हि, परम वैरकारणम ३६8 || नदीतीरे युध्यमानौ, तबदे पतिती व तौ ॥ मृत्वाभूतां महाटव्यां, श्येनपारापताविमौ ॥४०॥ तेन प्राग्भववैरण, युध्य बानाविहाम्यम् ।। अधिष्ठाय सगीवास्या भनेकस्माकं परीक्षम् ॥ ४० ॥ तत्वोपीशवचः श्रुत्वा, पक्षिणावपि सौ क्षणात ॥ जातिस्मरणमामासाय, स्ववाचल्यूचा पम् ॥४०॥ नवन्नृबन्ममाप्यावा, वदालोमेनझरितौ॥ यथा धर्ममादिश्या-ऽनुगहणात्वना भवान् ॥४.शा कविायावधिज्ञासा-माझानशनमीस्तिमः ।। अपय तो विषावाट, बादी भवनपी सुरौ॥४०४॥ कृताधर्म मेघर, प्रतिमास्थितमन्यदा । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य. eve अध्य०१८ यनसूत्रम् EVEGEVEEVEE VEE Veevee ELEVERDE तुभ्यं नमोऽस्त्विति वद-बीशानेन्द्रोऽनमन्मुदा ॥४०५॥ त्वयाऽपि विश्ववन्धन, कोऽसौ स्वामिन्नमस्कृतः॥ महिषीभिस्तदा चवं, पृष्टः स हरिरित्यवक् ॥४०६ ॥ नगयां पुण्डरीकिण्यां, श्रीमेघरथपार्थिवम् ॥ प्रतिमास्थं भाविजिनं, वीक्ष्य भक्त्याहमानमम् ॥ ४०७॥ ध्यानस्थितं महासत्त्व-म, मेरुमिव स्थिरम् ॥ शक्तावालयितुं नैव, सेन्द्रा अपि सुरासुराः ॥ ४०८ ॥ तन्महिष्यौ सुरूपाति-रूपे तां तस्य वर्णनाम् ।। असहिष्णू तदा तत्रा-ऽऽगातां तत्वोभहेतवे ॥४०॥ ॥ कामपादपकुल्याभाः, कामिनीस्ते विचक्रतुः ।। अनुकूलोपसगांस्ता, इति पारेभिरे ततः॥४१० ॥ कटाक्षविशिखः काचि-दक्षा लक्षीचकार तम् ॥ काऽपि भ्रविभ्रमान सुभ्र--विदधे पिदधे त्रपाम् ॥ ४११ ।। पीनस्तनी स्तनौ शात-कुम्भकुम्भाविवोन्नतौ ॥ कापि प्राकाशयत्केश-पाशोद्वन्धनकैतवात् ।। ४१२॥ त्रिवलीललितं मध्यं, सुमध्या काप्य| दर्शयत् ।। कापि वापिसनाभिं च, नाभिं प्राकटयन्मुहुः ॥४१३ । अस्मिन्नखपदे काञ्ची-दाम मां बहु बाधते ॥ माययेति महारोहा-रोहं। कापि स्फुटं व्यधात् ।। ४१४ ॥ हले ! ऽलिना किं दष्टाह-मिहेति व्यपदेशतः ।। उत्क्षिप्य कापि संव्यान-मूर्वोमू लमदीदृशत् ॥४१॥ शृङ्गारशाखिपुष्पाभं, काचिदस्मेरयत् स्मितम् ।। काचिज्जगौ च गीतानि, विकारांकुरवारिदान् ॥ ४१६ ।। कथामकथयत कापि, प्रिययोगवि| योगयोः ।। स्वानुभूता रतक्रीडा, वर्णिनी काप्यवर्णयत् ॥ ४१७ । देहि प्रियं वचः सौम्यदृष्टया वीक्षस्त्र नः प्रभो ! ।। कण्ठे निधेहि च भुजौ, तमित्यूचुश्च काश्चन ।। ४१८ ॥ क्षोभायेति कृतास्ताभिः, कुचेष्टा निखिलां निशाम् ।। प्रत्युतादीपयत् ध्यानं, तस्याऽऽप इव वाडवम् ॥४१६॥ मेरौ वात्या इवोर्वीशे, मोघास्ता विकृताः स्त्रियः ।। ततः संहत्य ते देव्यौ, नत्वा तं दिवमीयतुः॥४२०॥ निशावृत्तेन तेनाथ, पृथ्वीनाथो विरक्तधीः ।। प्रतिमां पारयित्वागा-स्वधामा प्रतिमक्षमः ।। ४२१ ॥ तत्राथ समवासापी-ज्जिनो घनरथोऽन्यदा ।। तं चायातं निशम्यागा-सानुजो वन्दितुं नृपः ॥४२२॥ वैराग्यमातरं श्रुत्वा, देशनां स गृहं गतः ।। राज्यमेतद्ग्रहाणेति, राजाऽवरजमब्रवीत् ॥४२३॥ NUMANBINDNEVZEYVESNA NEVEN Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०१८ ॥५७॥ उचराध्यपनमूत्रम् ॥ ५७॥ ॥ ४२७ । सोऽथ कृत्वा सर्वार्थ-सिद्धे जज्ञे सुधाशा पलद्धिभिः ।। पुरं पुरन्दर GECEFeEcceeeeeeeeee त्वामनुप्रव्रजिष्यामि, कृतं राज्येन तन्मम । तेनेपुक्तोऽथ पृथ्वीशो, राज्येऽस्थापयदात्मजम् ।। ४२४ ।। साकं दृढरथेनाथ, सुतानां सप्तभिः शतैः ॥ राज्ञां चतुःसहरुया च, गत्वा तीर्थकरान्तिकम् ॥ ४२५ ।। स्वीचकार परिव्रज्यां, श्रीमेघरथपार्थिवः ॥ अधीत्यैकादशाङ्गानि, विज़हार च भूतले ।। ४२६ ॥ [ युग्मम् ] विंशत्या स्थानकैरह-सिद्धसेवादिभिः शुभैः॥ तीर्थकुन्नाम सत्कर्म, सोर्जयामास सार्जवः | ॥ ४२७ ।। सोऽथ कृत्वा साधुसिंहः, सिंहनिक्रीडितं तपः । पूर्वलक्षं यावदुग्रं, पालयित्वा च संयमम् ॥ ४२८ ॥ आरुह्याम्बरतिलके, गिरावनशनं श्रितः ।। आयुःक्षयेण सर्वार्थ-सिद्धे जज्ञे सुधाशनः ।। ४२६ ॥ तद्वान्धवोऽपि समये, कियत्यपि गते सति ।। प्रायं प्रपद्य | तत्रैव, विमानेऽजनि निर्जरः ।। ४३० ।। अथास्त्यत्रैव भरते भरितं विपुलर्द्धिभिः । पुरं पुरन्दरपुरो-पमं श्रीहस्तिनापुरम् ॥ ४३१ ॥ विश्वसेनो महासेन-सेनाजित्वरसैनिकः ।। तत्रासीद्भुमिसुत्रामा -ऽलकायामिव यक्षराट् ॥ ४३२ ।। स्वाहा स्वाहाप्रियस्यैवा-ऽचिरा तस्य महिष्यभूत् ।। रूपनिर्जितपौलोमी", शीलालङ्कारशालिनी ॥ ४३३ ॥ जीवो मेघरथस्याऽथ, व्युत्वा-सर्वार्थसिद्धतः॥ आगात् श्रीअचिरादेव्याः , कुक्षौ हंस इवाम्बुजे ।। ४३४ ।। चतुर्दश महास्वप्नान् , सुखसुप्ता तदा च सा ।। मुखे प्रविशतोऽपश्य-प्रशस्याकारधारिणः ।। ४३५ ॥ तयाऽथ पृथिवीनाथः, पृष्टः स्वप्नार्थमित्यवक् ॥ "सार्वो वा 'सार्वभौमो वा, भावी तव सुतः प्रिये ! ॥ ४३६ ॥ प्रागजातं "शान्तिकाशान्तं, मारिरोगादिकं तदा ॥ प्रभुप्रभावादशिवं, शशाम कुरुमण्डले ॥ ४३७ ।। गर्भकालेऽथ सम्पूर्णे, निशिथसमये सुखम् ॥ सुषुवे सा सुतं राज्ञी, स्वर्णवर्ण मृगध्वजम् ।। ४३८ ॥ त्रैलोक्येऽपि महोद्योतो, नारकाणां सुखं तथा ॥ क्षणं तदाभून्नित्यं हि, जिनकल्याणकेष्वदः ॥ ४३६ ॥ ज्ञात्वाऽथासनकम्पेन, जिनजन्माऽऽगता द्रुतम् । पटपञ्चाशदिक्कुमार्यः, सूतिकर्माणि चक्रिरे ।। ४४०।। १ अनशनम् । २ इन्द्रः। ३ अग्नेः। ४ इन्द्राणो। ५ अर्हन् सर्वज्ञः तीर्थकर इति यावत् । ६ चक्री । ७ शान्तिकेन शान्तिकरेणापि पूर्णादिविधानेन अशान्तमित्यर्थः । SEASINGARNARAARADIOX Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०१८ ॥५॥ ASH उचराध्य- अथासवास्थैर्षदत्ता-ऽवधिज्ञानोपयोगतः॥ ज्ञात्वाऽईज्जन्म शकोशमि, वागात्सपरिच्छदः॥४४१॥ नवा जिनं जिनाम्बां च, ज्ञाप- यनसूत्रम् यित्वाऽभिधां निजाम् ॥ दच्याऽवस्थापिनी देव्याः, प्रमो रूपान्तरं न्ययात् ॥ ४४२ ॥ पञ्चरूपाणि कृत्वाऽय, तेनैकेन जिनेश्वरम् ॥ ॥५८ill द्वाभ्यां च चामरे ताभ्या-मेकेन छत्रमुहुन् ॥ ४४३ ॥ एकेन च पुरो वज-मुत्क्षिपन् मघवा श्यात् ॥ जगाम मेरुपौलिस्था-ऽतिपा ण्डुकम्बलां शिलाम् ॥ ४४४ ॥ [घुग्मम् ] अकन्यस्तजिनस्तत्रा-ज्यास्त सिंहासनं हरिः ॥ अन्येऽपि वासवाः सर्वे, तवेयुवलितासनाः ॥ ४४५ ॥ ततस्तीर्थोदकैस्तीर्थ-करं प्रागच्युताधिपः ॥ अभ्यषिश्चत्तदनु च, क्रमादन्येऽपि वासवाः ॥ ४६॥ अथेशानप्रमोरहे। जिनं विन्यस्य वज्रभृत् ।। प्रभोश्चतुर्यु पार्वेषु, विचक्रे चतुरो वृषान् ॥ ४४७ ॥ वद्विषाखोद्गतैनी:रै, स्नपयामास स प्रहम् ॥ गन्धमाल्यविभूषाभिः, पूजयित्वाऽस्तवीच तम् ॥ ४४८ ॥ अथादायजिनं शक्रो-चिरादेव्यन्तिकेशुचत् ॥ द्रागवस्वापिनीमह-तांतिरूपं जहार च ॥ ४४६ ॥ विनोदाय विमोरूर्व, न्यस्य श्रीदामगण्डकम् ॥ उच्छीर्षके न्यधादजी, चौमकुण्डलयामले ॥ ४५० ॥ जिने जिनजनन्यां च, यो दुर्व्यास्यति दुर्मतिः ॥ तन्मौलिः साधा भावी, आकस्मेव मारी ! ॥ ४५१॥ इत्युधोप्य सुरैरिन्द्रः, स्वर्णरत्नादिवर्षणम् ॥ का श्रीदेन कारयित्वा च, द्वीपे नन्दीलबरे यसौ ॥४२॥ राम्] तब शाश्वतरीत्येषु, शक्रोऽन्येऽपि च वासवाः ॥ अष्टाहिकोत्सव कृत्वा, स्थान निजंनिजं ययुः ॥ ४४३ वर्धापितोऽथ दासीमि-भूपतिः पुवजन्मना ॥ ताभ्यो दचा भूरि दानं, प्राज्यं चक्र महोत्सवम ॥४४॥ गर्भस्थेऽस्मिन् सुते शान्ति-शिवानामभूति ॥ इति वितिपतिः शान्ति-रिति तस्यामियां व्यधात् ॥ ४५५ ॥ निहित Kा हरिणांगण्टे, पिपन् पीयूषमन्त्रहम् ॥ अतिरूपकेनानी-पहऽय जगत्पतिः॥४५६॥ पश्यतोरालिकतोष, मौलाबाजिघ्रतोश्च तम् ॥ पित्रोः सुखमभना-मामयोखि निखुलम् ॥ ४५७॥ निशम्य मन्मनालापां-स्तस्येष्टान् छ सदामपि ॥ पितरौ पीतपीयूषा-विवात्यर्थम Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IP उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥ ५९॥ अध्य०१८ ॥५६॥ TAGG ज्यताम् ॥ ४५८ ॥ भूपहागणं स्वामी, क्रमचंक्रमणैः क्रमात् ॥ अलञ्चकार चटुलैः, कल्पगुरिवजसमः। ४५६॥ शिशुभृतैः सम देव-चलचूलाञ्चलो' विभुः। पशुलीला न्यवादम्या, शैशवे शोभते छदः॥४६०॥ क्रमाचस्ववपुर्योगा--द्यौवनं भूषयन्विभुः॥ चत्वारिंशद्धनुस्तुगो, विश्वं निश्चममोदयत् ।। ४६१ ॥ पिबोराज्ञेत्युपायंस्त, जिनो सजाङ्गजास्ततः ॥ यशोमत्यादिका धन्यं मन्यास्तादृग्धवामितः ॥ ४६२ ॥ यातेप्वब्दसहस्रषु, जन्मतः पञ्चविंशतौ । राजा राज्ये न्यस्य शान्ति, निजं कार्यमसाधयत् ॥ ६३ ॥ जिनोऽपि भुजे भोमान, पुरन्ध्रीभिः सोचमान् ॥ कर्मभोगफलं खेव-मेवापति निकाचितम् ॥ ४६४ ॥ जीवो दृढरथस्याथ, सर्वार्थादन्यदा च्युतः ।। आमाधशोमतीकुची, स्वप्ने चक्रं प्रदर्शयन् ॥ ४६५ पृष्टस्तयाध्य स्वप्नार्थ, जगादेति जगत्पतिःचव देवी सुतो भावी, जङ्गमं विश्वमण्डनम् ॥ ४६६ ॥ पूर्णे च समये पुत्रं, सुषुवे सा सुलक्षणम् ।। स्वामिस्वप्नानुसारातं, चक्रे चक्रायुधाभिधम् ॥ ४६७ ॥ का क्रमेण बर्द्धमानोऽथ, सोपि यौवनमासदत ॥ बहीर्मपतिपत्रीश्च, पर्यशैषीत् स्वयंवराः॥४६८ ।। नृपत्वेऽपि सहस्रषु, शरदां पञ्चविंशतौ ॥ Kागतेषु शाबशालायां, चक्र प्रादुरभूत् प्रभोः ॥ ४६६ ॥ चक्रपूजां कारयित्वा, ततस्तदनुगो विभुः ॥ लीलया साधयामास, पखण्डमपि भारतम् ।। ४७० ॥ त्रिंशता सहस्र भू-भुजां सेक्तिपत्कजः ॥ कृतारिशान्तिः श्रीशान्ति-हस्तिनापुरमाययौ ॥ ४७१ ॥ ततो देवनृ देवेश्व, स्वामिनो द्वादशाब्दिकः । चक्रे चक्रित्वाभिवेको, मोदयन् जगतीजनम् ॥ ४७२ ॥ अथान्तःपुरकान्ताव-चक्रवर्तिश्रियं प्रभुः ॥ भुखानो व्यत्यगादब्दसहस्रान्पञ्चविंशतिम् ॥ ४७३ ॥ तीर्थ अवस्येत्युक्तो, बोकान्तिकसुररथ ॥ निनिंदानं ददौ दान-माब्दिकं जगदीश्वरः ॥ ४७४ ॥ राज्ये बकायुषं न्यस्य, सर्वार्थी शिषिकां श्रितः सुरासुरनराधीश-कृतनिष्क्रमणोत्सवः ॥ १७॥ गन्ना १चलोऽस्थिरर चूलाया मस्तकमध्यशिखाया बचनः प्रान्तभागो यस्य स तथा ।। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥६०॥ Eeeey LEECEVEVERVEEVEEVEEPEE सहस्राम्रवणे, याप्ययानादवातरत् ॥ समं राज्ञां सहस्रण, प्रावाजीच जिनेश्वरः ॥ ४७६ ॥ [ युग्मम् ] लेमे मनःपर्ययाह, तुर्यज्ञानं ॥ ध्य०१८ प्रभुस्तदा ॥ बिजहार च भूपीठे-ऽप्रतिबद्धः समीरवत् ॥ ४७७ ॥ वर्षान्ते च पुनः प्राप्तः, सहस्राम्रवणं विभुः ॥ शुक्लघ्यानं श्रितः॥2॥६॥ प्राप, केवलज्ञानमुज्ज्लम् ॥ ४५८ ॥ तत आसनकम्पेन, तत्राऽऽयाताः सुरासुराः ।। चक्रः समवसरणं, प्राकारत्रयमञ्जुलम् ॥ ४७६ ॥ ॥ पूर्वद्वारेण तत्राथ, प्रविश्य भुवनप्रभुः ॥ धर्ममाख्यातुमारेमे, पूर्वसिंहासनस्थितः ॥४८०॥ तदा च व्यन्तरैः स्वामि-प्रतिमाखिदिशं कृताः ॥ प्रभुप्रभावात्तदनु-रूपरूपत्वमासदन ॥ ४८१ ॥ उद्यानपालकाः सद्य-स्ततो गत्वा न्यवेदयन् ।। स्वामिनः केवलोत्पत्ति, चक्रायुधमहीभुजे । ४८२ ॥ ततस्तेभ्यः प्रीतिदानं, दत्वा सोत्यर्थमुत्सुकः ।। गत्वा नत्वा जिनं स्तुत्वा-ऽश्रोषीद्धर्म समाहितः॥ ४८३ ॥ देशनान्ते जिन नत्वा, प्रोवाचेति महीपतिः ।। दिष्टया दृष्टोऽसि नाथ ! त्वं, कारुण्यामृतसागरः ॥४८४॥ अस्माच्छलान्विषो भीत-भीतं मां भवराक्षसात् ।। दीक्षारक्षाप्रदानेना-ऽनुगहाण द्रुतं विभो ! ॥४८५ ।। स्वामिनाऽनुमतः सोऽथ, राज्यं न्यस्याङ्गजे निजे ॥ पंचत्रिंशन्नृपयुतः, प्रावाजीज्जिनसन्निधौ॥४८६ ॥ तांश्च षट्त्रिंशतं शान्ति-नाथो गणधरान् व्यधात ॥ त्रिपद्या अनुसारेण, द्वादशाङ्गीविधायिनः ।। ४८७॥ नरा नार्यश्च बहवो-परेऽपि प्राव्रजस्तदा ॥ श्राद्धाः केप्यभवंश्चेति, तीर्थ तीर्थङ्करोऽकरोत् ॥४८८ ॥ ध्वंसयन् दुर्मतध्वान्तं, भव्याब्जानि प्रबोधयन् ।। व्योम्नि भास्वानिव स्वामी, बिजहार चिरं भुवि ॥४८६ ॥ श्रमणानां सहस्राणि, द्वापष्टिरभवन् विभोः । एकषष्टिः सहस्राणि, साध्वीनां षट् शतानि च ॥ ४६० ॥ लक्षद्वयं च नवति-सहस्राढ्यमुपासकाः॥ लक्षत्रयं त्रिनवति-सहस्रारमुपासिकाः ॥ ४६१ ॥ संघो गुणोदधिरिति, प्रभोजज्ञे चतुर्विधः॥ धर्म प्रभावयन्नुच्चै-चतुर्भेदं चतुर्दिशम् ॥ ४६२ ॥ दीक्षादिनात् प्रभृत्यब्द-सहस्रान्पंचविंशतिम् ॥ १ समवायाङ्गाभिप्रायेण श्रीशान्तिनाथस्य नवतिर्गधरा दृश्यन्ते, षट्त्रिंशच्चावश्यकादिबहुपन्थाभिप्रायेण, तत्र तत्त्वं केवलिनो विदन्तीति ध्येयम् । NOVEEVEVE EVEEVALE । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥६१॥ Ceveeeeeeeee-NEGNEAYEEYEGeeveeYEEYE विहत्य भुवि संमेत-पर्वतं भगवानगात् ।। ४६३ ॥ तत्र चानशनं सार्द्ध, साधूनां नवभिः शतैः ॥ प्रभुः प्रपद्य मासेन, सिद्धिसोधमभूषयत् ॥ ४६४ ॥ कौमारे मण्डलीत्वे च, चक्रित्वे संयमेऽपि च ॥ लक्षतुर्याश इत्यब्द-लक्षायुरभवद्विभोः ॥ ४६५ ॥ शान्तत्रिलोकवृजि| नस्य जिनस्य शान्ते-चक्रे विमुक्तिमहिमाथ सुरासुरेशैः ॥ चक्रायुधोऽपि भगवान् वृतकेवलश्री-भैजेऽन्यदा प्रियतमां शुभसिद्धिलक्ष्मीम् ||३|| | ॥ ४६६ ॥ इति शान्तिनाथ-चरितलेशः ॥ ३८॥" मूलम्-इक्खागरायवसभो, कुन्थू नाम नराहिवो । विक्खायकित्ती भयवं, पत्तो गइमणुत्तरं ॥ ३६॥. 4 . व्याख्या स्पष्टं, कथालेशस्त्वेवम् - अत्रैव जम्बूद्वीपे प्राग-विदेहेषु पुराऽभवत् । आवर्तविजये खनि-पुर्या सिंहावहो नृपः ॥१॥ सोऽन्यदा व्रतमादत्त, संवराचार्यसन्निधौ । जिनसेवादिभिः स्थानः, तीर्थकृत्कर्म चार्जयत् ॥ २॥ चिरं पवित्रं चारित्रं, प्रपाल्यानशनं श्रितः॥ आयुःक्षयेण सर्वार्थ-सिधे सोऽभूत्सुधाशनः ॥३॥ इतश्चात्रैव भरते, पुरे श्रीहस्तिनापुरे ॥ भूपो बभूव सूरातः,, श्रीसंज्ञा तस्य च प्रिया ॥४॥ सिंहावहस्य जीवोऽथ, च्युत्वा सर्वार्थसिद्धतः॥ कुक्षौ चतुर्दशस्वप्ना-ऽऽवेदितोऽवातरत् श्रियः ॥५॥ क्रमाच साऽसूत सुतं, छागांक काश्चनच्छविम् ॥ दिक्कुमार्यों व्यधुस्तस्य, सूतिकर्म तदाऽऽगताः ॥६॥ जन्माभिषेक मेरौ च, तस्येन्द्राः चक्रिरेऽखिलाः ॥ तुष्टोऽन्वतिष्ठद्भपोऽपि, पुत्रजन्ममहामहः ॥७॥ गर्भस्थेऽस्मिन् कुन्थुभावं, भेजिरे निखिला द्विषः ॥ स्वप्ने च जननी कुस्थं, रत्नस्तूपं ददर्श यत् ॥८॥ तत्कुन्थुरिति तस्याख्या-मुत्सवैर्निममे नृपः ॥ विश्वोत्तरगुणाधारः, क्रमात्स ववृधे विभुः॥६॥ यौवने राजकन्या राट् , समं तेनोदवायत् ॥ A तस्मै वितीर्य राज्यं चा-ऽन्यदा पर्यव्रजस्वयम् ॥१०॥श्रीकुन्थुस्वामिनःप्राज्यं, राज्यं पालयतस्ततः ।। चक्रमायुधशालाया-मन्येयुरुदपद्यत ܒܬܒܬgܒܝܫܝܬܡܸܣܡܸܬܼܒܒܸܒܒܼܵܒܕܒܕܒܕܦܝܕܦ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥६ ॥ अध्य.१८ ॥ २॥ T ११॥ ततश्चक्रानुगः सर्व, विजिग्ये भरतं प्रभुः ॥ चक्रिश्रियं च खीस्ल-मिवोपचुभुजे चिरम् ॥ १२ ॥ अथ लोकान्तिकैर्देवैः, स्वय- म्बुद्धः स बोधितः ॥ राज्यं पुत्राय दानं च, ददौ वार्षिकमर्थिनाम् ॥ १३॥ ततोनरेन्द्ररिन्दैश्च, कृतनिष्क्रमखोत्सवः॥ आरुह्य शिविकां स्वामी, सहस्रामवणं गतः ॥१४॥ महीपतिसहस्रणा, सह व्रतमुपाददे । मनःपर्ययसंज्ञं च, तुर्यज्ञानं तदाऽऽसक्त् ॥ १५॥ [युग्मम् ] विचारुण्डपचीवा-अमत्तो विहरन् भुवि ।। आगात् षोडशभिवर्षे, सहस्राम्रवणं पुनः ॥ १६ ॥ तत्र च स्वामिनावाप्ते, केवले हायोखिलाः ॥ आगत्य चक्रः समक्-सरणं शरणं श्रियाम् ॥ १७॥ पश्चत्रिंशद्धनुस्तजः, पञ्चत्रिंशद्गुणााया ॥ गिरा दिदेश तत्रेशो, धर्म, सिंहासने स्थितः ॥१८॥ तं निशम्य प्रभोः पार्थे, प्राजन् बहवो जनाः ॥ तेषु चास्थापयत्पञ्च-त्रिंशतं 'गणिनो जिनः ॥ १६ ॥ पष्टिःसहस्रा वतिना, साध्वीनां ते सपट्शताः ।। एकोनाशीत्या सहस्र-युक्तं लक्षमुपासकाः ॥२०॥ एकाशीतिसहस्रागं, लक्षत्रयमुपासिकाः ॥ एवं चतुर्विधस्संघः प्रभाविहरतोऽभवत् ॥ २१ ॥ [ युग्मम ] कौमारराज्यचक्रित्व-चारित्रेषु समांशकम् ।। जीवितं पञ्चनवति-सहस्राब्दान्यभूविभोः ॥ २२ ॥ समं सहस्रण मुनीश्वराणां, संमेतशैलेनशनं प्रपत्रः ॥ मासेन सोद्धन् शिवमाससाद, सुरेश्वरैस्तन्महिमा च चक्रे ॥ २३ ॥ इति श्रीकुन्थुनाथकथा ।। ३६ ।। मूलम-सागरंतं चइत्ता णं, भरह नरवरीसरो। अरोवि अरयंपत्तो, पत्तो गइमणुत्तरं ॥ ४०॥ व्याख्या व्यक्तं नवरं "अत्यंफ्तोति" रमसः कर्मसोऽभावोऽरबस्तत्प्राः , प्रामो गतिपनुचराम् । तद्वत्तलेशस्त्वेवम्जम्बूद्वीपप्राग्विदेहे, वत्साहविजयेऽभवत । निःसीमविक्रमः सीमा-पूर्या धनपतिनृपः ॥१॥ संवराहमुनेः पार्वे, प्राघजत् १ त्रिंशद्गणधरान् जिनः ॥ इति '' संज्ञक पुस्तके चतुर्थपादः ।। AGeeeeeee Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥ ६३ ॥ Acer सोन्यदा मुदा ।। स्थानैरर्हद्भक्तिमुख्यै- राज्र्ज्जयज्जिननाम च ॥ २ ॥ चिरं तप्स्वा तपस्तीव्रं प्रपाल्य व्रतमुत्तमम् ॥ प्रायं प्रपद्य स सुरो, जज्ञे ग्रैवेयकेऽन्तिमे॥३॥ इतश्च `भरतेऽत्रैव, श्रीहस्तिनापुरेऽभवत् ।। राजा सुदर्शनो लोक दर्शनानन्दिदर्शनः ||४|| देवीसंज्ञाऽभवद्देवी, तस्य देवीव सुन्दरा ॥ जीवो धनपतेश्च्युत्वा तस्याः कुक्षाववातरत् ॥ ५॥ चतुर्द्दश महास्वप्नां - स्तदा राज्ञी ददर्श सा । ज्ञानत्रयधरस्तस्या, गर्भोऽपि वžधै सुखम् ॥ ६ ॥ क्रमाच्च नन्दनं नन्द्यावर्त्तीकं काञ्चनद्युतिम् ॥ अमृत सा महादेवी, 'महासेनमिवाद्रिजा ||७|| सूतिकर्माणि तस्याथ, दिक्कुमार्यो वितेनिरे ॥ चक्रे जन्माऽभिषेकचा - ऽखिलैरिन्द्रैः सुराचले ||८|| स्वप्ने रत्नारकं माता - ऽपश्यदित्यस्य पार्थिवः ॥ अर इत्यभिधां चक्रे, कृत्वा जन्म महोत्सवम् ॥ ६ ॥ क्रमाच्च कलयन् वृद्धि, त्रिंशच्चापोच्चभूघनः ॥ पित्राज्ञयाऽङ्गजा राज्ञां पर्यणैषीत्स यौवने ॥ १० ॥ श्रन्येद्युः पितुरादेशात्, दधौ राज्यधुरं जिनः । जातचक्रादिरत्नश्चा - ऽखिलं भरतमन्वशात् ॥ ११ ॥ चक्रिश्रियं चाऽनासक्तो ऽभुक्त योगीव भोजनम् ।। लोक्रांतिकैर्बोधितश्चा - ऽन्यदाऽदादानमाब्दिकम् ॥ १२ ॥ राज्यं नियोज्य पुत्रे च, शित्रिकासंस्थितोविभुः ॥ ययौ सहस्राम्रवणं, सुरासुरनरैवृतः ||१३|| सह राजसहस्रेण, प्राव्राजीत्तत्र तीर्थकृत् ॥ तदा मनः पर्ययाह । तुर्यज्ञानमवाप च ।। १४ ।। इभारातिरिवाभीतः, पृथिव्यां विहरन् विभुः॥ भूयोऽप्यागात्सहस्राम्रवर्णं संवत्सरैखिभिः ||१५|| तदा चाभ्युदिते भत्तु : केवलज्ञानभास्करे । 'समे समेत्य समवसरणं वासवा व्यधुः ॥ १६ ॥ वाण्या योजनगामिन्या, सर्वभाषानुयातया । पूर्वसिंहासने तत्रा - ऽऽसित्वा धर्मं जगौ जिनः ॥ १७ ॥ तं चाकर्ण्य जिनाभ्यर्णे, नैके पर्यव्रजन् जनाः ॥ त्रयस्त्रिंशद्गणधराः, 'स्वामिना तेषु चक्रिरे ॥ १८ ॥ श्रमणानां प्रभोः पंचा- शत्सहस्राणि जज्ञिरे ॥ श्रमणीनां पुनः षष्टि - सहस्राणि महात्मनाम् || १६ || लक्षं चतुरशीत्या च सहस्र : युक्तमास्तिकाः ।। द्वासप्ततिसहस्राग्रं, लक्षत्रय १ कार्त्तिकेयम् । २ सिंहः । ३ सर्वे । ४ त्रयस्त्रिंशद्गणधरान् तेषु चास्थापयत् प्रभुः ॥ इति 'घ' पुस्तके ॥ अध्य० १८ ॥ ६३ ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उराध्य. यनमूत्रम् ।। ६४॥ अध्य०१८ ॥६४॥ VEEVE Eveveeeeve CECEVE Evere मुपासिकाः। २० । अनुग्रहीतु भविनो, भूमौ विहरतोऽर्हतः । संघश्चतुर्विध इति, जज्ञे [धो जज्ञे, इति ] गुणमणीनिधिः । २१ । समभागं कुमारत्वा-दिके स्थानचतुष्टये । आयुश्चतुरशीत्यब्द-सहस्राणि प्रभोरभूत् ।२२। निर्वाणकालं ज्ञात्वाऽथ, गत्वा सम्मेतपर्वते । सह साधुसहोणा-ऽनशनं विदधेऽधिपः ।२३। एकेन मासेन स सार्वसार्व-भौमो महानन्दपदं ततोऽगात् । निर्वाणकाले च समेत्य तस्य, सवितेने महिमा सुरेशैः ।२४। इति श्रीअरनाथकथा ।४०। मूलम्-चइत्ता भारहं वासं, चकवट्टी महिड्डीअो । चइत्ता उत्तमे भोए, महापउमो तवं चरे ॥४१॥ व्याख्या–सुगमं । तच्चरितं त्वेवम् अत्रैव भरतक्षेत्रे, श्रीहस्तिनापुरेऽभवत् । इक्ष्वाकुवंशकासार-पद्म पद्मोत्तरं नृपः ।। तस्य ज्वालाभिधा राज्ञी, बभूव परमाहता। तस्याश्चैकः सुतो विष्णुः, सिंहस्वप्नेन सूचितः ।२। पद्मासनमहापद्म-नामान्यश्च सुतोऽजनि । तस्याश्चतुर्दशस्वप्न-सूचितो निचितो गुणैः ।३। कलाकलापं सकलं, कलाचार्यादधीत्य तौ। द्वितीयमद्वितीयश्रीवयस्यं प्रापतुर्वयः।४। तत्र पद्म जिगीषुत्वा-धौवराज्ये न्यधात्पिता । विप्रेषु प्राज्ञवाजैत्रः, क्षत्रियेषु हि शस्यते ।श इतश्चोज्जयिनीपुर्या, श्रीवासीन्महीपतिः । मन्त्रि तु तस्य नमुचि-वितण्डापण्डितोऽभवत् ६। तस्यां नगर्यामन्येद्यु-विहरन् समवासरत् । मुनिसुव्रतनाथस्य, शिष्यः सुव्रतसूरिराट् ।७। तं नन्तु व्रजतो वीक्ष्य, पौरान सौधोपरिस्थितः । अमी जनाः क्व यान्तीति, नमुचिं पृष्टवान्नृपः । ८ । देवायोपवने केपि, श्रमणाः सन्त्युपागताः । तान्नन्तु यान्ति तद्भक्ता, | इत्यूचे सचिवस्ततः । । । तत्र यामो वयमपी--त्युक्ते राज्ञाऽथ सोऽब्रवीत् । यद्य तर्हि तत्रेशैः, स्थेयं मध्यस्थवृत्तिभिः ।१०। पाखण्डिनोऽखिलान्वादे, स्वामिन् ! जेष्यामि तानहम् । ओमित्युक्त्वा ततो राजा, समंत्री तद्वनं ययौ ।११। धर्म चेद्वित्थ तब ते-त्यूचे च नमुचि AAPPEACEPeeeeeCARENAGEDAE Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०१८ उत्तराध्यपनसूत्रम् AVEGVEGETEVEGEVEEVE Evere मुनीन् । क्षुद्रोऽयमिति विज्ञाय, ते तु तूष्णीकतां दधुः ।१२। ततः स शासनं जैन, निन्दन्नुद्दिश्य सद्गुरून् । गौरयं किमु वेत्तीति, व्यबवीत्सचिवब्रुवः ।१३। मुखं कण्डूयते ते चेत् , तत्किंचिद्रू महे वयम् । अथेति गुरुभिः प्रोक्ते, तानेकः क्षुल्लको जगौ । १४ । अनेन सह धृष्टेन, वक्तु' युक्तं न वः स्वयम् ॥ विजेष्ये बहमेवामु, स्वपदं तद्वदत्वयम् ॥१५॥ क्रुद्धः सोऽथावदद्वेद-बाह्याः शौचविवर्जिताः ॥ देशे वासयितु नाही, यूयं पक्षोऽयमस्तु मे ॥१६॥ प्रत्यूचे क्षुल्लको वारिकुम्भश्चुल्ली प्रमार्जनी ॥ कण्डणी पेपणीत्युक्ताः, पञ्च 'शूनाः श्रति बहो! ॥१७॥ ये हि शूना भजन्त्येता, वेदबाह्याः त एव हि ।। तद्वर्जितानामस्माकं, तत्कथं वेदबाह्यता ? ॥१८॥ अशौचं तु रतं तस्य, | सेवकश्चाशुचिर्मतः ॥ सुरताद्विरतास्तस्मा-त्कस्मादशुचयो वयम् ॥१६॥ निरुत्तरीकृत इति, क्षुल्लकेन स धीसखः ॥ वैरं महद्वहन् साधुष्वगाद्गेहं नृपान्वितः ॥ २० ॥ निशायां च मुनीन् हन्तु, क्रोधान्धः स वने गतः ॥ धावनिहन्तुमस्तम्भि, देव्या निर्ग्रन्थभक्तया ॥ २१ ॥ प्रातश्च तं तथा प्रेक्ष्य, विस्मिता नागरा नराः ॥ नृपश्च धर्म मूरिभ्यो, निशम्योपशमं ययुः ॥ २२ ॥ निन्द्यमानो जनैः सबै-विलक्षो नमुचिस्ततः ॥ देव्या मुक्तो ययौ लज्जा-विहस्तो हस्तिनापुरम् ॥२३॥ सोऽथ तत्र महापद्म-युवराजेन सङ्गतः ॥ तदमात्यपदं प्राप, पापोऽपि पाच्यपुण्यतः! ॥२४॥ इतश्चासीत्प्रान्तवासी, दुर्गमं दुर्गमाश्रितः ॥ नृपः सिंहबलः सिंहः, इव प्रबलविक्रमः ॥ २५ ॥ स च प्रदायावस्कन्दं, पद्मदेशे मुहुमुहुः ॥ स्वदुर्ग प्राविशत्तं च, ग्रहीतु कोऽपि नाशकत् ॥२६॥ धत्तु सिंहबलं जाना-स्युपायं कंचिदित्यथ । पृष्टो रुप्टेन पदमेन, वेबीति नमुचिजगौ ॥२७॥ ततो मुदा महापद्मे-नादिष्टः स गतो द्रुतम् ॥ भक्त्वा दुर्ग सिंहबलं, बलाद्वद्धवा समाययौ ॥२८॥ ततो वरं वृणीष्वेति, प्रोक्तः पदमेन संमदात् ॥ ऊचे नमुचिरादास्ये, काले वरममुं विभो ॥२६॥तत्प्रपद्य चिरं पद्मो, १ प्राणिवधस्थानानि । “पञ्च शूना गृहस्थस्य, चूल्ली पेषण्युपस्कारः । कण्डनी चोदकुम्भश्च, बध्यते यास्तु वाहयन् ॥" [मनुः] २ कामम् ॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्य०१८ ॥६६॥ उत्तराध्य- यौवराज्यमपालयत ॥ ज्वालादेव्याऽथ तन्मात्रा-कारि जैनरथोऽन्यदा ॥ ३०॥ मिथ्यादृष्टिस्तत्सपत्नी, लक्ष्मीब्र बरथं, तदा ॥ यनसूत्रम् विधाप्योचे नृपं ब्रह्म-स्थः प्राग्भ्रम्यतां पुरे ॥३१॥ ततो ज्वालाऽलपद्भपं, न चेज्जैनरथोऽग्रतः ॥ पुरे भ्रमिष्यति तदा, करिष्येऽनशनं. MO ध्र वम् ॥ ३२ ॥ द्वयोरपि स्यन्दनयोात्रां राजाऽरुणततः ॥ मातुर्दुःखेन तेनाथ, पमोऽभूद्भशमातुरः ! ॥ ३३ ॥ दध्यौ चेति ॥ स्पृहा मातुः, मादृशेऽपि सुते सति ॥ व्यलीयत मनस्येव, कदर्यश्रीरिवावनौ ! ॥ ३४ ॥ सुपुत्रत्वाभिमानं हि, कथंकारं करोतु सः ॥ शक्तोऽपि यः पूरयति, न मातुः सन्मनोरथान् ! ॥ ३५ ॥ कृतः पित्रापि मन्मातु-विशेषः कोऽपि न हो ! ॥ तन्मानिनो न मे मानं, विनेहाऽवस्थितिः शुभा ! ॥३६ ॥ ध्यात्वेति सुप्ते लोके सः, निर्गत्य स्वपुरान्निशि ॥ भ्रमन् स्वैरमरण्यान्त-स्तापसाश्रममासदत् ॥ ३७॥ वल्लभाम्यागतैस्तत्र, तापसैः कृतसत्कृतिः ॥ सुखं प्रववृते स्थातु, महापद्मः स्वसद्मवत् ॥ ३८॥ इतश्चाजनि चम्पायां, भूजानिर्जनमेजयः॥ स च कालेन राज्ञाऽऽजौं, पराभूतः पलायत ! ॥ ३९ ॥ ततः पुरे भज्यमाने, नेशुर्लोका दिशोदिशम् ॥ अन्तःपुरमहेलाश्चा-ऽन्तरा त्रातारमातुराः! ॥ ४० ॥ तदा चम्पापतेः पत्नी, नष्टा नागवती द्रुतम् ॥ स्वपुत्र्या मदनावल्या, सममागात्तमाश्रमम् ॥ ४१ ॥ तदा च पद्ममदना-वल्योरन्योन्यदर्शनात् ॥ क्षणादाविरभूद्रागो, 'मन्दाक्षं मन्दतां नयन् ! ॥ ४२ ॥ तद्विज्ञाय जगौ नाग-वतीति मदनावलीम् ॥ पुरुषे यत्रतत्रापि, सुते ! किमनुरज्यसे? ॥ ४३ ॥ भाविनी चक्रिणो मुख्य-पत्नी त्वमिति भाषितम् ॥ ज्ञानिनो विस्मृतं किं ते ?, यद्भवस्येवमुत्सुका !॥४४॥ मिथो रक्ताविमौ काष्टी, विप्लवं मेति चिन्तयन् ।। स्थानं यथेष्टं याहीति, पदम कुलपति गौ ॥ ४५ ॥ तदाकर्ण्य ततः पदमो, निर्ययौ विमना मनाक् ॥ अभीष्टानां वियोगो हि, | १ लज्जाम् । २ उपद्रवम् ।। EMARA VEGEE Veeree - Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०१८ ॥६७॥ उत्तराध्य-HEL महतामपि दुरसहः॥४६॥ नूनमेषा ममैव स्त्री, भाविनी भाविचक्रिणः ॥ तत्साधयित्वा भरत, परिणेप्याम्यमूकदा ? ॥४७॥ यनस्त्रम् विधाप्यातचैत्यैश्च, मण्डितामखिलामिलाम् ॥ पूरयिष्ये कदा मातू, रथयात्रामनोरथम् ॥४८॥ इत्थं मनोरथरथा-धीरुढो भूपभूस्ततः॥ ॥६७॥ श्रीसिन्धुनन्दनपुरो-पवनं प्राप पर्यटन् ॥४६॥ [ त्रिमिर्विशेषकम् ] ॥ तत्र चोद्यानिकायात-क्रीडभागरयोषिताम् ॥ निशम्य तुमुलं हस्ती, महासेनमहीशितः ॥५०॥ स्तम्भमुन्मूल्य मिण्ठौ च, व्यापाद्य व्यालतां गतः ॥.अनु ता नागरीरागा-द्रागाकुल इव क्षणात् ॥५१2 [युम्मम् ] ततोऽतिभीता नशितु-मनीशास्ताः स्त्रियोऽखिलाः ॥ पूचरिति यो ह्यत्र, वीरोऽस्मान्पातु पातु सः ! ॥ ५२ ॥ ताश्च पूत्कुर्वतीः प्रेक्ष्य, पद्मो व्यालं ततर्ज तम् ॥ अवलिष्ट ततः सोऽपि, तम्प्रति प्रतिघाकुलः ॥५शा तमायान्तं स्खलयितु, पटं पद्मोऽन्तरातिपत ॥ मर्योऽयमिति तत्रापि, क्रोधान्धः प्राहरत्करी ! ॥ ५४॥ कोलाहलैस्तदा चोग्रैः, पौरलोकोऽखिलोऽमिलत् ॥ महासेनमहीशश्च, समं सामन्तमंत्रिभिः ॥५५॥ क्रुद्धात्कालादिव ज्याला-दस्मादपसराशु भोः । ॥ महापदमं महासेन, इत्युदाहुस्तदाऽवदत् ॥५६॥ पद्मः स्माह महाराज !, पश्य स्वच्छमना क्षणम् ॥ मत्तं मतङ्गजममू, वशीकुर्वे वैशामिव ! ॥५७॥ इत्युक्त्वा ताडितो मुष्टथा, तेन स न्यगमुखो गजः॥ यावन्मुक्त्वा पटीवेधं, तं ग्रहीतुं समुत्थितः ॥ ५८ ॥ तावत्स वियुदुत्क्षिप्त-करणेनारुरोह तम् ॥ चिरं चाखेदयत्पाणि-पादांगुष्टयचोंकशैः ॥8॥ तं च व्यालं कलभवत् , क्रीडयन्तं समीक्ष्य तम् ।। विस्मयं भेजिरे पौरा, नृपतिश्च वचोऽतिगम् । ॥६० ॥ दत्वा हस्तिपकायाथ, हस्तिनं तं वशीकृतम् । भूधरादिव 'पारिन्द्रः, पदमस्तस्मादवातरत् ॥६॥ धाम्ना, स्थाम्नाचतं श्रेष्ट-कुलभूरिति भूपतिः॥ निश्चिकाय | निजं धाम, निनाय च सगौरवम् ॥६२॥ तस्मै कृतोपचाराय, ददौ कन्याशतं नृपः ॥ पुण्यैरगण्यैर्जामाता, प्राप्यते खलु तादृशः ! ॥६॥ ..सिंहः। coveeeeeeeee EYETRVEENAHEEREGYCHYTAYERY Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ eveee उत्तराध्य यनसूत्रम् अध्य०१८ ॥६ ॥ ॥६ ॥ सरकार क्रीडंस्ताभिः समं नायं, व्यस्मरन्मदनावलीम् ।। भृङ्गो लवंगीभोगेऽपि, किं विस्मरति पचिनीम् ॥६४॥ खेचर्या वेगवत्या स, निशि सुप्तोऽन्यदा हृतः ॥ प्रबुद्धो बद्धमुष्टिस्तां, किं रे ! मां हरसीत्यवक् १ ॥६॥ साप्यूचे शूर ! हरण-कारणं शृणु मा कुपः ! ॥ वैतात्य- पर्वते सूरो-दयं नामास्ति सत्पुरम् ॥ ६६ ॥ तत्र चेन्द्रधनुःसंज्ञो, विद्यते खचरेश्वरः । श्रीकान्ता तद्वधूः पुत्री, जयचन्द्रा तयोः क शुभा ॥६७॥ पुरुषद्वेषिणी साभू-दप्राप्य प्रवरं वरम् ॥ दुःखाकारो हि दक्षाणां, स्त्रीणां हीनः पतिभृशम् ॥६८॥ पटेषु भरतस्थानां, रूपाण्यालिख्य भूभुजाम् ॥ अदर्शयमहं तस्यै, न किमप्यरुचत्परम् ॥६६॥ पटे मयाऽन्यदा रूपं, तवालिख्य प्रदर्शितम् ॥ तस्या-16 श्चित्तमयस्कान्त-मणिर्लाहमिवाकृषत् ! ॥७०॥ चेदयं दयितो न स्यात् , तदाहमनलं श्रये ।। इति प्रत्यशृणोत्साऽथ, मत्वा त्वां खलु दुर्लभम् ! ॥७१।। तस्यास्तस्यां प्रतिज्ञायां, ज्ञापितायां मया रयात् ॥ त्वामानेतुं तत्पितृभ्यां, हृष्टाभ्यां प्रहितास्म्यहम् ।।७२।। तमानये न चेत्तर्हि, वन्हावहनाय याम्यहम् ।।तामाश्वासयितुकन्या-मित्युक्त्वेहागमं ततः॥७३॥ तां पनीनी मोदयितु, नये त्वां च प्रभाकरम् ।। तस्या मम च जीवातु-स्त्वमेवासि प्रसीद तत् ! ॥७४॥ साऽथ तं तदनुज्ञाता, निन्ये सूरोदयं पुरम् ।। विभाते भास्करमिव, तं चेन्द्रधनुराच्र्चयत् ।।७।। विदधे येन धात्राऽसौ, तस्य स्यामनृणा कथम १ ॥ ध्यायन्तीमित्युपायंस्त, जयचन्द्रां ततश्च सः॥७६।। तस्याश्च मातुलसुती, गङ्गाधरमहीधरी ।। विद्याधरौ महाविद्यौ, तद्विवाहाभिलाषिणी ॥७७॥ पदमेन परिणीतां तां, निशम्य समरोद्यतौ ।। सुरोदयपुरे सर्वा-ऽभिसारेण समीयतुः ॥७॥ [ युग्मम ] पुरान्निर्गत्य पदूमोऽपि, विद्याधरचमूवृतः ॥ तत्सैन्येन समं योद्ध, प्रावर्त्तत महाभुजः ॥७६॥ रथी सादी निषादी वा, पदातिर्वा न कोऽपि हि ॥ पदूमस्य युध्यमानस्य, पुरः स्थातुमभूत्प्रभुः ॥८॥ नैऋतेनानिलेनाब्दमिव पमेन सर्वतः॥ स्वसैन्यं वीक्ष्य विक्षिप्तं, खेचरौ तौ प्रणेशतः॥१॥ तत उत्पन्नचक्रादि-रत्नो ज्वालाङ्गजो बली ॥ षट्खण्डं भरतक्षेत्र, cereveereevee VEVE EVEVEYECAY Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IME eve ( D IMLAE उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥६६॥ अध्य०१८ G॥६६॥ । सासर साधयामास लीलया ॥२॥ स्त्रीरत्नवां स प्राप, सकलां चक्रिसम्पदम् ॥ विना तु मदनावल्या, मेने तामपि नीरसाम् ॥३॥ ततः स क्रीडयाऽन्येधु-र्गतस्तं तापसाश्रमम् ॥ सच्चक्रे तापसैश्चारु-फलपुष्पादिदायिभिः ॥८४॥ जनमेजयराजोऽपि, भ्रमंस्तत्रागतस्तदा । ददौ तस्मै निजां पुत्री. मुदितो मदनावलीम् ।।८५॥ ततश्चक्रिरमा पूर्णा, कलयन् स्वपुरं गतः ॥ भून्यस्तमौलिः पितरौ, हृष्टो दृष्टौ ननाम सः॥८६॥ आकर्ण्य कर्णपीयूषं, सूनोवृत्तान्तममृतम् ॥ लक्ष्मी च तादृशीं वीक्ष्य, पितरावत्यहष्यताम् ।।८।। तदा च सुव्रताचार्याः, शिष्याः श्रीसुव्रतार्हतः ॥ विहरन्तः पुरे तत्र, समेत्य समवासरन् ।।८८॥ तांश्च श्रुत्वा नृपो गत्वा, ननाम सपरिच्छदः॥ देशनां चाशृणोन्मोह-हिमापोहरविप्रभाम् ॥८६॥ व्रताय यावदायामि, राज्ये विन्यस्य नन्दनम् ।। तावत्पूज्यैरिह स्थेय-मथेत्यूचे नृपो गुरून् ॥१०॥ विलम्बनीयं नार्थेऽस्मि-निति प्रोक्तोऽथ सूरिभिः ॥ प्रविवेश विशामीश-स्तान्प्रणम्य निजं पुरम् ।।११।। आकार्य मंत्रीसामंत-मुख्यं परिजनं निजम् ।। पुत्रं च विष्णुनामानं, पद्मोत्तरनृपोऽवदत् ॥१२॥ श्रुत्वा श्रीसुव्रताचार्या संसारासारतामहम् ।। मन्ये स्वं वंचितं काल-मियन्तं व्रतमन्तरा ! ।। ६३ ॥ अद्य व तदुपादास्ये, व्रतं श्रीसुव्रतान्तिके। राज्ये तु निदधे विष्णु-कुमारं स्फारविक्रमम् ॥ ६४ ॥ विष्णुर्जगौ विमो ! भोगैः, किं किम्पाकफलोपमैः ? मोधीकर्तुमचं दीक्षा-मादास्येहं त्वया सह ! ॥ १५ ॥ राज्यमादत्स्व वत्सेद-मित्याहूयाथ साग्रहम् ।। पदमं पद्मोत्तरोऽवादी-ततः सोऽप्येवमब्रवीत् ।। ६६ ॥ प्रभविष्णुः प्रभो ! विष्णु-रसौ राज्येऽभिषिच्यताम् ।। श्रयिष्ये युवराजत्व-मस्य शस्यमहं पुनः ! ।।१७।। भूपः प्रोचेयमुक्तोऽपि, राज्यं नादित्सते कृतिन् ! आदित्सते तु प्रव्रज्यां, मया सह महाशयः ! ॥ ३८ ॥ कृतमौनं ततः पद्म, राज्ये न्यस्योत्सवैनृपः ।। सुव्रताचार्यपादान्ते, पाम्राजीद्विष्णुना समम् |॥६६॥ पद्मचक्री ततः सर्वैः, पूज्यमानं जनैः पुरे ॥ रथमभ्रमयज्जैनं, जनन्या जनयन्मुदम् ॥ १०० ॥ चक्रे स्ववंशवज्जैन-शासन AAYAANAAYeeeeeeeeeeeene Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ।। ७० ।। स्योन्नतिं च सः ॥ भेजिरे बहवो भव्या-स्ततः शासनमार्हतम् ॥ १०१ ॥ उच्चैश्च त्यानि जैनानि, ग्रामाकरपुरादिषु ॥ कोटिशः कारयामास, स चक्री परमार्हतः ।। १०२ ॥ केवलं प्राप्य कैवल्यं प्राप पदमोंत्तरोऽन्यदा । लेभे विष्णुकुमारस्तु, लब्धीका महातपाः ! ॥ १०३ ॥ स्वर्णशैल इवोज़ गो, व्योमगामी सुपर्णवत् ॥ बहुरूपः सुर इव, कन्दर्प इव रूपवान् ॥ १०४ ॥ इत्याद्यनेकावस्थावान्, भवितु • प्रबभूव सः ॥ नन्वभूल्लब्धिभोमो हि, विना हेतु न योगिनाम् ॥ १०५ ॥ तेऽन्युद्यः सुव्रताचार्या, भूरिसंयतसंयुताः ॥ श्रीहस्तिनापुरे तस्थु–वर्षातिक्रमहेतवे ।। १०६ ।। ज्ञात्वा तान्नमुचिः प्राच्य - वैरशुद्धिविधित्सया ।। देहि मे तं वरं स्वामि-निति पद्मं व्यजिज्ञपत् ॥ १०७ ॥ यथाकामं वृणुष्वेति, राज्ञा प्रोक्तोऽब्रवीच्च सः ॥ यज्ञं यक्ष्यामि तद्राज्यं यत्प्रान्तावधि देहि मे ॥ १०८ ॥ सत्यसन्धस्ततो राज्ये, निधाय नमुचिं द्रुतम् । शुद्धान्तरात्मा 'शुद्धान्त - मध्यमध्यास्त चक्रभृत् ॥ १०६ ॥ ततः पुराद्वहिर्गत्वा नमुचिर्यज्ञपाटके ॥ मायया दीक्षितो जज्ञे, 'बकोट इव कूटधीः १ ॥ ११० ॥ राज्येऽभिषिक्तं तं वर्द्धा-पयितुं निखिलाः प्रजाः ॥ लिङ्गिनश्चाखिला जैननिवः समाययुः ॥ १११ ॥ सर्वेप्यागुलिङ्गिनों मां, न पुनः श्वेतभिक्षवः । प्रवदन्निति मात्सर्या - तच्छिद्रं स पुरोऽकरोत् ॥ ११२ ॥ कार्य सुव्रताचार्या नार्यो व्याहरच सः ॥ राजा यः स्याद्यदा सोऽभिगम्यते लिङ्गिभिस्तदा ।। ११३ ।। तपोवनानि हि क्ष्मापरक्ष्याणीति तपस्विनः ॥ भूपालमुपतिष्ठन्ते, लोकस्थितिरियं खलु ॥ ११४ ॥ स्तब्धा यूयं तु मर्यादा विकला मम निन्दकाः ॥ तन्मे राज्ये न युष्माभिः, स्थेयं गन्तव्यमन्यतः ॥ ११५ ॥ स्थाता यस्त्विह वो मध्ये, ध्रुवं वध्यः स मे शठः ॥ संवासयति वः को हि, लोकराजविरोधिनः ।। ११६ ।। सूरिरूचे न नः कल्प इति नोपागता वयम् ॥ तवाभिषेके न पुन - निन्दामः कञ्चिदप्यहो ! ॥ ११७ ॥ १ अन्तःपुरमध्ये ।। २ बकः ॥ अध्य०१८ 110611 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्ययनसूत्रम् ॥७ ॥ अध्य०१८ ॥७२॥ Qeeeeeeeeeeeeeeee-MANA-NEareer कुधीः कुद्धोऽभ्यधात्सोऽथ, पर्याप्तं बहुभाषितैः ॥ सप्ताहोपरि दृष्टान् वो, घातयिष्यामि चौरवत् ! ॥११८॥ ततः स्वस्थानमागत्य, मुनीनाहूय सूरयः॥अथ किं कार्यमित्यूचुस्तेष्वेकः साधुरित्यक्क् ॥११॥ सुदुस्तपं तपस्तेपे, षष्टिं वर्षशतानि यः॥स हि विष्णुकुमारर्षि-मेरी सम्प्रति वर्तते ॥१२०॥ पदमाग्रजः स इति त-गिराऽसौ शान्तिमेष्यति ॥ यातु कोऽपि तमानेतु, तद्विद्यालब्धिमान्मुनिः ॥१२१॥ ऊचेऽथान्यो यतियोम्ना, गन्तुं तत्रास्म्यहं क्षमः ॥ न त्वाऽऽगन्तुं ततो व्रत, यदि कार्य मयास्ति वः ॥१२२॥ विष्णुरेख समानेता, त्वामित्युक्त ऽथ सूरिभिः ॥ उत्पत्य नभसा विष्णु-मुपागात्स मुनिः क्षणात् ॥१२३॥ तं चायान्तं वीक्ष्य दध्या-विति विष्णुमहामुनिः॥ संघकार्य महन्नून-मस्ति किञ्चिदुपस्थितम् ॥१२४॥ इहागच्छेदसौ साधु-वर्षासु कथमन्यथा ? ॥ध्यायन्तमिति तं साधु-रुपेत्य प्रणनाम || सः ॥१२॥तेनागमनहेतौ च, प्रोक्ते विष्णुमुनि-द्रुतम् ॥ तं गृहित्वा गजपुरे, गत्वा च प्राणमद्न रून् ॥१२६॥ अगाच्च नमुचेः | पार्वे, बहुभिमुनिभिः समम् ॥ विना नमुचिमुर्तीशा-दिभिः सर्वैरनामि सः १२७॥ ततो धर्मोपदेशादि-पूर्वमित्यवदत्स तम् ।। वर्षा-14 कालं यावदत्र, वसन्तु मुनयः पुरे ॥१२८।। स्वतोप्येते हि तिष्ठन्ति, नैकत्र समकं बहु॥ वर्षासु तु भुवो भूरि-जन्तुत्वाद्विहरन्ति न ॥१२६।। महत्यस्मिन्पुरे भिक्षा-वृत्तिभिः प्रचुरैरपि ।। अस्मादृक्षः संवसद्भिः, क्षतिः का ? नाम ते कृतिन् ! ॥१३०॥ पुरा हि मुनयो भूपैः, प्रणता भरतादिभिः ।। कुरुषे न तथा त्वं चे-निर्वासयसि तान् कुतः १ ॥१३॥श्रुत्वेति नमुचिः ऋद्धो-ऽवादीत्किं पुनरुक्तिभिः॥निग्रहीप्यामि वो नूनं, पञ्चाहोपरि वीक्षितान् !॥१३२॥ विष्णुजगोपुरोधाने वसन्त्वेते महर्षयः। ततः ऋधाऽभ्यधान्मंत्री, वाक्यैः कर्करकशैः॥१३३॥ आस्तामुद्यानं पुरं वा, मम राज्येऽपि सर्वथा । पाखण्डिपाशैः पापाशै-नस्थेयं श्वेतभिक्षुभिः ॥१३४ातन्मे मुञ्चत राज्यं द्राग, यदि वः 'प्राणितं १ जीवनं । GEVEVEVEVEEVEVEVEVEEGAVCEVEE Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥७२॥ अध्य०१८ ॥७२॥ प्रियम् ॥ स्टो विष्णरथोचेऽडि प्र-त्रयस्थानं तु देहि नः!॥१३॥ अथाख्यन्नमुचिदत्तं, मया वत्रिपदीपदम् ॥किन्तु तस्मादहियों वः, स्थाता स द्राग हनिष्यते ॥१३६॥ प्रावर्त्तत ततः कोपा-विष्टो विष्णुः प्रवर्षितुम् ।।मौलिकुण्डलमालाढ्यः, पविचापकृपाणभृत् ॥१३७॥ स्फारान्विमुञ्चन्फत्कारान्, कल्पान्तपवनोपमान् ।। काश्यपी' कम्पयन्पाद-दर्दरैर्निखिलामपि ॥१३८।। उल्लालयन्पयोराशीन्, शैलशृङ्गाणि पातयन् ।। धात्रीफलौघवज्योति-श्चक्रमप्यपसारयन् ॥१३६॥ क्षोभयन्विविधै रूपै-देवदानवमानवान् ।। वर्धमानोऽमानशक्तिः, सोऽभून्मेरुसमः क्रमात् ॥१४॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] प्रपात्य नमुचिं पृथ्व्यां, पूर्वापरसमुद्रयोः॥ पादौ विन्यस्तवान् विष्णु-रलम्भूष्णुर्जगज्जये ।।१४१॥ त्रिलोकिक्षोभमालोक्य, शक्रेण प्रहितास्तदा ॥इति कर्णान्तिके तस्या-ऽप्सरसः सरसं जगुः ।।१४२।। क्रोधो धर्मद्रुमज्वाला-जिह्वः स्वपरदाहकः ॥ स्वार्थनाशं विधत्तेत्र, दत्तेऽमुत्र च दुर्गतिम् ॥१४३॥ तच्छान्तरसपीयूषं, निरपायं निपीयताम्॥इत्थं जगुः पुरस्तस्य, ननृतुश्च प्रसत्तये ॥१४४॥ महापद्मोऽपि तत्रागात्, शङ्कातङ्काकुलस्तदा ॥ इलातलमिलन्मौलि-स्तं च नत्वैवमब्रवीत् ॥१४॥ श्रीसंघाशातनां मंत्रि-पाशेनानेन निर्मिताम् ॥ न ज्ञापितोऽस्मि केनापी-त्यज्ञासिपम न हि ॥ १४६ ॥ कृतस्वान्योपतापस्य, पापस्याऽमुष्य मन्तुना ।। प्राणसन्देहमारूढं, बायस्व भुवनत्रयम् ॥ १४७॥ इत्यन्येपि नृपा देवा-सुराः संघस्तथाऽखिलः ॥ तं मुनि विविधैर्वाक्यैः, सान्त्वयामासुरुच्चकैः ॥१४८ ॥ मौलिस्पृष्टक्रमांस्तांच, वीक्ष्य विष्णुळचिन्तयत् ।। संघोऽसौ भगवान् भीता-वामी पद्मसुरादयः ।। १४६ ॥ कोपापहारहेतोमा, सान्त्वयन्ति मुहमुहुः ॥ मान्यः संघोऽनुकम्प्याश्च, पद्मदेवादयोऽपि मे ॥ १५० ॥ [ युग्मम् ] ध्यात्वेति वृद्धिं संहत्य, पूर्वावस्थोऽजनिष्ट सः ॥ ततस्त्रिविक्रम इति, ख्यातिं च प्राप सर्वगाम् ।। १५१ ।। मुमोच नमुचिं विष्णु-मुनिः संघोपरोधतः ॥ तं धीसखाधमं पद्म-चक्री तु निरवासयत् ।। १५२ ॥ संघ १पृथ्वीं। २ इला पृथ्वीं। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनमूत्रम् ॥७३॥ अध्य०१८ ॥७३॥ Seeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee कार्य विधायेति, शान्तो विष्णुमहामुनिः॥ आलोचितप्रतिक्रान्तस्तीव्र तप्त्वा तपश्चिरम् ॥१५३ ॥ उत्पन्नकेवलः प्राप, महानन्दपदं क्रमात् ।। चक्रिपां च पद्मोऽपि, बुभुजे रुचिरां चिरम् ॥ १५४ ॥ [ युग्मम् ] सन्त्यज्य राज्यमन्येयुः, परिव्रज्याऽन्तिके गुरोः॥स दशाव्दसहस्राणि, तीव्र व्रतमपालयत् ॥१५॥ त्रिंशद्वर्षसहस्रायु-श्वापान्विशतिमुन्नतः ।। महामहा महापद्म-महाराजो बभूव सः॥१५६।। तीस्तपोभिर्धनघातिधातं, निर्माय निर्मायचरित्रचारुः ॥ स केवलज्ञानमवाप्य वापी, श्रेयःसुधायाः श्रयतिस्म सिद्धिम् ॥ १५७ ।। इति श्रीमहापद्मचक्रिकथा ।। ४१ ॥ मुलम्-एगछत्तं पसाहित्ता, महिं माणनिसूरणो । हरिसेणो मणुरिंसदो, पतो गइमणुतरं ॥ ४२॥ ___ ब्याख्यां—एकं छत्रं राजचिह्नमस्त्यस्यामित्येकछत्रा तां, अविद्यमानापरनृपामित्यर्थः । 'महीं' पृथ्वी 'प्रसाध्य' वशीकृत्येति सम्बन्धः। "माणनिमरणोत्ति" दृप्तारातिदर्पदलनः, हरिषेणो मनुष्येन्द्रः प्राप्तो गतिमनुत्तराम् । तद्वत्तलेशस्त्वयम अत्रैव भरतक्षेत्रे, पुरे काम्पी-ल्यनामनि ॥ महाहरिरभूमा-न्मेराह्वाना च तत्प्रिया ॥१॥ हरिषेणस्तयोर्विश्वा-नन्दनो नन्दनोऽभवत् ।। चतुर्दशमहास्वप्नसूचितोऽस्वप्नजिन्महाः॥२॥ कलाकलापमापन्नो, वर्धमानः शशीव सः॥चापपंचदशोत्तुङ्गः, पुण्यं तारुण्यमासदत् ॥३॥राज्यं प्राज्यं पितुः प्राप्य, तस्य पालयतः सतः ।। रत्नान्युत्पेदिरेऽन्येद्यु-चक्रादीनि चतुर्दश ॥४॥ ततः स साधयामास, पटखंडमपि ॥ | भारतम् ॥ जातचक्रित्वाभिषेको, भोगांश्च बुभुजे चिरम् ॥शा भववासाद्विरक्तोऽथ, लघुकर्मतयाऽन्यदा॥सोऽध्यासीदित्यसौ सम्पत , प्राकपुण्यैः सङ्गतास्ति मे ॥ ६॥पुण्यार्जनायभूयोऽपि, प्रयत्नं विदधे ततः ॥ बिनाजनां हि क्षपिते, मूले स्यादुःस्थता भृशम् ! ॥७॥ ध्यात्वेति तनयं न्यस्य, राज्ये स व्रतामाददे । कर्मकक्षमधाक्षीच, सत्तपोजातवेदसा ।। ८॥ समासहस्राणि दशातिवाह्य, सर्वायुषा श्रीहरि Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥ ७४॥ श्रेणचक्री ॥ घातिक्षयाज्ञानमनन्तमाप्य, भेजे महानन्दमनिंधकीर्तिम् ।। ६ ।। इति श्रीहरिषेणचक्रिकथा ॥ ४२ ॥ अध्य०१८ All - मूलम्-अन्निो रायसहस्सेहिं, सुपरिच्चाइ दमं चरे। जयनामो जिंणक्खाय, पतोगइमणुतरं ॥४३॥ का ॥७४॥ व्याख्या-'अन्वितो' युक्तो राजसहस्रः, सुष्टु-शोभनप्रकारेण राज्यादि त्यजतीत्येवंशीलः सुपरित्यागी, दमें जिनाख्यातमिति की सम्बन्धः, "चरेति" अचारीत् । जयनामा एकादशचक्री । चरित्वा च दर्म प्राप्तो गतिमनुत्तराम् । तत्कथांशस्त्वयम__अत्रैव भरते सम्पद्-हे राजगृहे पुरे ॥ यशः सुधासमुद्रोऽभू-समुद्रविजयो नृपः॥१॥ पुण्यलावण्यतारुण्या, शीलालङ्कार शालिनी । वप्रः शालिगुणालीनां, वमा तस्य प्रियाऽभवत् ॥२॥ द्विः सप्तभिमहास्वप्नैः, सूचितोऽभूत्सुतस्तयोः॥ जयायो जयन्तस्य, | जयन् रूपं वपुःश्रिया ॥३॥ कलिन्दिकासुधाः पीत्वा, क्रमाद्यौवनमाश्रितः॥स द्वादशधनुस्तुङ्गः, पित्र्यां राज्यधुरां दधौ ॥४॥जातचक्रादिरत्नश्च, जितपट्खण्डभारतः ॥ बुभुजे रमणीरत्न-मिव चक्रिरमां चिरम् ॥५॥ स चान्यदा भवोद्विग्नः, संविग्नस्यान्तिके गुरोः ॥ राज्ये निधाय | तनयं, सनयं प्राव्रजत्स्वयम् ॥६॥ सर्वायुषा त्रीनतिगम्य सम्यक्, समासहस्त्रान् जयचक्रवर्ती ॥ तपोऽनिलैः कर्मषनानपास्य, प्राप्योत्तम ज्ञानमवाप मुक्तिम् ॥७॥ इति श्रीजयचक्रिकथा ॥४३॥ मूलम्-दसण्णरज मुइअं, चइत्ता णं मुणी चरे । दसण्णभद्दो निक्खतो, सक्खं सक्केण चोइओ ॥४४॥ व्याख्या-दशाणों देशस्तद्राज्यं 'मुदितं ' प्रमोदवत् त्यक्त्वा 'ण' वाक्यालङ्कारे, मुनिश्चरेत् अचारीत् अप्रतिबद्धतया व्यहार्षीदित्यर्थः। दशार्णभद्रो निष्क्रान्तः, साक्षाच्छक्रेण चोदितोऽधिकसम्पदर्शनेन धर्म प्रति प्रेरित इति । तत्क्रथा त्वेवम्__ श्रीमद्दशार्णविषये, दशार्णपुरपत्तने ॥ दशार्णभद्रो भद्राणा-माकरोऽभून्महीपतिः ॥१॥ स राजहंसः शुद्धात्मा, चित्ताब्जेष्ववस INGVEGVEGVEGVEGVerveer Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥७५॥ त्सताम् ॥ उवास तस्य चित्ते तु, धर्म एव जिनोदितः ॥२॥ जज्ञिरे तस्य शुद्धान्ते, राझ्यः 'पश्चशतानि ताः ॥ यत्प्राप्तिचिन्तया मन्ये, न FILMus निद्रान्ति स्म निर्जराः! ॥३॥ वाट्टेरीव तस्यासी-क्षमाव्याप्तिक्षमाचमूः ॥ ललंघे न तु मर्यादा, स गम्भीरोऽम्बुराशिवत् ॥४॥ [इतश्च] ॥७॥ वराटविषये धान्य-पुरे धान्यभरैभृते ।। महत्तरः श्रिया कोऽपि, महत्तरसुत्तोऽभवत् ।।शा कान्ता तु तस्य कुलटा, गृहनाथे बहिगते॥ सान्यासिकेन केनापि, सम स्वच्छन्दमारमत् ॥६॥ पुरे तत्राऽन्यदाऽऽयातः, प्रारब्धे नाटके नटैः ।। रामावेषं दधद्रम्यं, ननको नटो युवा ॥ ७ ॥ दम्भैकविज्ञा विज्ञाय, कथंचित्तं च पूरुषम् ॥ तत्रारज्यत साऽत्यंतं, 'धर्षिणी धर्मधर्षिणी ॥ ८ ॥ प्रतिबन्धो हि बन्धक्या, वात्याया इव न क्वचित् ।। यो युवा दृढदेहश्च, तस्याः स्यात्स तु वल्लभः !॥६॥ ततः सा पुंश्चली छन्नं, नटपेटकनायकम् ॥ इत्युवाच व हियं हित्वा, कामान्धानां हि का त्रपा ? ॥१॥ एनमेष दधद्वेष, रमते चेन्मया समम् ।। तदा ददामि वः सारं, वस्त्रं किंचिन्मनोरमम ॥११॥ नटाधीशोऽपि तद्वाक्यं, मुदितः प्रत्यपद्यत । ते हि प्रायः कुशीलाः स्युः, किं पुनः स्त्रीभिरर्थिताः ! ॥१२॥ संप्रत्यायात्ययं किन्तु, तब वेश्म क्व विद्यते ? ॥ इत्युक्ताऽथ नटेशेन, सा स्वसौधमदर्शयत् ॥ १३ ॥ गहं गत्वा नटकृते, पायसं च पपाच सा ॥ स्त्रीवेषः सोऽपि | तत्रागा-नटेशप्रेषितो नटः ॥१४॥ आसितस्याऽशितु तस्य, पुरः सा पुश्चली मुदा ॥ स्थालमस्थापयद्यावत् , प्राज्यखण्डाज्यपायसम् ॥१५॥ तावत्सांन्यासिकोऽभ्येत्य, द्वारमुद्घाटयेत्यवक् ।। शनैस्तं नटमित्यूचे, ततः सा पांशुलाऽऽकुला ॥१६॥ अस्मिस्तिलापवरके, गत्वा त्वं तिष्ठ कोणके ॥ तयेत्युक्तः सोऽपि तत्र, प्रविश्य द्राग् न्यलीयत ॥१७॥ तयाऽथोद्घाटिते द्वारे, स रजस्कोन्तराऽऽगतः॥ किमिदं पायसापूर्ण, स्थालमस्तीत्युवाच ताम् ।।१८।। सुधितास्मीति भोक्ष्येऽह-मित्युक्ते मायया तया ॥ सोऽवादीदयि ! तिष्ठ त्व-महं भोक्ष्ये बुभुक्षितः ॥१६॥ १ सप्तशतानि-इति तु 'घ' सज्ञकपुस्तके। २ असती। ३ असत्याः । ALEVESBEESVEEVESEVESVES Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य अध्य० १८ ॥७६॥ यनसूत्रम् ॥७६॥ 1 इत्युदित्वा बलाद्यावज्जारो भोक्तुमुपाविशत् ॥ द्वारं प्रकाशयेत्यूचे तावदेत्य गृहाधिपः ॥२०॥ क्व यामीति ततः पृष्टा, जारेण 'कुलटाऽब्रवीत् ॥ तिलापवरके गत्वा, तिष्ठास्मिन्नातिदूरतः ॥२१॥ कोणेऽस्य तिष्ठति व्यालः, कालः काल इवापरः । त्वया तत्र न गन्तव्यं, ततो जीवितमिच्छता ॥२२॥ ओमित्युक्त्वा ततः सोऽपि, तत्रापवरकेऽविशत् ॥ भूयस्तमिस्रमिश्रत्वा-तमिस्त्राभे दिवाऽपि हि ॥२३॥ द्वारमुद्घाटयामास, ततस्त्वरितमित्वरी' ॥ विवेश वेश्मनि ततो, गृहेशः सरलाशयः ॥२४॥ क्षरेयी किमियं स्थाले, क्षिप्तास्तीत्यब्रवीच ताम् ॥ उवाच :पुंश्चली भुक्तिं, कुर्वेऽहमशनायिता ॥२॥ सोऽवदन्मम गन्तव्यं, कार्ये तद्भोक्ष्यते मया ॥ सा प्रोचेऽद्याष्टमी तस्मा-दस्नातो भोक्ष्यसे कथम् ? ॥२६॥ सोऽशंसत्स्नात एवाह, स्नातायां त्वयि वल्लभे । साऽलपन्न ह्यसौ धर्मो-ऽस्माकं तदिति मा कृथाः ॥२७॥ वयं हि शैवास्तेषां च, न 'प्सानं स्नानमन्तरा ॥ तयेत्युक्तोऽपि स व्यक्तं, बलाद्भोक्तु प्रचक्रमे ॥ २८ ॥ इतश्चाहं क्षुधाक्षामः, किं तिष्ठामीति चिन्तयन् ।। नटः कराभ्यां संघृष्य, फूचकार तिलान्मुहुः ।।२६।। सांन्यासीकस्ततोऽध्यासी-दसौ फुत्कुरुते फणी ।। तद्गृहेशेऽशनासक्ते, नश्याम्यहमलक्षितः ॥३०॥ इति ध्यात्वाऽपवरका-निर्गत्य द्राग ननाश सः ॥ समयोऽयमिति ध्यायं-स्ततोऽनेशन्नटोऽपि सः॥३१॥ महत्तरसुतः प्रेक्ष्य, निर्यान्ती तौ नरस्त्रियौ ॥ कावेतावित्यपृच्छत्ता, स्वच्छः स्वच्छन्दचारिणीम् ॥ ३२ ।। तत उत्पन्नधीः प्रोचे, कुलटा कुटिलाशया ॥ अस्नातो मा त्वमश्नीया, इत्युक्तं प्राग्मया हि ते ॥३३॥ अस्मदावसथेऽजस-सेवया वासितौ मया ॥ इमावुमाहरौ नष्टा-वस्मादस्नानभोजनात् ! ॥ ३४ ॥ तदाकये मया दुष्टु, कृतमित्यनुतापवान् ॥ प्रत्यायातः कथमिमा-वित्यूचे तां गृहाधिपः ॥३॥ गच्छत्यसौ विदेशे चे-द्रमे स्वैरमहं तदा ॥ ध्यायन्तीति ततोऽवोच-स्वैरिणी पतिवैरिणी ॥३६॥ सोधमेनैव सन्याय-मर्जितैः प्रचुरैधनैः ॥ चेदयसि चण्डीशो, प्रत्यायातस्तदा हि १-२-३ असती॥ ४ भोक्तु EVEEVEE VEETEG VEGEEVE NE Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् अध्य०१८ | ॥७७॥ ॥७७॥ PEEEEEEEEEEEEEEEEEEE तौ ॥३७॥ तत्प्रपद्य दशार्णेषु, महत्तरसुतो ययौ ॥ छेकोऽपि वंच्यते धर्म-छद्मना किं पुनः परः १ ॥३८॥ क्षेत्रे कस्यापि तत्रासौ, कुर्वन्कार्यमुपार्जयत् ।। दश गद्याणकान्स्वर्ण, तच्चाल्पमिति नाऽतुषत् ।। ३६ ॥ तथापि स प्रति गृहं, निवृत्तः स्वप्रियां स्मरन् । मध्यान्हे क्वापि कान्तारे, विशश्राम तरोस्तले ॥४०॥ इतश्चापहृतो वक्र-शिक्षिताश्वेन पर्यटन् ।। दशार्णभद्रभूपाल--स्तत्रागच्छत्तृषातुरः ।। ४१ ॥ आतिथ्याहों महात्माय-मित्यन्तश्चिन्तयंस्ततः ॥ महत्तराङ्गजस्तस्मै, पयः पेयमढौकयत् ।। ४२ ॥ नृपोऽपि पीत्वा तन्नीर-मुत्पर्याणं हयं | व्यधात् ॥ क्षणं विश्रम्य कोऽसि त्व-मिति चापृच्छदध्वगम् ॥४३॥ स्ववृत्तान्तेऽथ तेनोक्ते, राजा दध्यौ कुशाग्रधीः।। प्रियास्य नूनमसती, | तत्तया वश्चितोऽस्त्ययम् ॥४४॥ परं धार्मिकतामस्य, वीक्ष्य चित्रीयते मनः ।। चिकीर्षति स्वदेवार्चा-'मसद्वित्तमुपाय॑ यः ॥४५॥ विदोपि सदपि द्रव्यं, व्ययन्ते व्यसनादिभिः ॥ मुग्धोप्यसौ तु धर्माय, क्लिश्यतेऽजयितुं धनम् ॥ ४६ ।। तद्धार्मिकस्य पुंसोऽस्य, कुर्वे का प्रत्युपक्रियाम् ।। तस्येति ध्यायतः सैन्य-मागादश्वपदानुगम् ।। ४७ ॥ ततो नृपः सहादाय, नरं तमुपकारिणम् ॥ ययौ निजं पुरं तं च, सच्चक्र भोजनादिना ॥४८॥ तदा चायुक्तपुरुषै-रिति व्यज्ञपि भूपतिः ॥ पुरोधानेऽद्य समव-सृतोऽस्ति चरमो जिनः॥४६॥ तत्कएर्णामृतमाकण्योदश्चद्रोमाञ्चकञ्चुकः ॥ नृपोऽनमज्जिनं मौलि-स्पृष्टभूस्त्यक्तविष्टरः ॥५०॥दत्वा दानं जीविकाई-महदागमवादिनाम् ॥ भूभृन्मणी सहृदयग्रामणीरित्यचिन्तयत् ॥ ५१ ॥ तागविवेकविकलो-ऽप्यसो वैदेशिको नरः॥ पुपूजयिषति स्वीय-देवांश्चेत्सर्वसम्पदा ॥५२॥ तदा समग्रसामग्री-मतामस्मादृशां विशाम् ॥ विवेकिनां विशेषेण, कर्त महाऽर्हणाऽर्हतः ॥५३॥ ध्यात्वेत्यादिशदुर्वीशो, द्विपाद्यधिकृतान्कृती ॥ कार्या विशेषात्सामग्री, प्रातर्नन्तु जगद्ग रुम् ॥५४॥ विभाते वन्दितु सावं, सामन्तामात्यनागराः॥ श्रेष्ठां कुर्वन्तु सामग्री-मिति चायो १ अविद्यमानम् ॥ serveservesesesereedeseeeees Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ All उत्तराध्य- यनसूत्रम् ॥ ७ ॥ दनमालाभिः, सदो- अध्य० १८ तब्दमिवाकाण्डे, धूपधूमैनिरन्तरैः हेतुभिः केतुकोटिभिः LEVELEVVEVEEVEETSEE यत् पुरे॥५५।। तृणगोमयभस्मादि-सम्मार्जनपवित्रितम्।। संसिक्तं चन्दनाम्भोभिः, पुष्पप्रकरचित्रितम् ॥५६॥ हुध वन्दनमालामिः, सद्दो- अध्य० १८ लाभिरिक श्रियाम् ॥ धृतानङ्कानेकचन्द्र'--मिव कुम्भैश्च राजतैः ।।१७।। उदिताब्दमिवाकाण्डे, धूपधूमैनिरन्तरैः।। धृतचक्रधनुर्लक्ष-मिव माणि-का ॥७ ॥ क्यतोरणैः॥५८॥ अमितः शोभितं श्रेयो-हेतुभिः केतुकोटिभिः। विमानवद्राजमान-रश्चितं चारुमश्चकैः ॥५६॥ प्रारब्धस्वस्वकर्तव्यं, जल्लमल्लनटादिभिः ॥ स्वपुरं स्वरिवाऽध्यक्षं, मापोऽध्यक्षैरचीकरत् ॥६०॥ [पञ्चमिः कुलकम् ] प्रातश्च विधिना स्नात्वा, चन्दनालिप्तभूधनः ।। अदृष्ये देवदृष्ये द्वे, दधद्भासुरभूषणः ॥६१॥ प्रातपत्रेण पूर्णेन्दु-पवित्रेण विराजितः ।। चतुर्भिश्चामरैर्वीज्य-मानो डिण्डिरपाण्डुरैः ॥६२॥ केनाप्यवन्दि न यथा, वन्दे जिनमहं तथा ॥ध्यायन्निति मुदाऽध्यास्त, महाराजो महागजम् ।।६३॥ [त्रिभिर्विशेषकम् ] आरूढसिन्धुरा भूषा-बन्धुराश्च सहस्रशः ॥ सामन्ताः परिवत्र स्तं, शक्र सामानिका इव ॥ ६४ ॥ पादाभ्यां प्रेरितो राज-कुञ्जरेणाऽथ कुञ्जरः ॥ शनैः प्रवृते गन्तुं, भूमिभङ्गमयादिव ! ॥६५॥ सहस्रशस्तदाऽन्येऽपि, वारणा वैरिवारणाः ॥ चलाचलोपमाश्चेलु-मणिमण्नमण्डिताः ॥ ६६ ।। सहोदराः 'सप्तसप्तिसप्तीनां तत्र 'सप्तयः ॥ लक्षशः पुपुषुर्लक्ष्मी, भूरिभूरिविभूषणाः ॥ ६७॥ आयुक्तहरयो हारि-श्रियस्तत्र सहस्रशः ॥ रथा दिद्युतिरे तिग्म-द्य तिस्यन्दनसोदराः ॥ ६८॥ नानाविधायुधभृतः, पत्तयोऽपविपत्तयः ।। शिश्रियुः सुषमा वीरकोटीरास्तत्र कोटिशः ॥६६॥ अध्यासितानि राजीनां पञ्चशत्या पृथक् पृथक् ।। रेजिरे "याप्ययानानि, सदेवीकविमानवत् ॥ ७० ।। प्रक्वणत्किङ्किणीक्वाण-मुखरीकतदिग्मुखाः ।। अभ्रंलिहा ध्वजा रेजुः, पञ्चवर्णाः सहस्रशः ॥७१ ॥ आतोद्य लक्षशो भम्भा-भेरिप्रभृतिभिस्तदा ॥ युगपद्वादितैज्ञे, शब्दाद्वैतमयं जगत् ।। ७२ ।। मुदा मङ्गलवाक्यानि, पेठुमङ्गलपाठकाः ।। श्रवःसुधाश्रवागीति-गायन् गायनास्तदा ।। ७३ ।। वारवध्वोऽप्सरः१ अनंका अङ्करहिताः कलकरहिता इत्यर्थः ।२ सूर्याश्वानाम् । ३ अश्वाः । ४ सप्तशत्या इति तु 'घ' संज्ञकपुस्तके । ५ शिबिका पालखी-इति भाषा । EVA EVEVEREEEEEEE Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराय कल्पा, गायन्त्यो भगवद्गुणान् ॥ नृत्यं चक्रस्तदा हृद्य, पुरो राज्ञः पदे पदे ॥ ७४ ॥ इत्थं महर्द्धिगिर्भव्य-जीवानां मोदयन्मनः ॥ अध्य०१८ यनमा सिञ्चन् सद्भविपीयूषैः, सुकृतवाणिजन्मनः ॥ ७५ ॥ कल्पद्रुम इवात्यर्थ, ददानो दानमर्थिनाम् ॥ आत्मानं मानयन्माना-पदमुत्कृष्ट ॥७६॥ ॥७९॥ | सम्पदाम् ।। ७६ ॥ परिच्छदेन पौरव, महत्तरसुतेन च सम समवसरण-समीपं प्रापयार्थिवः ।। ७७ निर्विरोकम् ] उत्ती| थि गजाद्राज-कुदानि विमुच्य सः ।। जिन दक्षिणीकृत्य, सतेत्रो विधिनाऽनमत् ॥७८॥ जिमाधीश जनायो इगद्रया मिरा ।। 'स्तोत्रमहाथैः स्तुत्वा च, यथास्थानमुपाविशत् ।। ७६ सदा चावधिना ज्ञात्वा, शज्ञस्तारामाश्यम् ।। बदक्विाथ्यो हमिति नहो सज्ञान । All ऽस्य भूयसी ! ।। ८०॥ परमंत्राभिमानस्तु, कत्तु नामुष्य युज्यते ॥ भवेत्रिभुवनेनापि, भक्तिः पूर्णा हि नाईताम् ! ।।१।। Kध्यात्वेति हत्तु तन्मानं, सम्पदुत्कर्षसम्भवम् ।। प्रतिबोधयितुं तं च, समादिष्टो विडोजसा ॥२॥ चतुःषडिसहवाणि द्विसनेसवणामरः ।।। Pal सितत्वोचत्वविजित-कैलासान् व्यकरोन्मुदा ॥३॥ [युग्मम् ] प्रत्येकं द्वादशयुतां, तेषु पञ्चशाती मुखान् ।। मुखं मुखं प्रति रदा-नष्टा|| वष्टौ च निममे ।। ८४ ॥ प्रतिदन्तं पुष्करिणी-रष्टावष्टौ मनोरमाः । तासु प्रत्येकमष्टाष्ट, पनान् लचच्छद्रान् व्यधात् ।। ८५॥ दलेपुर | तेषु प्रत्येकं, द्वात्रिंशद्वद्धनाटकम् ॥ प्रत्यब्जकर्णिकं चक्रे, प्रासादं च चतुर्मुखम् ॥८६॥ पश्यन्नृत्यानि तान्युच्च महिषीभियुतोऽष्टभिः । अध्यास्त तश्चि प्रासादा-सर्वानपि सुपर्वराट् ।।८७।। "एवंच-" मुह पणसय बारुत्तर [५१२] इन्ता चउसे सहस्स छाखाउमा [४०६६]| al बत्तीस सहस संगसय, अंडसट्ठी [३२७६८ हॉति पुक्खरिणी ॥८८|| पउमा दुलक्ख यासाठि, सहस चोचाल समिश्रा [२६२१४४ । All जाण । पासा इंदा ततुल्ल, अम्गमहिसी तयट्ठगुणा [२०६७१५२ ] ॥ ८६ ॥ दुसहस्स छसय इसवीस कोडि अम्माल सक्ख कमल १जनान् ।। २चिन्हानि ।। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ||co| अध्य०१८ ॥८॥ AVEVE EVEVEEVEEveeVEVEVER दला [ २६२१४४०००००] ॥ नट्टा पुण दलतुल्ला, एगेग गयस्स इइ संखा ॥ १०॥ तैर्गजैश्छादयन् व्योम, शरदवॆरिवामलैः ॥ आगात्पुरन्दरः क्षिप्र-मुपसाबपुरन्दरम् ॥११॥ जिनं प्रदक्षिणीचक्रे, हस्तिमल्लस्थितो हरिः ।। ववन्दे च स्वकीयाङ्ग-रुचिन्यश्चितभास्करः ! ॥१२॥'क्षोणीक्षिद्वीक्ष्य तल्लक्ष्मी, दक्षधीरित्यचिन्तयत् ॥ मया तुच्छतयाऽकारि, सम्पदो मुधैव हि ! ॥६३॥ इयं का नाम मे सम्पदस्याऽऽसां सम्पदां पुरः ॥ खद्योतपोतोद्योतो हि, कियान् प्रद्योतना ताम् ? ॥१४॥ तन्नूनं तुच्छयापि स्या-बीचानां सम्पदा मदः॥ प्राप्य पङ्किलमप्यम्भो, भृशं नईन्ति ददुराः ! ॥१५॥ इयं च श्रीरनेनापि, लेभे धर्मप्रभावतः॥ विना धर्म हि सा चेत्स्या-त्सर्वेषां स्यात्तदा न किम् ?।१६॥ हित्वा विषादं तद्धर्म, श्रयेहमपि निर्मलम ॥ इत्थं कृते हि मानोऽपि, कृतार्थों मे भविष्यति ! ॥१७॥ध्यात्वेति प्राञ्जलिभूमी-जानिर्जिनमदोऽवदत् ।। भवोद्विग्नं विभो ! दीक्षा-दानेनानुगृहाण माम् ॥६८।। इत्युक्त्वा कृतलोचं तं, पृथ्वीनाथं व्रतार्थिनम् ।। स्वयं प्रावाजयद्वीर--विभुर्विश्वैकवत्सलः ॥ १६ ॥ तमनु प्रावजत्सयो, महत्तरसुतोऽपि सः ।। सङ्गः सत्पुरुषाणां हि, सर्वकल्याणकामधुक्! ॥१००॥ ततः प्रणम्य राजर्षि-मित्युवाच "दिवस्पतिः॥ धन्यस्त्वं येन सपदि, संत्यक्ता सम्पदीदृशी ! ॥१०१ ॥ प्राज्यमुत्सृज्य साम्राज्य-मुररीकुर्वता व्रतम् ॥ सत्यसन्ध स्वसन्धाऽपि, नूनं सत्यापिता त्वया ॥१०॥ जिनार्चा हि द्रव्यपूजा, भावपूजा तु संयमः ।। द्रव्यपूजाकृतो भाव-पूजाकृच्चाधिको मतः ॥१०३॥ तत्त्वया जित एवाह, भावस्तवविधायिना ॥ अन्या हि भूयसी शक्तिरस्ति मे न पुनव्र ते || ॥१०४॥ स्तुत्वेति तं राजमुनि बिडौजा, जिनं प्रणम्य त्रिदिवं जगाम ॥ राजर्षिरप्युग्रतपा विधाय, कर्मक्षयं मुक्तिपुरीमियाय ॥१०५॥ इति श्रीदशार्णभद्रराजर्षिकथा ॥४४॥ १-२ राजा-11 ३ इन्द्रः। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०१८ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥ १॥ ॥८१॥ VEGECEVEZEVAVAVALGTE | मूलम्- नमी नमेहि अप्पाणं, सक्खं सक्केण चोइओ। चइऊण गेहं वइदेही, सामरणे पज्जवडिओ ॥४५॥ ___ करकंडु कलिंगेसु, पंचालेसु अ दुम्मुहो। नमिराया विदेहेसु, गंधारेसु अ नग्गई ॥४६॥ एए नरिंदवसहा, निक्खंता जिणसासणे । पुत्ते रज्जे ठवेऊणं, सामण्णे पज्जुवठिया ॥४७॥ व्याख्या-एते नरेन्द्रवृषभा 'निष्क्रान्ताः' प्रव्रजिता जिनशासने न त्वन्यत्र, निष्क्रम्य च श्रामण्ये 'पर्युपस्थिताः' प्रोद्यता अभुवनिति शेषः, एतेषां कथास्तु प्रागुक्ता इति न पुनरिहोच्यन्ते ॥४॥४६॥४७॥ मूलम्-सोवीररायवसहो, चइत्ताण मुणी चरे। उद्दायणो पव्वइओ, पत्तो गइमणुत्तरं ॥ ४८ ॥ व्याख्या-सौवीरेषु राजवृषभस्तत्कालीननृपप्रधानत्वात् सौवीरराजवृषभः, त्यक्त्वा राज्यमिति शेषः, मुनिश्चरेत् अचारीत्- मुनिचर्ययेति शेषः, 'उद्दायणोति' उदायननामा प्रव्रजितः सन् चरित्वा च प्राप्तो गतिमनुत्तराम् , तत्कथा त्वेवम् अत्रैव भरतक्षेत्रे, सिन्धुसौवीरनीवृति ॥ सान्वर्थनामक बीत-भयाभिधमभूत्पुरम् ॥१॥ तत्रोदायननामाऽऽसी-त्सुकृतोदयकन्नृपः ॥ राजितः सहजैः शौर्य-धैर्योदार्यादिभिगुणैः ॥२॥ वीतभयादिपुराणां, त्रिषष्टयग्रं शतत्रयम् ॥ सिन्धुसौवीरमुख्यांश्च, देशान्षोडश पालयन् ॥ ३॥ सेवितो दशमिवीर-महासेनादिभिन पैः॥ स भूपालोऽत्यगात्कालं, श्रिया शक्र इवापारः ॥४॥ [युग्मम्] तस्य प्रभावती राज्ञी, जज्ञे चेटकराट्सुता ।। बिभ्रती मानसे जैन, धर्म पतिमिवाऽनिशम् ॥ ५॥ तत्कुक्षिजो यौवराज्य, प्राप्तस्तस्य महीपतेः ॥ नन्दनोऽभीचिनामाऽसी-केशी च भगिनीसुतः ॥६॥---..... ...... .... . BANIANEL Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EHar nupamin मध्य०१८ ॥८ ॥ उत्तराध्य- ईतश्च पुर्यों चम्पायी, स्वर्णकारी महाधनः ॥ कुमारनन्दीमामाऽभू-जलनालोलमानसः ! ॥७॥ ददर्श कन्यकां यां यां, यत्र यनसत्रम् यत्र मनोहराम् ॥ निष्कपञ्चशती दत्त्वा, ती ती परीिणनाय सः॥८॥ इत्थं यवशतानि स्त्री-टूढोऽपि नाशपत् ॥ सीधनपुरक॥२॥का भोज्येषु, प्रायोऽतृप्ता हि जन्तवः। ॥४॥ एता मिलन्तु माऽन्येन, केनापीति विचिन्त्य तः ॥ एकस्तम्भहे न्यस्य, बुझ्ने चा दिवानिशम् ॥ १०॥ इतश्च पञ्चशैलाख्य-द्वीपे वारिधिमध्यंगे ॥बभूव व्यन्तरी विद्यु-मालिनामा महर्दिकः ॥ ११॥ सच हासापहासाम्या, स्वदेवीभ्यां युतोऽन्यदा ॥ध्रुजन् शक्राज्ञया नन्दी-वरे प्राच्योष्ट चमनि ॥ १२॥ शतचिन्तातुरे वस्य, कान्ते ते इति दध्यतुः ॥ प्रलोभयामः स्त्रीलोलं, कश्चिद्यो नौ पतिर्भवेत् ॥ १३ ॥ इति ताभ्यां ग्रमन्तीम्या, चम्पायां स सुवर्णकृत् ॥ ददृशेऽधिगृहं ताभि-ललनाभिः समं ललन् ॥ १४ ॥ ततो योग्योऽयमस्माकं, नूनमित्यवधार्य ते ॥ सस्थादर्शयां दिव्यं, स्वरूपं विश्वकार्मणम् ।।१५।। मोहितस्सोऽथ ते देव्यौ, के युवामिति पृष्टवान् ? ॥ सबिलासं विलासिन्यौ, सतस्ते 'इत्यवोचताम् ॥ १६ ॥ आवां हासामहासाह, | 'देव्यौ विद्धि महर्द्धिके । चैत्री वाञ्छसि तत्पश्च-शैलाख्यं द्वीपमापतेः॥ १७ ॥ उक्त्वेति विद्य ल्लेखाव-दाक् तिरोहितयोस्तयोः ।। दिशं । तामेव स प्रेक्षा-मांस शून्यमनाश्विरम् ॥१८॥दथ्यौ च योषितामासां, पञ्चशत्याऽपि किं मम ॥ विश्वं शून्यमिवाभाति, शाविव बिना हि ते ! ॥ १६ ॥ तद्रूपं वीक्ष्य रत्नाभ-मासु काचमणीष्विव ॥ को नाम रमते तस्मात्तदर्थ प्रयते द्रुतम् ।। २० ॥ध्यात्वेति गत्वा भूपाल| कुले दत्वा धनं धनम् ।। डिण्डिमं वादयन्नुच्चैः, पूर्यामेवमघोषयत् ।। ॥ २१ ॥ कुमारनन्दिनं पञ्च-शैले नयति यो द्रुतम् ॥ तस्मै नाविकवर्याय, द्रव्यकोटि ददाति सः ॥ २२ ॥ तत्प्रपद्य मुदा कोऽपि, जरी जीवितनिःस्पृहः ।। विधाप्य पोतं पाथेय-पाथोमुख्यैरपूरयत् का ॥ २३ ॥ निजानामङ्गजानां च, वित्तकोटि वितीर्य ताम् ।। कुमारनन्दिना साक मारोहबहनं स बत् ॥ २४ ॥ दिनैः कियनिस्वस्मिंश्च, Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥ ८३ ॥ पोते दूरं गतेऽम्बुधौ ॥ पुरः पश्यसि किं किञ्चिदित्यूचे नन्दिनं जरी ॥ २५॥ श्यामं किमपि पश्यामीत्युक्ते तेन जगौ जरन् ।। वटोऽयं दृश्यते वाद्धिं-तटस्थाद्रिनितम्बजः ।। २६॥ यास्यत्यवश्यमस्याधो, यानपात्रमिदं च नः ।। ततस्तूर्णं त्वमुत्प्लुत्या - मूढोऽस्मिन्विलगेस्तरौ ॥ २७॥ वसन्ति 'वसतावस्मिन्, गिरौ भारण्डपक्षिणः ।। ते च प्रातः पञ्चशैलं व्रजन्ति 'चुणिहेतवे ||२८|| हयः स्युनयस्तेषां ततस्त्वं मध्यमे क्रमे ॥ पटेन स्वं निबध्नीयाः, तस्य सुप्तस्य कस्यचित् ॥ २६ ॥ ततस्त्वां पञ्चशैलाख्य- द्वीपे नेष्यन्ति ते खगाः ॥ शक्ष्याम्यहं तु 'प्रवया, ग्रहीतु ं न हि तं वटम् ।।३०।। वटात्पुरो महावर्ते, पोतस्त्वेष पतिष्यति ।। तत्रैव च मया सार्द्धं, विनाशमुपयास्यति ! ॥ ३१ ॥ अथ त्वमपि चेद्व्यग्रो, न्यग्रोधं न ग्रहीष्यसि ॥ तदा तूर्णं तमावर्त्त, गते पोते मरिष्यसि ! || ३२ ॥ एवं वृद्धे वदत्येव, वटाधो वहनं ययौ । । विलग्नः सोऽपि तत्र द्राक्, पंचशैलमगात्ततः ।। ३३ ।। तं चायातं भोक्तुमुत्कं ते देव्यावित्यवोचताम् ॥ अनेन भूघनेन त्वं, न नौ भोगाय कल्पसे ! ||३४|| कर्णोऽपि लभते भूषाः, सोढच्छेदनवेदनः सोढदाहादिकष्टं च, स्वर्णमप्यश्नुते मणीन् ! ||३५|| तद्गत्वा स्वगृहं दत्वा, दीनादीनां निजं धनम् ।। कृत्वा वन्हिप्रवेशादि - कष्टं त्वमपि सत्वरम् ॥३६॥ द्वीपस्यास्य श्रियामासा - मावयोश्च पतिर्भव । भूरिलाभाय दक्षैर्हि, किञ्चित्कष्टमपीष्यते ! ||३७|| [ युग्मम् ] अथ तत्र कथं यामीत्युक्ते रक्तेन तेन ते । चम्पापुर्यां निन्यतुस्तं, "कलादं विकलं स्मरात् १ ॥ ३८ ॥ कथमागाः किञ्च चित्रं १, तत्रेत्युक्तोऽथ नागरैः ॥ हा ! क्व हासामहासे ते, इत्येव स्माह सोऽसकृत् ॥ ३६॥ इङ्गिनीमृत्युना म - मुद्यतं तं जडं ततः ॥ व्याजहारेति तन्मित्रं, श्रावको नागिलाह्वयः ॥४०॥ भो ! मित्राऽमात्रधीपात्र ! नैतत्कापुरुषोचितम् ।। युज्यते भवतः कत्तु, सिंहस्येव तृणाशनम् ॥ ४१ ॥ किञ्चातितुच्छभोगार्थं, दुर्लभं मानुषं भवम् ।। मा हार्षीर्द्य सदां रत्न - मिव काचकृते कृतिन् ! ॥४२॥ अथ यद्यपि ते वाञ्छा, भोगेष्वेव तथापि हि । धर्ममेवाचराभीष्ठ -दायिनं १ रात्रौ । २ चरितुम् । ३ वृद्धः । ४ शरीरेण । ५ स्वर्णकारम् । अध्य० १८ ॥८३॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥ ८४ ॥ VATAVARAVOVARS सुरशाखिवत् ||४३|| मित्रोपदेशमप्येनं, मोहोन्मत्तोऽवमत्य सः । श्रपादादाशिरोदेह - माच्छाद्य द्वागगोमयैः ॥४४॥ चिरं दारुवदधिभ्यां प्रदत्तेनाग्निना ज्वलन् ।। देव्योस्तयोः स्मरन्मृत्वा, विद्युन्मालित्वमासदत् ॥ ४५॥ [युग्मम् ] तमेत्रमिङ्गिनीमृत्या, मृतं वीक्ष्य विरक्तधीः ।। हो ! विमूढा भोगार्थ क्लिश्यन्त इति चिन्तयन् ॥ ४६ ॥ प्रव्रज्य नागिलश्राद्धो, विपद्यऽभूत्सुरोऽच्युते ।। ददर्शऽवधिना तं च वयस्यै पूर्वजन्मनः ।। ४७ ।। [ युग्मम् ] उपस्थितेऽन्यदा नन्दीश्वरयात्रामहोत्सवे ।। नश्यतोऽपि गले विद्य ुन्मालिनः पटहोऽपतत् ॥ ४८ ॥ अस्मत्कान्तेन वाद्योऽसौ, थ वं तत्किं पलायसे १ ।। इति हासामहासाभ्यां प्रोचे स व्यन्तरस्तदा ॥ ४६ ॥ ततस्तं वादयन् शक्र-पुरो नन्दीश्वरे गतः ॥ तत्रगतेन सोऽदर्शि, तेन श्राद्धसुधाभुजा ।। ५० ।। ततस्तं निकषा श्राद्ध-सुरः सोऽगाद्यथा यथा ।। तत्तेजोऽसहमानोSir, पलायत तथा तथा ॥ ५१ ॥ स्वतेजः सोऽथ संहृत्य, मां जानासीति तं जगौ । सुरान् शक्रादिकान्को हि, न जानातीति सोप्यवक् ? ॥ ५२ ॥ ततः प्राग्भवरूपं स्त्रं, प्रदश्येत्यवदत्स तम् ॥ सोऽहं नागिलनामास्मि, पूर्वजन्मसुहृत्तव ॥ ५३ ॥ मृतं कुमृत्युना प्रेक्ष्य तदा त्वां भोगकाम्यया ।। विरक्तः प्राब्रजमहं, ततः प्रापमिमां रमाम् ||२४|| निषिद्धोऽपि मया बाल मृत्युना त्वं मृतोऽसि यत् । प्रापः कष्ट न तैनापि, तदैवं देवदुर्गतिम् ।। ५५ ।। अथ धर्मं जिनप्रोक्तं, तदा चेदकरिष्यथाः । मद्वत्तदा त्वमप्येवं स्वर्लक्ष्मीमवरिष्यथाः ॥ ५६ ॥ प्रबुद्धः स ततोsवादी - किं गतस्यानुशोचनैः १ अथ किञ्चित्तदाख्याहि, येनाऽमुत्र शुभं लभे ।। ५७ ।। ऊचे श्राद्ध सुरो वीर - जिनस्य प्रतिमाँ कुरु सुलभं वोधरत्नं स्या यथा तव भवान्तरे ॥ ५८ ॥ दौःस्थ्यदुर्गतिदुःखादि, नाऽर्हदर्चाकृतां भवेत् ।। धर्मश्च जायते स्वर्गापवर्गसुखदायकः ! ।। ५६ ।। ततः क्षत्रियकुण्डाख्य--ग्रामे गत्वा स निर्जरः ॥ सालङ्कारं निर्विकारं, साराकारं गुणाकरम् ।। ६० ।। गार्हस्थ्येऽपि कृतोत्सगं, भावसाधुत्वसाधनात् ॥ श्रीवर्धमानतीर्थेशं ददर्श प्रणनाम च ! ।। ६१ ।। [ युग्मम् ] द्राग् महाहिमवत्यद्रौ, ततो गत्वा स दैवतः ॥ अध्य० १८ ॥ ८४ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥८॥ MAIN Geteeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee गोशीर्षचन्दनं विश्वा-नन्दनामोदमाददे ॥ ६२ ।। प्रतिरूपं प्रभोस्तत्र, यथादृष्टं विधाय सः ।। सत्काष्ठसम्पुटे हारं, समुद्गक इव न्यधात् अध्य०१८ ॥६३ ।। षण्मासी यावदुत्पाता-दधौ भ्राम्यदितस्ततः॥ सोऽथ बोहित्थमैक्षिष्ट, व्यग्रसांयात्रिकवजम् ॥ ६४ ॥ ततो हुत्वा तदुत्पातं, VI॥८॥ प्रत्यक्षीभूय स स्वयम् ॥ सांयात्रिकेभ्यो दत्वा त-दारुसम्पुटमित्यवक् ॥ ६५ ।। इह देवाधिदेवस्य, मूर्तिय॑स्तास्ति चान्दनी ॥ तदादाय तदाह्वानं, भेदनीयमिदं मुदा ॥६६।। युष्माभिरित्युदीर्यादो, देयं वीतभयप्रभोः ॥ कार्य पाएमासिकोत्पात-हत्तु : कार्यमियन्मम ॥६॥ तन्मुदा प्रतिपन्नेषु, तेषु देवस्तिरोदधे ॥ पारावारस्य' पारं च, वणिजस्तेऽपि लेभिरे ॥ ६८ ।। पुरं वीतभयं प्राप्तास्तेऽथ तत्काष्ठसम्पुठम् ॥राज्ञस्ताससभक्तस्यो-दायनस्योपनिन्यिरे ।। ६६ ।। तां च गीर्वाणवाणी ते, विज्ञा राज्ञे व्यजिज्ञपन् ।। श्रुत्वा तद्बहवो विप्र- सरजस्कादयोऽमिलन् ॥ ७० ॥ तेष्वेकेश्वादिषुर्वेद-वादी विश्वविधायकः ॥ देवाधिदेवो ब्रह्मा, तद्भेद्यमेतत्तदाया ।। ७१ ॥ इत्युक्त्वाऽऽख्याय तस्याख्या, तत्र मुक्तः शितोऽपि तैः ॥ कृतीव विस्मृते शास्त्रे, कुठारः कुण्ठतां ययौ ॥ ७२ ।। अन्ये जगुर्जगद्धत्ते, युगान्ते यो निजोदरें। | हन्ति दैत्यांश्च विवारीन्, स हि विष्णुः सुरोत्तमः ॥ ७३ ॥ इत्यादाय तदाह्वानं, परशुर्वाहितोऽपि तैः ।। जगाम मोघतामोधे, शैवलिन्या' इवाऽनलः ।। ७४ ।। प्रोचुः परे तु यस्यांशी, विधिविष्णू स एव हि ॥ वामदेवो देवदेवो, विधियोनिरयोनिजः ॥७५ ॥ अभिधामभिधायेति, तस्य तैः पशुणा हतम् ।। तन्नाभिद्यत पारीन्द्र-पुच्छेनेव गिरेस्तटम् ।।७६।। ततस्तेषु विहस्तेषु', विमृशत्सु भृशं मिथः ।। तदाकाययौ तत्र, महादेवी प्रभावती ॥ ७७ ॥ विधाय विधिवत्पूजां, तस्य काष्ठपुटस्य सा॥ उज्जगार सुधोद्गारो-पमा रम्यामिमां गिरम् ॥ ७८ ॥ गतरागद्वेषमोहः, प्रातिहायु तोऽष्टभिः ॥ देवाधिदेवः सर्वज्ञो, देयान्मे दर्शनं जिनः ।। ७६ ॥ इत्युदीर्य तया स्पृष्ट-मात्रम १ समुद्रस्य ॥ २ योगी ॥ ३ शैवलिन्या ओघे नद्याः प्रवाहे । ४ महेशः ।। ५ व्याकुलेषु ।। Seeeeeeeeeeee YA AVV-VEGVA - Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Avec उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥८६॥ अध्य०१८ ॥८६॥ GEVEGELEVENGECEYE प्याशु पशुना ॥ तदारु व्यकसद्भानु-भानुना नलिनं यथा ! ॥१०॥ अम्लानमाल्या सर्वाङ्ग-सुभगा सकला ततः॥ मूर्तिराविरभूद्वीर- विभोर्लक्ष्मीरिवार्णवात् ॥८१॥ तां प्रेक्ष्य वचनातीतां, मुदं प्राप्ता प्रभावती ॥ अभ्यर्च्य भक्त्या सन्तुष्टा, तुष्टाव सरसः स्तवैः ।। ८२॥ जज्ञे प्रभावना जैन-शाशनस्य ततो भृशम् ॥ आनुकूल्यं दधौ किञ्चि-नृपोऽपि जिनशासने ॥ ८३॥ अन्तरन्तःपुरं चैत्यं, विधाप्याथ धराधवः ॥ तत्र न्यवीविशत्सार्व-प्रतिमां तां महामहैः ॥८४॥ त्रिसन्ध्यं पूजयामास, विधिवत्तां प्रभावती॥ तस्यां च नृत्यं कुर्वत्यां, नृपो वीणामवादयत् ॥ ८५ ॥ नृत्यन्त्याश्च शिरस्तस्या, न ददर्श नृपोऽन्यदा ॥ ततस्तस्य विहस्तस्य, हस्ततः कम्बिकाऽपतत्॥८६॥ किं मया दुष्टु नृत्तं ? य-द्वीणावादनमत्यजः ।। सकोपमिति राज्याऽथ, पृष्टो मौनं दधौ नृपः ॥ ८७ ॥ तयाऽथ साग्रहं पृष्टः, सद्भाव भूधवोऽब्रवीत् ।। तनिशम्य महासत्त्वा, महादेवीत्युवाच सा ।। ८८॥ सेवितश्राद्धधर्माया-श्चिरं मे न हि मृत्युभीः ! ॥ तन्निमित्तादितोऽल्पायु:सूचकात्किम खिद्यसे १ ॥ ६ ॥ तयाऽथ स्नातया देहि, वासांसीत्युदिताऽन्यदा॥ आनिन्ये तानि रक्तानि, काचिच्चेटी ससम्भ्रमा ॥१०॥ जिनं पूजयितु चैत्यं, प्रविशन्त्या ममाऽधुना ॥ ददासि दासि ! वासांसि. किं रक्तानीति वादिनी ।।११।। जातकोपा ततो राज्ञी, दपणेन जघान ताम् ॥ तेन मर्मणि लग्नेन, सा भुजिष्या व्यपद्यत ॥ १२॥[युग्मम् ] सानुतापा ततो राज्ञी, दध्यौ धिक् किं कृतं मया ॥ खंडितं हि व्रतं घाता-दस्या दास्या निरागसः !॥६३ ॥ विधायानशनं तस्मादेनदेनः क्षिपाम्यहम् ।। व्रतभंगे हि जाते किं, जीवितेन विवेकिनाम् ? ॥ ६४ ॥ विमृश्येति स्वमाकूतं, राज्ञी राज्ञे व्यजिज्ञपत ॥ नृपः स्माहानुमंस्येऽहं, नेदं त्वद्वशजीवितः ।। ६५ || | देव्यूचे दुनिमित्तेन, तेनाल्पायुष्कतां मम ॥ जानासि त्वं तदपि किं, स्वामिन् ! स्वार्थ निहंसि मे ? ॥ ६ ॥ राजा जगाद देवत्वं, प्राप्ता | त्वं धर्ममाहतम् ॥ चेद्बोधयसि सम्यग्मा-मनुमन्ये तदा ह्यदः ! ॥ १७ ॥ तत्प्रतिश्रुत्य सा भक्त, प्रत्याख्याय दिवं ययौ ।। आराद्धश्राद्ध PEECHE-NEG-NEeeeeeeeeeeeeeee Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥ ८७ ॥ धर्माणां फलं प्रासङ्गिकं ह्यदः ! ॥ ६८ ॥ कुब्जा दासी देवदत्ता, तां जिनाच ततोऽभजत् ॥ स्वप्नादिना नृदेवं तं देवीदेवोऽप्यबुबुधत् ॥ ६६ ॥ जहौ तापसभक्तत्वं, न तथाऽपि स पार्थिवः । दृष्टिरागो हि दुर्मोचो, नीलीराग इवाङ्गिनाम् ॥ १०० ॥ ततस्तापसरूपेणोपेत्य राज्ञे स निर्जरः । ददावन्येद्य रमृत - फलानि सफलोद्यमः ॥ १०१ ॥ सन्तीदृशानि भगवन् ! फलानि क्वेति भूपतिः १ ॥ जातानदस्तदास्वादा - तं पप्रच्छ तपोधनम् ॥ १०२ ॥ सोऽवादीन्नगरान्नाति - दूरस्थेऽस्माकमाश्रमे ।। दुर्लभानि विशां सन्ति, फलानीमानि भूविभो ! ॥ १०३ ॥ ततोऽमूनि मनोहत्या - ऽऽस्वादयामीति चिन्तयन् । विस्रब्धोऽगाद्विशामीशः, समं तेन तमाश्रमम् ।। १०४ ।। तं मायातापसास्तत्र, हन्तुमारेभिरेऽपरे || अरे ! कस्त्वमिहायासी - रित्यूचाना सुधा क्रुधा ।। १०५ ।। ततो दुष्टा अमी नार्हाः, संस्तवस्येति भावयन् ॥ निहन्तुमनुधावद्भ्य-स्तेभ्यो नश्यन् भयाकुलः ।। १०६ ।। स नृपः शरणीचक्रे, वीक्ष्य क्वापि वने सुनीन् ॥ त्रायध्वमेभ्यः पापेभ्यः पूज्या ! मामीत्युदीरयन् ।। १०७ ।। [ युग्मम् ] मा भैषीरथ भूप ! त्व-मित्यूचुर्मुनयोऽपि तम् ।। ते तापसा न्यवर्त्तन्त हीणा इव ततो द्रुतम् ॥ १०८ ॥ अथ वीतभयं वीत-भयनार्थं क्षमाधनाः । वाक्यैः 'पैजूषपीयूषै- जैनं धर्ममुपादिशन् ॥ १०६ ॥ प्रतिबुद्धस्ततो राजा, श्राद्धधर्ममुपाददे ।। प्रगेऽब्दगज्जिवन्मोघो, नोपायः खलु नाकिनाम् ! ॥ ११० ॥ प्रादुभूयाऽथ तं धर्मे, स्थिरीकृत्य स निर्जरः ॥ स्वर्ज - |गाम ततो भूमा - नाऽऽस्थानस्थं समैक्षत । १११ ।। एवं श्रावकतां प्राप्तः, स महीधवपुङ्गवः ॥ अच्चभिर्विविधाभिस्ता - मार्चामाद ॥ ११२ ॥ इतश्च व्रतमादित्सु - र्गान्धारः श्रावकः कृती ॥ अवन्दत मुदा सर्वाः, "सार्वकल्याणकावनीः ॥ ११३ ॥ वैताढ्य शाश्वती - रर्चाः, सोऽथ श्राद्धो विवन्दिषुः । श्रारराधोपवासस्थः, सम्यक्शाशनदेवताम् ॥ ११४ ॥ तुष्टा देवी ततस्तस्मै, तानि विम्बान्यदर्शयत् ॥ १ कर्णामृतैः ॥ २ जिनकल्याणक भूमिः ॥ अध्य०१८ ॥ ८७ ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य अध्य०१८ ॥८॥ यनसूत्रम् ॥ ८॥ ददौ च सकलाभीष्ट-विधायि गुटिकाशतम् ॥ ११॥ ततो निवृत्तः स श्राद्धः, श्रुत्वा दत्ता सुधाभुजा । तामचर्चा चान्दनीं नन्तु-मागाद्वीतभयं पुरम् ॥११६॥ तत्र तं श्रावकं जात-मान्य दैवनियोगतः ।। स्वतातमिव सद्भक्त्या, कुब्जा प्रतिचचार सा ॥११७॥ ततः क्रमाद्गतः स्वास्थ्य, स कृतज्ञशिरोमणिः ॥ तस्यै ता गुलिकाः सर्वा, दत्वा दीक्षामुपाददे ॥११८॥ भूयासमनया स्वर्ण-वर्णाऽहं सुन्दराकृतिः॥ ध्यात्वेति गुलिकामेका, 'भुजिष्या बुभुजेऽथ सा॥११॥ 'आयसीव कुशी सिद्ध-सवेधेन सा द्रुतम् ॥ बभूव तत्प्रभावेण, चारुचामीकरच्छविः ॥१२०॥ सुवर्णगुलिकेत्याहां, प्राप्ता सा व्यमृशत्ततः ॥ भोक्तारमन्तरा फल्गु, रूपं मे वनपुष्पवत् ॥ १२१ ॥ न चाहं कामये, जातु, तातकल्पममुं नृपम् । तत्प्रद्योतोऽस्तु मे भर्चा, नृपः स हि महर्द्धिकः ॥ १२२ ।। एवं विचिन्त्य सा चेटी, गुटीमेकामभक्षयत् ।। तत्स्वरूपं ततो गत्वा, प्रद्योताय जगौ सुरी ।। १२३ ॥ तामानेतुं ततो दूतं, प्रेषीत्प्रद्योतभूधयः ।। सुवर्णगुलिका तं च, व्याजहारेति मानिनी ॥१२४॥ मामाह्वातुमिहायातु, स राट् पश्यामि तं यथा ।। अदृष्टपूर्वमभ्येति, कामिनं न हि कामिनी ! ।। १२५ ॥ इति तद्वचनं दूतो, गत्वा राज्ञे व्यजिज्ञपत् ॥ सोऽप्यारुह्यानलगिरि, तत्र रात्रावुपागमत् ॥ १२६ ॥ तं च प्रेक्ष्यानुरक्ता सा, प्रोचे चेत्प्रतिमामिमाम् ॥ सहादत्से तदाऽऽयामि, त्वया सह महीपते ! ॥१२७।। इह विन्यासयोग्याऽन्या, नास्ति प्रतिकृतिस्ततः ॥तामानयामि त्वच्चेतो, मानयामि मनस्विनि ! ॥१२८|| इत्युदीर्य ततोऽवन्ती-मवन्तीशोऽगमद्रुतम् ॥ तादृशीमपरां वीर-प्रतिमां च व्यधापयत् ॥१२६।। [युग्मम् ] ता च सम्यक् प्रतिष्ठाप्य, कपिलेन महर्षिणा ॥ गन्धद्विपेन तेनाऽऽगा-द्भूयो वीतभये निशि ॥ १३० ॥ दन्तिनं तं बहिमु क्त्वा, ताम_मुद्वहन्मुदा ।। अपाकृत्य भियं तत्रा-ऽविशत्का कामिनां हि भीः ? ॥ १३१ ॥ तत्र तां प्रतिमां न्यस्य, देवदत्तार्चया समम् ॥ तां १ दासी। २ लोहमयी इव । ३ निकृष्ट असारमित्यर्थः । ४ प्रतिमया । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥८६॥ अध्य०१८ l ॥८६॥ VEGEVEEVEEVEEVESEVE TE VERVEI दासी देवदत्ताहां, हत्वा स स्वपुरीमगात् ।। ३।। तद्गन्धेभः सविण्मत्रं, तदा वीतभयेऽमुचत् ।। तद्न्धेन च तत्रत्या, गजाः सर्वे मदं जहुः | ॥१३३।। गन्धः स च यतोऽभ्यागा-तां दिशं ते मुहुमुहुः।। उत्तब्धशुण्डा व्यातास्याः, स्तब्धकर्णाव्यलोकयन् ।।१३४॥ अजानिव गजांस्तांश्च, वीक्ष्य वीतमदान्प्रगे। अतिमात्र महामात्राः, सम्भ्रान्तस्वान्ततां दधुः।।१३।। विमदास्ते द्विपाः सर्वे ऽवन्तिमार्गदिशं विभो ! । मुहर्विलोकयन्तीति, तेऽथ राज्ञे व्यजिज्ञपन् ॥१३६॥ भूसुत्रामा ततस्तत्र, न्ययुक्तायुक्तपुरुषान् ।। तेऽपि गत्वेभपादादि, वीक्ष्यागत्यैवमूचिरे॥१३७।। इहाऽऽरूढोऽनलगिरि, प्रद्योतो नूनमा-ययौ ॥ श्रयते न हि गन्धेम-स्तं विनाऽन्यस्य कस्यचित् ॥१३८जाङ्ग लीश्रवणान्नागा, इव नागा समेऽप्यमी। तद्गन्धान्मदमत्याक्षु-मक्षु क्षोणीदिवस्पते । ॥ १३६ ।। " ततश्च"-स राजाऽऽगात्कुतोऽत्रेति ?, ध्यायिनं तायिनं भुवः ॥ सुवर्णगुलिका नास्ती-त्यूचिवान्कोऽपि कञ्चुकी॥१४०॥भूपस्ततोऽवदन्नून-मुपेत्य स नृपः स्वयम् ॥ तां चेटीमहरत्तर्हि, किं तया गतयाऽपि मे ! ॥ १४१॥ किन्तु पश्यत सा सार्व-प्रतिमा विद्यते न वा ? |सा हि मोहाहिदष्टस्य, जीवातुर्मम वर्तते ! ॥१४२॥ गत्वाऽऽगतस्ततः कोऽपि, साऽर्चाऽस्तीति नृपं जगौ॥ पश्यन्ति स्थूलमतयः, स्थानाशून्यत्वमेव हि !॥१४३।। पूजाकालेऽथ भूपालः, स्वयं चैत्यालयं गतः। वीक्ष्यार्चा म्लानपुष्पां तां, विषण्णो ध्यातवानिति ! ॥१४४॥ हृता मे प्रतिमा तस्याः, प्रतिरूपमिदं खलु । म्लानत्वं लेभिरे तस्यां, पुष्पाणि न हि कर्हिचित् ! ॥१४५ ॥ प्रद्योताय ततो दृतं, प्रजिधाय स भृधवः ।। सोऽपि क्रमागतोऽवन्ती-मवन्तीपतिमित्यवक ।। १४६ ॥ स्ववीर्यवन्हिविध्वस्तवैरिवर्गणवजः ॥ श्रीउदायनभूपस्त्वां, मन्मुखेन वदत्यदः॥१४७॥ दस्युवत्प्रतिमादास्यौ, हरन् ह्रीणो न किं भवान् ? ।। यद्वा दासीरतेयुक्त-मेवादश्चेष्टितं तव ! ।। १४८॥ तत्र दास्याऽनया कार्य, कार्याकार्यविदो न मे ।। स्वमूर्तेः कुशलं कांक्ष-मूर्ति तु प्रेषये तम् All | १४६ ।। तदच्चों देहि तां नो चे-दिहाऽऽयातमवेहि तम् ॥ कल्पान्तोद्भ्रान्तपाथोधि-कल्पानल्पबलान्वितम् ॥ १५० ॥ तनिशम्यावद EEVEE VEEXEEEEEEEEEEEEEEEEVES Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य. यनसूत्रम् ॥३०॥ अध्य०१८ ॥8 ॥ VEGEVEEVGEGEVEEVEEVERA चण्डप्रद्योतश्चण्डतां गतः ।। साधु दूत ! 'वियातोऽसि, मदग्रेऽपीत्थमात्थ यत् ! ॥१५१॥ अर्चाचेत्यौ रत्नभूते, हरतः का त्रपा मम ॥ कार्य यथा तथा रत्न-मात्मसादिति न श्रुतम् ॥१५२॥ न दास्ये प्रतिमा चेमां, न हि दातुमिहानयम् ॥ 'प्रतिमाशेषतां गन्ता, जिपक्षः प्रतिमां स तु ! ॥१५३॥ तन्माऽऽयासीद्वृथायासी', जेता मां नागतोऽपि सः॥ दन्ताबलो बलिष्ठोऽपि, नाचलं चलयत्यहो! ॥१५४॥ वाक्यं तस्येति दुतोऽपि, गत्वा राज्ञे न्यवेदयत् ॥ तन्निशम्य नृपोप्युच्चै-'र्यात्रानकमवीवदत् ॥१५५ ॥ ससैन्यैर्बद्धमुकुटै-दशभिः सह राजभिः॥ प्रत्यवन्ति प्रतस्थेऽथ, ज्येष्ठमासि स पार्थिवः ॥ १५६ ॥ सैन्यभुवं तद्धतै, रजोभिश्चः दिशोऽखिलाः ।। छादयन्मरुदेशोवीमम्बुदुःस्थां क्रमादगात् ॥१५७॥ तस्यां विना जलं तृष्णा-कुलं तस्याऽखिलं बलम् ॥आसन्नमृत्युवदभू-नष्टवाग् मीलितेक्षणम् ॥१५८॥ ततः प्रभावतीदेव-मुदायननृपोऽस्मरत् ॥ आगात्सुरोऽपि तत्कालं, कालक्षेपो न तादृशाम् ॥ १५६ ॥ पुष्कलैः पुष्करावर्तपुष्करोपमपुष्करैः ॥ पूर्णानि विदधे त्रीणि, पुष्कराणि स निर्जरः ॥१६० ॥ शीतलं सलिलं तेषु, पीत्वा स्वस्थमभूद्बलम् ॥ विनाऽन्नं जीव्यते जातु, न पुनर्जीवनं विना ॥१६१॥ सुरोऽथ भूपमापृछथ, जगाम निजधाम सः॥ क्रमादुज्जयिनीपुर्यामुदायननृपोऽप्यगात् ॥१६२॥ दृतेनाचीकथच्चैवं, कृपालुालवाधिपम् ॥ किं मारितैजनैर्जन्यं, भवत्वन्योन्यमावयोः ! ॥१६३॥ रथी सादी निषादी वा, पदातिर्वा यथा भवान् ॥ युयुत्सते तथा वक्तु, यथाऽऽगच्छाम्यहं तथा ॥१६४ ॥ रथिनोरावयोरस्तु, युद्धमित्यथ सोऽब्रवीत् ॥ तच्च दूतमुखाज्ज्ञात्वा-ऽऽरु रोहोदायनो रथम् ॥१६५॥ रथिना न मया जय्यो, राजायमिति चिन्तयन् ॥ सज्जितेनानलगिरि-द्विपेनागादवन्तिराट् ॥१६६॥ तं च | वीक्ष्य द्विपारूढ-मुदायननृपोऽब्रवीत् ॥ सन्धाभ्रष्टोऽसि रे पाप !, न हि मोक्षस्तथापि ते ! ॥ १६७ ॥ इत्युदीर्य नृपो धीमा-मण्डल्या १ निर्लज्जः। २ मरणतां गमिष्यतीत्यर्थः। ३ वृथाप्रयासी। ४ गजः । ५ यात्रापटहम् । ܢܕܦܕܦܕܦܕܦܕܟܕܟܕܟܕܣܕܩܟܕܩܙܟ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... उत्तराध्य- SH यनसूत्रम् ॥१॥ ऽभ्रमयधम्ना तत्पृष्टे भ्रमयामास, प्रद्योतोऽपि निजं मनम् ॥ १६८ ।। स च गन्धद्विपो भ्राम्बल्यं यं पावसुदक्षियत् ॥ तसं विव्याव अध्य०१८ | निशितैः शरैतिभयेश्वरः॥१६६॥ विहस्ते हस्तिनि-तता, पतितेऽवन्तिभूषवम् ।। द्विपात्नपात्य बद्ध्वा च, जवाहोवायनो बली ॥१७॥2॥३१॥ तस्यालिके दासी-पतिरित्यक्षरन पः॥ निधाय दिव्यामच्चा ता-मानेतुमगमन्मुदा॥१७१ ॥ प्रणब्याभ्यर्च्य ता यावन्दादातुमुकचक्रमे ।। तावमाचलदर्चा सा, दिव्यागीरिति चाभवत् ।। १७२ ॥ पशुपृष्ट्या स्थलं भाषि, स्थाने वीतभयस्य यत् ॥ तनाऽऽयास्याम्यहं तत्र, राजन् ! मा खियथास्ततः ॥ १७३ ॥ न्यवक्ताशुः तच्छ वा, स्वदेशं प्रति भूपतिः ।। प्रापर्तताऽन्तरा वर्षा, तत्प्रयासान्सरायकृत् ॥ १७४ ॥ स्कन्धावार पुराकारं, ततस्तत्र न्यधान्नृपः॥ धूलिवान्विधाप्यास्थु-स्तक्षायै नृपा दश ॥ १७५ ॥ तत्र च न्यक्सन्नैके, वाणि-|| ज्याय वणिग्जना।।। इति तच्छिविरं लोकै-रूचे दशपुरं पुरम् ।। १७६ ॥ प्रद्योतं चात्मवद्भ पो-चिन्तयनोजनादिना ॥ प्राप्ते पयुकणापर्व-एयुपकासं चकार च ॥ १७७ ॥ किमद्य भोक्ष्यसे राज-मिति सूदो नृपाज्ञया ॥ तदा प्रयोतमनाक्षी-ततः सोऽपीत्यचिन्तयत् ॥ १७ ॥ नूनं क्लिादिदानाम्मा-मबासौ मारयिष्यति ॥ नोवेदकृतपूर्वोऽयं, प्रस्नोऽध क्रिवते कथम् ॥ १७६ ॥ यावेति सूक्मी त्यूचे, पृच्छसीदं कुतोऽद्य माम् ? ॥ सरसा रसक्त्याऽऽगा-न्नित्यं हि समये स्वयम् ।। १८० ॥ सूदोऽवादीदद्यपा-ब्दिकं तत्सपरिच्छदः॥ उपोषितोऽस्ति नः स्वामी, पृच्छामि तदिदं तक ॥ १८१॥ अवन्तीशोऽवदत्साधु, पर्वेद ज्ञापित त्वया । नत्ममाप्युषासोऽद्य, पितरी श्रावको हि मे ! ॥ १८२ ॥ तत्प्रयोतवचः सूदो-ऽप्याख्यद्वीतभयप्रमोः॥ राजाऽप्युवाच श्राद्धोऽसौ, याडशो वेधि- तादृशम् ॥१८३ ।। मायाश्राद्धेऽपि किन्त्वस्मिन् , बद्धे पर्युषणा मम ॥ न शुद्धयतीति प्रद्योत-मुवायननृपोऽमुचत् ॥१४॥ क्षमास्थाम्नोः Vallaमस्तं चाड-क्षमयत्स क्षमाधवः । पट्टवन्धं च भालाई, तस्थानादयितुं ददौ ॥ १८५ ।। तदादिपवन्धोफि, श्रीचिन्हं भूभुजाम areasERTAYEE PARAMAN Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१२॥ अध्य०१८ ॥१२॥ sveeree EEVEEVEE VEE VEETEEVEEL भृत् ।। मौलिमेव हि ते मौलौ, पुरा तु दधिरेऽखिलाः ॥१८६॥ तस्मै देशं च तं सत्य-सन्धः सिन्धुप्रभुर्ददौ । अतीतासु च वर्षासु, पुरं| | वीतभयं ययौ ॥१८७॥ वणिजस्ते तु तत्रैव, स्कन्धावारास्पदेऽवसन् ॥ पुरं दशपुरावं त-तैरेव च ततोऽभवत् ॥ १८८ ॥ अन्यदोदा- यननृपः, पौषधौकसि पौषधी ॥ धर्मजागरिकां जाग्र-द्रजन्यामित्यचिन्तयत् ॥१८६॥ धन्यास्ते नगरपामा-करद्रोणमुखादयः ॥ पवित्रयति यान् श्रीमान् , वर्धमानो जगद्गुरुः!॥१६०॥ श्रुत्वा वीरवीभोवाणी, श्राद्धधर्म श्रयन्ति ये ॥दीक्षामाददते ये च, धन्यास्तेऽपि नृपादयः ! ॥११॥ तच्चेत्पुनाति पादाभ्यां, पुरं वीतभयं विभुः । तदा तदन्तिके दीक्षा-मादाय स्यामहं कृती ! ॥१६२॥ तच्च तचिन्तित ज्ञात्वा, चम्पातः प्रस्थितः प्रभुः ॥ एत्य वीतभयोद्याने, समवासरदन्यदा ॥ १६३ ॥ श्रुत्वाऽथ नाथमायात--मुदायननृपो मुदा ॥ गत्वा नत्वा देशनां च, निशम्येति व्यजिज्ञपत् ।। १६४ ॥ राज्यमङ्गजसात्कृत्वा, व्रतार्थ युष्मदन्तिके ॥ यावदायाम्यहं ताव-पावनीयमिदं वनम् ॥१६॥ प्रतिबन्धं मा कृथास्त्व-मित्युक्तः स्वामिना ततः॥ उदायनो जिनं नत्वा, गृहं गत्वेत्यचिन्तयत् ॥ १६६ ॥ सुतायाभीचये राज्यं, यदि दास्यामि साम्प्रतम् । तदाऽसौ मूच्छितस्तत्र, भ्रमिष्यति भवे चिरम् ! ॥१७॥ आपातसुन्दरं राज्यं, विपाके चातिदारुणम् ॥ तदिदं न हि पुत्राय, दास्ये विषफलोपमम् ! ॥१९८॥ध्यात्वेति राज्ये विन्यस्य, जामेयं केशिनं नृपः ॥ जिनोपान्ते प्रवव्राज, केशिराजकृतोत्सवः ॥१६६। तपोभिरुपवासाद्यै-र्मासान्तरतिदुष्करैः । शोषयन्कर्म कार्य च, राजर्षिविजहार सः ॥२००॥ अन्यदा तद्वपुष्यन्त-प्रान्ताहारैरभूद्रजा ।। भिषजो भेषजं तस्या, रुजोऽभिदधिरे दधि ॥ २०१॥ उदायनमुनिप्रष्ठो, गोष्ठेषु व्यहरत्ततः ॥ दधिभिक्षा हि निर्दोषा, तेष्वेव सुलभा भवेत् ॥२०२॥ पुरे वीतभयेऽन्येद्यरुदायनमनिर्ययौ । केशिभूपस्तदामात्यै-रित्यूचेऽहेतुवैरिभिः ॥२०१॥ परिषहैर्जितो नूनं, मातुलस्तव भूपते ! ॥ राज्यलिप्सुरिहायासी-ततो मा तस्य विश्वसीः ! ॥ २०४ ॥ केश्यूचे राज्यनाथोऽसौ, राज्यं गहणातु ceivelesleevee VeeVEVLEEVELEGE, Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥६३॥ . किं मम १ ॥ धनेशे गृह्णति द्रव्यं वणिक्पुत्रस्य किं रुपा १ ॥ २०५ ॥ श्रभ्यधुधसखा धर्मः, क्षत्रियाणां न खल्वयम् ॥ प्र राज्यं राजन्यैर्जनकादपि ॥ २०६ ॥ प्रतिदद्या न तद्राज्यं प्रत्यदान्न हि कोऽपि तत् ॥ तैरित्युक्तस्ततः केशी, किं कार्यमिति पृष्टवान् ? ॥२०७॥ दुष्टास्ते प्रोचुरेतस्मै, विषं दापय केनचित् ।। व्युद्ग्रा हितस्तैस्तदपि प्रतिपेदे स मन्दधीः ! ॥ २०८ ॥ ततः कयाचिदाभीर्या, स भूपः सविषं दधि ॥ तस्मै दापितवांस्तस्मा द्विषं चापाहरत्सुरी || २०६ ॥ विषमिश्रधिप्राप्ति - स्तव तन्मा ग्रहीस्ततः । इत्यूचे च मुनिं देवी, ततः सोऽपि तदत्यजत् ! ॥२१० ॥ विना दधि व्याधिवृद्धौ, भूयः साधुस्तदाददे ॥ तद्विषं च सुरी प्राग्व-ज्जहार व्याजहार च ।। २११ ॥ तृतीयवारमप्येवं, देवताऽपाहरद्विषम् । तद्भक्तिरागविवशा - ऽभ्रमत्तत्पृष्ठतच सा ! || २१२ ॥ अन्यदा च प्रमत्तायां, देव्यां सविषमेव सः ।। बुभुजे दधि भाव्यं हि भवत्येव यथातथा ! || २१४ ॥ त्रिंशद्दिनान्यनशनं, पालयित्वा समाहितः । केवलज्ञानमासाद्य, स राजर्षिः शिवं ययौ ।। २१५ ।। तस्मिन्मुक्तिं गते तत्रा - ऽऽगता सा देवता पुनः । ज्ञात्वा तथा मुनेरन्त--मन्तः कोपं दधौ भृशम् ! ॥ २१६ ॥ साऽथ वीतभये पांशु-वृष्टिं रुष्टा व्यधात्तथा ॥ यथा जज्ञे पुरस्थाने, स्थलं विपुलमुच्चकैः ! ॥ २१७॥ शय्यातरं मुनेस्तस्य, कुम्भकारं निरागसम् ॥ सासुरी सिनपल्यां प्राग्, निन्ये हृत्वा ततः पुरात् ॥२१८॥ तस्य नाम्ना कुम्भकार - कृतमित्याह्वयं पुरम् । तत्र सा विदधे किं वा, दिव्यशक्तेर्न गोचरः ? ॥ २१६ ॥ इतश्च केशिनं राज्ये, यदा न्यास्थदुदायनः ॥ तदा तत्तनयोऽभीचि - रिति दूनो व्यचिन्तयत् ॥२२०॥ प्रभावतीकुक्षिभवे, सनये भक्तिमत्यपि ॥ सुते मयि सति क्ष्मापो, राज्यं यत्केशिने ददौ ॥ २२९ ॥ न हि चक्रे विवेकाऽहं पिता तन्मे विवेक्यपि ।। भागिनेयो हि नाऽऽनेयो, धाम्नीत्युक्तं जडैरपि । ।। २२२ ।। हित्वाऽङ्गजं निजं राज्ये, जामेयं न्यस्यतः पितुः ॥ वारकः कोऽपि किं नासी- दुर्निमित्तमभून्न किम् ? ॥ २२३ ॥ प्रभुः पिता मे यदि वा, यथाकामं प्रवर्त्तताम् ॥ न तूदायनसुनोर्मे, युज्यते अध्य० १८. ॥ ६३॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥ ४॥ RamaARERANCEmine केशिनम् ॥ २२४-।। इति दुःखाभिभूतोऽसौ निगत्य स्वाससम् ॥ चम्पाययं कूपिक-मालवसुपुत्रासामम॥२२॥ मध्य०१८ मिति विपुलां लक्ष्मी, बामदाबमनन्दनः ।। सुखं वास्थाणिकन, भूना कृरगौर ॥२२६ वाद्धर्मच सुचिरं यथावलापा-ineer लपत्ता व्यक्कारं तं स्मरंस्ताले, वैरं तत्तु जहाँ न सः। ॥२२६ ॥ पाल्मान्दानि भूयासित श्राइम स भूपः ॥ पिलमनालकमान अनशन-पाचिकं न्यधात् ॥२२८॥-मृत्वा ततोऽभूदसुरेश्वभीचि, पन्योपमायुविवो महदिन ततश्च्युतस्त्वेव महाविदे, कृत्वा भवं प्राप्स्पति सिद्धिसौधम् ॥ २२६॥ इति श्रीउदायनराजर्षिकथा ॥४८॥... मुलम्-तहेव कासीराया, सेमोसच्चपरक्कमे । कामभोमे परिच्चज, पहणे कम्ममहावण ॥ ४६॥.. ___व्याख्पा-'तथैव' तेनैव प्रकारेण 'काशिरानः काशिमण्डलाधिपतिः श्रेयसि प्रशस्पतरे सत्ये संयमे पराक्रमः सामर्थ्य यस्यासः | श्रेयासत्यपराक्रमः, कामभोगान् परित्यज्य "पहणेति प्रहतवान् , कमैव महापनमिवातिगहमतया कर्ममहावमम् ॥ ४६॥ मूलम् सहेव विजयो राया, आणढाकित्ति पव्वए । रज्जतु गुणसमिद्ध, पयहिन महायसो ॥ ५० ॥. या व्याख्या-तथैव विजयो राजा, आनष्टा सामस्त्येनापगता अकीर्तिरश्लाघा यस्य सः आनष्टाकीर्तिः, प्राकृतत्वासिलोफ "पव्यएति" MEE प्राबाजीत, राज्यं गुणैः समृद्धं सम्पन्न गुणसमृद्ध, प्राच्य 'तु' शब्दस्यापिशब्दार्थस्य भित्रक्रमस्येह योगामुणसमृद्धमपि 'प्रहाय त्यक्त्ता महायसा । इह च लघुचौ काशिराजो नंदनाह्वः सप्तमबलदेवो, विजयश्च द्वितीयबलदेव इति व्याख्यातमस्ति, तत एतौ तावन्यौ वा यथागमं वाच्यौ, निर्खयाभावाचात्र नामयोः कथा लिखितेति ॥ ५० ॥ मूलम् -तहेषुणं तवं किच्चा, अव्वक्खित्तेण चेअसा । महब्बलो रायरिसी, आदाय सिरसा सिरी ॥५१॥ HAMARAHAPATRANEERALERASTRY manpatibangali Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम अध्य०१८ ॥६५॥ AVEVE Oevere AVEVATE AVEV व्याख्या-तथैव उग्रं तपः कृत्वा अध्याक्षिप्तेन चेतसा महाबलो राजर्षिरादाय गहीत्वा शिरसेव शिरसा शिरःप्रदानेनेव जीवितनिर-4 पेक्षमित्यर्थः, 'श्रियं भावभियं संयमरूपां तृतीयभवे परिनिवृत इति शेषः । तत्कथा त्वेवम् अव भरतक्षेत्रे, नमरे हस्तिनापुरे ॥बलो मामाञ्तुलक्लो, वसुधाखण्डलोऽभवत् ॥१॥दीप्रमावती तस्य, जी राज्ञी प्रभावती ।। अन्यदा तु सुखं सुसा, सिंह स्वप्ने ददर्श सा ॥ २ ।। तया मुदितया पृष्टः, स्वप्नार्थमथ पार्थिवः ॥प्रोचे भावी तव सुतो ऽस्मत्कुलाम्भोषिचन्द्रमाः ॥३॥ तनिशम्य मुदं प्राप्ता, दधौ गर्भ प्रभावती ॥ काले च सुषुवै पुत्रं, पवित्रं पुण्यलक्षणैः॥४॥प्राज्यं जन्मोत्सवं कृत्ला, शिशोस्तस्वामियां व्यधात् ॥ महावल इति क्षमापः, प्रमोदाद्वैतमाश्रितः ॥ ५॥ लाल्यमानोऽथ थात्रीमि-वर्द्धमानः क्रमेण सः॥ कलाकलापमापनः, पुण्यं तारुण्यमासदत् ॥ ६ ॥ अष्टौ राजाङ्गजाः श्रेष्ठा, दिशां श्रिय इवाऽऽहताः ॥ एकेनाहना पितृभ्यां स, पर्यणायि महामहः ॥७॥ वधूवराणां तेषां च, यौतकं तद्ददौ नृपः ॥ वंश्यादासप्तमात्काम, दाभोक्तुं च यद्भवेत् ॥ ८॥ तामिः सदगुणकान्ताभिः, कान्ताभिः सममष्टभिः ॥ कामभोगान्यथाकाम, सोऽभुक्तः सततं ततः ॥४॥ साधुपञ्चशतीयुक्तः, वंश्यः श्रीविमला-हतः । आचार्यों धर्मघोषाख्यः, पुरे तत्राऽन्यदाऽऽययौ ॥ ॥ १०॥ तं च श्रुत्वाऽऽगतं तुष्ट-मनाः श्रीमान्महाबलः ॥ गत्वा | प्रणम्य शुश्राव, धर्म कर्ममलोदकम् ॥ ११ ॥ ततोऽत्राप्तः स वैराग्यं, मन्दभाग्यैः सुदुर्लभम् ॥ श्रीधर्मघोषसूरीन्द्र, प्रणम्येति व्यजिज्ञपत् ॥ १२ ॥ धर्मोऽसौ रोचते मां, जीवातुरिव रोगिणे ॥ तत्पृष्ट्वा पितरौ याव-दायामि व्रतहेतवे ।। १३ ।। तावत्पूज्यैरिह स्थेय, मयि बाले कृपालुभिः ॥ सरिरूचे युक्तमेत प्रतिबन्धं तु मा कृथाः ! ॥ १४ ॥ [युग्मम् ] सोऽथ गत्वा गृहं नत्वा, पितराक्त्यिवोचत । धर्मघोषगुरोधर्म, श्रुत्वाऽवापमहं मुदम् ॥ १५ ॥ तत्पूज्यानुनया दीक्षा-मादित्सेऽहं तदन्तिके ॥ सम्प्राप्यापि प्रवहणं, मग्निस्तिष्ठति PRAPTAARAA Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥ ६६ ॥ harsat || १६ ॥ मूच्छिता न्यपतत्पृथ्व्यां तच्च श्रुत्वा प्रभावती ॥ कथंचिल्लब्धसंज्ञा तु रुदतीति जगाद तम् ।। १७ ।। विश्लेषं म सोढुं पुत्र ! प्राणप्रियस्य ते । तद्यावत्स्मो वयं ताव - तिष्ठ पश्चात्परित्रजेः ॥ १८ ॥ कुमारः स्माह संयोगाः सर्वेऽमी स्वप्नसन्नि - भाः ।। नृणामायुश्च वातास्त—कुशाग्रजलचञ्चलम् ! ॥ १६ ॥ तन्न जानामि कः पूर्व, पश्चाद्वा प्रेत्य यास्यति ।। तदद्यैवानुजानीत, प्रव्रज्याग्रहणाय माम् ।। २० ।। देव्यूचे तव कायोऽयं, रम्योऽभिनवयौवनः ॥ भुक्त्वा तदङ्ग ! सौख्यानि गृह्णीया वार्द्धके व्रतम् ॥ २१ ॥ कुमारः स्माह रोगाढ्यं -ऽशुचिपूर्णे मलाविले || कारागार इवाऽसारे, कायेऽस्मिन् किं सुखं नृणाम् १ ॥ २२ ॥ किञ्च सत्यङ्गसामर्थ्ये, व्रतं युक्तं न वार्द्धके ॥ वार्द्धके ह्यक्षमतनोः, स्याद्विनाऽपि मनो व्रतम् ! || २३ || प्रभावत्यभ्यधादाभिः समग्रगुणधामभिः ॥ भोगान्सहाष्टभिः स्त्रीभि--भुंक्ष्व किं साम्प्रतं व्रतम् १ ॥ २४ ॥ महाबलोऽब्रवीत्क्लेश - साध्यैर्बालिशसेवितैः । दुःखानुबन्धिभिर्भोगैः, किं मे विषफलोपमैः १ ।। २५ ।। किञ्च मोक्षप्रदं मर्त्य-जन्मभोगकृते कृती ।। वराटिकाकृते रत्न-मित्र को हारयत्यहो ! ।। २६ ।। अम्बाऽवादीदिदं जात !, द्रव्य• जातं क्रमागतम् || स्वैरं विलस पुण्यद्रोः फलं येतदुपस्थितम् ! ॥ २७ ॥ श्रभ्यधाद्भूपभूर्मात - गोत्रिचोराग्निराजसात् ॥ क्षणाद्भवि यद्वित्तं, प्रलोभयति तेन किम् १ ॥ २८ ॥ किञ्च प्रेत्य सहाऽऽयाति, यो धर्मोऽनन्तशर्मदः ॥ धनं तद्विपरीतं त-समतामनुवीत किम् ? ॥ २६ ॥ राज्ञी जगौ वन्हिशिखा - पानवद्दुष्करं व्रतम् ।। कुमार ! सुकुमारस्त्वं कथङ्कारं करिष्यसि ९ ।। ३० ।। उवाच नृपभूः स्मित्वा, मातः ! किमिदमुच्यते ? ।। नराणां कातराणी हि व्रतं भवति दुष्करम् 1 ॥ ३१ ॥ पालयन्ति प्रतिज्ञां स्वां, वीराः प्राणव्ययेऽपि ये । परलोकार्थिनां तेषां न हि तद्दुष्करं परम् ! ॥ ३२ ॥ विहाय मोहं तत्पूज्या व्रताय विसृजन्तु माम् ॥ परोऽपि प्रेयते धर्म-चिकीः किं पुनरात्मजः १ ॥ ३३ ॥ तं तत्त्वविज्ञं वैराग्या-प्रकम्पयितुमक्षमौ ॥ व्रतार्थमन्वमन्येतां कथंचित्पितरौ ततः अध्य० १८ ॥६६॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०१८ | ॥१७॥ II ॥ ३४ ॥ सोऽथ मूर्दाभिषिक्तेना-ऽभिषिक्तस्तीर्थवारिभिः ॥ ज्योत्स्नासधर्मभिलिप्त--गात्रः श्रीचन्दनद्रवैः ॥ ३५ ॥ अदृष्ये देवदृष्ये द्वे, उत्तराध्य- 'हयलालोपमे दधत् ।। पापादादाशिरोन्यस्तै, राजन्माणिक्यमण्डनैः॥३६॥ विस्मेरपुण्डरीकाभ-पुण्डरीकेण राजितः॥ वेल्लकल्लोललोलान्यां, यनसूत्रम् | चामराम्यां च वीजितः ।। ३७ ।। सहस्रेण नृणां वाह्या-मारूढः शिबिका शुभाम् ।। चतुरङ्गबलाढ्य ना-ऽनुयातो बलभूभुजा ॥३८॥ ॥ ७॥ मेरीप्रभृतितूर्याणां, नादैगर्जानुकारिभिः ।। अकाण्डताण्डवारम्भं, जनयन्केलिकेकिनाम् ॥३६॥ हित्वा रमामिमां दीक्षा-मादत्ते यौवनेऽपि यः॥ सोऽयं कृतार्थ इत्युच्चैः, स्तूयमानोऽखिलेजनेः॥४०॥ ददानो दानमर्थिभ्य-श्चिन्तामणिरिवेहितम् ॥ प्राप पावितमाचार्यैः, पुरानिर्गत्य तद्वनम् ॥ ४१॥ [सप्तभिः कुलकम् ] याप्ययानादथोत्तीर्ण, पुरस्कृत्य महाबलम् ।। गत्वान्तिके गुरोस्तस्य, पितरावित्यवोचताम् ॥४२॥ प्रियः पुत्रोऽयमस्माकं, विरक्तो युष्मदन्तिके ॥ दीक्षां गृह्णाति तच्छिष्य-भिक्षां वो दद्महे वयम् ! ॥ ४३ ॥ ओमित्युक्तेऽथ गुरुभि-रेशानी दिशमाश्रितः ॥ सर्वान्मुमोचालङ्कारा-न्विकारानिव भूपभूः ॥४४ ॥ छिन्नमुक्तावलिमुक्ता-कल्पान्यश्रुणि मुञ्चती। गणती तानलङ्कारां-स्तदेत्यूचे प्रभावती ॥४५॥ जात ! त्वं जातुचिन्माभू-धर्मकृत्ये प्रमद्वरः ॥ आराधयेगुरुवचः, सन्मंत्रमिव सर्वदा ! ॥४६॥ अथ नत्वा गुरून् राज्ञि, राज्ञीयुक्ते ततो गते ॥ लोचं चकार भूपाल-नन्दनः पञ्चमुष्टिकम् ॥४७॥ धर्मघोषगुरून् भक्त्या, नत्वा चेति व्यजिज्ञपत् ॥ दीक्षानावं दत्त पूज्या, मज्जतो मे भवाणवे ! ॥४८॥ ततस्तैर्दीक्षितस्तीव्र, स व्रती पालयन्वतम् ॥ चतुर्दशाऽपि पूर्वाणि, पपाठ प्राज्यधीबलः ।।४६ ॥ तप्यमानस्तपोऽत्युग्रं, द्वादशाब्दी विहृत्य सः॥ मासिकानशनेनाभू-स्वलॊके पश्चमे सुरः ॥५०॥ तत्र चायं पूरयित्वा, सागराणि दशाऽऽयुषा ॥ न्यूत्वाऽभूद्वाणिजग्रामे, श्रेष्ठिश्रेष्ठः सुदर्शनः ॥५१॥ सम्यग्दर्शनपूतात्मा, द्योतयन् जिनशासनम् ॥ सहयलालामृदू धत् । इति 'घ' संज्ञकपुस्तके । हयलाना भश्वफेनः। २ श्वेतच्छत्रेण । ३.. स्वयं केशानुदखनत्, कुमारः पञ्चमुष्टिभिः। का इति 'घ' पुस्तके पाठः। RELEVVELVEVEGVEVIEVEVELEVATE PALEEEEEEEEEY VDI E stiyanda . natin -50Mitants twit N EYARasiation , Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THANI उत्तराध्य- यनसूत्रम् ॥६८ चिरं सुदर्शनस्तत्र, श्राद्धधर्ममपालयत् ॥ ५२ ॥ तत्र प्रामेऽन्यदा स्वामी, श्रीवीरः समवासरत् ॥ केकीबाब्दं तमायात, श्रुत्वा' श्रेष्ठी जहर्ष की अध्य०१८ सः॥५३॥ ततो नत्वा जिनं श्रुत्वा, धर्मस श्रेष्टिपुङ्गवः ॥ विरक्तो व्रतमादत्त, दत्तवितव्रजोऽथिषु॥५४॥ तत्रापि स श्रेष्ठिमुनिः सदङ्गपूर्वाणि पूर्वाण्यखिलान्यधीत्य ॥ कर्मचयासादितकेवलर्द्धि-भैजे महामन्दमुदारकीर्तिः॥५५॥ इति महाबलर्षिकथा॥"अयं पञ्चमाङ्गभणितो महाबल इहोतो, यदि चान्यः कोऽपि प्रतीतो भवति तदा स एवात्र वाच्यः" इति सप्तदशसूत्रार्थः ॥५१॥ इत्थं महापुरुषदृष्टान्तर्ज्ञानपूर्वकक्रियाफलमुपदयँ साम्प्रतमुपदेष्टुमाहमुलम्-कहं धीरे अहेऊहिं, उम्मत्तोव्व महिं चरे । एए विसेसमादाय, सूरा दढपरक्कमा ॥५२॥ व्याख्या-कथं केन प्रकारेण धीरोऽहेतुभिः क्रियावाद्यादिकल्पितकुहेतुभिः 'उन्मत्त इव' ग्रहगहीत इव तत्त्वापलपनेनालजालभाषितया 'महीं भुवं 'चरेद्' भ्रमेन्नैव चरेदित्यर्थः॥ कुत इत्याह-यत एते पूर्वोक्ता भरतादयो विशेष मिथ्यादर्शनेभ्यो जिनशासनस्य विशिष्टताम् 'मादाय' गृहीत्वा सूरा दृढपराक्रमा एतदेवाश्रितवन्त इति शेषः॥ ततस्त्वयाऽपि विशेषज्ञेन धीरेण च सता अत्रैव निश्चितं चेतो विधेय- | मिति ॥ ५२ ॥ किञ्चमुलम-अच्चंतनिआणखमा, सच्चा मे भासिआ वई । अतरिसु तरंतेगे, तरिस्सति अणागया ॥ ५३॥ व्याख्या-अत्यन्तं-अतिशयेन निदाने-कर्ममलशोधने क्षमा-समर्था अत्यन्तनिदानक्षमा, सत्या 'मे' मया भाषिता "वइति" वाक्, जिनशासनमेवाश्रयणीयमित्येवंरूपा । अनया चाङ्गीकृतया 'अताए: तीर्णवन्तः तरन्ति 'एक' अपरेसम्प्रत्यपि तत्कालापेक्षया क्षेत्रान्तरापेक्षया १ज्ञात्वा-इति" पुस्तके ॥ NEVEGEVEEVEEVEE VEE VEEVE Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनसूत्रम् उत्तराध्य- वा इत्थमभिधानं । तरिष्यन्तनागता भाविनो भव्या भवार्णवमिति शेषः ॥ ५३ ॥ यतश्चैवमतः अध्य०१८ मूलम्-कहं धीरे अहेऊहिं, अत्ताणं परिआवसे । सव्वसंगविणिमुक्के, सिद्ध हवइ नीरएति बेमि ॥५४॥ ॥६॥ व्याख्या-कथं धीरोऽहेतुभिः क्रियादिवादिकल्पितकुयुक्तिभिरात्मानं स्वं पर्यावासयेत् ? कथमात्मानं अहेत्वावासं कुर्यान्नैव कुर्यादि त्यर्थः । अथात्मनि कुहेतूनामवासने किं फलमित्याह सर्वे सङ्गा द्रव्यतो द्रव्यस्वजनादयो भावतस्तु मिथ्यात्वरूपत्वादेत एव क्रियादिवादास्तैर्विनिमुक्तो विरहितः सर्वसङ्गविनिमुक्तः सन् सिद्धो भवति 'नीरजा' निष्कर्मा । तदनेनाऽहेतुत्यागस्य सम्यग्ज्ञानहेतुत्वात् सिद्धत्वं फलमुक्तमिति सूत्रत्रयार्थः ॥५४॥ इत्थमनुशास्य विजह क्षत्रिययतिः, संजयोपि चिरं विहृत्य प्राप्तकेवलः सिद्ध इति ब्रवीमीति प्राग्वत् ॥ ॥अथ एकोनविंशमध्ययनम् ॥ ॥अहम् ॥ उक्तमष्टादशमध्ययनं, अथकोनविंशं मृगापुत्रीयमारम्यते । अस्य चायं सम्बन्धः, इहानन्तराध्ययने भोगर्द्धित्याग उक्तः, क | स चाप्रतिकर्मतया प्रशस्यतरः स्यादितीहाऽप्रतिकर्मतोच्यते, इति सम्बन्धस्यास्येदमादि सूत्रम् मूलम्-सुग्गीवे नयरे रम्मे, काणणुज्जाणसोहिए । राया बलभद्दत्ति, मिश्रा तस्सग्गमाहिसी ॥१॥ ___ व्याख्या-'सुग्रीवे' सुग्रीवाह, काननानि-वृहद्वताश्रयाणि वनानि उद्यानानि-क्रीडावनानि तैः शोभिते । राजा बलभद्र इति नाम्ना, मृगा नाम्नी तस्य 'अग्रमहिषी' प्रधानपनी ॥१॥ Ma मूलम्-तेसी पुत्ते बलसिरी, मिश्रापुत्तेत्ति विस्सुए । अम्मापिऊण दइए, जुवराया दमीसरे ॥२॥ सासिल Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य- व्याख्या-तयोः पुत्रो क्लश्रीरिति मातापितृकृतनाम्ना, मृगापुत्र इति च लोके विश्रुतः, अम्बापित्रोः 'दयितो' वैल्लभः, युवराजो, अध्य० १६ यनसूत्रम् दमिनामुपशमवतामीश्वरो दमीश्वरः, भाविकालापेक्षं चैतद्विशेषणम् ॥ २ ॥ | ॥१०॥ ॥१०॥का मूलम्—नंदणे सो उ पासाए, कीलए सह इस्थिहिं । देवो दोगुदगो चेव, निच्चं मुंइंअमाणसो ॥३॥ व्याख्या-'नन्दने' लक्षणोपेततया समृद्धिजनके 'स' मृगापुत्रः 'तुः पूरणे प्रासादे, क्रीडति सह स्त्रीभिः । क इव ? दोगुन्दको देव | इव, चः पूत्तौं । दोगुन्दकाश्च त्रायस्त्रिंशास्तथा च वृद्धाः-"त्रायस्त्रिंशा देवा नित्यं भोगपरायणा दोगुन्दका इति भण्यन्त इति" तथा नित्यं ।। मुदितमानसः ॥ ३ ॥ मूलम्-मणिरयणकुट्टिमतले, पासायालोअणे ठिओ। आलोएइ नयरस्स, चउक्कतिगचच्चरे ॥४॥ व्याख्या-स चाऽन्यदा मणयः-चन्द्रकान्तायाः, रत्नानि-कर्केतनादीनि. तैरुपलक्षितं कुद्धिमतलं यत्र तत्तथा तस्मिन्, 'प्रासादालोकने' प्रासादगवाक्षे स्थितः, आलोकते नगरस्य चतुष्कत्रिकचत्वराणीति सूत्रचतुष्कार्थः ॥ ४ ॥ ततो यदभूत्तदाह- . मुलम्-अह तत्थ अइच्छंतं, पासई समणसंजयं । तकनिअमसंजमधरं, सीलड्डू गुणागरं ॥ ५ ॥ व्याख्या-अथानन्तरं 'तत्र' तेषु त्रिकादिषु अतिक्रामन्तं पश्यति श्रमणसंयतं,श्रमणः शास्यादिरपि स्यादिति संयतग्रहवं, तपश्चानशनादि नियमाश्च-द्रव्याघभिग्रहाः संयमश्च प्रतीतः तान् धारयतीति तोनियमसंयमवरस्तम् । अत एव शीलमष्टादशसहस्ररूपं तेनाढ्यं शीलाढ्य, तत एव गुणानां ज्ञानादीनामाकर इव गुणाकरस्तम् ॥५॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DYREVE उत्तराध्यपनसूत्रम् ॥१.१॥ RVABAVEGVEGYVeSvervée मूलम्-तं देहइ मिआयुत्ते, दिंडीए अणिमिसाए उ । कहिं मन्नेरिस स्वं, दिट्ठपुवं मए पुरा ॥ ६॥ कामध्य०१८ .. व्याख्या-'त' मुनि "देहइत्ति" पस्पति मृगमपुत्रो दृष्ट्या "अशिमिसाए उत्ति” अनिमिषयैव, क्व 'मन्ये' जाने ईदृशं रूपं 'दृष्टपूर्व पर ॥११॥ पूर्वमपि अक्लोकितं मया 'पुरा' पूर्वजन्मनि ॥६॥ मूलम् -साहुस्स दरिसणे तस्स, अज्झवसाणमि सोहणे । मोहं गयस्स संतस्स, जाईसरणं समुप्पएणं ॥७॥ व्याख्या-"अज्मनसाणमित्ति" अध्यवसाने परिणाम शोभने क्षायोपशमिकभाववर्तिनि, 'मोह' क्वेदं मया दृष्टमिति चिन्तात्मकं गतस्य सतः, शेष व्यक्तमेवमग्रेऽपि ज्ञेयम् ॥ ७ ॥ || मूलम्-जाईसरणे समुप्पण्णे, मिापुत्ते महिडिए । सरइ पोराणि अं जाई, सामएणं च पुराकडं ॥८॥ व्याख्या-"पोराणिअंति" पौराणिकी प्राकतनीं 'जाति' जन्मेति सूत्रचतुष्कार्थः, ॥८॥ ततोऽसौ यच्चक्रे तदाहमूलम्-विसएसु अरज्जंतो, रज्जतो संजमंमि अ। अम्मापिअरं उवागम्म, इमं वयणमब्बवी ॥६॥ व्याख्या-विषयेष्वरज्यन्' रागमकुर्वन् , रज्यन् संयमे, चः पुनरर्थे, अम्बापितरौ उपागम्येदं वचनमब्रवीत् ।।६।। यदब्रवीत्तदर्शयतिमुलम्-सुआणि मे पंच महव्वयाणि, नरएसु दुक्खं च तिरिक्खजोणिसु । निविएणकामोम्हि महगणवाओ, अणुजाणह पव्वइस्लामि अम्मो ! ॥ १० ॥ व्याख्या-श्रुतानि प्राग्भवे इति शेषः, 'मे' मया पंच महाव्रतानि तथा नरकेषु दुःखं तिर्यग्योनिषु च, उपलक्षणत्वाद्देवमनुष्ययोश्च DISIS-माल Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१०२॥ ।॥१०२॥ SCIEPAPEveeeeeeeeeeeeeeeGY I यदःखं तदपि श्रुतं । ततः किमित्याह-निर्विएणकामो' निवृत्ताभिलाषोऽस्मि अहं, कुतो ? महार्णव इव 'महार्णवः संसारस्तस्मात् , यतश्चैवमतोऽनुजानीत मां 'प्रव्रजिष्यामि' सकलदुःखापनोदाय व्रतं ग्रहीष्यामि, "अम्मोति" मातुरामंत्रणम् ॥१०॥ अथ कदाचित्पितरौ भोगैनिमंत्रयत इति तनिषेधार्थमाहमूलम्-अम्मताय ! मए भोगा, भुत्ता विसफलोवमा। पच्छा कडुअविवागा, अणुबंधदुहावहा ! ॥११॥ व्याख्या-"विसफलोवमत्ति" विषमिति विषवृक्षस्तत्फलोपमाः तदुपमत्वं भावयति-'पश्चात् ' परिभोगानन्तरं कटुकविपाकाः, 'अनुबन्धदुःखावहा' निरन्तरदुःखदायिनः ॥११॥ किश्चमूलम्-इमं सरीरं अणिच्चं, असुइ असुइसंभवं । असासयावासमिण, दुक्खकेसाण भायणं ! ॥१२॥ । व्याख्या-"असुइत्ति" अशुचि स्वभावादेवापावनं, अशुचिभ्यां शुक्रशोणिताभ्यां सम्भवमुत्पन्नं अशुचिसंभवं, अशाश्वत आवासः प्रक्रमाज्जीवस्यावस्थानं यस्मिंस्तत्तथा, "इणंति" इदं, दुःखहेतवः क्लेशा दुःखक्लेशा ज्वरादयोरोगास्तेषांभाजनम् ॥१२॥ यतश्चैवमतःमूलम्-असासए सरीरंमि, रई नोवलभामहं । पच्छा पुरा य चइअव्वे, फेणबुब्बुअसन्निभे! ॥१३॥ व्याख्या अशाश्वते शरीरे रतिं नोपलमेऽहं पश्चाद्भुक्तभोगावस्थायां, पुरा वा अभुक्तभोगतायां त्यक्तव्ये। अनेन च कस्यामप्यवस्थायां मृत्योरनागमो नास्ति इति सूचितं, अत एव फेनबुबुदसनिमे ॥१३॥ मूलम्-माणुसत्ते असारंमि, वाहिरोगाण आलए। जरामरणपत्यम्मि, खणं पि न रमामहं ! ॥१४॥ NeeeeeeeeeeeeeeeeeGAGe NEVE Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य अध्य०१६ ॥ ॥१०॥ यनमत्रम् GELEGVOGNE ॥१०॥ व्याख्या-वाहीत्यादि-व्याधयोऽगाधबाधाहेतवः कुष्ठाद्याः, रोगा ज्वरादयस्तेषामालये, जरामरणग्रस्ते ॥१४॥ मूलम्-जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि अ।अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति जंतुणो! ॥१५॥ व्याख्या-अहो ! इति संबोधने, "दुक्खो हुत्ति" दुःख एव दुःखहेतुरेव संसारो यत्र क्लिश्यन्ते जन्मादिदुःखैर्जन्तवः ! ॥१॥ मूलम्-खित्तं वत्थु हिरण्णं च, पुत्तदारं च बंधवे । चइत्ता ण इमं देहं, गंतव्वमवसस्स मे ! ॥१६॥ व्याख्या-'वत्थुति' वास्तु गहाट्टादि ॥१६॥ मूलम्-जहा किंपागफलाणं, परिणामो न सुन्दरो । एवं भुत्ताण भोगाणं, परिणामो न सुन्दरो ! ॥१७॥ ___व्याख्या-[ स्पष्टा ] एवं भोगादीनामसारतामुक्त्वा दृष्टान्तद्वयेन स्वाशयं प्रकाशयन्नाह ॥१७॥ मूलम्-अद्धाणं जो महंतं तु, अपाहिज्जो पवज्जई । गच्छंतो सो दुही होइ, छुहातगहाहिं पीडिए ॥१८॥ * व्याख्या-"अपाहिज्जोति" 'अपाथेयः शम्बलरहितः 'प्रपद्यते' स्वीकरोति ॥१८॥ मूलम्-एवं धम्म अकाऊणं, जो गच्छइ परं भवं । गच्छंतो सो दुही होइ, वाहिरोगेहिं पीडिए ॥१६॥ ____ व्याख्या-[स्पष्टा ] उक्तव्यतिरेकमाह ॥१६॥ मूलम्-अद्धाणं जो महंतं तु, सपाहिज्जो पवज्जइ । गच्छंतो सो सुही होइ, छुहातहाविवज्जिओ ॥२०॥ एवं धम्म पि काऊणं, जो गच्छइ परं भवं । गच्छंतो सो सुही होइ, अप्पकम्मे अवेअणे ॥२१॥ EGEVEEGEA FFEKTEVEEVZELAVEVA Neeeeeee Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥ १०४ ॥ व्यख्या- [ सुगमे नवरं ] "श्रव्यकम्मेति" अन्यदापकर्मा, "अवेलेति" श्रल्पासातवेदनः ।। २० ।। २१ ।। मूलम् — जहा गेहे पलितंमि, तस्स गेहस्स जो पहू । सारभंडाई नीणेह, असारं वा ॥२२॥ व्याख्या- 'सारभाण्डानि' महामूल्यवस्त्रादीनि " नीणेइत्ति" निष्काशयति "अवउज्झइत्ति" अपोहति त्यजति ॥ २२ ॥ मूलम् एवं लोए पलित्तंमि, जराए मरणेस य । अप्पाणां तारइस्लामि, तुमेहिं श्रणुमन्निश्री ॥ २३ ॥ व्याख्या- " पलितमित्ति" प्रदीप्त इव प्रदीप्ते व्याकुलीकृते आत्मानं सारभाण्डतुम्यं तारयिष्यामि, असारं तु कामभोगादि त्यक्ष्यामीति भाव इति सूत्रपदकार्थः ॥ २३ ॥ एवं तेनोक्ते यत्पितरावूचतुस्तद्विंशत्या स्त्रैर्दर्शयतिमूलम् - तं बिंतम्मापिरो, सामरणं पुत्त दुच्चरं । गुरणारणं तु सहस्साई, धारेअव्वाइं भिक्खुणो ॥ २४ ॥ व्याख्या - तमिति मृगापुत्रं, गुणानां श्रामण्योपकारकाणां शीलाङ्गरूपाणां तुः पुरणे ।। २४ ॥ मूलम् ——समया सव्वभूएसु, सन्तुमितेसु वा जगे । पाणाईवायविरई, जावज्जीवाई दुक्करं ॥२५॥ व्याख्या–‘समता’ रागद्वेषत्यागेन तुल्यता, सर्वभूतेषु शत्रुमित्रेषु वा 'जगति' लोकेऽनेन सामायिकमुक्तं । तथा प्राणातिपातविरतिर्यावज्जीवं दुष्करमेतदिति शेषः ।। २५ ।। मुलम् -निच्चकालप्पमत्तेणं, मुसावायविवज्जणं । भासिश्रव्वं हि सच्चं, निच्चाउत्तेण दुक्करं ॥ २६ ॥ व्याख्या— नित्यकालाप्रमत्तेन, 'नित्यायुक्तेन' सदोपयुक्तेन, यच्चान्त्रयव्यतिरेकाभ्यामेकस्यैवार्थस्याभिधानं तत्स्यष्टार्थत्वाददुष्टमेवेति ॥२६॥ अध्य०१६ ॥१०४॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्ययनसूत्रम् ॥१०॥ VEGEVEEVCEVAveve vendevee VVE मूंगम्-दंतसोहणमाइस्स, अदिण्हास्स विवज्जणं । अखवज्जेसणिउजस्स, गिराहणा अवि दुक्कर ॥२७॥ व्याख्या-"दंतसोहणमाइस्सत्ति" मकारोऽलाक्षणिकः, अपेश्च गम्यत्वादन्तशोधनादेरपि आस्तामन्यस्य, किञ्च दत्तस्याऽपि अनवद्यै- HERE अध्य०१४ पणीयस्यैव "मिमहणत्ति" ग्रहणम् ॥ २७॥ मूलम्-विरई अबंभवेरस्स, काममोगरसण्मुरा । उग्गं महव्वयं बंभ, धारेअव्वं सुदुक्करं ॥२८॥ ____ व्याख्या-"कामभोगरसम्मुणत्ति" कामभोगरसज्ञेन त्वयेति शेषः, तदनभिज्ञस्य हि कदाचिद्विषयेच्छा न स्यादपीत्येवमुक्तम् ॥२८॥ मूलम्-धणपनपेसवग्गेसु, परिग्गहविवज्जाणा । सव्वारंभपरिचाओ, निम्ममत्तं सुदुक्करं ॥२६॥ ___ व्याख्या-धनधान्यप्रेष्यवर्गेषु परिग्रहः स्वीकारस्तद्विवर्जनं, सर्वे ये आरम्मा द्रव्योपार्जनार्थ व्यापारास्तत्परित्यागः ॥ २६ ॥ | मूलम्-चउठिवहेवि आहारे, राईभोअणवज्जणा । संनिहिसंचओ चेव वजेअव्वो सुदुक्कर ॥३०॥ ___ व्याख्या–संनिधिधु तादेरुचितकालातिक्रमेण स्थापनं, स चासौ सञ्चयश्च संनिधिसञ्चयः ॥ ३० ॥ एवं व्रतषट्कदुष्करतोक्ता, अथ | | परीषहदुष्करतोच्यतेमूलम्-छुहा तण्हा य सी उगह, दंसमसगवेषणा । अक्कोसा दुवख सिज्जा य, तणफासा जल्लमेव य ॥३१॥ तालणा तज्जणा चेव, वहबंधपरीसहा। दुक्खं भिक्खायरिया, जायणा य अलाभया ॥३२॥ व्याख्या—'ताडना' कराद्यैर्हननं 'तर्जना' अङ्ग लिभ्रमणादिरूपा, वधो लकुटादिप्रहारः बन्धो-मयूरबन्धादिस्तावेव परीषही वधबन्धपरी - Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनमूत्रम् ॥१०६॥ अध्य० १६ | ॥१०६॥ EleEVEE VEGVEGVEVERAGE पहो, “दुक्खंति” दुःखशब्दोऽसौ प्रत्येकं योज्यः क्षुधादुःखमित्यादि "जायणा यत्ति' चकारोऽनुक्तपरीषहसमुच्चयार्थः ॥ ३१ ॥ ३२ ॥ प्रा जा डमा वित्ती, केसलोओ अ दारुणो । दुक्ख बंभव्वयं घोरेउं अमहप्पणा ॥ व्याख्या-कपोता:-पक्षिविशेषास्तेषामियं कापोती या इयं वृत्तिः, यथा हि ते नित्यं शंकिताः कणादिग्रहणे प्रवर्त्तन्ते, एवं मुनिरप्येषणादोषेभ्यः शङ्कमान एव भिक्षादौ प्रवर्तते । यच्चेह ब्रह्मचर्यस्य पुनदुर्धरत्वोक्तिस्तदस्यातिदुष्करताज्ञप्त्यै । "अमहप्पणत्ति" अमहात्मना सता ॥ ३३ ॥ उपसंहारमाहमूलम्-सुहोइओ तुम पुत्ता !, सुकुमालो अ सुमज्जिओ। नहुसि पहु तुमं पुत्ता !, सामण्णमणुपालिआ॥३४॥ व्याख्या 'सुखोचितः सुखयोग्यः सुकुमारः, सुमज्जितः सुष्टु-अभ्यंगनादिपूर्व मज्जितः-स्नपितः, सकलालङ्कारोपलक्षणमेतत् । इह च सुमज्जितत्वं सुकुमारत्वे हेतुः, द्वयञ्च तत् सुखोचितत्वे, ततो "नहुसित्ति" नैवासि 'प्रभुः समर्थः, श्रामण्यमनुपालयितुम् ॥३४॥ असमर्थतामेव दृष्टान्तैः समर्थयन्नाह| मूलम्-जावज्जीवमविस्सामो, गुणाणं तु महब्भरो! गरुओ लोहमारुव्व, जो पुत्तो ! होइ दुव्वहो ॥३५॥ व्याख्या-'अविश्रामो' निरन्तरः 'गुणानां' मुनिगुणानां, 'तुः' पूरणे, महाभरो गुरुको लोहमार इव, यः पुत्र ! भवति दुर्वहः, स | वोढभ्य इति शेषः ॥ ३५॥ मूलम्-आगासे गंगसोमओव्व, पडिसोओव्व दुत्तरो । बाहाहि सागरो चेव, तरिअव्वो गुणोदही ॥३६॥ AVEVE VEEVEE VE FEEEEEEE Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " - DIRE . - उत्तराध्ययनसूत्रम् मध्य०१६ - ॥१०७॥ ॥१०७॥ - A A व्याख्या-बाकागजाश्रोतोबस्तर इति योज्यते, लोकरूड्या चेदात। तथा प्रविभोतोवतकोठा यथा प्रदीपबननाह: शेषनद्यादौ दुस्वरः, बाहुभ्यां "सागरो चेवत्ति" सागरवच्च दुस्तरो यः, स तरितव्यो गुणाः ज्ञानाद्यास्त एवोदधिगुणोदधिः॥३६॥ मूलम्-वालुवाकवले चेच, निस्स्साए उ. संनमे । असिधासगमणं चेव, दुक्करं चरिउं.तवो ॥३७॥ व्याख्या-"वालुमाकवले वेवत्ति" क पूरखे, इत्यौपम्ये, एवमुचरनामपि । ततो घालुकाकाल इव 'निशस्वयों नीरस विप द्धानां वैरस्यहेतुत्वात् ॥ ३७॥ मुलम्-अहिवेगंतदिट्ठीए, चरिते पुत्त ! दुच्चरे । जवा लोहमया चेव, चावेअव्वा सुदुक्करं ! ॥३८॥ | व्याख्या-अहिरिव एकोऽन्तो निश्चयो यस्याः सा तथा, सा चासौ दृष्टिश्चैकान्तदृष्टिस्तया, अहिपते दृशाऽन्यत्र तुबुद्धयोपलचितं चारित्रं, हेपुत्र ! दुष्करं। अयं भावः-यथा नागोनन्याक्षितया दृश्योपलक्षितं स्यात्तथाऽनन्यव्याक्षिप्तया. बुद्धयोपलचितं चारित्रं दुष्करं, ॥ इन्द्रियमनसा दुर्जयत्वादिति । यवा लोहमया इव चर्वयितव्याः, लोहमययवचर्वणवद्दष्करं चारित्रमिति भावः ॥ ३८॥ मूलम्-जहा अग्गिसिहा दित्ता, पाउं होइ सुदुक्करं । तह दुक्करं करेउं जे, तारूणणे समणवणं ॥३६॥ * व्याख्या-"अग्गिसिहत्ति" सुब्व्यत्ययादमिशिखा दीप्तां पातु भवति सुदुष्करं नृभिरिति शेषः, 'जे' इति पूत्तौं, सर्वत्र ॥ ३६ ।। मूलम्-जहा दुःखं भरेउं जे, होइ वायस्स कुस्थलो । तहा दुक्करं करेउं जे, कीवेणं समणत्तणं ॥४०॥ व्याख्या कोत्थल इह वस्त्रादिम्यो ग्राहः, चर्ममयो हि सुखेनैव प्रियते इति, 'क्लीवेन' निःसत्त्वेन ॥ ४०॥ PAN Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् अध्य०१३ ॥१०॥ ॥१०॥ EEVEEVES VEEVAPAAVEVEELGERE मूलम्-जहा तुलाए तोलेडं, दुक्कर मंदरो गिरी। तहा निहुअनीसंकं, दुक्कर समणत्तणं ॥४१॥ ___ व्याख्या-"निहुअनीसंकंति" निभृतं-निश्चलं निश्शङ्क-शरीरनिरपेक्षं यथा स्यात्तथा ॥ ४१ ॥ मूलम्-जहा भुआहिं तरिउं, दुक्करं रयणायरो । तहा अणुवसंतेणं, दुक्करं दमसायरो ॥४२॥ व्याख्या-"अणुवसंतेणंति" अनुपशान्तेनोत्कटकषायेण 'दमसागर' उपशमसमुद्रः, इह केवलस्योपशमस्य प्राधान्यात्समुद्रोपमा, पूर्व तु गुणोदधिरित्यनेन सकलगुणानामिति न पौनरुक्त्यम् ॥ ४२ ॥ यतश्चैवं ततः मूलम्-भुज माणुस्सए भोए, पंचलक्खणए तुमं । भुत्तभोगी तो जाया , पच्छा धम्म चरिस्ससि ॥४३॥ ____ व्याख्या-'पंचलक्खणएत्ति" 'पञ्चलक्षणकान्' पञ्चस्वरूपान् , पश्चाद्वार्द्धक "चरिस्ससित्ति" चरेरिति विंशतिसूत्रार्थः ।। ४३॥ इति पितृभ्यामुक्ते मृगापुत्रो यदूचे तदेकत्रिंशता सूत्रैराहमूलम्-सो बिंतम्मापिअरो ! एवमेअं जहाफुडं । इह लोए निप्पिवासस्स, नत्थि कचि विदुक्करं ॥४४॥ व्याख्या-'स' मृगापुत्रो बते, हे अम्बापितरौ ! एवमिति यथोक्तं भवद्भ्यां तथैव, एतत् प्रव्रज्यादुष्करत्वं, यथा स्फुटं सत्यतामनतिक्रान्तं सत्यमित्यर्थः । तथापि इहलोके 'निष्पिपासस्य' निःस्पृहस्य नास्ति किञ्चिदतिकष्टमप्यनुष्ठानं, अपिः सम्भावने, दुष्करम् ॥४४ ॥ निःस्पृहताहेतुमाहमूलम्-सारीरमाणसा चेव, वेअणाओ अणंतसो । मए सोढाओ भीमाओ, असइं दुक्खभयाणि अ॥४५॥ NEEEVEEEEEEEEEVEVEEVEGVEGVEE Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥१०॥ CEEEEVEE EVEEVEeveeverer व्याख्या-शारीरमानस्यश्चैव पूरणे, वेदना अनन्तशो मया सोढा 'भीमा' रौद्राः 'असकृत्' वारं वारं दुःखानि दुःखोत्पादकानि । अध्य०१६ भयानि राजविड्वरादिजनितानि दुःखभयानि, चः समुच्चये ॥४५॥ मूलम्-जरामरणकंतारे, चाउरते भयागरे । मए सोढाणि भीमाणि, जम्माणि मरणाणि अ॥४६॥ | ॥१०६॥ व्याख्या-जरामरणाभ्यामतिगहनतया कान्तारमिव जरामरणकान्तारं तस्मिन् , 'चतुरन्ते' देवादिगतिचतुष्कावयवे भयाकरे भवे इति शेषः ॥ ४६ ॥ शारीरमानस्यो वेदना यत्र प्रौढाः सोढास्तदाहमूलम्—जहा इहं अगणी उगहो, एत्तोऽणंतगुणा तहिं । नरएसु वेअणा उण्हा, अस्साया वेइआ मए ॥४७॥ व्याख्या—यथा इह मनुष्यलोकेऽग्निरुष्ण इतोऽस्मादग्नेरनन्तगुणाः "तहिं" तेषु नरकेषु येष्वहमुत्पन्न इति भावः, तत्र च बादराग्नेरभावात् पृथिव्या एव तथाविधः स्पर्श इति ज्ञेयं । ताश्च वेदना उष्णानुभवात्मकत्वेन 'असाता' दुःखरूपाः ॥ ४७ ॥ मूलम्-जहा इहं इमं सीअं, एत्तोऽणंतगुणा तहिं । नरएसु वेअणा सीआ, अस्साया वेइआ मए ॥४८॥ __व्याख्या-यथेदमनुभूयमानं माघमासादिसम्भवमिह शीतम् ॥४८॥ मूलम् -कंदतो कंदुकुभीसु, उडूपाओ अहोसिरो । हुआसिणे जलंतम्मि, पक्कपुव्वो अणंतसो ॥४॥ _ व्याख्या- क्रंदन 'कंदुकु'भीसु' लोहादिमयीषु पाकभाजनविशेषरूपासु हुताशने देवमायाकृते ॥१६॥ मूलम्-महादवग्गिसंकासे, मरुम्मि वइरवपालु । कलंबवालुआए अ, दडपुव्वो अणंतसो ॥५०॥ PERS DIVERSE BELEEVELESS Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स उचराध्य- व्याख्या - महादवानिको, अनाम्यस्य ताहगाहकारस्यामायादेवाला प्रोमा, अन्यथा वित्याग्नेस्वंततुया एका तत्रोष्णः पृथि-मध्य०१६ यनस्त्रम् । व्यनुभाक् इति । “ममिति तस्च्याचव्यपदेशसम्भाइम्बोषणार्थवाच महौ' मलालुकानिकलकलो, "वहरवालुएत्ति" बज्रवालु- ११०॥ ॥११०॥ ME कानदीपुलिने, 'कदम्बवालुकाया कदम्बवालुकानदीपुलिने च ॥५०॥ PL मूलम्-रसंतो कंदुभीसु, उड्ढे बद्धो अबंधवो । करवत्तकरकयाईहिं, छिन्नपुवो अणंतसो ॥५१॥ - व्याख्या-रसन्नाकंदन कंदुकुंभीषु क्षिप्तः, 'ऊर्ध्व' वृक्षशाखादौ 'बद्धो' माध्यमितोऽनक्षीदिति नियंत्रितः। क्रकचं करपत्रविशेष एव ॥५१॥ मूलम् अइतिक्खकंटयाइण्णे, तुगे सिबलिपायवे । खेविसं पासबद्ध णं, कड्ढोकड्ढाहिं दुक्कर ॥५२॥ व्याख्या-'खेविअंति" खिन्नं खेदोऽनुभूतः मयेति गम्पते, "कड्ढोकड्ढाहिति" आकर्षणाप्रकर्षणैः परमाधार्मिककृतैः 'दुष्करं ? दुःसहमिदमिति शेषः ॥५२॥ का मूलम्-महाजंतेसु उच्छूवा, आरसंतो सुभेरवं । पीलिओम्मि सकम्मेहि, पावकम्मो अणंतसो ॥५३॥ ali व्याख्या- "उच्छूवत्ति" इक्षव इव, आरसन्मानंदन ॥५३॥ IFI मूलम्-कूवंतो कोलसुणएहिं, सामेहिं सवलेहि अ। पाडिओ फालिओ छिन्नो, विप्फुरतो अणेगसो ॥५४॥ व्याख्या-कूजनानंदन् , 'कोलशुनकैः' शूकरश्चानरूपधरैः श्यामैः शवलैश्च परमाधार्मिकविशेषैः पातितो भुवि, पाटितो जीर्णवस्त्रवत् , छिनो वृक्षयत् , विस्फुरमितस्ततश्चलन् ।॥५४॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M मूलम्-असीहि अयसीवण्णाहिं, भल्लीहिं पट्टिसेहिय। छिन्नो भिन्नो विभिन्नो अ, उववरणो पावकम्मुणा ॥५५॥ l उत्तराध्य अध्य०१६ ___ व्याख्या-'असिभिः' कृपाणैः "अयसिवण्णाहिति" अतसीकुसुमवणैः कृष्णरित्यर्थः, भल्लीभिः पट्टिशैश्च आयुधविशेषः 'छिन्नो' यनसूत्रम् ॥११॥ ॥१११॥ द्विधाकृतो, 'भिन्नो' विदारितो, 'विभन्नः' सूक्ष्मखण्डीकृतः अवतीर्णः पापकर्मणा हेतुना नरके इति शेषः ॥५॥ मूलम्-अवसो लोहरहे जुत्तो, जलंते समिलाजुए। चोइओ तोत्तजोत्तेहिं, रोज्झो वा जह पाडिओ ॥५६॥ व्याख्या 'लोहरथे' लोहमये शकटे 'युक्तो' योजितो 'ज्वलति' दीप्यमाने कदाचित्ततो दाहभिया नश्येदपीत्याह-समिलायुते' युगकीलिकायोक्त्रादियुक्ते "चोइप्रोत्ति" प्रेरितः 'तोत्रयोक्त्रैः' प्राजनकबन्धनविशेषः, "रोझोवत्ति" रोज्झः पशुविशेषः वा समुच्चये भिन्नक्रमच, यथेत्यौपम्ये, ततो रोझवत्पातितश्च लकुटादिपिट्टनेनेति शेषः ॥५६॥ | मूलम्-हुआसणे जलंतमि, चिआसु महिसो विव । दड्ढो पक्को अ अवसो, पावकम्मेहिं पावित्रओ ॥५७॥ | व्याख्या–हुताशने ज्वलति क्वेत्याह-चितासु परमाधार्मिकरचितासु महिष इव 'दग्धो' भस्मसात्कृतः ‘पक्यो' भडित्रीकृतः, पापकर्मभिः | | "पाविश्रोत्ति " 'प्राप्तो' व्याप्तः, प्रापितो वा नरकम् ॥५७॥ मूलम्-बला संडासतुडेहि, लोहतुडेहिं पक्खिहिं । विलुत्तो विलवंतोऽहं, ढंकगिद्धे हिंऽणंतसो ॥५८॥ ___ व्याख्या—'बलात्' हठात् सन्दंशाकाराणि तुण्डानि येषां ते सन्दशतुण्डास्तैः, तथा लोहतुण्डैः पक्षिभिर्डङ्कगृरिति योगः, एते च वैक्रिया एव, तत्र तिरश्वामभावात् । 'विलुप्तो' विविधं छिन्नो विलपन्नहमिति ॥५॥ EEEEEEEEEEEEEEEEVE eV LEVEGVEZEVEEELEVEGELEVER Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य- मूलम् - तगहा किलंतो धावतो, पत्तो वेअरणिं नई । जले पाहंति चिंतंतो, खुरधाराहिं विवाइओ ॥५६॥ अध्य०१६ यनसूत्रम् | व्याख्या-"विवाइनोति" व्यापादितः ॥५६॥ SH॥११२॥ ॥११२॥ १२॥ मूलम-उपहाभितत्तो संपत्तो, असिपत्तं महावणं । असिफ्तेहिं पडतेहि, छिन्नपुवो अणेगसो ॥३०॥ व्याख्या-उष्णेन-वज्रवालुकादितापेनाभितप्तः सम्प्राप्तोऽसयः खङ्गास्तद्वभेदकानि पत्राणि यत्र तदसिपत्रम् ॥६०॥ मूलम्-मुंग्गरेहिं मुसंढीहि, सूलेहिं मुसलेहि अ। गयासं भग्गगत्तेहि, पत्तं दुक्खमणंतसो ॥६१॥ ___ व्याख्या-मुद्गरादिभिः शस्त्रविशेषैः गता-नष्ठा आशा-परित्राणविषया यस्मिंस्तद्गताशं यथास्यादेवं "भग्गगत्तेहित्ति" भग्नगात्रेण सत्ता मयेति शेषः ॥६१॥ मूलम्-खुरेहिं तिक्खधाराहिं, छुरिाहिं कप्पणीहि अ। कप्पीओ फालिओ छिन्नो, उक्कित्तो अ अणेगसो ६२ ___ व्याख्या–अत्र कल्पितः 'कल्पनीभिः' कर्तरीभिर्वस्त्रवत्खण्डितः 'पाटितः" ऊर्ध्व द्विधाकृतः 'छिन्नः' तिर्यक् खण्डितश्च क्षुरिकामिः, Kill 'उत्कृत्तश्च त्वगऽपनयनेन सुरैरिति योगः ॥६२॥ मूलम् पसेिंहिं कूडजालेहि, मित्रो वा अवसो अहं । वाहिओ बद्धरुद्धो अ, बहुसो चेव विवाइओ ॥६३॥ व्याख्या—'वाहिश्रोत्ति" वञ्चितः बद्धो-बन्धनै रुद्धी-बहिःप्रचारनिवारणेन, “विवाइओति" विनाशितः ॥६३॥ का मूलम् –गलेहिं मगरजालेहि, मच्छो वा अवसो अहं । उल्लिओ फालियो गहियो, मारिओ अअणंतसो॥६॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥११३॥ व्याख्या—गलैडिशेर्मकरैर्मकररूपैः परमाधार्मिकैर्जालैश्च तस्कृतैरनयोर्द्वन्द्वः, "उल्लियोति " उल्लिखितो गलैः पाष्टितो मकरैगृहीतश्च || अध्य०१६ जालैारितश्च सर्वैरपि ॥६४॥ ॥११३॥ मूलम्-दिसएहिं जालेहिं, लिप्पाहि सउणो विव । गहिरो लग्गो अ बद्धो अ, मारिओ अ अणंतसो ६५ व्याख्या विशेषेण दशन्तीति विदंशकाः-श्येनादयस्तैर्जालैस्तथाविधवन्धनैः, "लिप्पाहिति" लेपैर्वज्रलेपायैः 'शकुन इब' पक्षीव गृहीतो विदंशकैलंग्नश्च लेपद्रव्यैः श्लिष्टः, बद्धो आलारितश्च सर्वैरपि ॥६५॥ . | मूलम्-कुहाडपरसुमाईहिं, वठ्ठइहिं दुमो विव । कुडिओ फालिओ छिन्नो, तच्छिओ अ अणंतसो ॥६६॥ ___ व्याख्या-अत्र 'कुट्टितः' सूक्ष्मखण्डीकृतः ‘तक्षितश्च त्वगपमयमेन ॥६६॥ मूलम्-चवेडमुष्टिमाईहि, कुमारेहिं अयं पिव । ताडिओ कुटिओ भिन्नो, चुणिओ अ अणंतसो ॥६॥ व्याख्या-चपेटामुष्टयादिभिः 'कुमारैः' अयस्कारैः 'श्रय इव' लोहमिव पनादिभिरिति शेषः, 'ताडितः' पाहतः, कुट्टितः इह | छिन्नो 'भिन्नः' खण्डीकृतः 'चूर्णीतः सूक्ष्मीकृतः ।।६७॥ मलम-तसाई संबलोहाई. सरप्राणि सीसगाणि अपाडो कलकलंताई, आरसंतो सुभेरव ॥६॥ व्याख्या-तप्तताम्रादीनि वैक्रियाणि पृथिव्यनुमाघभूतानि वा, "कलकलंताईति" अतिक्वाथतः कलकलशब्दं कुर्वन्ति ॥६॥ | मूलम-तुहं पिआई मसाई, खंडाई सोल्लगाणि अ । खाइनोमि समंसाई, अग्गिवसण्याइं रोगसो ॥६६॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥११४॥ eee ॥११४॥ PADE LEVEELAEZALECELA व्याख्या-तव प्रियाणि मांसानि ! 'खण्डानि' खण्डरूपाणि 'सोल्लकानि' भडित्रीकृतानीति स्मरयित्वा खादितोस्मि, 'स्वमांसानि' मच्छरीरादेवोत्कृत्य ढौकितानि अग्निवर्णान्युष्णतया ॥६॥ मूलम्-तुहं पित्रा सुरा सीह, मेरो अ महणि अ । पजिओमि जलंतीओ, वसाओ रुहिराणि अ॥७॥ ___ व्याख्या-सुरादयो मद्यविशेषा इहापि स्मरयित्वेति शेषः, "पज्जिप्रोमित्ति" पायितोऽस्मि ॥७॥ मूलम्-निच्चं भीएण तत्थेणं, दुहिएणं वहिएण य । परमा दुहसंबद्धा, वेअण्णा वेइआ मए ॥ ७१ ॥ व्याख्या भीतेनोत्पन्नभयेन, बस्तेनोद्विग्नेन 'दुःखितेन' जातविविधदुःखजातेन, 'व्यथितेन' कम्पमानसर्वाङ्गन ॥ ७१ ॥ मूलम्-तिव्वचंड प्पगाढाओ, घोराओ अइदुस्सहा । महाभयाओ भीमाओ, नरएसुवेइआ मए ॥७२॥ व्याख्या-तीबा अनुभागतोऽत एव चण्डा उत्कटाः, प्रगाढा गुरुस्थितिकास्तत एव 'घोरा' रौद्रा अतिदुस्सहाः, तत एव महाभयाः 'भीमाः' श्रूयमाणा अपि भयप्रदाः, एकाथिकानि वा एतानि, इह च वेदना इति प्रक्रमः॥ ७२ ॥ कीदृशं पुनस्तासां तीव्रादिरूपत्वमित्याहमूलम्-जारिसा माणुसे लोए, ताया। दीसंति वेपणा । एत्तो अणंतगुणि, नरएसुदुक्खवेअणा ७३ __ व्याख्या-[ सुगमा ] ॥ ७३ ॥ न च नरक एव दुःखवेदना मयाऽनुभूताः, किन्तु सर्वगतिष्वपि इत्येतदेवाहमूलम्-सव्वभवेसु असाया-वेपणा वेइआ मए । निमेसंतरमित्तंपि, जं साया नस्थि वेअणा ॥७४॥ व्याख्या-सर्वभवेष्वसातवेदमा वेदिता मया, निमेषस्यान्तरं व्यवधानं यावताकालेनासौ भृत्वा पुनर्भवति तन्मात्रमपि कालं, 'यत्साता' VEEREEEEEEEE Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pाअध्य०१६ Pा ॥११॥ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥११॥ GIRDशससससस सुखरूपा नास्ति वेदना, वैषयिकसुखस्यापीpधनेकदुःखानुबिद्धत्वेन विपाककटुत्वेन चाऽसुखरूपत्वात् । सर्वस्य चास्य प्रकरणस्यायमाशयो येन मयैवं दुःखान्यनुभूतानि सोहं तत्त्वतः कथं सुखोचितः सुकुमारो वा ? येन चेदृश्यो नरकादिव्यथाः सोढास्तस्य कथं दीक्षा दुष्करेत्यतोऽसौ मया ग्राह्य वेत्येकत्रिंशत्सूत्रार्थः ॥ ७४ ॥ तत्रेत्थमुक्त्वा स्थिते मूलम्-तं बिंतऽमापिअरो, छदेणं पुत्त ! पव्वया । नवरं पुण सामगणे, दुक्खं निप्पडिकम्मया ॥७॥ ___व्याख्या-"छंदेणंति" छन्दसाऽभिप्रायेण यथारुचीत्यर्थः पुत्र ! प्रव्रज, 'नवरं' केवलं, पुनर्विशेषणे, 'दुःखं दुःखहेतुनिःप्रतिकर्मता रोगाद्यत्पत्ती प्रतिकाराकरणमिति सूत्रार्थः ।। ७५ ॥ इत्थं पितृभ्यामुक्ते मुगापुत्रः स्माहमूलम्-सो वितऽम्मापिअरो !, एवमेअं जहा फुडं । परिकम्मं को कुणइ, अरगणे मिअपक्खिणं ? ॥७६॥ व्याख्या–स व्रते हे अम्बापितरौ ! एवमेतन्निःप्रतिकर्मताया यदःखरूपत्वमुक्तं यथा 'स्फुटं सत्यं, परं परिभाव्यतामिदं, 'परिकर्म चिकित्सां कः करोत्यरण्ये मगपक्षिणां ? तेऽपि च जीवन्ति विचरन्ति च, ततः किमस्या दुःखरूपत्वमिति भावः ॥ ७६ ॥ ततश्चमूलम्-एगभूओ अरगणे वा, जहा उ चरई मिगो । एवं धम्मं चरिस्सामि, संजमेण तवेण य ॥७॥ व्याख्या-'एकभूतः एकत्वम्प्राप्तः "अरपणेवत्ति" अरण्येष्टव्यां, वा पूरणे, "जहा उत्ति" यथैव चरति मगः, एवं धर्म चरिष्यामि संयमेन तपसा च हेतुभूतेन ॥ ७७ ॥ मूलम-जया मिअस्स आर्यको महारगणमि जायई । अच्छतं रुक्खमूलमि, कोणं ताहे तिगिच्छई ? ७८ VELEEVEVEVGVEGVEGEVEE EVENTO AAN Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥११६॥ व्याख्यानं तिष्ठन्तं वृचमूखे “कोमंति" क एवं ''वाहेन्दि" तदा 'चिकित्सति' श्रीपाद्युपदेशेन नीतेन करोति ? न कश्चिद्वित्यर्थः । अन्यत्र हि कदाचित्कोऽपि दृष्ट्वा चिकित्सेदपीति महारण्ये इत्युक्तम् ॥ ७८ ॥ मूलम्को वा से सहं देइ, को का से पुच्छई सुहं । को वा से भत्तपाणं वा, हरिस पशामय १७६ व्याख्या—“भचपाणंति” भक्तं तृणादि, पानं जलादि, आहृत्य प्रणामयेदयेत् ? ।। ७६ ॥ कथं तर्हि तस्य निर्वाहः १ इत्याहमूलम् - जया य से सुही होइ, तथा गच्छइ गोश्ररं । भक्त्तपाणस्स श्रट्टाए, वल्लराणि सराणि ॥८०॥ यदा च स सुखी भवति स्वत एव रोगाभावात्, तदा गच्छति गोरिव चरणं - भ्रमणं गोचरस्तं, 'वल्लराणि' गहनानि सरांसि च ||८०|| मूलम खाइचा पाणिचं पाउं, वल्लरेहि सरेहि अ । मिमचारिचं चस्तिा गं गच्छई मिचारियं ॥ ८१ ॥ व्याख्या:- खादित्वा निजभक्ष्यमिति शेषः, पानीयं पीत्वा, वल्लरेषु सरस्सु च मृगाणां चर्या इतश्च इतश्च उत्प्लवनात्मकं चरणं मृगचर्या तां चरित्वाऽऽसेन्यः गच्छति, मृगाणां चर्या चेष्टा स्वातंत्र्योपवेशनादिका यस्यां सा मृगचर्या मृगाश्रयभूस्ताम् ॥ ८१ ॥ इत्थं दृष्टान्तसुक्ला गाधाइयेनोपसंहारमाह मूलम एवं समुट्ठिते भिक्खू, एवमेव श्ररोगगो । मिगचारित्र्यं चरित्ता गं, उड्डू पक्कमई दिसिं ॥८२॥ व्याख्या— एवं मृगवत्समुत्थितः संयमानुष्टानम्प्रत्युद्यतस्तथाविधातङ्कोत्पत्तावपि न चिकित्साभिमुख इति भावः एवमेव मृगवदेवानेकगी sir वृतले नैकस्मिन्नेवास्ते, किन्तु कदाचित् क्वचिदेवं मुनिरप्यनियतस्थानतया स चैवं मृगचर्यां निष्प्रतिकर्मत्वादिरूपां 'चरित्वा' Cererere अध्य० १६ ॥११६॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥११७॥ ऽऽसेा अपमताशेषकांश ऊर्ध्वं 'प्रक्रामति' गच्छति दिशं सर्वोपरिस्थानस्थो भवतीति भावः ॥ ८२ ॥ मृगचर्यामेव स्पष्टयतिमूलम् जहा मिए एग अगचारी अोगवासे धुवगो अरे । एवं मुणी गोअरि पविट्ठे, नो हीलए नोवि अ खिंसइज्जा ॥८३॥ व्याख्या—यथा मृग 'एको'ऽद्वितीयो 'अनेकचारी' अनियतचारी, नैकत्रैव वासोऽवस्थानमस्येत्यनेकवासो ध्रुवगोचरश्च, सदा गोचरलब्धमेवाहारयतीति । एवं मृगवदेकत्वादिविशेषणविशिष्टो मुनिचर्या प्रविष्टो नो हीलयेदवजानीयात्कदनादीति गम्यं नापि च “खिसएज्जत्ति” निन्देदाहाराप्राप्तौ स्वं परं चेति सूत्राष्टकार्थः ॥ ८३ ॥ एवं मृगचर्यास्वरूयं निरुप्य यत्तेनोक्तं यच पितृभ्यां यच्चार्य चक्रे तदाहमुलम् -- मिमचारिचं चरिस्सामि, एवं पुत्ता ! जहासुहं । अम्मापिईहिंऽगुरारणाओ, जहाइ उवहिं तो ८४ व्याख्या--मृगयेव चर्या मृगचर्या ता निःप्रतिकर्मतादिकां चरिष्यामीति कुमारेणोक्ते पितृभ्यामभाणि, एवं हे पुत्र 1- भक्ती यथा रुचितं तथा, सुखं ते भवत्विति शेषः । इत्थं ताभ्यामनुज्ञातो 'जहाति' त्यजति 'उपधि' परिग्रहं ततः ।। ८४ ॥ उक्तमेव अर्थ सविस्तरमाहमूलम् - मिचारयं चरिस्सामि सब्बदुक्खविमोक्खणीं । तुल्भेहिं समगुरणाश्रो, गच्छ पुत्त ! जहासुहं ८५ व्याख्या- "गच्छ पुत्तत्ति ॥ गच्छ पुत्र ! मृगचर्ययेति प्रक्रम, यथासुखं सुखस्यानतिक्रमेणेति पित्रोर्वचः ॥ ८५ ॥ मूलन एवं सः आमाफित्र, अणुमाता बहुविहं । ममत्तं छिदई ताहे, महानागुक्ा कंचुः ॥८६॥ व्याख्या एवं समातापितरौ अनुमान्यामुज्ञाप्य ममत्वं बिमति, "ताहेति" तदा महानाग इव कञ्चुकं यथाऽसौ चिरप्रस्टत्तयाऽति अध्य०१६ ॥११७॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनस्त्रम् ॥११८॥ ॥११॥ PAAAAAAAAAAENA | जरठमपि कञ्चुकमपनयति यथाऽयमप्यनादिभवाभ्यस्तमपि ममत्वमिति ॥ ८६ ॥ अनेनान्तरोपधित्याग उक्तो, बहिरुपधित्यागमाह- ॥अध्य०१६ | मूलम्-इड्ढी वित्तं च मित्ते अ, पुत्त दारं च नायो । रेणुअंव पडे लग्गं, निद्ध णित्ता ण निग्गओ ॥८॥ ___ व्या०-'ऋद्धिं' करितुरगादिसम्पदं "नायोति" 'ज्ञातीन् ' स्वजनान् “निश्रुणित्तत्ति" 'निर्दू य' त्यक्त्वा 'निर्गतो' गृहानिफ्रान्तः प्रव्रजित इति सूत्रचतुष्कार्थः ।।८७॥ ततोऽसौ कीदृक् जातः, किश्च तस्य फलमभूदित्याहमूलम-पंचमहव्वयजुत्तो, पंचहिं समिओ तिगुत्तिगुत्तो अ। सभितरबाहिरए, तवोवहाणंमि उज्जुत्तो ॥८॥ "पंचहिति" पंचभिः समितिभिरिति शेषः, "सभितरेत्यादि" साभ्यन्तरे बाह्य तपसि उपधाने च श्रुतोपचाररूपे 'उद्युक्तः' उद्यमवान् । | मूलम्-निम्ममो निरहंकारो, निस्संगो चत्तगारवो । समो अ सव्वभूएसु, तसेसु थावरेसु अ॥८६॥ लाभालाभे सुहे दुक्खे, जीविए मरणे तहा । समो निंदापसंसासु, समो माणावमाणो ॥६॥ गारवेसु कसाएसु दंडसल्लभएसु अ । निअत्तो हाससोगाओ, अनिआणो अबंधणो ॥१॥ व्या०-गौरवादीनि पदानि सुव्यत्ययात् पञ्चम्यन्ततया व्याख्येयानि, निवृत्त इति सर्वत्र योज्यं, 'अबन्धनो' रागादिबन्धनरहितः ॥८६॥६ ॥३१॥ | मूलम्-अणिस्सिओ इहं लोए, परलोए अणिस्सिओ। वासीचंदणकप्पो अ, असणे अणसणे तहा ॥२॥ व्या०-अनिश्रित इह लोके परलोके च, नेह लोकार्थ परलोकार्थ वा तपोऽनुष्टायीति भावः । "वासीचंदणकप्पो अत्ति" सूचकत्वा EVEVELSEVIEVE EVLEESVEEVEEVE DAND Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतराध्य यनसूत्रम् ॥ ११६ ॥ सूत्रस्य वासीचन्दनव्यापारकपुरुषयोः कल्पस्तुल्यो यः स तथा तत्र वासी सूत्रधारस्य दारुतक्षणोपकरणं । 'अशने' श्राहारे 'अनशने च' तदभावे, कल्प इत्यत्रापि योज्यम् ॥६२॥ मूलम् - अप्पसत्थेहिं दारेहिं, सव्वओ पिही आसवो अज्झष्पज्झाणजोगेहिं, पसत्थदमसासणो ॥६३॥ व्या० – अप्रशस्तेभ्यो द्वारेभ्यः कर्मोपार्जनोपायेभ्यो हिंसादिभ्यः 'सर्वतः ' सर्वेभ्यो निवृत्त इति गम्यते, अत एव 'पिहिताश्रवो' रुद्धकर्मागमः । कैरयमीदृशोऽभूदित्याह - "अज्झप्पेत्यादि " अध्यात्म आत्मनि ये ध्यानयोगाः शुभध्यानव्यापारास्तैः प्रशस्तो दमः - उपशमः शाशनं च जिनागमात्मकं यस्य स तथेति ॥ ६३ ॥ मूलम् - एवं नाणेण चरणेणं, दंसणेण तवेरण य । भावसाहि अ सुद्धाहिं, सम्मं भाविन्तु अयं ॥६४॥ "भावणाहिंत्ति " भावनाभित्र तविषयाभिरनित्यतादिभिर्वा, शुद्धाभिर्निनिंदानाभिः सम्यग् 'भावयित्वा' तन्मयतां नीत्वा श्रात्मानम् ॥ मूलम् - बहुआणि उ वासाखि, सामण्णमणुपालिया । मासिएण उ भतेणं, सिद्धिं पत्तो अणुत्तरं ॥६५॥ व्या०—“ मासिएण उत्ति” मासिकेन, तुः पूतौं, “भत्तेगंति " भीमो भीमसेन इतिन्यायाद्भक्तेन भक्तप्रत्याख्यानेन मासिकानशनेनेत्यर्थः । इति सूत्रष्टकार्थः ॥ ६५॥ अथोपसंहारपूर्वमुपदिशमाह - मूलम् - एवं करंति संबुद्धा, पंडिया पविचक्खणा । विमिति भोगेसु, मियापुत्ते जहामिसी ॥६६॥ व्या० – “जहामिसीत्ति " यथा ऋषिर्मकारोऽलाक्षणिकः ॥ ६६ ॥ पुनः प्रकारान्तरेणोपदेशमाह- अध्य०१६ ॥ ११६॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् : ११२०॥ मूलम् - महापभावस्स महाजसस्स, मित्राइपुत्तस्स निसम्म भासि । तवप्पहाणं चरि च उत्तमं गइप्पहाणं च तिलो विस्सु ॥६७॥ व्या० – “ भासिअंति” भाषितं संसारस्य असारत्वदुःखप्रचुरत्वावेदकं, “गइप्पहाणं चत्ति" प्रधानगतिं च सिद्धिरूपां त्रिलोकविश्रुताम् मूलम् - विदुक्खविवगुणं धणं, ममत्तबंधं च महभयावहं । सुहाव धम्मधुरं गुत्तरं, धारेह निव्वाणगुणावहं महंति बेमि ॥६८॥ व्या० – धनं दुःखविवर्द्धनं विज्ञाय 'ममत्वबन्धं च ' स्वजनादिममत्वपाशं च महाभयावहं विज्ञाय, तत एव ऐहिकामुष्मिकभयावाप्तेः । सुखावहां धर्मधुरां अनुत्तरां धारयत । निर्वाणगुणा अनन्तज्ञानदर्शनाद्यास्तदावहां 'महंति' अमितमाहात्म्यतया महतीमिति सूत्रत्रयार्थः ॥ ६८ ॥ इति ब्रवीमीति प्राग्वत् ॥ * बंदी इति श्रीतपागच्छीयमहोपाध्याय श्रीविमलहर्षगणिशिष्यमहोपाध्याय श्रीमुनिविमलगणिभुजिष्योपाध्याय श्रीभावविजयगणिसमर्थितायां श्रीउत्तराध्ययनसूत्रवृत्तौ एकोनविंशमध्ययनं सम्पूर्णम् ॥ १६ ॥ Det Bettiere Fix WreetBrettcerts Brett. * मध्ययने "देवलोग चुच्चोसन्तो, माणसं भगमागओ । सन्निनाणसमुन्ने, जाई सरइ पुराणयं" इत्यष्टमसूत्रं कचिदृश्यते ॥ अध्य०१६ ॥१२०॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनमूत्रम् Vevericeve ॥ अथ विंशतितममध्ययनम् ॥ अध्य०२० ॥१२॥ ॥१२१॥ ॥अहम् ॥ उक्तमेकोनविंशमध्ययनमथ महानिर्ग्रन्थीयाख्यं विंशतितमं प्रस्तूयते, अस्य चायमभिसम्बन्धोऽनन्तराध्ययने निःप्रतिकर्म| तोक्ता, सा चानाथत्वभावनेनैव पालयितुं शक्येत्यनाथत्वमेवानेनाऽनेकविधमुच्यते । इत्यनेनसम्बन्धेनायातस्यास्येदमादिसूत्रम् मूलम्-सिद्धाण नमोकिच्चा, संजयाणं च भावो । अत्थधम्मगइं तच्च, अणुसिटुिं सुणेह मे ॥१॥ ___ व्या०–'सिद्धेभ्यः' तीर्थकरादिसिद्धेभ्यो नमस्कृत्य, 'संयतेभ्यश्च' आचार्योपाध्यायसाधुभ्यो ‘भावतो' भक्त्या । अोहितार्थिभिः प्रार्थ्यः स चासौ धर्मश्चार्थ्यधर्मस्तस्य गतिज्ञानं यस्याः सा अर्थ्यधर्मगतिस्तां "तच्चंति" 'तथ्या' अविपरीतार्था 'अनुशिष्टिं' शिक्षा शृणुत, 'मे' मया कथ्यमानामिति शेषः । स्थविरवचनमेतदिति सूत्रार्थः ॥१॥ अथ धर्मकथानुयोगत्वादस्य धर्मकथाकथनद्वारा शिक्षामाहमूलम्-पभुअरयणो राया, सेणिओ मगहाहिवो विहारजत्तं निजाओ, मंडिकुच्छिसि चेइए ॥२॥ ____ व्या०-प्रभूतानि रत्नानि वैडूर्यादीनि सारगजाश्वादिरूपाणि वा यस्य स तथा "विहारजतंति" 'विहारयात्रया' क्रीडार्थमश्ववाहनिकादिरूपया 'निर्यातो' निर्गतो नगराद्गतश्च मण्डितकुक्षिनाम्नि 'चैत्ये' उद्याने ॥२॥ तदुद्यानं कीदृशमित्याह मूलम्-नाणादुमलयाइएणं, नाणापक्खिनिसेवि। नाणाकुसुमसंछन्नं, उजाणं नंदणोवमं ॥३॥ M तत्थ सो पासई साहु, संजयं सुसमाहि । निसन्नं रुक्खमूलंमि, सुकुमाल सुहोइअ॥ ४ ॥ Veeve - VEEVEE VEEVEE VEE VereeVeeverere veve Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥ १२२ ॥ व्याख्या - साधुः सर्वोऽपि शिष्ट उच्यते, ततः संयतमित्युक्तं । सोऽपि वहिःसंयमवाचिन्वादिरपि स्यादिति सुसमाहितमित्युक्तम् मूलम् - तस्स रूवं तु पासित्ता, राइणो तंमि संजय अञ्चतं परमो आसि, अउलो रूक्म् ि॥ ५ ॥ व्या० - "अच्चतं परमोत्ति" अतिशयप्रधानः 'अतुलो 'ऽतिमहान्, रूपक्षियो विस्मयो रूपविस्मयः ॥ ५ ॥ तमेव दर्शयतिमूलम् - अहो वो अहो रुवं, अहो अजस्स सोमया । अहो खंती अहो मुत्ती, अहो भोरो असंगधा ! ६. अहो ! आर्ये वर्णो गौरत्वादिः, 'रूपम्' आकारः 'आर्यस्य', मुनेः सौम्यता चन्द्रस्येव द्रष्टुरानन्ददायिता, 'असङ्गता' निःस्पृहता ||६|| मूलम् — तस्स पाए उ वंदित्ता, काऊरण य पयाहिणं । नाइदूरमणासन्ने, पंजली पडिपुच्छइ ॥ ७ ॥ व्या० – अत्र पादवन्दनानन्तरं प्रदक्षिणाभिधानं पूज्यानामालोक एव प्रणामः कार्यः इति ख्यापनार्थं, “बाइदूरमणासन्वेति " नातिदूरं न चासन्ने प्रदेशे स्थित इति शेषः ॥ ७ ॥ मूलम् — तरुणोऽसि अज्जो पव्वइओ, भोगकालंमि संजया । उबडिओऽसि सामरणे, एमट्ठ सुगामिता ८ व्याख्या - तरुणोऽसिचर्य ! अत एव भोगकाले प्रत्रजित इत्युच्यसे, उपस्थितश्व सर्वादरेण कृतोद्यमथासि श्रामण्ये, एतमर्थं निमित्तं येनार्थेन त्वमस्यामप्यवस्थायां प्रव्रजितः शृणोमि " ताइति ” तावत् पूर्वं पश्चात्तु यच्चं भणिष्यसि तदपि श्रोष्यामीति भावः । इति सूत्रका वयवार्थः, शेषं तु सुगमत्वात् न व्याख्यातमेवमग्रेऽपि ज्ञेयम् ॥ ८ ॥ इत्थं राज्ञोक्ते मुनिराह मूलम् — अणा होमि महाराय !, नाहो मज्झ न विज्जइ । अणुकंपगं सुहिं वात्रि, कंची नाभिसमेमहं ॥६॥ अध्य०२० ॥१२२॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१२३॥ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१२३॥ ॥ व्या०-अनाथोऽस्म्यहं महाराज ! किमिति ? यतो 'नाथो' योगक्षेमकारी मम न विद्यते । तथा 'अनुकम्पकं अनुकंपाकरं "सुहिति" सहदं वा कंचिद् 'नामिसमेमि' नामिसङ्गच्छामि न प्राप्नोमि, अहं इत्यनेनार्थेन तारुण्येऽपि प्रवजित इति भावः ॥६॥ एवं मुनिनोक्तेमूलम्-तो सो पहसिओ राया, सेणिओ मगहाहियो । एवं ते इडिमंतस्स, कहं नाहो न विजइ ? ॥१०॥ व्या०–एवं दृश्यमानप्रकारेण 'ऋद्धिमतो' विस्मापकवर्णादिसम्पत्तिमतः कथं नाथो न विद्यते ? वर्तमाननिर्देशः सर्वत्र तत्कालापेक्षया ज्ञेयः ॥ १० ॥ यदि चानायतेव व्रताङ्गीकारहेतुस्तर्हिमूलम्-होमि नाहो भयंताणं, भोगे भुजाहि संजया !। मित्तनाइपरिखुडो, माणुस्सं खु सुदुल्लहं ॥११॥ व्या०–भवामि नाथो भदंतानां, मयि च नाथे सति मित्राणि ज्ञातयो भोगाश्च सुलभा एघेत्याशयेनाह-भोगे इत्यादीति ॥११॥ मुनिराह मूलम-अप्पणावि अण्णाहोऽसि, सेणिआ ! मगहाहिवा !। - अप्पणा अणाहो संतो, कहं मे नाहो भविस्ससि ? ॥ १२॥ व्या०-[सुगमैव ] ॥ १२ ॥ एवं मुनिनोक्तेमलम्-एवं वुत्तो नरिंदो सो, सुसंभंतो सुविम्हिओ। वयणं अस्सुअपुव्व, साहुणा विम्हयन्निो ॥१३॥ "च्या०-इहैवमचरघटना, स नरेन्द्रः श्रेणिको "विम्हयन्निोत्ति" पूर्वमपि रूपादिविषयविस्मयान्वितः सन् , एवमुक्तनित्या वचनमश्रतपूर्व साधुना उक्तः सुसम्भ्रान्तः सुविस्मितश्च भूत्वा प्रोवाचेति शेषः ॥१३॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१२४॥ ॥१२४॥ NEFREEVEEVEEEEELEVERECELEVE | मूलम्-आसा हत्थी मणुस्सा मे, पुरं अंतेउरं च मे । भुजामि माणुसे भोए, आणाइस्सरिअं च मे १४ शाअध्य०२० ___ व्या०-"आणाइस्सरिअन्ति" आज्ञा-अस्खलितशासनरूपा ऐश्वर्य-समृद्धिः प्रभुत्वं वा ॥ १४ ॥ मूलम्-एरिसे संपयग्गंमि, सव्वकामसमप्पिए । कहं अणाहो भवइ, मा हु भंते मुसं वए ! ॥१५॥ व्या०-ईदृशे 'सम्पदने' सम्पत्प्रकर्षे "सव्वकामसमप्पिएत्ति" आपत्वात् 'समर्पितसर्वकामे' सम्पूरितसकलाभीप्सिते सति कथमनाथो भवति, पुरुषव्यत्ययाद्भवामि ? । अयं भावः-न नाथो अनाथः, स चाकिंचन एव स्यान पुनः सर्वाङ्गीणसम्पन्नाथोहमिति । 'मा हुत्ति' हुर्यस्मादर्थे, यत एवं ततो मा भदंत ! मृषावादीरिति सूत्रसप्तकार्थः ॥ १५ ॥ मुनिराहमूलम्–ण तुमं जाणे अण्णाहस्स, अत्थं पोत्थं च पत्थिवा !। जहा अणाहो हवइ, सणाहो व नराहिवा ! १६ ___ व्या०-न त्वं जानीषे 'अनाथस्य' अनाथशब्दस्यार्थमभिधेयं, प्रोत्था वा प्रकर्षणोत्था उत्थानं मूलोत्पत्ति, केनाशयेन मयाऽयमुक्त इत्येवंरूपां । अत एव यथा अनाथो भवति सनाथो वा तथा न जानसीति सम्बन्धः ॥१६॥ | मूलम--सुणेहि मे महाराय !, अव्वक्खित्तेण चेअसा । जहा अणाहो भवति, जहा मे अपवत्तिअं ॥१७॥ ___व्या०-शृणु मे कथयत इति शेषः, किं तदित्याह-यथा 'अनाथो' अनाथशब्दवाच्यः पुरुषो भवति,यथा 'मे अत्ति' मया च | 'प्रवर्तितं' परूपितं अनाथत्वमिति प्रक्रमः, अनेनोत्थानमुक्तम् ॥ १७ ॥ मूलम्-कोसंबी नाम नयरी, पुराणपुरभेअणी । तत्थ आसी पिआ मज्झ, पभूअधणसंचओ ॥१८॥ Neeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ।। १२५।। व्या० – पुराणपुराणि भिनत्ति स्वगुणैरसमानत्वात्स्वतो भेदेन व्यवस्थापयतीति पुराणपुर भेदिनी ॥ १८ ॥ मूलम् — पढमे वये महाराय !, अउला मे अच्छिवेणा । अहोत्था विउलो दाहो, सव्वगत्तेसु पत्थिवा ! १६ व्या० – प्रथमे वयसीह यौवने अतुला मे अक्षिवेदना 'अहोत्यत्ति' भूत् ॥ १६ ॥ मूलम् — सत्थं जहा परमतिक्खं, सरीरविवरंतरे। वीलिज्ज अरी कुद्धो, एव मे अच्छिणा ॥२०॥ व्या० - 'शरीरेत्यादि' शरीरविवराणि कर्णधारणादीनि तेषामन्तरं मध्यं शरीरविवरान्तरं तस्मिन् पीडयेत् समन्तादवगाहयेत् ॥ २० ॥ मूलम् - तिचं मे अंतरिच्छं च, उत्तिमंगं च पीडई । इंदासणीसमा घोरा, वेणा परमदारुणा ॥२१॥ व्या० - 'त्रिकं' कटिप्रदेशं मे, अंतरामध्ये इच्छां चाभिमतवस्त्वभिलाषं न केवलं बहित्रिकाद्येवेति भावः, 'पीडयति' बाधते वेदनेति | सम्बन्धः, इन्द्राशनिरिन्द्रवज्रं तत्समातिदाहोत्पादकत्वादिति भावः । 'घोरा' ऽन्येषामपि भयजनिका परमदारुणाऽतीवदुःखोत्पादिका ।। २१ ।। मूलम् - उट्टिया मे आयरिया, विज्जामंततिगिच्छगा । अबीया सत्थकुसला, मंतमूलविसारया ॥२२॥ व्या॰—‘उपस्थिताः' प्रतिकारम्प्रत्युद्यता 'आचार्याः' प्राणाचार्याः वैद्या इत्यर्थः, विद्यामंत्राभ्यां चिकित्सका व्याधिप्रतिकारकर्त्तारो विद्यामंत्र चिकित्सकाः, “अबीअत्ति" 'अद्वितीया' अनन्यसमानाः ॥ २२ ॥ मूलम् — ते मे तिगिच्छं कुव्वंति चाउप्पार्यं जहाहि । न य दुक्खा विमोअंति, एसा मज्झ अणाहया २३ व्या०—–“ चाउप्पायंति” ‘‘चतुष्पादां' भिषग्भेषजातुरप्रतिचारकात्मकभागचतुष्करूपां, “जहाहिअंति " यथाहितं हितानतिक्रमेण यथा अध्य०२० ॥१२५॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य धनसूत्रम् ॥१२६ ॥ rece ख्यातां वा यथोक्तम् ॥ २३ ॥ मूलम् — पिचा मे सव्वसारंपि, दिजाहि मम कारणा । न य दुक्खा विमोपइ, एसा मज्म श्राहया २४ व्या० – पिता मे 'सर्वसारमपि ' सर्वप्रधानवस्तुरूपं " दिज्जाहित्ति " दद्यात् ॥ २४ ॥ मूलम् - मायावि मे महाराय ! पुत्तसोगदुहद्विश्रा । न य दुक्खा विमोएइ, एसा मज्झ अणाया ॥२५॥ व्या०—“ पुतसोमदुहट्टिअत्ति " पुत्रशोकदुःखार्त्ता ॥ २५ ॥ मूलम् - भायरो मे महाराय !, सगा जिट्टकणिट्टगा । न य दुक्खा विमोति, एसा मम श्रणावा ॥२६॥ व्या० – “ सगत्ति " लोकरूढितः सौदर्याः, स्वका वा स्वकीयाः ॥ २६ ॥ मूलम् - भइओि में महाराय !, सगा जिट्टकणिट्ठगा । न य दुक्खा विमोचंति, एसा मज्झ अलाहा २७ भारिया मे महाराय !, अणुरता अणुव्वया । अ' सुपुराणेहिं नयणेहिं, उरं मे परिसिंचइ ॥ २८ ॥ व्या० - " अणुवयत्ति " 'अनुव्रता' पतिव्रता ॥ २७ ॥ २८ ॥ मूलम् - अन्नं पारणं च रहाणं च, गंधमल्लविलेवणं । मए गायमणायं वा, सा बाला नोवभुजइ ॥ २६ ॥ खणंऽपि मे महाराय !, पासओवि न फिटइ । न य दुक्खा विमोएइ, एसा मज्झ अगाहया ३० व्या० – “ पासओविति” पार्श्व तथ, "न फिट्टइसि " नापयाति ॥ २६ ॥ ३० ॥ अध्य० २० | ॥१२६॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१२८॥ aaaaa ॥ ३५ ॥ कुतो दीक्षादानादनु त्वं नाथो जातो न पूर्वमित्याह मूलम् - अप्पा नई वेअरणी, अप्पा में कूडसामली । अप्पा कामदुहा घेणू, अप्पा मे नंदणं वर्णं ॥३६॥ व्या० - आत्मेति वाक्यस्य सावधारणत्वादात्मैव नदी वैतरणी, 'नरकसम्बन्धिनी । श्रात्मन एवोद्धतस्य तद्धेतुत्वात् । अत एवात्मैव मे, कूटमिव जन्तुयातनाहेतुत्वाच्छाल्मली कूटशाल्मली, तथा आत्मैव कामदुघा धेनुरिव धेनुः, इयं च रूढित उक्ता, एतदौपम्यं च तस्य स्वर्गापवर्गादिसमीहितावाप्तिहेतुत्वात् । श्रात्मैव मे नन्दनं वनं, एतदौपम्यं चास्यैव चित्ताल्हादहेतुत्वात् ॥ ३६ ॥ मूलम् - अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाग य । अप्पा मित्तममित्तं च, दप्पट्टि सुपट्ठि ॥३७॥ व्या० - आत्मैव कर्त्ता दुःखानां सुखानां चेति योगः, 'विकरिता' च विक्षेपक आत्मैव तेषां अत एवात्मैव मित्रममित्रश्थ, कीदृशः सन् १ 'दुःप्रस्थितो' दुराचारः, 'सुप्रस्थितः ' सदनुष्ठानः । दुःप्रस्थितो ह्यात्मा समग्रदुःखहेतुरिति वैतरण्यादिरूपः, सुप्रस्थितश्च सकलसुखहेतुरिति कामधेन्वादिकल्पः । तथा च प्रव्रज्यायामेव सुप्रस्थितत्वात् स्वस्यान्येषां च योगक्षेमकरणक्षमत्वात् मम नाथत्वमिति सूत्रद्वयार्थः ॥ ३७ ॥ पुनरन्यथाऽनाथत्वमाह - मूलम्-इमा हु अन्नावि अणाहया निवा !, तमेगचित्तो निहु सुगाहि । निर्ऋटधम्मं लहिआरण वी जहा, सीदंति एगे बहु कायरा नरा ॥ ३८ ॥ व्या० - ' इमत्ति' इयं, हुः पूत, 'अन्या' अपरा 'अपि:' समुच्चये, अनाथता, यदभावादहं नाथो जात इति भावः । 'वित्ति' अध्य०२० ॥ १२८ ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०२० ॥१२८॥ उत्तराध्य- ॥३५॥ कुतो दीक्षादानादनु त्वं नाथो जातो न पूर्वमित्याहयनसूत्रम् | मूलम्-अप्पा नई वेअरणी, अप्पा मे कूडसामली । अप्पा कामदुहा घेणू , अप्पा मे नंदणं वणं ॥३६॥ ॥१२८॥ - व्या०-आत्मेति वाक्यस्य सावधारणत्वादात्मैव नदी वैतरणी, नरकसम्बन्धिनी । आत्मन एवोद्धतस्य तद्धेतुत्वात् । अत एवात्मैव मे, कूटमिव जन्तुयातनाहेतुत्वाच्छाल्मली कूटशाल्मली, तथा आत्मैव कामदुधा धेनुरिव धेनुः, इयं च रूढित उक्ता, एतदौपम्यं च तस्य स्वa पिवर्गादिसमीहितावाप्तिहेतुत्वात् । आत्मैव मे नन्दनं वनं, एतदौपम्यं चास्यैव चित्ताल्हादहेतुत्वात् ॥ ३६ ॥ मूलम्-अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दप्पटिअ सुपट्ठिओ ॥३७॥ | KI व्या०-आत्मैव कर्ता दुःखानां सुखानां चेति योगः, 'विकरिता' च विक्षेपक आत्मैव तेषां, अत एवात्मैव मित्रममित्रश्च, कीदृशः सन् ? || 'दुःप्रस्थितो' दुराचारः, 'सुप्रस्थितः' सदनुष्ठानः । दुःस्थितो ह्यात्मा समग्रदुःखहेतुरिति वैतरण्यादिरूपः, सुप्रस्थितश्च सकलसुखहेतुरिति धेन्वादिकल्पः। तथा च प्रव्रज्यायामेव सुप्रस्थितत्वात् स्वस्यान्येषां च योगक्षेमकरणक्षमत्वात् मम नाथत्वमिति सूत्रद्वयार्थः ॥ ३७॥ पुनरन्यथाऽनाथत्वमाह - मूलम्-इमा हु अन्नावि अणाहया निवा !, तमेगचित्तो निहुओ सुणाहि । निअंठधम्म लहिआण वी जहा, सीदंति एगे बहु कायरा नरा ॥३८॥ व्या०-'इमत्ति' इयं, हुः पूत्तौं, 'अन्या' अपरा 'अपिः' समुच्चये, अनाथता, यदभावादहं नाथो जात इति भावः । 'णिवत्ति' eeVeeve EVERGREEVEEVEELEVEN Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥ १२६॥ हेनृप ! तामनाथतामेक चित्तो 'निभृतो' स्थिरः शृणु । का पुनरसौ ? इत्याह- ' निर्ग्रन्थधर्मं ' साध्वाचारं लब्ध्वाऽपि, यथेत्युपदर्शने, 'सीदन्ति' तदनुष्ठानं प्रति शिथलीभवन्ति । 'एके' केचन 'बहु' प्रकामं यथास्यात्तथा 'कातरा' निस्सत्त्वा 'नरा' मनुष्याः । यद्वा बहुत इषन्निःसत्त्वाः, सर्वथा निःसत्त्वानां हि निर्ग्रन्थमार्गाङ्गीकार एव मूलतोऽपि न स्यादित्येवमुक्त' । सीदन्तश्च ते नात्मानमन्यांश्च रचितु ं क्षमा इतीयं सीदनलक्षणाऽपराऽनाथतेति भावः ॥ ३८ ॥ तामेव दर्शयति मूलम् - जो पव्वइत्ता ण महव्वयाई, सम्मं च नो फासयई पमाया । अणिग्गहप्पा यरसेसु गिद्ध, न मूल छिंदइ बंधणं से ॥३६॥ व्या—यः प्रव्रज्य महाव्रतानि सम्यग् न स्पृशति, न सेवते, प्रमादात् । 'अनिगृहीतात्मा ' अवशीकृतात्मा बन्धनं रागद्वेषात्मकम् ॥ ३६ ॥ मूलम् - उत्तया जस्स य नत्थि काई, इरियाई भासाइ तहसणाए । आयाणनिक्खेव दुगंछराए, न वीरजायं अणुजाइ मग्गं ॥४०॥ व्या—‘आयुक्तता ' सावधानता यस्य नास्ति काचिदतिस्वल्पापि । 'श्रयाणेत्यादि ' लुप्तविभक्तिदर्शनादादाननिक्षेपयोरुपकरणग्रहणन्यासयोः, तथा जुगुप्सनायां परिष्ठापनायां । इहोच्चारादीनां संयमानुपयोगितया जुगुप्सनीयत्वेनैव परिष्ठापनात् परिष्ठापनैव जुगुप्सनोक्ता । स मुनिर्वीरैर्यातो गतो वीरयातस्तं नानुयाति 'मार्ग' सम्यक्दर्शनादिकं मुक्तिपथम् ॥ ४० ॥ तथा च मूलम् - चिरंपि से मु'डरुई भवित्ता, अधिरव्वए तवनिअमेहिं भट्ठे । अध्य० २० ॥ १२६॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०२० ॥१३०॥ उत्तराध्य चिरपि अप्पाण किलेसइत्ता, न पोइए होई हु संपराए ॥४१॥ यनस्त्रम् व्या०—चिरमपि मुण्ड एवं मुण्डन एव सकलानुष्ठानविमुखतया रुचिर्यस्यासौ मुण्डरुचिर्भूत्वा, 'अस्थिरव्रतः' चञ्चलव्रतस्तपोनियम॥१३०॥ भ्यो भ्रष्टः, चिरमप्यात्मानं 'क्लेशयित्वा' लोचादिना बाधयित्वा, न पारगो भवति, हुर्वाक्यालंकारे, “संपराएचि" सम्पसयस्य संसारस्य ॥४१॥ मूलम्-पोल्लेव मुट्ठी जह से असारे, अयंतिए कूडकहावणे वा। राढामणी वेरुलिअप्पगासे, अमहग्घए होइ हु जाणएसु ॥४२॥ व्या०-पौल्लेव' सुपिरैव न मनागपि निविडा मुष्टियथा मुष्टिरिव स द्रव्यमुनिः असारः, असारत्वं च द्वयोरपि सदर्थशून्यत्वात् । अयंत्रितः कूटकार्षापण इव, यथाह्यसौ कूटत्वान केनापि नियंत्र्यते, तथैषोऽपि निगुणत्वादुपेक्ष्यत एवेति भावः । कुत एवमित्याह-यतो PRILराढामणीः' काचमणिः 'वैडूर्यप्रकाशो' वैडूर्यमणिकल्पोऽपि 'अमहाकः । अमहामल्यो भवति, हुरक्धारणे "जाणएसुति" 'ज्ञेषु' Pा दक्षेषु, मुग्धजनविप्रतारकत्वात्तस्य ॥ ४२ ॥ मूलम्-कुसीललिंगं इह धारइत्ता, इसिज्झयं जीविय व्हइत्ता । असंजए संजयलप्पमाणे, विणिघायमागच्छइ से चिरपि ॥४३॥ व्या-कुशीललिङ्ग' पार्श्व स्थादिवेषं इह' जन्मनि धारायित्वा 'ऋषिध्वजे' साधुचिन्हं रजोहरणादि “ जीविपत्ति" 'जीविकायै' हयित्वा इदमेव प्रधानमिति ख्यापनेनोपवय, अत एवासंयतः सन् "संजयलप्पमाणेत्ति" संयतमात्मानं लपन्-भाषमाणः, SEBNEGRALARNBENARNES Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥१३१॥ ' विनिघातं ' विविधामिवातरूपमागच्छति स चिरमप्यास्तां स्वम्पकालं नरकादशपिति माकः ॥ ४३ ॥ इहैव हेतुमाह मूलम् - विसं पिवत्ता जह कालकूड, हाइ सत्थं जहः कुमही एसेव धम्मो विसोववरणो, हणाइ वेष्याल इवाविवरणो ॥४४॥ - व्या० – विषं “पिवित्तत्ति" आर्षत्वात् पीतं, यथा कालकूटं " हणाइति” हन्ति शस्त्रं च यथा कुगृहीसं कुत्सितप्रकारेण गृहीतं " एसेवत्ति " एष एवं विषादिवत् 'धर्मः ' साधुधम्मों ' विषयोपपन्नाः शब्दादिविषयलाम्पाको हन्ति दुर्गतिपातहेतुत्वेन द्रव्यमुनिमितिगम्यं । वेताल इवाविपन्नो मंत्रादिभिरनियंत्रितः साधकमिति गम्यम् ॥ ४४ ॥ मूलम - जो लक्खणं सुविण पउंजमागे, निमितकोछ संपणाचे । कुहेड विज्जासवदारजीवी, न गच्छई सरणं तम्मिः काले १४५ ॥ व्या०—– यो लक्षणं स्वप्नं च प्रयुजानो व्यापारयन्, निमित्तं भौमादि कौतुकं चापत्याद्यर्थं स्नानादि तयोः संप्रगाढः प्रसक्तो यः स तथा। कुकविद्या-मलिकार्यकारिमंत्रतंत्रज्ञानात्मिकास्ता एव कर्मबन्धहेतुत्वादाश्रवद्वाराणि तैर्जीवितु ं शीलमस्येति कुहेटकविद्याभवद्वारजीवी । ' न गच्छति' न प्राप्नोति शरणं, तस्मिन् फलोपभोगोपलक्षिते 'काले! ससवे ॥ ४५ ॥ अनुमेवार्थं विशेषादाह - मूलम-ततमेणेष उसे असीसे सपा तुही विपपरिहासुवेज्ञ: । संधावइ नरगतिरिक्खजोणी, मोग विराहितु साहुरबे ॥४६ अध्य० २० ॥१३१॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥१३२॥ Cerere 40 व्या०--" तमंतमेणेव उत्ति" अतिमिथ्यात्रोपहततया 'तमस्तमसैव' प्रकृष्टाज्ञानेनैव, तुः पूत, स द्रव्यमुनिः अशीलः सदा दुःखी विराधनाजनितदुःखानुगतो “विपरिआसुवेइत्ति" विपर्यासं तत्त्वेषु वैपरीत्यमुपैति, ततश्च 'सन्धावति' सततं गच्छति नरकतिर्यग्योनीः, 'मौनं’ चारित्रं विराध्यासाधुरूपस्तत्त्वतोऽयतिस्वभावः सन् । अनेन विराधनाया अनुबन्धवत् फलमुक्तम् ॥ ४६ ॥ कथं मौनं विराधयति, कथं वा नरकतिर्यग्गतीः सन्धावतीत्याह मूलम् — उद्दे सिकीगडं निआगं, न मुचई किंचि असणिज्जं । sari faar सव्वभक्खी भवित्ता, इम्रो चुत्रो गच्छइ कट्टु पाव ॥४७॥ व्या०—“ निचगंति” नित्यपिण्डं, "अग्गीविवत्ति" अग्निरिव सर्वमप्रासुकमपि भक्षयतीत्येवंशीलः सर्वभक्षी भूत्वा कृत्वा च पापं, इतो भवाच्च्युतो गच्छति, कुगतिमिति शेषः ॥ ४७ ॥ कुत एतदेवमित्याह मूलम् - न तं अरी कंठछित्ता करोति, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा | से नाहि मच्चुमुहं तु पत्ते, पच्छाणुतावेण दयाविणो ॥ ४८ ॥ व्या० – 'न' नैव तमिति प्रक्रमादनर्थं, अरिः कण्ठच्छेत्ता करोति, यं 'से' तस्य करोत्यात्मीया 'दुरात्मता' दुष्टाचारप्रवृत्तिरूपा । न चेमामाचरन्नपि जन्तुरत्यन्तमूढतया वेत्ति परं स दुरात्मतासेवी ज्ञास्यति दुरात्मतां 'मृत्युमुखं तु' मरणसमयं पुनः प्राप्तः । पश्चादनुतापेन हा ! दुष्ट, मयानुष्ठितेयमित्येवंरूपेण, दयया - संयमेन विहीनः सन् । यतश्चैवमनर्थहेतुः पश्चात्तापहेतुश्च दुरात्मता, तत आदित एवासौ त्या अध्य० २० ॥१३२॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१३३॥ अध्य०२० ॥१३॥ NEVGVEVGYZACEVEREReveren ज्येत्यर्थः ।। ४८ ॥ यस्तु प्रान्तेऽपि मोहेन दुरात्मतां तथात्वेन न जानाति तस्य किं स्यादित्याह मूलम्-निरहिआ नग्गरुई उ तस्स, जे उत्तिमझें विवज्जासमेइ । इमेवि से नत्थि परेवि लोए, दुहओवि से झिज्झइ तत्थ लोए ॥४६॥ व्या०—निरर्थिका 'तु' शब्दस्यैवकारार्थस्येह सम्बन्धान्निरर्थिकैव निष्फलैव नाग्न्ये-श्रामण्ये रुचिस्तस्य यः 'उत्तिमति' सुब्ब्यत्ययादपेश्च गम्यत्वादुत्तमार्थेऽपि प्रान्तसमयाराधनारूपे, आस्तां पूर्व, 'विपर्यासं ' दुरात्मतायामपि सुन्दरात्मताज्ञानरूपं 'एति' गच्छति, यस्तु मोहमपोह्य दुरात्मतां तथात्वेन जानाति, तस्य तु स्वनिन्दादिना स्यादपि किञ्चत्कलमिति भावः । ततश्च " इमेवित्ति" अयमपि प्रत्यक्षो लोक इति योगः, 'से' तस्य नास्ति । न केवलमयमेव, किन्तु परोऽपि भवान्तररूपः । तत्रेहलोकाभावः कायक्लेशहेतुलोचादिसेवनात् , पर लोकाभावश्च कुगतिगमनात् । एवं च "दुहमोवित्ति" द्विधापि ऐहिकपारतिकार्थाभावेन स जन्तुः "झिज्झइति" ऐहिकपारत्रिकार्थसम्पत्तिका मतोजनान् वीक्ष्य, धिग्मामुभयभ्रष्टमिति चिन्तया क्षीयते । तत्रेत्युभयलोकाभावे सति, 'लोके' जगति ॥ ४६ ॥ ततोऽसौ यथानुतापमापद्यते तथा दर्शयति मूलम्-एमेवहाछंदकुसीलरूवे, मग्गं विराहित्तु जिणुत्तमाणं । कुररी विवा भोगरसाणुगिद्धा, निरट्ठसोआ परितावमेइ ॥५०॥ - व्या०–एवमेवोक्तरूपेणैव महाव्रतास्पर्शनादिना प्रकारेण यथाछन्दाः-स्वरुचिकल्पिताचाराः, कुशीलाश्च-कुत्सितशीलास्तद्रूपास्तत्स्वभावाः, EVEELGESTAVEVATEVERAGA Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्य- यनस्त्रम् ॥१३॥ मार्ग विराध्य जिनोत्तमानां । 'कुररीव' पक्षिखीव भोंगरसामुगवा निर शोपी यस्का साथ निरर्थको परिक्षाका लागि प्राको ति । यथा साऽऽमिषगद्धा मुखात्तपिशितपेशिका परपक्षिम्यो विपत्मासौं शोपनि क्तता कोपि वियत्मशिकार इति, एवमयमपि भोगरसगृद्ध ऐहिकामुष्मिकापापासौ । तखोस्य स्वानयवाणावमत्वादनाबस्वमेवेलिमाव इति सूत्रत्रयोदशमार्थ ॥५०॥ इदं च श्रुत्वा यत्कायं तदाह मूलम्-सोच्चाण मेहावि सुभासि इम, अणुसासणं नाणगुणोववेअं।। ___मग्गं कुसीलाण जहाव सक, महानिअंडाणः कए पहेणं ॥५१॥ व्या० श्रुत्वा हे मेधाविन् ! सुष्ट भाषितं इदमनन्तरोक्तं 'अनुशासवं शिक्षणं-ज्ञानेन-गुणेन-चप्रस्तावाद्विरतिरूलेखोपय बालक योपपेतं, मार्ग- कुशीलानां हित्वा सर्व, महानिर्ग्रन्थानां 'वएत्ति' व्रजेस्त्वं 'पहेगति पथाः ॥ ५१ ॥ ततः किं फलमिल्याह--- मूलम्-चरित्तमायारगुणन्निए तओ, अनुत्तर संजनमालिना। नियसवे संखविाण कम्म, उवेइ ठाणं विउलुरामधुवं ॥५२० । व्याख्या-" चरित्तमायरत्ति" मकारोऽलाक्षणिकः. चारित्राचारश्चारित्रासेवनं, गुण इह ज्ञानरूपस्ताम्यामयितयारिणचारगुणवितः । ततो महानिर्ग्रव्यमार्गगमनात् 'अनुत्तरं' प्रधानं संयम' यथाख्यानचारित्ररूपं पालपिला निराश्रकार. 'संक्षय्य क्षयं नीत्वा कर्म उपैति स्थानं, विपुलं च तदनन्तानामपि तत्रावस्थितरुत्तमं च प्रधानत्यादिपुलोचम, 'घ' नित्यं मुक्तिमित्यर्थः ।। ५२ ॥ उपसंहारमाह मूलम्-एग्मतेवि महातवोधणे, महामुणी महापइसणे महायसे । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्ययनसूत्रम् ॥१३॥ अध्य०२० ॥१३॥ NeeeeeeeeeeeeeeAA महानियंठिज्जमिणं महासुअं, से काहए महया वित्थरेणं ॥५३॥ व्याख्या एवं उक्तनीत्या स मुनिः कथयतीति संबंधः, स कीदृशः ? इत्याह-उग्रः कर्मशत्रं प्रति, दान्तश्च इन्द्रियनोइन्द्रियदमनात , | उग्रदान्तः । अपिः पूतों, महातपोधनः महामुनिमहाप्रतिज्ञो दृढव्रत अत एव महायशाः, महानिर्ग्रन्थेभ्यो हितं महानिर्ग्रन्थीयं इदं पूर्वोक्त महाश्रतं, स कथयति महता विस्तरेणेति सूत्रत्रयार्थः ।। ५३ ।। ततश्चमूलम्-तुट्ठो अ सेणिो राया, इणमुदाहु कयंजली । अणाहत्तं जहाभूयं, सुठु मे उवदसि ॥५४॥ व्या०—तुष्टश्चेति चः पुनरर्थे भिन्नक्रमच, ततः श्रेणिकः पुनरिदमुदाहृतवान् , यथाभूतं सत्यम् ॥ ५४ ॥ __ मूलम्-तुभं सुलद्धं खु मणुस्सजम्मं, लाभा सुलद्धा य तुमे महेसी। तुब्भे सणाहा य सबंधवा य, जं भे ठिा मम्गि जिणुत्तमाणं ॥५५॥ व्याख्या—'सुलद्धं' खुत्ति' सुलब्धमेव, लाभा वर्णादिप्राप्तिरूपाः 'जं भेत्ति' यद्यस्मात् 'भे' भवन्तः ॥ ५५ ॥ मूलम्-तंऽसि णाहो अणाहाणं, सव्वभूआण संजया ! । खामेमि ते महाभाग ! इच्छामु अणुसासिउं ५६ व्याख्या-इह पूर्वार्द्धनोपवृहणां कृत्वा उत्तरार्द्धन क्षमणामुपसम्पन्नतां चाह-तत्र "तेत्ति" त्वां "अणुसासिउंति" 'अनुशासयितुं' शिक्षयितुं त्वयात्मानमिति गम्यम् ॥ ५६ ॥ पुनः चमणामेव विशेषेणाह|| मूलम--पुच्छिऊण मए तुर्भ, झाणविग्यो उ जो कमओ । निमंतिमा य भोगेहि, तं सव्वं मरिसेह मे ५७ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HINDI अध्य०२० उत्तराध्यव्याख्या-"पुच्छिऊणत्ति" कथं त्वं यौवने प्रव्रजितः ? इत्यादि घृष्ट्वा यो युष्माकं मया ध्यानविनः कृतः, निमंत्रितश्च यद्ययंका मानवच पधूप यनसूत्रम् भोमैस्तत्सर्व मर्षयत क्षमध्वं ममेति सूत्रचतुष्कार्थः ॥ ५७ ॥ अध्ययनार्थोपसंहारमाह ॥१३६॥ ॥१३६॥ मूलम्-एवं थुणित्ताण स रायसीहो-ऽणगारसीहं परमाइ भत्तिए। समोरोहो सपरिप्रणो सबंधवो, धम्मासुरत्तो विमलेण चेअसा ॥५८॥ व्याख्या-"सोरोहोत्ति" 'साक्रोधः' सान्तःपुरः “विमलेणत्ति" विगतमिथ्यात्वमलेन चेतसोषलक्षितः ॥ ५८ ॥ Hel मूलम्- ऊससिअरोमकूवो, काउण य पयाहिणं । अभिवंदित्ता सिरसा, अतिजातो नराहिवो ॥५६॥ व्याख्या-"अतिजातोत्ति" 'अतियातः' स्वस्थानं गतः ॥ ५६ ॥ मूलम्-इअरोवि गुणसमिद्धो, तिगृत्तिगुत्तो तिदंडविरो अ। ___विहग इव विप्पमुक्को, विहरइ वसुहं वियमोहोत्ति बेमि ॥६॥ व्याख्या-'इतरो' मुनिः सोऽपि विहग इव 'विप्रमुक्तः' प्रतिबन्धरहितः विगतमोहः क्रमात्समुत्पन्नकेवलज्ञानत्वेनेति सूत्रत्रयार्थः ॥६॥ इति अवीमीति प्राग्वत् ।। ६०॥ FERRETEREVERERE Coveeeeeeeeeeeeeeeeeeveev Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य ॥ अथ एकविंशमध्ययनम् ॥ यनसूत्रम् अध्य०२१ ॥१३७॥ ॥१३७॥ ॥ॐव्याख्यातं विंशतितममध्ययनं, अथैकविशं समुद्रपालीयाख्यमारभ्यते । अस्य चायं सम्बन्धोऽनन्तराध्ययनेऽनाथत्वमुक्त, तच्च परिभाव्यवि विक्तचर्यया चरितव्यं । सा च समुद्रपालदृष्टान्तेनानेनोच्यते, इति सम्बन्धस्यास्येदमादि सूत्रम्मूलम-चंपाए पालिए नाम, सावए आसि वाणिए । महावीरस्स भगवओ, सीसे सो उ महप्पणो ॥१॥ व्याख्या-महावीरस्य भगवतः शिष्यः 'सो उत्ति' स पुनः, तच्छिष्यता चास्य तत्प्रतिबोधितत्वात् ॥ १॥ मूलम्-निम्गथे पावयणे, सावए से विकोविए । पोएण ववहरंते, पिहुंडं नगरमागए ॥२॥ | व्याख्या ग्रन्थे। निग्रन्थसम्बन्धिनि प्रवचने स पालितो "विकोविएति, विशेषेण कोविदो विकोविदः, 'पोतेन' प्रवहणेन 'व्यबहरन् ' व्यापारं कुर्वन् , 'पिहुंडं' पिहुंडसंज्ञम् ॥ २ ॥ मूलम्-पिहुंडे क्वहरंतस्स, वाणिो देइ धूअरं । तं ससत्तं पइगिज्झ, सदेशमह पत्थिो ॥३॥ ___ व्याख्या-"पाणिो देइ धूअरंति" तद्गुणाकृष्टचेताः कोऽपि वणिग् ददाति 'दुहितरं' पुत्री, 'ससवां' सगा प्रतिगृह्मादाय ! स्वदेशमथ प्रस्थितः ॥ ३ ॥ मूलम्-अह पालिअस्स घरणी, समुद्दमि पसवई । अह दारए तहिं जाए, समुद्दपालित्ति नामए ॥४॥ GEEEEEEEEveeveeeeeeeee । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aeo उत्तराध्य अध्य०२१ ॥१३८॥ G ___ व्याख्या-"तहिति" तत्र समुद्रे ॥ ४ ॥ यनसूत्रम् का मूलम्-खेमेण आगए चंपं, सावए वाणिए घरं । संवड्डए घरे तस्स, दारए से सुहोइए ॥ ५ ॥ ॥१३८॥ बावत्तरि कलाओ अ, सिक्खिए नीइकोविए जोवणेण य संपन्ने, सुरूवे पिअदसणे ॥६॥ .. तस्स रूववई भज्जं, पिआ आणेइ रूविणिं । पासाए कीलए रम्मे, देवो दोगुंदगो जहा ॥७॥ व्याख्या-"रूविणिंति" रूपिणीसंज्ञां, प्रासादे क्रीडति, तया सहेति शेषः ॥ ५॥ ६ ॥७॥ मूलम्-अह अन्नया कयाइ, पासायलोअणे ठिओ । वज्झमंडणसोभाग, वझ पास वज्झगं ॥८॥ व्याख्या-अथान्यदा कदाचित् 'प्रासादालोकने' गवाक्षे स्थितः सन् समुद्रपालो वध्यमण्डनानि-रक्तचन्दनकरवीरादीनि तैः शोभा यस्य स वध्यमण्डनशोभाकस्तं 'वध्यं' वधार्ह कञ्चन तादृशाकार्यकारिणं पश्यति, वध्ये वध्यभूमौ गच्छतीति वध्यगस्तं, इहोपचारादध्यशब्देन वध्यभूरुक्ता ॥ ८॥ मूलम्-तं पासिऊण संवेगं, समुद्दपालो इणमब्ववी । अहो असुहाण कम्माणं, निजाणं पावगं इमं ॥६॥ व्याख्या-तं दृष्ट्वा 'संवेगं' संवेगकारणं समुद्रपाल इदं वक्ष्यमाणमब्रवीत् , अहो ! अशुभानां कर्मणां 'निर्याणं' अवसानं विपाक इत्यर्थः, 'पापकं' अशुभम् 'इदं' प्रत्यक्षं, यदयं वराको वधार्थमित्थं नीयते ॥॥ मूलम्-संबुद्धो सो तहिं भवयं, परमं संवेगमागओ । आपुच्छऽमापिअरो, पव्वए अणगारिनं ॥१०॥ eeeeeeeeeeeeeeeee DNNNNENPEEVEEVENBNBEENDE Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य०२१ ॥१३॥ उत्तराध्ययनसूत्रम ॥१३६॥ - व्याख्या एवं ध्यायन सम्बुद्धा समुद्रपालः "तर्हि " तत्र प्रासादालोकने, आपृच्छय मातापितरौ "पवएति" 'प्रामाजित् प्रति-- | देऽनगारितामिति सूत्रदशकाक्पवार्थः, शेष व्यक्त, एवमग्रेपि ॥१०॥ प्रव्रज्य च यथायं आत्मानमनुशासितवान् यथावा प्रावर्त्तत तथाह मूलम्-जहुत्ति संगं च महाकिसं, महंतमोहं कसिणं भयावह। परिआयधम्म चऽभिरोयइज्जा, वयाणि सीलाणि परीसहे अ॥ ११ ॥ व्याख्या-'हित्वा' त्यक्खा 'सङ्ग' स्वजनादिसम्बन्धं चः पूत्तौं 'महाक्लेशं' महादुःखं 'महान्मोहः' स्त्र्यादिविषयोऽज्ञानरूपो वा मा यस्मात स महामोहस्तं, 'कृत्स्नं सर्व कृष्णं वा कृष्णलेश्याहेतुत्वात् , अत एव विवेकिनां भयावह, पर्यायो-वतपर्यायस्सत्र धर्मो महायतादिः पर्यायधर्मस्तं, चः पूतौं, अभिरोचयेगवान हे आत्मन् ! इति प्रक्रमः । पर्यायधर्ममेव विशेषादाह-व्रतानि' महावतानि 'शीलानि' उत्तर|| गणरूपाणि 'परीपहानिति' परीषहसहनानि चाभिरोचयेदिति योगः ॥ ११ ॥ तदनु यत्कार्य तदाह मुलम्-अहिंस सच्चं च अतेणगं च, तत्तो य बंभ अपरिग्गहं च। पडिबज्जिा पंच महाव्वयाई, चरिज्ज धम्म जिणदेसि विऊ ॥ १२॥ ___ व्याख्या-अहिंसां सत्यमस्तैन्यकं च ततश्च 'ब्रह्म' ब्रह्मचर्य अपरिग्रहं च प्रतिपद्यैवं पञ्च महाव्रतानि चरेपासेवेस न तु स्वीकारमात्रेचैव तिष्ठे दित्यर्थः । 'धर्म' श्रुतचारित्ररूपं जिनदेशितं 'विऊत्ति' विद्वान् भवान् हे आत्मन् ! ॥ १२ ॥ मूलम्-सव्वेहिं भूपहिं दयायुकंपी, खंतिक्खमे संजयवंभयारी। - । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१४॥ PAN eeeVEVEEEEEEEPELE सावज्जजोगं परिवज्जयंतो, चरेज्ज भिक्खू सुसमाहि इंदिए ॥ १३ ॥ शाअध्य०२१ सर्वेषु भूतेषु दयया-हितोपदेशरूपया रक्षणरूपया च अनुकम्पनशीलो दयानुकम्पी, क्षान्त्या न त्वशक्त्या क्षमते दुर्वचनादीति क्षान्तिक्षमः, M ॥१४०॥ संयतः-सम्यग् यतः स चासौ ब्रह्मचारी च संयतब्रह्मचारी, पूर्व व्रतप्रतिपत्यागतेपि ब्रह्मचारीति पुनः कथनं ब्रह्मचर्यस्य दुर्द्धरत्वज्ञप्त्यै ॥१३॥ मूलम्-कालेण कालं विहरिज्ज रट्टे, बलाबलं जाणिव अप्पणो अ। सीहो व सद्दे ण न संतसिज्जा, वयजोग सुच्चा ण असब्भमाहु ॥ १४ ॥ व्याख्या-'कालेन' पादोनपौरुष्यादिना 'कालमिति' कालोचितं प्रत्युप्रेक्षणादि कृत्यं, कुर्वनिति शेषः । विहरेत् 'राष्ट्र' मण्डले उपलक्षणत्वाद्ग्रामादौ च । 'बलाबलं' सहिष्णुत्वासहिष्णुत्वरूपं ज्ञात्वाऽऽत्मनो यथा यथा संयमयोगहानिर्न स्यात्तथा तथेति भावः । अन्यच्च सिंह इव शब्देन प्रक्रमाद्भयोत्पादकेन 'न संत्रस्येत' नैव सत्त्वाचलेत हे आत्मन् ! भवानिति सर्वत्र गम्यते । तथा वचो योगमादशुभं श्रुत्वा नाऽसभ्यं 'आहुत्ति' आपत्वाव्यात् ॥ १४ ॥ तर्हि किं कुर्यादित्याह मूलम्---उवेहमाणो उ परिव्वएज्जा, पिअमप्पिनं सव्व तितिक्खएज्जा। ___ न सव्व सव्वत्थऽभिरोअइज्जा, न यात्रि पूअं गरहं च संजए ॥ १५ ॥ व्याख्या-'उपेक्षमाणः' कुवचनवक्तारमवगणयन् परिव्रजेत् , तथा प्रियमप्रियं सर्व तितिक्षेत' सहेत, न सर्व वस्तु 'सर्वत्र' सर्वस्थानेऽभिरोचयेत् , यथादृष्टाभिलाषुको माभूदिति भावः । न चापि पूजा, 'गहां च' परनिन्दा, अभिरोचये दिति योगः ॥१५॥ ननु भिक्षो AGREEEEEEEEEEEEEE Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१४१॥ अध्य०२१ ॥१४॥ रपि किमन्यथाभावः सम्भवति ? यदेवमात्मानुशास्यते इत्याह मूलम्-अणेग छंदा मिह माणवेहि, जे भावओ संपकरेइ भिक्खू । भयभेरवा तत्थ उइंति भीमा, दिव्वा मणुस्सा अदुवा तिरिच्छा ॥ १६ ॥ व्याख्या अनेके 'छन्दा' अभिप्राया भवन्तीति गम्यं, “मिहत्ति" मकारोऽलाक्षणिकः, इह जगति मानवेषु । याननेकछन्दान् भावतश्चित्तवृत्या 'सम्प्रकरोति' भृशं विधत्ते, 'भिखुत्ति' अपेर्गम्यत्वाद्भिक्षुरपि कर्मवंशगः, तत एवेत्थमात्मानुशास्यते इति भावः । किञ्च भयेन-भयजनकत्वेन भैरवाः-भीषणा भयभैरवाः तत्रेतिः व्रतप्रतिपत्तो 'उद्यन्ति' उदयं यान्ति 'भीमाः' रौद्राः, अस्य च पुनः कथनमतिरौद्रत्वख्यापकं, दिव्या मानुष्यका अथवा तैरचा उपसर्गाः इति शेषः ॥ १६ ॥ तथा मूलम्-परीसहा दुविसहा अणेगे, सीदंति जत्था बहुकायरा नरा। से तत्थ पत्ते न वहिज भिक्खू ,संगामसीसे इव नागराया ॥ १७॥ व्याख्या–परीषहा 'दुर्विषहाः' दुस्सहाः अनेके उद्यन्तीति योगः, 'सीदन्ति' संयमं प्रति शिथिलीभवन्ति "जत्था" इति यत्र येषूपसर्गेषु परीषहेषु च सत्सु बहु-भृशं कातराः नराः, 'से' इत्यथ 'तत्र' तेषु प्राप्तो 'न व्यथेत' न सत्त्वाच्चलेद्भवान् भिक्षुः सन् संग्रामशीर्ष इव नागराजः॥ १७ ॥ मूलम्-सीतोसिणा दंसमसाय फासा, आयका विविहा फुसंति देहं । AGE ROVEEEEEEEEE Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१४२॥ मध्य०२१ ॥१४२॥ ANNEL अकुक्कुलो तत्थाहियासपमा स्वाई खेवेज्जा पुरेकडाई॥ १८ ॥ व्याख्या-शीतोष्णदंशमशकाः, च-शब्द उत्तरत्र योक्ष्यते, स्पर्शास्तृणस्पर्शादयः, आतङ्काश्च विविधाः 'स्पृशन्ति' उपतापयन्ति देहं भक्त इति गम्यं । “अकुक्कुओत्ति" कुत्सितं कूजति कुजो न तथा अकुछजस्तत्र शीतादिस्पर्शनेविसहेत, अनेन चानन्तरसूत्रोक्त एवार्थः स्पष्टतार्थमन्वयेनोक्तः । ईशश्च सन् 'रजांसि जीपमालिन्यहेतुतयार कर्माणि "खेवेज्जत्ति" क्षिपेत् पुराकृतानि ॥१८॥ मूलम्-पहाय राणं च तहेव दोस, मोहं च भिक्खू सययं विश्वखणो । मेव वारण अकंपमाणो, परीसहे आयगुत्ते सहेज्जा ॥ १६ ॥ "मेरुब्ब" इत्यादि-मेरुवातमेव परीपहादिनाऽकम्पमानः "आयगुत्तेत्ति " गुप्तात्मा, अनेन सूत्रेण परीपहसहनोपाय उक्तः ॥१६॥ किञ्च मूलम-अणुण्णए नावणए महेसी, नयावि पूर्व गरीहं च संजए। से उज्जुभावं पडिवज संजये, निव्वाणमग्गं विरए उवेइ ॥ २०॥ व्याख्या-अनुन्नतो नावनतो महर्षिः, न चापि पूजां गहां च प्रतीति शेषः, “संजएत्ति" सजेत्सङ्ग कुर्यात् । तत्रानुनतः पूजां प्रति, | अनवनतश्च गहाँ प्रति, 'से' इति स एवमात्मानुशासकः, ऋजुभाव प्रतिपद्य संयतो निर्वाणमार्ग सम्यग् ज्ञानादिकं रितः सन्नुपैति प्राप्नोति । तत्कालापेक्षया वर्तमाननिर्देशः ॥ २० ॥ ततः स कीदृशः सन् किं करोति ? इत्याह मूलम्-अरइरइसहे. पहीणसंथवे, विरए आयहिए पहाणवं । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०२१ n यनसूत्रम् VEGVEGEE परमट्ठपएहिं चिटुई, छिन्नसोए अममे अकिंचणे ॥ २१ ॥ उत्तराध्य___ व्याख्या-अरतिरती संयमासंयमविषये सहते ताभ्यां न बाधते इत्यरतिरतिसहः, प्रहीणः संस्तवः पूर्वपश्चात्परिचयरूपो यस्य सः तथा, K ५१४३॥ विरत आत्महित इति स्पष्टं, प्रधानः संयमो मुक्तिहेतुत्वात्स यस्यास्त्यसौ प्रधानवान् , परमार्थो-मोक्षस्तस्य पदानि सम्यक्दर्शनादीनि तेषु तिष्ठति, 'छिन्नशोकः' 'अममः' 'अकिञ्चनः' इमानि त्रीणि पदानि मिथो हेतुतया व्याख्येयानि ॥ २१ ॥ मूलम्-विवित्तलयणाणि भइज ताई, निरूवलेवाइं असंथडाई। इसीहिं चिण्णाई महायसेहि, कायेण फासेज्ज परीसहाई ॥२२॥ व्याख्या-'विविक्तलयनानि' स्त्र्यादिरहितोपाश्रयान् “भइज्जत्ति" भजति बायी, विविक्तत्वादेव 'निरुपलेपानि भावतोऽभिष्वङ्गरहितानि द्रव्यतस्तदर्थ नोपलिप्तानि, 'असंस्कृतानि' बीजादिभिरव्याप्तानि अत एव ऋषिभिः 'चीर्णानि' सेवितानि महायशोभिः, तथा कायेन "फासेज्जत्ति" स्पृशति सहते परीषहान् ॥ २२ ॥ ततः स कीदृशोऽभूदित्याह मूलम्--स नाणनाणोवगए महेसी, अणुत्तरं चरिउं धम्मसंचयं । अणुत्तरेनाणधरे जसंसी, ओभासइ सूरिए वंतलिक्खे ॥ २३ ॥ . व्याख्या–स समुद्रपालषिर्ज्ञान-श्रुतज्ञानं तेन ज्ञानमवबोधः प्रक्रमाक्रियाकलापस्य तेनोपगतो युक्तो ज्ञानज्ञानोपगतो महर्षिः, अनुत्तरं IN चरित्वा 'धर्मसंचयं' क्षात्यादिधर्मसंचयं "अणुत्तरेनाणधरेत्ति" एकारस्यालाक्षणिकत्वात् अनुत्तरज्ञानं केवलाह्वतद्धरो यशस्वी 'अवभा VEE EVEGVEEVEE VEEVE Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य- अध्य०२१ ॥१४४॥ यनसूत्रम् ॥१४४|| सुते' जगति प्रकाशते सूर्य इगन्तरिवेः इति त्रयोदयावार्थः ॥ २३॥सांतारपूर्व वस्त्र फरा-- मूलम-दुविहं खवेऊण य पुगणपानं, मिले सम्वोबियमुक्के। - तरिसा समुद्दौं महाभवोहं, समुहमालो अपुणावपत्ति ब्रेमि ॥ २४ ॥ व्याख्या-'द्विविधं घाविभवोपखाहिमेदेन द्विमेदं 'पुण्यपापं शुभाशुभप्रकृतिरूपमास्कर्ष लिप्त्या, 'निरङ्गतः' प्रस्तावासंयम प्रति निश्चलः शैलेश्यवस्था प्राप्त इत्यर्थः, सर्वतो बाह्यादाभ्यन्तराच्चाभिस्वभाहेबोर्विप्रमुकः, तीर्खा समुद्रमिव 'महाभवोघ' देवादिजन्मसन्तानं, समुद्रपालोऽपुनरागमा गतिं मुक्तिं गत इति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥ इति ब्रवीमीति प्रारबत् ॥२१॥ Fertiserderivertsextleravertertserifertextsixitserisexivervisoeraseise ते इति श्रीतपागच्छीयमहोपाध्याय श्रीविमलहर्षगणिशिष्यमहोपाध्याय श्रीमुनिविमलगणिभुजिष्योपाध्याय . श्रीभावविजयगणिसमर्थितायां श्रीउत्तराध्ययनसूत्रवृत्तौ एकविंशमध्ययनं सम्पूर्णम् ॥ २१ ॥ Servic e skuraharsociasaraisaxihirvecitierialikiraits Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१४॥ ॥अथ छाविंगमध्यपनम् ॥ अध्य० २२ ॥११॥ ॥ॐ॥ उक्तमेकविंशमध्ययनमथ स्थनेमीयाख्यं द्वाविंशमारभ्यते; अस्प चायं सम्बन्धोऽनन्तराध्ययने विविक्तचर्योक्ता, सा चशृतिमा || सुकरेति कथश्चिदुत्पन्नविश्रोतसिकेनापि रथनेमिनधृतिराधेयेत्येवं सम्बन्धस्यास्येदमादौ सूत्रम्मूलम्-सोरीअपुरम्मि नयरे श्रासि राया महडिए । वाँदेवित्ति नामेणं, रायलक्खणसंजुए ॥१॥ .. तस्स भन्जा दुवे आसि, रोहिणी देवई तहा । तासिं दोणहषि दो पुत्ता, इट्ठा रामकेसवा ॥२॥ . IN सोरिअपुरम्मि नगरे, आसि राया,महिडिए । समुद्दविजए नाम, रायलकखणसंजुए ॥ ३॥ तस्स भज्जा सिवा नाम, तीसे पुत्ते महायसे । भयवं अरिष्टुनेमिति, लोगनाहे दमीसरे ॥४॥ व्याख्या-राजलक्षणानि चक्रस्वस्तिकांकुशादीनि शौर्योदार्यादीनि ना, तैः संयुतो राजलक्षणसंयुक्तः ॥१॥ “दुवे आसित्ति अभूतां "त इह च पूर्वोत्खन्नत्वेन श्रीनेमिविवाहादापयोपिस्वेन च रामकेशनयोः पूर्वमभिधानम् ॥२॥ इह पुनः शौर्यपुराभिधानं समुद्रविजयवसुदेवयोरेकत्रावस्थितिदर्मानार्थम् ॥ ३॥"दमीबारेति दमिनायीबसे दमीश्वस, कीमार एवं मारविजयादिति सूत्रचतुष्कार्थः । शेषं प्रतीतमेक्सप्रेऽपि ज्ञेयम् ॥ ४ ॥ अन्न प्रसङ्गामा श्रीमतीश्वरवरितं विशिष्यते, तथा हिमष भरतक्षेत्रे, पुखचलपुरेऽभवत् ॥ निस्सीमविक्रमधना, श्रीयो नृपः ॥ १॥ सधर्ममारिली तस्क, धारिणीशि A RDA Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥१४६॥ काऽभवत् ।। तयोश्चाभूत्सुतश्च त - स्वप्नाख्यातो धनाभिधः ॥ २ ॥ कलाकलापमासाद्य स प्राप्तो यौवनं क्रमात् ॥ रूपेणाप्रतिरूपेण, विजिग्ये निर्जरानपि ॥ ३ ॥ सिंहस्य राज्ञः कुसुम - पुराधीशस्य नन्दनाम् ॥ रूपाधरीकृतरतिं, रतिदां दर्शनादपि ॥ ४ ॥ पट्टालिखिततद्रूपं, वीक्ष्यात्यन्तानुरागिणीम् ॥ धनः कनीं धनवती - मुपयेमेऽन्यदा मुदा ॥ ५॥ [ युग्मम् ] श्रिया विष्णुरिव प्रेम्णा, रममाणस्तया समम् ॥ ग्रीष्ममध्यन्दिनेन्येद्युर्वनोद्देशं जगाम सः ।। ६ ।। तत्र चैकं तृषा शुष्य-द्रसनाधरतालुकम् || धर्मश्रमातिरेकेण मूर्छितं पतितं चितौ ॥७॥ तपःकृशाङ्गमकृशं, गुणैः शान्तरसोदधिम् ॥ मुनिं ददृशतुर्मार्ग - श्रष्ट' धनवतीधनौ ॥ ८ ॥ [ युग्मम् ] ततस्तौ दम्पती साधु, तमुपेत्य ससम्भ्रमौ ॥ शीतलैरुपचारैर्द्राग्, व्यधत्तां प्राप्तचेतनम् ॥ ६ ॥ तं च स्वास्थ्यं गतं नत्वा, धनो विनयवामनः ।। भदन्तानामवस्थासौ, कुतोऽभूदिति पृष्टवान् १ ॥ १० ॥ वाचंयमोऽप्युवाचैवं, मुनिचन्द्राभिधो ह्यहम् || गुरुगच्छेन संयुक्तो, विहतु मचलं पुरा ॥ ११ ॥ सार्थाभ्रष्टोऽन्यदाटव्यां, मोहाद्भ्राम्यन्नितस्ततः । श्रान्तः क्षुधातृषाक्रान्तो ऽत्रायातो मूर्छयाऽपतम् ॥ १२ ॥ चेतनां च पुनः प्राप- सुपचारैर्भवत्कृतैः ॥ धर्मलाभोऽस्तु वस्तेन, धर्मसाहाय्यदायिनाम् ॥ १३ ॥ किश्चार्चामन्तरा चैत्य--मिवार्हद्धर्ममन्तरा ॥ श्लाघ्यं न स्यान्नृजन्मेति, प्रयत्यं तत्र धीधनैः ॥ १४ ॥ इत्युदीर्य तयोर्योगं, सम्यक्त्वाणुव्रतादिकम् ॥ श्राद्धधर्मं जिन प्रोक्तं मुनिचन्द्रमुनिर्जगौ ॥ १५ ॥ ततस्तौ प्रत्यपद्येतां गृहीधर्मं तदन्तिके ।। प्रत्यलम्भयतां तञ्च गृहे नीत्वाऽशनादिना ॥ १६ ॥ ताभ्यां च धर्मशिक्षायै, रक्षितः स महामुनिः ॥ तत्र स्थित्वा कियत्कालं, व्यहार्षीत्तदनुज्ञया ॥ १७ ॥ तौ तु जायापति शुद्धं, श्राद्धधर्मं ततः परम् । पर्यपालयतां स्नेह - मिवान्योन्यमखण्डितम् ।। १८ ।। प्रदत्तमन्यदा पित्रा, धनो राज्यमपालयत् ॥ वसुन्धर मुनिस्तत्रान्यदा च समवासरत् ॥ १६ ॥ तं च ज्ञात्वागतं गत्वा, धनवत्या समं धनः ।। प्रणम्य भवपाथोधि-वावं शुश्राव देशनाम् ॥ २० ॥ विरक्तः स ततो राज्ये, न्यस्य पुत्रं प्रियान्वितः ॥ अध्य०२२ ॥१४६॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का अध्य० २२ ॥१४७॥ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१४७॥ 6SP प्रव्रज्यामाददे तस्मा-द्गुरोः प्राज्यमहोत्सवैः ॥ २१ ॥ सोऽथ गीतार्थतां प्राप्तः, प्राप्याचार्यपदं क्रमात् ॥ व्यहार्षीद्धर्मदानेना-ऽनुगहणन् भविनो बहून् ॥ २२ ॥ व्यधत्तानशनं प्रान्ते, धनो धनवतीयुतः ॥ विपद्य तौ च सौधर्म-ऽभूतां शक्रसमौ सुरौ ॥ २३ ॥ "इतश्च" भरतेऽत्रैव वैताख्यो-त्तरश्रेणिशिरोमणौ । सूरतेजःपूरे सूर-नामा खेचरचक्रयभृत् ॥ २४ ॥ तस्य विद्युन्मती विद्यु-मेघस्येवाजनि प्रिया । धनजीवश्च्युतः स्वर्गा-तस्याः कुक्षाववातरत् ॥ २५ ॥ पूर्णेऽथ समयेऽसूत, सुतं सा पुण्यलक्षणम् ॥ पिता तस्योत्सवैश्वित्र-गतिरित्यभिधां व्यधात् ॥ २६ ॥ वर्द्धमानः क्रमान्न्यासी-कृता इव गुरोः कलाः ॥ स गृहीत्वाऽखिलाः प्राप, यौवनं रूपपावनम् ॥ २७ ॥ अथ तत्रैव वैताठ्य-पाच्यश्रेणिस्थितेऽभवत् ।। भूमाननङ्गसिंहाख्यो, नगरे शिवमन्दिरे ॥ २८ ॥ 'शशिप्रभाप्रभगुणा, तस्य राज्ञी शशिप्रभा ॥ दिवो धनवतीजीव--श्च्युत्वा तत्कुक्षिमागमत् ॥ २६ ॥ क्रमाच्चाजीजनत्पुत्री, पुण्यरूपां शशिप्रभा ॥ पिता रत्नवतीत्याख्या, तस्याश्चक्रे महोत्सवैः ॥ ३० ॥ क्रमेण वर्द्धमाना सा, स्वीकृत्य सकलाः कलाः ॥ प्रपेदे यौवनं वर्य-चातुर्यामृतसागरम् ॥ ३१ ॥ कः स्यादस्याः पतिरिति, पृष्टः पित्राऽन्यदा मुदा ॥ ज्ञानी कोऽपि जगौ यस्ते, हर्ता दिव्यमसिं करात् ॥ ३२ ॥ यस्योद्धं नित्यचैत्ये च, पुष्पवृष्टिर्भविष्यति ॥ कनीरत्नमिदं मर्त्यरत्नं स परिणेष्यति ॥ ३३ ॥ [ युग्मम् ] आच्छेत्ता खगरत्नं यो, ममापि स महाबलः ॥ जामाता भवितेत्यन्तमु मुदे भूपतिस्ततः ॥ ३४ ॥ अथात्र भरते चक्र-पुरे सुग्रीवभूभुजः ॥ राज्ञौ यशस्विनीभद्रे, अभूतामति वल्लभे ॥३॥ तत्राद्यायाः सुतो जज्ञे, जैनधर्मरतो गुणी ॥ सुमित्रो मित्रवत्सज्जः, सज्जनाब्जप्रमोदने ॥ ३६॥ पद्मावश्छद्मनां समा-ऽपरस्यास्तु सुतोऽभवत् ॥ वैमात्रेयममीभेजु-रितीव गुणवर्जकः ॥३७॥ सत्यस्मिन्मम पुत्रस्य, राज्यं स्वप्नेऽपि दुर्लभम् ॥ इति भद्रा सुमित्रस्या-ऽन्य १ चंद्रकान्तिसदृक् । २ शाश्वच्चैत्ये। ३ रविवत् । ४ अमी गुणाः । KEEEEEEEEEEEEEEVEVEYEG SNARRORS Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Se उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥१४॥ veeeeeeeeeeeteve दादाद्विषमं विषम् ॥ ३८॥ विषेण मृच्छिते तेन, सुमित्रे भृशमाकुलः॥ सुग्रीवस्तस्य मंत्राटु-रुपचारानचीकरत ॥ ३६॥ तैरभृत्तस्य अध्य०२१५ न स्वास्थ्यं, ततः पौरान्वितो नृपः ॥ स्मारं सुतगुणां-चक्रन्द भृशमुन्यनाः ॥ ४० ॥ नंष्ट्वा भद्रात्वगोल्लोकै-विषदेयमितीरिता ॥ छन्नंन ॥१४८॥ तिष्ठेत्पापानां, पापं लशुनगन्धवत् ! ॥४१॥ दैवात्तत्रागतश्चित्र-गतियोम्ना व्रजस्तदा ॥ विलपन्नृपपौरं त-ददर्श पुरमातुरम् ॥ ४२ ॥ ज्ञात्वा च विषवात्ता ता-मुत्तीर्य नभसो द्रुतम् ॥ मंत्राभिमंत्रिताम्भोमिः, सुमित्रमभिषिक्तवान् ॥ ४३ ॥ ततस्तं प्राप्तचैतन्यं, किमेतदितिवा- 10 दिनम् ॥ नृपोऽवादीद्विमाता ते, भद्राऽदादुल्वणं विषम् ! ।। ४४ ॥ अयं चाशमयद्वत्स !, बान्धवो हेतुमन्तरा ॥ तन्निशम्य सुमित्रोऽपि, तमित्यूचे कृताञ्जलिः ॥४५॥ स्वनामवंशाख्यानेन, भ्रातः ! कणौं पुनीहि मे ॥ श्रुतं नामादि पुण्याय, त्वादृशां ह्य पकारिणाम् ।।४६॥ मित्रं चित्रगते मा-दिकं तस्मै ततोऽब्रवीत् ॥ तदाकर्ण्य प्रमुदितः, सुमित्रस्तमदोऽवदत् ॥ ४७ ॥ विषेण विषदात्रा च, बहूपकृतमद्य मे ॥ अनभ्रामृतवृष्टयाभ, नो चेत्त्वदर्शनं कुतः ! ॥ ४८ ॥ जीवितदातुः पातुश्च, बालमृत्यूत्थदुर्गतेः ॥ किं ते प्रत्युपकुह, घनस्येव जगज्जनः !॥४६॥ सुमित्रं मित्रता प्राप्तं, वदन्तमिति संमदात् ॥ पप्रच्छ स्वच्छधीगन्तु, स्वपुरं सूरनन्दनः ॥ ५० ॥ ऊचे सुमित्रो बिहरन् , सुयशाः केवली सखे ! ॥ इहाऽऽगन्ताऽद्य वा श्वो वा, तं नत्वा गन्तुर्हसि ! ॥ ५१ ॥ तेनेत्युक्तः स तत्रास्था-तौ चोद्यानेऽन्यदा गतो॥ तं मुनीन्द्रं वृतं देवैः, स्वर्णाजस्थमपश्यताम् ।। ५२ ।। तयोमुदितयोः सम्यक् , तमानम्य निविष्टयोः ॥ श्रुत्वा सुग्रीवभूपोऽपि, तत्रोपेत्य ननाम तम् ॥ ५३ ॥ तेषामुपादिशद्धर्म, केवली जगतां हितः ॥ तं चाकये मुदा चित्र-गतिरित्यवदन्मुनिम् ॥ ५४ ॥ मित्रस्यास्य प्रसादेन, श्रुत्वा वो देशनामिमाम् ।। श्राद्धधर्म प्रपद्येऽहं, प्रभो ! सम्यक्त्वपूर्वकम् ।। ५५ ॥ इत्युदीर्योल्लसद्वीर्यो, धर्मकार्ये स खेचरः ॥ आददे देशविरतिं , विरतः पापकर्मणः ॥ ५६ ॥ अथेत्यपृच्छत्सुग्रीव-स्तं मुनिन्द्रं कृताञ्जलिः ।। विषं दत्वाऽस्य मत्सूनोः, सानं EEVEGVEGEVEEVEE EVEVE EVEALE Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०२१ ॥१४॥ प्टवा क्वाऽगमद्विभो ! ॥ ५७ ॥ मुनिर्जगौ गताऽरण्ये, सा चौरेह तभूषणा । पल्लीशायापिता सोऽपि, तामदाद्वणिजां धनैः ॥ ५ ॥ उत्तराध्य | ततोऽपि नष्टा साऽटव्यां, दग्धा दावाग्निना मृता ।। प्रथमं नरकं प्राप, पापानां क्व नु सद्गतिः! ॥ ५६ ॥ ततस्तु निर्गता प्राप्या-ऽन्त्ययनसूत्रम् |जजायात्वमन्यदा ॥ हता सपल्या कलहे, तृतीयां गामिनी भुवम् ॥ ६० ॥ ततस्तूद्धृत्य सा तीय-गतौ दुःखानि लप्स्यते ॥ तदाकर्ण्य ॥१४॥ विरक्तात्मा, प्रोवाचेति गुरून्नृपः ।। ६१ ॥ यत्कृतेदस्तया चक्रे, सोऽस्थादत्रैव तत्सुतः ।। जगाम नरकं सा तु, तत्संसारं धिगीदृशम् ॥१२॥ इत्युदीर्य सुमित्राय, दत्त्वा राज्यं स पार्थिवः॥ तस्य केवलिनः पार्थे, दीक्षां जग्राह साग्रहम् ॥ ६३ ॥ समित्रोऽपि समित्रोऽगा-पुरे | पद्माय चार्पयत ॥ ग्रामान्कत्यपि स त्वेको, निर्गत्य क्वाप्यगात्कुधीः॥ ६४ ॥ सुमित्रमन्यदापृच्छय, स्वपुरं सूरसर्ययो । धर्मकार्य च | नो मित्र-मिव स व्यस्मरत्क्वचित् ॥ ६५ ॥ अथ रत्नवतीभ्राता, कमलोऽनङ्गसिंहसूः ॥ सुमित्रभगिनी जहू ,कलिङ्गाधिपतेः प्रियाम् ॥ ६६ ॥ तच्छ त्वा व्याकुलं ज्ञात्वा, सुमित्रं खेचराननात् ॥ ऊचे चित्रगतिर्जामि-मानेष्येऽन्विष्य सत्वरम् ॥ ६७ ॥ विद्यया | तां हृतां ज्ञात्वा, कमलेन बलान्वितः ॥ ययौ चित्रगतिस्तूणं, नगरे शिवमन्दिरे ॥ ६८ ॥ कमलेन समं तत्र, व्यग्रहीन्न्यग्रहीच तम् ।। तच्च ज्ञात्वाऽनङ्गसिंहः, क्रुधाऽधावत सिंहवत् ! ।। ६६ ।। ततस्तयोरभूयुद्धं, दारुणेभ्योऽपि दारुणम् ॥ चित्रं च दुर्जयं ज्ञात्वाऽनङ्गस्तं खड्गमस्मरत् ।। ७० ॥ ज्वालामालाकुलं देव-दत्तं शत्रुमदापहम् ॥ तत्खड्गरत्नं तत्पाणा-वापपात ततोद्रुतम् ॥ ७१ ॥ अनङ्गोऽथ जगौ मूर्ख !, किं मुमूर्षसि याहि रे ! ।। नो चेदेकोऽपि पञ्चत्वं, गन्ता त्वमसिनाऽमुना ॥ ७२ ॥ ऊचे चित्रगतिर्लोह-खण्डेनानेन यो मदः । स ते स्वबलहीनत्व-मेव सूचयति स्फुटम् ! ॥ ७३ ।। इत्युक्त्वा विद्यया चक्रे, तमस्कायोपमं तमः ॥ पाणिस्थमपि नापश्य-कोIASपि तल्लुप्तलोचनः ॥ ७४ ॥ तमसिं तमसि व्याप्ते, सद्य आच्छिद्य तत्करात् ॥ सुमित्रजामि चादाय, ययौ चित्रगतिस्ततः ॥७॥ geeeeeeeeeeeee avecvV GVEEVES VERVEEVEEVE Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१५॥ ॥१०॥ AAAAAAPASTARATHI क्षणाच तिमिरे क्षीणे, नृसिंहोऽनङ्गसिंहराट् ॥ पश्यन्नापश्यत्कृपाणं, पाणौ तं च रिपुं पुरः ॥ ७६ ॥ क्षणं व्यषीदत्स्मृत्वा त-ज्ज्ञानिवाक्यं तुतोष च ॥ ज्ञेयः शाश्वतचैत्येऽसौ, ध्यायश्चेति गृहं ययौ ॥ ७७ ॥ सुमित्रायाखण्डशीलां, जामि चित्रगतिर्ददौ ॥ भगिनीहर- णोत्पन्न-दुःखात्स तु विरक्तवान् ॥ ७८ ॥ राज्ये न्यस्य ततः पुत्रं, समीपे सुयशोमुनेः ॥ सुमित्रः प्राबजच्चित्र-गतिस्तु स्वपुरेऽव्रजत् ॥७६ ।। नवपूर्वी किश्चिदूना-मधित्यानुज्ञया गुरोः ॥ विहरन्नेकदैकाकी, सुमित्रो मगधेष्वगात् ।। ८०॥ तत्र ग्रामावहिः क्वापि, कायोत्सर्गेण तं स्थितम् । भ्रमंस्तत्रागतोऽपश्य-त्पद्माह्वस्तद्विमातृजः॥१॥ आकर्ण वाणमाकृष्य, मुनि हृदि जघान सः ॥ मुनिस्तु तस्मै | नाकुप्य-दिति चान्तरचिन्तयत् ! ॥२॥ दोषो ममैव यन्नाह-मस्मै राज्यमदां तदा ॥ तदेष क्षमयाम्येन-मन्यांश्चासुमतोऽखिलान् ॥३॥ ध्यायन्नितिसुमित्रर्षि-विहितानशनः सुधीः ॥ विपद्य वासवसमो, ब्रह्मलोके सुरोऽभवत् ॥ ८४ ॥ पद्मस्तु निशि तत्रैवा-ऽहिदष्टोऽगात्त- | मस्तमाम् ! ॥ सुमित्रं च मृतं ज्ञात्वा, व्यषीदत्सूरसूभृशम् ॥ ८५ ॥ यात्रामहोत्सवे सिद्धा-यतने सोऽन्यदा ययौ ॥ परेऽपि मिमिलुस्तत्र, भूयांसः खेचराधिपाः ॥८६॥ रत्नवत्या समं तत्रा-ऽनङ्गसिंहोऽप्युपागमत् ॥ तत्र चित्रगतिभक्त्या, जिनानभ्यर्च्य तुष्ट वे ॥८७ ॥ मित्रं द्रष्टुं सुमित्रोऽपि, सुरस्तत्रागतस्तदा ॥ चित्रां चित्रगतेमूनि, पुष्पवृष्टिं व्यधान्मुदा ॥ ८८ ॥ विवेदानङ्गसिंहोऽपि, तमेव दुहितुः पतिम् ॥ प्रत्यक्षीभृय देवोऽपि, किं मा वेत्सीत्युवाच तम् ॥ ८६ ॥ देवो महर्द्धिस्त्वमिति, प्रोक्त सूरभुवा सुरः । प्रत्यभिज्ञाकृते पूर्व-भवरूपमदर्शयत् ॥ १०॥ ततो मुदा चित्रगति-रित्युचे परिरभ्य तम् ॥ महाभाग ! मया धर्मो, लेभेऽसौ त्वत्प्रसादतः ॥११॥ देवोऽवादीदियं लक्ष्मी-स्तदा मे जीवितार्पणात् ॥ त्वयाऽदायि न चेत्तत्र, मृत्यौ देवगतिः क्व मे ? ।। ६२ ।। उपकारमिति प्राच्यं, वदन्ती विक्ष्य तौ मिथः ॥ सूरचक्रीप्रभृतयः, सर्वेऽमोदन्त खेचराः ।। ६३ ॥ चित्रो नेत्रावना रत्न-वत्याश्चित्तेऽविशत्तदा ॥ तत्स्पर्धयेव का EEVEGVEVEYcererererererere Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यनसूत्रम् अध्य०२२ ॥१५॥ मोऽपि, तत्रैव विदधे पदम् ॥ ६४ ॥ लज्जांशुकमपाकृत्य, सार्थ कामग्रहाकुला ॥ भावमाविधकार स्वं, चेष्टितैर्विविधैर्दुतम् ॥६५॥ त क उत्तराध्य च कामातुरां वीक्ष्या-ऽनङ्गसिंहो व्यचिन्तयत् ॥ ममासिमिव जह्व ऽसौ, मनोऽप्यस्या महामनाः! ॥ १६ ॥ ददे तदेनामत्रैव, कालक्षेपेण | किं मुधा ? ॥ धर्मस्थानेऽथवा कार्यमिदं नार्हति धीमताम् ! ॥ ३७॥ध्यात्वेति स्वगृहं सोऽगा-द्विसृज्याथ सुहृत्सुरम् ।। पित्रा समं चित्र५१५१॥ || गति-रपि स्वसदनं ययौ ॥८॥ अनंगोऽथ सुतां दातु, प्रेषीन्मंत्रिणमात्मनः ॥ सोऽपि गत्वा प्रणम्यैव-मब्रवीत्सूरचक्रिणम् ॥६६॥ अयं चित्रगती रत्न-वती चेयं गुणांधिकौ ॥ स्वर्णरत्ने इव स्वामिन् !, मिथो योगाद्विराजताम् ॥१०० ॥ प्रपद्य तन्मुदा सूरस्तां सु तेनोदवाहयत् ।। सोऽपि भेजे यथाकालं, धर्मसौख्ये तया समम् ॥ १०१ ॥ राज्यं चित्रगतेदत्वा-ऽन्यदा सूरमहीपतिः ॥ आदाय सKाद्रोर्दीक्षां, क्रमात्प्राप परं पदम् ॥ १०२ ॥ ततश्चित्रगतिश्चित्र-कारिविद्यावलोर्जितः ॥ चिरं खेचरचक्रित्व-मन्वभूचण्डशासनः ॥१.३॥। स्वसामन्तसुतौ राज्य-कृते युवा मृतिं गतौ ॥ विक्ष्याऽन्यदा चित्रगतिः, प्राप वैराग्यमुत्तमम् ।। १०४ ॥ ततो निधाय तनयं, राज्ये | चित्रगतिनृपः ॥ पर्यबाजीदमचरा-चार्यपार्श्वे प्रियायुतः॥१०५॥ चिरं विहृत्य प्रान्ते चा-ऽनशनेन विपद्य सः॥ रत्नवत्या | समं तुर्यकल्पे देवत्वमासदत् ।। १०६ ॥ अथापरविदेहेषु, विजये पद्मसंज्ञके ॥ पुरे सिंहपुरे नाम्ना, हरिणन्दी नृपोऽभवत् I॥ १०७॥ तस्य सान्वर्थनामासीद्राज्ञी तु प्रियदर्शना । च्युत्वा चित्रगतेर्जीव-स्तत्कुक्षाववतीर्णवान् ।। १०८ ॥ काले चामृत सा. पुत्र, | रत्नमाकरभूरिख ।। तस्याऽपराजित इति, नामधेयं व्यधान्नृपः ।। १०६ ।। क्रमेण कलयन् वृद्धि-मादाय सकलाः कलाः ॥ स पाप पुन | ण्यं तारुण्यं, पूर्णत्वमिव चन्द्रमाः ।। ११० ॥ सपांशुक्रीडितस्तस्य, वयस्यः सचिवाङ्गजः ॥ जज्ञे विमलबोधाख्यो, द्वितीयमिव तन्मनः ।। १११ ।। कुमारांवन्यदा वाजि-हृतौ तौ प्रापतुर्वनम् । तदाऽऽपराजितो मित्रं, मंत्रिपुत्रमदोऽवदत् ।। ११२ ॥ दिष्टयाऽश्वाभ्यां हृता VetaleeveeYEGE-EuVEeeeeeeeve Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य०२२ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१५२॥ ॥१५२॥ NEEDEEEEEEEEEEV वावां, पित्राज्ञावशयोन चेत ॥ कथं स्यादावयो रम्यं, देशान्तरविलोकनम् ! ॥ ११३ ।। पितृभ्यामावयोः सेहे, विरहः साम्प्रतं ततः ॥न यास्यावो गहं किन्तु, द्रक्ष्यावः कौतुकं भुवः ! ॥११४ ॥ एवमस्त्विति तं याव-प्रत्यूचे सचिवात्मजः ॥ पाहि पाहीतिगिस्ताव-तत्रागा- कोऽपि पूरुषः ॥११५॥ मा भैषीरिति तं भीतं, कुमारो यावदब्रवीत् ॥ कृपाणपाणयस्ताव-दागुस्तत्रोद्भटा भटाः ॥ ११६ ॥ मुषितास्मत्पुरम,, हनिष्यामो वयं ध्र वम् ॥ रे पान्थौ ! तद्युबा यात-मिति ते प्रोचिरे च तो ॥ ११७ ॥ शक्रोऽपि मां श्रितं हन्तुं न शक्तः के पुनः परे ? ॥ इत्युक्तेऽथ कुमारेणा-ऽधावस्ते हन्तुमुच्चकैः ।। ११८ ॥ आकृष्टासिः कुमारस्तान्मृगान् सिंह इव न्यहन् । ततो नंष्टवा तदचस्ते. स्वविभोः कोशलेशितः ॥ ११६ ।। सैन्यं प्रैपीन्नपोऽजैषी-कुमारस्तदपि द्रुतम् ॥ कृपीटयोनेः स्फुरतः, पुरः को हि तृणोत्करः १ ॥१२० । आगात्ततः स्वयं भूप-श्चतुरङ्गचमूवृतः ।। दत्वाथ सुहृदो दस्यु', सज्जोऽभूद्भपभूयुधे ॥ १२१ ।। उत्प्लुत्य दत्तद-12 न्तांघिः, कञ्चिदारुह्य दन्तिनम् ।। हत्वा धोरणमारेभे, स रणं वारणं गतः! ।। १२२ ।। राज्ञेऽमात्योऽथ कोप्यूचे, दृष्टपूव्यु पलक्ष्य तम् ॥ ततः सैन्यान्नपो जन्या-निषीध्येति जगाद तम् ।। १२३ । वत्स ! पुत्रोसि सख्युमें, हरिणन्दिक्षमाभुजः ।। विक्रमेणामुना वीर !, न पिता होपितस्त्वया ! ।। १२४ ॥ दिष्ट्याऽतिथिस्त्वमायासी-दिष्ट्या दृष्टोऽसि शिष्ट हे ! ।। उक्त्वेति तं नपः स्वेभ-मारोप्य परिषस्वजे | ॥१२५ ॥ मंत्रिपुत्रान्वितं तं च, नीत्वा निजगहं नपः ।। मुदा व्यवाहयत्पुत्र्या, स्वया कनकमालया ॥ १२६ ॥ तत्र स्थित्वा दिनान्का| श्चि-न्मित्रयुक्तोऽपराजितः ।। विघ्नो मा भूत्प्रयाणस्ये-त्यनुक्त्वा निरगानिशि ॥ १२७ ।। गच्छंश्च विपिने हा ! हा !, निव्वीरोवीति रोदनम् ।। आकर्ण्य करुणं वीर-स्तं शब्दमनु सोऽगमत् ।। १२८ ।। अग्रे चैकां ज्वलज्ज्वाला-जिह्वोपान्ते स्थितां स्त्रियम् ।। नरं चैक समाकृष्ट करवालं ददर्श सः ॥ १२६ ॥ योऽत्र वीरः स मामस्मा-स्पातु विद्याधराधमात् ।। इति भूयस्तदाक्रन्दत् , श्येनात्ता वर्तिकेव सा CAVEEEEEEEEEEEEEE Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥१५३॥ ! ।। १३० ।। अथेत्यूचे कुमारस्त-मरे ! सज्जो भवाजये | अबलायां बलमदः, किं दुर्मद करोषि रे ! ।। १३१ ॥ सार्थः प्रेत्यगतौ भीरो-रस्यास्त्वं भवितासि रे ! ब्रुवन्निति ततः सोऽपि, डुढौके योद्धमुद्धतः ।। १३२ ।। खड्गाखड्गि चिरं कृत्वा, तौ मिथो घातवश्विनौ || दोयुद्धेन न्ययुध्येतां, कम्पयन्तौ द्रुमानपि ।। १३३ ।। नागपाशैर्वबन्धाथ, तं पुन्नागं स खेचरः ॥ तांश्च सोऽत्रोटयत्तूर्णं, जीर्णरज्जूरिव द्विपः ।। १३४ ।। विद्याधरोऽथ विद्यास्त्र :, प्रजहारापराजितम् ।। तानि न प्राभवन्पुण्य-- बलाढ्य तत्र किंचन ! ।। १३५ अथोदिते खौ मूर्ध्नि, कुमारेणासिना हतः । पपात मूच्छितः पृथ्व्यां, सद्यो विद्याधराग्रणीः ।। १३६ ।। स्वस्थीकृत्य पुनर्योद्ध कुमारेणोदितस्ततः ॥ उवाच खेचरः साधु, मामजैषीर्महाभुज ! ।। १३७ ।। विद्येते मित्र ! वस्त्रान्त - ग्रन्थौ मे मणिमूलिके ।। घृष्ट्वाऽम्बुना मणेदेहि, प्रहारे मम मूलिकाम् ।। १३८ ।। कुमारोऽपि तथा चक्रे, खेचरोऽप्यभवत्पटुः ॥ पृष्टोऽपराजितेनेति, स्ववृत्तान्तं जगाद च ॥ १३६ ॥ असाव तसेनस्य, सुता विद्याधरप्रभोः ।। रत्नमालाभिधा शालिगुणरत्नालिमालिनी ।। १४० ॥ रक्ताऽपराजिते भावि भर्त्तरि ज्ञानिनोदिते ।। अभ्यर्थिता मयाऽन्येद्यु- विवाहायैवमब्रवीत् ।। १४१ ।। [ युग्मम् ] भर्त्ताऽपराजितो मे स्या - दहेन्मां दहनोऽथवा ! ।। तदाकयऽकुपं सुर - कान्तः श्रीषेणसूरहम् ॥ १४२ ॥ विद्या बह्वीः कृतेऽमुष्या दुःसाधा अप्यसाधयम् । एनां च बहुधाऽयाचं न त्वियं माममानयत् ॥ १४३ ॥ अथास्याः पूर्यतां वन्हि - दाहात्सन्धेतिधीः क्रुधा || एनामिहानयं हृत्वा, हत्वाऽग्नौ क्षेप्तुमुद्यतः ! ॥ १४४ ॥ अस्या मम च पुण्यौघैराकुष्टेन त्वया पुनः ॥ मत्तोऽसौ रक्षिताऽहं च, स्त्रीहत्याभाविदुर्गतेः ॥ १४५ ॥ परं परोपकारिन् ! त्वं कोऽसीति ब्रूहि सन्मते ! ।। तेनेत्युक्ते ऽवदद्भ प-भूवो नामादि मंत्रिसूः ॥ १४६ ॥ तदाकर्ण्य तदा रत्न- मालाऽन्तमु मुदेऽधिकम् ॥ कामं 'कामषक्ता १ परोपकारी 'घ' पुस्तके ॥ २ कामवाणनाम् ॥ अध्य०२२ ॥१५३॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य अध्य०२२ ॥१५४॥ ना, गोचरत्वमियाय च ॥ १४७ ॥ गवेषयन्तौ तां तत्रा-ऽगातां तत्पितरौ तदा ॥ यथावृत्तमथावादी-त्पृच्छन्तो मन्त्रिमूस्तयोः ॥१४८॥ यनसूत्रम का ततस्तौ मुदितौ भूप-सुवेऽदत्तां निजाङ्गजाम् ।। अभयं सूरकान्ताया-ऽर्पयतां तद्राि पुनः ॥ १४६ ॥ ते मणीमुलिके वेषान्तरदा ॥१५॥EII गुटिकास्तथा ॥ कुमारे निःस्पृहे सूर-कान्तो मंत्रिभुवे ददौ ॥ १५० ॥ गते मयि निजं स्थान-मानेयाऽसौ स्वनन्दना ॥ IPL इत्युक्त्वाऽमृतसेनाय, भूपभूः पुरतोऽचलत् ॥ १५१ ॥ तं कुमारं स्मरन्तस्ते, स्वस्थानं खेचरा ययुः ॥ कुमारोऽपि पुरो गच्छन्न ट्रव्यां तृषितोऽभवत् ॥ १५२ ॥ निवेश्य तं च चूतोधो-ऽमात्यभूरम्भसे गतः-प्रत्यायातस्तदादाय, तत्र मित्रं न दृष्टवान् ।।१५३।। सोऽथ शोकाकुलो मित्र-मन्वेष्टुं सर्वतो भ्रमन् ॥ मूच्छितो न्यपतलब्ध-संज्ञस्तु व्यलपभृशम् ॥ १५४ ॥ कथञ्चिद्वैर्यमाधाय, तं द्रष्टुं पर्यटन्पुनः॥ प्राप्तो नन्दिपुरोद्याने, सोऽतिष्ठयावदुन्मनाः ॥ १५५ ॥ तावदागत्य तं विद्या-धरी द्वावेवमचतुः ॥1॥ का विद्याधरेन्द्रो भुवन-भानुनामास्ति विश्रुतः ॥ १५६ ॥ तस्य च स्तः कमलिनी-कुमुदिन्याबुभे सुते ॥ भर्ता तयोश्च ।। # कथितो, ज्ञानिना भवतः सखा ॥१५७ ॥ स्वामिनाथ तमानेतु, प्रहितौ तत्र कानने ॥ आवां युवामपश्याव, त्वं चागाः पाथसे तदा all १५८ ॥ हृत्वाऽऽवां तव मित्रं चा-ऽनयाव स्वामिनोऽन्तिके ।। तं चाभ्युत्थाय भुवन-भानुरासयदासने ॥ १५६ ।। उद्वोढुं | स्वसुते सोऽथ, प्रोक्तो भुवनभानुना ॥ दधौ तूष्णीकतामेव, खद्वियोगव्यथाकुलः ॥ १६० ॥ त्वामानेतुं ततः प्रोक्तौ, प्रभुणाऽऽवामि हागतौ ॥ दिष्टयाऽपश्याव पश्यन्ती, नष्टस्वमिव सर्वतः ! ॥ १६१ ।। महाभाग ! तदेहि त्वं, सद्योऽस्मत्स्वामिनोऽन्तिके ।। विधाय कीडया A सौधं, भूमिष्ठे तस्थुषो वने ॥ १६२ ॥ तदाकर्ण्य समं ताभ्यां, तुष्टोऽगासव मंत्रिभूः॥ कुमारोऽपि कुमायौं ते. पर्यणैषीत्ततो | ॥१६३ ॥ ततस्तो निर्गती प्राग्व-गतौ श्रीमन्दिरे पुरे । सूरकान्तार्पितमणी-पूर्णेच्छौ तस्थतुः सुखम् ॥ १६४ ॥ पुरे तत्रान्यदा SENANNONDAVCEV VENNE Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०२२ ॥१५॥ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१५॥ AAAAAAAAAAAAY | कर्ण्य, प्रोच्चैः कलकलारवम् ।। किमेतदिति सम्भ्रान्तो-ऽपृच्छन्मित्रं नृपाङ्गजः ।। १६५ ॥ सोऽपीत्यूचे जनाज्ज्ञात्वा, सुप्रभोत्रास्ति भूप्रभुः ॥ स च प्रविश्य केनापि, शस्त्र्याध्याति छलान्विषा ।। १६६ ॥राज्ञोस्य राज्ययोग्यश्च, सुतादिन हि विद्यते ॥ तेनातिव्याकुलैलोक-स्तुमुलोऽसौ विधीयते ? ॥ १६७ ॥ तच्छु त्वारातिनाघाति, केनाप्ययमिति ब्रुवन् ॥ व्यषीदद् भूपभूः सन्तो, ह्यन्यदुःखेन दुःखिनः ॥ १६८ ॥ अथोपायैरप्यजाते, स्वास्थ्ये भूपस्य धीसखान् ॥ ऊचे गाणिक्यमाणिक्य-मिति कामलता रहः ॥ ॥१६६ ॥ | वैदेशिकः पुमान्कोऽपि, समित्रोत्रास्ति सद्गुणः ।। सम्पद्यमानसर्वार्थः, सदोपायं विनापि हि ! ।। १७० ॥ तत्पावें भेषजं किश्चि-द्भावि श्रुत्वेति तद्गिरम् ।। उपभूपं कुमारं तं, मंत्रिणो निन्युरादरात् ।। १७१ ॥ कृपालुः सोऽपि सख्युस्ते, गृहीत्वा मणिमूलिके ।। मणीनीरेण घृष्ट्वा त-त्प्रहारे मूलिकां न्यधात् ॥ १७२ ॥ ततः सज्जतनू राजा, राजाङ्गजमिदं जगौ ॥ कूतोऽकारणबन्धुस्त्व-मत्रागाः ? सकृतैर्मम ! ॥१७३ ॥ तन्मित्रेणाथ तवृत्ते, प्रोक्त भूयोऽभ्यधान्नृपः ।। मन्मित्रस्य सुतोऽसि त्वं, दिष्टया स्वगहमागमः ।। १७४ ॥ इत्युक्त्वा स्वसुनां रम्भा-भिधां तस्मै ददौ नृपः । तत्र स्थित्वा चिरं प्राग्व-समित्रो निर्जगाम सः ॥ १७५ ॥ सोऽथ कुण्डपुरोधाने, गतः स्वएर्णाम्बुजस्थितम् ।। वीक्ष्य केवलिनं भक्त्या, नत्वा शुश्राव देशनाम् ।। १७६ ।। भगवन्नस्मि भव्योह-मभव्यो वेति शंस मे ॥ अथापराजितेनेति, पृष्टः प्रोवाच केवली ॥ १७७ ॥ भव्योऽसि जंबूद्वीपस्य, भरते पंचमे भवे ॥ भावी द्वाविंशो जिनस्त्वं, सखाऽसौ तु गणी तव ॥ १७८ ॥ तदाकर्ण्य सहर्षों तौ, भेजतुस्तं मुनि चिरम् ॥ मुनौ तु विहृते ग्रामा-दिषु चैत्यानि नेमतुः ॥१७६ ॥ इतश्च श्रीजनानन्दे,जनानंदकरे पुरे ॥ जितशत्रुरभूर्भूपः, तस्य राज्ञी तु धारिणी ॥१८० ॥ दिवो रत्नवतीजीवश्च्युत्वा तत्कुक्षिo माययौ ॥ काले चामृत सा प्रीति-मतीसंज्ञां सुतां शुभाम् ॥ १८१॥ क्रमेण वर्द्धमाना सा, स्वीकृत्य सकलाः कलाः ॥ आससाद जग VEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१५६॥ ANELEYALEEVESLEY ज्जैत्रं, वैदग्ध्यमिव यौवनम् ॥ १२॥ तस्याः पुरोऽतिविज्ञाया, जज्ञे प्राज्ञोऽपि बालिशः ॥ ततोऽरज्यत सा काऽपि, पुरुषे न मनागपि अध्य०२१ ॥१८३ ॥ तां च कस्ते धवोऽभीष्टः ?, इत्यपृच्छन्नपोऽन्यदा ॥ सा जगौ मां जयति यो, वादे भर्ता ममास्तु सः!॥ १८४ ॥ तत्प्र-4 ॥१५६।। पद्य नृपोऽन्येद्यः, स्वयंवरणमण्डपम् ।। चारुमश्चाञ्चितं चित्र-कारिचित्रमचीकरत् ॥ १८५ ॥ तत्र पुत्रवियोगात, हरिणन्दिनृपं विना ।। समं कुमारैरेयुस्त-दृताहूता नृपाः समे ॥ १८६ ॥ अधिमञ्च निषण्णेषु, तेषु दैवात्परिभ्रमन् ॥ समित्रः 'सबुधो मित्र, इवागादपराजितः ॥ १८७ ॥ मा दृष्टपूर्वी नौ ज्ञासी-दिति तौ गुटिकावशात् ।। रूपं निर्माय सामान्य-मगातां तत्र मण्डपे ॥ १८८ ॥ दधाना चारु नेपध्यं, सखीदासीजनावृता ॥ अथ तत्राययौ प्रीति-मती लक्ष्मीरिवापरा ॥ १८६ ॥ अंगुल्या दर्शयन्ती ता-नृपान्नृपसुतांस्तथा ॥ तदेति मालतीसंज्ञा, तद्वयस्या जगाद ताम् ।। १६० ॥ खेचरा भूचराश्चामी, वरीतुत्वामिहाययुः ॥ तदेषां वीक्ष्य दक्षाणां, दाक्ष्यं वृणु समीहितम् ॥१६१।। तयेत्युक्ता नृपे यत्र, यत्र प्रायुक्त सा दृशौ । तयोक्त इव कामोपि, तत्र तत्राशुगान्निजान् ॥१६२॥ स्वरेण मधुरेणाथ, पूर्वपर्त चकार सा ॥ वाग्देवी किमसौ साक्षा-दिति दध्यौ जनस्तदा ? ॥ १६३ ॥ तस्याः प्रतिवचो दातु, प्रभुष्णः कोऽपि नाभवत् ॥ विलक्षाः || 'किन्तु सर्वेऽपि, भुवमेव व्यलोकयन् ॥ १६४ ॥ रूपेणैव मनोऽस्माकं, जहारासौ विना तु तत् ।। क्व शक्तिरुत्तरं दातु-मिति चाहुमुहुमिथः ॥१६५॥ जितशत्रुस्ततो दध्यौ, सर्वेऽमी सङ्गता नृपाः ।। योग्यो न चैषु मत्पुत्र्याः, कोऽपि तत्क भविष्यति ? ॥ १६६ ॥ ध्यायन्तमिति तं प्रोचे, भावज्ञः कोऽपि धीसखः । विपादेन कृतं नाथ !, बहुरत्ना हि भूरियम् ॥ १७॥ राजा राजाङ्गजोऽन्यो वा, वादे यो निजयेदिमाम् । स एव भर्ता स्यादस्या, इतीहोद्घोष्यतां विभो ! ॥१९८॥ ओमित्युक्त्वा नृपोऽप्युच्चै-स्तत्तथैवोदघोषयत् ॥ श्रा १ बुधेन युक्तः सूर्य इव ।। २ भाशुगान् बाणान् ॥ GEEEEEEEEEVEEveeeevee FANOR Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य बनसूत्रम् का अध्य० २२ ॥१५७।। ॥१५७॥ EVESVEIDEELLEEEEEE गादपप्रीतिमति, तच्चाकाऽपराजितः ॥ १६॥ दुर्वेषमपि तं प्रेक्ष्य, पूर्वप्रेम्णा जहर्ष सा ॥ नानन्दयति किं भानु-भ्रच्छन्नोऽपि पद्मिनीम् ? ॥२०० ॥ पूर्ववत्पूर्वपक्षं च, चक्रे प्रीतिमती कनी ॥ तां चापराजितोऽजैपी-द्वादे क्वाप्यपराजितः ॥ २०१॥ स्वयंवरस्रजं साथ, तत्कण्ठे क्षिप्रमक्षिपत् ।। ततः सर्वे नृपाः क्रुद्धा, युद्धायासज्जयन्भटान् ! ॥ २०२॥ कोऽसौ वराको वाकशूरो-ऽस्मासु सत्सूहेदिमाम ? ॥ वदन्त इति सामर्ष, घोरमारेभिरे रणम् ।। २०३ ।। हत्त्वा कंचित्कुमारस्तु, गजस्थं तद्गजस्थितः ॥ युयुधे रथिनं हत्त्वा, क्षणाच स्यन्दनस्थितः ॥ २०४॥ एवं सादी रथी पत्ति-निषादी च मुहुर्भवन् ॥ युध्यमानोऽमानशक्तिः, सोऽभाक्षीन्मंच विद्विषः ! ॥२०५ ॥ शास्त्रैः स्त्रिया जिताः शस्त्र-स्त्वनेनेति त्रपातुराः॥भूयः सम्भूय जन्याय, राजन्यास्ते डुढौकिरे ! ॥ २०६ ॥ राज्ञः सोमप्रभस्येभ- मारुरोहाथ भूपभूः ।। प्रत्यभिज्ञातवांस्तं च, स भूपस्तिलकादिना ॥ २०७॥ जामेयामेयवीर्य ! त्वां, दिस्थाऽवेदमिति ब्रवन् । सोमः सोममिवोदन्या-न्मुदा तं परिषस्वजे ! ॥ २०८ ॥ तत्स्वरूपेऽथ तेनोक्त, नृपाः सर्वे जहुयुधम् ॥ कुमारोऽपि निजं रूप-माविचक्रे मनोरमम ॥ २० ॥ सर्वोर्वीवल्लभैर्वर्ण्य-मानरूपपराक्रमः ॥ प्रीतः प्रीतिमती सोऽथ, परिणिन्ये शुभेऽहनि ॥ २१ ॥ व्यसृजज्जितशत्रस्ता-नृपान् सत्कृत्य कृत्यवित् ।। प्रीतिमत्या रमन्त्रीत्या, तस्थौ तवापराजितः॥ २११ ॥ हरिणन्दिमहीभत्त-दुतस्तत्रागतोऽन्यदा ।। पित्रोः कुशलमस्तीति, तं चालिंग्य स पृष्टवान् ।। २१२ ॥ दूतोऽवादीत्तयोरस्ति, कुशलं देहधारणात् ॥ तव प्रवासदिवसामतद्वान्ति दृशस्तयोः ॥ २१३ ॥ त्वद्वृत्तान्तमिमं श्रुत्वा, पितृभ्यां प्रहितोऽस्म्यहम् ।। तन्निजं दर्शनं दत्वा, तावद्यापि प्रमोदय ॥२१॥ तदाकोत्सुकः पित्रो-दर्शनायापराजितः॥ आपृच्छय श्वशुरं प्रीति-मत्या सह ततोऽचलत् ॥ २१५ ॥ तेन पूर्वमुढा या-स्ता आदाय स्वनन्दनाः ॥ नृपाः समे समाजग्मु-स्तत्समीपं तदा मुदा ॥ २१६ ॥ खेचरैचरैवापि, स सैन्यार्थिवैवतः॥ भार्याभिः शोभितः GreecreereeVeeveereveeVeerav sve Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०२२ ॥१५॥ उत्तराध्य KI षड्भिः, सोऽगासिहपुरं क्रमात ॥ २१७ ॥ हरिणन्दी तमायान्तं, श्रुत्वाभ्यागात्प्रमोदभाक् ॥ तं चानमन्तमालिंग्य, चुम्बन्मौलौ मुह IT मुहुः ॥ २१८ ॥ नमन्तं तं च मातापि, पाणिभ्यामस्पृशन्मुहुः॥ स्नुषाश्च प्रीतिमत्याचा, नेमुः श्वशुरयोः क्रमान् ॥ २१६ । उक्त ॥१५॥ विमलबोधेन, श्रुत्वा तद्वृत्तमादितः ॥ पितरौ प्रापतुहर्ष, तत्संगोत्थमुदोऽधिकम् ॥ २२० ॥ विससर्ज कुमारोऽथ, भूपान्भूचरखेचरान् ।। तं च न्यस्यान्यदा राज्ये, राजा प्रव्रज्य सिद्धवान् ।। २२१ ।। तुङ्ग रहद् हैभूमि, भूषयन्भूषणैरिव ।। ततोऽपराजितोर्वीश-श्चिरं राज्यमपालयत् ॥ २२२ ॥ स राजाऽन्येद्यरुद्याने, गतो मृा जितस्मरम् ।। वृतं मित्रर्वधूभिश्च, महेभ्यं कश्चिदैक्षत ॥ २२३ ॥ गीतासक्त ददानं च, दानमत्यर्थमर्थिनाम् ॥ तं वीक्ष्य मापतिः कोऽसा-विति पप्रच्छ सेवकान् ? ।। २२४ ।। असौ समुद्रपालस्य, सार्थेशस्य सुतः प्रभो ! ॥ अनंगदेवो नाम्नेति, प्रोचिरे तेऽपि भूभुजे ॥ २२५ ।। वाणिजा अपि यस्यैव-मुदाराः परमर्द्धयः ।। सोऽहं धन्य इति ध्यायं-स्ततोऽगाद्भधवो गृहम् ॥ २२६ द्वितीये च दिने वीक्ष्य, शबं यान्तं जनैवतम् ।। राज्ञा कोऽसौ मृत इति, पृष्टा भृत्या इदं जगुः ॥ २२७ ॥ क्रीडन्नदर्शि यः काम-मुद्याने ह्यस्तने दिने ॥ स एवानंगदेवोऽसौ, द्राग् विशूचिकया मृतः! ॥ २२८ ॥ अहो ! अशाश्वतं विश्व', विश्वेऽस्मिन् सान्ध्यरागवत् ।। ध्यायनिति ततोऽध्यास्त, वैराग्यं परमं नृपः ।। २२६ ।। इतश्च यः कुण्डपुरे, पुरा दृष्टः स केवली ।। तत्रागादन्यदा दीक्षायोग्यं ज्ञानेन तं विदन् ।। २३० ॥ धर्म श्रुत्वा ततो न्यस्य, राज्यं पुत्रेऽपराजितः ॥ तत्पार्वे प्रावजत्प्रीति-मतीविमलबोधयुक् ।। २३१ ।। तपो व्रतं च सुचिरं, तीनं कृत्वा त्रयोपि ते ॥ विपद्यैकादशे कल्पे--ऽभुवन्निन्द्रसमाः सुराः ॥ २३२ ॥ इतश्चात्रैव भरते, पुरे श्रीहस्तिनापुरे ॥ श्रीषेणाहोऽभवद्भपः, श्रीमती तस्य च प्रिया ।। २३३ ॥ स्वप्ने शंखोज्ज्वलं पूर्णचन्द्रं मातुः प्रदर्शयन् ।। जीवोऽपराजितस्यागा-तस्याः कुक्षौ दिवश्च्युतः ।। २३४ ॥ सा सुतं समयेऽसूत, पूर्णेन्दुमिव पूर्णिमा ।। AAAAAAAAADAN ASEVGEGEVEEVEVE EVEVEVEVEVEY Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०२२ ॥१५॥ तस्योत्सवैः शङ्ख इति, नामधेयं व्यधात्पिता ॥ २३५ ॥ धात्रीभिलाग्यमानोऽथ, वृद्धिमासादयन् क्रमात् ॥ गुरोः कलाः स जग्राह, वाउत्तराध्य Aढेरप इवाम्बुदः ॥२३६ ।। स्वर्गाद्विमलबोधोऽपि, च्युत्वा श्रीषेणमंत्रिणः ॥ नाम्ना गुणनिधेः पुत्रो, जज्ञे नाम्ना मतिप्रभः ॥२३७॥ यनसूत्रम् ५१५६॥ सोऽभूच्छङ्घकुमारस्य, सपांशुक्रीडितः सखा ॥ मधुस्मराविव वनं, यौवनं तौ सहाऽऽप्नुताम् ॥ ३८ ॥ अथाऽन्यदा जानपदाः, नृपमेत्यैका वमूचिरे ।। देव ! त्वद्देशसीमाद्रा-वति दुर्गोऽस्तिदुर्गमः ।। २३६ ॥ नाम्ना समरकेतुश्च, पल्लीशस्तत्र वर्तते ॥ सोऽस्मान् लुण्टति तस्मा त्वं, रक्ष रक्ष क्षितीश नः ।। २४० ।। तन्निशम्य स्वयं तत्र, गन्तुमुत्को महीशिता ।। इति शङ्ककुमारण, नत्वा व्यज्ञपि साग्रहम् ।।२४१।। l शिशुनागे पक्षिराज, इवोद्योगः स्वयं प्रभोः । न युक्तस्तत्र पल्लीशे, तन्मामादिश तज्जये ।। २४२ ।। नृपाज्ञया ससैन्येऽथ, शंखे पल्लीमुपा गते ॥ दुर्ग विहाय पल्लीशः, प्राविशत् क्वापि गहरे ॥ २४३ ॥ सुधीः शंखोऽपि सामन्तं, दुर्गे कंचिदवीविशत् ॥ स्वयं पुनर्निलीयास्थाया निकुञ्ज क्वापि सैन्ययुक् ।। २४४ ॥ छलच्छेकोऽथ पल्लीशो, यावर्ग रुरोध तम् ॥ प्रबलैः स्वरलैस्ताव-त्कुमारस्तमवेष्टयत् ॥ २४५॥ दुर्गप्रविष्टसामन्त-कुमारकटकैरथ ॥ स्थितैरुभयतोऽधानि, भिल्लेशो मध्यगो भृशम् ॥ २४६ ॥ कांदिशीकस्ततः कण्ठे, कुठारमवलम्ब्य | सः।। कुमारं शरणीचक्र, प्राञ्जलिश्चैवमब्रवीत् ॥२४७।। मायाजालस्य संहर्ता, त्वमेव मम धीनिधे ! ॥ तव दासोऽस्मि सर्वस्वं, ममादत्स्व All प्रसीद च ॥ २४८ ।। तेनोपात्तं कुमारोऽथ, दत्वा तत्स्वामिनां धनम् ॥ पल्लीनाथं सहादाय, न्यवर्त्तत पुरं प्रति ॥ २४६ ।। मार्गे निवेश्य Koll शिविरं, स्थितो रात्रौ स भूपभूः ॥ श्रुत्वा रुदितमात्तासि-ययौ शब्दानुसारतः ॥ २५० ।। किंचिद्गतश्च वीक्ष्यार्द्ध-वृद्धां स्त्री रुदतीं पुरः ॥ किं रोदिषीति सोऽपृच्छत्ततः साप्येवमब्रवीत् ॥ २५१ अस्त्यंगदेशे चंपायां. जितारिः पृथिवीपतिः ।। तस्य कीर्तिमतीराइयां, HI जज्ञे पुत्री यशोमती ॥ २५२ ॥ कलाकलापकुशला, सा विभूषितयौवना ॥ सानुरूपमपश्यन्ती, वरं न क्वाप्यरज्यत ।। २५३ ॥ शंख | eeveeeeeeeeeeeeee Cerere EN Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्य यनसूत्रम् ॥१६०॥ || श्रीषेणपुत्रं साऽन्यदा श्रुखा गुणाकरम् ।। पतिर्मे शशंख एवेति अताओषीयशोमती ।। २५४ ॥ ततः (स्थावेऽनुरक्तं ध-मित्युच्चैस मुद नृपः ।। अयाचताऽन्यदा तां च, मणिशेखरखेचरः ।। २५५ ॥ जितारिर्जगौ नैषा, शङ्कादन्यं वुवूषते ॥ ततोऽकनीयः कामासौ, "कनी ते दीयते कथम् ? ।। २५६ ।। सोऽन्यदा तां तवोऽहार्षी सह पाच स्थया मया । असाध्यः जुग्रह वाऽऽग्रहः प्रायो हि रागिणाम् ।। २५७ ॥ मां तु तद्धात्रिक्रामत्र, हित्वा तामनयत्क्वचित् । ततो रोदिमि वीराहं, भविष्यति कथं हि सा १ ।। २५८ ॥ यैर्यं स्वीकुरु तं जित्वा-ऽऽनेष्ये तां कन्यकामहम् । इत्युक्त्वा गहने आम्यन, प्रातः सोऽगाद्विरौ क्वचित् ॥ २५६ ॥ शङ्ख एव विषोटा में, झूठ !! ३६ १ ॥ इति खेचरमाख्यांतीं, सोऽपश्यचत्र तां कनीम् || २६० || लाभ्यामदर्शि शंखोऽपि स्मित्वा स्माहाथ खेचरः || मुमूर्षुः सोऽयमत्रागा-यं वृवूर्षसि रे जड़े ! || २६१ || अमुं त्वदाशया साकं हत्वा नेप्ये यमौकसि ॥ त्वां च प्रसद्योदुधाशु, मुदा सह निजौकसि ॥ २६२ ॥ तदाकर्ण्य तमूचेथ, शंखोप्युत्तिष्ठ पाप रे ! | परनारीरिरंसां ते, हरामि शिरसा समम् ॥ २६३ ॥ खाखि ततोऽकाष्टां, चिरं तौ घातेवञ्चिनौ ॥ ज्ञात्वाथ दुर्जयं शंखं, विद्यास्त्रैः खेचरो न्यहन् || २६४ ॥ तानि न प्राभवंस्तत्र, पुण्याढ्ये वाडवेऽम्बुवत् ।। कुमारोऽथाऽऽच्छिनच्चापं, युद्धश्रान्तान्नभश्वरात् ।। २६५ ।। तद्वाणेनैव शंखेन खेचरः प्रहतोथ सः । मुमूर्च्छ तत्कृतैः शीतो- पचारैश्वाभवत्पटुः ॥ २६६ ॥ भूयो युद्धाय शंखेनो-त्साहितश्च वमब्रवीत् । केनाप्यनिजितो दोष्मन् !, साध्वहं निर्जितस्त्वया ! ।। २६७ ।। वीर्यक्रीतोऽस्मि दासस्ते, मंतुमेनं क्षमस्व मे ॥ शंखो प्युवाच त्वद्भक्त्या - तुष्टोऽस्मि ब्रूहि कामितम् ।। २६८ ।। सोऽवादीनित्य चैत्यानां, नत्यै मेऽनुग्रहाय च ।। एहि पुण्याढ्य ! बैताढ्य, शंखोऽपि तद्मन्यत ।। २६६ ॥ गुणैः समत्रैरुत्कृष्टं तं च प्रेक्ष्य यशोमती ॥ भर्त्ता मया वृतः श्रेष्ठ, इत्यन्तम् मुदे भृशम् ॥ २७० ॥ हाजग्मुः खेचराथ, मणिशेखरसेवकाः । तेषु द्वौ श्रेष्य सेनां स्वां, शंखः अध्य० २२ ॥१६०॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aaee Mail प्रेषीनिजे पुरे ॥ २७१ ॥ मानाय्य खेचरैस्तन, प्रारदृष्टां धात्रिकां तु ताम् ॥ धात्रीकनीखेचरयुग्, वैताटव भूमभूर्ययौ ।। २७२ ॥ तत्र उचराध्य | शाश्वतचैत्यस्था-प्रणम्याऽऽनर्च सोऽहंतः ॥ स्वपुरे तं च नीत्वोच्चै-रानचे मणिशेखरः ।। २७३ ॥ परेपि खेचरास्तत्र, प्रीता वैरि- अध्य०२२ यनस्त्रम् जयादिना ॥ पत्तीभूय कुमाराय, ददुर्निजनिजाः सुताः ॥ २७४ ॥ यशोमतीमुदुय व, परिणेष्यामि वः सुताः ।। शकुस्तानित्यवक सा ॥॥ ॥१६॥ ॥१६॥ हि, तस्य प्रोग्भवगेहिनी ॥ २७५ ॥ स्वस्वपुत्रीरथादाय, यशोमत्या सहान्यदा ।। मणीशेखरमुख्यास्तं, चम्पा निन्यनभश्चराः ॥ २७६ ॥ स्वपुत्र्या खेचरेन्द्रश्च, सह श्रीषेणनन्दनम् ।। ज्ञात्वाऽऽयान्तं मुदाऽभ्येस्य, जितारिः स्वपुरेऽनयत् ॥ २७७ ॥ यशोमती खेचरीश्च तत्र शक उपायत ॥ श्रीवासुपूज्यचेत्यानां, भक्त्या यात्रां च निममे ॥ २७८ ॥ विसृज्य खेचरांस्तत्र. स्थित्वाकांश्चिहिनांश्च सः॥ पत्नीभिः सह सर्वाभि-हस्तिनापुरमीयिवान् ॥ २७६ ॥ शंखं राज्ये-ऽन्यदा न्यस्या-ऽऽददे श्रीषेणराड व्रतम ॥ ततः सोऽपालयदाज्यं. वजीव प्राज्यवैभवः ।। २८० ।। तत्र श्रीषणराजपिरन्यदा प्राप्तकेवलः। बिहरबागमत्तं च, गत्या शडनपोऽनमत श्रुत्वा च देशनां मोह-पङ्कप्लावनवाहिनीम् ।। मुक्तिकल्पलताबीजं, वैसग्यं प्राप शंखराट् ॥ २८२ ॥ राज्यं प्रदाय पुत्रायः-सत्पाचे प्राव जच सः॥ मतिप्रभेणामात्येन, यशोमत्या च संयुतः ॥ २८३ ॥ क्रमाच्च श्रुतपारीणः, कुर्वाणो दुस्तपं तपः । स्थानर दतिया राजयज्जिननाम सः ॥ २८४ ॥ यशोमतीमंत्रिमुनि-युक्तः शंखमुनीश्वरः ॥ प्रान्ते प्रायं प्रपवागा-द्विमानमपराजितम् ॥ २५॥ हतश्चात्रैव भरते. पुरे शौर्यपुरेऽभवत् ।। ज्येष्ठनाता. दशाहोण, समुद्रविजयो नृपः ।।२८६ ॥ शिवाभिधाऽभक्त्तस्य. राशी विश्व शिवकरा ॥ च्युत्वाऽपराजिताच्छंख-जीवस्वकृषिमागमत् ॥२८७॥ सुखसुमा तदा देवी, महास्वप्मांधतुदेश ॥ वीक्ष्याधिक रिटरन नेमि । A चायत्महीभुजे ॥ २८८ ॥ पृष्टास्तदर्थ राज्ञाऽथ, तज्ज्ञाः प्रावरिदं जगुः ॥ चक्री. वा. धर्मचक्री वा, युस्माकं भविता सुक्तः ॥ २ पणे Geeeeeeeeee Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य अध्य०२२ ॥१६२॥ यनसूत्रम् ॥१६२॥ ZELETE कालेऽथ साऽवत, राज्ञी विश्वोत्तम सुतम् ॥ दिक्कुमार्योऽभ्येत्य तस्य, सूतिकर्माणि चक्रिरे ॥ २६ ॥ तस्येन्द्रा निखिलाश्चकु-मरौस्नात्रमहोत्सवम् ॥ पार्थिवोऽपि मुदा-चक्रे, पुरे जन्ममहोत्सवम् ॥ २६१॥ स्वप्ने दृष्टो रिष्टनेमि-त्रास्मिन्गर्भमागते ॥ इति तस्यारिष्ट नेमि-रिति नामाऽकरोन्नृपः ।। २६२ ॥ वासवादिष्टधात्रीभि-लाल्यमानो जगत्पतिः॥ समं जगन्मुदा वृद्धिं, दधदष्टाब्दिकोऽभवत् का॥२६३ ।। अथान्यदा यशोमत्या, जीवश्च्युत्वाऽपराजितात् ॥ उग्रसेनधराधीश-धारिण्योस्तनयाऽभवत् ॥ २६४ नाराजीमतीति संज्ञा सा, प्राप्ता वृद्धिमनुक्रमात् ॥ कलाकलापमासाद्य, पुण्यं तारुण्यमासदत् ॥ २६५ ॥ इतश्च मथुरापूर्या, वसुदेवाङ्गजन्मना । विष्णुना निहते कसे, जरासन्धसुतापतौ ॥ २६६ ॥ क्रुद्धागीता जरासन्धात्सङ्गत्य यदवोऽखिलाः ॥ पश्चिमाम्भोनिधेस्तीर, जग्मुर्दैवज्ञशासनात् ॥२६७॥ [युग्मम् ] तत्र श्रीदोऽच्युताराद्धो, नबयोजनविस्तृताम् ॥ द्वादशयोजनायामां, निममे द्वारकापुरीम् ।।२६८।। जात्यस्वर्णमयीं तां च, लङ्काशङ्काविधायिनीम् ॥ रामकृष्णदशार्हाद्या, यदवोऽध्यवसन्समे ॥ २६६ ॥ जरासन्धं प्रतिहरिं, हत्वा रामाच्युती क्रमात् ॥ भरताद्ध साधयिता-ऽभुजातां राज्यमुत्तमम् ॥ ॥ ३०० ॥ भगवान्नेमिनाथोऽपि, तत्र क्रीडन् यथासुखम् ॥ प्राप्तोऽपि पुण्यतारुण्यं, तस्थौ भोगपराङ मुखः ! ।। ३०१ ॥ तस्य च प्रभोः रूपादिस्वरूपं प्ररूपयितुमाह सूत्रकारःमूलम् सो रिटुनेमिनामो उ, लक्खणस्सरसंजुओ । अट्ठसहस्स लक्खणधरो, गोअमो कालगच्छवी ॥ ५ ॥ वजरिसहसंघयणो, समचउरंसो झसोदरो । तस्स राइमई करणं, भज्जं जाएइ केसवो ॥ ६॥ अह सा रायवरकराणा । सुसीला चारुपेहिणी ॥ सव्वलक्खणसंपन्ना, विज्जुसोआमणिप्पहा ॥ ७॥ Veeveeeeeeeeeeve BNNENENDAALENENERNE Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१६३॥ SEN जयध्य०२२ व्याख्या–अत्र 'लक्खणस्सरसंजुश्रोत्ति' स्वरलक्षणाणि माधूर्यगाम्भीर्यादीनि तैः संयुतो यः स तथा । 'अष्टसहस्रलक्षणधरः, ॥१६३॥ अष्टोत्तरसहस्रसंख्यशुभसूचकरेखात्मकचक्रादिधारी । 'गौतमो' गौतमगोत्रः''कालकच्छविः' कृष्णत्वक् ॥ ५॥ “झसोदरो" झषोमत्स्यस्तदाकारमुदरं यस्य सः तथा, तस्यारिष्टनेमे याँ, कत्तु मितिशेषः, राजीमती कन्यां । याचते केशवस्तत्पितरमिति प्रक्रमः ॥६॥ सा च कीदृशी ! इत्याह- अथेत्युपन्यासे राज उग्रसेनस्य वरकन्या राजवरकन्या, सुशीला, चारुक्षिणी, नाऽधोदृष्टित्वादिदोषदुष्टा 'विज्जुसोग्रामणिप्पहत्ति' विशेषेण द्योतते विद्यत्सा चासौ सौदामिनी च विद्युत्सौदामिनी तत्प्रभा तद्वर्णेति सूत्रत्रयार्थ ॥७॥राजीमतीयाचनं चैवम् - अथान्यदा विभुः क्रीडन् , शस्त्रशाला हरेययौ ।। शाङ्ग ञ्च धनुरादित्सु-रारक्षेणैवमीच्यत ।। ३०२ ॥ विना विष्णुमिदं चापं, नान्योऽधिज्ययितुं क्षमः ।। गिरीशमन्तरा को वा, नागेन्द्रं हारतां नयेत् ।। ३०३ ।। तत्कुमार ! विमुश्चास्य, चापस्य ग्रहणाग्रहम् ॥ अनारम्भो हि कार्यस्य, श्रेयानारभ्य वर्जनात् ।। ३०४ ॥ तदाकर्ण्य प्रभुः स्मित्वा, द्रुतमादाय तद्धनुः ।। वेत्रवन्नमयन्नुच्चै-लीलयाऽधिज्यमातनोत् ॥ ३०५ ॥ तेनेन्द्रचापकल्पेन, शोभितो नेमिनीरदः ॥ टङ्कारध्वनिर्गनाभि-विश्वं विश्वमपूरयत् ।। ३०६ ॥ त्यक्वाथ चापमादाय, चक्रं भाचक्रभासुरम् ।। अंगुल्याऽभ्रमयद्धम-चक्री चाक्रिकचक्रवत् ॥ ३०७॥ जनाईनोऽपि यां गहणा-नायासं लभते भृशम् ।। हित्वा चक्रं गदां ताम-प्युद्दधौ यष्टिवद्विभुः । ॥ ३०८ ।। तां च मुक्त्वा पाश्चजन्यः, स्वामिना योजितो मुखे ।। स्मरेनीलार| विन्दस्थ-राजहंसश्रियं दधौ ॥ ३० ॥ध्माते च स्वामिना तस्मिन् , विश्व बधिरतां दधौ | चकंपिरेऽचलाः सर्वे-ऽचलाप्यासीचलाचला ॥ ३१०॥ चुनुभुर्वार्द्धयो वीरा, अप्युयाँ मूच्छयाऽपतन् । किमन्यत्तस्य शब्देन, वित्रेसुस्त्रिदशा अपि ! ॥३११॥ VEGVEGVEGEVEGVEGVEGVEVerererere Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१६॥ अध्य०२२ ॥१६४॥ AVEGVESEVVELVESEVEGVEGVEGVEGV Gve 'तुभितरतचनेः सिंह-नादाद्गज इवाऽच्युतः ॥ इति दध्यावयं कम्बु-धातः केन महौजसा ? ॥ ३१२ ॥ सामान्यभूस्पृशां क्षोभः, शंखे ध्माते मयाप्यभूत् ॥ ध्वानेनानेन तु क्षोभो, ममाप्युच्चैः प्रजायते ॥ ३१३ ॥ तद्बजी चक्रवर्ती वा, विष्णुर्वान्यः किमा| गतः १ ।। तत्कि कार्यमदो राज्यं, रक्षणीयं कथं मया ।। ३१४ ।। ध्यायन्नित्यायुधारक्ष-रेत्योदन्तं यथास्थितम् ।। विज्ञप्तो विष्णुरित्यूचे, शङ्कातकाकुलो बलम् ॥ ३१५ ॥ इत्थं विश्वत्रयस्यापि, क्षोभो यत्क्रीडयाप्यभूत् ॥ स नेमिरावयो राज्यं, गृह्णन्केन निषेत्स्यते ? ॥ ३१६ ॥ वभाषे सीरभृद्भात-र्मा शंकिष्ठा वृथाऽन्यथा ॥ अस्यास्मद्भातुरुक्तं हि, स्वरूपं प्राग जिनैरिदम् ।। ३१७ ।। द्वाविंशोऽरिष्ठनेम्पहन , यदुवंशाब्धिचन्द्रमाः ॥ अभुक्तराज्यलक्ष्मीकः, प्रव्रज्यां प्रतिपत्स्यते ! ॥ ३१८ ॥ किश्चार्यमानोपि सदा, समुद्रविजयादिभिः ॥ युवाऽपि नो कनीमेका-मप्युद्वहति यः सुधीः ! ॥३१६ ॥ आददीत स किं राज्य-मिदं नेमिमहाशयः १ ॥ तेनेत्युक्तोऽपि नाशंकां, हरिस्तत्याज तां हृदः॥३२० ॥ उद्याने च गतं नेमि-मन्यदेति जगाद सः ॥ नियुद्धं कुर्वहे भ्रात-रावां शौर्य परीक्षितुम् ॥ ३२१ ॥ ऊचे नेमिनियुद्धं नौ, न युक्तं प्राकृतोचितम् ॥ मिथो बलपरीक्षा तु, बाहुयुद्धेन भाविनी ! ॥ ३२२ ॥ तत्प्रपद्य निर्ज बाहुं, हरिः परिघसोदरम् ।।प्रासारयद्वासवेश्म, भरतार्द्धजयश्रियः ॥३२३॥ तद्दोमदेन सत्रा तं, नमयित्वाऽजनालवत् ।। स्वदोर्दण्डं विभुवज्रदण्डोद्दण्डमदीर्घयत् ॥ ३२४ ॥ तं च न्यञ्चयितु सर्व, स्वसामर्थ्य समर्थयन् ।। विलनः केशवः शाखा-विलनशिशुवद्वभौ॥ ३२५॥राज्यमा दिसते यो हि, स सामर्षे सतीदृशे । नेयचिरं विलम्बेत, दध्याविति तदा हरिः! ।। ३२६ ॥ राज्यापहारचिन्तामि-स्यपहाय गृहं गतः ॥ समुद्रविजयेनैव-मन्यदाऽभाणि माधवः ॥ ३२७ ।। स्वस्त्रस्त्रीमिः समं वीक्ष्य, कुमारान् क्रीडतोऽखिलान् ॥ नेमिं चान्यादृशं १ क्षुब्धो ध्वानाचातः सिंह--इति 'घ' पुस्तके प्रथमपदः ।। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥१६५॥ दृष्ट्वा भृशं खिद्यामहे वयम् ॥ ३२८ ॥ कन्योद्वाहं तदस्मै त्वं वत्सोपायेन केनचित् ॥ वैद्योऽरोचकिने भोज्यं भेषजेनेव रोचय ! ॥ ३२६ ॥ तत्प्रपद्य मुकुन्दोऽपि दिव्यास्त्राणि मनोभुवः || कार्ये तत्रादिशद्भामा - रुक्मिण्याद्या निजाङ्गनाः ! ।। ३३० ॥ तदा कामिनः कामं, वर्त्तयन्कामशासने ।। विकारकारितां कार - स्कराणामपि शिक्षयन् || ३३१ || मधुमत्तैर्मधुकरै - मधुरारवपूर्वकम् ॥ भुज्यमानोत्फुल्लपुष्प- स्तबकव्रततिव्रजः ॥ ३३२ ॥ पिकानां पञ्चमोद्गीति - शिक्षणैककलागुरुः || मलयानिलकल्लोल - लोलद्विरहिमानसः ॥ ३३३ ॥ उत्साहितानङ्गवीरो, जगजनविनिर्जये ॥ मधूत्सवः प्रववृते, विश्वोत्सवनिबन्धनम् ॥ ३३४ ॥ [ चतुर्भिः कलापकम् ] तदा कृष्णोपरोधेनाऽवरोधे तस्य पारगः।। ऋतूचिताभिः क्रीडाभि - चिक्रीडाऽकामविक्रियः ॥ ३३५ ॥ व्यतीतेऽथ वसन्तत, ग्रीष्मतुः समवातरत् ॥ राज्ञः प्राज्ञ इवामात्यो, भानोस्तेजोऽभिवर्द्धयन् ॥ ३३६ ॥ तत्रापि भगवान्सत्रा, सावरोधेन विष्णुना ॥ क्रीडागिरौ रैवतके, विजहार तदाग्रहात् ॥ ३३७ ॥ जलक्रीडादिकाः क्रीडा-स्तत्र कृष्णोपरोधतः ॥ चकार विश्वालङ्कारो निर्विकारो जगद्गुरुः ॥ ३३८ ॥ रामा रामानुजस्याथ, प्राप्यावसरमन्यदा ।। सप्रश्रयं सप्रणयं, सहासं चेति तं जगुः ||३३६|| देवरादो देवराज - जित्वरं रूपमात्मनः । वपुश्चेदं सदारोग्य-सौभाग्यादिगुणाश्चितम् ॥ ३४० ॥ शच्या अपि स्मरोन्माद - करमेतच्च यौवनम् || अनुरूपवधूयोगा सफलीकुरु धीनिधे ! || ३४१ ।। [युग्मम् ] 'विना हि भोगान् विफलं, रूपाद्यमवकेशिवत् ॥ विना नारिं च के भोगाः १, भोगरत्नं हि सुन्दरी ! ॥ ३४२ ॥ भवेद्विनाङ्गनां नाङ्ग-शुश्रुषा मज्जनादिना ॥ अस्त्रीकस्य मनोभीष्टं निःस्वस्येव क भोजनम् १ || ३४३ ॥ रत्नानीव विना खानिं नन्दनाः स्त्रीकस्यातिथिर्भितो - रिवार्थमपि नाश्नुते ! ।। ३४४ ।। यामिन्यपि कथं याति, यूनो युवतिमन्तरा १ ॥ विनाङ्गनाम् १ ॥ १ भोगान् विना हि विफलं इति “घ” पुस्तके प्रथमपादः ॥ अध्य० २२ ॥१६५॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य- चक्रवाकी विना पश्य, चक्रस्याब्दायते निशा! ॥३४५ ॥ विना योग्यवधूयोग, सकलोपि न शोभते ॥ पश्य श्यामावियुक्तस्य, कान्तिः । शाअध्य० यनसूत्रम् का नाम शीतगोः ॥ ३४६॥ पाणौ कृत्य ततः काञ्चि-कन्यां गुणगणाम्बुधे! ॥ श्रीदाशार्ह ! दशार्दादि-यदूनां पूरयेहितम M॥१६६॥ ॥१६६॥ना ॥ ३४७ ॥ 'आजन्मस्वैरिणा षण्ढे-नेव धूर्भवता वधूः ।। निर्वोढुं दुश्शका शंके, नोद्वाहं कुरुषे ततः ! ॥३४८॥ तदप्ययुक्त निर्वोढा, तामप्यस्मानिवाच्युतः॥ शेषस्याशेषभूधर्त्त-नहि भाराय वल्लरी ! ॥ ३४६ ॥ निर्वाणाप्राप्तिभित्यापि, मा भूर्भोगपरांमुखः । भुक्तभोगा अपि जिनाः-सिद्धा हि वृषभादयः । ॥ ३५० ॥ दद्याः प्रतिवचो मा वा, धाष्टान्मूकस्य ते परम् ।। नास्मत्तो भविता मोक्षो, विवाहाङ्गीAD कृति विना ! ॥ ३५१ ॥ इति ताभिः प्राच॑मान-मुपेत्याहन्तमादरात् ।। प्रार्थयन्त तमेवार्थ रामकृष्णादयोऽपि, हि ! ॥ ३५२ ॥ बन्धु भिर्बन्धुरैर्वाक्यैः, स निर्बन्धमितीरितः ।। जिनोऽनुमेने वीवाहं, भावि भावं विभावयन् ! ।। ३५३ ।। तमुदन्तं ततो गत्वा, वैकुण्ठोऽकुण्ठ- 7 सम्मदः ।। समुद्रविजयायाख्य-मुदमुन्मुद्रयन् पराम् ॥ ३५४ ॥ योग्यामस्य कुमारस्य, कन्यां वृणु महामते ! ।। इत्थं समद्रविजयः ॥ प्रोचे तायध्वजं ततः ॥ ३५५ ।। कनी तदाहाँ दाशार्हः, सर्वतोऽन्वेषयंस्ततः॥चिन्ताचान्तोऽन्यदा सत्य-भामयैवमभाष्यत ॥३५६॥ राजीवनयना राजी-मती सद्गुणराजिनी॥ नेमेरास्ति जामिर्मे, जयन्तीजयिनी श्रिया ! ॥ ३५७ ॥ प्रिये ! साधु ममाहा -श्चिन्तामिति वदंस्ततः ॥ उग्रसेननरेन्द्रस्य, वेश्मोपेन्द्रः स्वयं ययौ ॥ ३५८ ॥ हृष्टः प्रेक्ष्य हषीकेश-मभ्युत्थाय स पार्थिवः ॥ दत्वासनमपव्याज, व्याजहार कृताञ्जलिः ।। ३५६ ॥ किमियानयमायासः, कृतोऽद्य स्वामिना स्वयम् ॥ नाहूतः किमहं प्रेष्य-प्रेषणेन स्वकिङ्करः ? ॥ ३६० ॥ इदं गृहमियं लक्ष्मी--रिदं वपुरियं सुता ॥ सर्वं विद्धि स्वसान्नाथ !, येनार्थस्तनिवेद्यताम् ।। ३६१ ।। ऊचे मुकुन्दः कुन्दाभ१ शण्ढेन धूरियाजन्म -स्वैरिणा भवता वधूः इति “घ” पुस्तके ॥ २ कमलनयना। ३ इन्द्रपुत्रीजवनशीला । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ४१६७॥ रदाभाभासुराधरः ।। मद्भ्रातुर्देहि मेमेस्त्वं राजन् ! राजीमतीमिमाम् ।। २६२ ।। इत्थं हरिणा याचितायां राजीमत्यां धन्यंमन्यः प्रमोदभरमेदुर उग्रसेननृपो यदूचे तदाह सूत्रकृत् मूलम् - अहाह जाओ तीसे, वासुदेवं महिड्डि । इहागच्छउ कुमारो, जासे कन्नं दलामहं ॥ ८ ॥ सव्वोसहिहिं राहवित्र्य, कयको अमंगलो । दिव्वजुअलपरिहिओ, भूसरोहिं विभूसि ॥ ६॥ मत्तं च गंधहत्थि, वासुदेवस्स जिगं । आरूढो सोहई अहि, सिरे चूडामणी जहा ॥ १० ॥ श्रह ऊसिएण छत्तेण, चामराहि सोहियो । दसारचक्केण य सो, सव्वत्र परिवारो ॥ ११ ॥ चतुरंगिणी सेखाए, रइए जहक्कमं । तुडिप्राणं सन्निनाएणं, दिव्वेणं गयणंफुसे ॥१२॥ एआरसीए इड्डी, जुत्ती उत्तमाए य। नियगाओ भवरणाओ, निज्जाओ बह्निपुंगवो ॥१३॥ व्याख्या—अथ याञ्श्चानन्तरमाह जनकः 'तस्या' राजीमत्याः “जासेत्ति" सुव्यत्ययाद्येन तस्मै कन्यां ददामि विवाहविधिना उपढौकयाम्यहम् ।। ८ ।। इत्थं तेनोक्ते कृते च द्वयोरपि कुलयोर्वर्द्धापने, आसन्ने च क्रोष्टुक्यादिष्टे विवाहलग्ने यदभूत्तदाह – सर्वोषधयोजयाविजयर्द्धिवृद्धिप्रमुखास्ताभिः “स्नपितोऽभिशिक्तः, कृतकौतुकमङ्गल इत्यत्र ललाटमुशलस्पर्शनादीनि कौतुकानि, मङ्गलानि च दध्यक्षतादीनि । दिव्वेत्यादि-परिहितं दिव्यं युगलमिति देवदूष्ययुगलं येन स तथा, सूत्रे व्यत्ययः प्राकृतवात् ॥ ६ ॥ वासुदेवस्य सम्बधिनं ज्येष्ठ कमतिशयप्रश पट्टहस्तिनमित्यर्थः, आरूढः शोभतेऽधिकं शिरसि यथा चूडामणिः ।। १० । ' उच्छ्रितेन' उपरि धृतेन, दसारेत्या अध्य०२२ ॥१६७॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतराध्ययनसूत्रम् ॥१६८॥ दि- दशार्हा:- समुद्रविजयादयो वसुदेवान्ता दश भ्रातरस्तेषां चक्रेण समूहेन ॥ ११ ॥ “ रइआएत्ति" ' रचयितया' न्यस्तया यथाक्रमं तूर्याणां 'सन्निनादेन' गाढध्वनिना 'दिव्येन' प्रधानेन 'गगनस्पृशा' नभोगणव्यापिना उपलक्षितः || १२ || एतादृश्या पूर्वोक्तया 'ऋद्धया' विभूत्या, 'द्युत्या च' दीप्त्या उत्तमया उपलक्षितः सन् निजकाद्भवनाद् 'निर्यातो' निष्क्रान्तो वृष्णयोऽन्धकवृष्णिसन्तानीया यदवस्तेषु पुङ्गवःप्रधानो भगवानरिष्टनेमिर्गतश्च जगज्जनमनोहरैर्महामहैर्मण्डपासन्न प्रदेशमिति सूत्रषट्कार्थः || १३ || तदा च वीक्ष्यायान्तं गवाक्षस्था, नेमिं राजीमती कनी || वचोऽगोचरमापन्ना - ऽऽनन्दमेवमचिन्तयत् ।। २६३ ।। किमाश्विनोऽसौ सूर्यो वा, स्मरो वा मघवाऽथवा ।। मर्त्यमूत्तिं श्रितः पुण्य-प्राग्भारोऽसौ ममैव वा १ ॥ ३६४ ॥ भर्त्ता मे विदधे येन, वेधसाऽसौ सुमेधसा ॥ कां प्रत्युपक्रियां तस्मै, करिष्येऽहं महात्मने १ || ३६५ || काहं किं जायते कोऽसौ, कालस्तिष्ठाम्यहं क्व वा ? ॥ इत्यज्ञासीन्न सा ने मि-दर्श - नोत्थमुदा तदा ! || ३६६ ॥ अत्रान्तरे स्फुरत्तस्या, मंतु दक्षिणमीक्षणम् । तच्चोद्विग्नमनाः सद्यः, सा सखीनां न्यवेदयत् ।। ३६७ ।। ऊचुः सख्यो हतं पापं, मा खिद्यस्व महाशये ! || इयतीं भुवमायातो, न हि नेमिलिस्यते ! ॥ ३६८ ॥ राजीमती जगौ जाने, स्वभाग्यप्रत्ययादहम् ।। इहागतोऽपि गन्ताय - मुद्दोढा न तु मां प्रभुः ! || ३६६ || अत्रान्तरे च यदभूत्तत्सूत्रकृदेव दर्शयतिमूलम् — अह सो तत्थ निज्जतो, दिस्स पाणे भयहु ए । वाडेहिं पंजरेहिं च, सन्निरुद्ध सुदुक्खि ॥ १४ ॥ जीवीतं तु संपत्ते, मंसट्टा भक्खिव्वए । पासित्ता से महापरणे, साहि पडिपुच्छइ कस्स अट्ठा इमे पाणा, एए सव्वे सुहेसिणो । वाडेहिं पंजरेहिं च, सन्निरुद्ध अ अच्छहिं ॥ ॥ १५ ॥ १६ ॥ VENEENEEVEENEREYE अध्य०२२ ॥१६८॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१६॥ reve vegvesveses essesVEEVES VEGVEGV अह सारही तो भणइ, एए भद्दा उ पाणिणो । तुम्भंविवाहकज्जमि, मुंजावेउं बहुं जणं ॥१७॥ प्रध्य०२२ सोऊण तस्स सो वयणं, बहुपाणविणासणं । चिंतेइ से महापरणे, साणुक्कोसे जिएहि उ ॥१८॥ ॥१६॥ जदि मज्झ कारणा एए, हम्मति सुबहू जिआ । न मे एतु निस्सेसं, परलोए भविस्सइ ॥१६॥ || सो कुंडलाण जुअलं, सुत्तगं च महायसो । आहरणाणि अ सव्वाणि, सारहिस्स पणामए ॥२०॥ व्याख्या—'अथ' अनन्तरं 'सो' अरिष्टनेमिः 'तत्र' मण्डपासन्ने प्रदेशे 'निर्यन् । अधिकं गच्छन् “दिस्सत्ति" दृष्ट्वा, 'प्रा- || णान्' प्राणिनो मृगादीन् , 'भयगृतान्' भयत्रस्तान , वाटैटिकैः, पञ्जरैश्च 'सबिरुद्धान्' गाढनियंत्रितान् , अत एव सुदुःखितान् ॥१४॥ 'जीवितान्तं ' मरणावसरं सम्प्राप्तान् , 'मांसार्थ' मांसोपचयनिमित्तं भक्षयितव्यानविवेकिभिरिति शेषः, 'पासित्तत्ति' उक्तविशेषणविशिष्टान् हृदि निधाय भगवान् , महती प्रज्ञा ज्ञानत्रयात्मिका यस्य स तथा, सारथिं हस्तिनः प्रवर्तकं हस्तिपकमित्यर्थः, प्रतिपृच्छति ॥१५॥ कस्यार्थाद्धेतोरिमे 'प्राणाः' प्राणिन एते सर्वे, इमे इत्यनेनैव गते एते इति पुनः कथनमतिसम्भ्रमख्यापकं “सन्निरुद्धे अत्ति" सन्निरुद्धाश्वः पूरणे "अच्छहिंति" तिष्ठन्ति ॥ १६ ॥ एवं भगवतोक्त-"भदाउत्ति"'भद्रा एव' कल्याणा एव, न तु शृगालादिकुत्सिताः । तव विवाहकायें गौरवादी भोजयितुं बहुं जनं रुद्धाः सन्तीति शेषः ॥१७ ॥ इत्थं सारथिनोक्त यत्प्रभुश्चक्रे तदाह-बहुपाणेत्यादि-बहूनां All प्राणानां प्राणिनां-विनाशनं वाच्यं यस्य तद्बहुप्राणविनाशनं, 'स' प्रभुः 'सानुक्रोशः' सकरुणः, 'जिएहि उत्ति' जीवेषु, 'तु:' पूत्तौं HI॥ १८॥ यदि मम कारणात-हेतोः "हम्मतित्ति" हनिष्यन्ते सुबहवो जीवाः, न मे एतज्जीवहननं 'निःश्रेयसं ' कल्याणं परलोके भवि Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१७॥ अध्य० ॥१७॥ verdede प्यति ! भवान्तरेषु परलोकभीरुत्वस्य भृशाभ्यासादेवमभिधानं, अन्यथा चरमदेहत्वादतिशयज्ञानिवाच्च भगवतः कथमियं चिन्ता स्यात् ? ॥ १६ ।। ततश्च ज्ञातजिनाशयेन सारथिना मोचितेषु तेषु परितोषाद्यत्प्रभुश्चक्रे तदाह-"सुत्तगं चत्ति" कटीसूत्रं, आभरणानि च सर्वाणि शेषाणि "पणामएति" अर्पयतीति सूत्रसप्तकार्थः ॥ २०॥ ततो यदभृत्तदुच्यते अवलिष्ट ततः स्वामी, सद्यो वक्र इव ग्रहः ।। करुणारसपाथोधि-विश्वजन्तुहितावहः ! ॥ ३७० ॥ शिवासमुद्रविजयौ, पुरो भूय तदा प्रभुम् ॥ इत्यूचतुरजस्राश्रु-धारामेघायितेक्षणौ ! ॥ ३७१ ॥ किं वत्सास्मत्प्रमोदद्रु-मुन्मूलयसि मूलतः ॥ किं खेदयसि कृष्णादीन, स्वीकृतत्यागतो यदून् ॥ ३७२ ।। भवत्कृते स्वयं गत्वा, वृतपूर्वी तदङ्गजाम् ।। अथोग्रसेनस्य कथं, हरिदर्शयिता मुखम् ? ।। ३७३ ।। कथं वा भाविनी जीव-मृता राजीमती कनी? ॥ भत्तहीना हि नाभाति, स्त्री विनेन्दुमिव क्षपा ? ॥३७४ ॥ कृत्वोद्वाहं तदस्माकं, दर्शय स्ववधूमुखम् ॥ प्रथमप्रार्थनामेना, सफलीकुरु वत्स ! नः ॥ ३७५ ।। बभाण भगवान्पूज्याः !, श्लथयन्त्वेनमाग्रहम् ॥ प्रवय॑ते | हितेऽर्थे हि, स्वाभीष्टो नाऽपरे पुनः ॥ ३७६ ॥ यत्पाणिपीडनेप्येवं, भवति प्राणिपीडनम् । अचिराद्यासु चासक्तः, प्राणी प्राप्नोति दुर्मतिम्! ॥ ३७७ ॥ तासां स्त्रीणां सङ्गमेन, मुक्तिकामस्य मे कृतम् ॥ ॥ कती हि यतते प्रेत्य-हिते नाऽऽपातसुन्दरे ! ॥ ३७८ ।। [युग्मम् ] वदन्तमिति तं सावं, सर्वे कम्पितबिष्टराः। तीर्थ प्रवर्तयेत्यूचु-रेत्य लोकान्तिकामराः ॥ ३७६ ॥ समुद्रविजयादींच, ते देवा | एवमूचिरे ॥ शुभवन्तो भवन्तः किं, विषीदन्ति मुदः पदे ? ॥ ३८० ॥ अयं हि भगवान् दीक्षा-मादायोत्पन्न केवलः ॥ चिरं मोदयिता | विश्व-त्रयं तीर्थ प्रवर्त्तयन् ! ॥३८१ ॥ मुदितेषु तदाकर्ण्य, समुद्रविजयादिषु ॥ गृहं गत्वाऽऽब्दिकं दानं, दातुं स्वामी प्रचक्रमे | ॥३८२ ।। इतश्च वलितं वीक्ष्य, नेमि शोकमरातुरा ॥ राजीमती चितौ वज्रा-हतेवाचेतनाऽपतत् ॥ ३८३ ॥ वयस्याः विहितैः शीतो veeeeeeeeeeee MeeeveeYEETARINEEDS Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य० २२ ॥१७॥ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१७॥ सा पचारैश्चाप्तचेतना ॥ दुखोद्गारोपमांश्चके, विलापानिति दुःश्रवान् ! ॥ ३८४ ॥ दोषं विनापि रक्तां मां, त्यक्त्वा नाथ ! कुतोऽगमः १ ॥ त्वादृशां हि विशां भक्त-जनोपेक्षा न युज्यते ! ॥ ३८५ ॥ सन्त्यजन्ति महान्तो हि, सदोषमपि नाश्रितम् ॥ जहात्यङ्कमृगं नेन्दु-नचाब्धिर्वडवानलम् ! ॥ ३८६ ॥ सत्यप्येवं यदि त्याज्यां, मामज्ञासीर्जगत्प्रभो ! ॥ तदा किमर्थ स्वीकृत्य, विवाहं मां व्यडम्बयः? ॥ ३८७॥ यद्वा ममैवासौ दोषो-रज्यं यत्त्वयि दुर्लभे ॥ काक्या एव हि दोषोऽयं, यद्रज्यति सितच्छदे ! ॥ ३८८ ॥ रूपं कला कुशलता, लावण्यं यौवनं कुलम् ॥ त्वया स्वीकृत्य मुक्तायाः, सर्व मे विफलं विभो!॥ ३८६ ॥ निर्यान्तीवाऽसवो वक्षः, स्फुटतीव ममोच्चकैः॥ ज्वलतीव वपुः कान्त !, त्वद्वियोगव्यथाभरैः ! ॥ ३६० ॥ पशुष्वासीः कृपालुस्त्वं, यथा मयि तथा भव ।। त्वादृशा हि महात्मानः, पंक्ति| भेदं न कुर्वते ॥ ३६१ ॥ दृशा गिरा च मां रक्तां, विभो ! सम्भावयैकशः ॥ को हि वेत्ति विनाऽऽस्वाद, मधुरं कटु वा फलम् ? ॥३६२॥ यद्वा सिद्धिवधूत्कस्य, तव सापि पुलोमजा ॥ मनो हरति नो तर्हि, क्वाहं मानुषकीटिका ? ॥ ॥ ३६३ ॥ इत्युच्चैर्विलपन्तीं तो, कनी संख्योऽवदन्नदः॥ मा रोदः सखि ! यात्वेष, नीरसो निष्ठुराग्रणीः ॥ ३६४ ॥ भूयांसोऽन्येपि विद्यन्ते, हृद्या यदुकुमारकाः ॥ स्वानुरूपं वरं तेषु, घृणुयास्त्वं मनोहरम् ॥ ३६५ ॥ ततः कौँ पिधायैव-मूचे राजीमती सती ।। किमेतदचे युष्माभि-ममापि प्राकृतोचितम् ॥३६६॥ निशा भजति चेद्भानु, बृहद्भानु च शीतता ।। तथाऽपि नेमि मुक्त्वाहं, कामये नाऽपरं नरम् ! ॥ ३६७ ॥ नेमेः पाणिविवाहे चेन्मत्पाणौ न भविष्यति । तदा भावी व्रतादान-क्षणे मे मूर्ध्नि तस्य सः ॥ ३६८ ॥ आशयोऽयं तवोत्कृष्टो, जगतोऽपि महाशये ! ॥ इत्यूचानास्तंतःप्रोच्चैः, स्वसखीः सा सतीत्यवक् ॥ ३६॥ ॥ स्वप्नेऽद्यैरावणारूढो, दृष्टः कोऽपि पुमान्मया ॥ मद्वेश्मोपेत्य स क्षिप्रं, निवृत्याध्यास्त मन्दरम् ॥ ४०० ॥ सुधाफलानि चत्वारि, तत्रस्थश्च ददद्विशाम् । ॥ स मया याचितो मह्य-मपि तानि ददौ द्रुतम् ॥ ४०१ ॥ ALEVEEVELEVENE Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य A RMER ध्य०२२ ॥१७२॥ % - - सख्योऽप्याख्यन्मा विषीदः, क्षीणा विघ्नास्तवानघे ! ॥ आपातकुटुकोऽप्येष, स्वप्नो ह्यायति सुन्दरः ॥ ४०२ ॥ ध्यायन्ती सा ततो नैमि, यनस्त्रम् । तस्थौ गेहे कथंचन ॥ प्रभुरप्यन्यदा उझे, व्रतमादातुमुद्यतः ॥ ४०३ ॥ अथ यथा प्रभुः प्राबाजीत्तथा सूत्रकूदेव दर्शवति॥१७२॥ मूलम--मणपरिणामो अ कमओ, देवा य जहोइ समोइण्णा । सविड्डीइ सपरिसा, निक्खमाणं तस्स काउं जे ॥ २१॥.. देवमणुस्सपरिवुडो, सीआरयण तो समारूढो । निक्खमिश्र बाराओ, रेवययंमि द्विश्रो भयवं ॥ २२ ॥ उज्जाणं संपत्तो, ओइण्णो उत्तिमाओ सीआओं । साहस्सीइ परिखुडो, अभिनिक्खमई उ चित्ताहिं ॥ २३॥ अह सो सुगंधगंधिए, तुरिअं मउअकुचिए । सयमेव लुचई केसे, पंचमुट्ठीहिं समाहिो ॥ २४ ॥ वासुदेवो यण भणइ, लुत्तकेसं जिइंदिन । इच्छिामरणोरहं तुरिअ', पावेसू तं दमीसरा ! ॥ २५ ॥ नाणेणं दंसणे च, चरित्तेण तवेण य । खंतीए मुत्तीए, वडमाणो भवाहि अ॥ २६ ॥ एवं ते रामकेसवा, दसारा य बहुजमा । अरिष्टनेमि वंदित्ता, अइगया बारगाउरिं ॥ २७ ॥ सोऊण रायवरकन्ना, पव्वज्ज सा जिणस्स उ । नीहासा य निरालंदा, सोगे उसमुच्छया ॥ २८ ॥ राईमई विचिंतेइ, धिरत्थु ! मम जीविन । जाहं तेण परिच्चत्ता, सेब पव्वइडं मम ॥ २६ ॥ - -- - SESAMARANAMAAMADAMRAGANAG - Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतराध्ययनसूत्रम् ॥१७३॥ 998 व्याख्या - मनः परिणामश्च कृतो निष्क्रमणम्प्रतीति शेषः, देवाश्च चतुनिकाया यथोचितं समवतीर्णाः सर्व्वद्धर्या युक्ता इति शेषः, 'सपर्षदो' निजनिजपरिच्छद परिवृताः, निष्क्रमणमिति प्रस्तावान्निष्क्रमणोत्सवं तस्यारिष्टनेमेः कत्तु म् 'जे' पूतौं ॥ २१ ॥ " सीआरखंति” शिविकाररूनं सुरकृतमुत्तरकुरुसंज्ञं, निष्क्रम्य 'द्वारकातो' द्वारकापुर्याः, रैवतके स्थितो भगवान् ॥ २२ ॥ तत्रापि गिरौ ' उद्यानं ' सहस्राम्रवणसंज्ञं सम्प्राप्तस्तत्र चावतीर्णः, “सीआओति" शिविकातः " साहस्सीए चि" पुरुषाणामितिशेषः परिवृतः । अथ वर्षशतत्रयं गार्हस्थ्ये स्थित्वा निष्क्रामति । तुः पूर्वौ, “चित्ताहिंति" चित्रानचत्रे, अस्य प्रभोः पञ्चस्वपि कल्याणकेषु तस्यैव भावात् ॥ २३ ॥ कथमित्याह - ' सुगन्धगन्धिकान् ' स्वभावत एव सुरभिगन्धीन् त्वरितं 'मृदुककुञ्चितान्' कोमलकुटिलान् स्वयमेव लुञ्चति केशान् पञ्चमुष्टिभिः 'समाहितः' सर्वसावद्ययोमत्यागेन, समाधिमान् ॥ २४ ॥ एवमुपात्तदीचे मनःपर्यायज्ञानं प्राप्ते च जिने वासुदेवश्चशब्दात् बलभद्रसमुद्रविजयादयश्च "संति" 'एनं' नेमिजिनं भणति लुप्तकेशं जितेन्द्रियं इप्सितमनोरथं महोदयावाप्तिरूपं प्राप्नुहि त्वं 'हे दमीश्वर' जितेन्द्रियशिरोमणे | ॥२५॥ " वंदितत्ति" बन्दित्वा स्तुत्वा नत्वा च 'अतिगता': प्रविष्टाः ॥ २६ ॥ २७ ॥ वदा च त्रुटिततत्सङ्गमाशा राजीमती कीशी बभूवेत्याह-- "नासत्ति " 'निर्हासा' हास्यरहिता निरानन्दा च शोकेन 'समवस्तृता' आच्छादिता ॥ २८ ॥ "जाति" यद्यहं तेनाऽरिष्टनेमिना परित्यक्ता तर्हि 'श्रेयो 'ऽतिप्रशस्यं प्रब्रजितु मम यथान्यजन्मन्यपि नेदृशं दुःखं स्यात्, यथा च सत्यः पत्यनुयापिन्यो भवन्तीति वाक्यं सत्याषितं भवतीति सूत्रनवकार्थः ॥ २६ ॥ - रमः प्रभो, रक्तो राजीमतीं कनीम् ॥ फलपुष्पविभूषादि दानैर्नित्यमुपाचरत् । ४०४ ।। अयं हि सोदरस्नेहा - सर्वमेतददाति मे ॥ ध्यायन्तीत्याददेऽशेषं दत्तं तेनोग्रसेनजा ॥ ४०५ ॥ स तु तद्ग्रहणादेव, स्वानुरक्तां विवेद ताम् ॥ कांच कामलिवत्कामी, अध्य० २२ ॥१७३॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥१७४॥ ह्यन्यथाभावमीक्षते । ॥४०६ ॥ तां चेत्युवाच सोऽन्येद्यु- र्मा विषीदः सुलोचने ! || निरागो ने मिरत्याक्षी - यदि त्वां तहिं तेन किम् ? ॥४०७॥ मां प्रपद्यस्व भर्त्तारं, कृतार्थय निजं वयः ॥ त्वां हि कामं कामयेहं, मालतीमित्र षट्पदः ||४०८ || सा प्रोचे यद्यपि त्यक्ता, नेमिनाहं तथापि हि ।। शिष्या तस्य भविष्यामि, तत्किं प्रार्थनयाऽनया १ ||४०६ ॥ तयेत्युक्तः स तूष्णीक - स्तस्थौ न तु जुहौ स्पृहाम् ॥ कामुको हि निषिद्धोऽपि, नेच्छां शुन इव त्यजेत् ! ॥ ४१० ॥ रथनेमिरथानेयु - सतीं राजीमतीं रहः ॥ इत्युवाच पुनर्वाच मदनद्रुमकुल्यया ||४११॥ रक्ता नेमी विरक्तेऽपि, शुष्के काष्ठ इवालिनी ॥ मृगाति ! दक्षाप्यात्मानं, सन्तापयसि किं मुधा १ ||४१२ || हन्ताऽहं तब दासः स्या—माजन्म स्वीकरोषि चेत् ॥ भोगान् भुंक्ष्व बिना तान् हि, विदो जन्माऽफलं विदुः ॥ ४१३ ॥ तदाकर्ण्य पपौ क्षीरं, तस्य पश्यत एव सा ।। स्थाले पुरःस्थे मदन - फलाघ्राणेन चावमत् ॥ ४१४ ॥ पयः पिवेदमित्यूचे, रथनेमिं च सा सती ।। सोऽब्रवीत्किमहं श्वास्मि ?, यदुद्वान्तं पिवाम्यदः ! || ४१५ || स्मित्वा राजीमती स्माह, जानाति किमिदं भवान् ? || सोऽवदच्छिशुरयेतद्वेत्ति नो वेद्यहं कुतः १ । ४१६ ।। ऊचे राजीमती तर्हि, मां वान्तामपि नेमिना ॥ भोक्तुमिच्छन्कुतो मूढ 1, कुक्कुरत्वं प्रपद्यसे १।। ४१७ ।। ततो विमुक्ततत्कामो, रथनेमिरगाद्गृहम् ॥ सती सापि सुखं तस्थौ, तप्यमानोत्तमं तपः ।। ४१८ ।। इतश्र नेमिश्छझस्थ-श्रुतुष्पञ्चाशतं दिनान् ।। ग्रामादिषु विहृत्यागाद्भयों रैवतकाचलम् ॥ ४१६ ।। तत्राष्टमतपाः स्वामी, ध्यानस्थः प्राप केवलम् ॥ इन्द्राः सर्वे समं देवै - स्तत्रागुः कम्पितासनाः || ४२० || निर्मिते तैश्च समवसरणे शरणे श्रियाम् ॥ उपविश्य चतुर्मूर्तिः, प्रारेमे देशनां प्रभुः ।। ४२१ ।। ज्ञानोत्पत्तिं प्रभोर्ज्ञात्वों द्यानपालाद्वलाच्युतौ ॥ राजीमती दशार्हाया यदवोऽन्येपि भूस्पृशः ॥ ४२२ ॥ तत्र गत्वा जिनं नत्वा, यथास्थानं निविश्य च । शुश्रुवुर्देशनां रम्या - मुलानन्दवार्द्धयः || ४२३ ॥ [ युग्मम् ] श्रुत्वा तां देशनां बुद्धा, राजा अध्य० २२ ॥१७४॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ५१७५॥ अध्य०२२ ॥१७॥ eveeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee नोऽन्ये च मानवाः । नार्यश्च प्रावजन् प्राज्याः, केचित्ति श्राद्धतां दधुः ॥ ४२५ ॥ गणिनो वरदत्ताधा-स्तेषु चाष्टादशाऽभवन् । द्वादशाङ्गीकृतः सद्य-त्रिपद्या स्वामिदत्तया ॥ ४२५ ।। रथनेमिरपि स्वामि-पार्श्वे प्रावजदन्यदा ॥ राजीमती च सुमतिः, कन्यामिर्बहुभिः समम् ॥ ४२६ एतच्च सूत्रकारोऽपि दर्शयतिमूलम्-अह सा भमरसन्निभे, कुच्चफणगपसाहिए । सयमेव लुचई केसे, धिइमंता ववस्सिा ॥३०॥ वासुदेवो य णं भणइ, लुत्तकेसं जिइ दिअं । संसारसायरं घोरं, तर करणे ! लहुं लहुं ॥ ३१॥ | सा पव्वइआ संती, पव्वावेसी तहिं बहु । सयणं परिअणं चेव, सीलवंता बहुस्सुआ ॥ ३२॥ व्याख्या-'सा' राजीमती भ्रमरसन्निभान् , कूर्ची-मूढकेशोन्मोचको वंशमयः, फणक:-कङ्कतकस्ताभ्यां प्रसाधितान्-संस्कृतान् 'धृतिमती' स्वस्थचित्ता 'व्यवसिता' कृतोद्यमा धर्मम्प्रतीति शेषः ॥ ३० ॥ ततश्च-"लहुं लहुंति" 'लघु लघु' शीघ्र शीघ्रम् , सम्भ्रमे द्विवचनम् ॥ ३१ ॥ ततः-"पव्वाबेसित्ति" प्रव्राजयामासेति सूत्रत्रयार्थः ॥ ३२ ॥ तदुत्तरवक्तव्यतामाहमूलम्-गिरिं च रेवयं जंती, वासेणोल्ला उ अंतरा । वासंते अंधयारम्मि, अंतो लयणस्स सा ठिा ३३ चीवराई विसारंती, जहाजायत्ति पासिआ । रहनेमी भग्गचित्तो, पच्छा दिट्ठो अ तीईवि ॥३४॥ भीमा य सा तहिं दठ्ठ, एगंते संजयं तयं । बाहाहिं काउं संगोफं, वेवमाणी निसीअइ ॥३५॥ अह सोवि रायपुत्तो, समुद्दविजयंगओ । भीअं पवेइयं दटटु, इमं वक्कमुदाहरे ॥ ३६ ॥ RADGAGAADARA Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य अध्य०२२ ॥१७६॥ पनसूत्रम् ॥१७६॥ VEEVEEVE EVEEVEEVEEVA रहनेमी अहं भद्दे, सुरुवे चारुभासिणि । मम भयाहि सुतणू , न ते पीला भविस्सइ ॥३७॥ एहि ता भुजिमो भोए, माणुस्सं खु सुदुल्लहं । भुत्तभोगी तो पच्छा, जिणमग्गं चरिस्सिमो ३८ ब्याख्या-गिरं च रैवतं यान्ती, स्वामिनं नन्तुमिति शेषः । वर्षेण वृष्टया 'उल्लत्ति' आर्द्रा क्लिन्नाम्बरा, 'अन्तरा'ऽर्द्धमार्गे “वासंतेत्ति" वर्षति मेघे इति गम्यं, 'अन्धकारे' प्रकाशरहिते, 'लयनस्य' गिरिगुहाया अन्तर्मध्ये, 'सा' राजीमती स्थिता ॥ ३३ ॥ तत्र च-चीवराणि 'बिसारयन्ती विस्तारयन्ती सा 'यथाजाता' अनावृताङ्गतया जन्मावस्थोपमा जज्ञे इति इत्येवंरूपां तां "पासित्ति" दृष्ट्वा रथनेमिर्भग्नचित्तः संयमम्प्रत्यभृत् । स हि तामप्रतिरूपरूपां निरूप्याभिरूपरूपोऽपि स्मरपरवशोऽजनि ! पश्चाद्दष्टश्च 'तया' राजीमत्या, अपिः पुनरर्थः, प्रथमप्रविष्टैर्हि नान्धकारे किश्चिद् दृश्यते, अन्यथा हि वृष्टिसम्भ्रमादन्यान्याश्रयान् गतासु शेषसंयतासु तत्रेयमेकाकिनी प्रविशेदपि नेति भावः ॥ ३४ ॥ 'भीता च सा' माऽसौ मे प्रसह्य शीलभङ्ग कार्षीदिति त्रस्ता, तत्रैकान्ते संयतं तकं दृष्ट्वा बाहुभ्यां कृत्वा 'संगोफं' स्तनोपरि मर्कटबन्धं वेपमाना शीलभङ्गभयादेव निषीदति । तत्परिष्वङ्गादिपरिहारायेति ।। ३५ ॥ मममित्यादि-मां भजस्व सुतनो ! न ते पीडा भविष्यति, पीडाशङ्कया हि त्वं कम्पसे ! न च पीडाहेतुर्विषयसेवा ! किन्तु सुखहेतुरेवेयमिति भावः ॥ ३६ ॥ ३७ ॥ 'एहि' श्रागच्छ “ता इति" तस्मात् ।। ३८ ॥ ततो राजीमती किं चकारेत्याहमूलम-द?ण रहनेमि तं, भग्गुजोअपराइअं । राईमई असंभंता, अप्पाणं संवरे तहिं ।। ३६ ॥ भह सा रायवरकन्ना, सुट्टिा निअमव्वए । जाइं कुलं च सीलं च, रक्खमाणी तयं वए ॥४॥ EYEDYEEGeeeeeeeeeeeeeeeeeee Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१७७॥ ReeeeeeeeeeeONDONEeeeGY जइसि रूवेण वेसमणो, ललिएणं नलकूबरो । तहावि ते न इच्छामि, जइसि सक्खं पुरंदरो ४१ धीरत्थु ते जसो कामी, जो तं जीविअकारणा। वंतं इच्छसि आवेडं, सेअं ते मरणं भवे ! ॥४२॥ काअध्य०२२ अहं च भोगरायस्स, तं चऽसि अधगवरिहणो । मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुओ चर ४३ F ॥१७७॥ जइ तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारिओ । वायाविद्ध व्व हडो, अद्विअप्पा भविस्ससि ४४. गोवालो भंडवालो वा, जहा तद्दव्वणिस्सरो । एवं अणिस्सरो तं पि, सामण्णस्स भविस्ससि ४५ व्याख्या-"भग्गुज्जोय" इत्यादि-भग्नोद्योगोऽपगतोत्साहः प्रस्तावासंयमे, स चासौ पराजितश्च स्त्रीपरीपहेण भग्नोद्योगपराजितस्तं । 'असम्भ्रान्ता' नाऽयं बलादकार्य कर्तेत्याशयादत्रस्ता | आत्मानं 'समवारीत्' आच्छादयच्चीवरैरिति शेषः ॥३३॥ "निअमव्वएत्ति" नियम-इन्द्रियनियमने व्रते-दीक्षायां "वएति" अवादीत् ॥४०॥ "ललिएणंति" 'ललितेन' सविलासचेष्टितेन 'नलकूबरो' देवविशेषः "ते इति" त्वां "जइसित्ति" यद्यसि साक्षात्पुरन्दरः ।। ४१ ॥ अन्यच्च-धिगस्तु 'ते' तव यशो महा कुलसम्भवोद्भवं हे कामिन् !, यद्वा धिगस्तु ते इति त्वां हे 'अयशस्कामिन् ! अकीय॑भिलापिन् !, यस्त्वं जीवितकारणादसंयमजीवितार्थ वान्तमपि व्रतादानेन भोगसुखमिच्छस्यापातुमुपभोक्त! इत्यतः 'श्रेयः' कल्याणं ते मरणं भवेत् ! न तु वान्तापानं, तस्यातिदुष्टत्वादुक्तं हि-"विज्ञाय वस्तु निन्द्यं, त्यक्त्वा गहणन्ति किं क्वचित्पुरुषाः १ । वान्तं पुनरपि भुक्त, न हि सर्व सारमेयोपि" इति ॥ ४२ ॥ अहं 'चः' पूत्तौं, भोजराजस्य ' उग्रसेनस्य, त्वं चासि अन्धकवृष्णेः कुले जात इति शेषः । अतो मा कुले "गंधणत्ति" गन्धनानां 'होमोति' भ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥ १७८ ॥ विष्यावस्तच्चेष्टितकारितयेति भावः । गन्धना हि वान्तमपि विषं मंत्राकृष्टा ज्वलदनलपातभीरुत्वेन पुनरापिवन्ति, न त्वगन्धनाः । तर्हि किं कार्यमित्याह - संयमं निभृतः स्थिरः 'चर सेवस्व ॥ ४३ ॥ यदि त्वं करिष्यसि भावं प्रक्रमाद्भोगेच्छारूपं, या या द्रक्ष्यसि नार्यस्तासु तास्विति गम्यते । ततः किमित्याह - 'वाताविद्धो वायुप्रेरितो 'हठो' वनस्पतिविशेषः स इव 'अस्थितात्मा' अस्थिराशयो भविष्यसि । हो मूलतया यतो यतो वातो वाति ततस्ततो नमतीत्यस्थिरो भवति, तथा चञ्चलचित्ततया स्त्रियं स्त्रियं प्रति स्पृहां कुर्वस्त्वमपीति ॥ ४४ ॥ ' गोपालो' यः परस्य गाः पालयति, 'भण्डपालो वा यः परस्य भाण्डानि भाटकादिना पालयति स यथा तद्द्रव्यस्य गवादेः 'अनिश्वरो' प्रभुः, एवमनीश्वरस्त्वमपि श्रामण्यस्य भविष्यसि ! भोगाभिलाषितया तत्फलस्याभावादिति सूत्रषोडशकार्थः ॥ ४५ ॥ एवं तयोक्त रथनेमिः किं चकारेत्याह मूलम् -- तीसे सो वयणं सोच्चा, संजयाइ सुभासि । अकुसेण जहानागो, धम्मे संपरिवाइ ॥४६॥ मागुत्तो वयगुत्तो, कायगुत्तो जिइदि । सामरणं निच्चलं फासे, जावज्जीवं दढव्व ॥४७॥ व्याख्या - अंकुसेणेत्यादि - अंकुशेन यथा नागो हस्ती मार्गे इतिशेषः, 'धर्मे' चारित्रधर्मे ' संप्रतिपातितः स्थितः तद्वचसैवेति गम्यते । अत्रचायं वृद्धवादः “ नू पुरपण्डिताख्याने रुष्टेन राज्ञा देवीमिठवारणा मारणार्थं गिरिशृङ्गमारोपिताः, तत्र नृपादिष्टमिष्ठनुन्नेन दन्तिना पातार्थं क्रमात्त्रयः क्रमा आकाशे कृताः, ततः किमयं चिन्तामणिरिव दुरापो द्विपचूडामणिमुधा मार्यत इत्यार्य लोकैविज्ञप्तेन राज्ञा हस्तिरक्षणायोक्तो हस्तिपको राज्ञ्या आत्मनश्चाभयमभ्यर्थ्य तं गजं शनैः शनैः शैलशिखरादुदतारयदिति " यथा चायं तावतीं भुवं प्राप्तोऽपि द्विपोऽङ्क ुशवशात्पथि संस्थितः, एवमयमप्युत्पन्नवि श्रोतसिको राजीमतीवाक्येनाहितप्रवृत्ति निवर्त्तकतयाङ्क शदेश्येन धर्मे स्थितः ॥ ४६ ॥ अध्य०२२ ॥ १७८ ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥१७६॥ "फासेत्ति" स्प्राक्षीदिति सूत्रद्वयार्थः ॥ ४७ ॥ द्वयोरप्युत्तरवक्तव्यतामाह - मूलम् - उग्गं तवं चरित्ता गं, जाया दुरियवि केवली । सव्वं कम्मं खवित्ता णं, सिद्धिं पत्ता अणुत्तरं ४८ “दोरिणवित्ति " द्वावपि रथनेमिराजीमत्यौ । अनयोश्च चत्वारि वर्षशतानि गार्हस्थ्ये, वर्षमेकं छास्थ्ये, पञ्च वर्षशतानि केवलि - त्वे, एकाधिकनववर्षशतानि सर्वायुरभूदिति सूत्रार्थः ॥ ४८ ॥ श्रथाध्ययनार्थमुपसंहरन्नुपदेशमाह - मूलम् - एवं करिंति संबुद्धा, पंडिया पवित्रक्खणा । विणिभट्टति भोगेसु, जहा से पुरिसुत्तमुत्ति बेमि ४६ व्याख्या — एवं कुर्वन्ति सम्बुद्धाः पण्डिताः प्रविचक्षणाः, विनिवर्त्तन्ते कथञ्चिद्विश्रोतसिकोत्पत्तावपि विशेषेण तन्निरोधलक्षणेन निवर्त्तन्ते भोगेभ्यो यथा स पुरुषोत्तमो रथनेमिरिति सूत्रार्थः ॥ ४६ ॥ इति ब्रवीमीति प्राग्वत् ॥ इतश्च ॥ 11 भगवान्नेमिनाथोऽपि, विहरन्नवनीतले । पद्मानिव सहस्रांशु - व्यसत्त्वानबुबुधत् ॥ ४२७ ॥ दशचापोच्छ्रयः शंख - लक्ष्माम्भोदप्रभः प्रभुः ॥ दिशो दशाऽऽदिशन् धर्मं, दशभेदमपात्रयत् ॥ ४२८ अष्टादशसहस्राणि साधूनां 'साधुकर्मणाम् ॥ चत्वारिंशत्सहस्राणि, साध्वीनां तु महात्मनाम् ।। ४२६ ॥ एकोनसप्ततिसहस्राग्रं लतमुपासकाः ॥ लक्षत्रयं च षट्त्रिंशत्सहस्राढ्यमुपासिकाः ॥ ४३० ॥ चतुःपंचाशद्दिनोनां, सप्तवर्षशतीं विभोः ॥ आकेवलाद्विहरतः, संघोऽभूदिति संभवः ॥ ४३१ ॥ [ त्रिभिर्विशेषकम् ] पर्यन्ते चोज्जयन्ताद्री, प्रपेदेऽनशनं प्रभुः ।। षट्त्रिदशाधिकैः सार्द्धं साधूनां पञ्चभिः शतैः ॥ ४३२ ॥ तैः साधुभिश्र सह वर्षसहस्रमान -मायुः प्रपूर्य जिनभानुररिष्टनेमिः ।। मासेन निवृ तिसुखानि ततः प्रपेदे चक्रे तदा च महिमा सकलैः सुरेशैः ।। ४३३ ।। इति श्रीअरिष्टनेमि जिनचरितम् ॥ १ साधुधर्मणाम् । इति 'घ' पुस्तके ॥ २ सत्तमः । इति 'घ' पुस्तके SECYCLEEVE VEE अध्य० २२ ॥१७६॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्य ॥ अथ त्रियोविंशमध्ययनम् ॥ अध्य०२३ ॥१८॥ यनसूत्रम् ॥१८॥ ॥ॐ॥ उक्तं द्वाविंशं, अथ केशिगौतमीयं त्रयोविंशमारभ्यते । अस्य चायं सम्बन्धोऽनन्तराध्ययने हि कथञ्चिदुत्क्मविश्रोतसिकेनापि रथनेमिवद्धर्मेधृतिः कार्येत्युक्तं, अत्र तु परेषामपि मनोविप्लवः केशिगौतमवदपनेय इत्युच्यते । इतिसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रंमूलम-जिणे पासित्ति नामेणं, अरहा लोगपूइए । संबुद्धप्पा य सव्वएणू, धम्मतित्थयरे जिणे ॥१॥ व्याख्या-'जिनो' रागद्वेषादिजेता पार्श्व इति नाम्नाभूदिति शेषः 'अर्हन्' विश्वत्रयविहितपूजार्हः, अत एव लोकपूजितः, सम्बुद्धः स्तत्त्वावबोधवानात्मा यस्य स तथा । स च छबस्थोऽपि स्यादित्याह सर्वज्ञस्तथा धर्म एव भवाब्धितरणहेतुत्वात्तीर्थ धर्मतीर्थ तत्करणशीलो धर्मतीर्थकरो 'जिनः सकलकर्मजेता, मुक्त्यवस्थापेक्षमेतदिति सूत्रार्थः ॥१॥ अत्र प्रसङ्गागतं श्रीपार्श्वचरितं लेशतो लिख्यते, तथा हि अत्रैव भरते वासा-वसथे सकलश्रियाम ॥ गर्भगेहोपमं जज्ञे, पत्तनं पोतनाभिधम् ॥१॥ नीतिवल्लीघनस्तत्र, गुणालंकृतभू| घनः ॥ जिनधर्मारविन्दालि-रविन्दोऽभवन्नृपः ।। २ ।। लब्धशास्त्राब्धिरोधास्त-पुरोधा जिनधर्मवित् ॥ विश्वभूतिरभूतस्य, भार्या चानुद्धराभिधा ॥ ३ ॥ सुतौ तयोश्च कमठ-मरुभूती बभूवतुः ।। वरुणावसुन्धराह तयोश्चाभवतां प्रिये ॥ ४ ॥ विश्वभूति-MAI |श्मभार-मारोप्य सुतयोस्तयोः ।। प्रपद्य प्रायमन्येद्य-विपद्य त्रिदिवं ययौ ॥ ५ ॥ भार्याप्यनुद्धरा तस्य, तद्वियोगज्वरातुरा ॥शोषयित्वा ना वपुः शोक-तपोभ्यां मृत्युमासदत् ! ॥ ६ ॥ चक्रतुः सोदरौ तौ च, स्वपित्रोरोर्ध्वदेहिकम् ।। पुरोहितपदं त्वाप, कमठः स हि पूर्वजः ACEEVEE VEEVEVEVÈGE VE सासरा Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्य यनसूत्रम् ॥१८॥ अध्य०२३ ॥१८॥ NEGVEVEEEEVEEVEEVEGEEVEEVEEVAvec ॥७॥ व्रताय स्पृहयन्नन्त-विषयेभ्यः पराङ मुखः ॥ बभूव मरुभूतिस्तु,, धर्मकर्मरतो भृशम् ॥ ८॥ रमणीयाकृति तस्य, रमणीं नवयौवनाम् ॥ दृष्ट्वा वसुन्धरां क्षोभ, बभाज कमठोऽन्यदा ॥ ६ ॥ ततः स तां प्रकृत्याऽपि, परस्त्रीलम्पटो विटः॥ आलापयत्प्रियालांपै--मन्मथद्मदोहदैः॥१०॥ तां चेत्यूचे स्मरव्याधि-लुप्तलज्जाविलोचनः॥ भोगान् विना मुधा मुग्धे !, वयः किं गमयस्यदः? ॥११॥ निःसत्त्वः सेवते न त्वां, यदि मूढो ममानुजः ॥ तत्किं तेन मया साकं, रमस्व त्वं मनोरमे ! ॥ १२ ॥ तेनैवमुदिता स्वांके, सादरं विनिवेशिता ॥ भोगेच्छुः पूर्वमप्युच्चैः, प्रपेदे तद्वसुन्धरा! ॥१३॥ ततो विवेकं मर्यादा, त्रपां चावगणय्य तौ ॥ सेवेते स्म रहो नित्यं, पशुकल्पौ पशुक्रियाम् ! ॥ १४ ॥ कथञ्चित्तच्च विज्ञाय, वरुणा कमठाङ्गना ॥ असूयाविवशा सर्व-मुवाच मरुभूतये ॥१॥ असम्भाव्यमदोऽप्रेक्ष्य, स्वयं प्रत्येति कः सुधीः ॥ ध्यायनिति ततोऽगच्छ-न्मरुभूतिरुपाग्रजम् ॥ १६ ॥ यामि ग्रामान्तरं भ्रात-रित्युदीर्य बहिर्ययौ ॥ कृत्वा वेषान्तरं चाभू-ज्जन्मकार्पटिकोपमः ॥ १७॥ नक्तं चोपेत्य कमठ-मित्यूचे भाषयाऽन्यया ॥ शीतत्राणक्षम देहि. स्थानं दूराध्वगाय मे ॥ १८ ॥ अज्ञातपरमार्थस्तं, कमठोऽप्येवमब्रवीत् ।। भोः कार्पटिक ! तिष्ठ त्व-मिहगर्भगृहान्तिके ॥ १६ ॥ मरुभूतिस्ततस्तत्र, सुष्वापालीकनिद्रया ॥ कामं कामान्धयोद्रष्टु-कामो दुश्चेष्टितं तयोः ॥ २० ॥ मरुभूतिगतोऽस्तीति, निश्शंकं रममाणयोः ॥ वसुन्धराकमठयो-स्तमन्यायं ददर्श च ॥ २१ ॥ अक्षमोऽपि स तद्दष्टु, भीरुलोकापवादतः ॥ चकार न प्रतीकारं, निरगाच्च ततो द्रुतम् ॥ २२॥ गत्वा चोवाच तत्सर्व-मरविन्दमहाभुजे ॥ क्षमापोऽप्यादिक्षदारक्षां-स्तन्निर्वासयितुं पुरात् ॥ २३ ॥ तेऽपि गर्दभमारोप्य, रसद्विरसडिण्डिमम् ।। शरावजीर्णपत्रद्धा-मालामालितकन्धरम् ।। २४ ॥ उच्चैरुद्घोषिताकार्य, रक्षामूत्रविलेपनम् ॥ कमठ भ्रमयित्वान्त-नगरं निरवासयत् ! ॥२५॥ [युग्मम् ] एवं विडम्बितो जात-वैराग्यो विपिनं गतः॥ कमठस्तापसीभूया-रेमे बाल eeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१२॥ तपो भृशम् ॥ २६ ॥ मरुभतिस्ततो जात-पश्चात्तापो व्यचिन्तयत् ॥ धिग्मां राज्ञे गृहच्छिद्रं, प्रोच्याग्रजविडम्बकम् । ॥ २७ ॥ गृह-शामध्य०२३ दुश्चरितं जातु, प्रकाश्यं नैव कस्यचित् ॥ इति नीतिवचोऽप्यद्य, व्यस्मा हि रुषाकुलः ! ॥ २८ ॥ क्षमयामि तदद्यापि, मन्तुमेनं 9॥१८२॥ निजाग्रजम् ॥ ध्यात्वेति तद्वनं गत्वा, सोऽपतत्तस्य पादयोः ॥ २६॥ कमठो दुर्धियामेक-मठो दुष्कर्मकर्मठः ॥ विडन्बनां तां तन्मूलां, मृत्योरप्यधिका स्मरन् ॥३०॥ मूर्ध्नि प्रणमतो भ्रातु-स्तदोत्क्षिप्याऽक्षिपच्छिलाम् ॥ दुष्टस्य सान्त्वनं नूनं, शान्तस्याग्नेः प्रदीपनम् ! ॥ ३१ ॥ [ युग्मम् ] तत्प्रहारचण्णमौलि-मृत्वाऽऽर्तध्यानयोगतः ।। मरुभूतिरभूद्विन्ध्या -चले यूथाधिपो द्विपः ॥ ३२ ॥ इतश्च शरदि क्रीडन् , समं स्त्रीभिग होपरि ॥ अरविन्दनृपोऽपश्य-क्षणाल्लब्धोदयं धनम् ॥ ३३ ॥ शकचापाश्चितं तं च, गजन्तं हृद्यविद्युतम् ॥ अहो रम्योयमित्युच्चै-वर्णयामास भूधवः। ॥ ३४ ॥ मेघः स तु क्षणाद्वयोम्नि, व्यानशे तैलवज्जले ॥ क्षणाच्चाऽपुण्यवाञ्छाव-द्वातोद्धृतो व्यलीयत ! ॥ ३५ ॥ ततो दध्यौ नृपो दृष्ट-नष्टोऽसौ जलदो यथा ॥ तथा विश्वेऽपि विश्वेऽमी, भावास्तत्तेषु का रतिः ? ॥ ३६ ॥ ध्यायन्नित्यादि तत्काल-मवधिज्ञानमाप सः ॥ राज्ये न्यस्याङ्गजं पार्थे, सद्गुरोश्चाददे व्रतम् ॥ ३७॥ क्रमाच्च श्रुतपारिणो, विहरन्सोऽन्यदाऽचलत् ।। समं सागरदत्तेभ्य-सार्थेनाष्ठापदम्प्रति ॥ ३८ ॥ तं नत्वा सार्थपोऽपृच्छत् , क्व वो गम्यं ? प्रभो ! इति ॥ मन्तव्यं तीर्थयात्रार्थ, ममेति यतिरप्यवक् ॥ ३० ॥ सार्थेशः पुनरप्यूचे, धर्मः को भवतामिति ? ॥ ततः सविस्तरं तस्मै, जैन धर्म मुनिजेगो ॥ ४० ॥ तश्चाकण्र्य सकरणों द्राक, श्राद्धत्वं प्रत्यपादि सः॥ सुक्षेत्रे बीजबद्दथे, खुपदेशो महाफलः ! ॥४१॥ सोऽथ सार्थोऽट- TI वीं प्राप, मरुभूतिगजाश्रिताम् ।। तस्यां च सरसस्तीरे, भोजनावसरेऽवसत् ।। ४२ ।। तदा च मरुभूतीभो, वृतो भूरिकरेणुभिः ।। तत्रागत्य तटाकेऽम्भो-ऽम्भोदोऽम्भोधाविवापिवत् ॥ ४३ ॥ करिणीभिः समं तत्र, क्रीडित्वा पालिमाश्रयत् ॥ दिशः पश्यन्नपश्यच्च, तं VEGEGEVEEEEEEEEEE Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ५१८३॥ साथं तत्र संस्थितम् ॥ ४४ ॥ तद्वधाय च सोऽधावत् , धाऽन्तक इवापरः ॥ तं चायान्तं वीक्ष्य सर्वे, प्रणेशुः सार्थिका द्रुतम् ॥ ४५ ॥ | तं चावबुध्य बोधार्ह-मवधेः स तु सन्मुनिः ॥ कायोत्सर्गेण तस्थौ त-न्मार्गेऽचल इवाचलः ॥ ४६॥ धावन्कुम्भी' तु तमभि, ऋधा वा अन्य०२२ अध्य०२३ तत्याच मागतः ॥ तं पश्यन्माप शान्तत्वं, स्थिरः तस्थौ च तत्पुरः ॥ ४७ ॥ उत्सर्ग पारयित्वाऽथ, तस्योपकृतये व्रती ॥ इत्यूचे भोः स्म ॥१८३॥ रसितं, मरुभुतिभवं न किम् ? ॥ ४८ ॥ मां चारविन्दभुपालं, न किं जानासि ? सन्मते !॥ प्राग्भवे चाहतं श्राद्ध-धर्म किं व्यस्मरः ! कृतिन् ! ॥४६ । इति तद्वचसा जाति-स्मरणं प्राप्य स 'द्विपः ।। उदश्चितकरो भूमि-न्यस्तमूर्धानमन्मुनिम् ॥५०॥ तेनोक्त साधुना श्राद्ध-धर्म च प्रतिपद्य सः ॥ नत्वा मुनि गुणास्थानं, स्वस्थाने स्वस्थधीर्ययौ ॥ ५१ ।। दृष्ट्वा तदद्धतं पूर्व-नष्टास्ते सार्थि का अपि ॥ उपेत्य तं यतिं नत्वा, श्राद्धधर्म अपेदिरे ॥५२॥ सार्थेशोऽपि ततोऽत्यन्तं, जिनधर्मे दृढोऽभवत् ।। अष्टापदेऽहतो नत्वा, मुनि|| रप्यन्यतोऽगमत् ।। ५३ ॥ सोऽपि स्तम्बेरमश्राद्ध-श्वरन्मुनिवदीर्यया ।। षष्ठादिकं तपः कुर्वन् , शुष्कपत्रादिपारणः ।। ५४ ॥ 'भानुभानु-पत्र भिरुत्तप्त. पल्बलादिजलं पिबन् ॥ तस्थौ शुभाशयस्त्यक्त--वशाकेलिरसोऽनिशम् ! ॥ ५५ ॥ [ युग्मम् ] इतश्च कमठोऽशान्त-कोपो हत्वापि सोदरम् ।। विन्ध्याटव्यामभून्मृत्वा -ऽत्युत्कटः कुक्कुटोरगः ।। ५६ ॥ स भ्रमन्नेकदाऽप| श्य-मरुभूतिमतङ्गजम् । प्रविशन्तं सरस्यम्भः-पातुं तपनतापितम् ।। ५७।। सो ऽनेकपस्तदा पङ्के-ऽमज्जदेवनियोगतः ॥ कुक्कुटाहिः स तं सयो, ददंशोड्डीय मस्तके ॥ ५८ ।। ज्ञात्वाऽन्तं तद्विषावेशा-द्विधायाऽनशनं द्विपः ॥ वेदनां सहमानस्तां, स्मरन् पञ्चनमस्क्रियः ॥ ५ ॥ सप्तदशसागरायु-विपद्य त्रिदशोऽभवत् ॥ सहस्रारे सहस्रांशु-सहस्रांशुजयी रुचा ॥६०॥ [ युग्मम् ] मृत्वा कुक्कु १-२-६ गजः । ३ गजश्रावकः । ४ रविकिरणः। ५ अर्कतापितम् । ANTARA Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्यटनागोऽपि, सोऽन्यदा पञ्चमावनौ । बभूव नारकः सप्तदशसागरजीवितः ॥ ६१ ॥ अध्य०२३ यिनस्त्रम् का "इतश्च" जंबुद्वीपे प्राग्विदेहे, सुकच्छविजयेऽभवत् ।। वैतात्याद्री पुरी नाम्ना, तिलका विजितालका ।। ६२ ॥ नाम्ना | ॥१८॥ ॥१८४॥ विद्युद्गतिस्तत्रा-ऽभवत्खेचरभूधरः ॥ राज्ञी तु तस्य कनक-तिलका कनकच्छविः ।। ६३ ।। सोऽथ जीवः 'सामयोने-रष्टमस्वर्गतश्च्यु तः ।। जज्ञे किरणवेगाह-स्तयोः सूनुर्महाबलः ६४ ॥ क्रमाद्वृद्धिं गतो विद्याः, कलाश्चाभ्यस्य सोऽखिलाः ॥ वैदग्ध्यैककलाचार्य, वयो मध्यममध्यगात् ।। ६५ ।। राज्ये स चान्यदा न्यस्तः, पित्रा स्वीकुर्वता व्रतम् ॥ न्यायेनापालल्लोक, लोकपाल इवापरः॥ ६६॥ गुरो - म्ना सुरगुरो-न्यदाकये देशनाम् ।। प्राबाजीज्जातसंवेगा-वेगः किरणवेगराट् ॥ ६७ । गीतार्थः स्वीकृत काकि-विहाराभिग्रहः क्रमात् ।। नभोगत्या मुनिः सोऽगा-पुष्करद्वीपमन्यदा ॥ ६८ ॥ तत्र तस्थौ च कनक-गिरिनाम्नोऽन्तिके गिरेः ॥ कायोत्सर्गेण स मुनि-2 विदधद्विविधं तपः॥ ६६ ।। ___इतश्योद्धृत्य नरका-ज्जीवः कुक्कुटभोगिनः ।। गहरे तस्य शैलस्य, भुजगोऽभून्महाविषः ॥ ७० ॥ स चादि निकषा भ्राम्यन् | ध्यानस्थं वीक्ष्य तं मुनिम् ॥ क्रुद्धः प्राग्भववरेण, सर्वेष्वंगेषु दष्टवान् ।। ७१॥ ततः किरणवेगर्षि-विहितानशनः सुधीः ॥ सर्पोऽसौ मे सुहृत्कर्म-क्षयकारीति भावयन् ॥ ७२ ॥ मृत्वा जंबुद्रमावर्ने, विमानेऽच्युतकल्पगे॥ द्वाविंशत्यर्णवायुष्को-ऽभूद्विभाभासुरः सुरः ॥७३॥ भोगी स तु भ्रमन् शैल-मूले दग्धो दवाग्निना । भूयोऽभूनारको ज्येष्ठ-स्थितिकः पञ्चमावनौ ॥ ७४ ॥ इतश्च जंबुद्वीपेत्र, प्रत्यग्विदेहमण्डने । सुगन्धिविजये रम्या, शुशुभे पू: शुभङ्करा ॥ ७५ ॥ वर्यवीर्योऽभवत्तत्र, बजवीर्या१-गजस्य। VEGVETETEVEEVEEVEVEVEEV&EVAY Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०२३ ॥१८॥ ऽभिधोनृपः। तस्यासीन्महिषी लक्ष्मी-वती लक्ष्मीरिवापरा ॥ ७६ ॥ जीवः किरणवेगर्षे-रन्येयुः प्रच्युतोऽच्युतात् ॥ बज्रनाभाउत्तराध्य हयो 'वजि-जैत्रोऽभूत्तनयस्तयोः ॥ ७७ ॥ बर्द्धमानः क्रमाद्बज-नाभोऽधीत्याखिलाः कलाः ॥ नैपुण्यमिव पुण्यात्मा, पुण्यं तारुण्ययनसूत्रम् . मासदत् ।। ७८ ।। तस्मै दत्वाऽन्यदा राज्यं, वज्रवीर्योऽग्रहीद्वतम् ।। वज्रनाभस्ततो राज्य-मन्वशादुग्रशासनः ॥ ७९ ॥ विरक्तः सो॥१८॥ ऽन्यदा राज्ये, न्यस्य चक्रायुधं सुतम् ॥ क्षेमङ्कराहतोऽभ्यर्थे, दक्षो दीक्षामुपाददे ॥ ८॥ तप्यमानस्तपस्तीव्र, सहमानः परीषहान्या स साधुरासदलब्धी-राकाशगमनादिकाः ॥ ८१ ।। गुरोरनुज्ञयकाकी, विहरन् सोऽन्यदा मुनिः ॥ सुकच्छविजयेऽगच्छ-समत्पत्य विहायसा ॥२॥ विहरंस्तत्र सोऽन्येद्य-भीमकान्तारमध्यगम् ॥ ज्वलनादि ययावस्ता-चलं च 'तरणिस्तदा ॥३॥ ततस्तस्य गिरेः क्वापि, कन्दरे स महामुनिः ।। सत्त्वशाली निसर्गेण, कायोत्सर्गेण तस्थिवान् ।। ८४ ॥ प्रातश्च 'धुमणिज्योति-धोतितं धरणीत-- लम् ॥ जीवरक्षाकृते पश्यन् , विहत्त सुपचक्रमे ।। ८५ ॥ उद्धृत्योरगजीवोऽपि, नरकात्पर्यटन भवे ॥ गिरेस्तस्यान्तिके मिलोऽभवनाम्ना कुरङ्गकः ॥ ८६ ॥ पापः पापर्द्धिविहता-जीवो जीवक्षयोद्यतः॥ मृगयायै व्रजन्पूर्व, सोऽपश्यत्तं मुनि तदा ॥ ८७ ॥ असावमङ्गलमिति, क्रुद्धः प्राग्वैरतोऽथ सः॥ आकर्णाकृष्टमुक्तेन, पृषक्तेन न्यहन्मुनिम् ॥ ८८॥ वदनमोहद्भय इति, प्रहारातों व्रती तु सः। उपविश्य भू. वि त्यक्त-भक्तप्राणवपुःस्पृहः ॥८६॥ क्षमयित्वाऽखिलान् जन्तून् , शुभध्यानी विपद्य च ॥ मध्यप्रैवेयके देवो, ललितालाभिधोऽभवत Fl || ६० ॥[युग्मम् ] मृतमेकाहारेण, तमुदीक्ष्य कुरङ्गकः॥ महाबलोऽहमस्मीति, मुमुदे दुर्मदो भृशम् ! ॥११॥ कालान्तरे च कालेन, सा मीशः कवलीकृतः ॥ आवासे रौरवाहऽभू-बारकः सप्तमावनौ ।। ६२ ।। १ इन्द्रजेता । २-३ सूर्यः। VGAVEVEGVEeveerevee VEVELAVA Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१६॥ अध्य०२३ ॥१८६॥ EVEEVEE VEEVEE VEEVEE VEGVEVEEVE इतश्च जम्बुद्वीपेज, प्राग्विदेहविभूषणम् ॥ पुराणपुरमित्यासी-परमर्द्धिभरं पुरम् ॥ १३ ॥ भूपोऽभूत्तत्र कुलिश-बाहुनामा महाबलः॥ सुदर्शनाभिधा तस्य, कान्तासीत्कान्तदर्शना ॥१४॥ वज्रनाभस्य जीवोऽथ, च्युत्वा ग्रैवेयकात्ततः॥ चतुर्दशमहास्वप्नसूचितोऽभूत्सुतस्तयोः ॥६५॥ सुवर्णबाहुरित्याह्वां, व्यधात्तस्योत्सवै पः । सोऽथक्रमेण वधे, जगन्नेत्रसुधाञ्जनम् ॥६६॥धात्रिभिवि धात्रीशै-स्तत्सौभाग्यवशीकृतैः ॥ अङ्कादकं नीयमानः, स व्यतीयाय शैशवम् ॥ १७॥ सुगमाः प्राग्भवाभ्यासा-दादाय सकलाः कलाः ॥ यौवनं प्राप ललना-नेत्रालिनलिनीवनम् ॥ ६८ ॥ राज्ये निधाय तं राजा, प्रवत्राजान्यदा सुधीः ॥ सदयं स्वर्णबाहुथा-ऽभुक्त बालामिव क्षमाम् ॥ ६ ॥ सोऽथ वाहयितुं वाहान् , वाहकेली गतोऽन्यदा ॥ अनायि हृत्वाऽरण्यानीं, वक्रशिक्षितवाजिना ।। १००॥ तत्र चैकं सरो वीक्ष्य, तृषितोऽस्थात्स्वयं हयः॥ तत्र तं स्नपयित्वाऽथ, पार्थिवोऽपाययत्ययः ॥ १०१ ।। स्वयं स्नात्वा पयः पीत्वा, तीरे विश्रम्य च क्षणम् ॥ ततः पुरो व्रजन् राजा-ऽपश्यदेकं तपोवनम् ॥ १०२ ॥ तत्र प्रविशतो राज्ञो-ऽस्फुरदक्षिणमीक्षणम् ॥ श्रेयः श्रेयोऽथ मे भावी सन्तभूपोऽप्यचिन्तयत् ।। १०३ ॥ पुरो व्रजंश्च सोऽपश्य-त्तत्रैकां मुनिकन्यकाम् ।। सिञ्चन्तीं शाखिनः सख्या-ऽनुगतां गज-14 जिद्दतिम् ।।१०४॥मान्तरस्थो निध्यायं-स्तामध्यायत्ततो नृपः ॥ सर्वायासादिमां नूनं, विज्ञानी विदधे विधिः ॥ १०॥ विकाराणा मुपाध्यायो, न ध्यायोऽप्सरसामपि ॥ क्वाऽयं रूपगुणोमुष्याः, क्वेदं कर्मतरोचितम् ! ॥ १०६ ॥ नृदेवे चिन्तयत्येवं, तच्छवासामोदमोहि| तः ॥ आस्ये तस्याः पपाताब्ज-भ्रमेण भ्रमरो भ्रमन् ! १०७ ।। भृङ्गान्मां रक्ष रक्षास्मा-दित्यूचे सा सखीं तदा ॥ विना सुवर्णबाई | त्वां, कोऽन्यः पातीति साप्यवक् ॥ १०८ ॥ सुवर्णबाही पाति क्षमा-मुपद्रवति कोऽत्र वः ॥ इत्युच्चैरुच्चरन्प्रादु-रासीद्राजा तयोस्तदा । १०६ ॥ तं चाकस्माद्वीक्ष्य जात-क्षोमे ते तस्थतुः क्षणम् ।। धृतधैर्याथ तं तस्याः, सख्याऽऽचख्याविदं सुधीः ।। ११०॥ वज्रबाह AAAAAAAAEPEECENERAPPENERA F Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य० २३ ॥१८७॥ उपराध्ययनसूत्रम् ॥१८७॥ स KI सुते वजि-जैत्रतेजसि पार्थिवे ॥ नेश्वरोऽपीश्वरः कत्तुं, तापसानामुपद्रवम् ॥ १११ ॥ मुग्धासौ तु कजभ्रान्त्या, षट्पदाद्दशतो मुखम् ॥ वित्रस्ता रक्ष रक्षेति, व्याजहार सखी मम ! ॥ ११२ ॥ त्वं पुनः कामजिद्रूपः, कोऽसीति बेहि सन्मते ! ॥ तयेत्युक्तोऽवदद्भपः, स्वयं | स्वं वक्तुमक्षमः ॥ ११३ ॥ सुवर्णबाहुभूजाने-मां जानीहि वशंवदम् ॥ आश्रमोपद्रवं हन्तु-मिह त्वागां तदाज्ञया ॥११४ ॥ किञ्च पृच्छाम्यहं भद्रे !, कुतोऽसौ कमलेक्षणा ॥ रूपस्याननुरूपेण, क्लिश्यतेऽनेन कर्मणा ? ॥ ११५ ॥ साऽवादीत्खेचरेन्द्रस्य, सुता रत्नपुरप्रभोः ॥ रत्नावलीकुक्षिरत्न-मियं पद्माभिधा कनी ॥११६ ॥ तातो विपेदे जाताया-ममुष्यां तत्सुतास्ततः ॥ मिथोऽयुध्यन्त राज्यार्थ, ततोऽभूद्विड्वरो महान् ! ॥११७॥ रत्नावली विमां बाला-मादायागादिहाश्रमे ॥ निजभ्रातुः कुलपते-लवाहस्य मन्दिरम् ॥११॥ ववृधेऽसौ ततोऽत्रैव, लाल्यमाना तपोधनः॥ कामकारस्करांकुर-जीवनं चाप यौवनम् ॥ ॥ ११६ ।। अत एवर्षिकन्यानां, कर्मादः क्रियतेऽनया ॥-याशः किल संवासः, स्यादभ्यासोऽपि तादृशः॥१२०॥ साधुरेकोऽन्यदा ज्ञाना-लोकभानुरिहाययौ ॥ पद्मायाः कः पतिर्भावी-त्यपृच्छत्तं च गालवः ॥१२१ ॥ ऊचे साधुरिहायत-श्चक्रभृद्वाजिना हृतः॥ सुवर्णबाहुर्भाव्यस्याः, विवोढा वज़बाहुजः ॥१२२ ॥ ततो दध्यौ मुदा मापो, हयेनोपकृतं मम ॥ हृत्वाहं यदिहानिन्ये, सङ्गमोऽस्याः नचेत्क्क मे ? ॥ १२३ ॥ इत्यूचे च नृपो ब्रहि, भद्रे कुलपतिः क सः ॥ तं द्रष्टुमहमुत्कोऽस्मि, रथाङ्ग इव भास्करम् ॥ १२४ ॥ सा प्रोचे सोऽद्य चलित-मनुयातोऽस्ति तं मुनिम् ।। किंचिद्गत्वा तं च नत्वा, समागन्ताऽधुनाश्रमम् ॥ १२५ ॥ तदा तत्राययौ राज्ञः, सैन्यमश्वपदानुगम् ॥ सुवर्णबाहुरेवाय-मिति ते दध्ततस्ततः॥ १२६ ॥ कुलपत्यागमकालं, शङ्कमानाऽथ तत्सखी ॥ पद्मा समाऽनयद्भप-दर्शनासक्तदर्शनाम् ॥ १२७ ॥ वार्ता १ समर्थः। ARARANASI Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥१८८॥ सुवर्णबाहोस्तां, गालवस्यैयुषो गृहम् ॥ रत्नावल्याश्च सानन्दा - नन्दाख्या तत्सखी जगौ ॥ १२८ ॥ ततो रत्नावलीपद्मा-नन्दाभिः सह गालवः । ययावुपनृपं दृष्टः सोऽपि तं बह्वमानयत् ॥ १२६ ॥ अथोचे गालवो राजन् ! पद्मां मे जामिजामिमाम् ॥ पाणौ गृहाण प्रोक्ता हि, भार्याऽसौ ज्ञानिना तव ॥ १३० ॥ तच्छ्र ुत्वा दृष्टसुस्वप्न-इवोच्चैमुदितो नृपः । गान्धर्वेण विवाहेन, तामुपायंस्त रागिणीम् ॥ १३१ ॥ वैमात्रैयोऽथ पद्मायास्तदा पद्मोत्तराह्वयः । विमानैश्छादयन् व्योम, तत्रागात्खेचरेश्वरः ॥ १३२ ॥ रत्नावल्या ज्ञापितस्तं, नृपं नत्वैवमब्रवीत् ॥ देवायातोऽस्मि सेवायै, ज्ञात्वोदन्तममु ं तव ॥ १३३ ॥ प्रभो ! पुनीहि त्वं स्वीय पादपद्मसमागमात् ।। वैताढ्य पर्वते रत्न - पुरं नाम पुरं मम ॥ १३४ ॥ तत्प्रपद्यापृच्छय रत्ना - वलीं कुलपतिं तथा ।। भूमान् विमानमारोह - त्तस्याशु सपरिच्छदः ॥ १३५ ॥ नत्वा मातुलमम्बां च, सस्नेहं तदनुज्ञया || पद्माप्यश्रुजलक्लिन्न - भूतला पतिमन्वगात् ॥ १३६ ॥ ततः पद्मोत्तरः पद्मा-संयुतं तं धराधवम् ॥ सद्यो वैताढ्य शिखरि - शेखरे स्वपुरेऽनयत् ॥ १३७॥ दत्वा च रत्नप्रासादं दिव्यं स्नानाशनादिना ॥ स खेचरोऽनुचरव-त्स्वर्णबाहुमुपाचरत् ॥ १३८ ॥ स्वर्णबाहुर्महाबाहु-स्तत्रस्थः प्राज्यपुण्यतः । श्रेणिद्वितयसाम्राज्य-माससाद दुरासदम् ॥ १३६ ॥ विद्याधरकनीस्तत्र, भूयसीरुदुवाह च । पद्माद्याभिः समं ताभिः स्वपुरेऽगाच्च सोऽन्यदा ।। १४० ।। जातचक्रादिरत्नश्च, षट्खण्डं क्षितिमण्डलम् || सुवर्णबाहुभूपालः साधयित्वान्वशाच्चिरम् ॥ १४१ ॥ प्रासादोपरि सोऽन्येद्युः क्रीडन्नन्तः पुरीवृतः ॥ सविस्मयोऽम्बरेऽपश्य- गमागमपरान्सुरान् ।। १४२ ॥ ततो ज्ञात्वा जगन्नाथ तीर्थनाथसमागमम् ॥ गत्वा नत्वा जिनं मोहा पहां शुश्राव देशनाम् ।। १४३ ।। सोऽथ चक्री ययौ धाम, नत्वा तं धर्मचक्रिणम् ।। प्रबोध्य भव्यान्सार्वोऽपि, विजहार ततोऽन्यतः ॥ १४४ ॥ स्मरन् जिनान्तिके दृष्टान्सुरांश्चक्री स चान्यदा । दृष्टा मयेदृशाः पूर्व-मपि क्वापीति भावयन् ॥ १४५ ॥ जातिस्मरणमासाद्य, ददर्श प्राग्भवानि - अध्य०२३ ॥१८८॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१६॥ अध्य०२३ ॥१८६॥ ve veeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee जान् ॥ वैराग्यं चाभवद्वीजं, महानन्दमहीरुहः ॥ १४६ ॥ [ युग्मम् ] दीक्षां जिघृतः क्षमापोऽथ, न्यधाद्राज्यं निजेङ्गजे ॥ जगन्नाथजिनस्तत्र, पुनरप्यागमत्तदा ॥ १४७॥ सुवर्णबाहुः प्राब्राजी-ततस्तस्याहतोऽन्तिके ॥ स च क्रमेण गीतार्थ-स्तपस्तेपे सुदुस्तपम् ॥ १४८॥ जिनसेवादिभिः स्थानः, तीर्थकृत्कर्म चार्जयत् ॥ विजहार च भूपीठे-ऽप्रतिवद्धः समीरवत् ॥ १४६ ॥ स चान्यदाक्षीरवणाटव्यां क्षीरमहागिरी ॥ भानोरभिमुखस्तस्थौ, कायोत्सर्गेण शुद्धधीः ॥ १५० ।। कुरङ्गकोऽपि नरको-वृत्तस्तत्रैव भूधरे ॥ सिंहोजनिष्ट दैवाच्च, तत्रागच्छत्परिभ्रमन् ॥ १५१ ॥ मुनीन्द्रं वीक्ष्य तं क्रोधा-ध्मातः प्राग्भववैरतः ॥ दधाव पावकाकार-स्फारादो राक्षसोपमः ॥१५२ ॥ तमापतन्तं वीक्ष्याशु, व्यधादनशनं शमी ॥ उत्कालो हरिरप्युच्चैः, प्राहरत्तस्य भूघने ॥१५३ ।। ततो मृत्वा मुनिः स्वर्ग, दशमे त्रिदशोऽभवत् ॥ महाप्रभविमानान्त-विशत्यर्णबजीवितः ॥१५४ ॥ सिंहः सोऽपि मृतस्तूर्य-नरके नारकोऽभवत् ॥ दशार्णवायुविविध-वेदनावेदनाकुलः ॥१५५ ॥ उद्वृत्तोऽथ ततो भ्राम्य-स्तियंग्योनिषु भूरिशः ॥ जीवः सिंहस्य स क्वापि, ग्रामे जज्ञे द्विजाङ्गजः ॥१५६ ।। जातस्य तस्य ताताद्या, निजाः सर्वे विपेदिरे ॥ वदन्तस्तं कठं लोकाः, कृपयाऽजीवयंस्ततः॥१५७ ॥ बाल्यमुलंध्य तारुण्यं, प्राप्तः सोऽत्यन्तदुर्गतः ॥ निंद्यमानो जनैः प्राप, कृछागोजनमप्यहो ! ।। १५८ ॥ त्यागभोगकृतार्थार्थान् , वीक्ष्य सोऽन्येधुरीश्वरान् ॥ इति दध्यौ तपः प्राज्यं, तप्तमेभिः पुरा खलु ! ॥१५६ ।। बीजं विना कृषिरिव, न हि श्रीः स्यात्तपो विना ॥ तपस्यहं यतिष्ये त-द्वाणिज्य इव वाणिजः ।। १६० ।। विमृश्येति कठो जात-संवेगस्तापसोऽभवत् ।। पञ्चाग्न्यादि तपः कष्टं, कुर्वन् कन्दादिभोजनः ॥१६१ ॥ | इतश्चात्रैव भरते-ऽभवद्वाराणसी पुरी । नित्यसख्येव जाहव्या, सेविता सनिधिस्थया ॥ १६२ ।। रेजेऽभिराममुद्यानं, परितो यां पुरी परम् ॥ अलकाविभ्रमाच्चैत्र-थं किमु समागतम् ! ॥१६३ ॥ यस्यां सालो विशालोरु-माणिक्यकपिशीर्षकः ॥ दिकश्रीणां Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य अध्य ॥१०॥ यनसूत्रम् ॥१६॥ सास-ससार नित्यमादर्शा-निरुपायानदर्शयत् ॥ १६४ ॥ यत्र चैत्येषु सौवर्णाः, कलसाः कलसानुषु ॥ पूजयन्ति करैर्भानु-मम्यागतमिवागतम् ॥१६५ ॥ यत्र रम्याणि हाणि, रेजिरे धनशालिनाम् ॥ पुण्याभ्युदयलम्यानि, विमानानीव नाकिनाम् ॥ १६६ ॥ स्वर्गिणा भोजनायाऽपि, सुधा मिलति याचिता ॥ चित्रं यत्र सुधालिप्ताः, प्रायः सर्वगृहा अपि ! ॥१६७ ॥ अगण्यपण्यसम्भार-सङ्कटापि विसङ्कटा ॥ कुत्रिकापणराजीव, रेजे यत्रापणावली ॥ १६८ ॥ प्रत्यक्षां वीक्ष्य यल्लक्ष्मी, दक्षा विश्वातिशायिनीम् ॥ अशङ्कन्ताश्माम्बुशेषौ, रोहणाद्रिपयोनिधी ॥ १६६ ॥ अश्वसेनाभिधो विष्वक्-सेनसन्निभविक्रमः ॥ तत्राभूत्पार्थिवः पृथ्वी--वास्तव्य इव वासवः ॥ १७० ॥ गुणैरवामा वामाह्वा, शीलादिगुणशालिनी ॥ तस्यासीद्वल्लभा राज्ञः, स्वप्राणेभ्योऽपि वल्लभा ॥ १७१ ॥ सुवर्णबाहुजीवोऽथ, च्युत्वा प्राणतकल्पतः।। कुक्षाववातरद्वामा-देव्या ज्ञानत्रयान्वितः ॥१७२ ॥ तदा सा समुखी कुम्भि-प्रमुखान् विशतो मुखे ॥ चतुर्दश महास्वप्नान् , ददर्श शयिता सुखम् ॥ १७३ ॥ शक्रो नृशक्रः तज्ज्ञाश्च, तेषामर्थममुं जगुः ॥ स्वप्नरेभिः सुतो भावी, तव देवि ! जगत्पतिः ॥ १७४ ॥ ततः प्रमुदिता वामा-देवी गर्भ दधौ सुखम् ॥ काले च सुषुवे पुत्रं, नीलद्युतिमहिध्वजम् ॥ १७५ ॥ विज्ञाय विष्टरास्थैर्या-प्रभोर्जन्मागतास्तदा ॥ षट्पञ्चाशदिक्कुमार्यः, सूतिकर्माणि चक्रिरे ॥१७६ ॥ ज्ञात्वा जन्मावधेस्तस्य, शकाद्या वासवा अपि ॥ जन्माभिषेककल्याणं, सुमरौ विधिवद्व्यधुः ॥ १७७ ॥ पीतामृत इवानन्दा-दश्वसेननृपोऽपि हि ॥ कारामोक्षादिकं चक्रे, सूनोर्जन्महोत्सवम् ॥ १७८ ॥ गर्भस्थेऽस्मिन्कृष्णरावा-बपि माता स्वपार्श्वतः ॥ ददर्श सर्प सर्पन्तं, द्रुतं भत्तु रुवाच च ॥ १७६ ॥ प्रभावोऽयं हि गर्भस्ये-त्यूचे भूपोऽपि तां तदा ॥ तच्च स्मृत्वा नृपः सूनोः, पार्श्व इत्यभिधां व्यधात् ॥ १८० ॥ लाल्यमानोऽथ धात्रीभि-रादिष्टाभिविंडोजसा ॥ शिशुभूतैः | १ सर्पलांछनम् । २ इन्द्रेण । DIGIARRRRRRRRIADERSE Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् अध्य०२३ ॥११॥ ५१६१॥ Neeeeeeeeeeeeeeee all समं देवैः, क्रीडन् क्रीडागहं श्रियः ॥१८१ ॥ सुधां शक्रेण विहिता--मंगुष्ठे नित्यमापिबन् ॥ ववृधे स जगन्नाथो, जगत्पाथोऽधिचन्द्रमाः ॥ १८२ ॥ [ युग्मम् ] क्रमाच्च यौवनं प्राप्तः, कामिनीजनकार्मणम् ।। नवहस्तप्रमाणाङ्गः, प्रभुः प्राममुदज्जगत् ॥ १८३ ॥ अन्येधुरश्व| सेनोवी-नाथमास्थानसंस्थितम् ॥ द्वाःस्थेनावेदितः कोऽपि, पुमान्नत्वैवमब्रवीत् ॥१८४॥ स्वामिनिहास्ति भरते, कुशस्थलपुरं पुरं ॥ राजा प्रसेनिज-तत्र, विद्यते हृद्यकीर्तिभूः ॥१८५ ॥ तस्य प्रभावतोसंज्ञा, सुतास्ति नवयौवना ॥ जगतां सारमुचित्य, रचितेव 'विर चिना ॥ १८६ ॥ याति दास्यं तदास्यस्य, शशी तन्नेत्रयोमृगः ॥ केकी तत्केशपाशस्य, तद्वाक्यस्य सुधारसः ! ॥१८७॥ आदर्शो दर्शनीयत्वं, नाश्नुते तत्कपोलयोः ॥ धुरां तदधरस्यापि, न धत्ते हेमकन्दलः! ॥१८८ ॥ कुण्ठो वैकुण्ठकम्बुस्तत्कण्ठसौन्दर्यशिक्षणे ॥ स्वर्णकुम्भोऽपि नो दक्ष-स्तद्वक्षोजरमाग्रहे ! १८६ ॥ नालमालिंगितुं पद्म-नालं तद्दोलताश्रियम् ॥ न तत्पाणिच्छविलवं, लभन्ते पल्लवा अपि ! ॥१०॥ तन्मध्यलीलामध्येतु, बालिशः 'कुलिशोऽपि हि ॥न तन्नाभिसनाभित्व-मावतः शिक्षित क्षमः ॥ १६१॥ तदा| रोहतुलारोहे, न शक्ता सैकतस्थली ॥ रम्भास्तम्भोऽश्नुते स्तम्भं, तदूरुसुषमार्जने ! ॥१६२॥ नैणिजंघापि तज्जंघा-श्री संघातनसोधमा । नारविन्दानि विन्दन्ति, पद्मा तत्पादपद्मयोः ! ॥ १६३ ॥ कलां नाश्चति तत्काय-कान्तेः काञ्चन काञ्चनम् ।। तल्लावण्यगुणं वीक्ष्याऽप्सरसः सरसा न हि ! ॥ १६४ ॥ तां वीक्ष्य तादृशीं योग्य-जामातृप्राप्तये पिता ॥ बहूनन्वेषयामास, कुमारानाप तं पुनः ॥ १६५ ॥ सा सखीभिः सहान्येद्य-तोद्यानं प्रभावती ॥ गीतं स्फीतं किन्नरीभि-र्गीयमानमदोऽशृणोत् ॥ १६६ ॥ सुतोऽश्वसेनभूनेतुः, श्रीपार्थो जयताचिरम् ॥ रूपलावण्यतेजोभि-निर्जयनिर्जरानपि ! ॥ १६७ ॥ तदाकाभवत्पाश्र्वे, सानुरागा १ वेधमा । २ वज्रः। ܒܕܦܬܦܬܕܬܕܒܕܦܨܕܟܕܕܦܕܕܦܬܕܦܕܕܟܕܦܢ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०२३ | ॥१२॥ उत्तराध्य- प्रभावती॥ क्रीडां व्रीडां च संत्यज्य, तद्गीतमशृणोन्मुहः ॥ १९॥ ततोऽनुरक्ता सा पाश्र्वे, वयस्याभिरलक्ष्यत ॥ रागो रागिषु न यनसूत्रम् || छन्नस्तिष्ठत्यम्भसि तैलवत् ॥ १६ ॥ चिरं साऽपश्दुत्पश्या, किन्नरीषु गतासु खम् ॥ सखीभिश्च गृहं नीता, क्वापि नाधिगता सुखम् ॥१२॥ III ॥२०॥ स्मरापस्मारविवशा, न हि किञ्चिद्विवेद सा ॥ दध्यौ च पाश्वमेवान्तः, परब्रह्म व योगिनी ॥२०१॥ ज्ञात्वा पार्वेऽनुरक्तां तां, पितरौ तत्सखीमुखात् ।। मुमुदाते भृशं स्थाने, रक्तेयमिति वादिनौ ॥ २०२ ॥ इत्यूचतुश्च प्रेष्यैना-मधिपाच स्वयंवराम् ॥ द्रुतमानन्दयिष्यावो, नन्दनां विरहार्दिताम् ॥ २०३ ॥ तन्निशम्य चरैनैक-देशाधीशो महाबलः ॥ इत्यूचेऽन्तःसभं राजा, यवनो यवनोपमः ॥२०४ ॥ कथं पार्थाय हित्वा मां, सुतां दाता प्रसेनजित् ॥ प्रसह्यापि ग्रहीष्ये तां, स्वयं दास्यति चेन मे ॥ २०५ ॥ इत्युदी| र्याशु पवन-जवनो यवनो नृपः ॥ एत्यारुणत्पुरं विष्वग, बलैः प्राज्यैः कुशस्थलम् ॥ २०६ । प्रवेशनिर्गमौ तत्रा-भृतां कस्यापि नो || तदा ॥ 'रोलम्बस्येव रजनीमुखमुद्रितनीरजे ॥२०७॥ पुरुषोत्तमनामाई, प्रहितो भूभूजा ततः ॥ वार्ता वक्तुमिमां रात्रौ, निर्गत्यात्रागर्म प्रभो ! ॥२०८ ॥ परंतपातः परंतु, यत्कर्तव्यं कुरुष्व तत् ॥ शरणं ते प्रपन्नोऽस्ति, तत्रस्थोऽपि प्रसेनजित् ॥ २०६ ।। तन्निशम्याश्वसेनोर्बी-कान्तः कोपारुणेक्षणः ॥ भम्भामवीवदद्यात्रां, चिकीर्षुर्यवनं प्रति ॥ २१०॥ तं भम्भाध्वनिमाकये, किमेदिति चिन्तयन् ॥ पितुः पार्श्व मगात्पाश्वो, नत्वा चैवमवोचत ।। २११ ॥ तरस्वी कतरो देवासुराणां चाऽपराध्यति ? ॥ स्वयं श्रीतातपादानां, यदर्थोयमुपक्रमः ॥ २१२ ॥ अश्वसेननृपोंगुल्या, दर्शयन्नागतं नरम् ॥ कुशस्थलपतिं त्रातु, यवनं जेयमब्रवीत् ॥२१३ ॥ पाश्वःप्रोचे तृणे पर्शो-रिव तस्मिन्नुकीटके । सुरासुरजितां तात-पादानां नोद्यमोऽर्हति ! ।। २१४ ॥ तदादिशत मां पूज्याः, सौधं भूषयत स्वयम् ॥ १ भ्रमरस्य । २ कमले। EVEEVE EVENTEVEEPEE CEVEEVEEVEVEEEEEEEEEEVE Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PG उत्तराध्यबनसूत्रम् ॥१६॥ अध्य०२३ ॥१६३॥ NESEVEGVES VEGVEEVEeveeeee मा मत्तोऽपि भावि मत्तस्य, तस्य दापसर्पणम् ! ।। २१५ ॥ ततो राजा बलं सूनो-विदन् विश्वत्रयाऽधिकम् ॥ प्रत्यपद्यत तद्वाक्यं, ससैन्यं व्यसृजच्च तम् ।। २१६ ॥ आद्य एव प्रयाणेऽथ, मातलिः शक्रसारथिः॥ एत्य नत्वा जगन्नाथं, रथोत्तीणों व्यजिज्ञपत् ॥ २१७ ॥ प्रभो ! विज्ञाय शक्रस्त्वां, क्रीडयापि रणोद्यतम् ॥ भक्त्या रथममुं प्रैषी-प्रसय तमलंकुरु ॥ २१८ ॥ नानाशस्त्राढ्यमस्पृष्ट-भूपृष्टं तं रथं ततः॥ आरुह्य तेजसां धाम, व्योम्नागाद्भानुवद्विभुः ॥ २१६ ॥ अन्वायान्त्या भूमिगायाः, सेनायाः कृपया प्रभुः ।। प्रयाणेलघुकेगच्छन् , क्रमात्प्राप कुशस्थलम् ॥ २२० ।। तत्रोद्याने सुरकृते, प्रासादे तस्थुषा सुखम् ।। स्वामिना प्रहितो दूतो, गत्वा यवनमित्यवक् ।। २२१ ।। राजन् ! श्रीपार्श्वनाथस्त्वां, मदास्येनादिशत्यदः ॥ शरणीकृततातोऽयं, रोधान्मोच्यः प्रसेनजित् ॥२२२।। अहं हि तातमायान्तं, निषिध्यानेन हेतुना ॥ इहायातोऽस्मि तद्याहि, स्वस्थानं चेत्सुखस्पृहा ! ।।२२३ ।। अथोचे यघनः क्रुद्धः किं रे ! दूताब्रवीरिदम् ? ।। अश्वसेनश्च पाश्र्वश्च, कियन्मानं ममाग्रतः ! ॥ २२४ ।। तत्पाश्च एव स्वं धाम, यातु पातु वपुर्निजम् ॥ जीवन्मुक्तोऽसि दूतत्वा-गच्छ स्वमपि रे ! द्रुतम् ॥ २२५ ॥ पुनरप्यवद्दतः, कृपालुर्मम नायकः ।। कुशस्थलाधिपमिव, त्वामपि त्रातुमीहते ! ॥ २२६ ।। अत एव स मां प्रैषी-त्वां बुवोधयिषुर्जड ! ॥ तद्बुध्यस्वाऽवबुध्यस्वा-ऽजय्यं तं वज्रिणामपि ! ॥ २२७ ॥ हरिणो हरिणा ध्वान्तं, भास्वता शलभोऽग्निना ॥ पिपीलिकाब्धिना नाग-स्तायेण पविना गिरिः ।। २२८ ॥ कुञ्जरेणोरणश्चव, यथा योद्धमनीश्वरः ॥ तथा त्वमपि पावेंण, तत्तदाज्ञां प्रतीच्छ भोः ! ॥ २२६ ॥ [ युग्मम् ] अवन्तमिति तं दृतं, विब्रुवन्तो जिघांसवः ॥ यावदुत्तस्थिरे सैन्या-स्तावन्मंत्रीत्युवाच तान् ।। २३० ॥ अरे ! पाश्र्वप्रभोदत, मूढा यूयं जिघांसवः ॥ अनर्थान्धौ क्षिपत कि, कण्ठे धृत्वा निजप्रभुम् । ॥ २३१ ॥ यस्याज्ञां मौलिवन्मौली, दधते वासवा अपि ॥ तद्दतस्याभिहनन-मास्तां हीलापि दुःखदा! ॥ २३२ ॥ निवा AVEC DEAALGFAZETEVEFAVE Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥१६४॥ येति भटान्मंत्री, साम्ना तं दूतमित्यवक् ॥ सौम्यामिषां मन्तुमेतं, क्षमेथाः मा त्रवीः प्रभोः ॥ २३३ ॥ नन्तु श्रीपाव पादाब्जानू, समेष्यामोऽधुना वयम् ।। इति प्रबोध्य तं दूतं, सचिवो विससर्ज सः ॥ २३४ ॥ हितेच्छुः स्वप्रभुं चैवमूचे देवाऽविमृश्य किम् ॥ दुरुदर्कमिदं सिंह- सटाकर्षणवत्कृतम् १ || २३५ ॥ यस्येन्द्राः पत्तयः सर्वे, तेन कस्तव सङ्गरः १ ।। तदद्यापि न्यस्य कण्ठे, कुठारं पार्श्वमाश्रय ॥२३६॥ क्षमयस्व स्वापराधं तच्छासनमुरीकुरु ॥ अत्रामुत्र च चेत्सौख्यैः, कार्यं कार्यं तदा ह्यदः || २३७ || साध्वहं बोधितो मंत्रि - नित्याख्याद्यनवस्ततः ।। सतंत्रोऽगादुपस्वामि, ग्रीवान्यस्तपरश्वधः || २३८ || वेत्रिणा वेदितश्चान्तः - समं गत्वाऽनमत्प्रभुम् ॥ तन्मोचितकुठारश्र, भूयो नत्वैवमब्रवीत् ॥ २३६ ॥ सर्वसहोसि तन्नाथ !, मन्तुमेनं क्षमस्व मे ॥ अभयं देहि भीतस्य प्रसीदादत्स्व मे रमाम् ! ।। २४० ।। ऊचे श्रीपाश्र्वनाथोऽपि, संतु श्रेयांसि ते कृतिन् ! | भुंक्ष्व राज्यं निजं मास्म - भैषी मैवं कृथाः पुनः ! ।। २४१ ।। तथेति प्रतिपन्नं तं, जिनेन्द्रो बह्वमानयत् ।। कुशस्थलपुरस्याभू-द्रोधमुक्तिस्तदा क्षणात् ।। २४२ ॥ अथाज्ञया प्रभोर्गत्वा, पुरान्तः पुरुषोत्तमः ॥ प्रसेनजिन्नृपायोचे, तां वात्तां प्रीतचेतसे ॥ २४३ ॥ ततः प्रभावतों कन्या - मुपादायोपदामिव ॥ गत्वा प्रसेनजिन्नत्वा, जिनमेवं व्यजिज्ञपत् ।। २४४ ॥ यथा स्वयमिहागत्या - न्वग्रहीम जगत्पते ! ।। परिणीय तथा पुत्री - मिमामनुगृहाण मे ॥ २४५ ॥ चिरकालीनरागासौ, त्वयि नान्यं समीहते । तन्निसर्गकृपालोऽस्यां विशेषात्सकृपो भव ।। २४६ ।। स्वाम्यूचेऽहं नृप । त्रातु, त्वामागां पितुराज्ञया ॥ नतूद्रोढुं तव सुतां तदलं वार्त्तयाऽनया ।। २४७ ॥ दध्यौ प्रसेनजिन्नायं, मानयिष्यति मद्गिरा ॥ अश्वसेनोपरोधात्तमानयिष्याम्यदो मुना || २४८ ॥ तेनेति ध्यायता सार्क, सख्यं निर्माप्य सुस्थिरम् ॥ सत्कृत्य बहुधा स्वामी, व्यसृजद्यवनं नृपम् ॥ २४६ ॥। विसृज्यमानः प्रभुणा, कुशस्थलपतिः पुनः ॥ इत्यूचे श्रीअश्वसेनं नन्तुमेष्याम्यहं विभो ! || २५० ।। ततमित्यु अध्य०२३ ॥१६४॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य० २३. । ॥१६॥ उपराध्ययनसूत्रम् ॥१६॥ क्तवता, श्रीपाश्र्वस्वामिना समम् । वाराणसी नृपः सोऽगात्सहादाय प्रभावतीम् ॥२५१शातातं नत्वा निजं सौधं, गते पार्वे प्रसेनजित्। प्रभावत्या समं गत्वाऽश्वसेननृपमानमत् ।।२५२॥ तं चाश्वसेनोऽभ्युत्थाय, समालिंग्य च निर्भरम् ।। कुशलं ते स्वयं चेह, किमागा इति पृष्टवान् ? ॥२५॥ सोऽवादीद्यस्य पाता त्वं, न तस्याऽकुशलं क्वचित् ।। इह त्यागां महाराज!, त्वां प्रार्थयितुमात्मना ।।२५४॥ नाम्ना प्रभावती मेऽसौ, सुता श्रीपाश्वहेतवे । गृह्यतां देव ! याचा मे, मा भून्मोघा वयि प्रभौ ।।२५शा राजा जगौ कुमारोऽसौ, विरक्तोऽस्ति सदा भवात् ॥ तथाप्युद्वाहयिष्यामि, बलात्तं तव तुष्टये ॥ २५६ ॥ इत्युदित्वा समं तेन, गत्वा पार्धान्तिकं नृपः ॥ इत्यूचे वत्स ! राज्ञोऽस्य, सुताऽसौ परिणीयताम् ॥ २५७ ॥ बाल्यादपि विरक्तोऽसि, भववासात्तथापि हि ॥ मान्यमेतन्मम वचो, दाक्षिण्याम्भोनिधे! त्वया ॥ २५८ ॥ इत्यश्वसेनोर्वीशेन, पाश्र्वः साग्रहमीरितः ॥ भोक्तुभोगफलं कर्म, परिणिन्ये प्रभावतीम् ॥ २५६ ॥ क्रीडागिरिसरिद्वापि-बनादिषु तया समम् ॥ रममाणो विभुनित्य-मतिचक्राम वासरान् ॥ २६० ॥ गवाक्षस्थोऽन्यदा स्वामी, पुरीं पश्यन्ददर्श सः॥ बहिर्यातो बहून्पुप्प-पटलीपाणिकान् जनान् ॥ २६१ ॥ इत्यपृच्छच पार्श्व स्थान् , पाश्वः कोऽद्य महो महान् ? ॥ पुर्या निर्याति यदसौ, जवनः सकलो जनः ॥ २६२ ॥ ततः कोऽपि जगौ स्वामिन् !, नोत्सवः कोऽपि विद्यते ॥ बहिः किन्वागतोऽस्तीह, कठाह्वस्तापसाग्रणीः ॥ २६३ ।। तदर्चनाय लोकोऽयं, यातीत्याकर्ण्य तद्विरम ।। द्रष्टुं तत्कौतुकं स्वामी, तत्रागात्सपरिच्छदः!॥ २६४ ॥ पञ्चाग्निसाधकं तं च, पश्यन्नवधिनाधिपः॥ वन्हिकुण्डक्षिप्तकाप्टे, दह्यमानाहिमैक्षत ॥ २६५ ॥ तत्प्रेक्ष्य प्रभुरुद्वेल-कृपाम्भोधिरदोऽवदत् ॥ अहो तपस्यतो-ऽप्यस्या- | ज्ञानं यन्न दयागुणः ! ॥ २६६ ।। विना चतर्मुखमिव, धर्मः कीदृक्कृपां विना ? ॥ कायक्लेशोऽपि विफलो, निष्कृपस्य पशोरिव ! दाकण्यं कठोऽशंस-द्राजपुत्र ! भवादृशाः ।। दक्षाः स्युर्गजशिक्षादौ, धर्मे तु मुनयो वयम् । ॥ २६ ॥ ततोऽग्निकुण्डा IAAAAAAAAAAAAAAG Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०२३ ॥१६॥ उत्तराध्य- ॥ निष्कास्य, तत्काप्टं सेवकैविभुः॥ यत्नेनामेदयत्तस्मा-निरगाचोरगो गुरुः ॥ २६६ ॥ द्विजिह्वः सोऽपि हि ज्वाला-जिह्वज्वालार्जिविह्वलः॥ यनसूत्रम् का प्रभुदर्शनपीयूषं, प्राप्यान्तः पिप्रिये भृशम् ! ॥ २७० ॥ परलोकाध्वपान्थस्य, तस्याहेः स्वनरैःप्रभुः ॥ प्रत्याख्याननमस्कारा-दिकं शम्ब___॥१६६॥ | लमार्पयत् ! ।। २५१ ॥ सर्पः सोऽपि प्रतीयेष, तत्समग्रं समाहितः ॥ कृपारसाया दृष्ट्या, प्रेक्ष्यमाणोऽर्हता स्वयम् ॥ २७२ ॥ विपद्य | सोऽथ नागोऽभू-भागेन्द्रो धरणाभिधः॥ जिननिध्यानसुध्यान-नमस्कारप्रभावतः ! ॥ २७३ ॥ अहो । अस्य कुमारस्य, विज्ञानमिति वादिभिः ॥ स्तूयमानो जनैः स्वामी, निजं धामागमत्तः ॥ २७४ ॥ तद्वीक्ष्याकर्ण्य चात्यन्तं, विलक्षोऽन्तः शठः कठः॥ बालं तपोऽतनोद्वाद, सन्मार्गाप्तिः क्व तादृशाम् ! ॥ २७५ ॥ मृत्वा च मेघमालीति, नामा भवनवासिषु ॥ सोऽभून्मेषकुमारेषु, देवो | मिथ्यात्वमोहितः ॥ २७६ ॥ ___अथान्यदा वसन्ततौ, क्रीडोद्यानं गतो जिनः ।। प्रासादभित्तौ चित्रस्थं, नेमिवृत्तान्तमैक्षत ॥ २७७ ॥ दध्यौ च धन्योऽहन्नेमि-यः कुमारोऽग्रहीव्रतम् ॥ हित्वा राजीमती गाढा-नुरागामपि कन्यकाम् ॥ २७८ ॥ तन्निस्सङ्गोहमपि हि, भवामीतिमतिर्विभुः ॥ तीर्थ प्रवतयेत्युचे-ऽभ्येत्य लोकान्तिकैः सुरैः ।। २७६ ॥ ततो दत्वाब्दिकं दानं, धनैर्धनदपूरितैः ॥ पित्रोरनुज्ञा जग्राह, व्रताय परमेश्वरः ॥२८॥ नरेन्द्ररश्वसेनाद्यै-रिन्द्रः शक्रादिकस्ततः ।। दीक्षाभिषेकः श्रीपाश्र्व-प्रमोश्चक्रे महामहैः ॥२८१।। अथारूढः सुरैरूढां, विशालां शिविकां विभुः ।। देवदुन्दुभिनिर्घोषापूर्णद्यावाक्षमान्तरः ॥ २८२॥ श्रेयसां विश्रमपदं, गत्वाऽऽश्रमपदं वनम् ॥ याप्ययानादवातारी-मम| त्वादिव तन्मनः ।। २८३॥ [युग्मम् ] विहाय तत्र भूषादि, मूर्ध्नि लोचं विधाय च ॥ वामस्कन्धे देवदृष्यं, दधन्न्यस्तं विडोजसा ॥ २८४॥ त्रिंशद्वर्षवयाः स्वामी, सह नृणां शतैत्रिभिः ॥ कृताष्टमतपाः सर्व-विरतिं प्रत्यपद्यत ॥ २८५॥ [युग्मम् ] लेमे मनःपर्यया VEReeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१६७॥ ह्व, तुर्यज्ञानं जिनस्तदा । भुवि भारुण्डपक्षीवा - ऽप्रमत्तो विजहार च ।। २८६ ॥ वासवा श्रपि शक्राद्याः कृतस्वामिव्रतोत्सवाः ।। गवा नन्दीश्वरे कृत्वाऽशहिकां स्वाश्रयं ययुः ॥ २८७ ॥ अन्यदा नगराभ्यर्णदेशस्थं तापसाश्रमम् ॥ विभुर्जगाम विहरन्, मार्त्तण्डवास्तपर्वतम् ।। २८८ ।। ततोऽवटतटस्थस्य, वटस्य निकटे निशि । तस्थौ प्रतिमया स्वामी, नासाग्रन्यस्तलोचनः ॥ २८६ ॥ इतश्च सोऽसुरो मेघ-मालिनामाऽवधेर्निजम् ॥ ज्ञात्वा प्राग्भववृत्तान्तं स्मृत्वा तद्वैरकारणम् ॥ २६० ॥ क्रोधेन प्रज्वलन्नन्त - वियोगीव मनोभुवा ।। पार्श्वनाथमुपद्रोतु ं तं प्रदेशमुपाययौ ॥ २६१ ॥ [ युग्मम् ] विचक्रे चांकुशाकार - नखरान्नखरायुधान्' ।। घोररूपधरान्पुच्छाच्छोटकम्पितभूधरान् ।। २६२ || आप्ते तैर्भीतिमप्राप्ते, भीषणेभ्योऽपि भीषणान् ॥ विदधे सोऽसुरः शैल - प्रायकायान्मतङ्ग| जानू ।। २६३ ।। तैरप्यचकिते नाथे, स्फारफूत्कारकारिणः ॥ यमदोर्दण्डवच्चण्डा - नैकान्नेत्रविषानहीन् ॥ २६४ ॥ उत्कटैः कण्टकैः स्वास्थ्य–ब्रश्चकान्' वृश्चिकांस्तथा ॥ भल्लूकशूकरादींश्व, श्वापदानापदां विधीन् ॥ २६५ ॥ ज्वालामालाकरालास्या--मुण्डमालाढ्यकन्धरान् । प्रेतान् विश्वानभिप्रेता-कारांश्च विचकार सः ॥ २६६ ॥ [ त्रिभिर्विशेषकम् ] प्रभोर्ध्यानं चलयितु ं, तेऽपि न प्रभवोऽभवन् ॥ वज्र मेत्तुमिवोर्द्दश–कीटिकामत्कुणादयः ! ॥ २६७ ॥ ततः क्रुद्धोऽधिकं गर्जा - विद्युद्याप्तदिगन्तराम् ॥ मेघमाली मेघमालां, विचक्रे व्योम्नि भीषणाम् ! ॥ २६८ ॥ नीरैरेनं प्लावयित्वा, हन्म्यहं पूर्वविद्विषम् ।। ध्यायन्निति ससंरम्भः प्रारेमे सोऽथ वर्षितुम् ॥ २६६ ॥ धाराभिमुष्टिमुशल-यूपाकाराभिरुच्चकैः ।। वर्षं वर्षं व्यधादेका- वामिव वसुन्धराम् ॥ ३०० ॥ अभूदाकण्ठमुदकं तदा पाश्र्वप्रभोः चणात् ॥ तदा तदास्यं तत्राभा--पद्मं पद्महदे यथा ॥ ३०९ ॥ नासापार्श्व पार्श्व भतुः पयो यावदुपाययौ ।। चचाल विष्टरस्ताव - दूधरणस्यो - " १ सिहान् ॥ २ छेदकान् ॥ अध्य०२३ ॥१६७॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्यपनस्त्रम् ॥१६॥ DGIHD रगप्रभोः ॥ ३०२ ॥ सोऽथ ज्ञात्वाऽवधेः स्वामी-वृत्तान्तं महिषीवृतः ॥ तत्रागत्य द्रुतं भक्तिं, व्यक्तिकुर्वन्ननाम तम् ॥ ३०३ ॥ उन्नालंअध्य० २३ नलिनं न्यस्य, स्वामिनः क्रमयोरधः ॥ भोगाभोगेन भोगीन्द्रः, पृष्टपार्थादिकं प्यधात् ॥३०४॥ तन्मौलौ तु व्यधाच्छत्रं, फणीन्द्रः सप्तभिः ॥१८॥ फणैः ।। ध्यानलीनमनाः स्वामी, तत्र तस्थौ सुखं ततः ॥ ३०५ ॥ नागराजमहिष्योऽपि, नृत्यं चक्रुः प्रभोः पुरः॥ वेणुवीणामृदंगादिधनिव्याप्तदिगन्तरम् ॥ ३०६ ॥ भक्तिकारिणि भोगीन्द्र, द्वेषधारिणि चासुरे ॥ निर्विशेषमनास्तस्थौ, स्वामी तु समतानिधिः! ॥३०७॥ तथाऽपि वीक्ष्य वर्षन्त-ममर्षेण कठासुरम् ॥ जातकोपो नागनाथः, साक्षेपमिदमभ्यधात् ॥ ३०८ ।। स्वोपद्रवाय किमिदमारेमे दुष्ट रे ! त्वया ? ॥ दयालोरपि दासोऽहं, सहिष्ये न ह्यतः परम् ! ।। ३०६ ॥ ज्वलन्महोरगः पापा-निषेद्ध स्वामिनाऽमुना ॥ तदाऽदर्यत चेत्तर्हि, विप्रियं तव किं कृतम् ॥ ३१० ॥ निष्कारणजगन्मित्र-मेनं घूक इवारुणम् ॥ हेतोर्विना द्विषन्नद्य, न भविष्यसि पाप रे ! ॥ ३११ ।। तदाकर्ण्य वचो मेघमाली दृष्टिमधो न्यधात् ।। फणीन्द्रसेवितं पाच मपश्यच्च तथास्थितम् ।। ३१२॥ दध्यौ च चकितः शक्तिरियत्येवाखिला मम ॥ सा तु शैले शशस्येव, निष्फलाभूदिह प्रभौ ॥ ३१३ ॥ किं चार्य भगवान्मुष्ट्या, पेष्टुं वन्नमपि क्षमः॥ क्षमया क्षमते सर्व, भोगीन्द्रादीस्तथापि मे ॥ ३१४ ॥न चान्यच्छरणं विश्वे, मम विश्वे शवैरिणः ॥ तदेनमेव शरणीकरोमि करुणाकरम् ॥ ३१५ ।। ध्यात्वेति मेघ संहृत्य, सोऽसुरः सार्वमाश्रयत् ।। मदागोऽदः क्षमस्वेति, प्रोच्यागाच्च स्वमास्पदम् ॥ ३१६ ॥ नागेन्द्रोऽपि जिनं ज्ञात्वाऽनुपसर्ग प्रणम्य च ।। निजं स्थानं ययौ प्रातर्जिनोऽपि व्यहरत्ततः ।। ३१७ ।। छमस्थत्वेन चतुरशीतिमहनां विहत्य च ॥ तदाश्रमपदोद्यानं, पुनरप्याययौ प्रभुः ॥ ३१८ ॥ ध्यानस्थस्योदभूत्तत्र, पञ्चमज्ञानमर्हतः ॥ इन्द्रायोपेत्य समवसरणं चक्रिरेऽखिलाः ॥ ३१ ॥ पूर्वसिंहासने तत्रासीने श्रीपाश्र्वपारगे ॥ त्रीणि तत्प्रतिरूपाणि, त्रिदिशं व्यन्तरा व्यधुः ।। ३२०॥ ܦܕܦܒܕܦܟܩܐܦܕܦܕܒܕܕܟܬܕܦܦܦ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ५१६६॥ अध्य०२३ ॥१६॥ ve evenemeerdere veerevee Veeve CEV Fll यथास्थानं निषण्णेषु, सुरासुरनरेवथ ।। गिरा योजनगामिन्या, पारेभे देशनां प्रभुः ॥ ३२१ ॥ ज्ञात्वा ज्ञानोदयं पाश्र्वप्रभोद्यानपाल कात् ॥ तदर्शनोत्सुकमनाः, प्रमोदभरमेदुरः ॥३२२॥ श्रीअश्वसेनभूपोऽपि, वामादेव्या समन्वितः॥ गत्वा कृतस्तुतिनति-ईम शुश्राव शुद्धधीः ॥ ३२३ ॥ [ युग्मम् ] नरा नार्यश्च तां श्रुत्वा, देशनां जगदीशितुः ।। बुद्धाः पर्यव्रजन्केपि, केपि श्राद्धत्वमाश्रयन् ॥३२४॥ आर्यदत्तादयस्तेषु, दशाऽभूवन् गणाधिपाः ॥ द्वादशाङ्गीकृतः सद्यः, स्वामिदत्तपदत्रयात् ॥३२५॥ राज्ये न्यस्याश्वसेनोऽपि, हस्तिसेनाभिधं सुतम् । वामादेव्या प्रभावत्या, चान्वितः प्राबजत्तदा ॥ ३२६ ॥ पद्मावतीपाश्र्वयक्षवरोव्याधरणाधिपः ॥ सर्वदा| धिष्ठितपार्श्वः, श्रीपार्थो व्यहरत्ततः ॥ ३२७ ॥ सहस्राः षोडशर्षीणां, समग्रगुणशालिनाम् ॥ अष्टात्रिंशत्सहस्राणि, साध्वीनां तु महात्मनाम् ।। ३२८ ॥ श्रावकाणां लक्षमकं, चतुष्षष्टिसहस्रयुक् ॥ श्राविकाणां च त्रिलक्षी, सहस्राः सप्तविंशतिः ॥ ३२६ ॥ दिनैश्चतुरशीत्योनामार्हन्त्ये वर्षसप्ततिम् ।। विभोविहरतः संघोऽभवदेवं चतुर्विधः ॥ ३३० ॥ प्रान्ते चानशनं गत्वा, सम्मेताद्री व्यधाद्विभुः ॥ त्रयस्त्रिंशन्मुनियुतः, कार्योत्सर्गेण संस्थितः ॥ ३३१ ॥ आयुर्वर्षशतं प्रपाल्य भगवांस्तैः संयतैः सुयुतो, मासेनाप ततः शिवं कृतभवोपग्राहिकमक्षयः ॥ शक्राद्यैश्च सुरासुरेश्वरवरैः श्रीपाश्र्वविश्वेशितुश्चक्रेऽभ्येत्य महोदयाप्तिमहिमा माहात्म्यवारांनिधेः ।। ३३२ ॥ इति श्रीपाश्र्वनाथकथा । इत्थं प्रसङ्गतः श्रीपाश्र्वनाथचरितमभिधाय प्रस्तुतं व्याख्यायतेमूलम्-तस्स लोगप्पईवस्स, आसि सीसे महायसे । केसी कुमारसमणे, विज्जाचरणपारगे ॥२॥ ओहिनाणसुए बुद्धे, सीससंघसमाउले । गामाणुगामं रीयंते, सावत्थिं नगरिमागए ॥ ३॥ १ सदाधिष्ठितप श्री-पार्कोपि व्यहरत्ततः ।। इति 'घ' पुस्तके ॥ AVEVEGVEGVELVOEVEE VEEVOEVEEVE VEZ VEGVE Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्ययनसूत्रम् ॥२०॥ अध्य०२३ ॥२०॥ तिदुभं नाम उज्जाणं, तम्मी नयरमंडले । फासुए सिजसंथारे, तत्थ वासमुवागए ॥४॥ व्याख्या-'केसित्ति' केशिनामा, कुमारश्चासावपरिणीततया श्रमणश्च तपस्वितया कुमारश्रमणः, विद्याचरणयोनिचरित्रयोः पारगः, श्रीपार्श्वनाथशिष्यता चास्य तत्सन्तानीयतया ज्ञेया, साक्षात्तच्छिष्यस्य हि श्रीवीरतीर्थप्रवृत्तिकालं यावदवस्थानानुपपत्तेः ॥२॥ "ओहिनाणसुएत्ति" अवधिज्ञानश्रुताभ्यां श्रुतस्य च मतिसहचरितत्वान्मतिज्ञानेन च 'बुद्धो' ज्ञाततत्त्वः शिष्यसंधेन समाकुलः परिवृतः 'शिष्यसंघसमाकुलः, ग्रामानुग्रामं 'रीयमाणो' विहरन् ॥ ३ ॥ "तम्मित्ति" तस्याः श्रावस्त्याः , 'नगरमण्डले' पुरपरिसरेऽभूदिति शेषः, 'प्रासुके' स्वाभाविकागन्तुकसत्त्वरहिते, शय्या वसतिः तस्यां संस्तारकः शिलाफलकादिस्तस्मिन् , तत्र तिन्दुकोद्याने 'वासम् ' अवस्थानम् 'उपगतः प्राप्तः इति सूत्रत्रयार्थः, शेषं स्पष्टमेवमग्रेऽपि ज्ञेयम् ॥ ४ ॥ अत्रान्तरे यदभूत्तदाहमूलम-अह तेणेव कालेणं, धम्मतित्थयरे जिणे । भयवं वद्धमाणुत्ति, सव्वलोगम्मि विस्सुए ॥ ५॥ तस्स लोगप्पईवस्स. आसि सीसे महायसे । भयवं गोश्रमे नाम. विज्जाचरणपारगे॥m बारसंगविऊ बुद्धे, सीससंघसमाउले । गामाणगामं रीअंते, सेवि सावस्थिमागए ॥७॥ कोटगं नाम उज्जाणं, तम्मी नयरमंडले । फासुए सिज्जसंथारे, तत्थवासमुवागए ॥८॥ व्याख्या-अथ वक्तव्यान्तरोपन्यासे, 'तेनेव कालेणंति' तस्मिन्नेव काले, बर्द्धमान इति नाम्नाऽभूदिति शेषः, 'विश्रुतो' विख्यातः १'शिष्यसघसमाकुलः' नात्ययं पाठः “घ” सशकपुस्तके ।। TOGGVEGVESEVEGEZA Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ५॥ गौतमो गोत्रेण, नाम्ना तु इन्द्रभूतिः ॥ ६॥कोष्टकं नामोद्यानमिति सूत्रचतुष्कार्थः ॥ ८॥ ततः किं बभूवेत्याहउत्तराध्य अध्य०२३ Mall मूलम्-केसी कुमारसमणे, गोअमे अ महायसे । उभो तत्थ विहरिंसु, अल्लीणा सुसमाहिआ ॥६॥ पनसूत्रम् ॥२०१॥ ॥२०१॥ व्याख्या - "उभोति" उभावपि तत्र तयोरुद्यानयोर्व्यहाष्टा, 'आलीनौ' मनोवाक्कायगुप्तीराश्रितो, 'सुसमाहितौ' सष्ठुसमाधिमन्तौ मलम-उभो सिस्ससंघाणं. संजयाण तवस्सिणं । तत्थ चिंता समुप्पन्ना, गुणवंताण ताडणं ॥१०॥ ___व्या-उभयोयोः 'शिष्यसंघानां' विनेयवृन्दानां, तत्र श्रावस्त्यां, चिन्ता वक्ष्यमाणा, "ताइणंति" त्रायिणाम् । चिन्तास्वरूपमाह 1. मूलम् केरिसो वा इमोधम्मो, इमो धम्मो व केरिसो । आयारधम्मप्पणिही, इमा वा सा व केरिसी ?११ ।। व्याख्या कीदृशः' किंस्वरूपो 'वा' विकल्पे 'इमोत्ति' अयमस्मत्सम्बन्धी धर्मो महाव्रतरूपः १ अयं दृश्यमानगणधरशिष्यसम्बन्धी 'धम्मो वत्ति' धर्मो वा कीदृशः १ आचारो वेषधारणादिको बाह्यक्रियाकलापः स एव धर्महेतुत्वाद्धर्मस्तत्प्रणिधिर्व्यवस्था आचारधर्मप्रणिधिः 'इमा वत्ति' प्राकृतत्वादयं वा अस्मत्सम्बन्धी ‘सा वत्ति' स वा द्वितीयमुनिसत्कः कीदृशः ? अयं भावः अस्माकमेषां च सर्वज्ञप्रणीत एव धर्मस्तत्किं तस्य तत्साधनानां च भेदः तदेतद्बोद्धमिच्छामो वयमिति ॥११॥ उक्तामेव चिन्ता व्यक्तीकुर्वनाहमूलम्-चाउज्जामो अ जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खओ । देसिओ वद्धमाणेणं, पासेण य महामुणी १२ ____ व्याख्या-"चाउज्जामो अत्ति" चतुर्यामो' महाव्रतचतुष्कात्मको यो धर्मो देशितः पार्वेनेति सम्बन्धः, 'जो इमोत्ति' चकारस्य प्रश्लेषात् यश्चायं पञ्चशिक्षा:-प्राणातिपातविरमणाधुपदेशरूपाः सञ्जाता यत्राऽसौ पञ्चशिक्षितः बर्द्धमानेन देशित इति योगः 'महामुणित्ति' NEVE VEGVELVEVAVZGLAVE V KRGEaeeeeeeeeeeere-Yesed Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥२०२॥ महामुनिना, इदं चोभयोरपि विशेषणं, अनयोश्च धर्मयोविंशेषे किं नु कारणमित्युत्तरेण योगः । अनेन धर्मविषयः संशयो व्यक्तीकृतः ॥ १२ ॥ अथाचारप्रणिधिविषयं संशयं स्पष्टयति मूलम् – अचेलगो अ जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो । एगकज्जपवन्नाणं, विसेसे किं नु कारणं ? ॥१३॥ व्याख्या—अचेलकश्च यो धम्र्मो वर्द्धमानेन देशित इतीहापि योज्यं, यश्चायं सान्तराणि - श्रीवीरस्वामिशिष्यापेक्षया मानवर्णविशेषितानि उत्तराणि च-महामूल्यतया प्रधानानि प्रक्रमाद्वस्त्राणि यत्राऽसौ सान्तरोतरो धर्मः श्रीपार्श्वनाथेन देशित इतीहापि वाच्यं, एकं कार्यं मुक्तिरूपं फलं तदर्थं प्रपन्नौ प्रवृत्तौ एककार्यप्रपन्नौ तयोः प्रक्रमात् पार्श्ववदूर्धमानयोर्विशेषे प्रोक्तरूपे किमिति संशये 'नु' इि वितर्के कारणं हेतुरिति सूत्रपञ्चकार्थः || १३ || एवं विनेयचिन्तोत्पत्तौ केशिगौतमौ यदकाष्ट तदाह मूलम् — अह तत्थ सीसा, विरणाय पविक्कि । समागमे कयमई, उभो केसिगोमा ॥ १४ ॥ गोमो परूवणू, सीससंघसमाउले । जिट्ठ कुलमविक्खंतो, तिंदु वणमाग ॥ १५ ॥ केसीकुमारसमणे, गोमं दिस्समागयं । पडिरूवं पडिवत्तिं, सम्मं संपडिवज्जइ ॥ १६ ॥ पलाल फासूत्रं तत्थे, पंचमं कुसतणाणि च । गोमस्त खिसिज्जाए, खिष्पं संपणामए ॥१७॥ व्याख्या - अथ ते इति तौ तत्र श्रावस्त्यां शिष्याणां विज्ञाय ' प्रवितर्कितं चिन्तितं, 'समागमे' मीलके कृतमती अभूतामिति शेषः ॥ १४ ॥ ततश्व – गौतमः प्रतिरूपं प्रतिरूपविनयं यथोचित - प्रतिपत्तिरूपं जानातीति प्रतिरूपज्ञो, 'जेट्ठति' प्राग्भावित्वेन ज्येष्ठं कुलं - श्रीपा अध्य०२३ ॥२०२॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य० २३ ॥२०३॥ उतराध्ययनसूत्रम् ॥२०३॥ AAAAAAAAAAAAAAAP) ターコーコストコン श्वनाथसन्तानं 'अपेक्षमाणो' गणयन् ॥१५॥ “पडिरूवंति" 'प्रतिरूपां' उचितां प्रतिपत्तिमभ्यागतकर्तव्यरूपां, सम्यक् 'संप्रतिपद्य| ते' करोतीति भावः ॥ १६ ॥ प्रतिपत्तिमेवाह-पलालं प्रासुकं, तत्र तिन्दुकोद्याने, “पञ्चमंति" वचनव्यत्ययात् पञ्चमानि कुशतृणानि | च, पञ्चमत्वं चैषां पलालभेदचतुष्कापेक्षया । यदुक्तं 'तणपणगं पुण भणिग्रं, जिणेहिं कम्मगंठिमहणेहिं ।। 'साली वीही कोहवरालय रणे "तणाईच" । गौतमस्य 'निषद्याय' उपवेशनार्थ क्षिप्रं 'संप्रणामयति' समर्पयतीति सूत्रचतुष्कार्थः तौ चोपविष्टौ यथा प्रतिभातस्तथाह मूलम्-केसीकुमारसमणे, गोअमे अ महायसे । उभो निसन्ना सोहंति, चंदसूरसमप्पहा ॥ १८ ॥ व्याख्या-[ स्पष्टम् ] तत्सङ्गमे च यदभूत्तदाहमूलम्-समागया बहू तत्थ, पासंडा कोउगामिश्रा । गिहत्थाणमणेगाओ, साहस्सीओ समागया ॥ १६ ॥ देवदाणवगंधव्वा, जक्ख-रक्खस-किन्नरा । अदिस्साण य भूआणं, आसि तत्थ समागमो ॥२०॥ व्या०-"पासंडत्ति" पापण्डं-व्रतं तद्योगात् 'पापण्डाः' शेषवतिनः कौतुकात् मृगा इव मृगा अज्ञत्वात् , 'साहस्सीयो' सहस्राः ॥१६॥ देवदानवगन्धा यक्षराक्षसकिन्नराः, समागता इति योगः, एते च दृश्यरूपाः, अदृश्यानां च 'भूतानां' केलीकिलव्यंतराणां तत्रासीत् 'समागमो' मीलक इति सूत्रद्वयार्थः ॥ २० ॥ संप्रति तयोर्जल्पमाहमूलम्-पुच्छामि ते महाभाग !, केसी गोअममब्बवी । तो केसी बुवंतं तु गोअमो इणमब्बवी ॥२१॥ पुच्छ भंते ! जहिच्छं ते, केसी गोअममब्बवी । तओ केसी अणुएणाए, गोअमं इणमब्बवी २२ VEEVEE VEEVEEVEE VEEEEEEEEEEEVEEVEG Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥२०४॥ II अध्य०२३ |२०४॥ व्याख्या-ते इति त्वां, महाभागातिशयाचिन्त्यशक्त ! ॥ २१ ॥ 'जहिच्छंति' यथेच्छं यदवभासते इत्यर्थः, 'ते' इति त्वं ' केसी | गोअमंति' सुबव्यत्ययात् केशिनं गौतमः इति सूत्रद्वयार्थः ॥ २२॥ ततोऽसौ यद्गौतम पप्रच्छ तदाहमलम्-चाउज्जामो अ जो धम्मो, जो इमो पंचसिविखयो । देसियो वद्धमाणेणं. पासेण य महामणी २३ ___एगकज्जप्पवनाणं, विसेसे किं नु कारणं । धम्मे दुविहे मेहावी !, कहं विप्पच्चो न ते ? २४ ।। व्याख्या-'चतुर्यामो' हिंसानृतस्तेयपरिग्रहोपरमात्मकवतचतुष्करूपः, 'पश्चशिक्षितः स एव मैथुनविरतिरूपपञ्चममहाव्रतान्वितः ॥ २३ ॥ “धम्मेत्ति" इत्थं 'धर्म' साधुधर्मे द्विविधे हे मेधाविन् ! कथं 'विप्रत्ययः' अविश्वासो न 'ते' तव ? तुल्ये हि सर्वज्ञत्वे किं कृतोऽयं मतभेदः ? इति ॥ २४ ॥ एवं तेनोक्तेमूलम्-तओ केसि बुवंतं तु, गोअमो इणमब्बवी । पण्णा समिवखए धम्म-तत्तं तत्तविणिच्छयं ॥२५॥ पुरिमा उज्जुजडा उ, वकजडा य पच्छिमा । मज्झिमा उज्जुपण्णा उ, तेण धम्मे दुहा कए २६ पुरिमाणं दुव्विसोझो उ चरिमाणं दुरणुपालो । कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसोझो सुपालो व्याख्या-'बुवंतं तुति' बवन्तमेवाऽनेनादरातिशयमाह, 'प्रज्ञा' बुद्धिः 'समीक्ष्यते' पश्यति, किं तदित्याह"धम्मतत्तंति" बिदोोपे 'धर्मतत्त्वं' धर्मपरमार्थ, तत्त्वानां-जीवादीनां विनिश्चयो यस्मात्तत्तथा, अयं भावः-न वाक्यश्रवणमात्रादेवार्थनिर्णयः स्यात्किन्तु प्रज्ञावशादेव ॥२५॥ ततश्च-"पुरिमत्ति' पूर्वे प्रथमजिनमुनयः ऋजवश्च प्राञ्जलतया जडाश्च दुष्प्रज्ञाप्यतया ऋजुजडाः, 'तु' इति यस्माद्धेतोः। YEGYeaveeveuNEGNEGNENEUNEEYEEYeaYEVAR Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्य यनसूत्रम् ॥२०॥ LEEVEeeVeeveeree EEVEEVEEVEEVEVE वक्राश्च वक्रप्रकृतित्वाज्जडाश्च निजानेककुविकल्पैः विवक्षितार्थवगमाक्षमत्वाद्वक्रजडाः, चः समुच्चये, 'पश्चिमाः' पश्चिमजिनयतयः। 'म अध्य०२३ | ध्यमास्तु' मध्यमाहतां साध्वः, ऋजवश्च ते प्रज्ञाश्च सुबोधत्वेन ऋजुप्रज्ञाः । तेन हेतुना धर्मो द्विधा कृतः । एककार्यप्रपन्नत्वेऽपि इति प्र-IIR कमः ॥ २६ ॥ यदि नाम पूर्वादिमुनीनामीशत्वं, तथापि कथमेतद्वैविध्यमित्याह-पूर्वेषां दुःखेन विशोध्यो-निर्मलतां नेत शक्यो दविंशोध्यः, कल्प इति योज्यते, ते हि ऋजुजडत्वेन गुरुणानुशिष्यमाणा अपि न तद्वाक्यं सम्यगवबोद्धं प्रभवन्तीति 'तुः' पूत्तौं। चरमाणां दःखेनानुपाल्यते इति दुरनुपालः स एव दुरनुपालकः कल्पः साध्वाचारः । ते हि कथंचिज्जानन्तोऽपि बक्रजडत्वेन न यथावदनष्पातमीशते । मध्यमकानां तु सुविशोध्यः सुपालकः कल्प इतीहापि योज्यं, ते हि ऋजुप्रज्ञत्वेन सुखेनैव यथावज्जानन्ति पालयन्ति च शतस्ते चतुर्यामोक्तावपि पञ्चममपि यामं ज्ञातु पालयितुं च क्षमाः । यदुक्त "नो अपरिग्गहिआए, इत्थीए जेण होइ परिभोगो । ता तम्विरईए चित्र, प्रबंभविरइत्ति पदणाणं ॥१॥" इति तदपेक्षया श्रीपाश्व स्वामिना चतुर्यामो धर्म उक्तः । पूर्वपश्चिमास्तु नेदशा इति श्रीपभश्रीवीरस्वामिभ्यां पञ्चव्रतः । तदेवं विचित्रप्रज्ञविनेयानुग्रहाय धर्मस्य वैविध्यं, न तु तात्त्विकं । आद्यजिनकथनं चेह प्रसंगादिति सत्रपंच| कार्थः ॥ २७ ॥ ततः केशी आहमूलम्-साहु गोअम ! पण्णा ते, छिएणो मे संसओ इमो । अन्नोवि संसओ मझ, तं मे कहसु गोअमा । अचेलगो अजो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो । देसिओ वद्धमाणेणं, पासेण य महायसा ॥२६॥ एगकज्जप्पवन्नाणं, विसेसे किं नु कारणं । लिंगे दुविहे मेहावी, कहं विप्पच्चओ न ते ? ॥३०॥ GEGEVEEVEE VEEVEGTEEVEE VOG VEL VELVET Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ! ॥२०६॥ eeeeeeeeeeeeeeeeeeNEEEEEEver केसिमेवं बुवंतं तु, गोअमं इणमब्बी । विण्णाणेण समागम्म, धम्मसाहणमिच्छिनं ॥३१॥ अध्य०२३ ॥२०६॥ पच्चयत्थं च लोगस्स, नाणाविहविगप्पणं । जत्तत्थं गहणत्थं च, लोए लिंगप्पओअणं ॥३२॥ अह भवे पइण्णा उ, मोक्खसब्भूअसाहणो । नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं चेव निच्छए ॥३३॥ व्या०–साधु गौतम ! प्रज्ञा ते छिन्नो मे संशयः, 'इमोत्ति' अयं त्वयेति शेषः । शिष्यापेतं चैवमभिधानं, अन्यथा तु न तस्य ज्ञानत्रयान्वितस्येदृशसंशयसम्भवः ॥ २८ ॥ 'महायसत्ति' महायशसा ॥ २६ ॥ "लिंगे दुविहेत्ति" लिङ्ग द्विविधेऽचेलकतया विविधवखधारितया च द्विभेदे, शेषं तु व्याख्येयं प्राग्व्याख्यातमिति ॥ ३० ॥ ततश्च–'विरणाणेणत्ति' विशिष्टं ज्ञानं विज्ञानं तच्च केवलमेव तेन || 'समागम्य' यद्यस्योचितं तत्तथैव विदित्वा, 'धर्मसाधनं' धर्मोपकरणं वर्षाकल्पादिकं, 'इच्छिअंति' इष्टमनुमतं श्रीपार्श्व श्रीविरार्हद्भयामिति || | प्रक्रमः । पूर्वचरमाणां हि रक्तवस्त्राद्यनुज्ञाते ऋजुवक्रजडत्वेन वस्त्ररञ्जनादावपि प्रवृत्तिः स्यादिति न तेषां तदनुमतं, श्रीपार्श्व शिष्यास्तु न तथेति तेषां रक्तादिकमप्यनुज्ञातमिति भावः ॥ ३१ ॥ किञ्च-'प्रत्ययार्थ च' अमी तिन इति प्रतीतिनिमित्तं च लोकस्य, 'नानावि| धविकल्पनं' प्रक्रमानानाप्रकारोपकरणपरिकल्पनं । नानाविधं हि रजोहरणाद्युपकरणं प्रतिनियतं यतिष्वेव सम्भवतीति कथं तल्लोकस्य प्रत्यये । हेतुने स्यात् ? अन्यथा तु यथेष्टं वेषमादाय पूजाद्यर्थमन्येपि केचिद्वयं वतिन इत्यभिदधीरन् ततश्च मुनिष्वपि न लोकस्य प्रत्ययः स्यादिति । तथा 'जत्तत्थंति यात्रा-संयमनिर्वाहस्तदर्थ, विना हि वर्षाकल्पादिकं वृष्टयादौ संयमबाधैव स्यात् । 'गहणत्थंति' ग्रहणं-स्वस्य ज्ञानं तदर्थ च, कथंचिचित्तविप्लवोत्पत्तावपि मुनिरहमस्मीति ज्ञानार्थ च, लोके लिङ्गस्य-वेषस्य प्रयोजनम् ।। ३२ ॥ अथेत्युपन्यासे 'भवे पइण्णा उत्ति' Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनस्त्रम् ॥२०७॥ veeVEVEGVEGVEGVEGVEGVEGVEGEVEVO - तुशब्दस्पैवकासर्थस्य भिन्नक्रमत्वाइवेदेव-स्यादेव प्रतिज्ञाभ्युपगमः, प्रक्रमात् पाचवीस्योरेकैवेति शेषः । का प्रतिज्ञेत्याह 'मोक्खसम्भूयसाह अध्य०२३ णोति मोक्षस्य सद्भूतानि-तात्त्विकानि साधनानि-कारणानि मोक्षस तसाधनानि, लिङ्गव्यत्ययो विभक्तिव्यत्ययो वचनव्यत्ययश्चेह सर्व ॥२०७|| त्रापि प्राकृतत्वात् । कानीत्याह--ज्ञानं च दर्शनं चैव चारित्रं चैव, कोऽर्थः १ ज्ञानाद्येव मुक्तिसाधनं न तु लिंग, 'निश्चये निश्चयनये विचायें, न तु व्यवहारे। श्रूयते हि भरतादीनां लिंगं विमाफिकेशलोत्पत्तिः, इति तत्त्वतो लिङ्गस्याकिंचित्करत्वान्न तदमेदो. विदुषां विभA त्ययहेतुरिति सूत्रषट्कार्थः ॥ ३३॥ मूलम् -साहु गोश्रम ! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो । अन्नोवि संसओ मझ, तं मे कहसु गोत्रमा अणेगाण सहस्साणं, मज्झे चिट्ठसि गोत्रमा ! । ते अ ते अभिगच्छंति, कहं ते निज्जिा तुमेर एगे जिए जिआ पञ्च, पञ्च जिए जिआ दस । दसहा उ जिणित्ता , सव्वसत्तू जिणामहं ३६ । - सचू अ इइ के वुत्ते, केसी गोअममब्बवी । तओ केसी बुवंतं तु, गोअमो इणम्मन्बवी ३७ एमप्पा अजिए सत्तू, कसाया इंदिआणि म । ते जिणीत्तु जहाणाय, विहरामि अहं मुणी ३८ । व्या० भाग्यमवर) महायतमेदविषय लिङ्गमेदगोचरं पशिष्याणां संशयमपास्य तेषामेव व्युत्पत्तये जाननपि अन्यदपि वस्तुती Vall पृच्छम् केशीदमाह। ३४ अमेकानां सहस्त्राणां प्रक्रमाद्वैरिसम्पन्धिना मध्ये तिष्ठसि हे गौतम ! तेच शत्रवः 'ते' त्वां अभिलक्ष्यीK कृत्या मच्छन्ति चावन्ति, अर्थाज्जेत, कथं ते द्विषो निर्जितास्त्वया ॥ ३५ ॥ मौतमः प्राह-एकस्मिन्त्रक्रमाद्रिपौ जिते जिताः पत्र Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य अध्य०२३ ॥२०॥ यनसूत्रम् ॥२०॥ NEVIEVEeveeVeevee Eeveeeeveeve PENCE 2 तथा 'पंचजिअत्ति' सूत्रत्वात् पञ्चसु जितेषु जिता दश, 'दशधा तु' दशप्रकारान् पुनजित्वा सर्वशत्रुननेकसंख्यासहस्रान् जयाम्यहम् ॥ ३६ ।। ततश्च-'सत्तू अ इइत्ति' चः पूरणे, इतिर्भिन्नक्रमो जातावेकवचनं, ततः शत्रुः क उक्त इति केशी गौतममब्रवीत् ॥ ३७ ॥ एक आत्मा-जीवश्चित्तं वा तदमेदोपचारादजितोऽनेकानावाप्तिहेतुत्वात् शत्रः, तथा कषाया अजिताः शत्रव इति वचनव्यत्ययेन योज्यते, एते चात्मयुक्ताः पूर्वोक्ताः पश्च भवन्ति, तथा इन्द्रियाणि चाजितानि शत्रवः, एते च सर्वे पूर्वोद्दिष्टा दश जाताः, तज्जये च नोकषायाद्याः सर्वेऽपि रिपवो जिता एव । अथोपसंहारव्याजेन तज्जये फलमाह-तानुक्तरूपान् शत्रुन् जित्वा 'यथान्यायं' यथोक्तनीत्या विहराम्यहं तन्मध्येऽपि तिष्टन्त्रप्रतिबद्धविहारितयेति शेषः, मुने ! इति केश्यामंत्रणमिति सूत्रपंचकार्थः ॥ ३८ ॥ एवं गौतमेनोक्त केशी पाह| मूलम् - साहु गोअम ! पण्णा ते, छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नोवि संसओ मझ, तं मे कहसु गोत्रमा ! दीसंति बहवो लोए, पासबद्धा सरीरिणो । मुक्कपासो लहूभूओ, कहं तं विहरसी ? मुणी ! ॥४०॥ | ते पासे सव्वसो छित्ता, निहंतूण उवायओ । मुक्कपासो लहूभूओ, विहरामि अहं मुणी ! ॥४१॥ पासा य इति के वुत्ता, केसी गोअममब्बवी । तो केसी बुवंतं तु, गोअमो इणमब्बवी ॥४२॥ रागदोसादओ तिव्वा, नेहपासा भयंकरा । ते छिदित्त जहाणाय, विहरामि जहक्कम ॥४३॥ . व्याख्या-'लहूभूश्रोत्ति' लघुर्वायुः स इव भृतो जातो लघूभृतः, सर्वत्राप्रतिबद्धत्वात् ।। ३६ ॥ ४० ॥ गौतमः प्राह-सव्वसोत्ति' सूत्रत्वात् सर्वान् छित्त्वा, 'निहत्य' पुनर्बन्धाभावेन विनाश्य, कथम् ‘उपायतः' सद्भूतभावनाभ्यासरूपात् ॥४१॥ 'पाशाश्च' EEGELEVEVEGEVEEVELEVATE Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥२०६॥ पाशशब्दवाच्याः के ' त्तत्ति उक्ताः १ ॥ ४२ ॥ रागद्वेषादयः, आदिशब्दान्मोहादिपरिग्रहः, 'तीव्रा' गाढाः तथा “नेहत्ति" स्नेहा:पुत्रादिसम्बन्धास्ते पाशा इव पारवश्यहेतुतया पाशा इत्युक्ताः । अतिगाढत्वाच्च रागान्तर्गत्वेऽपि स्नेहानां पृथक्कथनं । भयंङ्कराः अनर्थकारित्वात् । यथाक्रमं क्रमो यतिविहित आचारस्तदनतिक्रमेणेति सूत्रपञ्चकार्थः ॥ ४३ ॥ गोमा ! तोहि मूलम् -- साहु गोअम ! पण्णा ते, छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नोवि संस मज्झ, तं मे कह सु संभू, लया चिट्ठइ गोमा ! । फलेइ विसभक्खीणं, सा उ उद्धरिआ कहें ? ॥४५ तं लयं सव्वलो छत्ता, उद्धरित्तु समूलि । विहरामि जहानायं, मुक्कोमि विसभक्खणं ॥४६॥ या य इति का वुत्ता, केसी गोश्रमब्बवी । केसीमेवं बुवंतं तु, गोमो इणमब्बवी ॥४७॥ भवतराहा लया वुत्ता, भीमा भीमफलोदया । तमुद्धिन्तु जहानायं, विहरामि महामुखी ! ॥४८॥ व्याख्या – 'अन्तहृदयं ' मनोमध्ये 'सम्भूता' उत्पन्ना लता तिष्ठत्यास्ते, हे गौतम ! फलति 'विसभक्खीणंति' आर्षत्वाद्विषवद्भक्ष्यन्ते इति विषभक्ष्याणि पर्यन्तदारुणतया विषोपमानि फलानि । 'सा तु सा पुनः ' उद्घृता' उन्मूलिता कथं १ त्वयेति शेषः ॥४४॥ ॥ ४५ ॥ गौतमः प्राह - तां लतां 'सभ्वसोति' सर्वां छित्त्वा 'उद्धृत्यो' उन्मूल्य 'समूलिकां' रागद्वेषादिमूलयुतां, मुक्तोऽस्मि “ विसभक्खणंति” ‘विषभक्षणात् ' विषफलाहारोपमात् क्लिष्टकर्मणः ।। ४६ ।। भवे तृष्णा - लोभो भवतृष्णा, 'भीमा' भयदा स्वरूपतः, भीमो दुःखहेतुत्वेन फलानां अर्थात् क्लिष्टकर्मणामुदयो - विपाको यस्याः सा तथेति सूत्रपञ्चकार्थः ॥ ४८ ॥ अध्य०२ ॥२०६॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उजराणः मूलम्साहु गोश्रम ! पण ते चिन्नो मे संसंबो इमों । अराणोवि संसो मंझ, तं मे कहसु गोअमा अध्य०२३ यनराम्। संपजलिआ घोरा, अग्गी चिट्ठइ गोमा । जे डहंति सरीरस्था, कहं विज्झावित्रा तुमे ? ५० ॥२१॥ ॥२१॥ महामेहप्सूओं, गिज्झ वारि जलोत्तम । सिंचामि सययं ते उ, सित्ता नो अ.दहति मे ॥५१॥ अम्गी भ इइ. के बुत्ते, केसी मोभमब्बवी । तमो केसी बुवंतं तु, गोममो इसमव्बवी ॥२॥ कसाया अग्गिणो वुत्ता, सुमसीलतो जलं । सुभधाराभिहया संता, भिन्ना हु न डहनि मे ५३ ।। __व्याख्या-समन्तात्प्रकर्षेण ज्वलिताः सम्प्रज्वलिताः, अत एव घोराः अम्गित्ति' अग्नयः 'चिहइत्ति' तिष्ठन्ति, ये दहन्तीव दी न्ति परितापकारित्वाच्छरीरस्था न बहिर्वत्तिनः । कथं ते विध्यापितास्त्वया ? ॥ ५० ॥ गौतम पाह-महामेघप्रसूतात् श्रोतस इति गम्यने। 'गिज्झत्ति' गहीत्वा 'वारि.' जलं, 'जलोत्तम' शेषजलप्रधानं, 'सिञ्चामि' विध्यापयामि सततं 'ते उत्ति' तानग्नीन् , सिक्तास्तु ते । 'नो अत्ति' नैव दहन्ति माम् ॥ ५१ ॥ अग्निप्रश्नश्वायं महामेघनदिप्रश्नोपलक्षणम् ॥ ५२ ॥ कषाया अग्नयः परितापकतया शोषकतया । All चोक्ता जिनैः । श्रुतं च उपचारात् कषायोपशमहेतवः श्रतान्तर्गता उपदेशाः, शीलं चमहाव्रतरूपं, तपश्च प्रतीतं, श्रुतशीलतपः इति समाहा h'जलं वारि । अस्य चोपलषणत्वान्महामेघो जगदानन्दकतया तीर्थकरः । श्रोतस्तु तत उत्पन्नः आगमः । उक्तमेवार्थमुपसंहरबाह सुबत्ति' श्रुतस्य उपलक्षणत्वात् शीलतपसोश्च धारा इव धारास्तत्परिभावनादिरूपास्तामिरभिहताः श्रुतधाराभिहताः सन्तः -प्रक्रमादुक्तरूपा । का अग्नयो 'मिन्ना' विदारिता धाराभिघातेन लषमात्रीकृताः, 'हु' वृत्तौं, न दहन्ति मामिति सूत्रपञ्चकार्थः ॥ ५३॥ NEVEGVG Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतराध्य यन सूत्रम् ॥२११॥ मूलम् - साहु गोम ! पण्णा ते, छिन्नो मे संसयो इमो । अन्नोवि संसग्रो मज्झ, तं मे कहसु गोमा ५४ अयं साहसिओ भीमो, दुट्ठस्सो परिधावइ । जंसि गोममारूढो, कहं तेा न हीरसि ? ॥ ५५ ॥ पहावंतं निगिरहामि, सुअरस्सीसमाहितं । न मे गच्छइ उम्मग्गं, मग्गं च पडिवज्जइ ॥ ५६ ॥ . आसे अ इति के वुत्ते, केसी गोअममब्बवी । केसीमेवं बुवंतं तु, गोमो इरणमब्ववी ॥५७॥ गणो साहसिओ भीमो, दुट्ठस्सो परिधावइ । तं सम्मं निगिरहामि, धम्म सिक्खाइ कंथगं ॥५८॥ व्याख्या— श्रयं प्रत्यक्षः, सहसा अविमृश्य प्रवर्त्तत इति साहसिको भीमो दुष्टाश्वः परिधावति, 'जंसित्ति' यस्मिन् हे गौतम! त्वं आरूढः, कथं तेन ‘न ह्रियसे' नोन्मार्गं नीयसे १ ॥ ५४ ॥ ५५ ॥ गौतमः प्राह - ' प्रधावन्तं ' उन्मार्गाभिमुखं गच्छन्तं निगृह्णामि 'श्रुतरश्मिसम्महितं' आगमरज्जुनिबद्धं, ततो न मे दुष्टाश्वो गच्छत्युन्मार्ग, मार्गं च प्रतिपद्यते ॥ ५६ ॥ धम्मेत्यादि - ' धर्मशिक्षायै' धर्माभ्यासनिमित्तं 'कन्थकमिव' जात्याश्वमिव निगृह्णामि, दुष्टाश्वोऽपि निग्रहणयोग्यः कन्थककल्प एवेति भाव इति सूत्रपञ्चकार्थः ||५७||५८|| मूलम् साहु - गोश्रम ! पण्णा छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नोषि संसओ मज्झ तं मे कहसु गोमा ! कुप्पहा बहबो लोए, जेहिं नासंति जंतुणो । अद्धा कह वह ेतो, तं न नस्ससि गोत्रमा १ ६० जे मग्गेण गच्छति, जे अ उमम्गपट्टिया । ते सव्वे विइच्या मज्झ, तो न नस्सामहं मुखी' ! ६१ अध्य० २३ ॥२११ ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्ययनसूत्रम् ॥२१२॥ SAMADANAPANAPAMARTH मग्गे अ इति के वुत्ते, केसी गोअममब्बवी । तओ केसी बुवंतं तु गोअम इणमब्बी ॥६२॥ अध्य०२३ कुप्पावयणपासंडी, सव्वे उम्मग्गपट्ठिा । सम्मग्गं तु जिणक्खाय, एस मग्गे हि उत्तमे ॥६॥ ॥२१२॥ व्याख्या-'कुपथा' उन्मार्गा बहवो लोके यैः कुपथैः 'नश्यन्ति' सन्मार्गाद्मश्यन्ति जन्तवः, ततश्चाध्वनि प्रस्तावात्सन्मार्गे 'कहति' कथं वर्तमानस्त्वं 'न नश्यति' ? न सत्पथाच्च्यवसे ? हे गौतम ! ॥६० ॥ गौतमः प्राह-ये च मार्गेण गच्छन्ति ये चोन्मार्गप्रस्थिताः ते सर्वे विदिता मम, न चामी मार्गोन्मार्गज्ञानं विना ज्ञायन्ते । ततो मार्गोन्मार्गज्ञानान नश्याम्यहं मुने! ॥६१ ॥'मम्गे अत्ति' मार्गश्चशब्दादुन्मार्गाश्च ॥ ६२ ।। 'कुप्रवचनपापण्डिनः' कपिलादिदर्शनदर्शनिनः सर्वे उन्मार्गप्रस्थिताः, अनेन कुप्रवचनानि 11 कुपथा इत्युक्तं । 'सन्मार्ग तु' सत्पथं पुनर्जानीयादिति शेषः, जिनाख्यातं धर्ममिति गम्यं, कुत इत्याह-एष माग्र्गो 'हि' यस्मादुत्तमोऽन्यमार्गेभ्यः प्रकृष्ट इति सूत्रपञ्चकार्थः ॥ ६३ ॥ | मूलम्—साहु गोअम ! पण्णा ते छिन्नो मे संसओ इमो । अण्णोवि संसओ मज्झ, तं मे कहसु गोत्रमा ! महाउदगवेगेणं, वुज्झमाणाण पाणिणं । सरणं गई पइट्ठा य दीवं कं मन्नसी मुणी ! ॥६५॥ अस्थि एगो महादीवो, वारिमझे महालो । महाउदगवेगस्स, गति तत्थ न विज्जई ॥६६॥ दीवे अ इइ के वुत्ते, केसी गोअममब्बवी । केसीमेवं बुवंतं तु, गोअमो इणमब्बवी ॥६॥ FedEverEvereeVEVE Veereer Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् अध्य०२३ ॥२१३।। ॥२१३॥ GENEGNEGNEUNeeeeeeeeeeeee जरामरणवेगेयां, वुज्झमाणाण पाणिणं । धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ॥६॥ - व्याख्या-"वुज्झमाणाणत्ति" 'वाह्यमानानां' नीयमानानां प्राणिनां 'शरणं' तनिवारणक्षम अत एव गम्यमानत्वाद्गति तत एव प्रतिष्ठां च स्थिरावस्थानहेतु द्वीपं कं मन्यसे ? मुने ॥ ६४ ॥६५॥ गौतमः प्राह-'महालनोत्ति' उच्चस्त्वेन विस्तीर्णत्वेन च महान् महोदकवेगस्य गतिर्गमनं तत्र न विद्यते ॥६६॥ द्वीपप्रश्नश्चायमुदकवेगप्रश्नोपलक्षणम् ॥ ६७ ॥ जरामरणे एव वेगो-यः प्रक्रमादुदकस्य तेन, 'धर्मः' श्रुतधर्मादिः, स हि भवोदधिस्थितोऽपि मुक्तिहेतुत्वेन न जरामरणवेगस्य गम्य इति सूत्रपञ्चकार्थः ॥ ६८ ॥ . मूलम्-साह गोअम ! पण्णा ते, छिण्णो मे संसओ इमो । अन्नोवि संसओ मझ, तं मे कहसु गोअमा। अण्णवंसि महोहंसि, नावा विपरिधावइ । जसि गोअममारूढो, कहं पारं गमिस्ससि ? ७० जा उ अस्साविणी नावा, न सा पारस्स गामिणी । जा निरस्साविणी नावा, सा उ पारस्स गामिणी की नावा अ इति का वुत्ता, केसी गोअममब्बवी । केसीमेवं बुवंतं तु, गोअमो इणमव्बवी ॥७२॥ सरीरमाहु नावत्ति, जीवो वुच्चति नाविओ । संसारो अण्णवो वुत्तो, जे तरंति महेसिणो ॥७३॥ व्याख्या-'अर्णवे' समुद्रे 'महोघे महाप्रवाहे नौः 'विपरिधावति' विशेषेण समन्ताद्गच्छति, 'जंसित्ति' यस्यां नावि हे गौतम ! त्वामारूढः, ततः कथं त्वं, 'पारं' परतीरं गमिष्यसि ? ॥ ७० ॥ गौतमः प्राह-जा उत्ति' तुः पूत्तों, या 'आश्राविणी' जलसंग्राहिणी नौः, न सा 'पारस्य' समुद्रपर्यन्तस्य गामिनी । या पुनः 'निराश्राविणी' जलागमरहिता नौः, सा तु पारस्य गामिनी । ततोऽहं SEVEZEELEEEEEEE Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्य यनसूत्रम् ॥२१४॥ सशसस निराश्राषिणी नाघमारूढः पारगामी भविष्यामि इति भावः ॥ ७१ ॥ मावस्वस्णत्वात्तरिता तार्य च पृष्टमेवातस्तथैवोत्तरमाह ॥ ७२ ॥ श- अध्य० २३ रीरमाहुनौंरिति, तस्यैव निरुद्धाश्रवद्वारस्य रत्नत्रयाराधनहेतुत्वेन भवान्वितारकत्वात् । जीवः प्रोच्यते नाविकः, स एव भवाब्धिं तरतीति । २१४॥ संसारोऽर्णव उक्तस्तत्त्वतस्तस्यैव पारावारवदपारस्य तार्यत्वादिति सूत्रपञ्चकार्थः ।। ७३ ॥ मूलम्-साहुगोअम ! पण्णा ते, छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नोवि संसओ मझ, तं मे कहसु गोअमा! अंधयारे तमे घोरे, चिट्ठति पाणिणो बहु । को करिस्सति उज्जोअं, सव्वलोअम्मि पाणिणं? ७५ उग्गो विमलो भाणू , सव्वलोअप्पहंकरो । सो करिस्सति उज्जोअं, सव्वलोअंमि पाणिणं ७६. भाणू अ इइ के वुत्ते, केसी गोअमब्बवीं । केसीमेवं बुवंतं तु गोअमो इणमब्बवी ॥७॥ ... उग्गओ खीणसंसारो, सवण्ण जिणभक्खरो । सो करिस्सइ उज्जोअं, सव्वलोअंमि पाणिणं ७८ I व्याख्या-अन्धमिव जनं करोतीति अन्धकारं तस्मिन् तमसि प्रतीते ॥ ७४ ॥ ७५ ॥ गौतमः प्राह-'सव्वलोअ' इत्यादि-'स लोकमभङ्करः' सर्वलोकप्रकाशकरः ॥ ७६ ॥ 'जिणभक्भरोत्ति' जिनभास्करः, 'उज्जोत्ति' उद्योतं मोहतमोहरणेन सर्ववस्तुप्रकाशन- | मिति सूत्रपञ्चकार्थः ॥ ७७ ॥ ७ ॥ मूलम-साहु गोअम ! पण्णा ते, छिन्नो मे संसओ इमो । अन्नोवि संसओ मझ, तं मे कहसु गोअमा! 1 सारीरमाणसे दुक्खे, क्झमाणाण पाणिणं । खेमं सिवमणबाह, ठाणं किं मन्नसी ? मुणी ! ८० Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥२१॥ अध्य०२३ २१॥ Veedee-YOYEOYEEYEEYEEveeveeYeaYEeeeee अस्थि एगं धुवं ठाणं, लोगग्गंमि दुरारुहं । जत्थ नत्थि जरामच्चू , वाहिणो वेअणा तहा ॥१॥ ठाणे अ इइ के वुत्ते, केसी गोअममब्बवी । केसीमेवं बुवंतं तु, गोअमो इणमब्बवी ॥२॥ निव्वाणंति अबाहंति, सिद्धिलोगग्गमेव य । खेमं सिवमणाबाहं, जं चरंति महेसिणो ॥८॥ तं ठाणं सासयंवासं, लोअग्गंमि दुरारुहं । जं संपत्ता न सोअंति, भवोहंतकरा मुणी ॥८॥ व्याख्या शारीरमानसैदुःखैः 'बाध्यमानानां' पीड्यमानानां प्राणिनां, क्षेमं व्याधिविरहात्, 'शिवं' सर्वोपद्रवाभावात् , 'अनाबाधं' स्वाभाविकबाध्यापगमात् , स्थानमाश्रयं कि 'मन्यसे' अवबुध्यसे ? हे मुने! ।। ७६ ॥ ८०॥ गौतमः प्राह-"दुरारुहंति" दुःखेनारुह्यते इति दुरारोहं । 'वेदनाः' शारीरमानसदुःखानुभवरूपाः । ततश्च व्याध्यभावेन क्षेमत्वं, जरामरणाभावेन शिवत्वं, वेदनाभावेन चानाबाधत्वं, तस्येति ।। ८१ ॥ 'निव्वाणंति' इतिशब्दः स्वरूपपरामर्शको यत्रापि नास्ति तत्राप्यध्याहार्यः । ततो निर्वाणमिति, अबाधमिति, सिद्धिरिति, लोकाग्रमिति यदुच्यते इति शेषः । एवः' पूतौ 'च' समुच्चये, क्षेमं शिवमनाबाधमिति प्राग्वत् यच् 'चरन्ति' गच्छन्ति महर्षयः ॥२॥८३॥ तत्स्थानमुक्तमिति गम्यं, कीदृशमित्याह-"सासर्यवासंति" बिन्दोोपे 'शाश्वतावासं' नित्यावस्थितिकं । प्रसङ्गासन्महात्म्यमाह-जमित्यादि-यत्सम्प्राप्ता न शोचन्ति, भवौधो-नारकादिभवप्रवाहस्तस्यांतकरा भवौधान्तकरा मुनय इतिसूत्रषटकार्थः ॥४॥ मुलम्-साहु गोअम ! पण्णा ते, छिन्नो मे संसओ इमो । नमो ते संसयातीत, सव्वसुत्तमहोदधी ! ८५ एवं तु संसए छिन्ने, केसी घोरपरक्कमे । अभिवंदित्ता सिरसा, गोअमं तु महायसं ॥८६॥ ܦܦܦܦܦܦܦܬܕܟܨܕܟܝܕܦܕܕܟܬܕܕ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्यपनसूत्रम् ॥२१६॥ अध्य०२३ ॥२१६॥ BERSEELE FEESEE LEEPER पञ्चमहव्वयधम्म, पडिवज्जइ भावो । पुरिमस्स पच्छिमंमि, मग्गे तत्थ सुहावहे ॥८॥ व्याख्या-इहोत्तरार्धेन उपहणाग स्तुतिमाह ॥ ८५ ॥ पुनस्तद्वक्तव्यतामाह-एवमनेनैव क्रमेण संशये छिन्ने इति जातावेक- M वचनम् ॥८६॥ "पुरिमस्सत्ति" पूर्वस्य प्रक्रमाज्जिनस्याभिमते 'पश्चिमे' पश्चिमजिनसम्बन्धिनि 'मार्गे' तीर्थे, तत्र प्रस्तुते 'शुभावहे' कल्याणकारिणि पञ्चमहाव्रतधर्म प्रतिपद्यते इति सम्बन्धः इति सूत्रत्रयार्थः ॥ ८७ ॥ अथाध्ययनार्थोपसंहारव्याजेन महापुरुषसङ्गमफलमाहमूलम् केसिगोअमओ णिच्चं, तम्मि आसि समागमे । सुअसीलसमुक्करिसो, महत्थत्थविणिच्छओ ८ तोसिआ परिसा सव्वा, सम्मग्गं समुट्ठिया । संथुआ ते पसीअंतु, भयवं केसीगोअमत्ति बेमि E ME al व्याख्या- 'केशिगौतमत' इति केशिगौतमावाश्रित्य नित्यं तत्र पुर्यामवस्थानं यावत् , तस्मिन् 'समागमे' मीलके 'श्रुतशीलसमुत्क षों ज्ञानचरणप्रकर्षः, तथा महार्था-मुक्तिसाधकत्वेन महाप्रयोजना ये अर्थाः-शिक्षाव्रतादयस्तेषां विनिश्चयो-निर्णयो महाविनिश्चयः, आसीत्तच्छिष्यापेक्षयेति गम्यते ॥ ८८ ॥ तथा-तोषिता पर्षत्सर्वा 'सन्मार्ग' मुक्तिपथमनुष्ठातुमिति गम्यते, 'समुपस्थिता' उद्यता । अनेन पर्षदः फलमाह । इत्थं तचरितवर्णनद्वारा तयोः स्तुतिमुक्त्वा प्रणिधानमाह-संस्तुतौ तौ प्रसीदतां भगवन्तौ केशिगौतमाविति सूत्रद्वयार्थः ॥ ८६ ॥ इति ब्रवीमीति पूर्ववत् ।। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्यपनसूत्रम् ॥२१७॥ AGeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee ॥ अथ चतुर्विशमध्ययनम् ॥ का अध्य०२४ ॥ अहं । उक्त बयोविंशमध्ययनमथ प्रवचनमातृसंज्ञं चतुर्विशमारभ्यते । अस्य चायं सम्बधः, पूर्वाध्ययने परेषां मनोविप्लुतिः के- ॥२१७॥ शिगौतमवदपनेयेत्युक्त, तदपनयनं च भाषासमित्यात्मकेन वाग्योगेन स्याद्भाषासमितिश्च प्रवचनमा णामन्तर्गतेति तत्स्वरूपमिहोच्यते इत्येवं सम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् ॥ मूलम्-अटप्पवयणमायाओ, समिई गुत्ती तहेव य। पंचेव य समीईओ, तो गुत्तिो आहिआ ॥१॥ ईरिआ भासेसणादाणे, उच्चारे समिई इअ । मणगुत्ती, वयगुत्ती, कायगुत्ति अ अट्ठमा ॥२॥ एआओ अट्ठ समिईओ, समासेण विआहिआ । दुवालसंगं जिणक्खाय, मायं जत्थ उ पवयणं ३ ।। व्याख्या-“समिइत्ति" समितयः, "गुत्तित्ति" गुप्तयः, "पाहिअत्ति" 'आख्याताः' कथिताः ॥१॥ता एव नामत आहईरणं-गमनं ईर्या, भाषणं भाषा, एषणमन्नादिगवेषणमेषणा, आदानं पात्रादेग्रहणं, निक्षेपोपलक्षणमेतत् , उच्चारे उच्चारादिपरिष्ठापनायां च 'समितिः' सम्यक्प्रवृत्तिरिदं च प्रत्येकं योज्यं, । "इअत्ति" इतिः समाप्ती, एतावत्य एव समितय इत्यर्थः । तथा मनसो गुप्तिः शुभ प्रवृत्तिः अशुभे निग्रहो मनोगुप्तिः, एवमग्रेऽपि ॥ २॥ निगमनमाह-एता अष्ट समितयः, समिति सम्यग् जिनवचनानुसारितया इतय आत्मनश्चेष्टाः समितय इत्यन्वर्थेन गुप्तीनामपि समितिशब्दवाच्यत्वमस्तीत्येवमुपन्यासः। यत्त भेदेनोपादानं तत्समितीनां प्रवृतिरूपत्वेन गुप्तीनां तु प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपत्वेन कथश्चिभेद इति ख्यापनार्थम् द्वादशाङ्ग जिनाख्यातं " मायंति" उत्तरतुशब्दस्यैवकारार्थस्येह योगा VEEEEEEEEEEEEEEEEE Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराच्य अध्य०२४ ।।२१८॥ यनसूत्रम् ॥२१८॥ verererererererererere न्मातमेव 'यत्र' यासु प्रवचनं । तथा हि-सर्वा अप्येताश्चारित्ररूपाश्चारित्रं च ज्ञानदर्शनाविनाभावि, न चैतत्त्रयातिरिक्तमन्यदर्थतो द्वादशानमस्तीत्येतासु प्रवचनं मातमित्युच्यते । इति सूत्रत्रयार्थः, शेषं सुगमत्वान्न व्याख्यातमेवमग्रेऽपि ज्ञेयम् ॥३॥ तत्र्यासमिति स्वरूपमाहमूलम-आलंबणेण कालेण, मग्गेण जयणाइ अ । चउकारणपरिद्धसु, संजये इरिअं रिए ॥४॥ तत्थ आलंबणं नाणं, दंसणं चरणं तहा । काले अदिवसे वृत्ते, मग्गे उप्पहवजिए॥५॥ दव्वओ खेत्तो चेव, कालो भावओ तहा । जयणा चउम्विहा वृत्ता, तं मे कित्तयो सुण ६ दव्वओ चक्खुसा पेहे, जुगमित्तं तु खेत्तओ । कालओ जाव रीएज्जा, उवउत्ते अ भावओ ॥७॥ इंदिअत्थे विवजित्ता, सज्झायं चेव पंचहा । तम्मुत्ती तप्पुरक्कारे, संजए इरिअं रिए ॥८॥ व्याख्या-आलम्बनेन कालेन मार्गेण यतनया च, एभिश्चतुभिः कारणैः परिशुद्धां संयत 'ईयां गतिं 'रीयेत' कुर्यात् ॥ ४॥ | आलम्बनादीन्येव व्याख्याति–'तत्र' तेष्वालम्बनादिषु मध्ये यदालम्ब्य गमनमनुज्ञायते तदालंबनं ज्ञानादि । तत्र 'ज्ञान' सूत्रार्थोभय-| रूप आगमः, 'दर्शन' सम्यक्त्वं, 'चरणं' चारित्रं । तथाशब्दो द्वित्र्यादिसंयोगभङ्गकसूचकस्ततः प्रत्येकं ज्ञानादीन्याश्रित्य द्विकादिसंयोगेन वा गमनमनुज्ञातं, ज्ञानाद्यालम्बनं विना तु तन्नानुज्ञातम् । कालश्च प्रस्तावादीर्याविषयो दिवस उक्तो जिनैः, रात्रौ हि चतुर्विषयताभावात्पुष्टालम्बनं विना गमनं नानुज्ञातम् । मार्ग इह सामान्येन पन्थाः, स चोत्पथेनोन्मार्गेण वर्जित उत्पथवर्जित उक्त इति योगः, 12 उत्पथे हि ब्रजत आत्मविराधनादयो दोषाः ॥५॥ अथ यतनामाह-"तं मेति" तां यतनां 'मे' मम कीतंयतः शृणु हे शिष्य ! ॥६॥ PARTICKeeeeEXAAREETर Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उवराध्ययनसूत्रम् ॥२१॥ AMARARIA द्रव्यतो द्रव्यमाश्रित्येयं यतना, यश्चक्षषा प्रेक्षेत जीवादिद्रव्यं युगमानं च प्रस्तावात्क्षेत्रं प्रेक्षेत इति योग इयं क्षेत्रतो यतना । कालतो यतनामध्य. २१ यावन्तं कालं रीयेत--गच्छेत्तावत्कालमानेति शेषः । 'उपयुक्तश्च' सावधानो यद्रीयेत इयं भावतो यतना ॥ ७ ॥ उपयुक्ततामेव स्पष्टपति-Elman इन्द्रियार्थान् शब्दादीन् विवर्य 'स्वाध्यायं चैव पञ्चधा वाचनादिपञ्चभेदं विवर्य तस्यापि गत्युपयोगघातित्वात् , तस्यामीर्यायामेव मूर्तिःतनुराव्याप्रियमाणा यस्यासौ तन्मूर्तिः, तामेव पुरस्करोति उपयुक्ततया प्राधान्येनाङ्गीकुरुत इति तत्पुरस्कारः । अनेन कायमनसोस्तदेकाअमुक्त', संयत ईयां रीयेतेति सूत्रपञ्चकार्थः॥ ८॥ भाषासमितिमाहमूलम्-कोहे माणे अमायाए, लोभे अ उवउत्तया । हासे भयमोहरिए, विकहासु तहेव य ॥६॥ ___ एआई अट्ठ ठाणाई, परिवजित्तु संजये ! असावज मिश्र काले, भासं भासिजपण्णवं ॥१०॥ व्या०-क्रोधे माने मायायां लोमे च 'उपयुक्तता' एकाग्रता, हास्ये भयमौखये विकथासु तथैव चोपयुक्तता ॥३॥ क्रोधाधुपयुक्ततायां हि प्रायः शुभा भाषा न सम्भवतीति एतान्यनन्तरोक्तानि क्रोधादिन्यष्टस्थानानि परिवर्त्य संयतः, 'असावद्यां' निर्दोषां, 'मिता' परिमिता, 'काले' प्रस्तावे, इति सूत्रद्वयार्थः ॥ १० ॥ एषणासमितिमाह गवेसणाए गहणे अ, परिभोगेसणा य जा । आहारोवहिसेज्जाए, एए तिगिण विसोहए ॥११॥ उग्गमुप्पायणं पढमे, बीए सोहिज्ज एसणं । परिभोगंमि चउक्कं, विसोहिज्ज जयं जई ॥१२॥ ___ व्या०–'गवेषणायाम्' अन्वेषणायां 'ग्रहणे' स्वीकारे उभयत्र एषणेति सम्बध्यते, ततो गवेषणायामेषणा, ग्रहणे च एषणा, परि Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् २२०॥ अध्य०२४ ॥२२०॥ भोगैषणा च या, "आहारोवहिसेज्जाएत्ति" वचनव्यत्ययादाहारोपधिशय्यासु "एएत्ति" लिङ्गव्यत्ययादेतास्तिस्र एषणा 'विशोधयेद्'निदों षाः कुर्यात् ॥ ११॥ कथं विशोधयेदित्याह-"उग्गमुप्पायणंति" उद्गमोत्पादनादोषान् “पढमेत्ति" प्रथमायां गवेषणायां शोधयदिति योगः । तत्रोद्गमदोषा आधाकर्मादयः षोडश, उत्पादनादोषा अपि धात्र्यादयस्तावन्त एवेति । “बीएत्ति" द्वितीयायां ग्रहणैषणायां शोधयेत, "एसणंति" एषणादोषान् शङ्कितादिन् दश,"परिभोगंमिति" परिभोगवणायां चतुष्कं 'संयोजना-प्रमाणां-'गारधूम- कारणरूपं, अङ्गारधूमयोर्मोहनीयान्तर्गतत्वेनैकतया विवक्षितत्वात् , विशोधयेत् “जयंति" यतमानो यतिः । पुनः क्रियाभिधानमतिशयसूचकमिति सूत्रद्वयार्थः ॥ १२ ॥ आदाननिक्षेपसमितिमाहमूलम्-ओहोवहोवग्गहि, भंडग दुविहं मुणी । गिण्हतो निक्खिवंतो अ, पउंजिज्ज इमं विहिं ॥१३॥ चक्खुसा पडिलेहित्ता, पमजिज्ज जयं जई । आइए निक्खिवेज्ज वा, दुहओवि समिए सया १४ व्या०–ोहोवहोवग्गहिअंति' इहोपधिशब्दो मध्यनिर्दिष्टो डमरुकमणिन्यायेनोभयत्रापि सम्बध्यते, तत ओघोपधि औपग्रहिकोपधिं च, 'भाण्डकम् ' उपकरणं यथाक्रमं रजोहणादि दण्डकादि च 'द्विविधं' उक्तभेदतो विभेदं, मुनिः गहणनिक्षिपंश्च प्रयुञ्जीत इमं । वक्ष्यमाणं विधिम् ॥ १३ ॥ तमेवाह-चक्षषा 'प्रत्युपेक्ष्य' अवलोक्य प्रमाजयेत् रजोहरणादिना यतमानो यतिः, तदनु आददीत निक्षिपेद्वा "दुहनोवित्ति" द्वावपि प्रक्रमादौधिकौपग्रहिकोपधी, 'समित' उपयुक्तः सदेति सूत्रद्वयार्थः ॥१४॥ परिष्ठापनासमितिमाहमूलम्-उच्चारं पासवणं, खेलं सिंघाणं जल्लिनं । आहारं उवहिं देहं, अन्न वावि तहाविहं १५ GENEVENEE VEEVEE Veeveeeeeeee Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥२२१॥ coveror अणावायमसंलोए, श्राणावाए चेव होइ संलोए । आवायमसंलोए, आवाए चेव संलोए १६ अणावायमसंलोए १ परस्सऽणुवघाइ २ । समे ३ अभुसिरे ४ आवि, अचिरकालकयंमिश्र । ५ विच्छिणणे ६ दूरमोगाढे, ७ नासन्ने ८ बिलवज्जिए ६ । तसपाणबीअरहिए १० उच्चाराईणि वोसिरे १८ व्या० - ' उच्चारं ' पुरीषं 'प्रश्रवणं' मूत्रं 'खेलं ' मुखश्लेष्माणं 'सिंघाणं' नासिकाश्लेष्माणं “जल्लिअंति" "जल्लं' मलं आहारघुपधिं देहं अन्यद्वा कारणगृहीतं गोमयादि, अपिः पूर्वौ, तथाविधं परिष्ठापनार्हं स्थण्डिले व्युत्सृजेदित्युत्तरेण योगः ॥ १५ ॥ स्थडिलं च दशविशेषणपदविशिष्टमिति तद्गताखिलभङ्गोपलक्षणार्थमाद्यविशेषणपदस्थशब्दद्वयस्य भङ्गकरचनामाह-न विद्यते आपातः - स्वपरोभय'पक्षसमीपागमनरूपो यत्र तदापातं स्थण्डिलमिति गम्यं, “ असंलोएत्ति" नास्ति संलोको - दूरस्यापि स्वपक्षादेरालोको यत्र तत्तथेत्येको भङ्गः ॥ १ ॥ श्रनापातं चैव भवति संलोकं, यत्रापातो नास्ति संलोकश्चास्तीति द्वितीयो भङ्गः ॥ २ ॥ श्रापातमसंलोकं, यत्रापातोऽस्ति न तु संलोक इति तृतीयः ॥ ३ ॥ आपातं चैव संलोकं यत्रोभयमपि स्यादिति तुर्यः ॥ ४ ॥ इहापातं संलोकं चेति स्थण्डिलविशेषणं मत्वर्थीये अचि सिद्धम् ॥ १६ ॥ दशविशेषणपदज्ञापनार्थमुच्चारादि यादृशे स्थण्डिले व्युत्सृजेत्तदाह – अनापाते असंलोके, कस्येत्याह" परस्य ' स्वपरपक्षादेः ॥ १ ॥ तथा 'अनुपघातके' संयमात्मप्रवचनोपघातरहिते || २ || 'समे ' निम्नोभवत्वहीने || ३ || 'अशुषिरे' तृणपर्णाद्यनाकीर्णे ॥ ४ ॥ ' अचिरकालकृते' दाहादिना स्वल्पकालकृते, चिरकृते हि पुनः संमूर्च्छन्त्येव पृथिव्यादयः ॥ ५ ॥ “ विच्छिष्णे ति" ' विस्तीर्णे' जघन्यतोऽपि हस्तमात्रे ॥ ६ ॥ ' दूरमवगाढे' जघन्यतोऽप्यधस्ताच्चतुरंगुलमचिचीभूते ॥ ७ ॥ 'नासन्ने' ग्रामारामा - अध्य०२४ ॥२२१॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥२२२॥ २॥ IMमाज PEDIAAAADAARRENT देर्दरस्थे ॥८॥'बिलवज्जिते ' मूषकादिबिलरहिते ॥६॥ सप्राणा-दीन्द्रियाद्याः बीजानि-शाल्यादीनि सकलैकेन्द्रियोपलक्षणमेत रहिते त्रसप्राणवीजरहिते ॥१०॥ एषां च पदानामेकदिकत्रिकादिसंयोगैश्चतुर्विशं सहस्र [१०२४] भङ्गाः स्युः । तत्रान्त्यो दशपदिनष्पनो भङ्गको मुख्यवृत्या शुद्ध इतीदृशे स्थण्डिले उच्चारादीनि 'व्युत्सृजेत् ' परिष्ठापयेत् । पुनरुच्चारादि कथनं विस्मरणशीलानुग्रहार्थमिति सूत्रचतुष्कार्थः ॥ १७ ॥ १८ ॥ अथोक्तार्थोपसंहारपूर्व वक्ष्यमाणार्थसम्बन्धार्थमाहमूलम्-एआरओ पञ्च समिईओ, समासेण विआहिआ । इत्तो य तो गुत्ती, वोच्छामि अणुपुठ्वसो १६ "विहिअति" व्याख्याताः " इत्तो अति" इतश्च " तश्रोत्ति" तिस्रः “अणुपुव्वसोति" आनुपूर्येति सूत्रार्थः ॥१६॥ तत्राद्यामाहमूलम् सच्चा तहेव मोसा य, सच्चामोसा तहेव ये । चउत्थी असच्चमोसा अ, मणगुत्ती चउविहा २० संरंभसमारंभे, आरंभमि तहेव य । मणं पवत्तमाणं तु, निअत्तिज जयं जई २१ सच्चा तहेव मोसा य, सच्चामोसा तहेव य । चउत्थी असच्चमोसा उ, वयगुत्तो चउव्वीहा २२ संरंभसमारंभे, आरंभंमि तहेव य । वयं पवत्तमाणं तु, निअतिज्ज जयं जई २३ ठाणे निसीअणे चेव, तहेव य तुअहणे । उल्लंघणपल्लंघण, इंदिआणं च जुजणे २४ संरंभसमारंभे, आरंभंमि तहेव य । कायं पवत्तमाणं तु, निअतिज्ञ जयं जई २५ व्या०-सत्पदार्थचिन्तनरूपो मनोयोगः सत्यः, तद्वीषया मनोगु.मरप्युपचारात् सत्या । एवमन्या अपि ॥ २० ॥ अस्या एव स्वरूपं Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥२२३॥ कः निरूपयन्नुपदेष्टुमाह — संरम्भः सङ्कल्पः, स च मानसस्तथाऽहं ध्यास्यामि यथाऽसौ मरिष्यतीत्येवंविधः । समारम्भः - परपीडाकरोच्चाटनादिनिमित्तं ध्यानं, अनयोः समाहारस्तस्मिन् । आरम्भे परमारणक्षमाशुभध्यानरूपे, चः समुच्चये, 'तथैव' तेनैवागमोक्तप्रकारेण मनः प्रवर्त्तमानं, तुर्विशेषणे, निवर्त्तयेत् यतमानो यतिः । विशेषश्चायं - शुभसङ्कल्पेषु मनः प्रवर्त्तयेदिति ॥ २१ ॥ वाग्गुप्तिमाह-सत्या यथास्थिता - र्थप्रतिपादिका, असत्या तद्विपरीता, सत्यामृषा गोवृषभसंघे गाव ऐवैता इत्यादिका, असत्यामृषा स्वाध्यायं विधेहीत्यादिका ॥ २२ ॥ वाचि - संरम्भः-परव्यापादनक्षममंत्रादिपरार्तनासङ्कल्पवचको ध्वनिरेवोपचारात्सङ्कल्पशब्दवाच्यः सन् समारम्भः - परपीडाकरमंत्रादिपरावर्त्तनं, आरम्भः - परमारणकारणमंत्रादिजपनमिति ॥ २३ ॥ कायगुप्तिमाह – ' स्थाने' उर्ध्वस्थाने, 'निषीदने' उपवेशने, चैव पूर्वौ, तथैव च ' त्वग्वर्त्तने' शयने, 'उल्लंघने' तादृश हेतोर्गत दिरुत्क्रमणे 'प्रलंघने' सातत्येन गमने उभयत्र सूत्रत्वाद्विभक्तिलोपः, इन्द्रियाणां च “जुजणेत्ति” योजने शब्दादिषु व्यापारणे, सर्वत्रापि वर्त्तमान इति शेषः ।। २४ ।। संरम्भोऽभिघाताय दृष्टिमुट्यादिसंस्थानमेव सङ्कल्पसूचकपचारात्सङ्कल्पशब्दवाच्यं सत् समारम्भः - परितापकरो मुष्ट्याद्यभिघातः, आरम्भः - प्राणित्रधात्मकस्तेषु प्रवर्त्तमानं कार्यं निवर्त्तयेदिति सूत्रषट्कार्थः || २५ || अथ समितिगुप्त्योमिथो विशेषमाह – मूलम् – आओ पञ्च समिईओ, चरणस्स य पवत्तणे । गुत्ती नित्तणे वुत्ता, असुभत्थेसु सव्वसो ॥२६॥ व्याख्या - एताः पञ्च समितयश्चरणं चारित्रं सच्चेष्टेत्यर्थः तस्य प्रवर्तने प्राच्य चशब्दस्य एवार्थस्येह योगात्प्रवर्त्तन एव उक्ता इति योगः, सच्चेष्टासु प्रवृत्तावेव समितयो व्याप्रियन्त इति भावः । “गुत्तित्ति" गुप्तयो निवर्त्तनेप्युक्ताः, “असुभत्थेसुत्ति" अशुभमनोयोगादिभ्यः " सव्वसोत्ति" सर्वेभ्यः अपिशब्दाचरणप्रवर्त्तनेपीति सूत्रार्थ ॥ २६ ॥ अध्ययनार्थमुपसंहरन्नेतदाचरणे फलमाह - अध्य०२४ ॥२२३॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपराज्य- मूलम-एभानो पवयणमायाओ, जे सम्म प्रायरे मुणी । से खीप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुबइ पंडिएति बेमि ग्याल्या-"मायरेति" "प्राचरेत् ' सेवेतेति नार्थः ॥ २७ ॥ इति प्रवीमीति प्राग्वत् ॥ अध्य०२४ ॥२२४॥ यनसत्रम् ॥२२४॥ SEKOLAAAAAAEGERE Faiseraveriveriverteraturesxesertferialeksxaserazaertisertising से इति श्रीतपागच्छीयमहोपाध्याय श्रीविमलहर्षगणिशिष्यमहोपाध्याय श्रीमुनिविमलगणिशिष्योपाध्याय-1 श्रीभावविजयगणिसमर्थितायां श्रीउत्तराध्ययनसूत्रवृत्तौ चतुर्विशमध्ययनं सम्पूर्णम् ॥ २४ ॥ WorgopASHAPEPRECIPARAGANAParegamaATAPGAMEPRACORAN VEEVEEEEEEEEEEEEE Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०२५ ॥२२॥ उत्तराभ्ययनसत्रम् ॥ अथ पञ्चविंशमध्ययनम् ॥ ॥२२॥ ॥ अहं ॥ उक्तं चतुर्विशमध्ययनमथ यज्ञीयाख्यं पञ्चविंशमारभ्यते । अस्य चायं सम्बन्धोऽनन्तराध्ययने प्रवचनमातर उक्तास्ताश्च ब्रह्मगुणस्थितस्यैव तत्त्वतो भवन्तीति जयघोषविजयघोषचरितवर्णनद्वारा ब्रह्मगुणा इहोच्यन्ते, इति सम्बन्धस्यास्य प्रस्तावनार्थ जयघोषकथालेशो लिख्यते । तथा हि वाराणस्यामभृतां द्वौ, द्विजौ युग्मजसोदरौ । काश्यपौ जयघोषाख्य-विजयघोषसंज्ञकौ ॥१॥ जयघोषोऽन्यदा स्नात. MAII गतो गङ्गां व्यलोकत ॥ सर्पमेकं मुखोपात्त-रटन्मण्डूकभक्षकम् ॥ २ ॥ गृहीत्वा स भुजङ्गोऽपि, क्षणात्कुररपक्षिणा ॥ उत्क्षिप्याधिषिति । चितः, पारेमे भक्षितु द्रुतम् ॥ ३ ॥ तेन सन्दंशदेशीय-वोटिप्रोटितविग्रहम् ॥ भक्ष्यमाणोऽप्यहि कं, रटन्तं तं जघास सः ॥४॥ च प्रेक्ष्य मिथोग्रासं, जयघोषो व्यचिन्तयत् ॥ अहो ! भवस्य काप्येषा, स्थितिरस्थितसुस्थता ॥ ५॥ यो हि यस्मै प्रभवति, 'असते तं व स मीनवत् ॥ न तु गोपायति स्वीयशक्ति कोऽपि नदीनवत् ॥ ६॥ कृतान्तस्तु महाशक्ति-रिति स असतेऽखिलम् ॥ तदसारेच संसारे, का नामास्था मनीषिणाम् १ ॥७॥ किचेह धर्म एवैकः, सर्वोपद्रनाशकः ॥ श्रयामि तत्तमेवाहं, कामितार्थसुरद्रमम् ॥ ॥ इति चेतसि सम्प्रधार्य गङ्गा-परतीरं स गतो ददर्श साधून ॥ जिनधर्ममवेत्य तद्विरा च, व्रतमादाय ततो भुवि व्यहार्षीत् ॥ ६॥ इति तत्कथालेशः॥ तच्छेषं तु सूत्रसिद्धमिति सम्प्रति सूत्रं व्याख्यायते, तच्चेदम् १-स तं प्रसति मौनवत् । इति "ध" पुस्तके ॥ रिति सर्व प्रमत्यहो । इति "घ" पुस्तके। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्ययनसूत्रम् ॥२२६॥ अध्य०२५ ॥२२६॥ EEEEEEEE P मूलम्-माहणकुलसंभूओ, आसि विप्पो महायसो । जायाई जमजएसि, जयघोसेत्ति नामओ ॥१॥ - इंदिअग्गामनिग्गाही, मग्गगामी महामुणी । गामाणुगामं रीअंतो, पत्तो वाणारसी पुरीं ॥२॥ वाणारसीए बहिआ, उज्जाणंमि मणोरमे । फासुए सिज्जसंथारे, तत्थ वासमुवागए ॥३॥ व्याख्या-ब्राह्मणकुलसम्भृतोऽपि जननीजातेरन्यथात्वे ब्राह्मणो न स्यादत आह-विप्र इति, "जायाइत्ति" यायजीति महर्यशं करोतीति यायाजी, क्वेत्याह-यमाः--पञ्च महाव्रतानि तान्येव भावपूजारूपत्वाद्यज्ञो यमयज्ञस्तस्मिन् ॥१॥इन्द्रियग्रामनिग्राही, अत एव 'मार्गगामी' मुक्तिपथयायी ॥२॥ "बहिअत्ति" बहिभागे, इति सूत्रत्रयावयवार्थः, शेषं व्यक्तमेवमग्रेऽपि ज्ञेयम् ॥३॥ तदा च तस्यां पुरि यद्वर्त्तते यच्च यतिः कुरुते तदाहमूलम्-अह तेणेव कालेणं, पुरीए तत्थ माहणे । नामेण विजयघोसे, जगणं जयइ वेअवी ॥४॥ प्रट मे नत्थ अणगारे. मासक्खमणपारणे । विजयघोसस्स जगणंमि, भिक्खमट्रा उवट्रिए ॥५॥ ज्याख्या-तेणेव कालेणंति' तस्मिन्नेव काले ॥४॥ 'भिक्खमठ्ठत्ति' मोऽलाक्षणिकस्ततो भिक्षार्थमिति सूत्रद्वयार्थः ॥शा तत्र च यदसौ याजकश्चक्रे तदाहमूलम्—समुवट्ठिअं तहिं संतं, जायगो पडिसेहए । न हु दाहामु ते भिक्खं, भिक्खू जायाहि अन्नओ ॥६॥ जे अ वेअविऊ विप्पा, जगणट्ठा य जे दिआ । जोइसंगविऊ जे अ, जे अ धम्माण पारगा ॥७॥ ReceeGADAANAGERर Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपराध्ययनसूत्रम् ॥२२७॥ जे समुत्था समुद्धतु, परं अप्पाणमेव य । तेसिं अन्नमिणं देयं, भो भिक्खू सव्वकामिनं ॥८॥ अभिध्य०२५ व्याख्या-'समुपस्थितं' भिक्षार्थमागतं सन्तं तं संयतं "तहिं " तत्र 'याजको' यज्वाऽजातप्रत्यभिज्ञो विजयघोष एवं प्रतिषेधति, | "न हुत्ति" नैव दास्यामि 'ते' तुभ्यं भिक्षा हे भिक्षो ! "जायाहित्ति" याचस्व 'अन्यतो' अन्यस्मात् ॥६॥ कुत इत्याह-ये च | ॥२२७॥ वेदविदो विप्रा जातितो 'यज्ञार्थाश्व' यज्ञप्रयोजना ये तत्रैव व्याप्रियन्ते, 'द्विजाः' संस्कारापेक्षया द्वितीयजन्मानः । ज्योतिषं च ज्योतिःशास्त्र, अङ्गानि च शिक्षादीनि विदन्ति ये ते ज्योतिषाङ्गविदः । 'इहाङ्गत्वेऽपि ज्योतिषः पृथक् ग्रहणं प्राधान्यख्यापकं । ये च 'धर्माणां' धर्मशास्त्राणां पारगाः । अशेषविद्यास्थानोपलक्षणमिदम् ॥ ७॥ ये समर्थाः समुद्धत्तुं भवाब्धेरिति गम्यं, “सव्यकामिअंति" सर्वाणि काम्यान्यभिलषणीयवस्तूनि यत्र तकाम्यं, षट्रसोपेतमित्यर्थः ॥ ८॥ एवं तेनोक्तो मुनिः कीदृग् जातः, किञ्च चकारेत्याहमूलम्-सो तत्थ एवं पडिसिद्धो, जायगेण महामुणी। नवि रुट्ठो नवि तुट्ठो, उत्तिमट्ठगवेसओ ॥६॥ | नन्नळं पाणहेउं वा, नवि निव्वाहणाय वा । तेसिं विमोक्खणट्ठाए, इमं वयणमब्बवी १० नवि जाणसि वेअमुह, नवि जण्णाण जं मुहं । नक्खत्ताण मुहं जं च, जं च धम्माण वा मुहं ११ जे समत्था समुद्धतु, परं अप्पाणमेव य । न ते तुमं विआणासि, अह जाणासि तो भण १२ । व्याख्या- 'स' जयघोषयतिः 'तत्र' यज्ञपाटके एवं प्रतिषिद्धो याजकेन विजयघोषेण नापि रुष्टो नापि तुष्टः, किन्तु समतयैव स्थितः । किमित्याह-यत उत्तमार्थो मोक्षस्तद्भवेषको मोक्षार्थीत्यर्थः-॥१॥न नैव अन्नार्थ पानहेतुवा, नापि 'निर्वाहणाय वा वस्त्रा Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्ययनसूत्रम् ॥२२८॥ अध्य०२५ ॥२२॥ दिना यापनार्थ वा आत्मन इति गम्यं । किमर्थ तह-त्याह-तेषां याचिकानां विमोक्षणार्थ इदं वचनमब्रवीत् ॥१०॥ किं तदित्याह नापि नैव जानासि वेदानां मुखमिव मुखं वेदमुखं, यद्वेदेषु प्रधानं । 'नापि' नैव यज्ञानां यन् 'मुखम् ' उपायः। नक्षत्राणां 'मुखं' का प्रधानं यच, यच्च धर्माणां वा मुखमुपायः । अनेन तस्य वेदयज्ञज्योतिर्द्धानभिज्ञत्वमुक्तम् ॥११॥ अथ पात्राविज्ञत्वमाह-स्पष्टमेतत् । ॥१२॥ एवं मुनिनोक्तः स किं चकारेत्याहमूलम्-तस्सक्खेवपमुक्खं च, अचयंतो तहिं दिओ। सपरिसो पंजली होउं, पुच्छई तं महामुणिं ॥१३॥ वेआणं च मुहं ब्रूहि, बूहि जण्णाण जं मुहं । नक्खताण मुहं ब्रूहि, ब्रूहि धम्माण जं मुहं १४ जे समत्था समुद्धतु, परं अप्पाणमेव य । एयं मे संसयं सव्वं, साहू कहसु पुच्छिओ ॥ १५ ॥ व्या०-'तस्य' यतेः 'आक्षेपस्य' प्रश्नस्य 'प्रमोतः' प्रतिवचनं, चः पूरणे, दातुमिति शेषः "अचयंतोत्ति" अशक्नुवन् 'तस्मिन्' यज्ञे द्विजः सपर्षत्सभान्वितः प्राञ्जलिभूत्वा पृच्छति तं महामुनिम् ॥ १३॥ किमित्याह-[सष्टे नवरम् ] "संसयंति" संशयविषयं वेदमुखादीति सूत्रदशकार्थः ॥ १४ ॥ १५ ॥ मुनिराहमूलम्-अग्निहोत्तमुहा वेआ, जगणट्ठी वेअसां मुहं । नक्खताण मुहं चंदो, धम्माण कासवो मुहं ॥१६॥ जहा चंद गहाईआ, चिट्ठति पंजलीउडा । वंदमाणा नमसंता, उत्तमं मणहारिणो ॥ १७ ॥ भजाणगा जगणवाई, विजामाहणसंपया । गूढा सज्झायतवसा, भासछन्ना इवऽग्गिणो १८ COVEveeveeveeveeveeveeveeeeeeeees Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्य यनसूत्रम् ॥२२६॥ RE व्या० – अग्निहोत्रं - अग्निकारिका, सा चेह “कर्मेन्धनं समाश्रित्य दृढा सद्भावनाहुतिः ॥ धर्मध्यानाग्निना कार्या, दीक्षितेनानिकारिका ॥ १ ॥" इत्यादिरूपा गृह्यते, तदेव मुखं प्रधानं येषां ते अग्निहोत्रमुखा वेदाः || वेदानां हि दघ्न इव नवनीतमारण्यकं प्रधानं, तत्र च “ सत्यं तपश्च सन्तोषः, क्षमा चारित्रमार्जवम् ॥ श्रद्धा धृतिरहिंसा च संवरश्च तथापरः ।। १७ ।। " इति दशप्रकार एव धर्मः प्रोचे । तदनुसारि चोक्तरूपमेवाग्निहोत्रमिति । तथा यज्ञो भात्रयज्ञ: संयमरूपस्तदर्थी 'वेदसां यागानां 'मुखम् ' उपायः, यज्ञा हि सत्येव यज्ञार्थिनि प्रवर्त्तन्ते । नक्षत्राणां 'मुखं' प्रधानं चन्द्रः । धर्माणां 'काश्यपो' युगादिदेवो 'मुखम् ' उपायस्तस्यैव प्रथमतस्तत्प्ररूपकत्वात् ॥१६॥ काश्यपस्यैव महात्म्यप्रकाशनेन धर्ममुखत्वं समर्थयितुमाह-यथा चन्द्रं ग्रहादिकाः “ पंजलिउडत्ति" कृतप्राञ्जलयः 'वन्दमानाः ' स्तुवन्तो 'नमस्यन्तो' नमस्कुर्वन्तः 'उत्तमं ' प्रधानं यथा स्यात् तथा 'मनोहारिणो' अतिविनीततया चित्ताक्षेपकारिणस्तिष्ठन्तीति सम्बन्धः, तथैव वृषभमपि भगवन्तं देवेन्द्रमुख्या इत्युपस्कारः ॥ १७ ॥ अनेन प्रश्नचतुष्कोचरमुक्त, पञ्चमप्रश्नमधिकृत्याह – “ अजाणगत्ति " अज्ञाः के ते १ यज्ञषादिनो ये तव पात्रत्वेनाभिमताः, कासामज्ञा इत्याह – “ विज्जामाहणसंपयत्ति " विद्याब्राह्मणसम्पदां तत्र विद्या - आरण्यकब्रह्माण्डपुराणादिधर्मशास्त्ररूपास्ता एव ब्राह्मणसम्पदो विद्याब्राह्मणसम्पदाः । तात्विकत्राह्मणानां हि निष्किञ्चनतया विद्या एव सम्पदः स्युः तद्विज्ञत्वे च कथममी बृहदारण्यकादिप्रोक्त' दशविधधर्मं विदन्तोऽपि यज्ञमेव कुर्युरिति १ तथा 'गूढा' बहिः संवरवन्तः केन हेतुना १ 'स्वाध्यायतपसा वेदाध्ययनोपवासादिना । अत एव " भासछन्ना इवग्गियोत्ति " भस्मच्छन्ना अग्नय इव । यथा हि ते बहिरुपशमभाज इवाभान्ति, अन्तः पुनर्जाज्वल्यमाना एव । एवमेतेप्यन्तः कषायवत्तया ज्वलिता एव स्युरेवं च भवदभिमतत्राह्मणानां स्वपरोद्धरणक्षमत्वं दुरापास्तमेवेत्यर्थः ॥ १८ ॥ कस्तर्हि भवन्मते ब्राह्मणो यम्पात्रमित्याह - अध्य०२५ ॥२२६॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्य यनसूत्रम् ॥२३० ॥ मूलम् - जो लोए बंभणो वुत्तों, अग्गी वा महिओ जहा । सया कुसलसंदिट्ठ, सं वयं बूम माहणं ॥१६॥ जो न सज्जइ आगंतु, पव्वयंतो न सोइ । रमए अज्जवयरांमि तं वयं बूम माहणं ॥ २०॥ जायरूवं जहामट्ठ, निद्ध' तमलपावगं । रागद्दोसभयाइयं, तं वयं बूम माहणं ॥ २१॥ तसे पाणे विचाणित्ता, संगहेण य थावरे । जो न हिंसइ तिविहेणं, तं वयं बुम माहणं ॥२२॥ कोहा वा जइ वा हासा, लोहा वा जइ वा भया । मुखं न वयई जो उ, तं वयं बूम माहणं २३ चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं । न गिरहइ अदत्तं जो, तं वयं बूम माहणं ॥ २४ ॥ दिव्यमाणुसतेरिच्छं, जो न सेवइ मेहुणं । मरणसा काय वक्केणं, तं वयं बूम माहणं ॥२५॥ जहा पउमं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा । एवं अलित्तं कामेहि, तं वयं बूम माहणं ॥२८॥ लो मुहाजीवी, अणगारं अकिंचणं । असंसत्तं गिहत्थेसु तं वयं बूम माहणं ॥२७॥ जहित्ता पूव्वसंजोगं, नातिसंगे अ बंधवे । जो न सज्जइ एएसु, तं वयं बूम माहणं ॥२८॥ व्या० - यो लोके ब्राह्मण उक्तः कुशलैरिति गम्यते, "अग्गी वा महिओ जहति " वा पूरणे, यथेतिभिन्नक्रमस्ततो यथाग्निर्यचदोनित्याभिसम्बन्धात् तथा महितः -पूजितः सन् सदा कुशलैः- तत्त्वज्ञैः सन्दिष्टं-- कथितं कुशलसन्दिष्टं तं वयं ब्रूमो ब्राह्मणम् ॥ १६ ॥ इत 1 अध्य० २५ ॥२३० ॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् २३१॥ अध्य०२५ ॥२३॥ VEEVEVINGVEGVESVEGVEREVA उत्तरसूत्रैः कुशलसन्दिष्टब्राह्मणस्वरूपमाह-यो 'न सजति' नाभिष्वङ्ग करोति 'आगन्तुं प्राप्तुं स्वजनादिस्थानमिति गम्यते, आगत्य च प्रव्रजन् तत एव स्थानन्तरं गच्छन्न शोचति, यथारं कथमेनं विना स्थास्यामीति ! अत एव रमते 'आर्यवचने' तीर्थकुद्धचसि ॥२०॥ 'जातरूपं स्वर्ण यथा आमृष्टं-तेजःप्रकर्षार्थ मनःशिलादिना परामृष्टं, अनेनाऽस्य बाह्यो गुण उक्तः । "निद्धतमलपावगंति" प्राकृतत्वात पावकेन-अग्निना निर्मातं-दग्धं मलं-किट्ट यस्य तत्पावकनितिमलं, अनेन चान्तरस्ततो जातरूपवद्बाह्यान्तरगुणान्वितः । अत एव रागद्वेषभयातीतश्च यस्तं वयं बमो ब्राह्मणम् ॥ २१ ॥ त्रसप्राणिनो विज्ञाय 'संग्रहेण' संक्षेपेण चशब्दाद्विस्तरेण च तथा स्थावरान् यो न हिनस्ति त्रिविधेन योगेनेति गम्यते ॥ २२॥ 'चित्तवद् द्विपदादि, 'अचित्तं' सुवर्णादि ॥ २३ ॥ २४ ।। यथा पद्म जले जातं नोपलिप्यते वारिणा, एवं पनवदलिप्तः कामैस्तज्जातोऽपि यस्तं वयं बमोब्राह्मणम् ॥ २५ ॥ २६ ।। इत्थं मूलगुणैस्तमुक्त्वा उत्तरगुणैस्तमाह'अलोलुपं' आहारादावलम्पटं "मुधाजीवित्ति" 'मुधाजीविनं' अज्ञातोञ्छवृत्ति, न तु मेषजमन्त्राद्युपदेशकताजीविकं । 'असंसक्तम्' असम्बद्धं गृहस्थैः पूर्वसंस्तुतपश्चात्संस्तुतैः ।। २७ ।। 'हित्वा' त्यक्त्वा 'पूर्वसंयोग' मात्रादिसम्बन्धं 'ज्ञातिसङ्गान्' स्वस्रादिसम्बन्धान , चस्य भिन्नक्रमत्वाद्बान्धवांच यो 'न सजति' न भूयो रज्यते एतेषु ॥ २८ ॥ अथ वेदाध्ययनं यजनं च त्रायकमिति बयोगादेव ब्राह्मणो न तु त्वदुक्त इत्याशंक्याहमूलम्-पसुबंधा सव्ववेआ, जटुं च पावकम्मुणा । न तं तायात दुस्सील, कम्माणि बलवंतिह ॥२६॥ नवि मुडिएण समणो, न ॐकारेण बंभणो । न मुणी रगणवासेणं, कुसचीरेण न तावसो ॥३० Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इचराध्यपनसत्रम् ॥२३२॥ VESEVGEGEGEE समयाए समणो होइ, बंभचरेण बंभो । नाणेण य मुणी होइ, तवे होइ तवसो ॥३१॥॥ · अध्य०२५ कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुसा होइ खत्तिो । कम्मुणा वइसो होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥३२॥ ॥२३२॥ एए पाउकरे बुद्ध, जेहिं, होइ सिणायो । सव्वसंगविणिमुक्कं, तं वय वूम माहणं ॥३३॥ एवं गुणसमाउत्ता, जे भवंति दिउत्तमा । ते समत्था उ उद्धतु, परं अप्पाणमेव य ॥३४॥ व्या०-पशूनां बन्धो-विनाशाय नियमनं यहेतुभिस्ते पशुबन्धा 'सर्ववेदा' ऋग्वेदादयः, 'जळं चत्ति' इष्टं यजनं, चः समुच्चये, 'पापकर्मणा' पापहेतुपशुवधाद्यनुष्ठानेन न 'तं' यष्टारं त्रायन्ते 'दुश्शीलं' दुराचारं भवादिति गम्यते, यतः कर्माणि 'बलवन्ति' दुर्गतिनयनं प्रति समर्थानि 'इह' वेदाध्ययने यजने च जायन्ते, पशुवधादिप्रवर्तकतया तयोः कर्मबलवर्द्धकत्वादिति भावः। ततो नानयोर्योगात् का ब्राह्मणः स्यात्किन्तु पूर्वोक्तगुणयुक्त एवेति तत्त्वम् ॥ २६ ॥ अन्यच्च 'न' नैव, अपिः पूत्तौं, मुण्डितेन 'श्रमणो' निर्ग्रन्थो भवतीति शेषः । न "ॐकारेणत्ति" ॐ भूर्भुवःस्वरि'त्यादिना ब्राह्मणः, न मुनिररण्यवासेन, कुशो-दर्भविशेषस्तन्मयं चीरं कुशचीरं वन्कलोपलक्षणमिदं तेन न तापसः ॥ ३० ॥ तहि कथमेते भवन्तीत्याह-तथा ॥ ३१ ॥ 'कर्मणा' क्रियया ब्राह्मणो भवति, यदुक्तं-"क्षमा दानं दमो ध्यानं, सत्यं शौचं धृतिषणा । ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्य-मेतबाह्मणलक्षणम् ॥ १॥" तथा कर्मणा क्षतताणलवणेन भवति क्षत्रियः, वैश्यः कर्मणा कृषिपाशुपाल्यादिना भवति, शूद्रोभवति कर्मणा शोचनहेतुप्रैषादिसम्पादनरूपेण । कर्मनानात्वाभावे हि ब्राह्मणादिव्यपदेशा १" भूमुवः स्वस्तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॥ SVECVAGGEVeerectvegveAee Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनमत्रम् ॥२३३॥ अध्य०२५ ॥२३॥ GALLEVENGEVEEVERERA नामभाव एवेति । ब्राह्मणावसरे च यच्छेषाभिधानं तद्व्याप्तिदर्शनार्थम् ॥३२॥ किमिदं स्वबुद्धयौवोच्यत इत्याह-ताननन्तरोक्तान् अहिंसादीन् अर्थान् 'प्रादुरकाषीत' प्रकटितवान् 'बुद्धः सर्वज्ञो यैर्भवति 'स्नातकः' केवली, ततश्च प्रत्यासन्नमुक्तितया सर्वकर्मविनिमुक्तमिव सर्वकर्मविनिमुक्ततं स्नातकं वयं ब्रमो ब्राह्मणम् ॥ ३३॥ एवं गुणैरहिंसाद्यैः समायुक्ता ये भवन्ति द्विजोत्तमाः ते समर्थाः, 'तुः' पूरणे । इत्येकोनविंशति सूत्रार्थः ॥ ३४ ॥ इत्युदीर्यावस्थितो मुनिः, ततश्चमूलम्-एवं तु संसये छिन्ने, विजयघोसे अ माहणे । समुदाय तो तं तु, जयघोसं महामुणिं ॥३५॥ तुढे अ विजयघोसे, इणमुदाहु कयञ्जली । माहणत्तं जहाभूअं, सुटु मे उवदंसि ॥३६॥ तुब्भे जइआ जण्णा, तुब्भे वेअविऊ विऊ । जोइसंगविऊ तुब्भे, तुब्भे धम्माण पारगा ३७ तुब्भे समत्था उद्धत्तु, परं अप्पाण मेध य । तमणुग्गहं करेहम, भिक्खेणं भिक्खउत्तमा ॥३८॥ व्या०-एवमुक्तनीत्या, तुर्वाक्यान्तरोपन्यासे, संशये छिन्ने सति विजयघोषश्चः पूरणे ब्राह्मणः, “समुदायत्ति" 'समादाय' सम्यक् गृहीत्वा ममासौ सोदरो भवति इत्युपलक्ष्येत्यर्थः, 'ततः' संशयच्छेदानन्तरं तं, 'तु:' पूरणे, जयघोषमहामुनिम् ॥३५॥ किं चकारेत्याह-"इणमुदाहुत्ति" इदमुदाहृतवानुवाचेत्यर्थः, "जहाभूअंति" 'यथाभूतं यथास्थितम् ॥ ३६॥"जइअत्ति" यष्टारः यूयं वेदविदो 'हे विदः' हे यथास्थिततत्वज्ञाः ।। ३७ ॥'तमणुग्गहंति' तत्तस्मात् अनुग्रहं कुरुतास्माकं "भिक्खेणंति" 'भैक्ष्येण' मिक्षाग्रहणेन हे भिवृक्षम ! इति सूत्रचतुष्कार्थः ॥ ३८ ॥ एवं द्विजेनोक्तं मुनिराह TELEG LAVEVEGEEVES VEGVEGVERSE Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य०२५ उत्तराध्यवनसूत्रम् ॥२३४॥ ॥२३४॥ VAVO LEVEGELSEVGRAECAVA मूलम्-न कर्ज मज भिक्खणं, खिप्पं निक्खमसू दिया। मा भमिहिसि भयावत्ते, घोरे संसारसागरे ३६ __उवलेओ होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पइ । भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चइ ॥४॥ उल्लो सुक्को अ दो छूढा, गोलया महिआमया। दोवि आवडिआ कुडे, जो उल्लो सोऽत्थ लग्गइ ४१ एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा । विरत्ता उ न लग्गति, जहा सुक्के उ गोलए ॥४२॥ व्याख्या-न कार्य मम भैक्ष्येण किन्तु क्षिप्रं 'निष्क्राम' प्रव्रज हे द्विज ! मा भ्रमीः भयानि-इहलोकमयादीनि आवार्ता इव आवार्ता यस्मिन् स तथा तस्मिन् घोरे संसारसागरे ॥३६॥" उपलेपः कर्मोपचयरूपो भवति भोगेषु भुज्यमानेष्विति शेषः, अभोगी नोपलि प्यते कर्मणेति शेषः, ततश्च भोगीत्यादि स्पष्टम् ॥४०॥ भोगिनामुपलेपमन्येषां च तदभावं दृष्टान्तद्वारेणाह-आर्द्रः शुष्कश्च द्वौ क्षिप्तौ का गोलको मृत्तिकामयौ, द्वावपि 'आपतितौ' प्राप्तौ 'कुड्य' भित्तौ, यः आः सो “अत्यत्ति" अनयोर्मध्ये 'लगति' श्लिष्यति ।। ४१॥ | दार्टान्तिकयोजनामाह-" लग्गति" श्लिष्यन्ति संसार इति शेषः, इति सूत्रचतुष्कार्थः ॥ ४२ ॥ एवमुक्तो यत्स चक्रे तदाह मूलम्-एवं सो विजयघोसो, जयघोसस्स अंतिए । अणगारस्स निक्खंतो, धम्म सोच्चा अणुत्तरं ॥४३॥ ___ व्याख्या-अत्र एवमनेन प्रकारेण धर्म श्रुत्वेति योज्यम् ॥ ४३ ॥ अथाध्यनार्थमुपसंहरन्ननयोर्निष्क्रमणफलमाह| मूलम-खवित्ता पूव्वकम्माई, संजमेण तवेण य । जयघोराविजयघोसा, सिद्धिं पत्ता अणुत्तरंति बेमि ४४ व्याख्या-सष्टम् ।। ४४ ॥ ONNONSENEGAL NA NAND Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपराध्ययनरम् ॥२३॥ अध्य०२६ | ॥२३॥ ॥ अथ षड्विंशमध्ययनम् ॥ ॥ अहं । उक्त पञ्चविंशमध्ययनं अथ सामाचारीसंझं पड़िवशमारभ्यते अस्य चायं सम्बन्धोऽनन्तराध्ययने ब्रह्मगुणा उक्ताः ते च | यतेरेख स्युः, तेन चाचश्यं सामाचारी समाचरणीया, सा चास्मिन्नुच्यत इत्येवं सम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्- . मूलम् - सामायारी पवक्खामि, सव्वदुक्खविमोक्खणिं । जं चरित्ता ण निग्गंथा, तिषणा संसारसागरं ॥१॥ व्याख्या-'सामाचारी' साधुजनकर्त्तव्यरूपां "जं चरित्ता णत्ति यां 'चरित्वा' आसेव्य “तिषणति" तीएर्णाः, उपलक्षणत्वात्तरन्ति तरिष्यन्ति चेति सूत्रावयवार्थः, शेषं स्पष्टमेवमग्रेऽपि ज्ञेयम् ॥१॥ यथाप्रतिज्ञातमाहमूलम्-पढमा आवस्सिा नाम १, बिइआ य निसीहिआ २ । आपुच्छणा या तइमा ३, चउत्थी पडि पुच्छणा ४ ॥ २ ॥ पंचमा छंदण नामं ५, इच्छाकरो अ छट्ठओ ६ सत्तमो मिच्छकारो उ ७, तहक्कारो अ८ अट्ठमो ॥ ३॥ अब्भूट्ठाणं नवमं ६, दसमा उवसंपया १० । एसा दसंगा साहूणं, सामायारी पवेइआ॥४॥ व्याख्या-व्रतादारभ्य विना कारणं गुरोरवग्रहे न स्थेयमाशातनाशकातः, किन्तु ततो निर्गन्तव्यं, न चावश्यकी विना निर्गमनमिति प्रथमाऽऽवश्यकी ॥१॥ निर्गत्य चावस्थानस्थाने नैषेधिकी गमनादिनिषेधरूपा कार्येति तदनु नैषेधिकी ॥२॥ तत्र च तिष्ठता भिक्षाटनादिकार्योत्पत्ती गुरूनापुच्छथैव प्रवत्तितव्यमिति तदन्तरमाऽऽप्रच्छना ॥ ३ ॥ तस्यां च कृतायां गुरुनियुक्त नाऽपि प्रवृत्तिकाले पुनः प्रष्टव्या Neeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeey Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् १२३६॥ अध्य०२६ ॥२३६॥ EPEAREAAAAAAAAAAERICA एव गुरवः इति तत्पृष्ठतः प्रतिप्रच्छना ॥ ४॥ कृत्वा च भिक्षाटनं नात्मम्मरिणा भायं, किन्तु शेषमुनीनां निमन्त्रणारूपा छन्दना कार्येति तदनु छन्दना ॥५॥ तत्रापि इच्छाकार एव प्रयोक्तव्य इति तदनु सः॥६॥ इत्थं क्रियमाणेऽपि कथश्चिदतिचारसम्भवे मिथ्यादुष्कृतं कार्यमिति तदनु मिथ्याकारम् ।।७॥ महति चापराधे गुरोरालोचिते गुरुवचनं तथेति स्वीकार्यमिति तत्पृष्टतस्तथाकारः ॥॥ तथेति स्वीकृत्य च सर्वकृत्येषूद्यमः कार्य इति तदनु अभ्युत्थानम् ॥६॥ उद्यमवता च ज्ञानाद्यर्थ गणान्तरेऽपि गत्वोपसम्पग्राह्ये ति तदनु उपसम्पदुतति सूत्रत्रयार्थः॥४॥ एनामेव विषयविभागेनोपदर्शयितुमाहमूलम्-गमणे आवस्सिअं कुजा, ठाणे कुजा णिसीहि । आपुच्छणा सयं करणे, परकरणे पडिपुच्छणा छंदणा दव्यजाएणं, इच्छाकारो अ सारणे । मिच्छाकारोअ निंदाए, तहक्कारो पडिस्सुए ॥ ६॥ अब्भुट्ठाणं गुरुपूआ. अच्छणे उपसंपया । एवं दुपंचसंजुत्ता, सामयारी पवेइ ॥ ७ ॥ व्याख्या-'गमने' तथाविधहेतुना बहिनिस्सरणे, आवश्यकेषु-अवश्यक-व्यव्यापारेषु भवा आवश्यकी तां कुर्यात् । 'स्थाने' उपाश्रयादौ प्रविशन्निति शेषः, कुर्यान्नैपेधिकी-गमनादिनिषेधरूपां । 'आप्रच्छना' इदमहं कुर्या न वेत्यादिरूपां, स्वयमात्मनः करणं-कस्यापि कार्यस्य निवर्तनं स्वयं करणं तस्मिन्कार्येति शेषः । तथा 'परकरणे' अन्यकार्यविधाने प्रतिप्रच्छना, गुरुनियुक्तोऽपि हि पुनः प्रवृत्तिकाले पृच्छत्येव गुरुं । इह च स्वकृत्यपरकृत्ययोरुपलक्षणत्वात्सामान्येन स्वपरस्त्रम्बन्धिषु सर्वकार्येष्वपि प्रथमतो गुरूणां प्रच्छनमापृच्छा, गुरुनियु||क्त नापि प्रवृत्तिकाले भूयस्तत्प्रच्छनं प्रतिपृच्छेति ज्ञेयं आह च नियुक्तिकृत्-"आपुच्छणा उ कज्जे पुवनिउत्तेण होइ पडिपुच्छत्ति" ॥२॥ VEVEGVEGVESEVEGVE VEEVEEVEE VEET Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥२३७॥ अध्य०२५ ॥२३७॥ Lux1ult レールージーントレートL 'छन्दना' शेषमुनिनिमन्त्रणा 'द्रव्यजातेन' द्रव्यविशेषेण पूर्वगृहीतेनेति गम्यते, उक्त च "पुवगहिएण छंदणत्ति"। इच्छया-स्वामिप्रायेण न तु बलात्कारेण करणं-तत्तत्कार्यनिवर्त्तनमिच्छाकारः, 'सारणे' आत्मनः परस्य वा कृत्यं प्रति प्रवर्तने । तत्रात्मसारणे यथा 'इ. च्छाकारेण युष्मच्चिकीर्षितमिदं कार्य करोमीति', अन्यसारणे च यथा 'मम पात्रलेपादिकार्यमिच्छाकारेण कुरुतेति' । मिथ्याकरणं-मिथ्या इदमिति प्रतिपत्तिमिथ्याकारः, स चात्मनो 'निन्दायां' वितथाचरणे धिगिदं मिथ्या मया कृतमित्यादिरूपायां । 'तथाकार' इदमित्थमेवेत्यभ्युपगमः, 'प्रतिश्रुते' प्रतिश्रवणे गुरौ वाचनादिकं प्रयच्छत्येवमेवेदमित्यङ्गीकाररूपे ॥ ६ ॥ अभीत्याभिमुख्येनोत्थानं 'अभ्युत्थानं' उधमः "गुरुपूअत्ति" आपत्वाद्गुरुपूजायां गौरवार्हाणामाचार्यग्लानादीनां यथोचिताहारादिसम्पादनरूपायां । इह च सामान्याभिधानेपि अभ्युत्थानं निमन्त्रणारूपमेव ग्राह्य, अत एव नियुक्तिकृता अस्य स्थाने निमन्त्रणैवोक्ता "छन्दणा य निमन्तणति" । तथा “अच्छणेत्ति" अवस्थाने प्रक्रमादपराचार्यादेः समीपे, उपसम्पदियन्तं कालं युष्मत्पार्थे मया वसितव्यमित्येवंरूपा, कार्येति सर्वत्रापि शेषः । एवमुक्तनीत्या "दुपंचसंजुत्तत्ति" 'द्विपञ्चकसंयुक्ता दशसंख्यायुता सामाचारी 'प्रवेदिता' कथितेति सूत्रत्रयार्थ ॥ ७॥ एवं दशविधां सामाचारीमुदीयॊघसामाचारीमाहमूलम्-पुब्विल्लमि चउभागे, आइच्चमि समुट्टिए । भंडगं पडिलेहिता, वंदिता य तो गुरु॥ ॥ पुच्छिज्जा पंजलीउडो, कि कायव्वं मए इह । इच्छ निओइउं भंते, वेावच्चे व सज्झाए ॥ ६ ॥ वेमावच्चे निउत्तेणणं, कायव्वं अगिलायो । सज्झाए वा निउत्तेणां, सव्वदुक्खविमोक्खणे ॥१०॥ teveeveeleeveereeverveeveeveere Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतराध्य यमस्त्रम् ||२३८ || व्याख्या - पुर्वस्मिंश्चतुर्भागे नभस इति शेषः, आदिले 'समुत्थिते' समुङ्गते प्राप्त इत्यर्थः । अत्र हि किञ्चिदूरोऽपि चतुर्भागचतुर्भाग उक्तस्ततोऽयमर्थः । बुद्धया नभचतुर्द्धा विभज्यते, तत्र पुर्वदिक्सम्बद्धकिञ्चिदूननभचतुर्भागे यदाऽऽदित्यः समेति तदा, पादोनपौरुप्यामित्यर्थः । भाण्डमेव ' भाण्डकं' पतग्रहाद्युपकरणं प्रतिलिख्य वन्दित्वा च ततः प्रतिलेखनानन्तरं गुरुं श्राचार्यादिकम् ॥ ८ ॥ "पुच्छेज्जत्ति " पृच्छेत् 'प्राञ्जलिपुटो' भालस्थलयोजितकरसम्पुटः किं कर्त्तव्यं मया ? 'इह' अस्मिन् समय इति गम्यते एतदेव व्यनक्ति, " इच्छंति " इच्छामि ‘“निओइउंति” अन्तर्भू तणिगर्थत्वाद् ' नियोजयितु'' प्रवर्त्तयितु' युष्माभिरात्मानमिति शेषः, हे भदन्त ! ' वैयावृत्ये ' ग्लानादिसम्बन्धिनि 'स्वाध्याये वा' वाचनादौ ॥ ६ ॥ एवं पृष्ट्वा यत्कार्यं तदाह – वैयावृत्त्ये नियुक्तेन कर्त्तव्यं प्रक्रमाद्वैयावृत्त्यं, "अगिलायश्रोति” 'अग्लान्यैव' शरीरश्रममविचिन्त्यैव । स्वाध्याये वा नियुक्त ेन सर्वदुःखविमोक्षणे स्वाध्यायोप्यग्लान्यैव कार्य इति गम्यमिति सूत्रश्रयार्थः ।। १० ।। एवं सकलौघसमाचारी मूलत्वात्प्रतिलेखनायास्तत्कालं सदा विधेयत्वाद्गुरुपारतन्त्र्यं चाभिधायौत्सर्गिकं दिनकृत्यमाहमूलम् — दिवसस्स चउरो भाए, कुजा भिक्खू विक्खणो । तो उत्तरगुणे कुज्जा, दिभागेच पढमं पोरिसि सभायं बिइ भाणं प्रियइ । तइआए गोचरकालं, पुणो चउत्थिए सज्झायं आसाढे मासे दुपया, पोसे मासे चउप्पया । चित्तासोपसु मासेसु, तिपया हवइ पोरिसी ॥१३॥ अंगुलं सत्तर तेां, पक्खेां तु दुअंगुलं । वड्डए हायए आवि, मासेां चउरंगुलं ॥ १४ ॥ " व्याख्या – “तभत्ति” ततश्रुतुर्भागकरणानन्तरं उत्तरगुणान् स्वाध्यायादीन् कुर्यात् ॥ ११ ॥ कथमित्याह -- प्रथम पौरुष 'स्वा अध्य० २६ ॥२३८ ॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥२३६॥ ध्यायं' वाचनादिकं कुर्यादिति शेषः, द्वितीयायां ध्यानं 'ध्यायेत्' धातुनामनेकार्थत्वात् कुर्यात्, ध्यानं चेहार्थपौरुषीत्वादस्या अर्थविषये एव मानसादिव्यापारणमुच्यते । तृतीयायां भिक्षाचर्यामुपलक्षणत्वाद्भोजनवहिर्गमनादि । चतुथ्यां पुनः स्वाध्यायं, इहापि प्रतिलेखनादिकमुपलक्षणाद्द्भाह्यमिति ॥१२॥ यदुक्त ं प्रथमां पौरुषीमित्यादि, तज्ज्ञानार्थमाह – “ दुप्पयत्ति " यदा पुरुषादेरूर्ध्वस्थितस्य दक्षिणकर्णनिवेशिततरणिमण्डलस्य आषाढपूर्णिमादिने जानुच्छाया द्विपदा स्यात्तदा पौरुषी, एवं सर्वत्रापीति ॥१३॥ इदं च पौरुषीमानमाषाढादि पूर्णिमासु ज्ञेयं, तदनु तु वृद्धिहानी एवम् - अंगुलं 'सप्तरात्रेणेति' दिनाविनाभावित्वाद्रात्रीणां सप्ताहोरात्रेण वर्द्धते दक्षिणायने, हीयते उत्तरायणे । इह च सप्तरात्रेणेत्यत्र सार्द्धेनेति शेषो द्रष्टव्यः, पक्षेणांगुलद्वयवृद्धेरुक्तत्वात् ॥ अन्यच्च केषुचिन्मासेषु दिनचतुर्द्दशकेनाऽपि पक्षः सम्भवति, तत्र च सप्तरात्रेणाप्यंगुलवृद्धिहान्या न दोषः || १४ || केषु पुनर्मासेषु चतुर्दशभिर्दिनैः पक्ष इत्याह मूलम् — साढबहुलपवखे, भद्दवए कत्तिए अ पोसे अ । फग्गुण - वइसाहेसु अ, नायव्वा श्रमरता १५ जेट्ठामूले आसाढ - सावणे, छहिं अंगुलेहिं पडिलेहा । अट्ठहिं बीअतिम्मि, तइए दस अट्ठहिं चत्थे व्या० – “ श्रमत्ति " ' अवमा' न्यूना एकेनेति शेषः, 'रत्तत्ति' उपलक्षणत्वादहोरात्राः । एवं च एकैकदिनापहारे दिनचतुर्द्दश के- नैव कृष्णपक्ष एतेषु मासेष्विति भावः ।। १५ ।। एवं पौरुषीज्ञानोपायमभिधाय पूर्वमुक्तायाः पादोनपौरुष्या ज्ञानोपायमाह – “ ज्येष्ठामूले " ...ज्येष्ठे आषाढ श्रावणे च षड्भिरंगुलैः प्रत्यहं पूर्वोक्त पौरिषीमाने प्रक्षिप्तैरिति गम्यं, प्रतिलेखा - पात्रप्रतिलेखनाकालः । अष्टभिरंगुलैद्वितीयत्रिभाद्रपदाश्विनकार्त्तिकरूपे । तथा तृतीये त्रिके मार्गशीर्षपौषमाघरूपे, “दसत्ति” दशभिरंगुलैः । अष्टभिश्चतुर्थे त्रिके, फाल्गुन चैत्र वैशाखरूपे । इति षट्कार्थः ॥ १६ ॥ इत्थं दिनकृत्यमुक्त्वा रात्रौ यद्विधेयं तदाह MOBAEROS अध्य०२६ ॥२३६॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०२६ ॥२४॥ उत्तराध्य- IF मूलम्-रतिपि चउरो भाए, भिक्खू कुज्जा विभक्खणो । तो उत्तरगुणे कुज्जा, राईभागेसु चउसुवि १७ पनसूत्रम् पढमं पोरिसि सज्झायं, बिड झाणं झिायड । तहआए निहमोक्खं तु, चउत्थीए भुज्जोवि सज्झायं १८ ॥२४॥ जं नेइ-जया रत्तिं, नक्खत्तं तम्मि नहचउब्भाए । संपत्ते विरमिज्जा, सज्झाय पोसकालंमि १६ तम्मेव य नक्खत्ते, गयण चउब्भागसावसेसंमि वेरत्तिअंपि कालं, पडिलेहित्ता मुणी कुज्जा ॥२०॥ व्या०-"रतिपित्ति" रात्रिमपि न केवलं दिनमित्यपिशब्दार्थः ॥ १७॥ "बिइअंति" द्वितीयायां ध्यानं धर्मध्यानं, सृतीयायां निद्रायाः पूर्वरुद्धाया मोक्षो-मुत्कलनं निद्रामोक्षः तं कुर्यात , वृषभापेक्षं चैतत् , सामस्त्येन तु प्रथमचरमयामजागरणमेव । तथा चागर्म "सव्वेऽवि पढमजामे, दोषिण उ वसहाण आइमा जामा । तइयो होइ गुरुणं, चउत्थश्रो होइ सव्वेसिं " इति ॥ १८ ॥ अथ रात्रिभागका चतुष्कज्ञानोपायमुपदर्शयन् समस्तयतिकृत्यमाह-यन् 'नयति' प्रापयति समाप्तिमिति गम्यते, यदा 'रात्रि' क्षपां नक्षत्रं, यस्मिन् दिने यस्मिन्नक्षत्रेऽस्तमिते रात्रिपर्यन्तो भवतीतिभावः। तच्च नक्षत्रं रविनक्षत्रात प्रायश्चतुर्दशं भवतीति वृद्धाः । तस्मिनक्षत्रे नभश्चतुर्भागे सम्प्राप्ते KEII 'विरमेत् ' निवत, "सज्झायत्ति" स्वाध्यायात 'प्रदोषकाले' रात्रिमुख प्रारब्धादिति शेषः ॥ १६ ॥ तस्मिन्नेव नक्षत्रे प्रक्रमात्प्राप्ते "ग यणत्ति" गंगने, कीदृशे? चतुर्भागेन गन्तव्येन सावशे चतुर्भागसावशेष तस्मिन् , 'वैरात्रिक' तृतीयं, अपिशब्दानिजनिजसमये प्रादोषिAE कादिकं च कालं, “पडिलेहित्तत्ति" 'प्रत्युपेक्ष्य' प्रतिजागर्य मुनिः कुर्यात् , करोतेः सर्वधात्वर्थव्याप्तत्वाद् गहणीयात् । इह च प्रथमादिषु नभश्रतुभागेषु सम्प्राप्ते रात्रिसमापके नक्षत्रे रात्रेः प्रथमाद्याः प्रहरा इति सामर्थ्यादुक्तं भवतीति सूत्रचतुष्कार्थः ॥२०॥ इत्थं सामान्येन VEGVEEVAHETEVE EVEGVEGVAPE CEVEEVIGEVEEVONOVGVEGVEGVEGA Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०२६ ॥२४॥ Vall दिननिशाकृत्यमुपदर्य पुनर्विशेषात्तदेव दर्शयन्नादौ दिनकृत्यं सार्द्धसप्तदशसूत्रैराहउत्तराध्य Hel मूलम-पुब्बिल्लंमि चउभागे, पडिलेहिताण भंडगं । गुरु वंदित्तु सज्झायं, कुज्जा दुक्खविमोक्खणं २१ यनसूत्रम् ॥२४॥ पोरिसीए चउब्भागे, वंदित्ताण तो गुरु । अपडिक्कमित्ता कालस्स, भायणं पडिलेहए ॥२२॥ KI व्या०-पूर्वस्मिश्चतुर्भागे प्रथमपौरुषीलक्षणे प्रक्रमादिनस्य स्वाध्यायं कुर्यादितियोगः, किं कृत्वेत्याह-प्रत्युपेक्ष्य 'भाण्डक' वर्षाकल्पा दिकमुपधि सूर्योदयसमये इति शेषः ॥ २१॥ पौरुष्याश्चतुर्भागे अवशिष्यमाण इति शेषः, ततः पादोनपौरुष्यामित्यर्थः । अप्रतिक्रम्य कालस्य, चतुर्थपौरुष्यामपि स्वाध्यायस्य विधास्यमानत्वात् कालप्रतिक्रमणं चस्वाध्यायसमाप्तौ स्यादित्यप्रतिक्रम्येत्युक्तम् ॥प्रतिलेखनाविधिमाहमूलम्-मुहपोत्तिनं पडिलेहित्ता पडिलेहिज्ज ग्रोच्छगं । गोच्छगलइअंगुलियो, वत्थाई पडिलेहए ॥२३॥ उड्डू थिरं अतुरिअं, पुव्वं ता वत्थमेव पडिलेहे । तो विइयं पप्फोडे, तइयं च पुणो पमज्जिजा २४ अणञ्चाविअं अवलियं, अण्णायुबंधिं अमोसलिं चेव । छप्पुरिमा नव खोडा, पाणीपाणिविसोहण २५ । व्या०—मुखवस्त्रिका प्रतिलिख्य प्रतिलेखयेत् "गोच्छगं" पात्रकोपरिवर्ति उपकरणं, ततश्च 'गोच्छगलइअंगुलिमोत्ति' प्राकृतत्वाद| गुलिभिातो गृहीतो गोच्छको येन सोङ्ग लिलातगोच्छकः, 'वस्त्राणि पटलकरूपाणि 'प्रतिलेखयेत्' प्रस्तावात्प्रमाजयेदित्यर्थः ।। २३ ।। Fll इत्थं तथास्थितान्येव पटलानि गोच्छकेन प्रमृज्य पुनर्यत्कुर्यात्तदाह-'उर्च' कायतो बस्त्रतश्च, तत्र कायत उत्कुटुको वखतस्तु तिर्यप्रसा रितवस्त्रः । स्थिरं दृढग्रहणेन, 'अत्वरितं' अद्रुतं यथाभवत्येवं पूर्व प्रथमं 'ता इति' तावद् 'वस्त्र' पटलकरूपं जातावेकवचनं । अत्र च PGAVE AVEVAATEVA AVEVAVEGV Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतराध्य धनसूत्रम् ॥२४२॥ पटलकप्रक्रमेपि यद्वस्त्रमिति सामान्यशब्दाभिधानं तद्वर्षाकल्पादिप्रतिलेखनायामप्ययमेव विधिरिति ख्यापनार्थं 'एवशब्दो' भिन्नक्रम स्ततः प्रत्युपेक्षेतैव, आरतः परतश्च निरीक्षेतैव, न तु प्रस्फोटयेत् । तत्र च यदि जन्तून् पश्यति ततो यतनयाऽन्यत्र संक्रमयति । "तो इति” ततः प्रत्युपेक्षणानन्तरं द्वितीयमिदं कुर्यात्, किमित्याह - यत् शुद्धं सत् प्रस्फोटयेत् । तृतीयं च पुनरिदं कुर्यात्, 'प्रमृज्यात्' प्रत्युपेक्ष्य प्रस्फोठ्य च हस्तगतान् प्राणिनः प्रमृज्यादित्यर्थः ॥ २४ ॥ कथं पुनः प्रस्फोटयेत् प्रमृज्याद्वेत्याह- ' श्रनर्त्तितं ' वस्त्र ं वपुर्वा यथा नर्त्तितं न भवति । 'अवलितं' यथाऽऽत्मनो वस्त्रस्य च वलितं मोटनं न स्यात् । 'अननुबन्धि' अनुबन्धेन नैरन्तर्यरूपेण युक्तमनुबन्धि, न तथा अननुबन्धि, कोऽर्थो ? लक्ष्यमाणविभागं यथा भवति तथा । " अमोसलित्ति" सूत्रत्वादमर्शवत् तिर्यगूर्ध्वमधो वा कुड्यादिपरामर्शयुक्तं यथा न स्यात्तथा । किमित्याह–“ छप्पुरिमत्ति" पट् पूर्वाः, पूर्व क्रियमाणतया तिर्यक्कृतवस्त्रप्रस्फोटनात्मकाः क्रियाविशेषा येषां ते षट् पूर्वाः । नव खोटकाः प्रस्फोटनरूपाः कर्त्तव्या इति शेषः । पाणौ हस्ते प्राणिनां कुन्ध्यादीनां विशोधनं प्राणिविशोधनं, पाठान्तरे च प्राणिप्रमार्जनं प्रस्फोटनत्रिकत्रिकोत्तरकालं त्रिकत्रिकसंख्यं कर्त्तव्यम् ॥ २५ ॥ प्रतिलेखनादोषत्यागार्थमाह मूलम् — आरभडा सम्मद्दा, वज्जेव्वा य मोसली तइा । पप्फोडणा चउत्थी, विक्खित्ता वे छट्ठा पसिढिल- पलंब-लोला, एगामोसा गरूवधुणा । कुणइ पमाणि पमायं, संकिए गणगोवगं कुज्जा व्याख्या - " श्रारभडा " विपरितकरणं, त्वरितमन्यान्यवस्त्रग्रहणरूपा वा । यदुक्त:- "वितहकरणमारभडा, तुरिअं वा श्रन्नमन्नगहति" संमर्द्दनं संमर्दा, रूढित्वात् स्त्रीलिङ्गता, संमर्दा नाम वस्त्रान्तकोणसंवलनं', उपधेर्वा उपरि उपवेशनं वर्जयितव्येति सर्वत्र योज्यं । १ वस्त्रान्तको यानां परस्पर मेलनमिति दीपिकायाम् ॥ अध्य०२६ ॥२४२॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्यपनसूत्रम् ॥२४३॥ AAPARRRRR प्रामध्य०२६ ॥२४३॥ चः पूत्तौं, "मोसलित्ति" तिर्यगलमयो वा घट्टना, तृतीया । 'प्रस्फोटना' प्रकर्षेण रेणुगुण्ठितस्येव वस्त्रस्य फोटना चतुर्थी । विक्षेपणं विक्षिप्ता पञ्चमी, स्त्रीत्वं प्राग्वत , सा च प्रत्युपेक्षितवस्त्रस्याप्रत्युपेक्षिते प्रक्षेपणं, प्रत्युपेक्ष्यमाणो वा वस्त्राश्चलं यध्वं क्षिपति । वेदिका षष्ठी, सा च पञ्चविधा । यदाहुः-"वेइआ पंचविहा पणत्ता, तंजहा-उड्ढवेइबा १ अहोवेइबा २ तिरिअवेइमा ३ दुहनो वेइया ४ एगो या वेइमा ५ । तत्थ 'उड्ढवेइया' उपरि जाणुगाणं हत्थे काऊण पडिलेहेइ १ । 'अहोवेइया' अहो जाणुगाणं हत्थे काऊण पडिलेहेइ २ । 'तिरिअवेइया' संडासयाणं मज्झे हत्थे नेऊण पडिलेहेइ ३ । 'उभो वेइया' बाहाणं अंतरे दोवि जाणुगा काऊण पडिलेहेइ ४ । 'एगो वेइमा' एग जाणुगं बाहाणमन्तरे काऊण पडिलेहेइत्ति ५।" *एवमेते षडदोषाः त्याज्याः ॥ २६ ॥ तथा-'प्रशिथिलं' नाम दोषो यददृढमतिर्यगायतं वा वस्त्रं गद्यते, प्रलम्बो-यद्विपमग्रहणेन प्रत्युपेक्ष्यमाणवस्त्रकोणानां लम्बनं । लोलो-यद्भूमौ करे वा प्रत्युपेक्ष्यमाणवस्त्रस्य लोलनममीषां द्वन्द्वः । एकामर्शनमेकामर्शा, स्त्रीत्वं प्राग्वत् , मध्ये गृहीत्वा ग्रहणदेशं यावदुभयतो वस्त्रस्य यदेककालमाक पण । अनेकरूपा संख्यात्रयातिक्रमेण युगपदनेकवस्त्रग्रहणेन वा या धृनना-वस्त्रकम्पना साऽनेकरूपधूनना । तथा करोति 'प्रमाणे प्रस्फो|| टनादिसंख्यारूपे 'प्रमादम् ' अनवधानं । यच्च 'शङ्किते' प्रमादात्प्रमाणं प्रति शङ्कोत्पत्तौ गणना करांगुलिरेखास्पर्शनादिना एकद्वित्रिसंख्यारूपामुपगच्छतीति गणनोपगं यथा भवत्येवं प्रक्रमात्प्रस्फोटनादि कुर्यात्सोऽपि दोषः । सर्वत्र पूर्वसूत्रादनुवर्णं वजनक्रिया योज्या । एवं ___वेदिकायाः पंचभेदाः । ऊर्ध्ववेदिका १ अधोवेदिका २ तिरंगवेदिका ३ उभयवेरिका ४ एकवेदिका ५। ऊर्ध्ववेदिका सा यस्यां उभयोअन्विोपरि हस्तयो रक्षणम् १ । अधोवेदिका सा जान्योरधः प्रचुर हस्तयो रक्षणम् २ । तिर्यगवेदिका सा यस्यां तिर्यग् हस्तौ कृत्वा प्रतिलेखनम् ३ । उभयवेदिका सा यस्यां उभाभ्यां जानुभ्यां बाझे उभयोईस्तयो रक्षणम् ४ । एकवेदिका सा यस्यां एक जानु हस्तमध्ये अपर जानु बाझे रक्ष्यते । इति दीपिकायाम् ॥ NeedeuveseoveeeeeeeeeeeeeeeeY RRRRBARSसकर Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य- अध्य०२६ ॥२४४॥ यनसूत्रम् ॥२४४॥ AAGRAAAAAAAA चानन्तरोक्तदोषैर्युक्ता सदोषा प्रतिलेखना तैर्वियुक्ता तु निर्दोषत्यर्थादुक्तम् ॥ २७ ॥ साम्प्रतं त्वेनामेव भङ्गकदर्शनद्वारेण साक्षात्सदोषां नि- दोषां च किञ्चिद्विशेषतो वक्तुमाह| मूलम्-अणूणाइरित्तपडिलेहा, अविवच्चासा तहेव य । पढमं पयं पसत्थं, सेसाणि उ अप्पसत्थाणि २८ व्याख्या-ऊना चासावतिरिक्ता च ऊनातिरिक्ता, न तथा अनूनातिरिक्ता । इह च न्यूनताधिक्ये प्रस्फोटना प्रमार्जने, वेलां चाश्रित्य वक्तव्ये । “अविवच्चासत्ति" 'अव्यत्यासा' पुरुषोपधिविपर्यासरहिता', कायेंति शेषः । अत्र त्रिभिर्विशेषणपदेरष्टौ भङ्गाः सूचितास्तेषु च कः शुद्धः को वाऽशुद्धः ? इत्याह-'प्रथमं पदं' आद्यभङ्गकरूपमिहैवोपदर्शितं प्रशस्तं, शेषाणि तु सप्ताऽप्रशस्तानि* ॥ २८॥ निदोषामप्येनां कुर्वता यत्त्याज्यं तत्काक्वोपदेष्टुमाहमूलम्-पडिलेहणं कुणंतो, मिहो कहं कुणइ जणवय कहं वा । देइ व पच्चवखाणं, वाएइ सयं पडिच्छइ वा पुढवि उक्काए, तेउ वाऊ वणस्सइ तसाणं । पडिलेहणापमत्तो, छरहपि विराहो होइ ॥३०॥ 'पुढवी-आऊक्काए, तेऊ-बाऊ-वणस्सइतसाणं । पडिलेहणा आउत्तो, छण्हपि आराहो होइ ॥३१॥ व्या०-प्रतिलेखनां कुर्वन् मिथः कथां करोति, जनपदकथां वा, स्त्र्यादिकथोपलक्षणमेतत् , ददाति वा प्रत्याख्यानमन्यस्मै, वाचयति १ गुर्वाद रत्नाधिकस्य चोपधिं यथाक्रमं न प्रतिलेखयति, प्रातः सायं च रजोहरणादिकमुपधि वा यथोक्तस्थाने न प्रतिलेखयति, इत्येवं पुरुषव्यत्यय उपधिव्यत्ययश्च । स्थापना-555-155-515-115-551-151-SII-III एवमष्ट भंगा ॥ ३ एषा गाथा 'घ' संज्ञकपुस्तके न श्यते ।। EYECE-ENEeeeeeeeeeeeerent Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥२४५॥ परं, स्वयं प्रतीच्छति वा आलापादिकं गृह्णाति य इति शेषः ॥ २६ ॥ स किमित्याह – “पडिलहेणापमत्तोत्ति " मिथः कथादिना प्रतिलेखनायां प्रमत्तोऽनवधानः, षण्णामपि विराधको भवति । कथमिति चेदुच्यते-प्रमत्तो हि कुम्भकारशालादौ स्थितो जलभृतघटादिकमपि प्रलोठयेत्, ततस्तज्जलेन मृदग्निबीजकुन्थ्वादयः प्लाव्यन्ते, यत्र चाग्निस्तत्रावश्यं वायुरिति पण्णामपि विराधना । तदेवं प्रतिलेखनाकाले हिंसाहेतुत्वान्मिथः कथादीनि त्याज्यानि इति भावः ॥ ३० ॥ [ प्रतिलेखनायां प्रयुक्तः सावधानोऽप्रमादी साधुः पृथ्वीव्यादीनां परणामपि कायानां आराधको भवति ।। ३१ ।। ] इत्थं प्रथमपौरुषीकृत्यमुक्त, द्वितीयपौरुषीकृत्यं तु 'बीइअं भाणं श्रियइ' इत्यनेनोक्तमेव, उभयं चेदमवश्यं कर्त्तव्यं । अथ तृतीयपौरुषीकृत्यमपि किमेवमवश्यं कार्यमुत कारण एवोत्पन्ने ? इत्याशङ्कापोहार्थमाहमूलम् - इआए पोरिसीए, भत्तपाणं गवेसए । छण्हमन्नयरागंमि, कारणम्मि समुट्ठिए ॥ ३२ ॥ - वेवच्चे, इरिट्ठाए अ संजमट्ठाए। तह पाणवत्तित्राए, छट्ठ पुण धम्मचिंताए ॥ ३३ ॥ व्या॰—स्पष्टं नवरमौत्सर्गिकमेवेदं तृतीयपौरुषीभक्तपानगवेषणं, अन्यथा हि स्थविरकल्पिकानां यथाकालमेव भक्तादिगवेषणं । यदाहु: - " सइ काले चरे भिक्खु, कुज्जा पुरिसकारि ॥ श्रलाभुत्ति न सोइज्जा, तबुत्ति अहियास १ चि " । छरहमित्यादि - पण्णामन्यतरस्मिन् कारणे समुपस्थिते, न तु कारणं विनेति भावः ॥ ३२ ॥ कारणषट्कमेवाह – “ वेणत्ति " वेदनाशब्दस्योपलक्षणत्वात् क्षुत्पिपासावेदनाच्छेदनार्थं १ । “ वेश्रवच्चेत्ति " तुधादिबाधितो वैयावृत्त्यं कत्तु क्षमो न स्यादिति वैयावृत्त्याय २ । तथा ईर्यासमितिः सैवार्थस्तस्मै, चः समुच्चये, क्षुत्तृषाकुलस्य हि चतुर्भ्यामपश्यतोऽसौ दुष्करेति ३ । तथा 'संयमार्थाय ' संयमपालनं च यथा स्यादिति, आहारादिकमन्तरा हि कच्छ महाकच्छादीनामिव संयमो दुरनुपालः स्यादिति ४ । तथा ' प्राणप्रत्ययं ' प्राणत्राणहेतवे, अविधिना ह्यात्मनोऽपि अध्य०२६ ॥२४५।। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्ययनसूत्रम् ॥२४६॥ मध्य. २६ ॥२४६॥ eeVee VG VG Vergreen प्राणोप्रक्रमे हिंसा स्यात् ५ । षष्ठं पुनरिदं कारणं यदुत 'धर्मचिन्तायै' धर्मध्याननिमित्तं, क्षुषाधामस्य हि दुर्व्यानोपगतस्य क्व धर्मचि- | तेति तदर्थ भक्तपानं गवेषयेदिति सर्वत्रानुवर्त्यते ॥ ३३ ॥ अथ यैः कारणैर्भक्तादिग्रहणं न कुर्यात्तानि निर्देष्टुमाहया मूलम्-निग्गंथो धिइमंतो, निग्गंथी वि न करिज्ज छहिं चेव । ठाणेहिं तु इमेहि, अणतिक्कमणा य से होई ॥३४॥ आयके उवसग्गे, तितिक्खया बंभचेरगुत्तीप्सु । पाणिदया तवहेडं, सरीरवोच्छेअणट्ठाए व्याख्या-निर्ग्रन्थो 'धृतिमान् ' धर्मचरणं प्रति स्थैर्यवान् , 'निर्ग्रन्थी' साध्वी सापि, न कुर्याद्भक्तादिगवेषणमिति प्रक्रमः । षभिरेख स्थानः, 'तु:' पुनरर्थे एभिर्वक्ष्यमाणैः, कुतः ? इत्याह-"अणइक्कमणायत्ति" 'अनतिक्रमणं' संयमयोगानामनुल्लंघन, चशब्दो | यस्मादर्थे, ततो यस्मात् 'से' तस्य निर्ग्रन्थादेर्भवति, अन्यथा हि तदतिक्रमसम्भवः ॥ ३४ ॥ स्थानकषटकमाह-आतंके' ज्वरादौ १। 'उपसर्गे' दिव्यादौ, व्रतमोक्षाय स्वजनादिकृते वा २ । उभयत्र तन्निवारणार्थमिति गम्पते । तथा तितिक्षा-सहनं तया, क्वेत्याह-ब्रह्मचर्यगुप्तिषु विषये, ता हि मनोविप्लवोत्पत्तौ नान्यथा सोढ़ शक्या इति ३ । तथा "पाणिदयातवहेउंति" प्राणिदयाहेतोवर्षादौ अप्कायादिजीवरक्षायै ४ । तपश्चतुर्थादि तद्धेतोश्च ५ । शरीरव्यवच्छेदार्थ, उचितकालेऽनशनं कुर्वन् ६ । भक्तपानगवेषणं न कुर्यादिति योज्यम् ॥ ३५ ॥ भक्तादिगवेषयंश्च केन विधिना कियत्क्षेत्र पर्यटेदित्याह| मूलम्-अवसेसं भंडगं गिज्झा, चक्खुसा पडिलेहए । परमद्धजोषणाओ, विहारं विहरए मुणी ॥ ३६॥ व्याख्या-अपगतशेषमपशेषं समग्रमित्यर्थः, भाण्डकमुपकरणं गृहीत्वा चक्षुषा प्रत्युपेक्ष्येति शेषः, ततः प्रतिलेखयेत् । तच्चादाय परमु Eeeeeeeeeeeeee AN Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥२४७॥ त्कृष्टं अर्द्धयोजनादर्द्धयोजनमाश्रित्य परतो हि मार्गातीतमशनादि स्यात्, विहरत्यस्मिन्प्रदेशे इति विहारः - क्षेत्रं, तं विहरेन्मुनिः ॥ ३६ ॥ इत्थं विहृत्योपाश्रयं चागत्य गुर्वालोचनादिपूर्वं भोजनादि कृत्वा यत्कुर्यात्तदाह मूलम् - चउत्थीए पोरिसीए, निक्खवित्तारण भायणं । सज्झायं च तत्र कुज्जा, सव्वभावविभावर्णं ॥३७॥ पोरिसीएच उभाए, वंदित्तारण तो गुरु । पडिक्कमित्ता कालस्स, सिज्जं तु पडिलेहए ॥ ३८ ॥ पासवरणुच्चारभूमिं च, पडिले हिज्ज जयं जई । काउस्सग्गं तत्र कुज्जा, सव्वदुक्खविमोक्खणं ३६ व्याख्या – चतुर्थ्यां पौरुभ्यां ‘निक्षिप्य ' प्रत्युपेक्षणापूर्वं बध्वा 'भाजनं ' पात्रं, उपलक्षणत्वादुपधिं च प्रतिलिख्य, स्वाध्यायं ततः कुर्यात्, सर्वभावा - जीवादयस्तेषां विभावनं - प्रकाशकम् ।। ३७ ।। पौरुष्याः प्रक्रमाच्चतुर्थ्याश्चतुर्भागे शेषे इति शेषः, “सिज्जंति” 'शय्यां ' वसतिम् ||३८|| “पासवणुच्चारभूमिं चत्ति" प्रश्रवणभूमिमुच्चारभूमिं च प्रत्येकं द्वादशस्थण्डिलात्मिकां च शब्दात्काल भूमिं च स्थरिडलत्रयरूपां प्रतिलेखयेत्, 'यतम् ' आरम्भादुपरतं यथा स्यात्तथा यतिरिति सार्द्धसप्तदशत्रूत्रार्थः । इत्थं विशेषाद्दिनकृत्यमुक्त्वा रात्रिकृत्यं सार्द्धत्रयोदशमूत्रैराह । काउस्सग्गमित्यादि - " तयोति " ततः प्रश्रवणादिभूमिप्रति लेखनानन्तरम् ॥३६॥ कायोत्सर्गे स्थितश्च यत्कुर्यात्तदाह— मूलम् - देसि च अईआर, चिंतिज्ज अणुपुव्वसो । नाणे अ दंसणे चेव, चरितंमि तहेव य ॥४०॥ पारि काउस्सग्गो, वंदित्ताण तो गुरु ं । देसि तु आईआरं, आलोइज्ज जहक्कमं ॥४१॥ पक्किमित्त निस्सल्लो, वंदित्तारण तो गुरु । काउस्सग्गं तो कुज्जा, सव्वदुक्ख विमोक्खणं ॥४२॥ अध्य०२६ ॥२४७॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्यपनसत्रम् ॥२४॥ अध्य०२६ ॥२४॥ EeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeereCG पारिय काउस्सग्गो, वंदित्ताणं तओ गुरु । थुइमंगलं च काउं, कालं संपडिलेहए ॥४३॥ पढमं पोरिसि सज्झाय, विइ झाणं झिआयइ । तइआए निद्दमोक्खं तु, सज्झायं तु चउत्थीए ४४ ॥ व्याख्या-“देसिअंति" सूत्रत्वादेवसिकं, अतिचारं चिन्तयेद् ‘ानुपूर्व्या' क्रमेण प्रातः प्रतिक्रमणे प्रथममुखवत्रिकाप्रत्युपेक्षणादारभ्यामकायोत्सर्ग यावदित्यर्थः । किं विषयमतिचारं चिन्तयेदित्याह-ज्ञाने चेत्यादि । ४० ॥ पारितकापोत्सगों वन्दित्वा द्वादशाव-वन्द-|| नेन, 'तत' इत्यतिचारचिन्तनानन्तरं गुरुं । दैवसिकं, 'तुः' पूत्तौं, अतिचारम् 'आलोचयेत्' प्रकाशयेत् यथाक्रमम् ॥ ४१ ।। 'प्रतिक्रम्य अपराधस्थानेभ्यो निवर्त्य 'निःशल्यो' मायाशल्यादिरहितः “वंदित्ताणत्ति" सूचकत्वात्सूत्रस्य बन्दनकपूर्व क्षमयित्वा वन्दित्वा च गुरुवन्दनेन ततो गुरु', 'कायोत्सर्ग' चारित्रदर्शनज्ञानशुद्धिनिमित्तं व्युत्सर्गत्रयरूपं, जातावेकवचनम् ॥ ४२ ॥ "थुइमंगलंति" 'स्तुतिम गलं' सिद्धस्तवरूपं स्तुतित्रयरूपं च कृत्वा 'कालं' प्रादोषिकं सम्प्रत्युपेक्षते, कोऽर्थः ? प्रतिजागत्ति । उपलक्षणत्वाद्गहणाति च ॥ ४३ ।। | इदं व्याख्यातमेव पुनः कथनं त्वस्य पुनः पुनरुपदेष्टव्यमेव गुरुभिर्न प्रयासो मन्तव्य इति ख्यापनार्थम् ॥ ४३ ।। कथं पुनः चतुर्थपौरुष्यां | | स्वाध्यायं कुर्यादित्याह| मूलम्—पोरिसीए चउत्थीए, कालं तु पडिलेहिआ । सज्झायं तु तो कुज्जा, अबोहितो असंजए ४५ पोरिसीए चउब्भाए, वंदित्ताण तओ गुरु । पडिक्कमित्ता कालस्स, कालं तु पडिलेहए ॥४६॥ आगए कायवुस्सग्गे, सव्वदुक्खविमोक्खणे । काउस्सग्गं तो कुज्जा, सव्वदुक्खविमोक्खणं ४७ Neeeeee-YEU-NEEYEGYEENovee-ee-eavee Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसत्रम् ॥२४॥ NEVEEVEE VEE VEEVEE VEGVEGEVEG VEE राइ च अईआरं, चिंतिज अणुपुव्वसो । नाणम्मि दंसणम्मि, चरित्तम्मि तमि य ॥४८॥ अध्य०२६ पारिश्र काउस्सग्गो, वंदित्ताण तो गुरु । राइअं तु अईआरं, आलोएज्ज जहक्कम ॥४॥ ॥२४॥ पडिक्कमित्तु निस्सल्लो, वंदित्ताण तो गुरु । काउस्सग्गं तो कुज्जा, सव्वदुक्खविमोक्खणं ५० ॥ किं तवं पडिवज्जामि, एवं तत्थ विचिंतए । काउस्सग्गं तु पारित्ता, वंदई उ तो गुरु ॥५१॥ पारिश काउस्सग्गो, वंदित्ताण तो गुरु । तवं संपडिवज्जित्ता, करिज्ज सिद्धाण संथवं ॥५२॥ " व्या०-"कालंति" वैरात्रिकं कालं 'तुः' पूरणे 'प्रत्युपेक्ष्य' प्रतिजागर्य गृहीत्वा च स्वाध्यायं ततः कुर्याद् 'अबोधयन्' अनुत्थाप- Mel यन् असंयतान् ॥ ४५ ॥ पौरुष्याः प्रक्रमाच्चतुर्थ्याश्चतुर्भागेऽवशिष्यमाणे इति शेषः, वन्दित्वा ततो गुरु प्रतिक्रम्य 'कालस्य वैविकम्य 'कालं' प्राभातिकं 'तुः' पूत्तौं, “पडिलेहएत्ति" प्रत्युपेक्षेत गहणीयाच्च । इह च साक्षात्प्रत्युपेक्षणस्यैव पुनः पुनः कथनं बहतरविषयत्वात् । मध्यमक्रमापेक्षं चेह कालत्रयग्रहणमुक्तं, अन्यथा ह्य त्सर्गत उत्कर्षेण चत्वारो जघन्येन त्रयः कालाः, अपवादतश्चोत्कर्षेण दो जनन्येन त्वेकोऽप्यनुज्ञात एवेति । कालग्रहणविधिश्चेहावश्यकवृत्तेरवसेयः ॥ ४६॥ 'आगते' प्राप्ते 'कायव्युत्सर्गे। कायव्यत्सर्गर शेषं स्पष्टम । यच्चेह कायोत्सर्गस्य सर्वदुःखविमोक्षण इति विशेषणं पुनः पुनरुच्यते तदस्यात्यन्तनिर्जराहेतुत्वख्यापनार्थम् । यदक्तं-का स्सग्गे जह सुठ्ठिअस्स, भज्जति अंगमंगाई। इअ भिंदंति मुणिवरा, अहविहं कम्मसंघायं ॥१॥" तथेह कायोत्सर्गग्रहणेन चारित्रदर्शA नज्ञानशुद्धये कायोत्सर्गत्रयं गृह्यते, तत्र च तृतीये रात्रिकोऽतिचारश्चिन्त्यते ॥ ४७ ॥ तथा चाह-रात्रौ भवं रात्रिकं, 'चः' पूरणे, अति Peeeevesvesenere GESTER Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य मध्य०२६ ॥२५॥ यनसूत्रम् ॥२५०|| REYAYeeeeeeeeeeeeeeeeeeee चारं चिन्तयेत् "अणुपुवसोत्त" 'आनुपूर्व्या' क्रमेण ज्ञाने दर्शने चारित्रे तपसि चशब्दावीर्ये च, शेषकायोत्सर्गेषु तु चतुर्विशतिस्तवचिन्तनं प्रतितमेवेति नोक्तम् ।। ४८ ॥ ततश्च-"वंदित्ताणत्ति" बन्दनकपूर्व चमयित्वा ततो वन्दित्वेति द्रष्टव्यम् ॥ ४६ ॥५०॥ कायोत्सर्गस्थः किं कुर्यादित्याह-किं रूपं तपो नमस्कारसहितादि प्रतिपद्येऽहमेवं तत्रोत्समें विचिन्तयेत् । वीरो हि भगवान् षण्मासानिरशनो विहृतवान् तकिमहमपि निरशनः शक्तोऽस्म्येतावन्तं कालं स्थातुमुत नेति ? एवं पञ्चमासाद्यपि यावन्नमस्कारसहितं तावत्परिभावयेत् ॥५१॥ पूर्वसत्रोत्तरार्दोक्तमर्थमनुवदन् सामाचारीशेषमाह-नवमित्यादि-तपो यथाशक्ति चिन्तितं सम्प्रतिपद्य कुर्यात् सिद्धानां संस्तवं स्तुतित्रयरूपं, तदनु च यत्र चैत्यानि सन्ति तत्र तद्वन्दमं विधेयमिति सार्द्धत्रयोदशसूत्रार्थः ।। ५२ ॥ अथाध्ययनार्थोपसंहारमाहमूलम-एसा सामायारी, समासेण विहाइआ । जं चरित्ता बहू जीवा, तीण्णा संसारसागरंति बेमि ५३ व्या०-"विश्राहिअत्ति" 'व्याख्याता' कथिता यां 'चरित्वा' ऽऽसेव्येति सूत्रार्थः ॥ इति ब्रवीमीति प्राग्वत् ॥ ५३ ।। AAAAAAheeeeeeee Busardrurtalsexsisaix axeferesturassic * इति श्रीतपागच्छीयमहोपाध्याय श्रीविमलहर्षगणिशिष्यमहोपाध्याय श्रीमुनिविमलगणिशिष्योपाध्याय3 श्रीभावविजयगणिसमर्थितायां श्रीउत्तराध्ययनसूत्रवृत्तौ पडिवशमध्ययनं सम्पूर्णम् ॥२६॥ FA-AHARApngprapPAHARAHATARRIAAIGApparaspiry Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥२५॥ अध्य०२७ २५॥ EEEEEVE Vereeeveereveevee ॥अथ सप्तविंशमध्ययनम् ॥ ॥अहं ।। उक्तं षड्विंशमध्ययनं, सम्प्रति खलुकीयाख्यं सप्तविंशमारभ्यते । अस्य चायं सम्बन्धोऽनन्तराध्ययने सामाचारी प्रोक्ता, al सा चाशठतयैव पालयितुं शक्या, सापि तद्विपक्षभूतशठतात्यागेनैव स्यादितीह दृष्टान्त द्वारा शठतास्वरूपं निरूप्यते । इतिसम्बन्धस्यास्येद मादि सूत्रम् ॥ मूलम्-थेरे गणहरे गग्गे, मुणी आसि विसारए । आइएणे गणिभावंमि, समाहिं पडिसंधए ॥१॥ व्याख्या-धर्मे अस्थिरान् स्थिरीकरोतीति स्थविरः, गणं-गुणसमूहं धारयतीति गणधरो 'गों' गर्गनामा, मुणति-प्रतिजानीते सर्व- || CIL सावधविरतिमिति मुनिः, आसीदभूत , 'विशारदः' सर्वशास्त्रेषु कुशलः, 'आकीर्ण' आचार्यगुणैातः, 'गणिभावे' प्राचार्यत्वे स्थित इ. ति शेषः । स 'समाधि' चित्तसमाधानरूप 'प्रतिसन्धत्ते' कुशिन्यैखोटितमपि संघटयत्यात्मन इति गम्यमिति सूत्रार्थः ॥ १॥ स च स| माधि सन्दधत् यत् परिभावयति तदाहमूलम्-वहणे वहमाणस्स, कंतारं अइवत्तइ । जोए वहमाणस्स, संसारं अइवत्तइ ॥२॥ खलुके जो उ जोएइ, विहम्माणो किलिस्सइ । असमाहिं च वेदेति, तोत्तो से य भज्जइ ॥३॥ एगं डसइ पुच्छंमि, एगं विंधइऽभिक्खणं । एगो भंजइ समिलं, एगो उप्पहपट्टिओ ॥४॥ एगो पडइ पासेणं, निवेसइ निवज्जइ । उक्कुदइ उप्फिडइ, सढे बालगवी वए ॥५॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपराज्ययनस्त्रम् ॥२२॥ अध्य०२७ ॥२५२॥ MADARARIAARAARAAAAAAAPARAN माई मुद्धे ण पडइ, कुद्धे गच्छइ पडिपहं । मयलक्खेण चिट्ठाइ, वेगेण य पहावइ ॥ ६ ॥ छिण्णाले छिएणई सल्लिं, दुइते भंजई जुगं । सेवि अ सुस्सुअआइत्ता, उज्जहित्ता पलायइ ॥७॥ व्याख्या- वहने' शकटादौ "वहमाणस्सत्ति" अन्तर्भावितणिगर्थतया वाहयमानस्य पुरुषस्य उत्तरत्र खलुकग्रहणादिह विनीतगवादिमिति गम्यते, कान्तारमतिवर्तते सुखातिवर्त्यतया स्वयमेवातिक्रामतीति । दृष्टान्तोपनयमाह-योगे' संयमव्यापारे 'वाहयमानस्य' प्रवर्सयतः आचार्यादेः सुशिष्यानिति गम्यते, 'संसारोऽतिवर्तते' स्वयमेवातिक्रामति । तद्विनीतत्वदर्शनादात्मनो विशेषतः समाधिसम्भवादिति भावः ॥ २ ॥ एवमात्मनः समाधिसन्धानाय विनीतस्वरूपं परिभाव्य स एवाऽविनीतस्वरूपं यथा परिभावयति तथाह-'खलुङ्कान्' गलिवृषभान् यः, तुर्विशेषणे, योजयति वहने इति प्रक्रमः, स किमित्याह-"विहम्माणोत्ति" 'विध्यमानः' ताडयन् क्लिश्यते, अत ए. वासमाधि वेदयति 'तोत्रकः' प्राजनकः 'से' तस्य खलुङ्कयोजयितुर्भज्यते ॥३।। ततश्चातिरुष्टः सन् स यत्करोति तदाह- एक 'दशति' दशनैर्भक्षयति पुच्छे, एकं विध्यत्यारया तुदति 'अभिक्षण' पुनः पुनः, ततस्ते किं कुर्वन्तीत्याह-एको भनक्ति समिला' युगरन्ध्रकीलिका, एक उत्पथप्रस्थितो भवतीति शेषः ॥ ४॥ एकः पतति 'पान' गात्रकविभागेन, 'निविशति' उपविशति, “निवज्जइत्ति" शेते, 'उत्कूदैति' उर्व गच्छति, “उप्फिडइत्ति" मण्डूकवत् प्लवते, शठो 'बालगवीम् ' अवृद्धां धेनु "वएत्ति" 'व्रजेत् ' तदभिमुखं धावेत् , एक इति सर्वत्र गम्यते ॥ ५ ॥ अन्यस्तु मायी 'मूर्ना' मस्तकेन पतति निःसत्त्वमिव स्वं दर्शयन् , क्रुद्धः सन् गच्छति 'प्रतिपथं' पश्चालित इत्यर्थः, 'मूतलक्षण' मृतव्याजेन तिष्ठति, कथञ्चित्सज्जितस्तु वेगेन प्रधावति, यथा द्वितीयो गौर्गन्तु न शक्नोति तथा याति इत्यर्थः ।।६।। 4 'छिनालः' तथाविधदुष्टजातिः कश्चिच्छिनत्ति "सल्लिति" रज्जु, दुर्दान्तो भनक्ति युगं, सोऽपि च युगं भक्त्वा "सुस्सुमाइत्तति" HEACaretendeeeeeeeeeeeNeere Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०२७ ॥२५॥ उचराध्य- सूत्कारान् कृत्वा " उज्जहित्तत्ति" प्रेय स्वामिनमिति शेषः, 'पलायते' अन्यतो धावतीति सूत्रषट्कार्थः ॥ ७ ॥ इत्थं दृष्टान्तं परिभाव्य | यनसूत्रम् दाान्तिकं यथाऽसौ परिभावयति तथाह॥२५३॥ मूलम्-खलुका जारिसा जोज्जा, दुस्सीसाऽवि हु तारिसा । जोइआ धम्मजाणम्मि, भज्जति धिइदुब्वला ८ व्याख्या-खलुका यादृशा योज्या दुःशिष्या अपि तादृशा एव, हुरेवकारार्थोऽत्र योज्यः । कुत इत्याह-यतो योजिता धर्मयाने भिज्य||न्ते'न सम्यक प्रवर्त्तन्ते, "धिइदुब्बलत्ति" आपत्वाद् 'दुर्बलधृतयः' कृशस्थैर्या धर्मानुष्ठाने इति गम्यम् ॥८॥धृतिदौर्बल्यमेव स्पष्टयितुमाहमूलम् इड्डीगारविए एगे, एगेऽत्थ रसगारवे । सायागारविए एगे, एगे सुचिरकोहणे ॥ ६ ॥ भिक्खालसीए एगे, एगे ओमाणभीरुए थद्धे । एगं च अणुसासम्मि, हेऊहिं कारणेहि अ॥१०॥ सोवि अंतरभासिल्लो, दोसमेव पकुव्वइ । आयरिआणं तं वयणं, पडिकूलेइ अभिक्खणं ॥११॥ न सा ममं विआणाइ, नवि सा मज्झ दाहिइ । निग्गया होहिई मन्ने, साहू अन्नोऽत्थ वच्चउ १२ पेसिआ पलिउंचंति, ते परियति समंतओ। रायविटुिं व मन्नंता, करिंति भिउडिं मुहे ॥१३॥ वाइआ संगहिआ चेव, भत्तपाणेण पोसिआ । जायपक्खा जहा हंसा, पक्कमति दिसोदिसं १४ व्याख्या-ऋध्या गौरवं ऋद्धिमन्तः श्राद्धा मे वश्याः सम्पद्यते च चिन्तितमुपकरणादि इत्याद्यात्मबहुमानरूपं ऋद्धिगौरवं तदस्या 9AAPAANAARADARPAAAAAAAPAANA Ye-ve-ve-Neeveeeeeeeeeeeeeee Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य अध्य०२७ ॥२५४॥ पनसत्रम् ॥२५४॥ veeeeeeeeeeeeeeeeeeeee स्तीति ऋद्धिगौरविक एको नास्मन्नियोगे प्रवर्त्तते । एकोनेति कुशिष्याधिकारे, रसेषु मधुरादिषु गौरवं यस्य स रसगौरवो ग्लानाद्याहारदानतपसोर्न प्रवर्तते । सातगौरविक एकः, सुखप्रतिबद्धो नाऽप्रतिबद्धविहारादौ प्रवर्तते । एकः सुचिरक्रोधनो दीर्घरोषतयैव कृत्येषु न प्रव र्तते ॥६॥ 'भिक्षालसिको' भिवालस्यवानेको न गोचराग्रं गच्छति, एकोऽपमानभीरुर्भिवां भ्रमन्नपि न यस्य तस्यैव गृहे प्रवेष्टुमीहते, || 'स्तब्धो' ऽहङ्कारवान्न निजकुग्रहान्नमयितुं शक्य एक इति शेषः, एकं च दुःशिष्यं "अणुसासम्मित्ति" अनुशास्मि अहं हेतुभिः कारणै चोक्तरूपैः ॥१०॥ सोऽप्यनुशिष्यमाणः कुशिष्यः "अंतरभासिल्लोति" 'अन्तरभाषावान् ' गुरुवाक्यान्तराल एव स्वाभिमतभाषको 'दोAll पमेव" अपराधमेव प्रकरोति न त्वनुशिष्यमाणोऽपि तद्विच्छेदमिति भावः । आचार्याणां सतामस्माकं 'तद्वचनं' शिवावचनं 'प्रतिकूलय ति' विपरीतं करोति कुयुक्तिभिरभीक्ष्णम् ॥ ११ ॥ कथमित्याह-नसा मां विजानाति, अयं भावः-अमुकस्याः श्राविकापा गहात् ग्लानाद्यथं पथ्याद्यानीयतामिति कदाचिदस्माभिरुक्तोऽप्यसौ शाख्य नोत्तरमाह-न सा मां प्रत्यभिजानाति, नापि सा मद्य दास्यति पथ्यादीति | शेषः, यदि वा निर्गता गृहात्सा भविष्यतीति मन्ये, इति वक्ति । अथवा साधुरन्योऽत्रास्मिन् कार्ये व्रजतु, किमहमेवैकः साधुरस्मीत्यादि ब्रूते । ॥ १२ ॥ अन्यच्च-प्रेषिताः क्वचित्कार्ये "पलिउंचिंतित्ति" तत्कार्य कुतो न कृतमिति पृष्टाः सन्तोऽपहनवते, कदा वयमुक्ताः ? गता || वा तत्र वयं न त्वसौ दृष्टेति । ते कुशियाः “परियंति" पर्यटन्ति 'समन्ततः' सर्वासु दिनु न त्वस्मत्पाचे तिष्टन्ति मा कदाचिदेषां कि| श्चित्कृत्यं कर्त्तव्यं भविष्यतीति । कथञ्चित्कत प्रवर्तितास्तु राजवेष्टिमिव मन्यमानाः कुर्वन्ति भ्रकुटि मुखे । सकलवपुर्विकारोपलक्षणमेतत् ॥ १३ ॥ अपरञ्च-"वाचिताः" सूत्रं पाठिताः, उपलक्षणत्वाचदर्थं च ग्राहिताः । 'संगहीताः परिगहे कृताः, चशब्दाद्दीक्षिताः स्वयमिति गम्यते, 'एवेति' पूरणे ।भक्तपानेन पोषिताः। तथापि जातपक्षाः यथा हंसास्तथैव प्रक्रामन्ति 'दिशोदिर्श' दिशि दिशि यदृच्छाविहारिणो भव VEGVEGVEEVEEVEEVALAJAVEETELAVE Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्ययनसूत्रम् ॥२५॥ BEGEGEVEEVEE EVEVEEVESVETE न्तीत्यर्थः । प्रागेकप्रक्रमेऽपि यदिह बहूनामभिधानं तदीदृशां बहुत्वख्यापनार्थमिति सूत्रषट्कार्थः ॥ १४ ॥ इत्थं कुशिष्यस्वरूपं विचिन्त्य तैरेवासमाधि खेदं च प्रापितो यदसौ चक्रे तदाह अध्य०२७ मूलम्-अह सारही विचिंतेइ, खलु केहिं समागओ। किं मज्झ दुट्ठसीसेहि, अप्पा मे अवसीअइ ॥१५॥ |||| ॥२५॥ ____ व्याख्या-'अथेति' पूर्वोक्तचिन्तानन्तरं सारथिरिव सारथिर्द्धमयानस्येति प्रक्रमः, गर्गाचार्यो विचिन्तयति, 'खलुकै" ,कुशिष्यैः 'समागतः संयुक्तः किं ? न किञ्चिदित्यर्थः, मम प्रयोजनं सिध्यतीति शेषः, दुष्टशिष्यैः प्रक्रमात्प्रेरितैः केवलमात्मा 'मे' ममाऽवसीदति, एतत्प्रेरणाव्यग्रतया स्वकार्यहानेस्ततो वरमेतत्त्यागत उद्यतविहारेण विहृतमिति भावः ॥१५॥ अथ तत्प्रेरणान्तराले स्वकार्यमपि किं न क्रियते ? इत्याहमूलम्-जारिसा मम सीसा उ, तारिसा गलिगद्दहा । गलिगदहे चइत्ताणं, दढं पगिण्हई तकं ॥१६॥ व्या०-यादृशाः मम शिष्याः 'तुः पूरणे तादृशा गलिगर्दभा यदि पराभवेयुरिति गम्यते, न त्वन्यः कोप्येषामौपम्यं लभते इति भाका, गई। भग्रहणमतिकुत्साख्यापकं, ते हि स्वरूपतोऽप्यतिप्रेरणयैव प्रवर्त्तन्ते, ततस्तत्प्रेरणयैव कालोऽतिक्रामति, न तु तदन्तरालसम्भव इति भावः ।। यतश्चैवमतो गलिगईभान् गलिगर्दभसन्निभान् दुरिशष्यान त्यक्त्वा 'दृढं' बाढं प्रगृह्णाति गर्गाचार्यस्तपोऽनशनादीति ॥१६॥ एतदेवाहमूल-मिउ मद्दवसंपन्ने, गम्भीरे सुसमाहिए । विहरइ महिं महप्पा, सील एण अप्पणत्ति बेमि १७ ॥ व्या०—'मृदुः' बहिवृत्त्या विनयवान् , 'माईवसम्पन्नो मनसापि तादृश एव, 'गम्भीरो' ऽलब्धमध्यः, 'सुसमाहितः सुप्दुसमाधिमान् , विहरति महीं महात्मा शीलं-चारित्रं भूतः प्राप्तः शीलभूतस्तेनात्मना उपलखितो यतश्चैवं खलुङ्कताऽऽत्मनो गुरूणां च इहै- 1 वासमाधिहेतुरतस्तां विहायाशठतैव सेवनीयेत्यध्ययनतवार्थः ॥ इति ब्रवीमीति प्राग्वत् ॥१७॥ eveer Geveeeeevee VEGVEGVEY Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥२५६॥ अध्य०२८ ॥२५६॥ ॥अथ प्रस्ताविंशमध्ययनम् ॥ ॥अहं ॥ उक्तं सप्तविंशमध्ययनमथ मोक्षमार्गगत्याख्यमष्टाविंशमारभ्यते । अस्य चायं सम्बन्धोऽनन्तराध्ययने शठतात्यागेनाशठता | स्वीकार्येत्युक्त', अशठेन च सुप्रापैव मोक्षमार्गगतिरिति तदभिधायकमिदं प्रस्तूयते, इति सम्बन्धस्यास्येदमादि सत्रम् ॥ मूलम् -मोक्खमग्गगई तच्चं, सुणेह जिणभासिअं। चउकारणसंजुत्तं, नाणदंसणलक्खणं ॥१॥ व्याख्या-मोक्षः-सकलकर्मक्षयः तस्य मार्गों-ज्ञानादिरूपो मोक्षमार्गस्तेन गतिः-सिद्धिगमनरूपा मोक्षमार्गगतिस्तां कथ्यमानामिति गम्यं, 'तथ्यां' सत्यां शृणुत जिनभाषिताम् । चत्वारि कारणानि वक्ष्यमाणानि ज्ञानादीनि तैः संयुक्ता चतुष्कारणसंयुक्ता तां । ननु अमूनि चत्वारि कारणानि कर्मक्षयलक्षणस्य मोक्षस्यैव, गतेस्तु तदनन्तरभावित्वात् कथं चतुष्कारणवतीत्वमस्याः ? उच्यते-न्यवहारतः कारणकारणस्यापि कारणत्वभिधानात् । तथा ज्ञानदर्शने-विशेषसामान्योपयोगरूपे लक्षणे यस्याः सा तथा तामिति सूत्रार्थः ॥१॥ यदुक्तं मोक्षमार्गगतिं शृणुतेति, तत्र मोक्षमार्ग तावदाह मूलम्–णाणं च देसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा । एस मग्गुत्ति पएणत्तो, जिणेहिं वरदसिहि ॥२॥ II व्या०-'ज्ञान' ज्ञानावरणीयकर्मक्षयक्षयोपशमाविर्भूतं सम्यक ज्ञानं मत्यादिभेदं, 'दर्शन' दर्शनमोहनीयक्षयक्षयोपशमोपशमसमुत्थमहंदुक्त जीवादितत्त्वरुचिरूपं क्षायिकादिभेदं, 'चारित्रं' चारित्रमोहक्षयादिसम्भवं सामायिकादिभेदं सदसत्क्रियाप्रवृत्तिनिवृत्तिरुपं, 'तपो' बाह्याभ्य|| न्तरभेदभिन्न जिनोक्तमेव । सर्वत्र चकारस्तथेति चः समुच्चये, समुच्चयश्च ह समुदितानामेषां मुक्तिमार्गत्वख्यापकः । एष मार्ग इति प्रनतो SPAAAAA eveeeeeeeeeeeeeeeeee Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥२५७|| अध्य०२८ ॥२५७॥ | जिनवरदर्शिभिः । अत्र च चारित्रान्तर्गतत्वेऽपि तपसो भेदेनोपादानं अस्यैव कर्मवपणं प्रति परमकारणत्वसूचकमिति सूत्रार्थः ॥२॥ अथास्यैवानुवादद्वारेण फलं दर्शयितुमाहमूलम्-नाणं च दंसण चेव, चरित्तं च तवो तहा । एअं मग्गमणुपत्ता, जीवा गच्छंति सोग्गइं ॥३॥ व्याख्या-"एअंति" एतमनन्तरोक्त मार्ग 'अनुप्राप्ता' आश्रिता जीवा गच्छन्ति 'सुगति' मुक्तिरूपामिति सूत्रार्थः॥३॥ ज्ञानादीन्येव क्रमेणाभिधातुमाहमूलम्-तत्थ पंचविहं नाणं, सुन आभिणिबोहि। ओहिणाणं च तइ, मणनाणं च केवलं ॥४॥ व्या०-'तत्र' तेषु ज्ञानादिषु मध्ये 'पञ्चविधं' पञ्चप्रकारं ज्ञानं, के ते पञ्चप्रकाराः ? इत्याह-'श्रुतं' श्रुतज्ञानं, 'आभिनिबोधिकं' मतिज्ञानं, अवधिज्ञानं तृतीयं, "मणनाणंति" मनःपर्यायज्ञानं, 'च:' समुच्चये भिन्नक्रमस्ततः केवलं चेति । आह-नन्द्यादौ मतिज्ञानानन्तरं श्रतमुक्तं तदिहादौ कुतः श्रुतोपादानं ? उच्यते । शेषज्ञानानामपि स्वरूपज्ञानं प्रायः श्रताधीनमिति तस्य प्राधान्यख्यापनार्थ पूर्व तदुपादानमिति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ अथ ज्ञानस्य विषयमाहमूलम्-एन पंचविहं नाणं, दव्वाण य गुणाण य। पज्जावाणं च सव्वेसि, नाणं नाणीहिं देसि ॥५॥ ___ व्या०-एतत्पञ्चविधं ज्ञानं द्रव्याणां च जीवादीनां, गुणानां च सहभाविनां रूपादिनां, पर्यवाणां च क्रमभाविनां नवत्वपुराणत्वादीनां द्रव्यगुणावस्थाविशेषरूपाणां सर्वेषां केवलज्ञानापेक्षया चेह सर्वशब्दोपादानं. शेषज्ञानानां प्रतिनियतपर्यायग्राहित्वात् । "नाणंति" ज्ञायतेऽनेनेति 'ज्ञानं' अवबोधकं ज्ञानिभिरर्थात्केवलिभिः 'देशितं' कथितम् ॥ ५॥ अनेन द्रव्यादिकं ज्ञानस्य विषय इत्युक्तं तत्र द्रव्यादिः eeeeeeeeeeeeeeeeeee Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य- किं लक्षणमित्याह मध्य०२८ यनसूत्रम् का मूलम्-गुणाणमासओ दव्वं, एगदव्वस्सिमा गुणा । लक्खणं पज्जावाणं तु, उभो अस्सिा भवे ॥६॥ ||2|| ॥२८॥ २५८ व्याख्या-गुणानामाश्रयो द्रव्यं, अनेन रूपादय एव वस्तु न तद्व्यतिरिक्तमन्यदस्तीति सुगतमतमपास्तं । तथा एकस्मिन् द्रव्ये आधा- का का रभृते आश्रिताः-स्थिता एकद्रव्याश्रिता गुणाः, एतेन तु ये द्रव्यमेवेच्छन्ति न तद्व्यतिरिक्तान् रुपादींस्तन्मतमवमतं । लक्षणं पर्यवाणां तु पुनः उभयोयोः प्रक्रमाद्र्व्यगुणयोराश्रिताः " भवेत्ति " भवेयुः ॥ ६॥ गुणानामाश्रयो द्रव्यमित्युक्त तत्र द्रव्यं कतिभेदमित्याह- l मूलम्-'धम्मो 'अहम्मो 'आगासं, 'कालो पोग्गल-जंतवो । एस लोगुत्ति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदंसिहि । व्या-'धर्मो' धर्मास्तिकायः, 'अधर्मो ऽधर्मास्तिकायः, 'आकाशम्' आकाशास्तिकायः, 'कालो' अद्धा समयाद्यात्मकः, पुद्गलजन्तवः इति पुद्गलास्तिकायो जीवास्तिकायश्च, एतानि द्रव्याणि ज्ञेयानीत्यध्याहारः । अत्र प्रसङ्गाल्लोकस्वरुपमप्याह-एषो' अनन्तरोक्तद्रव्य समूहो लोक इति प्रज्ञप्तो जिनैर्वरदर्शिभिः ॥ ७ ॥ धर्मादीन्येव द्रव्याणि भेदत आह2 मूलम्-धम्मो अहम्मो आगसं, दव्वं इक्किक्कमाहि। अणंताणि अदव्याणि, कालो पुग्गलजंतवो ॥८॥ व्या०–धर्मः अधर्म आकाशं द्रव्यमेकैकमाख्यातं जिनैरिति शेषः, अनन्तानि च पुनद्रव्याणि कालः पुद्गलजन्तवश्च । कालस्य चान- | न्त्यमतीतानागतापेक्षयेति ॥ ८॥ द्रव्याणां लक्षणान्याहमूलम् गइलक्खणो उ धम्मो, अहम्मो ठाणलक्खणो । भायणं सव्वव्वाणं, नहं ओगाहलक्खणं है। NAVEVENTEEVEEVAGE FEVEY Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०२७ ॥२५॥ .. व्या०-गतिर्देशान्तरप्राप्तिः सा लक्षणमस्येति गतिलक्षणः, 'तुः पूत्तौं, 'धर्मो' धर्मास्तिकायः। अधर्मोऽधर्मास्तिकायः स्थानंउत्तराध्य HAस्थितिस्तल्लक्षणः । अयं भावः-स्वत एव गमनं प्रति प्रवृत्तानां जीवपुद्गलानां गत्युपष्टम्भकारी धर्मास्तिकायः, स्थितिपरिणतानां तु तेषां यनसूत्रम् स्थितिक्रियोपकारी अधर्मास्किाय इति । 'भाजनम् ' आधारः, सर्वव्याणां 'नभः' आकाशं, अवगाहो-अवकाशस्तल्लक्षणं । जीवादीनाम॥२५॥ वगाढुं प्रवृत्तानां अवकाशदमाकाशमिति भावः ॥ ४ ॥ मूलम्-वत्तणालक्खणो कालो, जीवो उवोगलक्खणो । नाणेणं दंसणेणं च, सुहेण य दुहेण य १० ___व्या०-वर्तन्ते भवन्ति भावास्तेन तेन रूपेण तान्प्रति प्रयोजकत्वं वर्तना, सा लक्षणमस्येति वर्तनालक्षणः कालो द्रुमादिपुष्पो - दादिनयत्यहेतुः । 'जीवो' जन्तुरुपयोगो-मतिज्ञानादिलक्षणमस्येत्युपयोगलक्षणः, अत एव 'ज्ञानेन' विशेषग्राहिणा 'दर्शनेन च' सामान्यविषयेण सुखेन दुःखेन च लक्ष्यत इति गम्यते ॥ १० ॥ अथ शिष्याणां दृढतरसंस्कारार्थमुक्तं लक्षणमनूय लक्षणान्तरमाहमूलम्-नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा । वीरिअं उवओगो अ, एअं जीवस्स लक्खणं ॥११॥ ___ व्याख्या-“वीरिअंति" 'वीर्य' सामर्थ्य, 'उपयोगो' अवहितत्त्वं, एतत् जीवस्य लक्षणं । अनेन हि जीवोऽनन्यसाधारणतया लक्ष्यते ॥ ११ ॥ अथ पुद्गललक्षणमाहमूलम्-सद्द धयार उज्जोओ, पहा छायाऽऽतवेइ वा । वरण-रस-गंध-फासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं १२ व्या०-शब्दो-ध्वनिः, अन्धकारो-ध्वान्तं, उभयत्र सुपो लुप् । 'उद्योतो' रत्नादिप्रकाशः, 'प्रभा' चन्द्रादिरुचिः, छाया-शैत्यगुN णा , आतपस्तपनबिम्बजोष्णप्रकाशरूपः, 'इति' शब्द आद्यर्थस्ततश्च सम्बन्धमेदादीनां परिग्रहः, वा समुच्चये । तथा वर्ण:-कृष्णादिः, रस EVEEVEE VS VERLEVeveeve VEGVEGTEREY PEVE TE LEE EEEVELEVATELEV Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतराध्य यनसूत्रम् ॥२६०॥ स्तिक्तादिः, गन्धः—सुरभिप्रभृतिः, स्पर्शः - शीतादिरेषां द्वन्द्वः । ' पुद्गलानां' स्कन्धादीनां तु पुनर्लक्षणं, एभिरेव तेषां लक्ष्यत्वादिति ॥ १२ ॥ द्रव्यलक्षणमुक्त्वा पर्यायलक्षणमाह मूलम् — एगत्तं च पुहत्तं च, संखा संठारणमेव य । संजोगा य विभागा य, पज्जवाणं तु लक्खणं ॥१३॥ व्या० – 'एकत्वं' भिन्नेष्वपि परमाण्वादिषु यदेकोयं घटादिरिति प्रतीतिहेतुः, 'पृथक्त्वं च ' श्रयमस्मात्पृथगिति प्रत्ययनिमित्तं, 'संख्या' यत एको द्वौ त्रय इत्यादिका प्रतीतिर्जायते, 'संस्थानं' परिमण्डलोऽयमित्यादि बुद्धिनिबन्धनं, 'एवः' पूत 'चः' समुच्चये संयोगा अयमंगुल्योः संयोग इत्यादिव्यपदेशहेतवः, विभागाश्वायमितो विभक्त इतिमतिहेतवः, उभयत्र व्यक्त्यपेक्षया बहुवचनं, उपलक्षणत्वानवपुराणत्वादीनि च पर्यवाणां 'तुः ' पूर्वौ, लक्षणं । गुणानां तु रूपादीनामतिप्रतीतत्वाल्लक्षणं नोक्तमिति सूत्रनवकार्थः ॥ १३ ॥ इत्थं स्वरूपतो विषयतश्च ज्ञानमभिधाय दर्शनमाह मूलम् - जीवाऽजीवा य बंधो अ, पुरणं पावासवो तहा । संवरो निज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव १४ - व्या० - जीवाः प्रतीताः, 'अजीवा' धर्मास्तिकायादयः, 'बन्धश्च' जीवकर्मणोः संश्लेषः, 'पुण्यं' शुभप्रकृतिरूपं सातादि, 'पापम्' अशुभप्रकुतिरूपं मिथ्यात्वादि, 'याश्रवः' कर्मोपादानहेतुहिंसादिः, पुण्यादीनां द्वन्द्वः । तथेति समुच्चये, 'संघरो' महाव्रतादिभिराश्रवनिरो'धः, 'निर्जरा' विपाकात्तपसो वा कर्मपरिशाटः, 'मोक्षः ' सकलकर्मक्षयलक्षणः, सन्त्येते तथ्या नत्र भावा इति शेषः ॥ १४ ॥ यद्यमी तथ्यास्ततः किमित्याह - अध्य०२८ ॥२६०॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥२६॥ PARBARICRADIATRISRANADA मूलम्-तहिआणं तु भावाणं, सब्भावे उवएसणं । भावेण सद्दहंतस्स, संमत्तं ति विश्राहि ॥१५॥ अध्य०२८ व्या. तथ्यानां तु 'भावानां' जीवादीनां 'सद्भावे' सद्भावविषयमवितथसत्ताभिधायकमित्यर्थः, 'उपदेशनं' गुर्वादीनामुपदेशं ॥२६॥ 'भावेन' अन्तःकरणेन 'श्रद्दधतः । तथेति प्रतिपद्यमानस्य जन्तोः 'सम्यक्त्वं' सम्यक्त्वमोहनीयक्षयादिसमुत्थात्मपरिणामरूपं 'तदिति' जीवादिभावश्रद्धानं 'व्याख्यातं' विशेषेणाख्यातं, जिनैरिति गम्यत इति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ एवं सम्यक्त्वस्वरूपमुक्त्वा तद्भेदानाह"निस्सग्गु वएसरुई, आणारुइ सुत-'बीअरुइमेव । 'अभिगम वित्थाररुइ, 'किरिया संखेव धम्मरुई १६ ... व्या 'निस्सग्गुवएसरुइत्ति' रुचिशब्दः प्रत्येकं योज्यते, ततो निसर्गः-स्वभावस्तेन रुचिस्तत्त्वाभिलाषोऽस्येति निसर्गरुचिः १ । उपदेशो-गुर्वादिकथनं तेन रुचिर्यस्येत्युपदेशरुचिः २ । आज्ञा-सर्वज्ञवचनात्मिका तया रुचिर्यस्य स तथा ३ । 'सुत्तबीअरुइमेवत्ति' इहापि रुचिशब्दस्य प्रत्येकं योगात्सूत्रेणागमेन रुचिर्यस्य स सूत्ररुचिः ४ । बीजमिव बीजं-यदेकमप्यनेकार्थप्रबोधोत्पादकं वचस्तेन रुचिर्यस्य स बीजरुचिः ५ । अनयोः समाहारः एवेति समुच्चये । अभिगमो-विज्ञान, विस्तरो-व्यासस्ताभ्यां प्रत्येकं रुचिशब्दो योज्यते ततोऽभिगमरुचिविस्ताररुचिश्चेति ६-७ तथा क्रिया-अनुष्ठानं, संक्षेपः-संग्रहो धर्मः श्रुतधर्मादिस्तेषु रुचिर्यस्येति प्रत्येकं रुचिशब्दयोगाक्रियारुचिः संक्षेपरुचिर्धर्मरुचिश्च-८-६-१० विज्ञेय इति शेषः । यच्चेह सम्यक्त्वस्य जीवानन्यत्वेनाभिधानं तद्गुणगुणिनोः कथञ्चिदभेद इति ख्यापनार्थमिति सूत्रसंक्षेपार्थः ॥ १६ ॥ व्यासार्थ तु स्वत एवाह सूत्रकृतमूलम्-भूअत्थेणाहिंगया, जीवाऽजीवा य पुण्ण-पावं च । सहसंमुइआ आसवसंवरे अरोएइ उ निप्सग्गो व्या.- भूअत्थेणत्ति" भावप्रधानत्वानिर्देशस्य भूतार्थत्वेन--सद्भूता एते अर्था इत्येवंरूपेण निर्णयेनाधिगताः-परिच्छिन्ना येनेति ।। Neeeeeeeeeeeeeeeee-YEG-NEeeeee Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०२८ ॥२६२॥ उत्तराध्य- गम्यते, जीवा अजीवाश्च पुण्यपापं च, कथमधिगता इत्याह-"सहसंमुइअत्ति" सोपस्कारत्वात् सूत्रत्वाच्च सहात्मना या सङ्गता मतिः सा सयनसूत्रम् हसंमतिस्तया, कोर्थः ? परोपदेशनिरपेक्षया जातिस्मरणादिरूपया बुद्ध्या 'आसवसंवरे अत्ति' आश्रवसंवरौ चशब्दोऽनुक्तबन्धादिसमुच्चये, ॥२६२॥ ततो बन्धादयश्च येनाधिगता इतियोगः । यश्च "रोएइ उत्ति" रोचते एव श्रद्दधात्येव अन्यस्मादश्रुत्वापि जातिस्मरणादिनाधिगतान् जी वादीनिति गम्यते, “निसग्गोति" स निसर्गरुचि यः ॥ १७ ॥ अमुमेवार्थ स्पष्टतरमाहRe! मूलम्-जो जिणदिठे भावे, चउविहे सद्दहइ सयमेव । एमेव नन्नहत्ति अ, निस्सग्गरुइत्ति नायब्वो १८ ___व्याख्या-यो जिनदृष्टान् भावान् चतुर्विधान् द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदैर्नामादिभेदैर्वा श्रद्दधाति स्वयमेव परोपदेशं विना, कथं श्रद्दधातीत्याह-एवमेवैतद्यथा जिनैदृष्टं जीवादि नान्यथेति भावः, चः समुच्चये, स निसर्गरुचिरिति ज्ञेयः ॥१८॥ उपदेशरुचिमाहमूलम-एए चेव उ भावे, उबइठे जो परेण सद्दहई । छउमत्थेण जिणेण व, उवएसरुइत्ति नायव्यो १६ व्याख्या-एताश्चैवानन्तरोक्तान् भावान् जीवादीन् 'तुः' पूरणे उपदिष्टान् यः 'परेण' अन्येन श्रद्दधाति, कीदृशेन परेणेत्याह-'छअस्थेन' अनुत्पन्नकेवलज्ञानेन 'जिनेन वा' सञ्जातकेवलेन, स उपदेशरुचिरिति ज्ञातव्यः ॥ १६ ।। अथ आज्ञारुचिमाहमूलम्-रागो दोसो मोहो, अण्णाणं जस्स अवगयं होइ । अणाए रोतो, सो खलु आणाई नाम २० व्याख्या-रागो द्वेपो 'मोहः' शेषमोहनीयं अज्ञानं च चस्य गम्यत्वात् यस्यापगतं भवति, सर्वथा चास्य रागद्वेषाद्यपगमासम्भावाद्देशत इति गम्यते, एतदपगमाच्च "आणाएति" आज्ञयैव आचार्यादिसम्बन्धिन्या रोचमानः क्वापि कुग्रहाभावाज्जीवादि तथेति प्रतिपद्यमानो NeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeYPEveey VEGEEveeeeeeeeeeeeeeeeeeeeex Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्ययनसत्रम् ॥२६३॥ COVAVAGLAVA VEEVARALAARS माषतुषादिवत् स खलु निश्चितमाज्ञारुचिर्नामेत्यभ्युपगन्तव्यः ॥ २० ॥ सूत्ररुचिमाह अध्य०२८ मूलम्-जो सुत्तमहिज्जतो, सुरण ओगाहई उ सम्मत्तं । अंगेण बाहिरेण व, सो सुत्तरुइत्ति नायव्वो २१ ॥२६३॥ ___ व्या०- यः सूत्रम् 'अधीयानः' पठन् श्रुतेनाधीयमानेन अवगाहते ' प्राप्नोति 'तुः' पूर्ती सम्यक्त्वं, 'अंगेन' आचारादीना 'बायन' चानङ्गप्रविष्टेनोत्तराध्ययनादिना स गोविन्दवाचकवत् सूत्ररुचिरिति ज्ञातव्यः ।। २१ ॥ बीजरुचिमाहमूलम्-एगेण अणेगा, पयाइं जो पसरई उ सम्मत्तं । उदए व तिल्लबिंदू, सो बीअरुत्ति नायव्वो॥२२॥ व्याख्या-एकेन प्रक्रमात्पदेन जीवादिना "अणेगाई पयाई ति" विभक्तिव्यत्ययादनेकेषु पदेषु अजीवादिषु यः प्रसरति "संमत्तंति" सम्यक्त्वशब्देन तदभिन्नस्य सम्यक्त्ववतो जीवस्य ग्रहणात् , उदक इव तैलबिन्दुः, यथोदकैकदेशगतोऽपि तैलबिन्दुः समग्रमुदकमाक्रामति तथैकदेशोत्पनरुचिर्यो जीवस्तथाविधक्षयोपशमादशेषतत्त्वेषु रुचिमान् भवति. स एवंविधो बीजरुचिरिति ज्ञातव्यः ॥२२॥ अभिगमरुचिमाह| मूलम्—सो होई अभिगमरुई, सुअनाणं जेण अत्थो दिळं । एक्कारसभंगाई, पईण्णगं दिट्ठिवाओ अ२३|| व्याख्या-स भवत्यभिगमरुचिः श्रुतज्ञानं येनार्थतो दृष्टमुपलब्धं, किं तत् श्रुतज्ञानमित्याह-एकादशाङ्गानि, प्रकीर्णकमिति जातावेकवचनं ततः प्रकीर्णकान्युत्तराध्ययनादीनि, 'दृष्टिवादो' द्वादशमङ्ग, च शब्दादुपांगानि च उपपातिकादीनि ॥ २३ ॥ विस्ताररुचिमाह- | मूलम-दव्वाणं सव्वभावा, सव्वपमाणेहिं जस्स उवलद्धा । सव्वाहिं नयविहिहि अ, वित्थाररुइत्ति नायव्वो ____ व्या०-'द्रव्याणां' धर्मास्तिकायादिनां सर्वभावा' एकत्वपृथक्त्वादयोऽशेषपर्यायाः सर्वप्रमाणैः' प्रत्यक्षादिभिर्यस्योपलब्धाः, प्रत्य POVZETEVEEGAVEGVEGVGVeves Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥२६४॥ Ceeeeeeeeeeeeeeeeeeee चादीनां मध्ये यत्र यस्य व्यापारस्तेनैव प्रमाणेन ज्ञाता भवन्ति, "सव्वाहिति" सर्वैर्नयविधिभिनँगमादिनयमेदैः, 'च' समुच्चये, स विस्तार- अध्य०२८ रुचितिव्यः ॥ २४ ॥ क्रियारुचिमाह ॥२६४॥ मूलम्-दसणनाणचरित्ते, तवविणए सच्चसमिइगुत्तीसु। जो किरिआ भावरूई, सो खलु किरियाई नाम २५|| व्याख्या-दर्शनज्ञानचरित्रे तपोविनये सत्याश्च ताः समितिगुप्तयश्च सत्यसमितिगुप्तयस्तासु यः क्रियाभावरुचिः, अयं भावः-दर्शनाद्याचारानुष्ठाने यस्य भावतो रुचिरस्ति स खलु क्रियारुचिर्नामेत्यभ्युपगन्तव्यः ॥ २५ ॥ संक्षेपरुचिमाहमूलम्-अणभिग्गहिअकुदिट्ठि, संखेवरुइत्ति होइ नायव्वो । अविसारओ पवयणे, अणभिग्गहिओ असेसेसु व्याख्या-अनभिगृहीता-अनङ्गीकृता कुदृष्टिः सौगतादिमतरूपा येन स तथा संक्षेपरुचिरिति भवति ज्ञातव्यः, 'अविशारदो' ऽकुशलः 'प्रवचने' जिनमते, 'अनभिगृहीतः । अनभिज्ञः 'शेषेषु' कपिलादिप्रणीतप्रवचनेषु, अयं भावो य उक्तविशेषणविशिष्टः संक्षेपेणैव चिलातिपुत्र इव पदत्रयेण तत्त्वं श्रद्दधाति स संक्षेपरुचिः ॥ २६ ॥ धर्मरूचिमाहमूलम्-जो अस्थिकायधम्म, सुअधम्मं खलु चरित्तधम्मं च । सद्दहइ जिणाभिहिअं, सो धम्मरुइत्ति नायव्यो ! व्याख्या-योऽस्तिकायानां-धर्मादीनां धर्मो-गत्युपष्टम्भादिरस्तिकायधर्मस्तं, 'श्रुतधर्मम्' आगमरूपं, 'चरित्रधर्म च' सामायिकादिह भेदं श्रद्दधाति जिनाभिहितं । धर्मेषु-पर्यायेषु धर्मे वा-श्रुतधर्मादौ रुचिरस्येति कृत्वा, स धर्मरुचिरिति ज्ञातव्यः । शिष्यव्युत्पादनार्थ चैवमुपाKII विभेदतः सम्यक्त्वभेदाभिधानं, अन्यथा हि निसर्गोपदेशाधिगमादिषु क्वचित्केषाश्चिदन्तर्भावे न ह्येतावन्तो भेदाः सम्भवन्तीति भावनीय AVEVEGVESEVEGVEGVEGA Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतराध्ययनसूत्रम् ॥२६५॥ CEVEVEY मित्येकादशनार्थः ॥ २७ ॥ कैः पुनर्लिंगैः सम्यक्त्वमस्तीति श्रद्धेयमित्याह मूलम् — परमत्थसंथवो वा, सुदिट्ठपरमत्थसेवणा वावि । वावरणकुदंसणवज्जणा य सम्मत्तसद्दहणा ॥२८॥ व्या० – परमा:- तात्त्विकास्ते च ते अर्थाश्व-जीवादयः परमार्थास्तेषु संस्तवस्तत्स्वरूपस्य पुनः पुनश्चिन्तनाकृतः परिचयः परमार्थसंस्तवः, 'वा' शब्दः समुच्चये, सुष्टु दृष्टा:- उपलब्धाः परमार्था यैस्ते सुदृष्टपरमार्था आचार्यादयस्तत्सेवनं, चकारो ऽनुक्तसंग्रहे, ततो यथाशक्ति तद्वैयावृत्त्यादिकरणं च, अपिः समुच्चये, “ वावण्णकुदंसणत्ति " दर्शनशब्दः प्रत्येकं सम्बध्यते, ततो व्यापन्नं विनष्टं दर्शनं येषां ते व्यापनदर्शना निन्हवादयः, तथा कुत्सितं दर्शनं येषां ते कुदर्शनाः शाक्यादयः, तेषां वर्जनं व्यापन्नकुदर्शनवर्जनं । सर्वत्र सूत्रत्वात्स्त्रीत्वं, चः समुच्चये, सम्यक्त्वं श्रद्धीयतेऽनेनेति सम्यक्त्वश्रद्धानमिदं, एभिर्लिंगैः सम्यक्त्वं श्रद्धीयते इति भाव इति सूत्रार्थः ॥ २८ ॥ इत्थं सम्यक्त्वलिंगान्यभिधाय तस्यैव महात्म्यमुपदर्शयन्नाह - मूलम् — नत्थि चरितं सम्मत्त - विहूणं दंसणे उ भइव्वं । सम्मत्तचरित्ताइ, जुगवं पुव्वं व सम्मत्तं २६ नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न होन्ति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि प्रभुक्स्स निव्वाणं ॥ ३०॥ व्याख्या–नास्ति उपलक्षणत्वाभासीन्न भविष्यति च चारित्रं सम्यक्त्वविहीनं, अयं भावो न यावत्सम्यक्त्वप्राप्तिर्न तावद्भावचारित्रमिति, | 'दर्शने तु' सम्यक्त्वे पुनः सति 'भक्तव्यं' भवति वा न वा, प्रक्रमाच्चारित्रं । किमित्येवमत आह-सम्यक्त्वचरित्रे युगपत्समुत्पद्येते इति । अध्य०२८ ॥२६५॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०२८ ॥२६६॥ उचराध्य- शेषः, पूर्व वा चारित्रोत्पत्तेः सम्यक्त्वमुत्पद्यते । ततो यदा युगपदुत्पादस्तदा. तयोः सहभावो, यदा तु पूर्व सम्यक्त्वं तदा तत्र चारित्रं भापनस्त्रम् ज्यम् ॥ २६ ॥ अन्यच्च-न 'श्रदर्शनिनः' सम्यक्त्वरहितस्य 'ज्ञान' सम्यग् ज्ञानं, 'ज्ञानेन विना' ज्ञानरहिता न भवन्ति चरणगु॥२६६॥का णाः, तत्र चरणं-व्रतादि, गुणाः-पिण्डविशुद्धयादयः, 'अगुणिनः' अनन्सरोक्तगुणरहितस्य नास्ति 'मोक्षो' निखिलकर्मक्षयात्मकः, नास्ति अमुक्तस्य कर्मणेति गम्यते 'निर्वाणं' मुक्तिपदावाप्तिः । तदत्र पूर्वसूत्रेण मुक्त्यनन्तरहेतोरपि चरणस्य सम्यक्त्वभाव एव भवनं तन्महात्म्यमुक्तमनेन तु सूत्रेण सम्यक्त्वाभावे उत्तरोत्तरगुणव्यतिरेकदर्शनेनेति सूत्रद्वयार्थः ॥ ३० ॥ अस्य चाष्टविधाचारयुक्तस्यैवोत्तरोत्तरगणावाप्तिहेतुत्वमिति तान् दर्शयितुमाह| मूलम्-निस्संकिय निक्कंखिय, निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी। उबवूह-थिरीकरणे, वच्छल्ल-पभावणे अदृ३१|| ___व्याख्या-शङ्कनं-शङ्कितं देशसर्वशङ्कारूपं, तदभावो निःशङ्कितं । तथा कांक्षणं-कांक्षितं अन्यान्यदर्शनाभिलाषात्मकं, तदभावो निःकांक्षितं । 'विचिकित्सा' फलं प्रति सन्देहः, यद्वा विदो-विज्ञास्ते च साधव एव तेषां जुगुप्सा-निन्दा, तदभावो 'निर्विचिकित्सं' 'निर्वि जुगुप्सं' वा, आपत्वाच्च सूत्रे एवं पाठः । अमूढा-ऋद्धिमत्कुतीर्थिकदर्शनेऽपि निन्द्यमस्मदर्शनमिति मोहहीना सा चासो दृष्टिश्च बुद्धिरूषा FII अमूढदृष्टिः, सा च । अयं चतुर्विधोऽप्यान्तर आचार उक्तो बाह्यमाह-उपबहा-दर्शनादिगुणवतां प्रशंसया तत्तद्गुणपरिवर्द्धन, स्थिरीकर णं-स्वीकृतधर्मानुष्ठानं प्रति सीदतां स्थैर्यापादनं, तयोर्द्वन्द्वे उपब हास्थिरीकरणे । वात्सल्यं-धार्मिकजनस्योचितप्रतिपत्तिकरणं, प्रभावना-स्वतीर्थोन्नतिचेष्टासु प्रवर्तनं, अनयोर्द्वन्द्वे वात्सल्यप्रभावने । "अठत्ति" अष्टामी दर्शनाचारा भवन्तीति शेषः इति सूत्रार्थः ॥ ३१ ॥ इत्थं ज्ञानदर्शनरूपं मुक्तिमार्गमुक्त्वा चारित्ररूपं तमाह weee OVEVO AVEVAAVEEVOEGY RECEVEZETEAAAVAAGAVE Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर उत्तराध्य- यनसूत्रम् ॥२६७॥ NLENECEVVEVEGEVEeeve ever मूलम्-सामाइअत्या, पढम, छेओवट्ठात्रणं भवे बी। परिहारविसुद्धीन, सुहुम सह संपरायं च ॥३२॥ अध्य०२८ अकसापमहाखामं, छउमत्थस्स जिणस्स वा । एवं चयरित्तकर, चारितं होइ आहि ॥३३॥ २६७॥ | व्या०–समोरागद्वेषरहितः, स चेहप्रक्रमाचित्तपरिणामस्तत्राऽऽयो-गमनं समायः, स एव 'सामायिक' सर्वसाक्ययोगल्यागः, 'स्थ'। पूरणे, 'प्रथमम्' आद्यं । इदं च द्विधा, 'इत्वरं' 'यावत्कथिकं' च । तत्रेत्वरं भरतैरावतयोः प्रथमचरमजिनतीर्थयोरुपस्थापनां यावत् , तत्र |हि छेदोपस्थापनीयभावेन तद्व्यापदेशाभावात् । यावत्कथिकं च तयोरेव क्षेत्रयोर्मध्यमाईतीर्थेषु विदेहेषु च, तत्र छपस्थापनाया अभावेन | सामायिकम्पपदेश एव यावज्जीवं स्यात् । तथा छेदः-सातिचारस्य साधोर्निरतिचारस्य वा शिष्यस्य तीर्थान्तरसम्बन्धिनो वा तीर्थान्तरं - तिपद्यमानस्य पूर्वपर्यायव्यवच्छेदः, तधुक्ता उपस्थापना-महाब्रतारोपणा यत्र तच्छेदोपस्थापनं भवेत् द्वितीयम् । यथा परिहरण-परिहारो वि शिष्टतपोङ्गीकारेण गच्छस्य त्यागस्तेन विशुद्धिरस्मिन्निति परिहारविशुद्धिकं । तत्स्वरूपं चेदं-नव मुनयो गणानित्य जिनाम्यणे परिहारविका शुद्धिक प्रतिपन्नपूर्वस्य जिनस्य वा पार्थे इदं प्रतिपद्यन्ते । तेष्वेको गुरुर्भवति, चत्वारस्तपः कुर्वन्ति, चत्वारस्तु तद्वैयावृत्यं । तपश्च तेषां ग्री- 2 मकाले जघन्यमध्यमोत्कृष्टं चतुर्थषष्टाष्टमरूपं, शीतकाले तु षष्टाष्टमदशमरूपं, वर्षाकाले चाष्टमदशमद्वादशलक्षणं भवति । तेच पारणकेषु गुरुयोवृत्यकराश्च नित्यमाचाम्लं कुर्वन्ति । परमासातिक्रमे तु तपस्करा वैयावृत्त्यं, वैयावृत्त्यकराश्च तपः प्रतिपद्यन्ते । तेषामपि षण्मासात्यये | तन्मध्यादेको गुरुत्वे, गुरूस्तपः, अन्ये तु सप्त वैयावृत्त्यं स्वीकुर्वन्ति । अतीते तु सावर्षे ते पुनः तदेव तपो जिनकल्पं वा गच्छं वाऽभ्युपग| च्छन्ति, तेषां यच्चारित्रं तत्परिहारविशुद्धिकमिति । इदं च भरतैरावतयोरेव प्रथमान्तिमतीर्थकत्तीर्थे स्थानान्यत्रेति । "मुहुर्म तह संपरायं च| ति" तथेत्यानन्तर्ये छन्दोमङ्गनिरासार्थ पदमध्येऽपि न्यस्तः, सूक्ष्मः कटीकरणात्सम्परायो लोभाख्यः कषायो यस्मिस्तत् सूक्ष्मसम्परायं, Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥२६॥ eee GeeSVAVA Teleeeeeeeee इदं च क्षपकश्रेण्युपशमश्रेण्योर्लोभाणुवेदनसमये स्यात् ॥ ३२ ॥'अकषाय' अनुदितकार्य क्षपितोपशमितकषायावस्थाभावि 'यथाख्यात' अध्य०२८ जिनोक्तस्वरूपमनतिक्रान्तं, 'छमस्थस्य ' उपशान्तक्षीणमोहाख्यगुणस्थानद्वयवर्तिनो, 'जिनस्य वा' केवलिनः सयोग्ययोगिगुणस्थानद्वय स्थायिनो भवतीति शेषः । "एअंति" एतदनन्तरोक्तं सामायिकादिपञ्चमेदं चयस्य राशेः प्रक्रमाकर्मणां रिक्तं विरेकोऽभाव इत्यर्थः, त ॥२६॥ करोतीति चयरिक्तकरं चारित्रं भवत्याख्यातं जिनादिभिरिति गम्यते इति सूत्रद्वयार्थः ॥३३।। सम्प्रति तपोरूपं चतुर्थ कारणमाहमूलम्-तवो अ दुविहो वुत्तो, बाहिरभितरो तहा । बाहिरो छविहो वुत्तो, एवमभितरो तवो ॥ ३४ ॥ ___ व्या०-अस्याक्षरार्थः स्पष्टो भावार्थस्तु तपोध्ययने वक्ष्यते ॥ ३४ ।। अथैषां मुक्तिमार्गत्वे कस्य कतरो व्यापार इत्याहमूलम-नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे । चरित्तेण न गिराहाइ, तवेण परिसुज्झइ ॥ ३५ ॥ व्या०–ज्ञानेन श्रुतादिना जानाति भावान् जीवादीन् , दर्शनेन च तानेव श्रद्धत्ते, चारित्रेण आश्रवद्वारनिरोधरूपेण न गृह्णाति नादत्ते कर्मेति गम्यते, तपसा परिशुध्यति पूर्वोपचितकर्मणः क्षपणात् शुद्धो भवति इति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥ अनेन मार्गस्य फलं मोक्ष उक्तः, सम्प्रति मोक्षफलभूतां गतिमाहमूलम् - खबित्ता पुवकम्माइं संजमेण तवेण य । सव्वदुक्खाहीणट्ठा, पक्कमति महेसिणोत्ति बेमि ॥३६॥2 व्या०-सनदुक्खप्हीणठत्ति' सर्वैः दुःखैः प्रहीणः सर्वदुःखपहीणो-मोक्षस्तमर्थयन्ति ये ते सर्वदुःखपहीणार्थाः, यद्वा प्रक्षीणानि सर्वदुःखानि अर्थाश्व कार्याणि येषां ते तथा 'प्रक्रामन्ति' गच्छन्ति मुक्तिमिति शेषः "महेसिणोति" महर्षय इति सूत्रार्थः ।। ३६ ॥ इति ब्रवीमीति प्राग्वत् ॥ BeeG CCTeeeeeeeeeeeeeeeee Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . उत्तराध्य यनसूत्रम् मध्य०२६ ॥ अथ एकोनत्रिंशमध्ययनम् ॥ भाग ४ ॥ अहं ॥ व्याख्यातमष्टाविंशमध्यनं, अथ सम्यक्त्वपराक्रमाख्यमेकोनत्रिंशमारम्यते । अस्य चार्य सम्बन्धोऽनन्तराध्ययने मोक्षमार्गगतिरुक्का सा च वीतरागत्वपूविकेति यथा तद्भवति तथाऽनेनाभिधीयते । इति सम्बन्धस्यासोदमादित्रम्HAI मूलम्-सुमं मे आउर्स ! तेणं भगवया एवमक्खायं, इह खलु सम्मत्तपरकमे नामज्झयणे समणेणं भग वया महावीरेण कासवेणं पवेइए । जं सम्मं सद्दहित्ता पत्तिाइत्ता रोअइत्ता फासित्ता पालइत्ता तीरइत्ता किट्टइत्ता सोहइत्ता आराहइत्ता आणाए अणुपालइत्ता बहवे जीवा सिझति बुज्झति मुच्चति परिनिव्वायंति सव्वदुःक्खाणमंतं करेंति ॥१॥ व्याख्या-श्रतं 'मे' मया आयुष्मन्निति शिष्यामंत्रणं, एतच्च सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमाह, तेन जगत्त्रयप्रतीतेन भगवता प्रक्रमात् श्रीमहावीरेण 'एयमिति' वक्ष्यमाणप्रकारेणाख्यातं, तमेवं प्रकारमाह-इहास्मिन् प्रवचने खलु निश्चितं सम्यक्त्वे सति पराक्रम उत्तरोसरगुणप्रतिपल्या कर्मारिजयसामर्थ्यरूपोऽर्थाज्जीवस्य वर्ण्यतेऽस्मिन्निति सम्यक्त्वपराक्रमं नामाध्ययनमस्तीति शेषः। तच्च केन प्रणीतमित्याहश्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन श्रीवर्द्धमानस्वामिनैव प्रवेदितं, स्वतोविदितमेव भगवता ममेदमाख्यातमिति भावः। अस्यैव माहात्म्यमाह-'जति' यत्प्रस्तुताध्ययनं 'सम्यक् अवैपरीत्येन 'श्रद्धाय' शब्दार्थोभयरूपं सामान्येन प्रतिपद्य, 'प्रतीत्य' विशेषत इदमित्थमेवेति निश्चित्य, 'रोचयित्वा' तत्पठनादिविषयमभिलाषमात्मन उत्पाद्य, 'स्पृष्टवा' योगत्रिकेण तत्र मनसा सूत्रार्थयोश्चिन्तनेन वचसा वाचनादिना Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥२॥ VAYVANAVAVVACA कायेन भङ्गकरचनादिना, 'पालयित्वा ' परावर्त्तनादिनाऽभिरक्ष्य, 'तीरयित्वा ' अध्ययनादिना परिसमाप्य, 'कीर्त्तयित्वा ' गुरोर्विनयपूर्वकमिदमित्थं मयाधीतमिति निवेद्य, 'शोधयित्वा' गुरुवदनुभाषणादिना शुद्धं विधाय, 'आराध्य ' उत्सूत्रप्ररूपणा परिहारेण उत्सर्गापवाद कुशलता वा यावज्जीवं तदर्थासेवनेन वा । चेदं स्वबुध्या शुभावहमित्याह - श्राज्ञया गुरुनियोगरूपयाऽनुपान्य सततमासेव्य बहवो जीवाः 'सिध्यन्ति ' इहैवागमसिद्धत्वादिना 'बुध्यन्ते 'घातिकर्मक्षयेण 'मुच्यन्ते' भवोपग्राहिकर्मचतुष्कक्षयेण ततश्च 'परिनिर्वान्ति' सकलकर्मदावानलोपशमेन श्रत एव सर्वदुःखानां - शारीरमानसानां श्रन्तं - पर्यतं कुर्वन्ति मुक्तिपदप्राप्त्येति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ अथ शिष्यानुग्रहार्थं सम्बन्धाभिधानपूर्वकं प्रस्तुताध्ययनार्थमाह मूलम् - तस्सां अयमट्ठे एवमाहिज्जइ, तंजहा संवेगे १, निव्वेए २, धम्मसद्धा ३, गुरुसाहम्मियसुस्सूसणया ४, आलोअणया ५, निंदण्या ६, गरिहणया ७, सामाइए ८, चउवीसत्थए ६, वंदणे १०, पडिक्कमणे ११, काउस्सग्गे १२, पच्चक्खाणे १३, थंयथुइमंगले १४, काल पडिलेहण्या १५, पायच्छित्त करणे खमावण्या १७, सज्झाए १८, वायणया १६, पडिपुच्छणया २०, परिश्रट्टणया २१ अणुप्पेहा २२, धम्मंकहा २३, सुअस्ल आराहण्या २४, एगग्गमणसन्निवेसणया २५, संजमे २६, तवे २७, वोदाणे २८, सुहसाए २६, अप्पविद्धया ३०, विवित्तसयणासण सेवण्या ३१, विणीश्रट्टणया ३२, संभोगपञ्चवखाणे ३३, उवहिपच्चक्खाणे ३४, आहारपच्चक्खाणे ३५, कसायपच्चक्खाणे ३६, जोगपच्चक्खाणे ३७, सरीरपच्चक्खाणे अध्य०२६ ॥२॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥ ३ ॥ ३८, सहायपच्चक्खाणे ३६, भत्तपच्चक्खाणे ४०, सब्भावपच्चकखाणे ४१, पडिरूवया ४२, वेचावच्चे ४३, सव्वगुणसंपन्नया ४४, वीरागया ४५, खंती ४६, मुत्ती ४७, मद्दवे ४८, अज्जवे ४६, भावसच्चे ५०, करणसच्चे ५१, जोगसच्चे ५२, मरणगुत्तया ५३, वयगुत्तया ५४, कायगुक्तया ५५, मणसमाधारणया ५६, वयसमाधारणया ५७, कायसमाधारणया ५८, नारणसंपन्नया ५६, दंसणसंपन्नया ६०, चरितसंपन्न - या ६१, सोइंदिअनिग्गहे ६२, चक्खिंदिश्रनिग्गहे ६३, घाणिदिनिग्गहे ६४ जिब्भिदिश्रनिग्गहे ६५, फा सिंदिन ६६, कोहविजए ६७, माणविजए ६८, मायाविजए ६६ लोभविजए ७० पिज्जदोसमिच्छादंसणविजए ७१, सेलेसी ७२, कम्मया ७३ ॥ २ ॥ व्याख्या—तस्य सम्यक्त्वपराक्रमाध्ययनस्य 'मिति' सर्वत्रवाक्यालङ्कारे श्रयमित्यनन्तरमेव वक्ष्यमाणोर्थ एवममुना वक्ष्यमाणप्रकारेणाख्यायते कथ्यते श्रीमहावीरेणेति गम्यते, तद्यथेति वक्ष्यमाणतदर्थोपन्यासार्थः । संवेगो १ निर्वेदो २ धर्मश्रद्धा ३ गुरुसाधर्मिकशुश्रूपण, आर्षत्वादिहोत्तरत्र च सूत्रेष्वन्यथा पाठः ४ आलोचना ५ निन्दा ६ गर्हा ७ सामायिकं ८ चतुर्विंशतिस्तवो ६ वन्दनं १० प्रतिक्रमणं ११ कायोत्सर्गः १२ प्रत्याख्यानं १३ स्तवस्तुतिमङ्गलं १४ कालप्रत्युपेक्षणा १५ प्रायश्चित्तकरणं १६ चामणा १७ स्वाध्यायो १८ वाचना १६ प्रतिप्रच्छना २० परावर्त्तना २१ अनुप्रेक्षा २२ धर्मकथा २३ श्रुतस्याराधना २४ एकाग्रमनः संनिवेशना २५ संयमः २६ तपः २७ व्यवदानं २८ सुखशायः २६ अप्रतिबद्धता ३० विविक्तशयनासनसेवना ३१ विनिवर्त्तना ३२ सम्भोगप्रत्याख्यानं. ३३ उपधि अध्य०२६ ॥३॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य. MPROVEDYOGeeeeeeeeeeeeeeeYEG प्रत्याख्यानं ३४ाहारप्रत्याख्याने ३५ कार्यप्रत्याख्यान ३६ योगप्रत्याख्यान ३७ शरीरप्रत्याख्यान ३८ सहायत्रत्याख्यान -३६ भक्त- उत्तराध्य प्रत्याख्याने ४० सद्भावप्रत्याख्यानं ४१ प्रतिरूपता ४२ वैयावृत्यं ४३ सर्वगुणसम्पचता ४४ वीतरागता ४५ शान्तिः ४६ मुक्तिः ४७ 12 यिनस्त्रम् का मार्दवं ४८ आजब ४६ भावसत्यं ५० करणसत्यं ५१ योगसत्यं ५२ मनोगुप्तता ५३ वाग्गुप्तता ५४ कायगुप्तता ५५ मनःसमाधारणा | ॥ ४ ॥ |५६ वाक्समाधारणा ५७ कायसमाधारणा ५८ ज्ञानसम्पन्नता ५६ दर्शनसम्पमता ६० चारित्रसम्पन्नता ६१ श्रीन्द्रियनिग्रहः ६२ चक्षुरिन्द्रियनिग्रहः ६३ घाणेन्द्रियनिग्रहः ६४ जिहन्द्रियनिग्रहः ६५ स्पर्शनेन्द्रियनिग्रहः ६६ क्रोधविजयो ६७ मानविजयो ६८ मायाक्जियो ६६ लोभविजयः ७० प्रेमद्वेषमिथ्यादर्शनविजयः ७१ शैलेशी ७२ अकर्मता ७३ इत्यतरसंस्कारः ॥२॥ साम्प्रतमिदमेव प्रतिपदं फलो. पदर्शनद्वारेण व्याचिख्यासुराह सूत्रकारः 'संवेगणमित्यादि' त्रिसप्ततिः सूत्राणिमूलम्-संवेगेण भंते ! जीवे किं जणयइ,? संवेगेणं अणुत्तरं धम्मसद्ध जणयइ अणुत्तराए धम्मसद्धाए विसंवेगं हव्वमागच्छइ,अणंताणुबंधिकोहमाणमायालोहे खवेइ, नवं चकम्मन बंधइ, तप्पच्चइयं चणं मिच्छत्तविसोहि काऊण दसणाराहए भवइ, दसणविसोहीएणं विसुद्धाए अत्यंगतिए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ, सोहीए अ णं विसुद्धाए तच्चं पुणो भवग्गहणं नाइक्कमइ ॥ १ ॥३॥ व्याख्या-'संवेगेन' मोक्षाभिलाषेण भदन्तेति पूज्यामंत्रणं, जीवः 'किं जनयति' ? कतरं गुणमुत्पादयतीत्यर्थः। इति शिष्यप्रश्ने प्रज्ञापक उत्तरमाह-संवेगेनानुत्तरों धर्मश्रद्धां जनयति, अनुत्तरधर्मश्रद्धया च संवेगं तमेवार्थाद्विशिष्टतरं 'हव्यंति' शीघ्र आगच्छति, ततऽन PREVEEYEGNANCE CE EEEEEEEEEEVERE Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य० २६ ॥५॥ उत्तराध्यवनसूत्रम् न्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभान क्षपयति, तथा च नवं कर्म प्रक्रमादशुभं न बध्नाति, 'तत्प्रत्ययिकां च' कषायक्षयहेतुकां च 'मिथ्यात्वविशुद्धि' सर्वथा मिथ्यात्वक्षयं कृत्वा दर्शनस्य प्रस्तावात्क्षायिकसम्यक्त्वस्याराधको दर्शनाराधको भवति, दर्शनविशुद्धया च 'विशुद्धया' निर्मलया अस्त्येककः कश्चित्तेनैव भवग्रहणेन सिद्धथति मरुदेवीवत् , यस्तु तेनैव भवेन न सिध्यति स किमित्याह-"सोहीएति" शुद्धया प्रक्रमादर्शनस्य विशुद्ध्या तृतीयं पुनर्भवग्रहणं नातिक्रामति, उत्कृष्टदर्शनाराधनापेक्षमेतत् , यदुक्तं-“उक्कोसदसणेणं भंते ! जीवे कइहिं भवग्गहणेहिं सिज्मइ ? गोत्रमा ! उक्कोसेणं तेणेव, तइग्रं पुण नाइक्कमइति" इतः परं सर्वसूत्रेषु सुगमानि पदानि न व्याख्यास्यन्ते ॥१॥३॥ संवेगादवश्यं निर्वेदः स्यादिति तमाहमूलम्--निव्वेएणं भंते ! जीवे किं जणयइ? निव्वेएणं दिव्वमाणुस्सतेरिच्छिएसु कामभोगेसु निव्वेअंहठवमागच्छइ, सव्वविसएसु विरज्जइ, सव्वविसएसु विरज्जमाणे आरंभपरिच्चायं करेइ, आरंभपरिच्चायं करेमाणे संसारमग्गं वुच्छिदइ, सिद्धिमग्गपडिवण्णे अ भवइ ॥२॥४॥ ___ व्याख्या-'निदेन' सामान्यतः संसारविरागेण कदाऽसौ त्याज्य इति धिया दिव्यमानुषतैरश्चेषु कामभोगेषु 'निर्वेदं यथाऽलमेभिरनथहेतुभिरिति भावं 'हव्वमागच्छति' तूर्णमाप्नोति, तथा च 'सर्वविषयेषु' समस्तसांसारिकवस्तुषु विरज्यते, विरज्यमानश्चारम्भपरित्यागं करोति, विषयार्थत्वात्सर्वारम्भाणां, तत्परित्यागं च कुर्वन् संसारमार्ग मिथ्यात्वाविरत्यादिकं व्यवच्छिनत्ति, तत्त्याग एव तत्त्वत आरम्भपरिहारसम्भवात् , तव्यवछित्तौ च सुप्राप एव मुक्तिमार्गः सम्यगदर्शनादिरिति सिद्धिमार्गप्रतिपन्नश्च भवति ॥ २॥ ४ ॥ निवेदोऽपि धर्मश्रद्धावतामेव स्यादिति तामाह タースターシーマスター・ー・ーーーーーーーーー स Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाअध्य०२६ उत्तराध्य मूलम्-धम्मसद्धाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? धम्मसद्धाएणं सायासोक्खेसु रज्जमाणे विरज्जइ, अगायनसूत्रम् रधम्मं च णं चयइ अणगारे णं जीवे सारीरमाणसाणं दुक्खाणं छेयण-भेयण-संजोगाईणं वुच्छे करेइ, अव्वाबाहं च सुहं निव्वत्तेइ ॥ ३॥ ५ ॥ ___ व्याख्या-धर्मश्रद्धया सात-सातवेदनीयं तज्जनितानि सौख्यानि विषयसुखानीत्यर्थः तेषु 'रज्यमानः' पूर्व रागं कुर्वन् ‘विरज्यते' विरागं याति, 'आगारधर्म च' गृहाचारं गार्हस्थ्यमित्यर्थः 'त्यजति' जहाति, ततश्चाऽनगारो-यतिः सन् जीवः शारीरमानसानां दुःखानां 'छेप्रणेत्यादि' छेदन-खगदिना भेदन-कुन्तादिना आदिशब्दस्यहापि सम्बन्धाच्छेदनभेदनादिना शारीराणां संयोगः प्रस्तावादनिष्ठानां आदिशब्दादिष्टवियोगादिग्रहस्ततोऽनिष्टसंयोगादीनां च मानसदुःखानां व्यवच्छेदं करोति, अत एव अव्याबाधं च सुखं 'निवर्तयति' जनयति ॥ ३॥ ५॥ धर्मश्रद्धावता च गुादेः शुश्रूषाऽवश्यं कार्येति तामाह| मूलम्-गुरुसाहम्मियसुस्सूसणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? गुरुसाहम्मियसुस्सूसणयाए णं विणयपडिवत्ति जणयइ, विणयपडिवण्णे अ णं जीवे अणच्चासायणासीले नेरइअ-तिरिक्खजोणिअ-मणुस्स-देव दुग्गइनो निरुभइ, वण्णसंजलणभत्तिबहुमाणयाए मणुस्सदेवसुग्गइओ निबंधइ, सिद्धिसोग्गई च विसोहेइ, all पसत्थाईं च णं विणयमूलाई सव्वकज्जाई, साहेइ, अन्न अ बहवे जीवे विणइत्ता भवइ ॥४॥६॥ eNeeeeeeeeeeeeeeer ENEN EENENEC Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥७॥ अध्य०२४ ॥७॥ व्याख्या-गुरुसार्मिकशुश्रूषणेन तदुपासनरूपेण 'विनयप्रतिपत्तिम्' उचितकृत्यकरणाङ्गीकाररूपां जनयति, 'विणयपडिवण्णे अत्ति' सूत्रत्वात् प्रतिपन्नविनयश्च जीवो अनत्याशातनाशीलः, कोऽर्थः ? गुरुपरिवादादिपरिहारादत्याशातनात्यागी सन् 'नेरइअइत्यादि' नैरयिकाच तिर्यञ्चश्च नैरयिकतिर्यञ्चस्तेषां योनी नैरयिकतिर्यगयोनी स्वार्थिक के नैरयिकतीर्यग्योनिके ते च मनुष्यदेवदुर्गती च म्लेच्छकिल्विषत्वादिके निरुणद्धि , तथा वर्णः-श्लाघा तेन संज्वलनं--गुणोद्धासनं वर्णसंज्वलनं, भत्तिरभ्युत्थानादिना, बहुमानः-आन्तरा प्रीतिरेषां द्वन्द्वे भावप्रत्यये च वर्णसंज्वलनभक्तिबहुमानता तया प्रक्रमाद्गुरूणां मनुष्यदेवसुगती सुकुलैश्वर्यादियुक्त निबध्नाति तत्प्रायोग्यकर्मबन्धनादिति भावः, सिद्धिसुगतिं च विशोधयति तन्मार्गभूतसम्यग्दर्शनादिविशोधनेन 'प्रशस्तानि' प्रशंसास्पदानि 'विनयमूलानि' विनयहेतुकानि सर्वकार्याणि इह श्रुताध्ययनादीनि परत्र मोक्षादीनि साधयति, अन्यांश्च बहुन् जीवान् ‘विणइत्तत्ति विनेता-विनयं ग्राहयिता भवति, स्वयं सुस्थितस्योपादेयवचनत्वादिति भावः ॥ ४ ॥ ६ ॥ गुरुशुश्रुषां कुर्वतापि दोषसम्भवे आलोचना कार्येति तामाह मूलम्-आलोयणयाए भंते ! जीवे किं जणयइ ? आलोयणयाएणं माया-नियाण-मिच्छादसणसल्लाणं | मोक्खमग्गविग्घाणं अणंतसंसारवद्धणाणं उद्धरणं करेइ, उज्जुभावं च णं जणयइ, उज्जुभावपडिवन्ने अणं जीवे अमाई इथिवेयं नपसगवेयं चन बंधड. पवबद्ध चणं निजरेड ॥५॥७॥ _ व्याख्या-आलोचनया स्वदोषाणां गुरोः पुरः प्रकाशनरूपया मायानिदानमिथ्यादर्शनशल्यानां मोक्षमार्गविघ्नानामनन्तसंसारवर्द्धनानां 'उद्धरणं' अपनयनं करोति, ऋजुभावं च जनयति, ऋजुभावं प्रतिपन्नश्च जीवो अमायी सन् स्त्रीवेदं नपुंसकवेदं च न बध्नाति, पुंस्त्वहेतुत्वादमायित्वस्य, पूर्वबद्धं च तदेव द्वयं सकलकर्म वा 'निर्जरयति' क्षपयति ॥ ५ ॥७॥ आलोचना च स्वदोषनिन्दावत एव सफलेति तामाह ܟܦܝܕܦܦܕܦܕܦܦܕܟܟܕܟܕܟܢܦܣܬܦܬ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य.२६ ॥८ ॥ उत्तराध्य-16 मूलम्—निंदण्याए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? निंदणयाए णं पच्छाणुतावं जणयइ पच्छाणुतावेणं यनसूत्रम् || विरजमाणे करणगुणसेढिं पडिवज्जइ,करणगुणसेढिं पडिवन्ने अअणगारे मोहणिज्ज कम्मं उग्घाएइ ॥६॥८॥ ॥८ ॥ व्याख्या-'निन्दनेन' स्वयमेव स्वदोपचिन्तनेन पश्चादनुतापं हा! दष्ट मया कृतमेतदित्यादिरूपं जनयति, पश्चादनुतापेन च 'विरज्यमानो' वैराग्यं गच्छन् करणेनाऽपूर्वकरणेन गुणश्रेणिः सा च सर्वोपरितनस्थितेर्मोहनीयादिकर्मदलिकान्युपादाय उदयसमयात्प्रभृतिद्वितीयादिसमयेष्वऽसंख्यातगुणासंख्यातगुणपुद्गलप्रक्षेपरूपा तां, उपलक्षणत्वात स्थितिघातरसघातगुणसंक्रमस्थितिबन्धांश्च विशिष्टान् प्रतिपद्यते । अथवा करणगुणेनापूर्वकरणादिमाहात्म्येन श्रेणिः करणगुणश्रेणिः प्रस्तावात्क्षपकश्रेणिरेव तां प्रतिपद्यते, तां प्रतिपन्नश्वानगारो मोहनीयं कर्म 'उद्घातयति' क्षपयति ॥ ६॥ ८ ॥ बहुदोषसद्भावे निन्दानन्तरं गर्हापि कार्येति तामाह मूलम्-गरहणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? गरहणयाएणं अपुरक्कारं जणयइ, अपुरक्कारगए अ | णं जीवे अप्पसत्थेहितो जोगेहितो निअत्तइ, पसत्थे अ पवत्तइ, पसत्थजोगपडिवएणे अ णं अणगारे अणं| तघाई पज्जवे खवेइ ॥ ७॥ ६ ॥ ___ व्याख्या—' गर्हणेन' परसमक्षमात्मनो दोषोद्भावनेन पुरस्कारो गुणवानयमिति प्रसिद्धिस्तदभावं अवज्ञास्पदत्वमित्यर्थः जनयत्यात्मन इति गम्यं, अपुरस्कारगतश्च जीवः कदाचिदशुभाध्यवसायोत्पत्तावपि तद्भीत्यैव अप्रशस्तेभ्यो योगेभ्यो निवर्तते, प्रशस्तयोगेषु च प्रवर्तते, प्रशस्तयोगप्रतिपन्नश्च जीवः अनन्तविषयतयाऽनन्ते ज्ञानदर्शने घ्नन्तीत्यनन्तघातिनस्तान् पर्यवान् ज्ञानावरणादिकर्मपरिणतिविशेषान् क्षपयति, ܠܦܟܒܦܦܦܕܦܕܦ BAAAAAAAAAAAAAAAAAAAM Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् VEEVEEVEEELE ܕܦܟܕܦܒܐܒܝܬܠܸܒܐܕܟܩܬܒܝ उपलक्षणं चैतन्मुक्तिप्राप्तः तदर्थत्वात्सर्वप्रयासस्य । एवमनुक्तापि सर्वत्र मुक्तिप्राप्तिरेव द्रष्टव्या॥७॥६॥ आलोचनादिकं च सामायिकव IP अध्य०२६ तामेव तत्त्वतः स्यादिति तदाह ॥६॥ मूलम्-सामाइएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? सामाइएणं सव्वसावजजोगविरइं जणयई ॥८॥१०॥ ____ व्याख्या सामायिकेन 'सर्वसावद्ययोगविरति' सकलसपापव्यापारोपरमं जनयति ॥ ८ ॥१०॥ सामायिकपतिपत्रा च तत्प्रणेतारोऽर्हन्तः स्तुत्या इति तत्स्तवमाहमूलम्-चउवीसत्थएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? चउवीसत्थएणं दसणविसोहि जणयइ ॥ ६ ॥११॥ ___ व्याख्या-स्पष्टम् ।। ६ ॥ ११॥ स्तुत्वापि जिनान् गुरुवन्दनपूर्विकैव सामायिकस्वीकृतिरिति तदाहमूलम्-वंदणएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? वंदणएणं नीआगोअं कम्मं खवेइ, उच्चागोमं निबंधइ, सोहम्गं च णं अप्पडिहयं आणाफलं निव्वत्तेई, दाहिणभावं च णं जणयइ ॥ १० ॥ १२॥ व्याख्या-"सोहग्गं चत्ति" सौभाग्यं च सर्वजनस्पृहणीयतारूपं 'अप्रतिहतम् अस्खलितम्'आज्ञाफलं' आज्ञासारं निर्वतयति, दक्षिणभावं चानुकूलभावं जनयति लोकस्येति गम्यते ॥ १० ॥ १२॥ सामायिकादिगुणवता च प्रथमान्तिमाहतोस्तीर्थे सर्वदा, मध्यमार्हतां चापराधसम्भवे प्रतिक्रमणं कार्यमिति तदाहमूलम् --पडिक्मणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? पडिक्कमणेणं वयछिद्दाइं पिहेइ, पिहियवयछिद्दे पुण जीवे 'अप्रतिहतम्'अस्खलित तिक्रमणं कार्यमिति गम्यते ॥ १० ॥ १२ EEEEEE Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१०॥ अध्य० २६ ॥१०॥ ISISESS निरुद्धासवे असबलचरित्ते अट्ठसु पवयणमायासु उवउत्ते अपुहत्ते सप्पणिहए विहरइ ॥ ११ ॥ १३॥ ___ व्याख्या-'प्रतिक्रमणेन'अपराधेभ्यः प्रतीपनिवर्त्तनेन 'व्रतछिद्राणि' अतिचारान् 'पिदधाति' स्थगयति, पिहितव्रतछिद्रः पुनर्जीवो || निरुद्धाश्रवोऽत एवाऽशवलं शबलस्थामैरकर्बुर चरित्रं यस्य स तथा, "अपुहत्तेत्ति" न विद्यते पृथक्त्वं प्रस्तावात् संयमयोगवियोगरूपं | यस्यासावपृथक्त्वः, "सुप्रणिहितः" सुष्ठ संयमप्रणिधिमान् 'विहरति' संयमाध्वनि याति ॥११॥१३॥ प्रतिक्रमणे चातिचारशुद्धये कायोत्सर्गः कार्य इति तमाह| मूलम्-काउस्सग्गेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? काउस्सग्गेणं तीअपडुपन्न पायच्छित्तं विसोहेइ, विशुद्ध । पायच्छित्ते अ जीवे नियहिए ओहरियभरुव्व भारवहे पसत्थज्माणोवगए सुहंसुहेणं विहरइ ॥१२॥१४॥ व्याख्या-कायोत्सर्गेणातीतं चेह चिरकालभावि, प्रत्युत्पन्नमिव प्रत्युत्पन्न चासनकालभावि, अतीतप्रत्युत्पन्न प्रायश्चित्तं प्रायश्चित्ताहमपराधं विशोधयति, विशुद्धप्रायश्चित्तश्च जीवो निवृतं स्वस्थीभूतं हृदयमस्येति निवृत्तहृदयः, क इ ? अपहृतभरोऽपसारितभारो भारवह इव, यथा ह्यपहृतभारो भारवहो निवृतहृदयः स्यात् तथाऽयमपि विशोधितातिचार इति भावः । स च प्रशस्तध्यानोपगतः 'सुखंसुखेन', सुखपरम्परावाप्त्या विहरति ॥ १२ ॥ १४ ॥ कायोत्सर्गेणाप्यशुद्धः प्रत्याख्यानं कुर्यादिति तदाहमलम्-पच्चक्खाणेणं भंते । जीवे किं जणयइ पच्चक्खाणेणं आसवदाराई निरु भइ ॥ १३ ॥ १५ ॥ १ दोषरहितम् ।। GEVEEEEEEEEEEEEEE a- e ANA Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥११॥ अध्य०२४ ॥११॥ SADHAAR व्याख्या–प्रत्याख्यानेन मूलगुणोत्तरगुणप्रत्याख्यानरूपेण आश्रवद्वाराणि निरुणद्धि, उपलक्षणत्वाच्च पूर्वोपचितं कर्म क्षपयति । नमस्कारसहितादिकं प्रत्याख्यानं चेहोत्तरगुणप्रत्याख्यानेऽन्तर्भवति इति ॥ १३ ॥१५॥ प्रत्याख्यानं च कृत्वा चैत्यसद्भावे तद्वन्दनं कार्य, तच्च स्तुतिस्तवमङ्गलं विना नेति तदाहमूलम--थयथुइमंगलेणं भंते ! जीवे किंजणयइ ? थयथुइमंगलेणं नाणदंसणचरित्तबोहिलाभं जणयइ, नाणदंसणचरित्तबोहिलाभसंपण्णे अणं जीवे अंतकिरिअं कप्पविमाणोववत्तिअं आराहणं आराहेइ ॥१४॥१६॥ | ___ व्याख्या-स्तवा देवेन्द्रस्तवाद्याः, एकादिसप्तश्लोकान्ताः, ततश्च स्तुतयश्च स्तवाश्च स्तुतिस्तवाः, स्तुतिशब्दस्य इदन्तत्वात्पूर्वनिपातः, सूत्रे तु व्यत्ययः प्राकृतत्वात् , ते एव मङ्गलं स्तुतिस्तवमङ्गलं तेन ज्ञानदर्शनचारित्ररूपो यो बोधिः ज्ञानदर्शनचारित्रबोधिस्तल्लाभं जनयति, ज्ञानदर्शनचारित्रबोधिलाभसम्पन्नश्च जीवोऽन्तो भवस्य कर्मणां वा पर्यन्तस्तस्य क्रिया निवर्तनमन्तक्रिया मुक्तिः ततश्चान्तक्रियाहेतुत्वादन्तक्रिया तां आराधनामितियोगः, तथा कल्पा-देवलोका विमानानि-गवेयकानुत्तरविमानरूपाणि तेषूपपत्तिरुत्पादो यस्याः सा तथा तां, अयं भावोऽनन्तरजन्मनि विशिष्टदेवत्वफलां परम्परया तु मुक्तिप्रापिकामाराधनां 'ज्ञानाद्याराधनारूपामाराधयति साधयति ॥ १४ ॥१६॥ अर्हन्नमनादनु स्वाध्यायः कार्यः, स च काले एव, तज्ज्ञानं च कालप्रत्युपेक्षणया स्यादिति तामाह - मूलम्-कालपडिलेहणयाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? कालपडिलेहणयाएणं नाणावरणिज कम्म खवेइ | १ज्ञानदर्शनचारित्ररूपामाराधयति साधयतीति “घ” पुस्तकपाठः॥.. BeveeVESTE VEGVESEGOVIAVOVAVE Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१२॥ अध्य०२६ ॥१२॥ AFFFFF __ व्याख्या-कालः प्रादोषिकादिस्तस्य प्रत्युपेक्षणा ग्रहणप्रतिजागरणरूपा कायप्रत्युपेक्षणा तया ॥ १५ ॥ १७ ॥ कदाचिदकालपाठे या प्रायश्चित्तं कार्यमिति तदाहमूलम्—पायच्छित्तकरणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? पायन्तिकरणेणं पावकम्मविसोहिं जणयइ, निरइ आरे आविभवइ, सम्मं च णं पायच्छित्तं पडिवज्जमाणे मग्गं च मग्गफलं च विसोहेइ, आयारं आयारफलं च आराहेइ ॥ १६ ॥ १८ ॥ व्याख्या–प्रायश्चित्तकरणेनालोचनादिविधानरूपेण 'पापकर्मविशुद्धि' निष्पापतां जनयति, निरतिचारश्चापि भवति, तेनैव ज्ञानाचाराद्यतीचारविशोधनात , मार्ग इह ज्ञानावाप्तिहेतुः सम्यक्त्वं तं च तत्फलं च ज्ञानं विशोधयति, अनयोहि युगपदुत्पत्तावपि सम्यक्त्वस्य ज्ञानं प्रति हेतुत्वं प्रदीपस्यैव प्रकाशं प्रति विद्यत एव । तथा आचार्यते सेव्यते इत्याचारश्चारित्रं तत्फलं च मुक्तिरूपमाराधयति ॥१६॥१८॥ प्रायश्चित्तकरणं च क्षमणातः स्यादिति तामाहमूलम्-खमावणयाएणं भंते । जीवे किं जणयइ खमावणयाएणं पल्हायभावं जणयइ, पल्हायणभावमुवगए अ जीवे सव्वपाण-भूअ-जीव-सत्तेसु मित्तीभावं उत्पाएइ, मित्तीभावमुवगए आवि जीवे भावविसोहि काऊण निब्भए भवइ ॥ १७॥ १६ व्याख्या-क्षमणया दुष्कृतानन्तरं क्षमितव्यमिदं ममेत्यादिरूपया 'प्रहलादनभावं' चित्तप्रसादं जनयति, प्रहलादनभावमुपगतश्च Neve eveveeve EEVEE VEEVEEVEEVEEV Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥१३॥ REVERENARENEareedaver जीवः सर्वे प्राणा-द्वित्रिचतुरिन्द्रिया भूताश्च-तरवो जीवाश्च-पञ्चेन्द्रियाः सत्त्वाश्च-शेषजीवास्तेषु 'मैत्रीभावं' परहितचिन्तारूपमुत्पादयति, अव्य० २६ | चोपगतो जीवो 'भावविशुद्धि' रागद्वेषापगमरूपां कृत्वा निर्भयो भवत्यशेषभयहेत्वभावात् ॥ १७ ॥ १६ ॥ एवंविधगुणवता च स्वाध्यायः || ॥१३॥ कार्य इति तमाहमूलम्-सज्झाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? सज्झाएणं नाणावरणिज्ज कम्म खवेइ ॥ १८ ॥ २० ॥ न्याख्या-स्वाध्यायेन ज्ञानावरणीयमुपलक्षणत्वात् शेषकर्म च क्षपयति । उक्तंच-."कम्ममसंखिज्जभवं, खवेइ अणुसमयमेव उवउत्तो । अण्णयरम्मिवि जोर, सज्झायम्मी विसेसेणं" ॥१८ ॥ २० ।। तत्रादौ वाचना कार्येति तमाहवायणाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? वायणाएणं निज्जरं जणयइ, सुअस्त अण्णासायणाए वदृति, सुअस्स | अण्णासायणाए वट्टमाणे तित्थधम्म अवलंबइ, तित्थधम्म अवलंबमाणे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ।। ___व्याख्या-'वाचनया' पाठनेन 'निर्जरां' कर्मपरिशाटं जनयति, तथा श्रुतस्यानाशातनायां च वर्तते, तदकरणे हि अवज्ञातः ? श्रुतमाशातितं भवेत् । पाठान्तरे [ "सुअस्स अणुसज्जणाए वहृति'' तत्र श्रुतस्यानुषञ्जने अनुवर्त्तने वर्त्तते, कोऽर्थः ? श्रुतस्याव्यवच्छेदं करोति] ततः श्रुतस्यानाशातनायामनुषञ्जने वा वर्तमानः तीर्थमिह गणधरस्तस्य धर्मः आचारः श्रुतप्रदानरूपस्तीर्थधर्मस्तमवलम्बते, तं चावलम्बमान आश्रयन् महानिर्जरस्तथा महत्प्रशस्यं पर्यवसानं अन्तः प्रक्रमात्कर्मणां यस्य स महापर्यवसानश्च मोबावाप्त भवति ॥ १६ ॥ २१ ॥ कृतवाचनः संशये पुनः पृच्छत्तीति प्रच्छनामाह CANEYEANeeeeeee-AANAA Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१४॥ अध्य० २६ |॥१४॥ Deeeeeeveer मूलम् -पडिपुच्छणयाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? पडिपुच्छणयाएणं सुत्तत्थतदुभयाई विसोहेइ, कंखामोहणिज्ज कम्मं वोच्छिन्दइ ॥२०॥२२॥ . व्याख्या–पूर्वकथितसूत्रादेः पुनः प्रच्छनं प्रतिप्रच्छनं तेन सूत्रार्थतदुभयानि विशोधयति, 'कांक्षा' इदमित्थमित्थं वा ममाध्येतुमुचितमित्यादिका वाञ्छा सैव मोहनीयं कर्माऽनाभिग्रहिकमिथ्यात्वरूपं व्युच्छिनत्ति ॥ २० ॥२२ ।। इत्थं स्थिरीकृतस्य श्रतस्य विस्मृतिर्माभृत् ॥ इति परावर्त्तना कार्येति तामाहपरिप्रणयाएणं भंते ! जीवे कि जणयइ ? परिअट्टणयाएणं वंजणाई जणयइ, वंजणलद्धिं च उप्पाएइ ॥ व्याख्या-'परावर्तनया' गुणनेन व्यञ्जनान्यक्षराणि जनयति, तानि हि विस्मृतान्यपि गुणयतो झगित्युत्पद्यन्त इति उत्पादितान्युच्यन्ते, तथा तथाविधक्षयोपशमवशाद्व्यञ्जनलब्धि च शब्दात् पदलब्धि च पदानुसारितारूपामुत्पादयति ॥ २१ ॥ २३ ॥ सूत्रवदर्थस्या प्यविस्मरणाद्यर्थमनुप्रेक्षा कार्येति तामाहBI मूलम-अणुप्पेहाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? अणुप्पेहाएणं आउअवजाओ सत्त कम्मप्पगडिओ ध णिप्रबंधणबद्धाओ सिढिलबंधणबद्धाओ पकरेइ, दीहकालट्ठिइआओ हस्सकालट्टिइआओ पकरेइ, तिव्वाणुभावोओ मंदाणुभावाओ पकरेइ, बहुप्पएसग्गाओ अप्पपएसग्गाओ पकरेइ, आउभं च णं कम्मं सिम बंधइ सिम नो बंधइ, असायावेअणिज्जं च णं कम्मं नो भुजो भुजो उवचिणाइ, अणाइअं च णं अणव Aeuveeveeeeeeeeeeeeee-ve eveereek Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनमूत्रम् ॥१२॥ RELA-DEEPARARIAB | दग्गं दीहमद्ध चाउरंतसंसारकंतारं खिप्पामेव वीईवयइ ॥ अध्य०२६ __ व्या०–'अनुप्रेक्षया'ऽर्थचिन्तनिकया आयुर्वर्जाः सप्त कर्मप्रकृतयः "धणिप्रबंधणबद्धाश्रोत्ति" गाढबन्धनबद्धा निकाचिता इत्यर्थः शि ॥१ ॥ थिलबन्धनबद्धाः कोऽथोंऽपवर्तनादिकरणयोग्याः प्रकरोति, तपोभेदत्वादस्यास्तपसश्च निकाचितकर्मक्षपणेऽपि क्षमत्वात् उक्त च-"तवसा उ4 निकाइयाणं चत्ति" । दीर्घकालस्थितिकाश्च ता हस्वकालस्थितिकाः प्रकरोति, शुभाशयवशात् स्थितिकण्डकापहारेणेति भावः । इह नरतिर्यग्देवायुबर्जाणां सर्वकर्मणां स्थितयो ग्राह्यास्तासामेव दीर्घत्वस्याशुभत्वात् । उक्त च-"सव्वाणवि जिट्टिई, असुहा जं साइसंकिलेसेण ॥ इत्ररावि सोहियो पुण, मुत्त नरअमरतिरिवाउं ॥१॥" तीवानुभावाश्चतुःस्थानिकादिरसा मन्दानुभावाः त्रिस्थानिकत्वादिभावम्प्राप्ताः प्रकरोति, इह चाऽशुभप्रकृतय एवं गृह्यन्ते, शुभभावस्य शुभासु तीव्रानुभावहेतुत्वात् । बहुप्रदेशाग्रा बहुकर्मदलिका अल्पप्रदेशाग्राः प्रकरोति । आयुःकर्म च स्यात् कदाचिद्बध्नाति स्यान्न बध्नाति, तस्य विभागादिशेषायुष्कतायामेव बन्धसम्भवात् , यदि बध्नाति तदा सुरायुरेख, मुनेस्तद्वन्धस्यैव सम्भवात् । असातवेदनीयं च कर्म चशब्दादन्याचाशुभप्रकृतीनों भूयो भूय उपचिनोति, भूयो भूयो ग्रहणं तु केनापि प्रमादेन प्रमत्तमुनेस्तद्वन्धस्यापि सम्भवात् । 'अनादिकं आदिरहितं, 'अनवदग्रं' अनन्तं, "दीहमद्धति" मकारोऽलाक्षणिकस्ततो 'दीर्घाद्धं दीर्घकालं, चत्वारश्चतुर्गतिलक्षणा अन्ता अवयवा यस्मिस्तच्चतुरन्तं संसारकान्तारं क्षिप्रमेव व्यतिव्रजति विशेषेणातिक्रामति ॥२२॥२४॥ अभ्यस्तश्रुतेन धर्मकथापि कार्येति तामाहमूलम्--धम्मकहाएणं भंते ! जीवे किं.जणयइ ? धम्मकहाएणं पवयणं पभावेइ, पवयणपभावए णं जीवे Eeeeeeeeeeeee Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१६॥ अध्य० २६ ॥१६॥ PROPERFRAHAPA आगमे सस्सभदत्ताए कम्मं निबंधइ ॥ २३ ॥ २५ ॥ ___व्याख्या- 'धर्मकथया' व्याख्यानरूपया 'प्रवचनं शासनं प्रभावयति, उक्त हि-पावयणी १ धम्मकही २ वाइ ३ नेमित्तिो ४ || तवस्सी ५ अ॥ विज्जा ६ सिद्धो अ७ कई = अहेव पहावगा भणिया" पाठान्तरे निर्जरां जनयति, "आगमे सस्समद्दत्ताएति भागमिप्यतीति आगम-आगामी कालस्तस्मिन् शश्वद्भद्रतया-निरन्तरकन्याणतयोपलक्षितं कर्म निबध्नाति, शुभानुवन्धि शुमधुपार्जयति इति | भावः ॥ २३ ॥ २५ ॥ एवं पञ्चविधस्वाध्यायरतेः श्रुताराधना स्यादिति तामाहमूलम-सुअस्स आराहणयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? सुअस्स आराहणयाएणं अण्णाणं खवेइ न | य संकिलिस्सइ ॥ २४ ॥ २६ ॥ व्याख्या-श्रुतस्याराधनया सम्यगासेवनया अज्ञानं क्षपयति, विशिष्टज्ञानावाप्तः। न च संक्लिश्यते' नैव रागादिजनितसंक्लेशभाग | भवति, तद्वशतो नवनवसंवेगावाप्तः ॥ २४ ॥ २६ ॥ श्रुताराधना चैकाग्रमनःसंनिवेशनादेव स्यादिति तामाह2 एगग्गमनसंनिवेसणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? एगग्गमणसंनिवेसणयाए णं चित्तनिरोधं करेइ॥ व्याख्या-एकं च तदनं च प्रस्तावाच्छुभमालम्बनं एकाग्रं तस्मिन्मनसः संनिवेशना स्थापना एकाग्रमनःसंनिवेशना तया चित्तस्य मा कथञ्चिदुन्मार्गप्रस्थितस्य निरोधं नियंत्रणं चित्तनिरोधं करोति ॥ २५ ॥ २७ ॥ इदं सर्व संयमवतः सफलमिति तमाह मूलम् -संजमेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? संजमेणं अणण्हयत्तं जणयइ ॥ २६ ॥ २८ ॥ timesNeeNeuNewsMeNeAYEGNANEYANYAGYEARH Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०२६ उपराध्ययनसूत्रम् ॥१७॥ ॥१७॥ SeeYesveeYEGYEEYEEVELYELVE-YE DEVEurce या संयमेनाश्रवविरमणादिना "अणण्हयत्तंति" 'अनंहस्कत्वं' अविद्यमानपापकर्मत्वम् ॥ सत्यपि संयमे तपो विना न कर्मक्षपणेति तदाह- || मूलम्-तवेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? तवेणं वोदाणं जणयइ ॥२७॥२६॥ व्याख्या-"वोदाणंति" 'व्यवदानं पूर्वबद्धकर्ममलापगमाद्विशिष्टां शुद्धिं जनयति ॥२७॥२६॥ व्यवदानस्यैव फलमाहमूलम्-वोदाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? वोदाणेणं अकिरिअंजणयइ, अकिरिआए भवित्ता तो पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वाइ, सव्वदुक्खाणमंतं करेइ ॥२८॥३०॥ | व्याख्या-व्यवदानेन 'अक्रियं व्युपरतक्रियाख्यं शुक्लध्यानचतुर्थभेदं जनयति, ततश्च अक्रियाको व्युपरतक्रियाख्यशुक्लध्यानवर्ती भूत्वा 'सिध्यति' निष्ठितार्थो भवति, 'बुध्यते' ज्ञानदर्शनोपयोगाभ्यां वस्तुतत्त्वमवगच्छति, मुच्यते संसारादत एव परिनिर्वातीत्यादि प्राग्वत् ॥२८॥३०॥ व्यवदानं च सुखशातेनैव स्यादिति तमाहघा मूलम्-सुहसाए भंते! जीवे कि जणयइ ? सुहसाएणं अणुस्सुअत्तं जणयइ, अणुस्सुए अणं जीवे अणुकंपए अणुब्भडे विगयसोए चरित्तमोहणिज्जं कम्मं खवेइ ॥२६॥३१॥ ४. व्याख्या सुखस्य वैषयिकरूपस्य शातस्तद्गतस्पृहापोहेनापनयनं सुखशातस्तेन 'अनुत्सुकत्वं' विषयसुखं प्रतिनिःस्पृहत्वं जनयति, अनुत्सुकश्च जीवो 'अनुकम्पको' दुःखितानुकम्पी, सुखोत्सुको हि प्रियमाणमपि प्राणिनं पश्यन् स्वसुखरसिक एव स्यात् न त्वनुकम्पते, तथाऽनुद्भटोऽनुल्वणः, विगतशोको नैहिकार्थभ्रंशेपि शोचति मुक्तिपदबद्धस्पृहत्वात् , एवंविधश्च प्रकृष्टशुभभाववशाचारित्रमोहनीयं कर्म क्षप NAVEGVereeVeereeVEVAVEVATE Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य० २६ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१८॥ ॥१८॥ प्रति ॥२६॥२२॥ सुखावयाप्रतिवद्वतका स्यादिति वामह मूलम-अप्पडिबड्याए वं भंते ! जीवे किं जण्यइ 'अप्पडियायाए सं निस्संग पह, निस्तगत| गए अणं जीवे एगे एपम्पचित्ते दिया य राम्रो अ असनमाणे अप्पडिबद्ध आवि विहरइ ॥३०॥३॥ व्याख्या-'अप्रतिबद्धतया' मनसो निरभिष्वङ्गतया 'निःसङ्गत्व बहिः सङ्गाभावं जनयति, निस्सङ्गत्वगतश्च जीव 'एको' रागादिविकलः एकाग्रचित्तो' धर्मैकतामयेतास्ततश्च दिवा च रात्रौ चाऽसजन्, कोऽर्थः १ सदा बहिःसङ्ग त्यजन् अप्रतिबद्धश्चापि विहरति, मासकल्पादिनी उद्यतविहारेण पर्यटति ॥३०॥३२॥ अप्रतिबद्धतायाश्च विविक्तशयनासनताहेतुरिति तामाहमलम-विवित्तखयणासण्याए भंते । जीवे कि जणयविवित्तसयासरणयाए चारत्तमुत्ति असावंड: C चरिचयुत्ते अणं जीवे विविस्यहारे दढचरित्ते एगंतरए मोक्खभावपडिवणणे अविहं कम्मर्गठिं निजरेई ॥ ___ व्याख्या-विविक्तानि-बयादिरहितानि शयनासनानि उपलक्षणत्वादुपाश्रयश्च यस्यासी विविक्तशयनासनः तद्भावस्तत्ता तया 'चरित्रगुप्ति' चरणरक्षां जनयति, "चरित्तगुत्ते 'अति" गुप्तचरित्रश्च जीवो विकृत्यादिव हकवस्तुरहित आहारो यस्य तथा दृढचरित्रः, एकान्तम निश्चयेन रत एकान्तरतः संयम इति यम्पते, मोक्षभावप्रतिपन्नो मोक्ष एव मया साधनीय इत्यभिप्रायवान् , अष्टविधकर्मप्रथिं निर्जरयति, क्षपकश्रेणिप्रतिपत्या क्षपयति ॥३१॥३३॥ विविक्तशयनासनतायां सत्यां विनिवर्त्तना स्यादिति तामाहमूलम---विणिवट्टण्याए णं भंते ! जीवे किं जरणयद ? विणिवट्टणयाए णं पाक्कम्मा अकराए --- Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥१६॥ अभुट्ठे, पूव्ववद्वाण य निज्जरणयाए तं नित्ते, तत्र पच्छा चाउरंतसंसारकंतारं विईवयइ ॥३२॥३४॥ व्याख्या—विनिवर्त्तनया विषयेभ्य आत्मनः पराङमुखीकरणरूपया पापकर्मणां ज्ञानावरणादीनां “अकरण्याएत्ति" आर्पत्वादकरणेन पूर्वानुपाञ्जमेनाऽभ्युत्तिष्ठते मोक्षायेति शेषः पूर्ववद्धानां निर्जरणया तदिति पापकर्म निवर्त्तयति विनाशयति ||३२||३४|| विषय निवृत्तश्च कश्चित् सम्भोगप्रत्याख्यानवानपि स्यादिति तदाह मूलम् - संभोगपच्चक्खाणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? संभोगपच्चक्खाणं आलंबगाइ खवेइ, निरालब|स्स या जोगा भवंति, सएणं लाभेणं तुस्सइ, परस्स लाभं नो आसाएइ, नो तक इ, नो पत्थेइ, नो अभिलसइ । परस्स लाभं अणासाएमाणे अतके माणे अपीहेमाणे अपत्थमाणे अणभिल सेमादोच्चं सुहसिज्जं उपसंपज्जित्ताणं विहरइ ॥ ३३ ॥ ३५॥ सम्भोग-एकमण्डलीभोक्तृत्वं, अन्यमुनिदत्ताहारादिग्रहणमित्यर्थः, तस्य प्रत्याख्यानं - गीतार्थत्वे जिनकल्पाद्यभ्युद्यतविहारप्रतिपत्या परिहार!- सम्भोगप्रत्याख्यानं तेन 'आलम्बनानि' ग्लानत्वादीनि 'तपयति' तिरस्कुरुते, अन्यो हि मान्यादिकारणेष्वन्यदत्तमाहारादिकं गृहूयात असौ तु कारणेऽपि न तथेत्येवमुच्यते, सदोद्यतत्वेन वीर्याचारं चावलम्बते । निरालम्बनस्य चाऽऽयतो मोचः स एवार्थः प्रयोजनं 'विद्यते येषामित्यायतार्थिका 'योगा' व्यापारा भवन्ति, सालम्बनस्य हि योगाः केचन तादृशा न भवन्त्यपीति । तथा 'स्वकेन' स्वकीमेल लागेन सन्तुष्यति, परस्य लाभ 'नो आस्वादचति' न भूक्ते, नो तर्कयति, नो स्पृहयति, नो प्रार्थयते, नो अभिलषति । तत्र तर्कखं यदीदं महा+ । अध्य० २६ ॥ १६॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥२०॥ अध्य० २६ ॥२०॥ मसौ ददाति तदा शुभमिति विकल्पनं, स्पृहणं तत्श्रद्धालुतयाऽऽत्मन आविष्करणं, प्रार्थनं वाचा मद्यमिदं देहीति याचनं, अभिलपर्ण तल्लालसतया वाञ्छनं । एकार्थिकानि वा एतानि नानादेशोत्पन्नविनेयानुग्रहाय गहीतानि । परस्य लाभमनास्वादयन्न भुञ्जानोऽतर्कयनस्पृहयन्नप्रार्थयमानोऽनभिलषन् 'दोचति" द्वितीयां सुखशय्यामुपसम्पद्य विहरति, एवंविधरूपत्वात् तस्याः। यदुक्त स्थानाङ्गे-"अहावरा दोच्चा सुहसेज्जा, से णं मुंडेभवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे सएणं लामेणं संतुस्सइ, परस्स लाभं न आसाएइ" इत्यादि ॥३३॥३॥ प्रत्याख्यातसम्भोगस्योपधिप्रत्याख्यानमपि स्यादिति तदाहमूलम् - उवहिंपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? उवहिपच्चक्खाणेणं अपलिमंथं जणयइ, निरुवहिए णं जीवे निक्कंखे उवहिमंतरेण यन संकिलिस्सइ ॥३४॥३६॥ ॥ व्या०-उपधेरुपकरणस्य रजोहरणमुखवस्त्रिकाव्यतिरिक्तस्य प्रत्याख्यानं तेन परिमन्थः स्वाध्यायादिक्षतिस्तदभावोऽपरिमन्थस्तं जनयति, तथा निरुपधिको निष्कांक्षो वस्त्राद्यभिलाषरहित उपधिमन्तरेण च न संक्लिश्यते, शारीरं मानसं वा संक्लेशं नानुभवति। उक्त हितस्सणं भिक्खुस्स णो एवं भवइ, परिजुगणे मे वत्थे सुई जाइस्सामि, संधिस्सामि" इत्यादि ॥३४॥३६॥ उपधिप्रत्याख्यातुर्जिनकल्पिकादेयोग्याहाराद्यलाभे उपवासा अपि स्युस्ते चाहारप्रत्याख्यानरूपा इति तदाहमूलम्-आहारपच्चकखाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ? आहारपच्चक्खाणेणं जीविआसंसप्पोगं वोच्छि| दइ, जीविआसंसप्पओगं वोच्छिदित्ता जीवे आहारमंतरेण न संकिलिस्सइ ॥३५॥३७॥ AGAGALALAEGEVE ReceGY Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥२१॥ NNINNAN व्याख्या—आहारप्रत्याख्यानेन जीविते आशंसा - अभिलाषो जीविताशंसा तस्याः प्रयोगः करणं जीविताशंसाप्रयोगस्तं व्यवच्छिनत्ति, आहाराधीनत्वाज्जीवितस्याहारप्रत्याख्याने तदाशंसाव्यवच्छेदो भवत्येवेति । तं च व्यवच्छिद्य जीव आहारमन्तरेण संक्लिश्यते, कोऽर्थः ? विकृष्टतपोनुष्ठानेऽपि न बाधामनुभवति ||३५||३७|| एतत्प्रत्याख्यानत्रयं कषायाभाव एव सफलमिति तत्प्रत्याख्यानमाहमूलम् -- कसायपच्चक्खाणं भंते! जीवे किं जणयइ ? कसायपच्चक्खाणेणं वीयरागभावं जरण्यइ, वीरागभावं पडवणं जीवे समसुहदुक्खे भवइ ॥ ३६ ॥ ३८ ॥ व्याख्या – कषायप्रत्याख्यानेन क्रोधादिनिवारणेन वीतरागभावमुपलक्षणत्वाद्वीतद्वेषभावं च जनयति तं च प्रतिपन्नो जीवः समे रागद्वेषाभावात्तुल्ये सुखदुःखे यस्य स समसुखदुःखो भवति ॥ ३६ ॥ २८ ॥ निष्कपायोऽपि योगप्रत्याख्यानादेव मुक्तः स्यादिति तदाहमूलम् - जोगपच्चक्खाणं भंते! जीवे कि जरण्यइ ? जोगपच्चक्खाणं अजोगित्तं जणयइ, अजोगी गं जीवे नवं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्ध च निज्जरेइ ॥३७॥३६॥ व्याख्या—योगा मनोवाक्कायव्यापारास्तत्प्रत्याख्यानेन तन्निरोधेन योगित्वं जनयति, अयोगी च नवं कर्म्म न बध्नाति, सकलबन्धहेतूनामुच्छेदात् । पूर्वबद्ध ं च भवोपग्राहिकर्मचतुष्कमन्यस्य तदाऽसम्भवात् । योगप्रत्याख्यातुः शरीरप्रत्याख्यानमपि स्यादिति तदाहमूलम् - सरीरपच्चक्खाणं भंते! जीवे किं जणयइ ? सरीरपच्चक्खाणं सिद्धाइसयगुणत्तं निव्वत्ते, सिवाइसयगुणसंपन्ने अ णं जीवे लोगग्गमुवगए परमसुही भवइ ॥ ३८ ॥४०॥ अध्य०२६ ॥२१॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०२४ का॥२२॥ उत्तराध्य व्याख्या-शरीरमौदारिकादि तत्प्रत्याख्यानेन सिद्धानामतिशयगुणाः "न कृष्णो न नीलः" इत्यादयो यस्य स सिद्धातिशयगुणस्तयनसूत्रम् द्भावस्तत्त्वं जनयति, सिद्धातिशयगुणसम्पन्नश्च जीवो लोकाग्रभवत्वाल्लोकायं मुक्तिपदमुपगतः परमसुखी भवति ॥३८॥४०॥ सम्भोगादिप्रत्या॥२२॥ KI ख्यानानि प्रायः सहायप्रत्याख्याने सुकराणीति तदाह | मूलम्-सहायपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? सहायपच्चक्खांणेणं एगीभावं जणयइ, एगीभाव भूए अ जीवे एगग्गं भावमाणे अप्पझझे अप्पकसाए अप्पकलहे अप्पतुमंतुमे संजमबहुले संवरबहुले समाहिए आवि भवइ ॥३६॥४१॥ ___व्याख्या-सहायाः-साहाय्यकारिणो यतयस्तत्प्रत्याख्यानेन यथाविधयोग्यताभाविनाऽभिग्रहविशेषेण 'एकीभावम्'एकत्वं जनयति, एकीभावं एकत्वं भूतःप्राप्तश्च जीव 'ऐकायं' एकालम्बनत्वं भावयन्'अभ्यस्यन् 'अल्पझंझो'ऽवाक्कलहः, अल्पकषायोऽकषायः, 'अप्पतुमंतुमेत्ति' अल्पमविद्यमानं त्वं त्वमिति–खल्पापराधवत्यपि त्वमेवेदं कृतवान् त्वमेवेदं करोषीत्यादि पुनः पुनः प्रलपनं यस्य सोऽल्पत्वंत्वः, संयमबहुलः प्राग्वत् । अत एव समाहितो ज्ञानादिसमाधिमांश्चापि भवति ॥३६॥४१॥ ईदृशश्चान्ते भक्त प्रत्याख्यातीति तत्प्रत्याख्यानमाहमूलम्-भत्तपच्चक्खाणे भंते ! जीवे कि जणयइ ? भत्तपच्चक्खाणेणं अणेगाई भवसयाइं निरंभइ ॥ __व्या०-'भक्तप्रत्याख्यानेन' भक्तपरिज्ञादिना अनेकानि भवशतानि निरुणद्धि, दृढशुभाध्यवसायेन संसाराल्पत्वापादनात् ॥४०॥४२॥ साम्प्रतं सर्वप्रत्याख्यानोत्तमं सद्भावप्रत्याख्यानमाह aeeeeeeeeeeE PAAAAEARREARH Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥२३॥ मूलम् — सब्भावपच्चक्खाणे भंते ! जीवे किं जणयइ ? सम्भावपच्चखाणेां अनिहिं जणयइ, अनिअहिं पडिवन्ने अ अणगारे चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेइ । तं जहा- वे णिज्जं, आउअं, नामं, गोत्तं । तत्र पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वाइ, सव्वदुः कखाणमंत करेइ ॥ ४१॥ ४३॥ व्याख्या - सद्भावेन सर्वथा पुनःकरणासम्भवात् परमार्थेन प्रत्याख्यानं सद्भावप्रत्याख्यानं सर्वसंवररूपं शैलेशीत्यर्थः तेन - न विद्यते निवृत्तिनिवृत्तिमप्राप्य निवर्त्तनं यस्य सोऽनिवृत्तिः शुक्लध्यानतुर्यभेदस्तं जनयति तं प्रतिपन्नश्वानगारचत्वारि केवलिनः “कम्मंसेत्ति" सत्कर्माणि केवलिसत्कर्माणि भवोपग्राहीणीत्यर्थः, क्षपयति || ४१ ||४३|| सद्भावप्रत्याख्यानं च प्राय: प्रतिरूपतायां स्यादिति तामाहमूलम् - पडिरूवयाए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? पडिरूत्र्याए गं लाघविचं जणयइ, लहुब्भुए अ जीवे अप्पमन्ते पागडलिंगे पसत्थलिंगे विसुद्धसम्मत्ते सत्तसमिइसम्म ते सव्वपाणभूजीवसत्तेसु वीससणि वे पडिले जिइंदिए विउलतत्रसमिइसमन्नागए आवि भवइ ॥४२॥४४॥ व्याख्या — प्रतिः सादृश्ये, ततः प्रतीति- स्थविरकल्पिकादिसदृशं रूपं वेषो यस्स स प्रतिरूपस्तस्य भावः प्रतिरूपता तमाऽधिकोपकरणत्यागरूपया लाघवमस्यास्तीति लाघविकस्तद्भावो लाघविकता तां द्रव्यतः स्वल्पोपकरणत्वेन भावतस्त्वप्रतिबद्धतया जनयति । लघुभूतथ जीवोऽप्रमत्तस्ती प्रकटलिङ्गः स्थविरकल्पिकादिरूपेण विज्ञायमानत्वात्, प्रशस्त लिङ्गो जीवरक्षाहेतुरजोहरणादिधारकत्वात्, विशुद्धसम्यक्त्वः क्रियया सम्यक्त्वविशोधनात्, “सत्तसमिइसम्मत्तेत्ति" सत्यं च समितयश्च समाप्ताः- परिपूर्णा यस्य स समाप्तसत्यसमितिः, सूत्रे क्तान्तस्या अध्य० २६.. ॥२३॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य- पनसूत्रम् ॥२४॥ BBBBBepepe ते निपातः प्राकृतत्वात् । अत एव सर्वप्राण--भूत-जीव-सत्त्वेषु विश्वसनीयरूपस्तत्पीडापरिहारित्वात् , अल्पप्रत्युपेदोऽन्पोपधित्वात, जिते- अध्य० २६ न्द्रियो विपुलेनानेकमेदतया विस्तीर्णेन तपसा समितिभिश्च सर्वविषयव्यापितया विपुलाभिरेव समन्वागतो युक्तो विपुलतपसमितिसमन्वागत HA॥२४॥ चापि भवति । पूर्वत्र समितीनां पूर्णत्वाभिधानेन सामस्त्यमुक्तमिह तु सर्वविषयव्यापित्वमिति न पौनरुक्त्यम् ॥४२॥४४॥ प्रतिरूपतायां वैयावृत्त्यादेवेष्टसिद्धिरिति तदाहमूलम्वे वच्चे णं भंते! जीवे कि जणयइ ? वेयावच्चेणं तित्थयरनामगो कम्मं निबंधइ ॥४३॥४५॥ ___ व्याख्या स्पष्टम् ॥४३॥४॥ वैयावृत्त्येनार्हन्त्यप्राप्तिरुक्ता अहंश्च सर्वगुणसम्पन्नः स्याहिति तत्तामाहमूलम्-सव्वगुणसंपन्नयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? सव्वगुणसंपन्नयाए णं अपुणरावत्तिं जणयइ । अपुणरावत्तिपत्तए अ णं जीवे सारीरमाणसाणं दुक्खाणं नो भागी भवइ ॥४४॥४६॥ सर्वे गुणा ज्ञानादयस्तैः सम्पन्नः सर्वगुणसम्पन्नस्तद्भावः सर्वगुणसम्पन्नता तया 'अपुनरावृत्ति' मुक्तिं जनयति, तां च प्राप्त एव प्राप्तको जीवः शारीरमानसानां दुःखानां नो भागी भवति, तत्कारणवपुर्मनसोरभावात ॥४४॥४६॥ सर्वगुणवत्ता च वीतरागतायां स्यादिति तामाहमूलम-वीअरागयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? वीअरागयाए णं णेहाणुबंधणाणि तशहाणुबंधणाणि अ | वोच्छिदइ मणुएणामणुण्णेसु सद्द-फरिस-रूव-रस-गंधेसु विरजइ ॥४५॥४७॥ व्याख्या—'वीतरागतया' रागद्वेषापगमरूपतया स्नेहः पुत्राकिविषयस्तद्रूपाण्यनुबन्धनानि--अनुकूलबन्धनानि स्नेहानुबन्धनानि, तृष्णा CEEVEEVALEVEGV Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥२५॥ BAYCA लोभस्तद्रूपाण्यनुबन्धनानि तृष्णानुबन्धनानि च व्यवच्छिनत्ति । ततश्च मनोज्ञामनोज्ञेषु शब्दादिषु विरज्यते, कषायप्रत्याख्यानेनैव गतत्वेSपि वीतरागतायाः पृथगुपादान रागस्यैव सकलानर्थमूलत्वख्यापनार्थम् ||४५ ||४७ || वीतरागत्वस्य च क्षान्तिर्मूलमिति तामाहमूलम् -- खंतीए णं भंते! जीवे किं जणयइ ? खंतीए गं परीसहे जिइ ॥ ४६ ॥४८॥ व्याख्या - ' क्षान्तिः' क्रोधजयस्तया परीषहानर्थाद्वधादीन् जयति ||४६ ||४८ || क्षान्तिश्च मुक्त्या दृढा स्यादिति तामाहमूलम् - मुत्तीए गं भंते! जीवे किं जणयइ ? मुत्तीए णं किंवणं जणयइ, अकिंचणे लागं पुरिसारणं प्रपत्थणिज्जे हवई ॥४७॥ ४६ ॥ जीवे अत्थलो व्याख्या- 'मुक्त्या' निलभिर्तया "अकिंचणंति" आकिञ्चन्यं' निःपरिग्रहत्वं जनयति, अकिञ्चनश्च जीवोऽर्थलोलानां पुरुषाणां चौरादीनामप्रार्थनीयः पीडयितुमनभिलषणीयो भवति ॥ ४७ ॥ ४६ ॥ लोभाभावे च मायाकरणकारणाभावात्तदभावोऽपि स्यादित्यार्जवमाहमूलम् - अजवाए गं भंते! जीवे किं जणयइ ? अज्जवयाए गं का उज्जुऋयं भावुज्जुअयं भासुज्जुऋयं अविसंवायणं जणयइ, अविसंवायणसंपन्नयाए अ णं जीवे धम्मस्स आहए भवइ ॥४८॥५०॥ व्याख्या–‘“अज्जवयाएत्ति” 'आर्जवेन' मायाभावेन 'कायजु कतां' कुब्जादिवेषभूविकाराद्यकरणाद्वपुः प्राञ्जलतां, 'भावजु 'कतां यदन्यद्विचिन्तयन् लोकभक्त्यादिनिमित्तमन्यद्भाषते करोति वा तत्परिहाररूपां 'भाषजु कतां' यदुपहासादिहेतोरन्यदेशभाषया भाषणं तत्परित्या - गात्मिकां तथा 'अविसंवादनं पराविप्रतारणं जनयति । अविसंवादनसम्पन्नतया उपलक्षणत्वात्कायजु कतादिसम्पन्नतया च जीवो धर्मस्यारा अध्य०२६ ॥२५॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपराष्य यनसम् ॥२६॥ "घको भवति, भवान्तरेऽपि तदवाप्तेः || ४६ ॥ ५० ॥ ईदृशपुणस्यापि निनवादेवेष्टसिद्धिः, स च मार्दवादेवेति तदाहमूलम् —— मद्दवयाए भंते! जीवे किं जायइ ? मद्दवयाए गं मिउमद्दवसंपन्ने मयट्ठालाई निहवे || व्याख्या–मार्द्दवैन गम्यमानत्वादभ्यस्यमानेन मृदुर्द्रव्यतो भाषतश्चावनमनशीलस्तस्य यन्मादवं सदा सौकुमार्य तेन सम्पन्नो मृदुमाईवसम्पन्नोऽष्टमदस्थानानि क्षपयति ॥ ४६ ॥ ५१ ॥ मार्द्दवं च तत्त्वतः सत्यस्थितस्यैव स्यात् तत्रापि भावसत्यं प्रधानमिति तदाह--- मूलम् - भावसच्चे भंते! जीवे किं जणयइ ? भावसच्चेणं भावविसोहिं जणयइ, भावविसोहिए वह माणे जीवे अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स राहण्याए अन्भुट्ठेइ, अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स राहण्याए अब्भुट्ठित्ता परलो धम्मस्स आहए भवइ ॥ ५०॥५२॥ व्याख्या – 'भावसत्येन' शुद्धान्तरात्मतारूपेण पारमार्थिकावितथत्वेनेत्यर्थः, 'भावविशुद्धि' अध्यवसायविशुद्धतां जनयति । भावविशुद्धौ च वर्त्तमानोऽर्हत्प्रज्ञप्तस्य धर्मस्याराधनायै श्रावर्जनाय 'अभ्युत्तिष्ठते' उत्सहते, तस्यै चाभ्युत्थाय परलोके - भवान्तरे धर्मः परलोकधर्म्मस्तस्या+ राधको भवति, प्रेत्य जिनधर्मावाप्त्या विशिष्टभवान्तरप्राप्त्या वेति भावः ||५० ||५२ || भावसत्ये च सति करणसत्यं स्यादिति तदाहमूलम्-करणसच्चेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? करणसच्चेणं करणसत्तिं जणयइ, करण सच्चे अ वटूटमा जीवे जहावाई तहाकारी श्रवि भवइ ॥ ५१ ॥ ५३ ॥ व्याख्या - करणे सत्यं करणसत्यं यत्प्रतिलेखनादिक्रियामुपयुक्तः कुरुते तेन करणशक्तिं पूर्वापूर्वशुभक्रियां करणसामर्थ्यरूपां जन अध्य० २६ ॥२६॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥२७॥ का अध्य०२६ ॥२७॥ BIBABDसालस यति, करणसत्ये च वर्तमानो यथावादी तथाकारी चापि भवति, स हि सूत्रं पठन् यथा क्रियाकलापबदनशीलः स्यात्तथैव करणशीलोपीति ॥५१॥५३॥ तस्य च मुनेर्योगसत्यमपि स्यादिति तदाहमूलम्-जोगसच्चेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? जोगसच्चेणं जोगे विसोहेइ ॥५२॥५४॥ योगसत्येन मनोवाक्कायसत्येन योगान् विशोधयति, क्लिष्टकर्मबन्धाभावानिर्दोषान् करोति ।। योगसत्यं च गुप्तिमतः स्यादिति ता पाहका मूलम्-मणगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? मणगुत्तयाए णं जीवे एगग्गं जणयइ, एगग्गचित्ते णं जीवे मणगुत्ते संजमाराहए भवइ ॥५३॥५५॥ व्याख्या-मनोगुप्ततया मनोगुप्तिरूपया ऐकाग्रयं प्रस्तावाद्धमैकतानचित्तत्वं जनयति, तथा चैकाग्रचित्तो जीवो मनो गुप्तमशुभाध्यवसा| येषु गच्छद्रक्षितं येनासौ मनोगुप्तः, क्तान्तस्य परनिपातः सूत्रत्वात् , संयमाराधको भवति ॥५३॥५५॥ मूलम्-वइयुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? वइगुत्तयाए णं निविआरत्तं जणयइ, निब्धिकारेणं जीवे | वइगुत्ते अज्झप्पजोगसाहणजुत्ते आवि भवइ ॥५४॥५६॥ " व्याख्या 'वाग्गुप्ततया' कुशलवागुदीरणरूपया 'निर्विकारत्वं विकथाद्यात्मकवाग्विकाराभावं जनयति, ततश्च निर्विकारो जीवो वाग्गुप्तः सर्वथा वागनिरोधलक्षणवाग्गुप्तिमान अध्यात्म मनस्तस्य योगा व्यापारा धर्मध्यानादयस्तेषां साधनानि एकाग्रतादीनि तैयुक्तोऽध्यात्मयोगसाधनयुक्तचापि भवति, विशिष्टवाग्गुप्तिरहितो हि न चित्तकाग्रतादिमाग भवति ॥५४॥५६।। BEVEEVEEVEve! EEVEGEGYZEVEGVAVE Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्ययनसूत्रम् ॥२८॥ अध्य० २६ ॥२८॥ ܢܦܩܝܩܝܕܣܬܒܬܕܒܕܒܬܕܐܒܤܙܟSenex मूलम्-कायगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? कायगुत्तयाए णं संवर जणयइ, संवरेणं कायगुत्ते पु- | णो पावासवनिरोहं करेइ ॥५५॥५७॥' । ___ व्याख्या कायगुप्ततया शुभयोगप्रवृत्त्यात्मककायगुप्तिरूपया संवरमशुभयोगनिरोधरूपं जनयति, संवरेण गम्यत्वादभ्यस्यमानेन कायगुप्तः पुनः सर्वथा निरुद्धकायिकव्यापारः पापाश्रवः पापकर्मोपादानं तन्निरोधं करोति ॥ गुप्तिभिश्च यथाक्रमं मनःसमाधारणादिसम्भव इति ता आहमूलम्-मणसमाहारणयाए ण भंते । जीवे कि जणयइ? मणसमाहारणयाए णं एगग्गं जणयइ, एगग्गं जणइत्ता नाणपज्जवे जणयइ, नाणपज्जवे जणइत्ता सम्मत्तं विसोहेइ, मिच्छत्तं विनिज्जरेइ ॥५६॥५८॥ - व्याख्या-मनसः समिति सम्यक् आङिति आगमोक्तभावाभिव्याप्त्या या धारणा व्यवस्थापना सा मनःसमाधारणा तया ऐकायं जनयति, ऐकाग्र्यंजनयित्वा ज्ञानपर्यवान् विशिष्टविशिष्टतरश्रततत्त्वावबोधरूपान् जनयति, तांश्च जनयित्वा सम्यक्त्वं विशोधयति, तत्त्वज्ञानस्य शुद्धत्वे तस्वविषयश्रद्धाया अपि शुद्धत्वभवनात् , अत एव मिथ्यात्वं निर्जरयति ॥५६॥५॥ मूलम्-वइसमाहारणायाए णं भंते ! जीवे किं जग्णयइ ? वइसमाहारणयाए णं वइसाहारणदसणपज्जवे विसोहेइ, वइसाहारणदसणपज्जवे विसोहित्ता सुलहबोहित्तं निव्वत्तेइ, दुल्लहबोहित्तं निज्जरेइ ॥५७॥५६॥ ____ व्याख्या-वाक्समाधारणया स्वाध्याय एव वागविनिवेशात्मिकया वाचां साधारणा वाक्साधारणा वाग्विषयाः प्रज्ञापनीया इत्यर्थः, ते चेह पदार्था एव, तद्विषयाश्च दर्शनपर्पवा अप्युपचारात्तथोक्ताः, ततश्च वाक्साधारणाश्च ते दर्शनपर्यवाश्च वाक्साधारणदर्शनपर्यवाः, प्रज्ञापनी GeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeG Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य अध्य०२६ ॥२६॥ यनसूत्रम् ॥२६॥ यपदार्थविषयसम्यक्त्वविशेषा इत्यर्थः, तान् विशोधयति । द्रव्यानुयोगाभ्यासात्तद्विषयशङ्कादिमालिन्यापनयनेन विशुद्धान् करोति, शेषं स्पष्टम्॥ | मूलम-कायसमाहारणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? कायसमाधारणयाए णं चरित्तपज्जवे विसोहेइ, || चरित्तपज्जवे विसोहित्ता अहक्खायचरित्तं विसोहेइ, अहक्खायचरित्तं विसोहित्ता चत्तारिकेवलीकम्मंसे खवेइ, तो पच्छा सिझइ, बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ ॥५८॥६॥ ___व्याख्या-कायसमाधारणया संयमयोगेषु शरीरस्य सम्यग्व्यापारणरूपया 'चरित्रपर्यवान्' चरित्रभेदान् क्षायोपशमिकानिति गम्यते विशोधयति, तांश्च विशोध्य यथाख्यातचारित्रं विशोधयति, सर्वथा ह्यसत उत्पत्त्यसम्भव इति पूर्वमपि कथञ्चित्सदेव तच्चारित्रमोहोदयमलिनं | तनिर्जरणेन निर्मलीकुरुते, शेषं प्राग्वत् ॥५८॥६०॥ इत्थं समाधारणात्रयात् ज्ञानादित्रयस्य विशुद्धिरुक्ता, अथ तस्यैव फलमाहEI मूलम्-नाणसंपन्नयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ? नाणसंपन्नयाए णं सवभावाहिगर जणयइ, नाण संपन्ने अणं जीवे चाउरंते संसारकंतारे न विणस्सइ, जहा सूई ससुत्ता पडिआवि न विणस्सइ तहा जीवे ससुत्ते संसारे न विणस्सइ, नाणविणयतवचरित्तजोगे संपाउणइ, ससमयपरसमयसंघायणिज्जे भवइ ॥ ___ व्याख्या-ज्ञानमिह श्रुतज्ञानं तत्सम्पन्नतया 'सर्वभावाभिगम' सर्वपदार्थावबोधं जनयति, ज्ञानसम्पन्नश्च जीवश्चतुरन्ते संसारकान्सारे 'न विनश्यति' न मुक्तिमार्गाद्विशेषेण दूरीभवति, अमुमेवार्थ दृष्टान्तद्वारा स्पष्टतरमाह-यथा सूची 'ससूत्रा' दवरकयुक्ता पतितापि कचवरादौ 'न विनश्यति' न दूरीभवति, तथा जीवः सह सूत्रेण-श्रुतेन वर्तते यः स ससूत्रः संसारे न विनश्यति । अत एव ज्ञानं चावध्यादि विनयश्च VA-EECE Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥३०॥ KARAVAARARARARAFAHAAN तपश्च चारित्रयोगाश्च चारित्रव्यापाराः ज्ञानविनयतपश्चारित्रयोगास्तान् सम्प्राप्नोति तथा स्वसमयपरसमययोः संघातनीयः -- प्रधानपुरुषतया मीलनीयः स्वसमयपरसमयसंघातनीयो भवति, स्वसमयपरसमयशब्दाभ्यां चेह तद्वेदिनो ग्राह्यास्तेष्वेव मीलनसम्भवात् ॥ ५६ ॥ ६१ ॥ मूलम् — दंसणसंपन्नयाए गं भंते! जीवे किं जणयइ ? दंसणसंपन्नयाए गं भवमिच्छत्तच्छेणं करेइ, परं न विज्जाइ, अणुत्तरेणं गाणेणं दंसणेणं अप्पाणं संजोएमाणे सम्मं भावेमाणे विहरइ ॥६०॥६२॥ व्याख्या — 'दर्शन सम्पन्नतया' क्षायोपशमिकसम्यक्त्वयुक्ततया भवहेतुभूतं मिथ्यात्वं भवमिथ्यात्वं तस्य च्छेदनं क्षपणं भवमिथ्यात्वच्छेदनं करोति, कोऽर्थः ? क्षायिकसम्यक्त्वमवाप्नोति । ततश्च परमित्युत्तरकालं उत्कृष्टतस्तस्मिन्नेव भवे मध्यमजघन्यापेक्षया तु तृतीये तुर्ये वा जन्मनि केवलज्ञानावाप्तौ न विध्यायति ज्ञानदर्शनप्रकाशाभावरूपं विध्यानं न प्राप्नोति, किन्त्वनुत्तरेण क्षायिकत्वात्सर्वोत्तमेन ज्ञानदर्शनेन प्रतिसमयमपरापरोपयोगरूपतयोत्पद्यमानेन आत्मानं 'संयोजयन् ' संघट्टयन्, संयोजनं च भेदेपि स्यादित्याह - सम्यग्भावयंस्तेनात्मानं तन्मयतां नयन् विहरति भवस्थ केवलितया ॥ ६० ॥६२॥ जणयइ, से मूलम् — चरित्तसंपन्नयाए गं भंते! जीवे किं जणयइ ? चरित्तसंपन्नयाए णं सेलेसी भावं सीपडिवन्ने अणगारे चत्तारि केवलिकम्म से खबइ, तो पच्छा सिञ्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाइ सव्वदुक्खाणमंतं करेइ ॥ ६१॥६३॥ व्याख्या – चरित्रसम्पन्नतया शैलानामीशः शैलेशो - मेरुः स इव निरुद्धयोगत्वादत्यन्तस्थैर्येण मुनिरपि शैलेशः, तस्येयमवस्था शैलेशी, अध्य० २६ ॥३०॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्या भवनं शैलेशीभावस्तं वक्ष्यमाणस्वरूपं जनयति, शेषं स्पष्टम् ॥६१॥६३॥ चारित्रं चेन्द्रियनिग्रहादेव स्यादिति प्रत्येकं तमाह का अध्य० २६ उत्तराध्य- | मूलम्-सोइंदिय निग्गहेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? सोइंदिअनिग्गहेणं मणुण्णामणुगणेसु सद्देसु राग ॥ ॥३१॥ यनसूत्रम् | दोसनिग्गहं जणयइ, तप्पञ्चइअं च नवं कम्मं न बंधइ, पुव्ववद्धं च निज्जरेइ ॥६२॥६॥ ॥३१॥ ___ व्याख्या-श्रोत्रेन्द्रियस्य निग्रहो-विषयाभिमुखमनुधावतो नियमनं श्रोत्रेन्द्रियनिग्रहस्तेन मनोज्ञामनोज्ञेषु शब्देषु यथाक्रमं रागद्वेषनिग्रहं जनयति, तथा च तत्प्रत्ययिकमित्यादिकं व्यक्तम् ॥६२॥६॥ मूलम्-चक्खिदिअनिग्गहेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? चक्खिदियनिग्गहेणं मणुण्णामणुण्णेसु रुवेसु रा गद्दोसनिग्गहं जणयइ, तप्पच्चइअं नवं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्ध च निजरेइ ॥६३॥६५॥ घाणिदिएणं एवं | चेव॥६४॥६६॥ जिभिदिएवि ॥६५॥६७॥ फासिदिएवि ॥६६॥६॥नवरं गंधेसु रसेसु फासेसुवत्तव्वं ॥ | व्याख्या-स्त्रचतुष्टयं प्राग्वत् व्याख्येयम्] ॥६३से६६॥६५से६८॥ एतन्निग्रहोपि कषायविजयेनेति तमाह| मूलम्--कोहविजएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? कोहविजएणं खंति जणयइ, कोहवेअणिज कम्मं न बंध| इ, पुवबद्धं च निज्जरेइ ॥६५॥६६॥ व्याख्या-क्रोधस्य विजयो दुरन्तत्वादिचिन्तनेन उदयनिरोधस्तेन "कोहवेअणिज्जति क्रोधेन क्रोधाध्यवसायेन वेद्यते इति 'क्रोध NE| वेदनीय' क्रोधहेतुभूतपुद्गलरूपं कर्म न बध्नाति "ज वेअइ तं बंधइ' इति वचनात् । पूर्वबद्धं च तदेव निर्जरयति ॥६७॥६६॥ PEETE EIE eVEVALEVEEVEE GEVEGEVEEVEEVAVAVALAVE Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य० २६ ॥३२॥ उत्तराध्य-0एवं माणेणं ६८७० मायाए ६६७१ लोहेणं ७०।७२ नवरं मद्दवं, उज्जुभावं, संतोसं च जणयइत्ति वत्तव्वं यनसूत्रम् | व्याख्या-[सूत्रत्रयं प्राग्वत्] ६८७०॥६६७१॥७०।७२।। एतज्जयश्च न प्रेमद्वेषमिथ्यादर्शनविजयं विनेति तमाह॥३२॥ मूलम्-पेज्जदोसमिच्छादसणविजएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? पेज्जदोसमिच्छादसणविजएण नाणदंस ! णचरित्ताराहणयाए अब्भुढे इ, अट्टविहस्स कम्मगंठिविमोअणयाए, तप्पढमयाए जहाणुपुव्वीए अट्ठावीसइविहं मोहणिज्ज कम्मं उग्घाएइ, पंचविहं नाणावरणिज्जं नवविहं दसणावरणिज्जं पंचविहं अंतराइअं एए तिषिणवि कम्मसे जुगवं खवेइ, तो पच्छा अणुत्तरं अणतं कसिणं पडिपुण्णं निरावरणं वितिमिरं विसुद्ध लोगालोगप्पभावगं केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेइ, जाव सजोगी भवइ ताव य इरिआवहिनं कम्मं बंधइ, सुहफरिसं दुसमयट्ठितिअ, तं पढमसमए बद्धं बिइअसमए वेइअं तइअसमए निजिएणं तं बद्ध पुढे उईरिअं वेइमं निज्जिगणं सेअकाले अकम्मं चावि भवइ ॥१॥७३॥ व्याख्या-प्रेम च रागरूपं द्वेषश्चाप्रीतिरूपो मिथ्यादर्शनं च मिथ्यात्वं प्रेमद्वेषमिथ्यादर्शनानि, तद्विजयेन ज्ञानदर्शनचारित्राराधनायाम्'अभ्युत्तिष्ठते' उद्यच्छते, प्रेमादिनिमित्तत्वात्तद्विराधनायास्ततश्चाष्टविधस्य कर्मणो मध्ये इति शेषः यः कर्मग्रन्थिरतिदुर्भेदत्वात् घातिकर्मरूपस्तस्य विमोचना--क्षपणा कर्मग्रन्थिविमोचना तस्यै, चस्य गम्यत्वात्तदर्थ चाभ्युत्तिष्ठते । अभ्युत्थाय च किं करोतीत्याह-'तत्प्रथमतया' EVEEVEEVEGVALGE TEAVE Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥३३॥ तत्पूर्वतया न हि पुरा तत्क्षपितमासीदिति, 'यथानुपूर्वि' श्रनुपूर्व्या श्रनतिक्रमेण श्रष्टाविंशतिविधं मोहनीयं कर्म 'उद्घातयति' क्षपयति, तत्क्षपणाक्रमश्चायम्-पूर्वमनन्तानुबन्धिनः क्रोधादीन् युगपत् क्षपयति, तदनु क्रमान्मिथ्यात्वं मिश्रं सम्यक्त्वदलिकं च तदनु प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानकषायाष्टकं क्षपयितुमारभते, तस्मिंश्चार्द्धक्षपिते नरकगत्यानुपूर्वी २ तिर्यग्गत्यानुपूर्वी ४ एकेन्द्रियादिजातिनामचतुष्का ८ ऽऽतपो १० स्थावर ११ सूक्ष्म १२ साधारण १३ निद्रानिद्रा १४ प्रचलाप्रचला १५ स्त्यानद्धिं १६ लक्षणाः षोडश प्रकृतीः क्षपयति, ततः कषायाष्टकावशिष्टं क्षपयित्वा क्रमात् नपुंसकवेदं स्त्रीवेदं हास्यादिषट्कं पुरुषवेदं च क्षपयति, यदि पुरुषः प्रतिपत्ता, अथ स्त्री षण् तदा स्वस्ववेदं प्रान्ते क्षपयति । तदनु क्रमात् संज्वलनक्रोधमानमायालोभान्, क्षपणाकालश्च प्रत्येकं सर्वेषां वा अन्तर्मुहूर्त्तमेव । इत्थं चैतदन्तमुहूर्त्तस्यासंख्यभेदत्वात् । इत्थं मोहनीयं क्षपयित्वान्तर्मुहूर्त्तं यथाख्यातचारित्रं प्राप्तः क्षीणमोहद्विचरमसमययोः प्रथमसमये निद्राप्रच क्षपयित्वा चरमसमये यत्क्षपयति तत्सूत्रकृदेवाह--पंचेत्यादि - पञ्चविधं ज्ञानावरणीयं, नवविधं दर्शनावरणीयं पञ्चविधमन्तरायं “ एएत्ति" एतानि त्रीण्यपि 'कम्मंसेत्ति' सत्कर्माणि युगपत्क्षपयति, तत इति क्षपणातः पश्चात् न विद्यते उत्तरं प्रधानं ज्ञानमस्मादित्यनुत्तरं, अनन्तं अविनाशित्वात्, कृत्स्नं कृत्स्नार्थग्राहकत्वात्, प्रतिपूर्ण सकलस्वपरपर्यायप्रतिपूर्ण वस्तु प्रकाशकत्वात्, निरावरणमशेषावरणविगमात् वितिमिरं तस्मिन् सति क्वचिदप्यज्ञानतिमिराभावात्, विशुद्धं सर्वदोषाभावात्, लोकालोकप्रभावकं तत्स्वरूपप्रकाशकत्वात्, केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पादयति । स च यावत्सयोगी मनोवाक्कायव्यापारवान् भवति तावत् "इरिश्रावहिअंति” ईर्या - गतिस्तस्याः पन्थाः ईर्यापथस्तस्मिन् भवमैर्यापथिकं, उपलक्षणं च पथिग्रहणं, तिष्ठतोऽपि सयोगस्येर्यासम्भवात्, कर्म बध्नाति । तत्कीदृशमित्याह-सुखयतीति सुखः स्पर्श-श्रत्मप्रदेशैः सह संश्लेषो यस्य तत् सुखस्पर्श, द्विसमयस्थितिकं, तदधिकस्थितेः कषायप्रत्ययत्वात् । यदुक्तं - "जोगा पयडिपएस, ठिइ अणु 1 अध्य० २६ ॥३३॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य० २६ ॥३४॥ PRASAN उपराध्य प्रभाग कसाययो कुणइति" । तत्प्रथमसमये बद्धं द्वितीयसमये वेदितं तृतीयसमये 'निर्जीण परिशटितं ततश्च तबद्धं जीषप्रदेशः श्लिष्टमा-| यनस्वम काशेन घटवत् , तथा 'स्पृष्टं' मसृणमणिकुड्यापतितशुष्कस्थूलचूर्णवत्, अनेन विशेषणद्वयेन तस्य निधत्तनिकाचितावस्थयोरभावमाह । 'उदीरितम'उदयप्राप्तं उदीरणायास्तत्रासन्भवात् , वेदितं तत्फलसुखानुभवनेन 'निर्जीण क्षयमुपगतं, "सेकालेसि" सूत्रत्वादेष्यत्काले च॥३४॥ तुर्थसमयादावकर्म चापि भवति, तज्जीवापेक्षया पुनस्तस्य तथाविधपरिणामासम्भवात् , एतच्च एवंविधविशेषणान्वितं सातकर्मासौ बध्नाति, तस्य तदन्यबन्धासम्भवात् ॥७१॥७३।। स चायुषः प्रान्ते शैलेशी गत्वाऽका स्यादिति शैलेश्यकर्मताद्वारे अर्थतो व्याख्यातुमाहमूलम् अहाउअं पालइत्ता अतोमुहत्तावसेसाउए जोगनिरोहं करेमाणे सुहुमकिरिअप्पडिवाइ सुक्कज्माणं झिायमाणे तप्पढमयाए मणजोगं निरुभइ निरु भइत्ता वइजोगं निरुभइ निरुभइत्ता आणापा णनिरोहं करेइ करित्ता ईसिं पंचहस्सक्खरुच्चारधाए अ णं अणगारे समुच्छिन्नकिरिब अनिअहि सुक्कज्मा| णं झियायमाणे वेअणिज्जं आऊ नाम गोत्तं च एए चत्तारिवि कम्मसे जुगवं खवेइ ॥७२॥७४॥ तओ | ओरालिअकम्माइं च सव्वाहिं विप्पजहणाहिं विप्पजहित्ता उज्जुसेढिपत्ते अफुसमाणगई उड्ड एगसमएणं | भविग्गहेणं तत्थ गंता सागारोवउत्ते सिज्झइ जाव अतं करेइ ॥७३॥७॥ ___ व्याख्या-अथेति केवलित्वानन्तरं 'आयुष्क' जीवितमन्तमुहूर्त्तादिकं देशोनपूर्वकोटीपर्यन्तं पालयित्वा अन्तमुहूर्तावशेषायुष्को योगनिरोधं "करेमाणेति" करिष्यमाणः सूक्ष्मा क्रिया यत्र तत्सूक्ष्मक्रियं अप्रतिपाति शुक्लध्यानतृतीयभेदं ध्यायंस्तत्प्रथमतया 'मनोयोग GEVEEVGVEVGVESENEVEEVEEVEEVE Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काअध्य० २६ ॥३ ॥ उचराध्ययनसूत्रम् ॥३५॥ मनोद्रव्यसाचिव्यजनितं जीवव्यापार निरुणद्धि, तं निरुध्य 'बाग्योग' भाषाद्रव्यसानिध्यनिर्मितं जीवव्यापार निरुणद्धि, तं च निरुध्य "आणापाणनिरोहंति" आनापानौ-उच्छवासनिःश्वासौ तन्निरोधं करोति, सकलकाययोगनिरोधोपलक्षणं चैतत् , योगत्रयनिरोधं चैवं प्रत्येकमसंख्येयसमयैः कृत्वा 'ईपदिति स्वल्पप्रयत्नेन पञ्चानां हस्वाक्षराणां अ-इ--उ-ऋ-ल-इत्येवंरूपाणां उच्चारो-भणनं तस्याद्धा-कालो यावता ते उच्चार्यन्ते सा ईषत्पञ्चह्रस्वाक्षरोच्चारणाद्धा तस्यां च णं प्राग्वत् । अनगारः समुच्छिन्नक्रियं अनिवृत्ति शुक्लध्यानतुर्यभेदं ध्यायन शैलेश्यवस्थामनुभवन्निति भावः । हस्वाक्षरोच्चारणं च न विलम्बितं द्रुतं वा किन्तु मध्यमप्रतिपत्त्यैवात्र गृह्यते । तादृशश्च सन् किं करोतीत्याह-वेदनीयमायुर्नाम गोत्रं चैतानि चत्वार्यपि 'कम्मंसेत्ति' सत्कर्माणि युगपत्क्षपयति ॥ ततो वेदनीयादिक्षपणानन्तरं "ओरालिक कम्माई चत्ति" औदारिककामणे शरीरे चशब्दात्तैजसं च सर्वाभिः “विप्पजहणाहिति" विशेषेण-प्रकर्षतो हानया-त्यजनानि विप्रहाणयस्ताभिः सर्वथा शाटेनेति भावः, बहुवचनं चात्र व्यक्त्यपेक्षं, 'विप्रहाय' परिशाटय ऋजु:-अवका श्रेणिः-आकाशप्रदेशपंक्तिस्तां प्राप्तः ऋजुश्रेणिप्राप्तः, अस्पृशद्गतिरिति कोऽर्थः ? स्वावगाहातिरिक्तनभःप्रदेशानस्पृशन् यावत्सु तेषु जीवोऽवगाढस्तावत एव समश्रेण्या स्पृशन्नित्यर्थ, 'ऊद्धर्वम् 'उपरि एकसमयेन द्वितीयादिसमयास्पर्शेन 'अविग्रहेण वक्रगतिलक्षणविग्रहाभावेन, अन्वयव्यतिरेकाम्यामुक्तोर्थः स्पष्टतरो भवतीति ऋजुश्रेणिप्राप्त इत्यनेन गतार्थत्वेऽपि पुनरस्याभिधानं, 'तत्रेति' विवक्षिते मुक्तिपदे गत्वा 'साकारोपयुक्तो' ज्ञानोपयोगवान् सिध्यतीत्यादि प्रागवत् इति त्रिसप्ततिस्त्रार्थः ॥७२॥७४॥७३॥७॥ उपसंहत्तु माहमूलम् एस खलु सम्मत्तपरक्कमस्स अझयणस्स अट्टे समणे भगवया महावीरेणं भाषिए पगणविए परूविए निर्देसिए उवदंसिएत्ति बेमि ॥७६॥ AARE VEGVERBEVEE VAY Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥३६॥ व्याख्या – 'एषोः 'अनन्तरोक्तः 'खलु' निश्वये सम्यक्त्वपराक्रमस्याध्ययनस्यार्थः श्रमणेन भगवता महावीरेण "आघविपत्ति" आर्षत्वादाख्यातः सामान्यविशेषैः पर्यायाभिव्याप्त्या कथनेन, प्रज्ञापितो हेतुफलादिप्रज्ञापनेन, प्ररूपितः स्वरूपनिरूपणेन, निदर्शितो दृष्टान्तोपदर्शनेन, उपदर्शित उपसंहारद्वारेणेति ब्रवीमि इति प्राग्वत् ॥ ७६ ॥ ໄດ້ານບ ໍດີບໄປໄດ້ດີ इति श्रीतपागच्छीयमहोपाध्याय श्रीविमलहर्षगणिशिष्यमहोपाध्याय श्रीमुनिविमलगणिभुजिष्योपाध्याय श्रीभावविजयगणिसमर्थितायां श्रीउत्तराध्ययनसूत्रवृत्तौ एकोनत्रिंशमध्ययनं सम्पूर्णम् ॥ २६ ॥ DS24 q pranceroge अध्य० २६ ॥३६॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥३७॥ क अध्य०३० ॥३७॥ HASPARARIAAAAAAADIAS ॥ अथ त्रिंशत्तममध्ययनम् ॥ ॥ॐ॥ उक्तमेकोनत्रिंशमथ त्रिंशत्तमं तपोमार्गगतिनामाध्ययनमारभ्यते, तत्र तप एव मार्गो भावमार्गस्तत्फलभृता च गतिः सिद्धिगतिरूपा वाच्याऽस्मिन्निति तपोमार्गगतिः इत्यस्य नामार्थ । सम्बन्धश्चायमनन्तराध्ययने अकर्मता प्रोक्ता सा च तपसः साध्येति तत्स्वरूपमत्रोच्यते, इतिसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्मूलम्-जहा उ पावगं कम्मं, रागद्दोससमज्जियं । खवेइ तवसा भिक्खू, तमेगग्गमणो सुण ॥१॥ व्याख्या—'यथा' येन प्रकारेण 'तुः' पूत्तौ पापकं कर्म ज्ञानावरणादि रागद्वेषसमर्जितं क्षपयति तपसा भिक्षुस्तत्तपः एकाग्रमनाः शृणु शिष्येति सूत्रार्थः ॥१॥ इह चानाश्रवेणैव जीवेन कर्म क्षप्यते ततो यथायमनाश्रवः स्यात्तथाहमूलम्-पाणिवहमुसावाए, अदत्तमेहुणपरिग्गहा विरओ । राईभोअणविरओ, जीवो होइ अणासवो ॥२॥ पंचसमिओ तिगुत्तो, अकसाओ जिइंदिओ। अगारवो अ निस्सल्लो, जीवो होइ अणासवो ॥३॥ व्याख्या—स्पष्टे ईदृशश्च सन् यादृशं कर्म यथा क्षपयति तथा दृष्टान्तद्वारेणादराधानाय पुनः शिप्याभिमुखीकरणपूर्वकमाहमूलम-एएसिं तु विवच्चासे, रौंगद्दोससमज्जिअं । खवेइ उ जहा भिक्खू, तं मे एगमणो सुण ॥४॥ जहा महातलागस्सु, सन्निरुद्ध जलागमे । उस्सिंचणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ॥५॥ एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे । भवकोडिसंचिमं कम्म, तवसा निजरिजइ ॥६॥ GELEENTEVE Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ challing धनसूत्रम् ॥३८॥ व्याख्या – एतेषां प्राणिबधविरत्पादीनां समित्यादीनां चानाश्रवहेतुनां विपर्यासे सति यद्रागद्वेषाभ्यां समजितं कर्मेति शेषः क्षपयति तु यथा भिक्षुस्तन्मे कथयत इति शेषः, एकमनाः शृणु ॥४॥ यथा महातटाकस्य 'सन्निरुद्धे' पान्यादिना निरुद्धे जलागमे “उस्सिचाएत्ति” उत्सिञ्चनेनारघट्टघटथादिभिरुदञ्चनेन 'तपनेन' अर्ककरतापेन क्रमेण 'शोषणा' जलाभावरूपा भवेत् ॥५॥ "एवं तुत्ति" एवमेव संयतस्यापि पापकर्मणां निराश्रवे - आश्रवाभावे पापकर्मनिराश्रवे सति भवकोटिसञ्चितं कर्म्म, अतिबहुत्वोपलक्षणमेतत्, तपसा निर्जीर्यते इति सूत्रत्रयर्थः || ६ || तपसा कर्म निर्जीर्यते इत्युक्तमतस्तद् मेदानाह- मूलम् — सो तवो दुविहो वुत्तो, बाहिरब्भितरो तहा । बाहिरो छव्विहो वृत्तो, एवमभितरो तो ॥७॥ व्याख्या—“सो तबोत्ति” तत्तपो द्विविधं प्रोक्त', लिङ्गव्यत्ययः सर्वत्र सूत्रत्वात्, बाह्यमाभ्यन्तरं तथा । तत्र बाह्य बाह्यद्रम्यापेकलालोकप्रतीतत्वात्कृतीर्थिकैरपि स्वाभिप्रायेण सेव्यमानत्वात् बहिः शरीरस्य वा तापकारित्वात्, मुक्तिप्राप्तौ प्रायो बाह्याङ्गत्वाद्वा । तद्विपरीतं त्वाभ्यन्तरमिति सूत्रार्थः ॥७॥ तत्र यथा बाह्य ं षड्विधं तथाह मूलम् - अणसणभूगोरिया, भिक्खायरिया य रसपरिच्चायो । कायकिलेसो संलीया य बझो तो व्याख्या अक्षरार्थः स्पष्टो भावार्थं तु सूत्रकृदेव वक्ष्यति ॥ ८ ॥ तत्रानशनस्वरूपं तावदाह मूलम् - इतर मरणकाल य, दुविहा असणाः भवे । इत्तरिच्या सावकखा, निरनकंखा उ विइजिमा व्याख्या—इत्वरमेव ‘इत्वरकं’ स्वल्पकालावधीत्यर्थः, मरणपर्यन्तः कालो यस्य तत् ' मरणकालं' यावज्जीवमित्यर्थः, 'चः' समुच्चये, इत्येवमनशनं द्विविधं भवेत् । तत्र इत्वरं सहावकांचया घटिकाद्वयाद्युत्तरकालं भोजनाभिलाषरूपया वर्त्तते इति सावकांचं निरवकांचं तत्र भवे व्य० ३० |३८|| Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥३६॥ तत्तो भोजनाशंसाभावेन, ‘तुः' पुनरर्थो मिनक्रमश्च ततो द्वितीयं पुनर्मरणकालाख्यम् ॥६॥ तत्रेत्वरानशनभेदानाह— मूलम् - जो सो इन्तरितवो, सो समासेण छव्विहो । सेढितवो पयरतवो घणो अ तह होइ वग्गो अ ॥१० वग्गवग्गो उ, पंचमो छट्टो पइरणतवो । मणइच्छित्रचित्तथो, नायव्वो होइ इत्तरियो । व्याख्या—यत्तदित्वरकतप इत्वरानशनरूपं तत्समासेन षड्विधं षड्विधत्वमेवाह - "सेठितवो" इत्यादि-श्रेणिः पंक्तिस्तदुपलक्षितं तपः श्रेणितपः, तच्च चतुर्थादिक्रमेण क्रियमाणं षण्मासान्तं गृह्यते । तथा श्रेणिरेव श्रेण्या गुणिता प्रतर उच्यते, तदुपलक्षितं तपः प्रतस्तपः इह च श्रव्यामोहार्थं चतुर्थषष्ठाष्टमदशमाख्यपदचतुष्कात्मिका श्रेणिर्विवक्ष्यते सा चतुर्भिगुणिता पोडशपदात्मकः प्रतरो भवति । अयं चायामतो विस्तरतश्च तुल्य इत्यस्य स्थापनोपाय उच्यते । एकाद्याद्या व्यवस्थाप्याः, पंक्तयो हि यथाक्रमम् । द्वितीयाद्याः क्रमाच्चैताः, पूरये-.. देककादिभिः ॥ १॥" एकाद्याद्येति प्रथमा एकाधा, द्वितीया द्विकाद्या, तृतीया त्रिकाद्या, चतुर्थी चतुष्काद्या, एवं सर्वत्रापि श्रेणयो व्यवस्थाप्याः, ततश्च द्वितीयाद्याः श्रेणयः क्रमादेककद्विकादिभिः पूरयेत् स्थापना चेयम्तपः स्यात् । 'घन इति धनतपः, चः पूरणे, तथेति समुच्चये, भवतीप्रतरः पदचतुष्कात्मिकया श्रेण्या गुणितो घनो भवति, श्रागतं चतुःषष्टिः पदचतुष्कात्मकत्वं विशेषः, एतदुपलचितं तपो घनतपः उच्यते । चः १ इयद्भिरित्यतः स्वादितिपर्यन्तं नास्ति "घ" पुस्तके ॥ 'इयद्भिरेवंविधैस्तपः पदैरुपलचितं तपः प्रतरति क्रिया प्रतिपदं योज्या अत्र पोडशपदात्मकः [६४] स्थापना पूर्वोक्तैव, नवरं बाहन्यतोऽपिसमुच्चये, तथा भवति वर्गश्वतीहापि प्रकमाद्वर्गत अध्य० ३० ॥३६॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥४०॥ ܬܦܟܟܩܩܬܒܬܟܒܣܕܟܢ MER पस्तत्र च धन एव घनेन गुणितो वों भवति, ततश्चतुःषष्टेश्चतुःशष्टयव गुणिता जातानि पएणवत्यधिकानि चत्वारि सहस्राणि [४०६६] अध्य०३० एतावद्भिश्चतुर्थादिदशमान्ततपःपदैरुपलक्षितं वर्गतपो भवति ॥१०॥ ततश्च वर्गतपसोऽनन्तरं वर्गवर्ग इति वर्गवर्गतपः पञ्चमस्तत्र वर्ग एवं ॥४०॥ यदा वर्गेण गुण्यते तदा वर्गवग्गों भवति, यथा चत्वारि सहस्राणि पएणवत्यधिकानि तावतैव गुणितानि जाता एका कोटिः सप्तपष्टिलक्षाःसप्तसप्ततिः सहस्राणि द्वे शते षोडशाधिके [१६७७७२१६] एतावद्भिस्तपःपदैरुपलक्षितं तपो वर्गवर्गतप इत्युच्यते । एवं चतुर्थादीनि चत्वारि पदान्याश्रित्य श्रेण्यादितपो दर्शितं, एतदनुसारेण पञ्चादिपदेष्वपि एतद्भावना कार्या षष्ठकं प्रकीर्णतपो यत् श्रेण्यादिनियतरचनाविरहितं स्वशक्त्या यथाकथञ्चिद्विधीयते, तच्च नमस्कारसहितादि पूर्वपुरुषाचरितं यवमध्यवज्रमध्यचन्द्रप्रतिमादि च । इत्थं भेदानुक्त्वा उपसंहारमाह-मणेत्यादि-मनसःईप्सित इष्टश्चित्रोऽनेकप्रकारोऽर्थः स्वर्गापवर्गादिस्तेजोलेश्यादि यस्मात्तन्मनईप्सितचित्रार्थ ज्ञातव्यं भवति 'इत्वरकं' प्रक्रमादनशनाख्यं तपः ॥११॥ सम्प्रति मरणकालमनशनमाहमूलम-जा सा अणसणा मरणे, दुविहा सा विश्राहिया । सवियारमवियारा, कायचिट्ठ पई भवो ॥१२॥ ॥2 अहवा सपरिक्कम्मा, अपरिक्कम्मा य आहिआ । नीहारिमनीहारि, आहारच्छेओ दोसुवि ॥१३॥ व्याख्या-"जा सा अणसणत्ति" यत्तदनशनं 'मरणे' मरणावसरे द्विविधं तद्व्याख्यातं' कथितं, तवैविध्यमेवाह-सहविचारेण चे. टालक्षणेन वर्तते यत्तत्सविचारं, तद्विपरीतं त्वविचारं, कायचेष्टामुद्वर्तनादिकां 'प्रतीति' प्रतीत्याश्रित्य भवेत् । तत्र सविचारं, भक्तप्रत्याख्यानमिङ्गिनीमरणं च, तत्र भक्तप्रत्याख्याने गच्छमध्यवर्ती गुरुदत्तालोचनो विधिना संलेखनां विधाय त्रिविधं चतुविधं वाऽऽहारं प्रत्याचप्टे, Eeeeeeeeeeeeeeeee GES Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥४१॥ की अध्य०३ ॥४१॥ -RDERAPRADAAAAAORA स च समास्तृतमदुसंस्तारकस्त्यक्तभक्तकरणोपकरणादिममत्वः स्वयमुच्चरितनमस्कारः पाच वर्तिमुनिदत्तनमस्कारो वा सत्यां शक्तौ स्वयमुद्रतनादि कुरुते, शक्तेरभावेऽपरैरपि किञ्चित्कारयतीति १ इङ्गिनीमरणे त्वालोचनासंलेखनादिपूर्व शुद्धस्थण्डिलस्थित एकाक्येव कृतचतुर्विधाहारप्रत्याख्यानो नियमितस्थण्डिलस्यैवान्तश्छायात उष्णमुष्णाच च्छायां स्वयमेव संक्रामति न त्वन्येन किश्चित्कारयतीति २ अविचारं तु पादपोपगमनं, तत्र हि देवगुरुवन्दनादिविधिना चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं कृत्वा गिरिकन्दरादौ गत्वा पादप इव यावज्जीवं निश्चेष्ट एवावतिष्ठते ३॥१२॥पुनद्वैविध्यमेव प्रकारान्तरेणाह–'अथवेति' प्रकारान्तरसूचने, 'सपरिकर्म' स्थानोपवेशनत्वग्वतनोद्वर्तनादिलक्षणपरिकर्मयुक्तं, 'अपरिकर्मच' तद्विपरीतमाख्यातं, तत्र सपरिकर्म भक्तप्रत्याख्यानमिङ्गिनीमरणं च, आये स्वपरकृतस्य द्वितीये तु स्वयंकृतस्योद्वर्तनादिपरिकर्मणः सद्भावात् , अपरिकर्म तु पादपोपगमनं, तत्र सर्वथा परिकाभावात् । उक्तश्च-"समविसमंमि य पडिओ, अच्छइ सो पायवोव्व निक्कंपो । चलणं परप्पोगा, नवरि दुम्मस्सेव तस्स भवे ॥१॥" यद्वा परिकर्म-संलेखना सा यत्रास्ति तत्सपरिकर्म तद्विपरीतं त्वपरिकर्म, तत्र च व्याघाताभावे भक्तपरिज्ञादित्रयमप्येतत्सूत्रार्थोभयनिष्ठो निष्पादितशिष्यः संलेखनापूर्वकमेव करोति, अन्यथाऽऽर्त्तध्यानसम्भवात् , | यदुक्तं-"देहम्मि असंलिहिए, सहसा धाऊहिं खिज्जमाणेहिं । जायइ अट्टज्माणं, सरीरिणो चरिमकालम्मि ॥१॥" इति सपरिकम्मर्मोच्यते यत्पुनाघाते विद्युगिरिभित्तिपतनाद्यभिघातरूपे सद्योघातिरोगादिरूपे वा संलेखनामकृत्वैव भक्तपरिज्ञादि क्रियते तदपरिकर्मेति । तथा निर्हरणं निहारो गिरिकन्दरादौ गमनेन ग्रामादेर्बहिर्गमनं तद्विद्यते यत्र तनिहारि, यत् पुनरुत्थातुकामे व्रजिकादौ क्रियते तदनिहारि, तत्र क्वापि गमनाभावात् । एतच्च भेदद्वयमपि पादपोपगमनविषयं तत्प्रस्ताव एवागमेऽस्याभिधानात् । यदुक्तं--"पाओवगमणं दुविहं, नीहारिं चेव तह अनीहारिं । बहिआ गामाईणं, गिरिकंदरमाइ नीहारिं ॥१॥वइमासु जं अंतो, उठाउमणाण ठाइ अणिहारिं । तम्हा पाओवगमणं, जं उवमा VEGVEGEVEEVEE TeeVEVEGVESEVGve Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चराध्ययनसूत्रम् ॥४२॥ अध्य०३० ॥४२॥ पायवेणेत्थ ॥२॥" आहारच्छेदोशनादित्यागो द्वयोरपि सविचाराविचारयोः सपरिकर्मापरिकर्मणोनिहायनिहारिणोश्च सम इति सूत्रपश्चकार्थः ॥१३॥ उक्तमनशनं ऊनोदरतामाहमूलम्-आमोअरणं पंचहा, समासेण विआहि । दव्वओ खित्तकालेणं, भावेणं पजवेहि अ॥१४॥ व्याख्या-अवम-न्यूनमुदरं यस्यासाववमोदरस्तस्य भावोऽवमौदर्य न्यूनोदरता पञ्चधा समासेन व्याख्यातं, द्रव्यतो द्रव्याद्धेतौ पश्चमी, क्षेत्रं च कालश्च क्षेत्रकालं तेन, भावेन पर्यायैश्चोपाधिभूतैः ॥१४॥ तत्र द्रव्यत आहमूलम् -- जो जस्स उ आहारो, तत्तो ओमं तु जो करे । जहणणेणेगसित्थाइ, एवं दव्वेण ऊ भवे ॥१५॥ ___ व्याख्या-यो यस्य 'तुः' पूत्तौं आहारो द्वात्रिंशत्कबलादिमानः, ततः स्वाहारा 'अवम्'ऊन 'तुः पूर्ती यः कुर्यात् भुञ्जानः इति शेषः, अयं भावः-- पुरुषस्य हि द्वात्रिंशत्कवलमान आहारः, स्त्रियाश्चाष्टाविंशतिकवलमानः। कवलश्चेह यस्मिन् क्षिप्ते मुखस्य नातिविकृतत्वं स्यात्तावन्मानो ज्ञेयः । ततश्चैतन्मानादूनं यो भुङ क्ते यत्तदोनित्याभिसम्बन्धात् तस्य एवममुना प्रकारेण द्रव्येणोपाधिभूतेन भवेदिति सण्टङ्कः । अवमोदर्यमिति प्रक्रमः, एतच्च जघन्येनैकसिक्थं-यत्रैकमेव सिक्थं भुज्यते तदादि, आदिशब्दासिक्थद्वयादारभ्य यावदेककवलभोजनम् । इत्थं चाल्पाहाराहवमवमौदर्यमाश्रित्योच्यते, यत उपार्दादिषु तद्भेदेषु कवलनवकादिमानमेव जघन्यं स्यात्तथा च सम्प्रदायः-"अप्पाहारोमोअरिश्रा जहणणेणेगकवला, उक्कोसेणं अट्ठ कवला, सेसा अजहन्नमणुक्कोसा । उवड्ढाहारोमोअरिआ जहन्नेणं नव कवला, उक्कोसेणं | बारस कवला, सेसा अजहन्नममणुक्कोसा" इत्यादि-एतभेदावामी "अप्पाहार १ उबड्ढा २, दुभाग ३ पत्ता ४ तहेव किंचूणा ५.॥ अट्ठ १ दुवालस २ सोलस ३, चउवीस ४ तहेक्कातीसा ५ य ।।१।" अत्राष्टादिभिः संख्याशब्दरल्पाहारादीनामूनोदरताभेदानां उत्कर्षतः । CEVE TEVEEVEEVEEEEEEEEEEVEGVeevele Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥४३॥ कवलमानमुक्तम् ||१५|| क्षेत्रावमौदर्यमाह मूलम् - गामे नगरे तह रायहाणि निगमे अ आगरे पल्ली | खेडे कब्बड - दोमुह - पट्टण - मडंब बाहे ॥१६ समपए विहारे, सन्निवेसे समाय- घोसे । थलि - सेणा - खंधारे, सत्थे संवट्ट - कोट्टे ॥१७॥ वाडे वा रत्थासु व, घरेसु वा एवमेत्ति खेत्तं । कप्पइ उ एवमाई, एवं खेत्तेण ऊ भवे ॥ १८ ॥ पेडा य श्रद्धपेडा, गोमुत्ति पयंगवीहिया चेव । संबुक्कावद्वायय-गंतु पच्चागया छट्ठा ॥ १६ ॥ व्याख्या - ग्रामे नगरे च प्रतीते, 'राजधानी च'राजावस्थानस्थानं 'निगमथ' प्रभूततरवणिजां निवासोऽनयोः समाहारः राजधानीनि गमं तस्मिन्, 'आकरे' स्वर्णाद्युत्पत्तिस्थाने, 'पल्ल्यां' वृक्षगहनाद्याश्रितप्रान्तजननिवासरूपायां, 'खेटे' पांशुवप्रपरिक्षिप्ते, कर्बटं--कुनगरं, द्रोणमुखं-जलस्थलपथनिर्गमप्रवेशं यथा भृगुकच्छं, पत्तनं द्विधा जलपत्तनं स्थलपत्तनं च तत्राद्यं जलमध्यवर्त्ति इतरनिर्जल भूभागभावि, मडबं सर्वदिक्षु श्रर्द्धतृतीययोजनान्तर्ग्रामान्तररहितं सम्बाधः - प्रभूतचातुर्वण्य निवासः, कर्बटादीनां समाहारद्वन्द्वस्तस्मिन् ॥ १६ ॥ 'श्राश्रमपदे' तापसावसथोपलक्षितस्थाने, विहारो देवगृहं भिचुनिवासो वा तत्प्रधानो ग्रामादिरपि विहारस्तस्मिन् संनिवेशे' यात्रादिसमायातजनावांसे, समाज:- पथिकसमूहो घोषो-गोकुलमनयोः समाहारस्तस्मिन् चः समुच्चये स्थली - प्रोच्चभूभागः सेना - चतुरङ्गबलसमूहः स्कन्धावार एव वणिआदि सर्वजनयुक्तः एषां समाहारस्तस्मिन्, 'सार्थे' गणिमधरिमादिभृतशकटादिसंघाते, संवत - भयत्रस्तजनस्थानं कोट्टः- प्राकारोऽनयोः समाहारस्तस्मिन्, “चः समुच्चये ||१७|| ' वाटेषु - पाटेषु वा' वृत्तिवरण्डकादिवेष्टितगृहसमूहात्मकेषु, 'स्थ्यासु' सेरिकासु, गृहेषु, वा PeeterEXEEEEE अध्य० ३० ॥ ४३ ॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥४४॥ सर्वत्र विकल्पार्थः एवमनेन प्रकारेण "एत्तिअंति" एतावद्विवक्षातो नियतपरिमाणं क्षेत्रं कल्पते मम भिक्षायै पर्यटितुमिति शेषः, 'तुः पूत एवमादि श्रादिशब्दाद्गृहशालादिपरिग्रहः एवममुना प्रकारेण 'क्षेत्रेणेति' क्षेत्रहेतुकं 'तुः' पूत्तौं भवेदवमौदर्यमिति प्रक्रमः ॥ १८ ॥ - नरन्यथा क्षेत्रावमौदर्यमाह — तंत्र पेटा - मंजूषा तद्वत्संलग्नसर्वदिक्स्थगृहाटने पेटा ॥१॥ अर्द्धपैटा - तदर्द्धभ्रमणे ||२|| गोमूत्रिका तदाकारे वामदक्षिणतो भ्रमणे ||३|| 'पतङ्गवीथिका' तिडवदन्तरा बहुगृहाणि मुक्त्वा मुक्त्वा भ्रमणे ||४|| शम्बूकः - शंखस्तद्वदावर्त्तो यस्यां सा शम्बूकावर्त्ता, सा द्विविधा, अभ्यन्तरशम्बूकावर्त्ता च तत्राद्या शंखनाभिसदृशाकारे क्षेत्रे मध्यादारभ्य बाह्यगृहं यावदटने, अन्या तु तद्विपर्यये ॥५॥ आययगंतु पच्चागयत्ति" आयतं दीर्घं प्राञ्जलमित्यर्थः, गत्वा प्रत्यागता षष्ठी, इयं ऋजुतयाऽग्रतो गत्वा वलमानस्याटने ॥ ६ ॥ व गोचररूपत्वात् भिक्षाचर्यात्वमेवासां तत्कथमिह क्षेत्रावमौदर्यरूपत्वमुच्यते ! उच्यते - श्रवमौदर्यं ममास्त्वित्याशयेन क्रियमाणत्वादवमौदर्यन्यपदेशोऽप्यत्रादुष्ट एव, दृश्यन्ते हि निमित्तभेदादेकत्रापि देवदत्तादौ पितृपुत्रादयोऽनेके व्यपदेशाः । एवं पूर्वत्र ग्रामादिविषयस्योत्तरत्र कालादिविषयस्य च नैयत्यस्याभिग्रहत्वेन भिक्षाचर्यात्वप्रसङ्ग इदमेवोत्तरं वाच्यम् ॥ १६ ॥ कालावमौदर्यमाह - मूलम् — दिवसस्स पोरिसीगं, चउरहंपि उ जत्तियो भवे कालो। एवं चरमाणो खलु, कालोमाणं मुणेव्व ॥ अहवा तइआए पोरिसीए ऊणाए घासमेसंतो । चउभागूणाए वा, एवं कालेण ऊ भवे ॥ २१ ॥ व्याख्या - दिवसस्य पौरुषीणां चतसृणामपि तुः पूत यावान् भवेत्कालोऽभिग्रहविषय इति शेषः, 'एवमिति' एवंप्रकारेण प्रक्रमात्कालेन “चरमाणोत्ति” सुव्यत्ययाच्चरतो भिक्षार्थं भ्रमतः चतसृणां पौरुषीणां मध्येऽमुकस्मिन् काले भिक्षाचर्यां करिष्यामीत्येवमभिगृह्य पर्यटतः 'खलु' निश्चितं "कालोमाणंति" कालेन हेतुनाऽवमत्वं प्रस्तावादुदरस्य कालावमत्वं, कोऽर्थः ? कालावमौदर्यं 'मुखितव्यं' ज्ञातव्यम् ॥ acerere Reece ce अध्य० ३० ॥४४॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥४५॥ २०॥ एतदेवप्रकारान्तरेणाह - अथवा तृतीयपौरुष्याभूनायां 'ग्रासम् ' आहारं "एसन्तोत्ति" एषयतः कियता भागेन न्यूनायामित्याह-वतुभगोनायां, 'वा' शब्दात् पञ्चादिभागोनायां वा, एवममुना कालविषयाभिग्रहलक्षणेन प्रकारेण चरत इत्यनुवर्त्तते, कालेन तु भवेदवमौदर्यम् । औत्सगिंकविधिविषयं चैतत्, उत्सर्गतो हि तृतीयपौरुष्यामेव भिक्षाटनमुक्तम् ||२१|| भावावमौदर्यमाह मूलम् - इत्थी का पुरिसोवा, अलंकियो वाऽणलंकियो वावि । अन्नयरवयत्थो वा, अन्नयरेणं वा वत्थेां। अन्नेण विसेसेणं, वण्णेणं भावमणुमुचंते उ । एवं चरमाणो खलु भावोमाणं मुणेव्वं ॥२३॥ व्याख्या—स्त्री वा पुरुषो वा, अलङ कृतो वा अनलंकृतो वा, अपिः पूर्वौ, अन्यतरस्मिन् वयसि तारुण्यादौ तिष्ठतीत्यन्यतरवयः स्थो वा, अन्यतरेण पट्टसूत्रमयादिना वस्त्रेणोपलचितः ||२२|| 'अन्नेत्यादि ' - अन्येन विशेषेण कुपितहसितादिनाऽवस्थाभेदेन, वर्णेन कृष्णादिनोपलक्षितो भावमुक्तरूपमेवालङ कृतत्वादिकं “अणुमुते उत्ति" अमुञ्चन्नेव यदि दाता दास्यति तदाहं ग्रहीष्ये नान्यथेत्युपस्कार : एवं “चरमाणोत्ति” चरतः खलु “भावोमाणंति” भावावमौदर्यं मुणितव्यम् ||२३|| पर्यवावमौदर्यमाह - दव्वे खित्ते काले, भावंमिश्र आहि उ जे भावा। एएहिं ओमचरओ, पज्जवचरत्र भवे भिक्खु ॥२४॥ व्याख्या - द्रव्येऽशनादौ, क्षेत्रे ग्रामादौ, काले पौरुष्यादौ, भावे च स्त्रीवादी 'आख्याताः' कथिताः 'तु' पूतौं ये भावाः' पर्याया एकसिक्थोनत्वादयः एतैः सर्वैरपि श्रवममुपलक्षत्वादवमौदर्यं चरतीत्यवमचरकः पर्यवचरको भवेद्भितः । इह पर्यवग्रहणेन पर्यवप्राधान्यविवचया पर्यावौदर्यमुक्तं एवं क्षेत्रावमौदर्यादीन्यपिं क्षेत्रादिप्राधान्यविवक्षया ज्ञेयानि, तस्त्रतो हि तेष्वपि द्रव्यावमौदर्यस्य सम्भवात् । यत्रापि द्रव्यतो न्यूनत्वमुदरस्य नास्तिं तत्रापि क्षेत्रादिन्यूनतामपेक्ष्यावमौदर्याणि भएयन्त इति सूत्रैकादशकार्थः ||२४|| भिचाचर्यामाह - अध्य० ३ ॥४५॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्यपनसूत्रम् ॥४६॥ मूलम-अट्ठविहगोअरग्गं तु, तहा सत्तेव एसणा । अभिग्गहा य जे अन्ने, भिक्खायरिअमाहिआ ॥२५॥ अध्य०३ ____ व्याख्या-"अट्ठविहगोअरगति" प्राकृतत्वादष्टविधः, अग्रः-प्रधानोऽकल्पपरिहारेण स चासौ गोचरश्च-उच्चावचकुलेष्वविशेषेण भ्र ॥४६॥ मणमष्टविधायगोचरः, 'तुः पूत्तौं । तथा सप्तव एषणा अभिग्रहाश्च येऽन्ये तदतिरिक्तास्ते किमित्याह-"भिक्खायरिअमाहित्ति" भिक्षाच: र्या-वृत्तिसंक्षेपापरनामिका आख्याता कथिता । अत्राष्टौ अग्रगोचरभेदाः पेटादय एव, तेषु शम्बूकावाया द्वैविध्यस्य पार्थक्याश्रयणात, आयतायाश्च गमनेऽपि वलमानत्वे इव पृथग्ग्रहणात् तेषामष्टविधत्वं ज्ञेयं । सप्तेषणाश्चेमा:-"संसट्ठमसंसट्ठा २, उद्धड ३ तह अप्पले वित्रा चेव ४ । उग्गहिआ ५ पग्गहिआ ६, उज्झिअधम्मा य ७ सत्तमिश्रा ॥१॥" संसृष्टाभ्यां हस्तपात्राभ्यां भिक्षां गहणतः प्रथमा । १॥ असंसृष्टाभ्यां तु ताभ्यां गहणतो द्वितीया ॥२॥ पाकस्थानात् यत् स्थाल्यादौ स्वार्थ भोजनायोद्धृतं ततो गहणतः उद्धृताख्या तृतीया ॥३॥ निर्लेप पृथुकादिगहणतोऽल्पलेपा चतुर्थी ॥४॥ उद्गृहीता नाम भोजनकाले भोक्तुकामस्य परिवेषयितु दर्बीशरावादिना यदुपहृतं भोजनजातं तत एवाददानस्य पञ्चमी ॥॥ प्रगृहीता नाम भोजनकाले भोक्तुकामाय दातुमुद्यतेन भोक्त्रा वा यत्करादिना गृहीतं तत एव गृहणतः षष्ठी ॥६॥ उज्झितधर्मा तु यत्परिहारार्ह भोजनजातं यदन्ये द्विपदादयो नावकांक्षन्ति तद त्यक्त वा गहणतः सप्तमी ॥७॥ अभिग्रहाश्च द्रव्य १ क्षेत्र २ काल ३ भाव ४ विषयाः । तत्र द्रव्याभिग्रहाः कुन्ताग्रादिसंस्थितं मण्डकादि ग्रहीष्यामीत्यादयः ॥१॥ क्षेत्राभिग्रहा देहलीं जंघयोर्मध्ये कृत्वा यदि दास्यति तदा ग्राह्यमित्याद्याः ॥२॥ कालाभिग्रहाः सकलभिक्षुकोपरमकाले मया भ्रमितव्यमितिमुख्याः ॥शा भावाभिग्रहास्तु हसन्नाक्रन्दन् बद्धो वा यदि दाता दास्यति ततोऽहमादास्ये न त्वन्यथेत्येवमादयः ॥४॥ इति सूत्रार्थः । रसत्यागमाह १ संसष्टाभ्यां तत्खरण्टिताभ्यां हस्तपात्राभ्यामिति “घ” पुस्तके ।। EEVELEVENEGVESEVGVCEV ܟܬܕܟ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्यपनमत्रम् ॥४७॥ अध्य०३० ॥४७॥ । मूलम्-खीरदहिसप्पिमाई, पणी पाणभोअणं । परिवजणं रसाणं तु, भणि रसविवजणं ॥२६॥ - व्याख्या-क्षीरदधिसर्पिरादि, आदिशब्दाद्गुडपक्वान्नादिग्रहणं, 'प्रणीतम् अतिबृहकं पानं च खर्जुररसादि भोजनं च गलत्स्नेहबिन्दुिकमोदनादि पानभोजनं, सूत्रस्य सोपस्कारत्वादेषां परिवर्जनं रसानां 'तु! पूत्तौं भणितं रसविवर्जनमिति सूत्रार्थः॥ कायक्लेशमाहमूलम्-ठाणा वीरासणाईआ, जीवस्स उ सुहावहा । उग्गा जहा धरिजंति, कायकिलेसं तमाहियं ॥२७॥ | व्याख्या-'स्थानानि' देहावस्थानभेदाः, 'वीरासनं यत्र वामोंघिदक्षिणोरूवं दक्षिणश्च वामोरूर्व क्रियते तदादीनि, आदिशब्दागोदोहिकादिग्रहणं, लोचाधुपलक्षणं चैतत् , जीवस्य तुरवधारणे भिन्नक्रमश्च ततः सुखावहान्येव मुक्तिहेतुत्वात् शुभावहान्ये 'उग्राणि' दुष्करतयोत्कटानि 'यथा' येन प्रकारेण 'धार्यन्ते' सेव्यन्ते कायक्लेशः स आख्यातः' कथितस्तथैवेति शेष इति सूत्रार्थः ।। संलीनतामाहप्र मूलम्-एगंतमणावाए, इत्थीपसुविज्जिए । सयणासणसेवणया, विवित्तसयणासणं ॥२८॥ ____ व्याख्या-"एगंतत्ति" सुब्ब्यत्ययादेकान्ते जनानाकुले, 'अनापाते' स्त्र याद्यापातरहिते, 'स्त्रीपशुविवर्जिते' तत्रैवावस्थितस्त्र यादिवियुक्त शून्यागारादावित्यर्थः, "सयणासणसेवणयत्ति" शयनासनसेवनं विविक्तशयनासनं नाम बाह्य तप उच्यते, उपलक्षणं चैतदेषणीयफलकादिग्रहणस्य, अनेन च विविक्तचर्याख्या संलीनतोक्ता, शेषसंलीनतोपलक्षणमेषा, यतश्चतुर्विधेयमुक्ता, तथा हि-"इदिअ १ कसाय २ जोगे ३, पडुच्च संलीणया मुणेअब्वा । तह जा विवित्तचरिआ ४, पणत्ता वीरागेहिं ॥१॥" तत्रेन्द्रियसंलीनता मनोज्ञामनोज्ञेषु रागद्वेषाकरणातु ॥१॥ कषायसंलीनता तदुदयनिरोधादेः ॥२॥ योगसंलीनता मनोवाक्कायानां शुभेषु प्रवृत्तेरशुभानिवृत्तेश्च ॥३॥ इति सूत्रार्थः ॥२८॥ उक्तमेवार्थमुपसंहरन्नुत्तरग्रन्थसम्बन्धमाह eveeveeverGVEGEEveeveeVEGVERY Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०३० उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥४८॥ ॥४॥ ܢܕܦܩܦܟܛܬܟܒܝܟܩܝܣܕܟܟܩܐ मूलम्-एसो बाहिरगतवो, समासेण विवाहिओ । अभितरं तवं एत्तो, वोच्छामि अणुपुत्वसो ॥२६॥ पायचित्तं विणमओ, वेआवच्चं तहेव रूज्झायो। झाणं च विउस्सग्गो, एसो अभितरो तवो ॥३० ___ व्याख्या स्पष्टम् ॥२६॥ प्रतिज्ञातमेवाह-अक्षरार्थः सुगमो भावार्थ तु सूत्रकृदेवाहमूलम्-आलोअणारिहाईअं, पायच्छित्तं तु दसविहं । जे भिक्खू वहई सम्मं, पायछित्तं तमाहिलं ॥३१॥ व्याख्या-'आलोचनाह' यत्पापमलोचनात एव शुध्यति तदादिकं, आदिशब्दात् प्रतिक्रमणार्हादिग्रहणं, इह च विषयविषयिणोरमेदोपचारादेवंविधपापविशुद्धथ पायभूतानि आलोचनादीन्येव आलोचनार्हादिशब्दैरुक्तानि । प्रायश्चित्तं तुरेवकारार्थो भिन्नक्रमश्च, ततो दश. विधमेव । दशविधत्वं चैव-"आलोअण १ पडिक्कमणे २, मीस ३ विवेगे ४ तहा विउसग्गे ५ । तव ६ छेत्र ७ मूल ८ अणवठ्ठयाय पारंचिए १० चेव ॥१॥" तत्र आलोचना गुरोः पुरो वचसा प्रकाशनं, तन्मात्रेणैव यत्पातकं शुध्यति तदालोचनाहम् ॥१॥ प्रायश्चित्तं त्विहालोचनैव, एवमग्रेपि प्रतिक्रमणं दोषानिवृत्तिमिथ्यादुष्कृतदानमित्यर्थः, तन्मात्रेणैव यत्सहसात्कारजातं सावधवचनादिपापं शुध्यति न तु गुरुसमक्षमालोच्यते तत्प्रतिक्रमणाहम् ॥२॥ तथा यत्र गुरुसमक्षमालोच्य तदाज्ञया मिथ्यादुष्कृतं दत्ते तदालोचनाप्रतिक्रमणाहत्वान्मिश्रम् ॥३॥ तथा विवेकः-पृथक्करणं, तन्मात्रेणैव यस्य शुद्धिस्तद्विवेकार्हम् । जायते हि कथञ्चिदशुद्धाहारादिग्रहणे तत्त्यागमाणैत्रेव शुद्धिरिति । ४॥ व्युत्सर्गः-कायोत्सर्गस्तेनैव यस्य शुद्धिस्तत्तदहम् ॥शा तथा यत्र प्रतिसेविते निर्विकृतिकादि षण्मासान्तं तपो दीयते तत्तपोर्हम् ॥६॥ यत्र चासेविते पर्यायच्छेदः क्रियते तच्छेदाहम् ॥७॥ यत्र चापतिते सर्व पर्यायमुच्छेद्य मूलतो व्रतारोपः स्यात्तन्मूलाईम् ॥८॥ येन पुनः GEGEVOEGEGEVERVAATA Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्य मनसूत्रम् ॥४६॥ सेवितेन उपस्थापनाया अप्ययोग्यः सन् यावद्गुरूक्त ं तपो न कुर्यात्तावद् व्रतेषु न स्थाप्यते श्रचीर्णतपास्तु दोषोपरतो व्रतेषु स्थाप्यते तदनवस्थाप्यम् ॥६॥ यस्मिन् सेविते लिङ्ग - क्षेत्र - काल - तपसा पारमश्चति तत्पाराञ्चितं यद्वा पारमन्तं प्रायश्विचानां तत उत्कृष्टप्रायश्चिताभावात्, अपराधानां वा पारमश्चतीति पाराश्चितम् ॥१०॥ इत्येतद्दशविधं यो भिक्षुर्वहत्यासेवते सम्यगवैपरीत्येन प्रायश्चित्तं तदाख्यातम् ॥३१॥ विनयमाह मूलम् - अब्भुड्डाणं अंजलिकरणं तवासगदायणं ! गुरुभत्तिभावसुस्सूसा विणओ एस वाहि ॥ ३२ ॥ व्याख्या---'अभ्युत्थानमञ्जलिकरणं तथेति समुच्चये, 'एवः' पूत्तौं, “आसणदायरांति" श्रासनदानं, गुरुभक्तिः, भावः - अन्तःकरणं तेन शुश्रूषा - तदादेशप्रति श्रोतुमिच्छा, पर्युपासना वा, भावशुश्रूषा | विनय एष व्याख्यातः ||३२|| वैयावृत्यमाह - मूलम् - आयरिअमाइअमि, वेद्यावच्चमि दसविहे । श्रासेवणं जहाथामं, वेद्यावच्चं तमाहिचं ॥३३॥ व्याख्या--''आयरिष्यमाइयंमित्ति" मकारोऽलाक्षणिकस्तत " श्राचार्यादिके" श्राचार्यादिविषये व्यावृत्तभावो “वैयावृत्त्यम्' उचितविघिना आहारादिसम्पादनं उक्त च - "वेशावच्चं वावडभावो तह धम्मसाहणनिमित्तं । अनाइमाण विहिणा, संपाडणमेस भावत्थो ॥१॥" 'वस्मित्, 'दशविधे' विषयविभागाद्दशप्रकारे, यदुक्त - " आयरिअ १ उवज्झाए २, थेर ३ तवस्सी ४ गिलाण ५ सेहाणं ६ | साहम्मिच ७ कुल ८ गए ६ संघ १० संगयं तमिह कायव्वं ॥ १ ॥ " आसेवनमेतद्विषयमनुष्ठानं 'यथास्थाम' यथाशक्ति वैयावृत्यं तदाख्यातम् ॥३३ स्वाध्यायमाह- Excee चाध्य० ३० ॥४६॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य पनसूत्रम् ॥५०॥ All मूलम्-वायणा १ पुच्छणा २ चेव तहेव परिअट्टणा ३। अणुप्पेहा ४ धम्मकहा ५, सज्झायो पंचहा भवे अध्य० ३० व्याख्या-वाचनादिभेदाः प्राग्व्याख्याताः ॥३४॥ ध्यानमाह ॥५०॥ मूलम-अट्टरुहाणि वज्जित्ता, झाएज्जा सुसमाहिओ । धम्मसुक्काई झाणाई, झाणं तं तु बुहा वए ॥३५ का व्याख्या-ऋतं--दुःखं तत्र भवमात्तं, रुद्रस्य-प्राणिवधादिपरिणतस्येदं कर्म रौद्र, आत्तं च रौद्रं च आरौद्रे वर्जयित्वा ध्यायेत्सुसमाहितः। किमित्याह-धर्मात् क्षमादिदशभेदादनपेतं धयं, शुचं शोकं क्लमयति निरस्यतीति शुक्ल, अनयोर्द्वन्द्वस्ततो धर्म्यशुक्ले ध्याने | स्थिराध्यवसायरूपे, 'ध्यान' ध्यानाख्यं तपः तत्तु तदेव बुधा वदन्ति ॥३५॥ व्युत्सर्गमाहमूलम्-सयणासण ठाणे वा, जे उ भिक्खू न वावरे । कायस्स विउस्सग्गो, छट्टो सो परिकित्तिओ॥३६॥ व्याख्या-शयने-त्वग्वतने, आसने-उपवेशने, स्थाने-वीरासनादौ, वा विकल्पे, प्रत्येकं योज्यः, स्वसामर्थ्यापेक्षया स्थित इति गम्यते, यस्तु भिक्षन "वावरेति। 'व्याप्रीयते' न चलनादिक्रियां विधत्ते यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात् तस्य भिक्षोः कायस्य देहस्य व्युत्सर्गश्चेष्टां प्रति त्यागरूपो यः षष्ठं तत्प्रक्रमादभ्यन्तरतपः परिकीर्तितं । शेषव्युत्सर्गोपलक्षणं चैतदनेकविधत्वात्तस्य । यदुक्तं-"दव्वे भावे अतहा दुविहुस्सग्गो चउबिहो दव्वे । गणदेहोवहिभत्ते, भावे कोहाइचाश्रोत्ति ॥” इति सूत्रपट्कार्थः अथाध्ययनार्थमुपसंहरस्तपस एव फलमाहमूलम-एअं तवं तु दुविहं, जे सम्म आयरे मुणी । से खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पंडिएत्ति बेमि ॥. __ व्याख्या-सष्टम् ॥३७॥ VEEEEEEEEEEEEE) Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥५१॥ अध्य०३१ ॥५॥ ADDREADलारस ॥ अथैकत्रिंशमध्ययनम् ॥ ॥अहम् ।। उक्त त्रिंशत्तममध्ययनं अथैकत्रिंशं चरणविधिसंज्ञं व्याख्यायते, अस्य चायं सम्बन्धोऽनन्तराध्ययने तप उक्त तच्चरणवत 1 एव सफलमिति चरणमिहोच्यते, इतिसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्| मूलम-चरणविहिं पवक्खामि, जीवस्स उ सुहावहं । जं चरित्ता बहू जीवा, तिण्णा संसारसागरं ॥१॥ व्याख्या-चरणस्य विधिरागमोक्तन्यायश्चरणविधिस्तं प्रवक्ष्यामि जीवस्य तुरवधारणे भिन्नक्रमस्ततः सुखावहं तु सुखावहमेव, कथमित्याह-जमित्यादि स्पष्टमिति सूत्रार्थः ॥२॥ प्रतिज्ञातमाह एकोनविंशत्या सूत्रः . मुलम् - एगो विरई कुजा, एगओ अ पवत्तणं । असंजमे निअत्तिं च, संजमे अपवत्तणं ॥२॥ रागद्दोसे अ दो पावे, पावकम्मपवत्तणे । जे भिक्खू रुभई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥३॥ दंडाणं गारवाणं च, सल्लाणं च तियं तियं । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥४॥ दिव्वे अ जे उवसग्गे, तहा तेरिच्छमाणुसे । जे भिक्खू सहई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥५॥ विगहाकसायसगणाणं झाणाणं च दुभं तहा । जे भिक्खू वजई निच्च, से न अच्छइ मंडले । वएसु इंदियत्येसु, समिईसु किरियासु अ।जे भिक्खू जयई निच, से न अच्छइ मंडले ॥७॥ लेसासु छसु काएसु, छक्के आहारकारणे । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छङ्ग मंडले ॥८॥ QEVEEVGVCEVGVEGVERO Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनस्त्रम् ॥५२॥ अध्य०३१ ॥२॥ पिंडुग्गहपडिमासु, भयठाणेसु सत्तसु । जे भिक्खू जयई निच्च, से न अच्छंइ मंडले ॥६॥ मएसु बंभगुत्तोसु, भिक्खुधम्ममि दसविहे । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥१०॥ व्याख्या—'एकत' एकस्माद्विरतिं कुर्यात् , 'एकतश्च' एकस्मिन् प्रवर्तनं कुर्यादिति योगः । एतदेवाह-'असंयमात्' हिंसादिरूपात्, ॥ पञ्चम्यर्थे सूत्रे सप्तमी, निवृत्तिं च, संयमे च प्रवर्त्तनं कुर्यादित्यनुवर्तते, चकारी समुच्चये ॥२॥ रागद्वेषौ च द्वौ पापौ पापप्रकृतिरूपत्वात्पापकर्मणां ज्ञानावरणादीनां प्रवतको यो भिक्षुः 'रुणद्धि' तिरस्कुरुते नित्यं स 'नास्ते' न तिष्ठति 'मण्डले' संसारे । एवमुत्तरसूत्रेष्वपि नित्यमित्यादि व्याख्येयम् ॥३॥ दण्डानां' चारित्रसर्वस्वापहारिणां त्रिकं मनोवाक्कायदण्डरूपं, गौरवाणां च त्रिकं ऋद्धिरससातगौरवरूपं, श न्यानां त्रिकं मायानिदानमिथ्यात्वशल्यलक्षणं यो भिक्षस्त्यजति ॥४॥ दिव्यांश्च-हास्य १ प्रद्वेष २ परीक्षा ३ पृथग्विमात्राभि ४ देंवैः कृतानुपसर्गाननुकूलप्रतिकूलक्षोभहेतून्, अत्र पृथग्विमात्राशब्देन हास्यादीनां द्विकसंयोगादय उच्यन्ते, ततो यदि कोपि हास्यद्वेषाभ्यां समुदिताम्या, हास्यपरीक्षाभ्यां वा, द्वेषपरीक्षाभ्यां वा, हास्यद्वेषपरीक्षाभिर्वा समुदिताभिरुपसर्गान् करोति तदा पृथग्विमात्रयेत्युच्यते । तथा "तेरिच्छति" तिरथामेते भय १ प्रद्वेषा २ ऽऽहारहेत्व ३ पत्यलयनरक्षा ४ हेतोस्तैः क्रियमाणत्वात्तैरश्वाः, तथा 'माणुसेत्ति' मानुषाणामेते हास १ प्रद्वेष २. परीक्षा ३ कुशीलप्रतिसेवनाहेतो ४ स्तैर्विधीयमानत्वान्मानुषकाः, द्वन्द्वे तैरश्चमानुषकास्तानुपलक्षणत्वात् आत्मसंवेदनीयांश्च घट्टन १ प्रपतन २ स्तम्भन ३ संश्लेषणो ४ भवान् , वात १ पित्त २ श्लेष्म ३ सन्निपातो ४ द्भवान् वा यो भिक्षुः सहते सम्यगध्यास्ते ॥५॥ विकथाकायसंज्ञानां प्रतीतानां प्रत्येकं चतुष्कं, 'माणाणं चत्ति' ध्यानयोश्च द्विकं पारौद्ररूपं तथा यो भिववर्जयति । ध्यानस्य चेहस्तावेऽभिधानं चतुर्विधत्वात् ॥६॥ 'व्रतेषु' प्राणातिपातपिरमणादिषु, 'इन्द्रियार्थेषु' शब्दादिविषयेषु 'समितिषु' ईर्यादिषु, "क्रियासु च' का SEVGTAVEAZA RSS Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य० ३० ॥५३॥ यिक्याधिकरणिकी-प्राद्वेषिकी पारितापनिकी-प्राणातिपातिकीरूपासु यो भिक्षर्यतते । व्रतसमितिषु सम्यक्पालनेन, माध्यस्थ्यविधानेन चेउत्तराध्य न्द्रियार्थेषु, परिहाराच्च क्रियासु यत्नं केरुते ॥७॥ 'लेश्यासु' कृष्णादिषु षट्सु, षट्सु 'कायेषु' पृथिव्यादिषु 'षट्के' षट्परिमाणे आहारकारणे यनसूत्रम् पूर्वोक्ते यो भिक्षुर्यतते, यथायोगं निरोधोत्पादनरक्षानुरोधविधानेन यत्नं कुरुते ॥८॥ पिण्डावग्रहप्रतिमासु-आहारग्रहणविषयाभिग्रहरूपासु ॥५३॥ संसृष्टाद्यासु पूर्वोक्तासु सप्तस्विति योगः, तथा 'भयस्थानेषु' इहलोकादिषु सप्तसु, उक्तं च "इह-परलोया-दाण-मकम्हा-ऽऽजीय-मरणमसिलोए ७ ति" यो भिवर्यतते पालनाऽकरणाभ्याम् ॥३॥ 'मदेषु' जातिमदादिषु अष्टसु "जाई-कुल-बल-रुवे-तव-इस्सरिए-सुए-ला. मे-इत्येवंरूपेषु, प्रतीतत्वाच्चेहान्यत्र च सूत्रे संख्यानभिधानम् । ब्रह्म-ब्रह्मचर्य तस्य गुप्तिषु नवसु वसत्यादिषु, यदाहु:-"बसहि-कह-नि सिज्जि-दिन-कुडंतर-पुन्चकीलिय-पणीए । अइमायाहार-विभूसणा य-नव बंभचेरगुत्तीओ ॥१॥" भिधर्मे दशविधे क्षान्त्यादिके, उII क्तं च-"खंती-मद्दव-अज्जव-मुत्ती-तव-संजमे-अ बोधव्वे । सच्च-सोअं अकिंचणं च बंभं च जइधम्मो ॥१॥ ति" यो भिक्षुर्यतते अपरिहारादिना ॥१०॥ P मूलम्-उवासगाणं पडिमासु, भिक्खूणं पडिमासु अ। जे भिक्खू जयई निच्च, से न अच्छइ मंडले ॥११|| या व्याख्या-'उपासकानां' श्रावकाणां प्रतिमास्वभिग्रहविशेषरूपासु दर्शनादिषु एकादशसु, यदुक्तं-"दसण-वय-सामाइय-पोसह-- | पडिमा-अबंभ-सच्चित्ते । आरंभ-पेस--उद्दिष्ठ-बज्जए समणुभूए य ॥१॥" इह या प्रतिमा यावत्संख्या स्यात्सा उत्कर्षतस्तावन्मासमाना KI यावदेकादशी एकादशमासप्रमाणा, जघन्यतस्तु सर्वा अप्येकाहादिमानाः स्युस्तत्प्रतिपत्तेरनन्तरमेकादिभिर्दिनैः संयमप्रतिपत्त्या जीवितक्षयाद्वा । | प्रथमोक्तं चानुष्ठानमग्रेतनायां सर्व कार्य यावदेकादश्यां पूर्वप्रतिमादशकोक्तमपि । तत्राद्यायां निर्दोष प्रशमादिगुणालंकृतं कुग्रहाग्रहविनाकृतं Veevee VeereeVEVZETEVEGVEZ-evere Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डपराध्य पनसूत्रम् ॥ ५४ ॥ सम्यक्त्वं धर्त्तव्यम् ॥१॥ द्वितीयायां निरतिचाराणि अणुव्रतादीनि सर्वव्रतानि पालनीयानि ||२|| तृतीयायामवश्यमुभयसन्ध्यं सामायिकं कार्यम् ॥ ३॥ चतुर्थ्यां चतुर्द्दश्ष्टम्यादिपर्वसु प्रतिपूर्णः पौषधो निरतिचारः कार्यः || ४ || पञ्चम्यामष्टम्यादितिथिषु पौषधमध्ये रात्रौ कायोत्सर्गः कार्यः, शेषदिनेषु च दिन एव भोक्तव्यं न रात्रौ दिवापि प्रकाशे एव भोक्तव्यं, अबद्धकच्छत्वं, दिवा ब्रह्मचर्यं च धार्य, रात्रौ स्त्रीणां तद्भोगानां च प्रमाणं कार्य, कायोत्सर्गे च जिनगुणाः कामादिदोषपरिहारोपायाश्च ध्येयाः || ५|| षष्ठयामत्रह्मचर्यं शृङ्गारकामकथादि च सर्वथा त्याज्यम् ॥६॥ सप्तम्यां सचिताहारस्त्याज्यः ||७|| अष्टम्यां स्वयमारम्भोऽपि न कार्यः ||८|| नवम्यामन्येनाप्यारम्भो न कारणीयः || || दशम्यां स्वार्थमुद्दिश्य कृतं भक्तादि त्याज्यं, तदा च चुरमुण्डेन शिखाधारिणा वा भाव्यम् ॥ १० ॥ एकादश्यां प्रतिग्रहादिसाधूपकरणं धृत्वा लोचं चरमुण्डं वा कारयित्वा श्रमणवत्सर्वमनुष्ठानं कुर्वता ' प्रतिमाप्रतिपन्नाय श्रमणोपासकाय भिक्षां दत्त' इतिभाषमाणेन ग्रामादिषु मासकल्पादिविधिना विहर्त्तव्यम् ॥ ११ ॥ तथा भितॄणां प्रतिमासु मासिक्यादिषु द्वादशसु श्राह च - "मासाई सत्चंता ७ पढमा ८ वि ६ १० सतराइदिणा । अहराइ ११ एगराई १२ भिक्खुपडिमाण बारसगं" अत्र प्रथमा एकमासिकी यावत्सप्तमी सप्तमासिकी, तदनु तिस्रः सप्तरात्रिक्यः १०, अहोरात्रिकी ११, एकरात्रिकी १२ च ॥ १ ॥ “ पडिवज्जइ एचओ, संघयणी धिइजुओ महासत्तो । पडि माओ भाविअप्पा, सम्मं गुरुणा अण्णाओ ||" संहननं वज्रऋषभनाराचादेरन्यतरत् धृतिर्मनःस्वास्थ्यं तद्युक्तः, महासत्त्व उपसर्गादौ, भावितात्मा, प्रतिमायोग्यानुष्ठानेन गुरुणाऽनुज्ञातः, अथ चेद्गुरुरेव प्रतिपत्ता तदा स्थानाचार्येण गच्छेन वाऽनुज्ञायते ॥ २ ॥ “ गच्छेच्चिअ निम्माओ, जा पुव्वा दस भवे असंपुरणा । नवमस्स तइअवत्थु होइ जहन्नो सुत्राभिगमो " प्रतिपत्ता गच्छे एव तिष्ठन् निर्मातः श्राहारादिविषये प्रतिमायोग्यपरिकर्मणि निष्टितः, सप्तसु यावत्परिमाणा तस्यास्तत्परिमाणमेव परिकर्म । तथा न वर्षास्वताः प्रतिपद्यते, न च परि अध्य० ३१ ॥ ५४ ॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनमत्रम् ॥५॥ कर्म करोति । आसु चादिमं द्वयं एकत्रैव वर्षे, द्वितीयमेकैकवर्षे, अन्यास्तिस्रः अन्यान्यवर्षे, अन्यत्र वर्षे परिकर्मान्यत्र च प्रतिपत्तिः, तं अध्य०३१ नवभिर्वराद्याः सप्त समाप्यन्ते । अस्य च श्रुतं जघन्यतो नवमपूर्वतृतीयवस्तुयावत्, उत्कर्षतस्तु किश्चिदूनानि दश पूर्वाणि । सम्पूर्णदश | ॥५॥ पूर्षधरो हि अमोघवचनत्वात् धर्मोपदेशेन भव्योपकारित्वेन तीर्थवृद्धिकारित्वात् प्रतिमा न प्रतिपद्यते । न च पूर्वगतश्रुतं विना एताः प्रतिपद्यते, निरतिशयित्वात्कालादि न जानातीति ॥३॥ "वोसठ्ठ चत्तदेहो, उवसग्गसहो जहेव जिणकप्पी। एसणअभिग्गहीया, भत्तं च अलेवडं तस्स" व्युत्सृष्टः परिकाभावेन त्यक्तश्च ममत्वाभावे देहो येन स तथा, यथैव जिनकल्पी तथैवोपसर्गसहः स्यात् , एपणा पिण्डग्रहणप्रकारः संसृष्टादिः सप्तधा सा अभिगृहीता अभिग्रहवती स्यात् , तद्यथा-सप्तसु भक्तपानपणासु अन्त्याश्चतस्त्र एव ग्राह्याः, तत्रापि आद्ययोरग्रहणं । पुनरपि विवक्षितदिवसेऽन्त्यानां पश्चानां मध्ये द्वयोरभिग्रहः । एका भक्ते एका च पानके इति । भक्तं पुनरलेपकृत्तस्य इत्यादि परि-14 कर्म कृत्वा ॥४॥"गच्छावि णिक्खमित्ता, पडिवज्जे मासिघ्रं महापडिमं । दत्तगभोअणस्सा, पाणस्सवि एग जा मासं" यद्याचार्यः प्रतिपत्ता तदा स्वल्पकालं साध्वन्तरे स्वपदं न्यस्य शरत्काले स्वगणं क्षमयति, प्रतिमाप्रतिपन्नश्चैवं प्रवर्तते ॥५॥ "जत्थत्यमेइ सूरो, न तो ठाणा पयंऽपि संचलइ । नाएगराइवासी, एगं व दुगं व अण्णाए ।" ज्ञाते उपलक्षिते एकरात्रं वसति, एकं वा द्वे वा दिने अज्ञाते ॥६॥"दुट्ठाण हथिमाईण, नो भएणं पर्यपि ओसरई । एमाइ नियमसेवी, विहरइ जाऽखंडिओ मासो ॥७॥ पच्छा गच्छसुवेई, एवं दुमासी तिमासि जा सत्त । नवरं दत्ती वड्ढइ, जा सत्त उ सत्तमासीए ॥८॥ तत्तो अ अट्ठमीआ, हवइह पडिमा उ सत्तराइदिणा । तीइ चउत्थचउत्थे ण, पाणएणं इह विसेसो"। अष्टम्यामयं विशेषो यच्चतुर्विधाहारांश्चतुर्थान् करोति, इहापि च पारणकेष्वाचाम्लं कार्य, दत्तिनियमस्तु नास्ति ॥६॥ तथा “उत्ताणग-पासली, नेसज्जी मावि ठाण ठाइत्ता। सहइ उवसग्गे घोरे, दिव्वाई तत्थ अविकंपो"। evee Veree! GEVEEVEGVEGGE Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥५६॥ अध्य०३१ an ܩܙܕܦܕܩܝܕܩܙܕܦܕܩܕܩܩܣܗܦܙܤܟܕܩܙܞ | उत्तानकः-ऊर्ध्वमुखशयितः, पासल्ली-पार्श्वमुखशयितः, निषद्यावान् समपुततयोपविष्टः, स्थानमुक्तरूपं स्थित्वा ग्रामादिभ्यो बहिरिति शेषः ॥ | १०॥ "दुच्चावि एरिसञ्चिअ, बहिया गामाइआण नवरं तु । उक्कड लगंडसाई, दंडाययो व ठाएज्जा" । उत्कटुको-भूमावन्यस्तपु. M ततयोपविष्टः, 'लगंडं दुःस्थितं काष्ठं तद्वच्छेते यः स लगण्डशायी शीर्षपाणिभिरेव स्पृष्टभूभागो न पृष्ठेन, दण्डवदायतो दीपों दण्डायतः, वा विकल्पार्थः, स्थित्वा दिव्याधुपसर्गान् सहते इति शेषः ॥११॥ "तच्चावि एरिसच्चिन, नवरं ठाणं तु तस्स गोदोही । वीरा-16 सणमहवावी, ठाइज्जा अंबखुज्जो वा"। तिष्ठेदाम्रकुञ्जो वा आम्रफलवद्वक्राकारेणावस्थित इत्यर्थः ॥१२॥ एमेव अहोराई, छठभत्तं अपाणगं नवरं । गामनगराण बहिया, वग्धारिअपाणिए ठाणं ।" एवं पूर्वोक्तनीत्या 'वग्धारिअपाणिएत्ति' प्रलम्बितभुजस्य स्थानं भवति, अहोरात्रिकी प्रतिमा दिनत्रयेण याति, अहोरात्रान्ते षष्ठभक्तकरणात् ॥१३॥ “एमेव एगराई, अट्ठमभत्तेण ठाण बाहिरभो। ईसिंपन्भारगए, अणिमिसनयणेगदिटठीए"। अहोरात्रिकीवदेकरात्रिकी अपानाष्टमभक्तेन यत्स्थानं कायोत्सर्गस्तत्कत्तु बहिष्ठाद्ग्रामादेस्तिष्ठतीति योगः, ईषत्प्राग्भारगत ईषदवनतो नद्यादिदुस्तटीस्थितो वाऽसौ स्यात् , अनीमीषनेत्र एकपुद्गलन्यस्तदृष्टिः ॥१४॥ "साहटु दोवि पाए, वग्धारियपाणिः ठायए ठाणं । वग्धारियलंबिभुत्रो, सेस दसासु जहा भणिअं" संहृत्य चतुरंगुलान्तरं कृत्वेत्यर्थः वाघारितपाणिः प्रलम्बितभुजस्तिष्ठति स्थानं कायावस्थानविशेषं, इयं प्रतिमाऽहोरात्रानन्तरमष्टमकरणाच्चतूरात्रिंदिवसमाना स्यात् , अस्याश्च सम्यक् पारङ्गतोऽवधिमनःपर्यायकेवलज्ञानानामन्यतमां लब्धि प्राप्नोति इति, शेष दशाश्रुतस्कन्धानुसारेण ज्ञेयं । यो भियतते यथावत्परिज्ञानोपदेशादिभिः ॥११ मूलम्-किरिआसु भूअग्गामेसु, परमाहम्मिएसु य। जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥१२॥ ' व्याख्या-क्रियासु' कर्मबन्धनिबन्धनभूतचेष्टासु अर्थानादिभेदैत्रयोदशसु, यदुक्त-"अट्ठा १ ऽणट्ठा २ हिंसा ३ कम्हा ४ evee VeeVEGVEGVEEVEE EVEEVEGVEGVEVA Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Seevaar उत्तराध्य सर अध्य०३१ ॥५७॥ यनसूत्रम् ॥५७॥ दिट्ठीय ५ मोस ६ अदिएणे ७ । अज्झत्य - माण : मित्ते १० माया ११ लोभे १२ रियावहिया ॥१३॥ तत्र अर्थेन स्वपरप्रयोजनेन क्रिया पृथिव्यादिप्राणिवधोऽर्थक्रिया ॥१॥ तद्विपरीता विनापि प्रयोजनं या प्रयुज्यते सा अनर्थक्रिया ॥२॥ असौ मां हतवान् हन्ति हनिष्यति वा तदेनं हन्मीति यद्दण्डारम्भणं सा हिंसाक्रिया ॥३॥ यत्रान्यार्थ अणादि मुञ्चन्नन्यं हिनस्ति सा अकस्मात् क्रिया ॥४॥ यत्राऽशत्रमपि शत्रुरसौ ममेति बुद्धथा हिनस्ति सा 'दिट्ठीत्ति' दृष्टिविपर्यासक्रिया ॥५॥ 'मोसत्ति' स्वस्य स्वजनानां वा हेतोर्यन्मृषा वक्ति सा मषाभाषा क्रिया ॥६॥ 'अदिण्णेत्ति' स्वपरादिकृते यददत्तस्य ग्रहणं साऽदत्तग्रहणक्रिया ॥७॥ यत्र बाह्यहेतु विनापि दौर्मनस्यं साऽध्यात्मक्रिया ॥८॥ यत्तु जातिमदादिना मत्तः परं हीलयति सा मानक्रिया ॥३॥'मित्तत्ति' मित्राणामुपलक्षणत्वान्मातापित्रादिस्वजनानां | स्वल्पेप्यपराधे यद्वधवन्धादितीव्रदण्डकरणं सा मित्रद्वेषवृत्तिक्रिया ॥१०॥ मायया दम्भेन यदन्येषां वधादिकरणं सा मायाक्रिया ॥११॥ | लोभेन तु तत्करणं लोभक्रिया ॥१२॥ या पुनः सततमप्रमत्तस्य भगवतो योगीन्द्रस्य योगाद्भवति सा ऐपिथिकी क्रिया ॥१३॥ तथा भूतग्रामा:-जीवसंघाताश्चतुर्दश ते चामी-"एगिदिय सुहुमि १ यरा २, सन्नि ३ अर-पणिदिवा ४ य सवि-ति-चऊ ७ । अपज्जत्ता प| ज्जत्ता, भेएणं चउदस १४ ग्गामा ॥१॥" तेषु । तथा परमाश्च ते अधार्मिकाच परमाधार्मिकास्तेषु पञ्चदशसु असुरविशेषेषु, यदुक्त'-"अंबे १ अंबरिसी २ चेव, सामे ३ सबले ४ त्ति आवरे । रुद्दो ५ बरुद ६ काले अ७, महाकालेत्ति ८ पावरे ॥१॥ असिपत्ते । धणू १० कुमे ११, वालू १२ वेअरणी १३ इय । खरस्सरे १४ महाघोसे १५, एए पण्णरसाहिया ॥२॥" तेषु यो भिक्षर्यतते, यथायोगपरिहा| ररक्षणज्ञानैः ॥१२॥ मूलम्-गाहासोलसएहि, तहा अस्संजमम्मि य , जे भिक्खू जयई निच्च से न अच्छइ मंडले ॥१३॥ VEGEVEE Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्य पनसूत्रम् ॥५ ॥ M % 3D व्याख्या-गाथा-गाथाभिधानमध्ययनं षोडशं येषां बानि गाथामोडकानि' सूत्रकृताङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धाध्ययनानि तेषु, “समश्रोश अध्य०३१ वेपालिनं २, उवसग्गपरिगण ३ थीपरिगणा य ४ । निरयविभत्ती ५ वीरत्थो ६ य कुसीलाण परिभासा ७॥१॥ वीरिय - धम्मधाका ॥५ ॥ समाही १०, मग्ग ११ समोसरण १२ अहतहं १३ गंथो १४ ।-जमतीतं १५ तह गाथा १६, सोलसमं होइ अझयणं ॥२॥" तथा असंयमे च सप्तदशमेदे पृथिव्यादिविषये, सप्तदशसंख्यात्वं चास्य तद्विपक्षस्य संयमस्य सप्तदशभेदत्त्वात् , यदाहुः-पुढवि १ दग २ अगणि ३ मारुय ४, वणस्सइ ५ वि ६ ति ७ चउ ८ पणिदि । अज्जीवे १० । पेहु ११ प्पेह १२ पमज्जण १३ परिठ्ठवण १४ मणो १५ वई १६ काए १७॥१॥ पृथिव्यादीनां संघट्टादिपरिहारेण नवधा संयमः ६, अजीवसंयमस्तु अजीवानां सत्त्वोपमईहेतूनां पुस्तकपञ्चक -7-11 णपञ्चकादीनामुत्सर्गेणाऽग्रहणरूपः, अपवादतस्तु ग्रहणेप्येषां यतनया व्यापारणरूपः ॥१०॥ प्रेक्षासंयमश्चक्षुषा वीक्ष्य यत्कार्यकरणं ॥११॥ उपेक्षासंयमो द्विधा साधुगृहिविषये नोदनाऽनोदनात्मकः ॥१२॥ प्रमार्जनासंयमः सागारिकसमक्षं पादौ न प्रमाटिं, तदभावे तु प्रमार्जयतीत्यादिकः ॥१३॥ परिष्ठापनासंयमो विधिना दोषदुष्टाहारविएमूत्रादिपरिष्ठापनं कुतः ॥१४॥ मनःसंयमोऽनुशलस्य मनसो निरोधः कुशलस्य तस्योदीरणम् ॥१५॥ एवं वासंयमोऽपि ॥१६॥ कायसंयमः सति कार्ये उपयोगवता गमनागमनादिकार्य, तदभावे संलीनकरचरणेन भाव्यम् ॥१७॥ यो भिक्षुर्यतते एकत्र तदुक्तानुष्ठानादन्यत्र तु परित्यागात् ।।१३॥ मूलम्-बंभंमि नायज्झयणेसु, ठाणेसु असमाहिए । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥१४॥ व्याख्या-'ब्रह्मणि' ब्रह्मचर्येऽष्टादशप्रकारे, उक्तञ्च-"दिव्यौदारिककामानां, कृतानुमतिकारितैः । मनोवाक्कायतस्त्यागो, ब्रह्माष्टादशधा मतम् ॥१॥" तथा ज्ञाताध्ययनेषु उत्क्षिप्तज्ञातादिष्वेकोनविंशतो, यदाहुः-"उक्खित्तणाए १ संघाडे २, अंडे ३ कुम्मे अ १३ सेलए LEVEL EVEGETARIANET Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥५६॥ ५ । तुबे ६ अ रोहिणी ७ मल्ली ८, मायंदी ६ चंदिमा १० इ ॥१॥ दावहवे ११ उदगनाए १२, मंडुक्के १३ तेली १४ इय । नंदिफले १५ अवरकंका १६, आइएणे १७ सुसु १८ पुंडरीए १६ ॥ २ ॥ त्ति” तथा 'स्थानेषु' श्राश्रयेषु कारणेष्वित्यर्थः कस्येत्याहसमाधेः । तत्र समाधिर्ज्ञानादिषु चित्तैकाग्र्यं न समाधिरसमाधिस्तस्य तानि च विंशतिस्तथाहि द्रुतद्रुतचारित्वं द्रुतचारित्वे हि पतनादिना आत्मानमसमाधौ योजयेत्, जीववधे सत्यन्यानपि परलोके चात्मनः सत्त्ववधनिर्मितकर्मणा असमाधिः स्यात् । एवमन्येष्वप्यस माधिस्थानत्वं भावनीयम् ॥१॥ प्रमार्जितेऽवस्थानादि ||२|| दुष्प्रमार्जितेऽवस्थानादि, अनयोः सर्पादिनाऽऽत्मनोऽसमाधिः ॥३॥ अतिरिक्तशय्यासनत्वं अतिविस्तीर्णशालादौ अन्यैरधिकरणादिना आत्मपरासमाधिः, एकाधिकपीठाद्यासेवनेऽपि तथैव ॥४ ॥ रत्नाधिकपराभवनम् ||५|| स्थविरपरिभवनम् ॥६॥ भूतोपघातः प्रमादादेकेन्द्रियादिहननम् ||७|| संज्वलनं क्षणे २ रोषः ||८|| क्रोधनं दीर्घकोपकरणम् ॥६॥ पृष्ठमांसिकं परोक्षे परापवादः ॥ १० ॥ अभीक्ष्णं अवधारिणी भाषाया भाषणम् ॥११॥ नवाधिकरण करणं, अन्यान्यकलहसन्तानयोजनम् ॥ १२॥ उदीरणमुपशान्तकलहानामुदीरणम् ||१३|| अकालस्वाध्यायकरणं, अनेन हि प्रान्तदेवता असमाधौ योजयति ॥१४॥ सचित्तपृथ्वीरजःस्पृष्टपाणिना भिक्षाग्रहणं, एवं सरजः पादेन स्थण्डिलगमने पादाप्रमार्जनम् ॥१५॥ विकालेपि महच्छब्दकरणम् ||१६|| कलहकरणम् ॥ १७॥ झंझो गणभेदस्तत्करणम् ||१८|| सूर्योदयादारभ्यास्तंयावद्भोजनम् ॥१६॥ एषणासमितेरपालनम् ॥२०॥ एषु यो भिक्षुर्यतते पालनज्ञानत्यागैः ॥१४॥ मूलम् - इक्कवीसाए सबलेसु, बावीसाए परीसहे । जे भिक्खू जयई मिच्च, से न अच्छइ मंडले ॥१५॥ व्याख्या – एकविंशतौ शत्रुलयन्ति - कबु रीकुर्वन्ति चारित्रमिति शत्रुला :- क्रियाविशेषास्तेषु ते चामी-हस्तकर्म कुर्वन् शबलः, अत्र क्रि. अध्य० ३१ ॥५६॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य०३१ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥६॥ ॥६ ॥ READLE याक्रियावतोः कथञ्चिदभेदाभ्युपगमादेवमुच्यते, एवं सर्वत्र ॥१॥ अतिक्रमव्यतिक्रमातिचारैमैथुनं सेवमानः ॥२॥ रात्रौ भुञ्जानः॥३॥ आधाकर्म ४ राजपिण्ड ५ क्रीत ६ प्रामित्या ७ भ्याहृता ८ च्छेद्यानि : भुञ्जानः, तत्र प्रामित्यमुद्धारकगृहीतं, अभ्याहृतं स्वपरग्रामादेरानीतं, आच्छेद्यमुद्दाल्य गृहीतम् । प्रत्याख्यातभिक्षां भुञ्जानः ॥१०॥ षण्मासान्तर्गणाद्गणं संक्रामन् ॥११॥ मासान्तस्त्रीन् दकलेपान् कुर्वाणः, तत्रार्द्धजंघादघ्ने पयस्यऽवगाह्यमाने संघट्टः, नाभिद्वयसे पयसि तु लेपः, नाभेरुपरि तु जले प्राप्ते लेपोपरि कथ्यते । तथा मासान्तस्त्रीण्यपराधप्रच्छादनरूपाणि मायास्थानानि कुर्वन् ॥१२॥ उपेत्य प्राणातिपातं कुर्वन् ॥१३॥ उपेत्य मृषा वदन ॥१४॥ उपेत्यादत्तमाददानः ॥१५॥ अव्यवधानायां सचित्तपृथ्व्यां ऊर्वावस्थानशयनोपवेशनानि कुर्वन् ॥१६॥ एवं-संस्निग्धायां सचित्तरजोव्याप्तायां च भुवि । सचित्तशिलादौ घुणादिजीवावासे काष्ठादौ वा स्थानादि कुर्वन् ॥१७॥ साण्डे त्रसजीवान्विते बीजहरितावश्यायोत्तिङ्गपनकाम्बुमृत्तिकामर्कटसन्तानसहित विष्टरादौ स्थानादि कुर्वाणः ॥१८॥ उपेत्य कन्दमूलपुष्पफलबीजहरितानि भुञ्जानः ॥१६॥ वर्षमध्ये दश दकलेपान् मातृस्थानानि च कुर्वन् ॥२०॥ उपेत्य सचित्तजलार्द्रहस्तदवीभाजनादिनाशनादि गृहीत्वा भुञ्जानः ।।२१॥ द्वाविंशतौ परीषहेषु पूर्वोक्तेषु यो || भिक्षुर्यतते परिहारसहनादिभिः ॥१॥ मूलम्-तेवीसइ सूअगडे, रूवाहिएसु सुरेसु य । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥१६॥ व्याख्या-त्रयोविंशत्यध्ययनयोगात त्रयोविंशति तच्च तत्सूत्रकृतं च त्रयोविंशतिसूत्रकृतं, त्रयोविंशतिः सूत्रकृताध्ययनानि चामूनि"पुंडरीय १ किरिअठाणं २, आहारपरिण ३ अपच्चक्खाणकिरिया ४ य। अणगार ५ अद्द ६ नालंद ७, सोलसाईच तेवीसं ॥१॥" अत्र 'सोलसाईति' षोडश च समयादीनि पूर्वोक्तानीति त्रयोविंशतिः । तथा रूपमेकस्तदधिकेषु प्रक्रमात सूत्रकृताध्ययनेभ्यः 'सुरेषु च' भ EVEGGERVACE ܟܦܠܐܦܬܦܟܕܟܝܒܕܠܐܗ. Cavee Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥६॥ अध्य०३१ ॥६॥ PMENT RAATRA वनपतिव्यन्तरज्योतिप्कवैमानिकरूपेषु यथाक्रमं दशाप्टपंचैकविधेषु यो भिदुर्यतते यथावत्प्ररूपणादिना ॥१६॥ मूलम्-पणवीसभावणाहिं, उद्दे सेसु दसाइणं । जे भिक्खू जयई निच्च से न अच्छइ मंडले ॥१७॥ . व्याख्या-पंचविंशतो "भावणाहिति" भावनासु महाव्रतविषयासु, उक्त हि-"पणवीसं भावणाओ पण्णत्तायो तंजहा-पढमव्वए, इरिआसमिई १ मणगुत्ती २ वयगुत्ती ३ आलोइऊण पाणभोअणं ४ आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिई ॥॥ बीअव्वए, अणुवीप्रभासणया १ कोहविवेगे २ लोहविवेगे ३ भयविवेगे ४ हासविवेगे ॥५॥ तइअव्वए, उग्गहअणुण्णवणया १ उग्गहसीमजणणया २ सयमेव उग्गहअणुगिरहणया ३ साहम्मिअउग्गहं अणुण्णविन मुंजणया ४ साहारणभत्तपाणं अणुएणवित्र परिभुजणया ॥५॥ चउत्थव्वए, इस्थिपसुपंडगसंसत्तसपणासणवज्जणया १ इत्थीकहविवज्जणया २ इत्थीइदिवाण आलोयणवज्जणया ३ पुवरयपुव्वकीलिपाणं विसयाणं असरगया ४ पणीयाहारविवज्जणया ।।शा पंचमबए, सोइं दियरागोवरमे १ एवं पंचवि इदिवा ॥शा एवं ॥२५॥ "उद्देसेसुत्ति" 'उद्देशेषु' उद्देशनकालेषु दशादीनां दशाकल्पव्यवहाराणां षडविंशतौ इति शेषः, उक्त हि-दस उद्देसणकाला, दसाण कप्पस्स होति छच्चेव । दस चेव य ववहारस्स, होति सव्वेवि छब्बीसं ॥१२॥ यो भित्र्यतते परिभावनाप्ररूपणादिभिः ॥१७॥ मूलम्-अणगारगुणेहिं च, पकप्पंमि तहेव य । जे भिक्खू जयई निच्च, से न अच्छइ मंडले ॥१८॥ व्याख्या-अनगारगुणा व्रतादयः सप्तविंशतिः, "वयछक्क ६ मिदित्राणं च निग्गहो ११ भाव १२ करणसच्चं च १३ । खमयां १४ विरागया १५ विय, मणमाईणं निरोहो अ १८॥१॥ कायाण छक्क २४ जोगंमि जुत्तया २५ वेयणाहिआसणया २६ । तह मारणंतिअहिआसणा य २७ एएऽणगारगुणा ॥२॥" 'प्रकृष्टः कन्पो' यतिव्यवहारो यत्र स प्रकल्पः, स चेहाचाराङ्गमेव शस्त्रपरिज्ञाद्यष्टाविंश NEVENTEVEEVEEVEEVEEVCETE Veeve -vegveeVe ܦܦܙܕܒܕ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चराध्य अध्य०३१ ॥ ॥६॥ पनसूत्रम् ॥६२॥ त्यध्ययनात्मकं तस्मिन्, उक्त च-"सत्थपरिगणा १ लोगविजत्रो २ सीओसणिज्ज ३ सम्मत्तं ४ । आवंति ५ धुव ६ विमोहो ७ उव- हाणसुनं महपरिगणा ॥१॥ पिंडेसण १० सेज्जि ११ रिमा १२, भासा १३ वत्थेसणा य १४ पाएसा १५ । उग्गहपडिमा १६ सत्तिक्कसत्तया २३ भावण २४ विमुत्ती २५ ॥२॥ उग्धाय २६ मणुग्घायं २७, आरोवण २८ तिबिहमो णिसीहं तु । इअ अट्ठावीसविहो, यारपकप्पनामो उ॥३॥ तथैव तेनैव यथावदासेवनादिप्रकारेण तुः पूत्तौं यो भित्र्यतते ॥१८॥ मूलम्-पावसुयपसंगेसु, मोहट्ठाणेसु चेव य । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥१६॥ व्याख्या-पापश्रुतेषु प्रसङ्गास्तथाविधासक्तिरूपाः पापश्रुतप्रसङ्गाः तेषु एकोनविंशभेदेषु, उक्त च-"अटुंगनिमित्ताई, दिब्बु १ प्पायं २ तलिक्ख ३ भोमं च ४ । अङ्ग ५ स्सर ६ लक्खण ७ वंजणं च ८ तिविहं पुणेक्केक्कं ॥१॥ त्रैविध्यमेवाह-सुत्तं १ वित्ती २ तह वत्तिअं३ च २४ पावसुअमउणतीसविहं । गंधव्व २५ नट्ट २६ वत्थु २७ आउं २८ धणुव्वेअसंजुत्तं २६ ॥२॥ तत्र दिव्यं व्यन्तराट्टहासादि ॥१॥ उत्पातं सहजरुधिरवृष्टयादि ॥२॥ आन्तरिक्षं ग्रहभेदादि ॥३॥ भीमं भूकम्पादि ॥४।। प्राङ्गमङ्गस्फुरणादि ॥शा स्वरं षडजादिकं ॥६॥ लक्षणं पुरुषादीनां ॥७॥ व्यञ्जनं मषादि ॥८॥ 'वत्युंति' वास्तुविद्या 'श्राऊंत्ति' वैद्यकं । मोहट्ठाणेसुत्ति' मोहो मोहनीयं तस्य स्थानेषु त्रिंशत्संख्येषु, तथा हि-नद्यादिजलमध्ये प्रविश्य रौद्राध्यवसायेन त्रसप्राणिहननम् ॥१॥ हस्तेन मुखादीनि पिधाय हृदये सदुःखनादं रटतश्छागादिजन्तोारणम् ॥२ शीर्षावेष्टेनार्द्रचर्मादिना शिरो वेष्टयित्वा जन्तोर्हननम् ॥३॥ मुद्रादिना शीर्षे आहत्य दुःखमारेण प्राणिघातः ॥४॥ बहुजनस्य नेता त्राता यो भवति तद्व्यापादनम् ॥शा सर्वसाधारणस्यापि ग्लानादेः सत्यपि सामर्थ्ये कृत्याकरणम् ॥६॥ निर्द्धर्मतया भिक्षाद्यर्थमुपस्थितस्य मुने_तः ॥७॥ मुक्तिसाधकमार्गात्स्वस्यान्यस्य वा कुयुक्तिभिर्व्यामोहापादनेन परिभ्रंशः ॥८॥ जिनानाम Veevee VETEENGVEGEN Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्ययनमत्रम् ॥६३॥ अध्य०३१ का ॥३॥ ZEVEEVEELGESVE वर्णवादः ॥६॥ प्राचार्यादीनां जात्यादिना निन्दनम् ॥१०॥ तेषामेव वैयावृत्त्याद्यकरणम्॥११॥ पुनः पुनरधिकरणमुत्पाद्य तीर्थभेदः॥ १२॥ जानतोऽपि तद्दोषं वशीकरणादीनां प्रयोगः ॥१३॥ वान्तकामस्याप्यहिकामुष्मिकविषयाणां प्रार्थनम् ॥१४॥ अबहुश्रुतस्यापि स्वस्थ बहुश्रुतोऽहमिति भाषणम् ॥१शा तथा अतपस्विनोऽपि तपस्वी अहमिति भाषणम् ॥१६॥ गृहादिमध्ये लोकं क्षिप्त्वा सधृमाग्निप्रदीपनम् | ॥१७॥ स्वयमकार्य कृत्वाऽन्येन कृतमिति कथनम् ॥१८॥ अशुभमनोयोगयुक्तत्वेन प्रचुरमायाप्रयोगात्सकललोकवचनम् ॥१६॥ सत्यं वदन्तमन्यं मषा वक्षीति कथनम् ॥२०॥ अक्षीणकलहत्वम् ।।२१।। मार्गे लोकान्प्रवेश्य तद्वित्तहरणम् ॥२२ विश्वास्य जनं तत्कलत्राणामुपभोगः ॥२३॥ अकुमारस्यापि कुमारोऽहमिति भाषणम् ॥२४॥ एवमब्रह्मचारिणोऽपि ब्रह्मचार्यहमिति भणनम ॥२५॥ येनैवैश्वर्य नीतस्तस्यैव वित्तहरम ॥२६॥ यत्प्रभावादम्युदितस्तस्यैव भोगाद्यन्तरायकरणम् ॥२७॥ सेनापतिपाठकनृपश्रेष्ठिव्यापादनम् ॥२८॥ अपश्यतोऽपि पश्यामि देवानिति कथनम् ॥२६॥ किं कामगईभैर्देवैरित्यादिको देवानामवर्णवादः ॥३०॥ इति रूपेषु यो भिक्षर्यतते त्यागादिना ।।१।। मूलम्-सिद्धाइगुणजोएसु, तित्तीसासायणासु य। जे भिक्खू जयई निच्चं, से न.अच्छइ मंडले ॥२०॥ व्याख्या सिद्धानामतिशायिनो गुणाः सिद्धातिगुणा एकत्रिंशत् , ते च संस्थान ५ वर्ण ५ गन्ध २ रस ५ स्पर्श ८ वेदाभावा २८ कायत्वा २६ ऽसङ्गत्वा ३० ऽजन्मत्व ३१ रूपाः, नवविधदर्शनावरणचतुर्विधायुष्कपश्चविधज्ञानावरणपश्चविधान्तरायद्विद्विभेदवेदनीयगोत्रमो. हनामकर्मणामभावरूपा वा । 'जोगेसुत्ति' सूचकत्वात् सूत्रस्य योगसंग्रहा यैर्योगाः शुभमनोवाक्कायव्यापाराः संगृह्यन्ते, ते च द्वात्रिंशदमीशिष्येण प्रशस्तयोगसंग्रहाय आचार्यायालोचना श्रावणीया ॥१॥ प्राचार्येणापि प्रशस्तयोगसंग्रहायैव दत्तायामालोचनायां निरपलापेनैव भाव्यं नान्यस्मै वाच्यम् ॥२॥ सर्वसाधुभिरापत्सु दृढधर्मता कार्या ॥३॥ ऐहिकामुष्मिकफलानपेक्षं तपः कार्यम् ॥४॥ ग्रहणासेवने शिक्षे आ CAVEGVEVER EVEGVETETEVE Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥६४॥ से. वेतव्ये ||५|| निष्प्रतिकर्मशरीरत्वं कार्यम् ॥ ६ ॥ यथा नान्यो वेत्ति तथा तपः कार्यम् ॥ ७॥ प्रलोभता ||८|| परिषहादिजयः ॥ ६ ॥ श्रार्जवम् ॥१०॥ संयमविषये शुचित्वम् ॥११॥ सम्यक्त्वशुद्धिः ॥ १२ ॥ चित्तसमाधिः ॥ १३ ॥ श्राचारपरिपालने मायाया अकरणम् ॥ १४ ॥ विनयोपगत्वेन मानाकरणम् ॥१५॥ धृतिप्रधाना मतिधृ तिमतिर्धार्या ॥ १६ ॥ संवेगपरता ॥ १७ ॥ स्वदोषप्रच्छादनार्थं या माया सा प्रणिधिरुच्यते सा त्याज्या || १८ || सुविधिकारिता ॥ १६ ॥ संवरः ॥ २०॥ आत्मदोषोपसंहारः || २१|| सर्वकामविरक्तत्वभावना ॥ २२ ॥ मूलगुणप्रत्याख्यानम् ||२३|| उत्तरगुणप्रत्याख्यानं ||२४|| द्रव्यभावविषयो व्युत्सर्गः ॥ २५ ॥ श्रप्रमत्तता ||२६|| क्षणे क्षणे सामाचार्यनुष्ठानम् ||२७|| ध्यानसम्भृतता ||२८|| मारणान्तिकवेदनोदयेप्यक्षोभता ||२६|| संगानां प्रत्याख्यानम् ||३०|| प्रायश्चित्तकारिता ||३१|| मरणान्ताराघना ||३२|| ततो द्वन्द्वे सिद्धातिगुणयोगास्तेषु । त्रयस्त्रिंशदाशातनासु च अर्हदादिविषयासु प्रतिक्रमणसूत्रोक्तासु, पुरतः शिष्यगमनादिषु वा समवायाङ्गोक्तासु ताश्चेमाः शिष्यो राजन्यस्याचार्यादेः पुरतः १ पार्श्वतो वा २ पृष्टतो ३ वा अत्यासन्नं गच्छति || ३ || एवं तिष्ठति ।।६।। एवमेव च निषीदति ॥ ६ ॥ बहिभूमौ गतो गुरोः पूर्वमुभयसाधारणाम्भसा शौचं करोति ॥ १० ॥ गुरोः पूर्वं गमनागमनमालोचयति ॥ ११॥ रात्रौ शब्दं कुर्वतो गुरोर्जाग्रदपि प्रतिशब्दं न दत्ते ||१२|| श्रावकादिकमालापनीयं गुरोः पूर्वमालापयति ॥ १३ ॥ अशनाद्यानीय पूर्वमन्येषामालोच्य पश्चाद्गुरोरालोचयति ॥ १४ ॥ एवमन्येषां तत्पूर्वमुपदर्शयति ।। १५ ।। एवं गुरोः प्रागशनादिनाऽपरानिमन्त्रयति ॥ १६।। गुरूननापृच्छय यो यदिच्छति तत्तस्मै प्रचुरं २ दत्ते ॥ १७ ॥ मनोज्ञं मनोज्ञं स्वयं भुङ्क्ते ॥ १८ ॥ दिनेऽपि गुरोः शब्दयतो न प्रतिवचो दत्ते ॥१६॥ गुरुं प्रति निष्ठुरं मुहुर्वक्ति ||२०|| गुरुणा शब्दितो यत्र स्थितो गुरुवचः शृणोति तत्र स्थितः एव प्रतिवचो दत्ते ॥ २१॥ किं भणसीति गुरु वक्ति ||२३|| यादृशं गुरुक्ति तादृशमेव प्रतिवक्ति, यथार्य ! किं ग्लानादेर्वैयावृत्त्यादि न करोषीत्यादि गुरुणोक्त अध्य० ३१ ॥६४॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्य अध्य० ३१ ॥६ ॥ यनसूत्रम् ॥६ ॥ स्त्वमेव किं न करोषीत्यादि प्रतिवक्ति ॥२४॥ गुरौ कथां कथयति नो सुमनाः स्यात् ॥२॥ त्वमेतमर्थ न स्मरसीति वक्ति ॥२६॥ गुरौ कथां कथयति स्वयं कथां वक्तुमारभते ॥२७॥ भिक्षाकालो जात इत्यादिवाक्येनाकालेऽपि पर्षदं भिनत्ति ॥२८॥ अनुत्थितायामेव पर्षदि गुरुक्तमेवार्थ स्वकौशलज्ञापनार्थ सविशेष वक्ति ॥२६॥ गुरोः संस्तारकं पद्धयां घट्टयति ॥३०॥ गुरोः संस्तारके निषीदति शेते वा ॥३१॥ उच्चासने निषीदति ॥३२॥ समासने वा ॥३३॥ यो भिक्षुर्यतते श्रद्धानसेवनवर्जनादिना स न तिष्ठति मण्डले संसारे । इत्येकोनविंशतिसूत्रार्थः ॥२०॥ अध्ययनार्थ निगमयितुमाहमूलम्-इइ एएसु ठाणेसु, जो भिक्खू जयई सया । से खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पंडिएत्ति बेमि ॥ व्याख्या-इत्यनेन प्रकारेण एतेष्वनन्तरोक्तेषु स्थानेषु शेषं स्पष्टमिति सूत्रार्थः ॥२१॥ इति ब्रवीमीति प्राग्वत् ॥ PARDARSAR Fursadrasataraseraserasadaasaareerteresraerasexuals है इति श्रीतपागच्छीयमहोपाध्याय श्रीविमलहर्षगणिशिष्यमहोपाध्याय श्रीमुनिविमलगणिशिष्योपाध्याय श्रीभावविजयगणिसमर्थितायां श्रीउत्तराध्ययनसूत्रवृत्तौ एकत्रिंशमध्ययनं सम्पूर्णम् ॥३१॥ BoxEARTHAPAPARPAPEPARAPARMARPAIIMSAROKARMARAHTIKApry NEVRESEAZAVESE Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य अध्य० ३२ ॥६६॥ पनसूत्रम् JEEVEGYEEVEGYEE Yeeveere-YEGYEE VE ॥ अथ द्वात्रिंशमध्ययनम् ॥ ॥ॐ॥ उक्तमेकत्रिंशमध्ययनं अथ प्रमादस्थानाख्यं द्वात्रिंशमारभ्यते, अस्य चायं सम्बन्धोऽनन्तराध्ययने चरणमुक्त, तच्च प्रमादस्थानत्यागादेवासेव्यते, तत्त्यागश्च तत्परिज्ञानपूर्वक इति तदर्थमिदमारभ्यते, इतिसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् । मूलम-अच्चंतकालस्स समूलयस्स, सव्वस्स दुक्खस्स उ जो पमोक्खो। तं भासओ मे पडिपुण्णचित्ता, सुणेह एगंतहियं हियत्थं ॥१॥ व्याख्या-अन्तमतिक्रान्तोऽत्यन्तो वस्तुनश्च द्वावन्तौ प्रारम्भक्षणो निष्टाक्षणश्च, तत्रेहारम्भक्षणलक्षणोऽन्तः परिगृह्यते, तथा चात्यन्तोऽनादिः कालो यस्य सोऽत्यन्तकालस्तस्य, सह मूलेन-कषायाविरतिरूपेण वर्तते इति समूलकस्तस्य, सर्वस्य दुःखयतीति दुःखः-संसारस्तस्य, 'तुः' पूतौं, यः प्रकर्षण मोतः-अपगमः प्रमोक्षः तं भाषमाणस्य मे, प्रतिपूर्ण-प्रस्तुतार्थश्रवणव्यतिरिक्तविषयान्तरागमनेनाखण्डितं चित्तं येषां ते प्रतिपूर्णचित्ताः सन्तो यूयं शृणुत, एकान्तेन-निश्चयेन हितं एकान्तहितं, हितस्तत्त्वतो मोक्ष एव तदर्थमिति सूत्रार्थः ॥१॥ प्रतिज्ञातमाह मूलम - नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अण्णाणमोहस्स विवजणाए । रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥२॥ व्याख्या-'ज्ञानस्य' मतिज्ञानादेः सर्वस्य पाठान्तरे 'सच्चस्स' सत्यस्य वा 'प्रकाशनया' निर्मलीकरणेन, अनेन ज्ञानात्मको मोक्षहेतु Veeneeeeeeeeeeeeeeee Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥६७॥ रुक्तः । तथा अज्ञानं-मत्यज्ञानादि, मोहो-दर्शनमोहनीयं, अनयोः समाहारस्तस्य विवजना-मिथ्याश्रुतश्रवणकुदृष्टिसङ्गत्यागादिना परिहा- |G अध्य०३२ णिस्तया, अनेन सम्यग्दर्शनरूपो मोक्षहेतुरेवोक्तः । रागस्य द्वेषस्य च 'संक्षयेण' विनाशेन, अनेन चारित्रात्मकः स एवोक्तः, रागद्वेषयोरेव | ॥६७॥ तदुपघातकत्वात् । ततश्चायमर्थः-सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रैरकान्तसौख्यं समुपैति मोक्षम् । अयं च दुःखप्रमोक्षं विना न स्यादित्यनेन स एवोपलक्षित इति सूत्रार्थः ॥२॥ नन्वस्तु ज्ञानादिभ्यो दुःखप्रमोक्षो ज्ञानादीनां तु कः प्राप्तिहेतुरुच्यते ? मूलम्-तस्सेस मग्गो गुरुविद्धसेवा, विवज्जणा बालजणस्स दूरा । सज्झायएगंतनिसेवणा य, सुत्तत्थसंचिंतणया घिई य ॥३॥ ___ व्याख्या-तस्येत्यनन्तरोक्तस्य ज्ञानादेमोक्षोपायस्य एष 'मार्गः' पन्था उपाय इत्यर्थः, क इत्याह-गुरवो-यथास्थितशास्त्राभिधायकाः, वृद्धाश्च-श्रुतपर्यायादिना स्थविरास्तेषां सेवा गुरुवृद्धसेवा । विवर्जना 'बालजनस्य' पावस्थादेः 'द्रात्' दूरेण, स्वल्पस्यापि तत्सङ्गस्य महादोपत्वात् । स्वाध्यायस्य एकान्तेन-च्यासङ्गत्यागेन निपेवणा-अनुष्ठानं एकान्तनिषेवणा। चः समुच्चये, सत्रार्थसश्चिन्तना, 'धृतिश्च मनःस्वास्थ्यं | न हि धृति विना ज्ञानादिलाभ इति सूत्रार्थः ॥३।। यद्येवंविधो ज्ञानादेरुपायस्तर्हि तानि वाञ्छता प्राक्किं कर्तव्यमित्याह मूलम्-आहारमिच्छे मिअमेसणिज्जं, सहायमिच्छे निउण?बुद्धिं । निकेअमिच्छेज्ज विवेगजोगं, समाहिकामे समणे तवस्सी ॥४॥ व्याख्या-अहारमिछन्मितमेषणीयं, न तु तदन्यं । सहायमिच्छेत निपुणा अर्थेषु-जीवादिषु बुद्धिर्यस्य स तथा तं । 'निकेतम'आ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥६ ॥ अध्य०३२ ॥६ ॥ श्रयमिच्छेद्विवेकः-व याद्यसंसर्गस्तद्योग्यं तदुचितं । समाधिकामः श्रमणः तपस्वीति सूत्रार्थः ॥४॥ तादृशसहायालाभे यत्कार्य तदाह मूलम्ण वा लभिजा निउणं सहायं, गुणाहिलं वा गुणो समं वा। . ___ एक्कोऽवि पावाइं विवजयंतो, विहरिज कामेसु असज्जमाणो ॥५॥ व्याख्या-'न' निषेधे, वा शब्दश्चेदर्थे, ततश्च न चेल्लभेत निपुणं सहायं गुणैर्ज्ञानादिभिरधिकं 'गुणतो' गुणानाश्रित्य समं वा, उभयत्राप्यात्मन इति गम्यते, तदा एकोऽपि 'पापानि' पापहेतुभृतानुष्ठानानि विवर्जयन् विहरेत् कामेषु 'असजन्' प्रतिबन्धमकुर्वन् । तथाविधगीतार्थविषयं चैतदन्यथा एकाकिविहारस्यागमे निषिद्धत्वात् । एतदुक्तौ च मध्यग्रहणे आद्यन्तग्रहणमिति न्यायादाहारवसत्योरप्यपवादोऽवादीति मन्तव्यमिति सूत्रार्थः ॥५॥ इत्थं सप्रसङ्ग ज्ञानादीनां दुःखप्रमोक्षोपायत्वमुक्तं, इदानीं तु ज्ञानादिप्रतिबन्धकानां दुःखहेतूनां च मोहादीनां यथोत्पादो यथा दुःखहेतुत्वं यथा च क्षयस्तत्क्षये च यथा दुःखक्षयस्तथाभिधातुमाह| मूलम्-जहाय अंडप्पभवा बलागा, अंडं बलागप्पभवं जहा य। एमेव मोहाययणं खु तण्हा, मोहं च त| राहाययणं वयंति ॥६॥ रागो य दोसोवि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति। कम्मं च जाईमरणस्स | मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति ॥७॥ दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हो जस्स न होइ तरहा । | तरहा हया जस्स न होइ लोहो, लोहो हो जस्स न किंचणाई ॥८॥ व्याख्या-'यथा च' येनैव प्रकारेण अण्डप्रभवा बलाका, अण्डं बलाकाप्रभवं च यथा । एवमेव अनेनैव प्रकारेण मोहः-अज्ञानं EVEEVAKAVOVOGVAKAVAAGVEGV Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम A अध्य०३२ ॥६६॥ ॥६६॥ READIBASसरकार मिथ्यादर्शनं च स आयतनम्-उत्पत्तिस्थानं यस्याः सा मोहायतना तां खुरवधारणे 'तण्हत्ति' तृष्णां वदन्तीति सम्बन्धः, यथोक्तमोहाभावे ह्यवश्यं तृष्णाक्षयः स्यादिति । मोहं च तृष्णायतनं वदन्ति, तृष्णा नाम सत्यसति वा वस्तुनि मूर्छा, सा च रागप्रधाना ततस्तया राग उपलक्ष्यते, सति च तत्र द्वेषोऽपि सम्भवतीति सोप्यनेनैवाक्षिप्यते, ततस्तष्णाग्रहणेन रागद्वेषावुक्ती, तदुत्कटत्वे चोपशान्तमोहस्यापि मिथ्यात्वगमनसम्भवात्सिद्ध एवाऽज्ञानादिरूपो मोहः, तृष्णातः । अनेन चान्योन्यं हेतुहेतुमद्भावाभिधानेन यथा मोहादीनामुत्पादस्तथोक्तम् ॥६॥ अथ यथैषां दुःखहेतुत्वं तथा वक्तुमाह-रागश्च द्वषोपि च कर्मणो ज्ञानावरणादेवीज-कारणं, अत एव कर्म च 'मोहप्रभवं' मोहोपादानकार णं वदन्ति । कर्म च जातिमरणस्य 'मूलं कारणं, 'दुःखं च' दुःखहेतुः पुनर्जातिमरणं वदन्ति ॥७॥ यतश्चैवमतः किं स्थितमित्याहदुःखमुक्तरूपं हतमिव हतं, केनेत्याह-यस्य न भवति मोहो मोहस्यैव तन्मूलहेतुत्वात् । मोहो हतो यस्य न भवति तृष्णा, मोहायतनत्वात् तस्याः । तृष्णा हता यस्य न भवति लोभः, तृष्णाशब्देनोक्तनीत्या रागद्वेषयोरुतत्वात् , तयोश्च लोभक्षये सर्वथैवाभावात् , अत एव प्राधान्यात रागान्तर्गतत्वेपि लोभस्य पृथग्रहणं । लोभो हतो यस्य न 'किञ्चनानि' द्रव्याणि सन्तीति शेषः, सत्सु हि तेषु प्रायः स्यादेवाभिकांक्षेति सूत्रत्रयार्थः ॥८॥ ननु सन्तु दुःखस्य मोहाद्या हेतवो हननोपायस्तेषां पूर्वोक्त एव उतान्येपि सन्तीत्याशंक्य सविस्तरं तदुन्मूलनोपायान् विवक्षुः प्रस्तावनामाह मूलम-रागं च दोसं च तहेव मोहं, उद्धत्तुकामेण समूलजालं । जे जे उवाया पडिवजियव्वा, ते कित्तइस्सामि अहाणुपुट्विं ॥६॥ व्याख्या-रागं च द्वेषं च तथैव मोहं 'उद्धत कामेन' उन्मूलयितुमिच्छता सह मूलानां-तीनकषायादीनां विषयादीनां च जालेन व MeeeeeeeeYEU-YE-NEGeeeeeeeeeeeev Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्यपनसूत्रम् ॥७०॥ ܒܕܒܕܒܕܒܕܒܕܒܕܟܕܒ̈ܐ ते योऽसौ समूलजालस्तं, ये ये उपायाः 'प्रतिपत्तव्याः' स्वीकार्यास्तान् कीर्तयिष्यामि यथानुपूर्वीति सूत्रार्थः ॥६॥ प्रतिज्ञातमाह- अध्य० ३२ मूलम्-रसापगामं न निसेविअव्वा, पायं रसा दित्तिकरा नराणं । दित्तं च कामा समभिद्दवंति, दुर्म जहा ॥७॥ सादुफलं व पक्खी ॥१०॥ जहा दवग्गी पउरिंधणे वणे, समारुओ नोवसमं उवेइ । 'एविंदिअग्गीवि पगामभोइणो, न बंभयारिस्स हिआय कस्सइ ॥११॥ विवित्तसेज्जासणजंतिआणं, ओमासणाणं दमिइंदिआणं । न रागसतू धरिसेइ चित्तं, पराइओ वाहिरिवोसहेहिं ॥१२॥ जहा बिरालावसहस्स मूले, न मूसगाणं वसही पसत्था । एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे, न बंभयारिस्स खमो निवासो ॥१३॥ व्याख्या-रसा:-क्षीरादिविकृतयः प्रकामं-बाढं न 'निषेवितव्या' न भोक्तव्याः, प्रकामग्रहणं तु वातादिक्षोभनिवारणाय रसा अपि जातु ग्राह्या इति सूचनार्थम् । कुत एवमुच्यत इत्याह । प्रायो-बाहुल्येन रसा 'दृप्तिकरा' धातूद्रेककारिणो नराणामुपलक्षणत्वात् स्त्र यादीनां च का भवन्ति, दृप्तं च नरं बहुवचनप्रक्रमेप्येकवचनं जातित्वात् 'कामा' विषयाः समभिद्रवन्ति । कमिव के इव ? इत्याह-द्रुमं यथा स्वादुफलं, 'वे- का ति' भिन्नक्रम उपमार्थश्च ततः पक्षिण इव । इह द्रुमोपमः पुमान् , स्वादुफलकल्पं दृप्तत्वं, पक्षितुल्याः कामाः ॥१०॥ किश्च यथा दवा- MA ग्निः प्रचुरेन्धने बने 'समारुतः सवायुर्नोपशमं उपैति, एवं दवाग्निवत् 'इदियग्गित्ति' इहेन्द्रियशब्देन इन्द्रियजनितो राग एवं गृह्यते स एव धर्मद्रुमदाहकत्वादग्निरिन्द्रियाग्निः, सोऽपि 'प्रकामभोजिनः' अतिमात्राहारस्य न ब्रह्मचारिणो हिताय 'कस्यचित्'सुस्थितस्यापि स्यात् ।। ||21 ११॥ अन्यच्च-विविक्ता-स्त्र यादिवियुक्ता शय्या वसतिस्तस्यामासनम्-अवस्थानं तेन यंत्रिता-नियंत्रिता विविक्तशय्यासनयंत्रितास्तेषां 'अ AYEGeete GECEEEEEEEEA । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥७१॥ का अध्य०३२ | ॥७ ॥ ܕܦܕܒܕܟܝܕܒܬܕܟܕܒܟܕܟܣܛܩܕܒܒ वमाशनानां' न्यूनभोजनानां दमितेन्द्रियाणां न रागशत्रुः'धर्षयति' पराभवति चित्तं, क इव ? 'पराजितः' पराभूतो 'व्याधिः कुष्ठादिरिवौपधैर्गडुच्यादिभिर्देहमिति गम्यते ॥१२॥ विविक्तवसत्यभावे दोषमाह-यथा 'विडालावसथस्य' मार्जारगृहस्य 'मूले समीपे न मूषकानां 'वसतिः प्रशस्ता, अवश्यं तत्र तदपायसम्भवात् , एवमेव स्त्रीणामुपलक्षात्पण्डकादीनां च निलयो-निवासः स्त्रीनिलयः तस्य मध्ये न ब्रह्मचारिणः 'क्षमो' युक्तो निवासः, तत्र ब्रह्मचर्यबाधासम्भवादिति भावः ॥१३॥ विविक्तवसतावपि कदाचित्स्त्रीसम्पाते यत्कर्तव्यं तदाहमूलम्-न रूबलावरणविलासहासं, न पिअं इंगिअ पेहिअं वा। इत्थीण चित्रांसि निवेसइत्ता, दट्ठववस्से समणे तवस्सी ॥१४॥ अदसणं चेव अपत्थणं च, अचिंतणं चेव अकित्तणं च । इत्थीजणस्सारियझाणजुग्गं, हिनं सया बंभचेरे रयाणं ॥१५॥ कामं तु देवीहिं विभूसिाहिं, न चाइआ खोभइडं तिगुत्ता । तहावि एगंतहिति नच्चा, विवित्तभावो मुणियां पसत्थो ॥१६॥ मोक्खाभिकंखिस्सऽवि माणवस्स, संसारभीरुस्स ठियस्स धम्मे । नेयारिसं दुत्तरमस्थि लोए, जहित्थिो बालमणोहराओ ॥१७॥ ___व्याख्या-'न' नैव रूपं-सुसंस्थानत्वं, लावण्पं-नयनमनसामाल्हादको गुणः, विलासाः-विशिष्टनेपथ्यरचनादयः, हासः प्रतीतः, एषां समाहारः, न 'जल्पितम् ' उल्लपितं, "इंगिअत्ति" 'इङ्गितं' अङ्गभङ्गादि 'प्रेषितं' कटाक्षवीक्षितादि, वा समुच्चये स्त्रीणां सम्बन्धि चित्ते निवेश्य, अहो ! सुन्दरमिदमिति विकल्पतो मनसि स्थापयित्वा 'द्रष्टुं' इन्द्रियविषयतां नेतु 'व्यवस्येद् ' अध्यवस्येत् श्रमणः तपस्वी ॥१४॥ कुत एवमुपदिश्यते ? इत्याह-प्रदर्शनं च, एवोऽवधारणे, ततः प्रदर्शनमेव, 'अप्रार्थनं' चाऽनभिलषणं अचिन्तनं चैव' NEVER EVEEVEEVE EVEEVEVEEVEGVES Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ता उत्तराध्ययनस्त्रम् ॥७२॥ ॥७२॥ ASH रूपाद्यपरिभावनं, अकीर्त्तनं च नामतो गुणतो वा स्त्रीजनस्य, आर्यध्यानं धर्मादि तद्योग्य-तद्धेतुत्वेनोचितं आर्यध्यानयोग्य, 'हितं पथ्यं, अध्य०३२ सदा ब्रह्मचर्ये रतानां । ततो न स्त्रीणां रूपादि सरागं द्रुष्टुं व्यवस्येदिति स्थितम् ॥१५॥ ननु विकारहेतौ सति ये निर्विकाराः स्युस्त एव धीरास्तत्किं विविक्तशयनासनत्वमिष्यते ? इत्याशंक्याह-"कामं तुति" अनुमतमेवैतत् यद्देवीभिरपि आस्तां मानुषिभिः'भूषिताभिः'अलंकृताभिः न नैव 'चाइअत्ति' शकिताः 'क्षोभयितु' चलयितुं त्रिगुप्ताः मुनयः, तथापि एकान्तं हितमिति ज्ञात्वा विविक्तभावो मुनीनां प्रशस्तोऽन्तर्भावितणिगर्थतयाप्रशंसितो जिनायैः । अयं भावः-स्त्र यादिसंगे प्रायो योगिनोऽपि तुभ्यन्ति येपि न क्षुभ्यन्ति तेऽप्यवर्णादिदोषभाजो भवन्तीति विविक्तत्वमेव श्रेयः ॥ १६ ॥ इदमेव समर्थयितु स्त्रीणां दुरतिक्रमत्वमाह-मोक्षाभिकांक्षिणोऽपि मानवस्य संसारभीरोरपि स्थितस्यापि 'धर्म' श्रुतधर्मे अपिशब्दश्च कोऽपि सर्वत्र सम्बध्यते, 'न' नैव एतादृशं 'दुस्तरं' दुरतिक्रममस्ति लोके यथा स्त्रियो बालानां-निर्विवेकानां मनोहरा वालमनोहरा दुस्तराः ॥ १७ ।। स्त्रीसङ्गातिक्रमे गुणमाहमूलम्-एए असंगे समइक्कमित्ता, सुहृत्तरा चेव हवंति सेसा। जहा महासागरमुत्तरित्ता, नई भवे अवि की गङ्गासमाणा ॥१८॥ कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स । जं काइनं माणसि || च किंचि, तस्संतगं गच्छइ वीअरागो॥१६॥ जहा य किंपागफला मणोरमा, रसेण वरणेण य भुज्जमाणा । | ते खुद्दए जीवित्र पञ्चमाणा, एओवमा कामगुणा विवागे ॥२०॥ जे इंदिआणं विषया मणुण्णा, न तेसु | भाव निसिरे कयाई । न यामणुरणेसु मणंऽपि कुजा, समाहिकामे समणे तवस्सी ॥२१॥ evee sܦܩܝܟܩܬܕܒܕܩܟܗ eeeeeee Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sede उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥७३॥ अध्य०३२ ॥७३॥ व्याख्या-एतांश्च स्त्रीविषयान् ‘सङ्गान्' सम्बन्धान समतिक्रम्य सुखोत्तराश्चैव भवन्ति शेषा द्रव्यादिसङ्गाः, सर्वसङ्गानां रागरूपत्वे || तुल्येऽपि स्वीसङ्गानामेवैतेषु प्राधान्यात् दृष्टान्तमाह-यथा 'महासागरं' स्वयम्भूरमणमुत्तीर्य नदी भवेत्सुखोत्तरैव "अवि गंगासमाणत्ति" गङ्गासमानापि प्रास्तां क्षुद्रनदीत्यपिशब्दार्थः ॥ १८ ॥ किञ्च-कामेषु अनुगद्धिः-सतताभिकांदा कामानुगद्धिस्तत्प्रभवमेव, खुशब्दस्या- | वधारणार्थत्वात् , दुःखं सर्वस्य लोकस्य सदेवकस्य, यत्कायिकं मानसिकं च 'किञ्चद्' अल्पमपि, तस्यान्तमेवान्तकं गच्छति 'वीतरागो' विगतकामानुगद्धिः ॥ १६ ॥ ननु कामाः सुखरूपास्तत्कथं तत्प्रभवमेव दुःखमुच्यते ? उच्यते-'यथा च' यथैव किम्पाकफलानि 'मणोरमत्ति' अपेर्गम्यत्वान्मनोरमाण्यपि रसेन वर्णेन च शब्दाद्गन्धादिना च भुज्यमानानि, तानि लोकप्रतीतानि "खुद्दएत्ति" आपत्वात् 'क्षोदयन्ति' विनाशयन्ति जीवितं 'पच्यमानानि' विपाकावस्थाप्राप्तानि, एतदुपमाः कामगुणा विपाके, विपाकदारुणतासाम्येन तत्तुल्या इति भावः ॥ २० ॥ एवं केवलस्य रागस्योद्धरणोपायमभिधाय तस्यैव द्वेषान्वितस्य तमाह-ये इन्द्रियाणां विषया मनोज्ञाः न तेषु भा' अभिप्रायं अपेर्गम्यत्वात भावमपि प्रक्रमादिन्द्रियाणि प्रवर्त्तयितुं, किं पुनस्तत्प्रवर्तनमित्यपिशब्दार्थः, 'निसृजेत्'कुर्यात्कदाचित् । 'नच' a नैवामनोज्ञेषु मनोऽपि कृर्यादिन्द्रियाणि प्रवर्तयितुमितीहापि गम्यं, अपेरर्थः प्राग्वत् , समाधिरिह रागद्वेषाभावरूपस्तं कामयते इति समा धिकामः श्रमणः तपस्वीति सूत्रद्वादशकार्थः ॥ २१ ॥ इत्थं रागद्वेषोद्धरणैषिणो विषयेभ्य इन्द्रियाणां निवर्त्तनमुपदिष्टं, अथ विषयेषु तत्प्रवर्तने रागद्वेषानुद्धरणे च यो दोषस्तं प्रत्येकमिन्द्रियाणि मनश्चाश्रित्य दर्शयितुमष्टसप्ततिं सूत्राण्याह । तत्रापि चक्षुराश्रित्य त्रयोदशसूत्राणिमूलम्-चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु । तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु, समो उ जो तेसु स वीअरागो ॥२२॥ रूवस्स चक्खु गहणं वयंति, चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समणु eeeeeeeeeeeeeeeeee Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य०३२ ॥७४॥ यनसूत्रम् उत्तराध्य-12 एणमाहु, दोसस्सहेडं अमणुण्णमाहु ॥२३॥ रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालिनं पावइ से विणासं । रा गाउरे से जह वा पयंगे, आलोअलोले समुवेइ मच्चु ॥२४॥ जे जावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तसि क्खणे से ॥७४॥.' उ उवेइ दुक्खं । दुईतदोसेण सएण जंतू , न किंचि रूवं अवरज्झई से ॥२५॥ व्याख्या-चक्षषो रूपं गृह्यतेऽनेनेति 'ग्रहणम्'आक्षेपकं वदन्ति, ततः किमित्याह-तद्रपं रागहेतु 'तु:' पूतौ मनोज्ञमाहुः, तथा तद्रूपमेव द्वेषहेतुममनोज्ञमाहुः, ततस्तयोश्चक्षुः प्रवर्त्तने रागद्वेषसम्भवात्तदुद्धरणाशक्तिलक्षणो दोषः स्यादिति भावः । आहैवं न कोऽपि सति | रूपे वीतरामः स्यादत आह-'समस्तु'अरक्तद्विष्टतया तुल्यः पुनर्यस्तयोर्मनोज्ञेतररूपयोः स वीतराग इव वीतरागः, उपलक्षणत्वाद्वीतद्वेषश्च ।। अयं भावः-न तावत्तयोश्चक्षः प्रवर्तयेत् , कथश्चित्प्रवृत्तौ तु समतामेवावलम्बेतेति ॥२२॥ ननु यद्येवं तर्हि रूपमेव रागद्वेषजनकं, न तु चक्षुस्तत्किं चक्षुनिग्रहेणेति शङ्कापोहायाह-रूपस्य चक्षुर्गातीति 'ग्रहणं' ग्राहकमित्यर्थः वदन्ति, तथा चक्षुषो रूपं गृह्यते इति 'ग्रहणं' ग्राह्य वदन्ति अनेन रूपचक्षुषोरन्योन्यं ग्राह्यग्राहकभावलक्षणः सम्बन्धो दर्शितस्ततो तथा रूपं रागद्वेषकारणं तथा चक्षुरपीत्युक्त' भवति अत एवाह-रागस्सेत्यादि-रागस्य हेतु प्रक्रमाच्चक्षः सह मनोज्ञेन ग्राह्यण रूपेण वर्तते इति समनोज्ञमाहुः, द्वेषस्य हेतु "अमनोझ' मनोज्ञरूपरहितमाहुस्ततो युक्त एव चक्षुषो निग्रह इति भावः ॥२३॥ इत्थं रागद्वेषोद्धरणोपायमुक्त्वा तदनुद्धरणे दोषमाह-रूपेषु यो 'गृद्धिं' रागमुपैति तीव्रां प्रकाले भवमाकालिकं प्राप्नोति स विनाश, रागातुरः सन् स इति लोकप्रतीतः, यथा वेति वाशब्दस्यैवकारार्थत्वात् यथैव पतङ्गः 'आलोकलोलः अतिस्निग्धदीपशिखादर्शनलम्पटः समुपैति मृत्युम ॥२४॥ 'यश्च यस्तु अपिभिन्नक्रमोऽन्यत्र योक्ष्यते, द्वेषं समुपैति तीव्र रूपेविति प्रक्रमः, स किमित्याह-'तसित्ति' प्राच्यस्यापिशब्दस्येह योगात्तस्मिन्नपि क्षणेस 'तुः' पूतौं उपैति दुःखं मनःसन्तापादिकं, यद्येवं GGEEVERYEEYECEC YEGeeYEDYeaveeveevery EVA VELAereece GENAVEVEGVEGY Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य- 14 तहि रूपस्यैव दुःखहेतुत्वं, तत एव द्वेषसम्भवादित्याशंक्याह-दुष्टं दान्तं-दमनं दुन्तिं दुईमत्वमित्यर्थः, तच्च प्रक्रमाच्चतुषस्तदेव दोषो दुर्दा- अध्य०३२ यनसूत्रम् IM न्तदोषस्तेन 'स्वकेन'आत्मीयेन 'जन्तुः'देही, न किञ्चित्'अल्पमपि रूपमपराध्यति तस्य जन्तोः। यदि हि रूपमेव दुःखहेतुः स्यात्तदा वी ॥७ ॥ ॥७ ॥ तरागद्वेषस्यापि दुष्टरूपनिरूपसे दुःखं स्यानचैतदस्ति, ततः स्वस्यैव दोषेण दुखमाप्नोति प्राणीति भावः ॥२२॥ इत्थं रागद्वेषयोरनर्थहेतुत्वमुक्त, इदानीं तु द्वेषस्यापि रागहेतुकत्वात् स एव महानर्थमूलमिति दर्शयन् तस्य विशेषात्परित्याज्यतां ख्यापयितुमाह मूलम्-एर्गतरत्तो रुइरंसि रूवे, अतालिसे से कुणई पोस । दुक्खस्स संपीलमवेड बाले. न लिप्पड तेण मुणी विरागो ॥२६॥ व्याख्या-एकान्तरक्तो 'रुचिरे' मनोरमे रूपे यः स्यादिति शेषः, 'अतादृशे अनीशे प्रक्रमाद्रपे स करोति प्रद्वेष, तथा च दुःखस्य | 'सम्पीडं' संघातं उपैति 'बालो' मूढः, न लिप्यते 'तेन' द्वेषकृतदुःखेन मुनिः विरागो' रागरहितः ॥२६॥ अथ रागस्यैव हिंसाद्याश्रवहेतुत्व|| मिहेव तद्वारा दुःखजनकत्वं च सूत्रषट्केनाह| मूलम-रूवाणुगासाणुगए अ जीवे, चराचरे हिंसइ णेगरूवे । चित्तेहिं ते परितावेइ बाले, पोलेइ अत्तटुगु- 2 रू किलिट्ठे ॥२७॥रूवाणुवाए ण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्नियोगे। वए विओगे म कहिं सुहं से, | संभोगकाले अ अतित्तिलाभे ॥२८ । रूपं प्रस्तावान्मनोज्ञमनुगच्छतीति रूपानुगा सा चासौ आशाच रूपानुगाशा'-रूपविषयोऽमिलापस्तदनुगतश्च, पाठान्तरे [रूवाणुवाया Keveaveeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥७६॥ RSSCReसकसकसकस गुगएति] रूपाणां प्रशस्तानां उपायैरुपार्जनहेतुभिरनुगतः उपायानुगतश्च प्राणी "जीवेत्ति" जीवान् चराचरान्' बसस्थावरान् हिनस्ति 'अने- अध्य०३२ करूपान्' जात्यादिभेदादनेकविधान् कांश्चित् चित्रैर्नानाविधैरुपायैरिति गम्यते, 'तान्' चराचरजीवान् 'परितापयति' दःखयति बालोऽपरांश्च ॥७६॥ पीडयत्येकदेशदःखोत्पादनेन, 'आत्मार्थगुरुः' स्वप्रयोजननिष्ठः 'क्लिष्टो' रागबाधितः तथा रूपे अनुपात:-अनुगमनं अनुराग इत्यर्थः रूपानुपातस्तस्मिन् सति, ‘णः' पूत्तौं, परिग्रहेण मूर्छात्मकेन हेतुभूतेन 'उत्पादने' उपार्जने रक्षणं च अपायेभ्यः सन्नियोगश्च-स्वपरप्रयोजनेषु ॥ सम्यग्व्यापारणं रक्षणसन्नियोगं तस्मिन् “वएत्ति" 'व्यये विनाशे 'वियोगे' विरहे सर्वत्र सुरूपवस्तुन इति गम्यते, क्व सुखं ? न वापीति भावः, 'से' तस्य रूपानुरागिणः । अयं भावः-सुरूपकलत्र-करि-तुरग-वस्त्रादीनामुत्पादनाद्यर्थं तेषु तेषु क्लेशहेतुषूपायेषु प्रवर्त्तमानो दुःख-का मेवानुभवति रूपानुरागी । पाठान्तरे वा ["स्वाणुरागेण" इति दृश्यते, तत्र रूपानुरागेण हेतुना यः परिग्रहस्तेन शेषं प्राग्वत् ] ननु रूपवतामुत्पादनादिषु सुखं मा भृत् , सम्भोगकाले तु भावीत्याशंक्याह-'सम्भोगकाले' चोपभोगप्रस्तावेऽपि 'अतृप्तिलामे' तप्तिप्राप्त्यभावे क्व सुखमिति सम्बन्धः । बहुविधरूपदर्शनेऽपि नहि रागिणां तृप्तिरस्ति । यदुक्त-"न जातु कामः कामाना-मुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवमेव, भूय एवाभिवर्द्धते ॥१॥" ततोऽधिकाधिकेच्छया खिद्यत एव रागी, न तु सुखी स्यादिति भावः ॥२७॥ ततस्तस्यापरापरदोषपरम्परावाप्तिमाहमूलम्-रुवे अतित्ते अ परिग्गहे अ, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुहिँ । अतुट्टिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥२६॥ तरहाभिभूअस्स अदत्तहारिणो, रूवे अतित्तस्स परिग्गहे अ। मायामुसं वडइ लोभ दोसा, तत्थावि दुवखा न विमुच्चई से ॥३०॥ LEVEGEE LESSLEVATE Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनमत्रम् ॥७७॥ व्याख्या-रूपे अतृप्तः चस्य मिन्नक्रमत्वात् 'परिग्रहे च' विषयमूर्छालक्षणे सक्तः-सामान्येनैवासक्तिमान् , उपसक्तश्च-गाढमासक्तः, अध्य०३२ ततः सक्तश्च पूर्वमुपसक्तश्च पश्चात् सक्तोपसक्तो नोति तुष्टिं, तथा च अतुष्टिरेव दोषोऽतुष्टिदोषः तेन दुःखी यदि ममेदमिदं च रूपवद्वस्तु ॥७७॥ स्यात्तदा वरमित्याकांक्षातोऽतीवदुःखवान् सन् , परस्य सम्बन्धि रूपवद्वस्त्विति गम्यते, 'लोभाविलो' लोभकलुष आदत्ते अदत्तं ॥ | २६॥ ततश्च–'तृष्णाभिभूतस्य' लोभपराजितस्य तत एवादत्तहारिणो 'रूपे' रूपविषये यः परिग्रहो-मूर्छारूपस्तस्मिन्निति योगः, चस्य । भिन्नक्रमत्वादतृप्तस्य च, मायाप्रधानं "मोसंति" मृषा--अलीकभाषणं मायामृषा वर्द्धते, कुतः ? इत्याह--लोभदोषात् , लुब्धो हि परस्वमादत्ते आदाय च तद्गोपनाय मायया मृषां वदति । तदनेन लोभ एव सर्वाश्रवाणामपि मलहेतुरिति सूचितम् । रागप्रक्रमेपि च यदिह लोभाभिधानं तद्रागेपि लोभांशस्यैवातिदुष्टताख्यापनार्थम् । तत्रापि को दोषः ? इत्याह--तत्रापि मषाभाषणेपि दुःखान विमुच्यते सः, किन्तु दुःखभाजनमेव स्यादिति भावः ॥३०॥ दुःखाविमोक्षमेव भावयति| मूलम्-मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ अ, पोगकाले अ दुही दुरते। एवं अदत्ताणि समाययंतो, रूवे अ- Mel || तित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥३१॥ रूवाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कुत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि । तत्थोवभोगेवि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ॥३२॥ . व्याख्या-'मोसस्सत्ति' मृषाभाषणस्य पश्चाच्च पुरस्ताच्च प्रयोगकाले च दुःखी सन् , तत्र पश्चान्नहीदं मया सुसंस्थापितमुक्तमिति प- Ital श्चात्तापात् , पुरस्ताच्च कथमयं सुरूपस्त्र यादिवस्तुस्वामी मया वञ्चनीय इति चिन्तया, प्रयोगकाले च किमसौ ममालीकभाषितां लक्षयिष्य EVEEEEEEEEEEE Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य- बनसूत्रम् ॥७॥ अध्य. ३२ ॥७८॥ तिन वेति क्षोभतः। तथा 'दुरंतेत्ति' दुष्टोऽन्तः-पर्यन्तः इह जन्मन्यनेकविडम्बनातोऽन्यभवे च नरकादिप्राप्त्या यस्य स दुरन्तो भवति ज- न्तुरिति शेषः । अथवा "मोसस्सत्ति" 'मोषस्य' स्तेयस्य' इति व्याख्येयम् । एवममुना प्रकारेणादत्तानि समाददानो रूपेऽतृप्तः सन् दुःखितः स्यादितिशेषः। कीदृशः सन् ? इत्याह-'अनिश्रो' दोषवत्तया कस्याप्यवष्टम्भेन रहितः, मैथुनाश्रवोपलक्षणं चैतत् ॥३१॥ उक्तमेवार्थ निगमयितुमाह-रूपानुरक्तस्य नरस्य एवमनन्तरोक्तनीत्या कुतः सुखं भवेत् ? कदाचित् किश्चिद्'अल्पमपि, कुतः १ इत्याह-यतस्तत्र रूपाका नुरागे उपभोगेपि 'क्लेशदुःखं अतृप्तिलाभलक्षणबाधाजनितमसातं भवति । उपभोगमेव विशिनष्टि, 'निवर्तयति' उत्पादयति यस्योपभोगस्य कृते, 'ण' वाक्यालङ्कारे, 'दुःखं कुछमात्मन इति गम्यते । उपभोगार्थ हि जन्तुः क्लिश्यते तदा सुखं स्यादिति, यदि च तदापि दुःखमेव तदा कुतोऽन्यदा सुखं स्यादिति भावः ॥३२॥ एवं रागस्यानर्थहेतुतामुक्त्वा द्वेषस्यापि तामतिदेष्टुमाह मूलम्-एमेव स्वम्मि गओ पोस, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुट्ठचित्तो अ चिणाइ कम्म, ज से पुणो ना होइ दुहं विवागे ॥ ३३ ॥ रुवे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमन्झवि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ॥ ३४॥ १॥ व्याख्या-'एवमेव' यथानुरक्तस्तथैव रूपे प्रक्रमाद्दष्टे गतः प्रद्वेष उपैति 'दुःखौघपरम्परा' उत्तरोत्तरदुःखसमूहरूपाः । तथा प्रविष्टचित्तः | चस्य भिन्नक्रमत्वात् चिनोति च कर्म, यत् 'से' तस्य पुनर्भवेत् 'दुःखं दुःखहेतुः विपाके'ऽनुभवकाले अत्रामुत्र चेति भावः । पुनदुःखग्रहण मैहिकदुःखापेक्षमशुभकर्मोपचयश्च हिंसाद्याश्रवान् विना न स्यादित्यनेन द्वेषस्याप्याश्रवहेतुत्वमाक्षिप्यते ॥३३॥ एवं रागद्वेषानुद्धरणे दोषमुKSI क्त्वा तदुद्धरणे गुणमाह-रूपे विरक्त उपलक्षणत्वादद्विष्टच मनुजो 'विशोकः' शोकमुक्तस्तन्निबन्धनयो रागद्वेषयोरभावादेतेनानन्तरोक्तेन GVEVEVEGOVEGVEGVERVAKAAVOV Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्य यनसूत्रम् ॥७९॥ VELVEVEVEVEVERLEVERBA "दुक्खोहपरंपरेणत्ति" दुःखानामोघाः-संघातास्तेषां परम्परा तया 'न लिप्यते' न स्पृश्यते भवमध्येपि संस्तिष्ठन् । दृष्टान्तमाह-'जलेण अध्य०३२ वत्ति' जलेनेव वाशब्दस्येवार्थत्वात् , 'पुष्करिणीपलासं' पमिनीपत्रं, जलमध्येपि सदिति शेषः ॥३४॥ इत्थं चक्षुराश्रित्य त्रयोदश सूत्राणि ॥७ ॥ | व्याख्यातानि, एतदनुसारेणैव शेषेन्द्रियाणां मनसश्च त्रयोदश सूत्राणि स्वस्वविषयाख्यानपूर्व व्याख्येयानि, विशेषस्तु वक्ष्यतेमूलम्-सोअस्स सद्द गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु। तं दोसहेडं अमणुएणमाहु, समो अ जो तेसु स वीअरागो ॥ ३५ ॥ सदस्स सोनं गहणं वयंति, सोअस्स सई गहणं वयंति। रागस्स हेडं | | समणुण्णमाहु, दोसस्स हेउं अमणुएणमाहु ॥ ३६॥ सद्दे सु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से a विणसं । रागाउरे हरिणमिएव्व मुद्धे, सद्दे अतित्ते समुवेइ मच्चु ॥३७॥ ___ व्याख्या-'सोअस्सत्ति' श्रोत्रेन्द्रियस्य ॥३५॥ 'हरिणमिएव्व मुद्धेति' मृगशब्देन सर्वोपि पशुरुच्यते ततो हरिणशब्देन विशेष्यते, हरिणश्चासौ मगश्च हरिणमृगो हरिणपशुरित्यर्थः । 'मुग्धो' हिताहितानभिज्ञः, 'शब्दे' लुब्धकगीताद्यात्मके तदाकृष्टचित्ततया अतृप्तः सन् ।। मूलम-जे प्रावि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुईतदोसेण सएण जंतू, न किंचि सद्द अवरज्झई से ॥ ३८ ॥ एर्गतरत्तो रुइरंसि सद्दे, अतालिसे से कुणई पोस । दुक्खस्स संपी-12 || लमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ ३९ ॥ सदाणुगासाणुगए म जीवे चराचरे हिंसइऽणेगरूवे VEGGreveveerevaveeveevareer Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्यपनसूत्रम् ॥८ ॥ अध्य०३२ ॥८ ॥ VEMBERSHISABILI | चित्तेहिं ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तगुरू किलिट्ठे ॥४०॥ व्याख्या अत्र 'चराचरे हिंसइत्ति' वाद्योपयोगिस्नायुचर्माद्यर्थ चरान् , वंशमृदङ्गकाष्ठाद्यर्थमचरांश्च हिनस्ति ॥४०॥ | मूलम-सदाणुवाए ण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे । वए विओगे अ कहिं सुहं से, संभोगकाले अ अतित्तिलाभे ॥४१॥ सद्दे अतित्ते अ परिग्गहे अ, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुर्दिछ । अतुट्ठिदोसेण दुही । परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥४२॥ तण्हाभिभूअस्स अदत्तहारिणो, सद्दे अतित्तस्स परिग्गहे अ। मायामुसं वडइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ४३॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ अ, पोगकाले अ दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, सद्दे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ४४॥ सदाणुरत्तस्त नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि । तत्थोवभोगेवि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ॥ ४५॥ एमेव सदमि गओ पोसं, उवेइ दुवखोहपरंपराओ। पदुट्ठचित्तो अ चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ बुहं विवागे ॥४६॥ सद्दे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमज्झवि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ॥४७॥२ . व्याख्या-'अदत्तं' गीतगायकदास्यादि वीणावंशादिकं वा शोभनशब्दोत्पादकं वस्तु पादत्ते ॥४२॥ NEEeeeeeeeeeeYECEGNETE R AM Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१॥ ABDDDSSSSS मुलम्—घाणस्स गंधं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु। तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु, समो उ जो अध्य०३२ तेसु स वीअरागो ॥४८॥ गंधस्स घाणं गहणं वयंति, घाणस्स गंधं गहणं वयंति । तं रागहेउं तु मणुएण- ॥१॥ माहु, दोसस्स हेउं अमणुएणमाहु ॥४६॥ गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालिअं पावइ से विणासं । रागाउरे ओसहिगंधगिद्धे, सप्पे बिलाओ विव निक्खमंते ॥५०॥ जे आवि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुईतदोसेण सएण जंतू , न किंचि गंधं अवरज्झई से ॥५१॥ एगंतरत्तो रुइरंसि गंधे, अ- || तालिसे से कुणई पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥५२॥ गंधाणुगासा- lal गए अजीवे. चराचरे हिंसडोगरवेचित्तेहि ते परितावेद बाले. पोलेड अत्तगुरू किलिठे ॥ ५३॥ या गंधाणुवाए ण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्नियोगे। वए विओगे अ कहिं सुहं से, संभोगकाले अ अ तित्तिलाभे ॥५४ गंधे अतित्ते अपरिग्गहे अ, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढेि । अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥५५॥ ____ व्याख्या-'योसहि' इत्यादि-औषधयो नागदमन्याद्यास्तासां गन्धे गद्धः औषधिगन्धगृद्धः सन् ‘सप्पे बिलाओ विवत्ति' इहेवशब्दस्य भिन्नक्रमत्वात् सर्प इव विलानिष्क्रामन् , स सत्यन्तप्रियं तद्गन्धमुपेक्षितुमशक्तो विलानिष्कामति, ततो गारुडिकादिपरवशो दुःखम Everecev. AveVEVE Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य- अध्य० ३२ ॥२॥ यनसूत्रम् ॥२॥ TEEVEEVCEVAVAVEGVvceve नुभवतीति ॥ ५० ॥ अत्र मूषकमुष्कमृगनाभिप्रभृतिहेतवे पुष्पादिहेतवे व चराचरान् हिनस्तीति ॥ ५३ ॥ इहादत्तं सुगन्धितैल-कस्तू- रिका-कुसुमादि ॥ ५५॥ मूलम्-तहाभिभूअस्स अदत्तहारिणो, गंधे अतित्तस्स परिग्गहे अ। मायामुसं वडइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ।५६॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थो अ, पोगकाले अ दुही दुरते। एवं अदत्ताणि समाययंतो, गंधे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो॥५७॥ गंधाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कुत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि।। तत्योवभोगेवि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ॥५८॥ एमेव गंधम्मि गओ पोस, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुटुचित्तो अ चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥५६॥ गंधे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमन्झवि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ॥६०॥३॥ मूलम्—जीहाए रसं गहणं वयंति, तं रागहेडं तु मणुएणमाहु। तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु, समो अ जो तेसु स वीअरागो ॥६१॥ रसस्स जिन्भं गहणं वयंति, जिब्भाए रसं गहणं वयंति। रागस्स हेडं समणुएणमाहु, दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु ॥६२॥ रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालिनं पावइ से विणासं । रागाउरे बडिसविभिनकाए, मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे ॥६३॥ जे आवि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि RAVE EVGEEVEEVGEVAATE Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य- क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुईतदोसेण सपण जंतू, न किंचि रस्सं अवरज्झई से ॥६४॥ एगंतरत्तो रुइरेय. ३१ यनस्त्रम् रसंमि, अतालिसे से कुणई पोस। दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥६५॥ ॥८३॥ Tell रसाणुगासाणुगए अ जीवे चराचरे हिंसइऽणेगरूवे चित्तेहिं ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तगुरू किलिडे || ॥६६॥ रसाणुवाए ण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निोगे । वए विओगे अ कहिं सुहं से, संभोगकाले |भ अतित्तिलाभे ॥६७॥ रसे अतित्ते अ परिग्गहे अ, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुट्टि। अतुट्ठिदोसेण दुही | परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥६८॥ व्याख्या-बडिसविभिन्नकाएत्ति' बडिशं-प्रान्तन्यस्तामिषो लोहकीलकस्तेन विभिन्नो-विदारितः कायो यस्य स बडिशविभिन्नकायः | मत्स्यो यथा आमिषस्य-मांसस्य भोगे-खादने गृद्ध आमिषभोगगृद्धः ॥ ६३ ॥ अत्र चराचरान् भक्षणोपयोगिनो मृगपशुमीनपचिप्रभृतीन् कन्दमूलफलादींश्च हिनस्ति ॥ ६६ ॥ इहादत्तं खण्डखाद्यफलादिकं रसवद्वस्तु ।। ६८ ॥ मूलम-तहाभिभूअस्स अदत्तहारिणो, रसे अतित्तस्स परिग्गहे अ । मायामुसं वडइ लोभदोसा, तत्थावि 11 दुक्खा न विमुच्चई से ६६॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थो अ, पोगकाले अ दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, रसे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ७०॥ रसाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि। EVECEVOVAVEGVESVESEVERALE Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्य पनपत्रम् ॥४॥ ॥त्थोवभोगेवि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ७१॥ एमेव रस्संमि गओ पोसं, उवेइ दुक्खो- अध्य० ३२ हपरंपराओ । पदुट्ठचित्तो अ चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे॥७२॥ रसे विरत्तो मणुओ विसो- 5 ॥४॥ गो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमज्झेवि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ॥७३॥४ मूलम्—कायस्स फासं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु। तं दोसहेडं अमणुण्णमाहु, समो अ जो तेसु स वीअरागो ॥७४॥ फासस्स कायं गहणं वयंति, कायस्स फासं गहणं वयंति। रागस्स हेउं समणुएणमाहु, दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु ॥७५॥ फासस्स जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालिअं पावइ से विणास। | रागाउरे सीअजलावसन्ने, गाहग्गहीए महिसे व रगणे ॥७६॥ जे आवि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुद्दतदोसेण सएण जंतू, न किंचि फासं अवरज्झई से ॥७७॥ एगंतरत्तो रुइरंसि व 4 फासे, अतालिसे से कुणई पोसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥७॥ फा साणुगासाणुगए अ जीवे चराचरे हिंसइऽणेगरूवे । चित्तेहिं ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तगुरू किलिट्टे ॥७९॥ फासाणुवाए ण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे । वए विओगे अ कह सुहं से, संभोगकाले अ अतित्तिलाभे ॥८०॥ फासे अतित्ते अ परिग्गहे अ, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढ़ि। अतुट्ठिदोसेण दुही Geeeeeeeeeeeeeeeeee Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥८ ॥ अध्य०३२ ॥५॥ SARDARBADAAAAA | परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥१॥ ___ व्याख्या-'सीअजलावसन्नेत्ति' शीतजलेऽवसनो-निमनः शीतजलावसनो ग्राहर्जलचरविशेषैग हीतो महिष इवारण्ये, वसतौ हि कदाचित्केनचिन्मोच्येतापीत्यरण्यग्रहणम् ॥ ७६ ॥ अत्र शुभस्पर्शाणां मृगादिचर्मपुष्पवस्त्रादीनां संग्रहे स्त्रीसेवादौ च प्रवर्त्तमानश्चराचरान् हन्ति ॥ ७९ ॥ इहादत्तं शुभस्पर्श वस्त्रतूलिकादि ।। ८१ ।। मूलम् -तण्हाभिभूअस्स अदत्तहारिणो, फासे अतित्तस्स परिग्गहे अ। मायामुसं वडइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥८२॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ अ, पोगकाले अ दुही दुरंते । एवं अद ताणि समाययंतो, फासे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥८३॥ फासाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज्ज | all कयाइ किंचि । तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ॥८४॥ एमेव फासंमि गो प- | ओसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ । पदुट्ठचित्तो अ चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥८५॥ फासे विरत्तो मणुमो विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण। न लिप्पई भवमझे वि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं॥८६॥५॥ मूलम्-मणस्सभावं गहणं वयंति, तं रागहेडं तु मणुण्णमाहु । तं दोस हेउं अमणुण्णमाहु, समो उ जो GECEVETATE LEVEVA VENTEVE Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य- अध्य० ३२ ॥६॥ यनसूत्रम् ॥८६॥ तेसु स वीअरागो ॥८७॥ भावस्स मणं गहणं क्यति, मसास भावं गहणं वयंति। रागस्स हेउं समणुण्ण- माहु, दोसस्स हेडं अमणुएणमाहु ॥८॥भावेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालिअं पावइ से विणसं । रागा- उरे कामगुणेसु गिद्धे, करेणुमग्गावहिएव्व नागे ॥८६॥ जे आवि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवे| इ.दुक्खं । दुईतदोसेण सएण जंतू , न किंचि भावं अवरज्झई से ॥६०॥ एगंतरत्तो स्रंसि भावे, अतालि| से से कुणई पनओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥६१॥ भावाणुगासागुगए अ जीवे, चराचरे हिंसइणेगरूवे । चित्तेहिं ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिट्ठे ॥१२॥ व्याख्या-'मनसः' चेतसो भावोऽभिप्रायः स्मरणादिगोचरस्तं 'ग्रहणं' ग्राह्य बदन्ति, चक्षुरादीन्द्रियाविषयत्वात्तस्य, तं भाव 'मनोशं' मनोज्ञरूपादिविषयं रागहेतुमाहुः, तं 'अमनोज्ञं अमनोज्ञरूपादिविषय द्वेषहेतुमाहुः, समश्च यस्तयोर्मनोज्ञामनोज्ञरूपादिविषयाभिप्राययोः स वीतरागः । एवमुत्तरग्रन्थोपि भावविषयरूपाद्यपेक्षया व्याख्येयः । यद्वा स्वप्नकामदशादिषु भावोपनीतो रूपादिविषयोपि भाव उक्तः स मनसो ग्राह्यः, स्वप्नकामदशादिषु हि मनसः एव केवलस्य व्यापार इति । यदि वाऽभीष्टानामारोग्यधनस्वजनपरिजननन्दनराज्या दीनामनिष्टानां च रोगरिपुतस्करदारिद्रयादीनां संयोगवियोगोपायचिन्तनरूपो भाव इह ग्राह्यः स चाभीष्टवस्तुविषयो मनोज्ञस्तदितरगोचरः | पुनरमनोज्ञ इति ॥ ८७ ॥ ८८ ॥ 'करेणु' इत्यादि-करेवा-करिण्या मार्गेण-निजपथेनापहृत-आकृष्टः करेणुमार्गापहृतो 'नाग इव'. | हस्तीव, स हि मदोन्मत्तोपि सनिकृष्टां करिणीं दृष्ट्वा तत्सङ्गमोत्सुकस्तन्मार्गानुगामितया नृपा_गुह्यते, ततो युद्धादौ विनाशमाप्नोतीति। । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्चराध्ययनसूत्रम् ॥८७|| अध्य०३२ ॥७॥ । का ननु चक्षुरादीन्द्रियवशादेव गजस्य प्रवृत्तिरिति कथमस्येह दृष्टान्तत्वं ? उच्यते-सत्यमेतत् परं मनःप्राधान्यविवक्षया त्वेतदपि ज्ञेयम् । य दिवा तथाविधकामदशायां चक्षुरादीन्द्रियव्यापाराभावेपि मनसः प्रवृत्तिरिति न दोषः ।।८६ ॥ १० ॥ “अतालिसेत्ति" 'अतादृशे' अनीदृशे 'भावे' भावविषये वस्तुनि स करोति प्रद्वेषं, क्वायं ममाधुना स्तुतिपथमागत इत्यादिकम् ।। ६१॥ 'भावानुगाशानुगतो' रूपादिगो चराभिप्रायानुकूलाभिकांक्षाविवशोऽभीष्टानिष्टार्जनविध्वंसविषयभावानुकूलेच्छापरवशो वा, यद्वा ममोद्वेगादिर्भाव उपशाम्यतु प्रमोदादिश्वोत्पद्यVall तामिति भावानुगाशानुगतो होमादिकं कुर्वन् जीवांश्चराचरान् हिनस्ति अनेकरूपान् । दृश्यन्ते हि स्वाभिप्रायसिद्धये चराचरहिंसायां प्रवर्त्त माना अनेके जीवाः ।। ६२ ॥ | मूलम्-भावाणुवाए ण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्नियोगे। वए विओगे अ कहिं सुहं से, संभोग|| काले अ अतित्तिलाभे.६३॥ भावे अतित्ते अपरिग्गहे अ, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढिं। अतुट्टिदोसेण दुही प | रस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥४॥ तरहाभिभूअस्स अदत्तहारिणो, भावे अतित्तस्स परिम्गहे अ। मा| यामुसं वड्डइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ६५॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थो अ, पोगकाले अ दुही दुरते। एवं भदवाणि समायग्रंतो, भावे अतितो दुहिओ अणिस्सो॥६६॥ भावाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कुत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि। तत्थोवभोरोवि किलेसदुक्खं, निव्वत्तए जस्स कए ण दुक्खं ॥६७॥ ए CGVESZEREZTVEVEGVEGVEGVEY PleaveeNTEENoveeeeeeeeeeevee Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥८ ॥ अध्य० ३२ ॥८॥ ܟܕܟܬܬܦܟܬܕܩܟܟܩܙܕܣܕܒܬܕܩܬܟ मेव भावम्मि गओ पोसं, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुटुचित्तो अ चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥८॥ भावे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण। न लिप्पई भवमझेवि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ॥६॥६॥ ___ व्याख्या-अदत्तमपि प्रायः स्वाभिप्रायसिद्धये गृहातीत्येवमुक्तम् ॥६४ ॥ 'भावे' अनभीष्टस्मरणाद्यात्मकेऽनिष्टवस्तुगोचरे वा गतः || प्रद्वेष, विस्मरतु ममास्य नामापीत्यादिकम् ॥ ८॥ भावे' इष्टानिष्टस्मरणात्मके रम्यारम्यवस्तुगोचरे वा 'अरक्तः' अद्विष्टेचेति अष्ट| सप्तति सूत्रावयवार्थः ।। ।। ६8 ॥ उक्तमेवार्थ संक्षेपेणाह मूलम्-एविदियत्था य मणस्स अत्था, दुक्खस्स हेऊ मणुअस्स रागिणो । ते चेव थोपि कयाइ दुक्खं, न वीअरागस्स करिंति किंचि ॥१०॥ व्याख्या एवमुक्तप्रकारेण इन्द्रियार्था रूपादयः, चस्य भिन्नक्रमत्वात् मनसोऽर्थाश्च स्मरणादयः, उपलक्षणत्वात् इन्द्रियमनांसि च | दुःखस्य हेतवो भवन्तीति गम्यते, मनुजस्य रागिणः उपलक्षणत्वात् द्वेषिणश्च । ते चैवेन्द्रियमनोर्थाः स्तोकमपि कदाचित् दुःखं न वीतरागस्य वीतरागद्वेषस्य कुर्वन्ति किञ्चिन्मानसं शारीरं वेति सूत्रार्थः ॥१०० ॥ ननु न कश्चित् कामभोगेषु सत्सु वीतरागः सम्भवति तत्कथमस्य दुःखाभावः ? उच्यते मूलम्-न कामभोगा समयं उविंति, न यावि भोगा विगई उविति । AVEVE EVEGGELEVATOA Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनरत्रम् ||८६ ܦܕܦܬܕܦܕܬܦܕܦܕܟܕܦܦܕܦܕܦܬܐܟܢ जे तप्पओसी अ परिग्गही अ, सो तेसु मोहा विगई उवेइ ॥१०१ की अध्य०३२ व्याख्या-न कामभोगाः 'समतां' रागद्वेषाभावरूपां प्रति हेतुत्वमिति शेषः 'उपयान्ति' गच्छन्ति, तेषां समताहेतुत्वे हि न कोपि | 1180 रागद्वेषवान् स्यात् । न चापि 'भोगाः' कामभोगा विकृति' क्रोधादिरूपां प्रति हेतुत्वमुपयान्ति, तेषामेव हि केवलानां विकृतिहेतुत्वे न कोपि रागद्वेषहीनः स्यात । कोऽनयोस्तहि हेतरित्याह-यः 'तत्पद्वेषी च' तेषु विषयेषु प्रद्वेषवान् 'परिग्रही' च परिग्रहबुद्धिमास्तेष्वेव रागीत्यर्थः, स तेषु 'मोहाद्' रागद्वेषरूपमोहनीयाद्विकृतिमुपैति । रागद्वेषरहितस्तु समतामिति भावः ॥१०१॥ किं रूपां विकृतिमुपैतीत्याहमूलम्-कोहं च माणं च तहेव मायं, लोभं दुगुठं अरई रइं च । हास भयं सोग पुमिथिवेअं नपुंसवेनं विविहे अ भावे ॥१०२॥ आवजई एवमणेगरूवे, एवंविहे कामगुणेसु सत्तो। अन्ने अ एअप्पभवे विसेसे, | कारगणदीणे हिरिमे वइस्से ॥१०३ ____ व्याख्या-क्रोधं च मानं च तथैव मायां लोभं जुगुप्सां 'अरति' अस्वास्थ्य रितिं' विषयासक्ति हार्स भयं शोकं पुंस्त्रीवेदमिति समाहारनिर्देशः तत्र पुवेदं-स्त्रीवाञ्छारूपं स्त्रीवेद-पुरुषाभिलाषलक्षणं नपुंसकवेदमुभयेच्छात्मक विविधांश्च भावान् हविषादादीन् । 'आवज्जई' इत्यादि-आपद्यते' प्राप्नोति एवममुना रागद्वेषवत्तारूपेण प्रकारेण 'अनेकरूपान्' बहुभेदान् अनन्तानुबन्ध्यादिभेदेन तारतम्यभेदेन च एवंविधानुक्तरूपान् विकारानति शेषः, कामगुणेषु शब्दादिषु 'सक्तो' रक्तः उपलक्षणत्वात् द्विष्टश्च । अन्यांश्च 'एतत्प्रभवान्' || क्रोधादिजनितान् विशेषान् परितापदुर्गतिपातादीन् आपद्यते इति योगः। कीदृशः सन्त्रित्याह-"कारुण्णदीणेति" कारुण्यास्पदीभूतो दीनः | EVEEEEELEVACEVTEVEGVEVEE Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नया अध्य० ३२ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥8 ॥ ॥०॥ eeeeeeeeeeeeeeeeeeey 'कारुण्यदीनः' अत्यन्तदीन इत्यर्थः, 'ह्रीमान् ' लज्जावान् कोपाधापनो हि प्रीतिविनाशादिकं दोपमिहैवानुभवन् परस्त्र च तद्विपाकमतिक| टुकं चिन्तयन् प्रयाति दैन्यं लज्जां च भजते । तथा 'वइस्सेत्ति' द्वेष्यस्तत्तदोषदुष्टत्वात् सर्वस्याप्यप्रीतिभाजनमिति ॥ १०२॥१०३ ॥ भूयोपि रागस्य प्रकारान्तरेणोद्धरणोपायं तद्विपर्यये दोषं चाहमूलम्-कप्पं न इच्छेज सहायलिच्छू, पच्छाणुतावेण तवप्पभाव । एवं विआरे अमिअप्पयारे, भावज्जई | इंदियचोरवस्से ॥१०४॥ तओ से जायंति पोषणाई, निम्मजिउं मोहमहएणवंमि । सुहेसिणो दुक्खविणो- Mel 'अणट्ठा, तप्पच्चयं उजमए अ रागी ॥१०५॥ विरज्जमाणस्स य इंदिअत्था, सद्दाइया तावइअप्पयारा । न तस्स सव्वेवि मणुण्णयं वा, निव्वत्तयती अमणुरणयं वा ॥१०६॥ व्याख्या-कल्पते वैयावृत्यादिकार्याय समर्थो भवतीति कल्पो-योग्यस्तमपेर्गम्यत्वात् कल्पमपि किं पुनरकल्पं शिष्यादिकं नेच्छेत्सहायलिप्सुममायं विश्रामणादिसाहाय्यं करिष्यतीत्यभिलाषुकः सन् , तथा पश्चादिति बताङ्गीकारादुत्तरकालं अनुतापः-किमेतावत्कष्टं मयाङ्गीकृतमिति चिन्तारूपः पश्चादनुतापस्तेन हेतुना उपलक्षणत्वात् अन्यथा वा । 'तपः प्रभावम्' इहैवामोषध्यादिलब्धिप्रार्थनेन परत्र भोगादि निदानविधानेन नेच्छेदिति प्रक्रमः । किमेवं निवार्यते ? इत्याह-एवममुना प्रकारेण 'विकारान्' दोपानमितप्रकारान् आपद्यते, इन्द्रियाणि चौरा इव धर्मधनापहरणादिन्द्रियचौरास्तदश्यः । उक्तविशेषणविशिष्टस्य हि कल्पतपःप्रभाववाञ्छादिनावश्यमिन्द्रियवशता स्यादिति, एवं च. अवतोऽयमाशयः-तदनुग्रहबुद्ध्या शिष्यं संघादिकार्याय तपःप्रभावं च वाञ्छतो पि न दोषः । एतेन च रागस्य हेतुद्वयत्यागरूप उद्धरणो ARAMATAX Vा Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥३१॥ BEVEYAZEVEGEVEEVGve पायः उक्तः, एवमन्येपि रागहेतवो हेयाः । ततः सिद्धं रागस्योद्धरणोपायानां तद्विपर्यये च दोषाणां कथनमिति ॥१०४ ॥ उक्तमेवार्थ समर्थयितु विकारेभ्यो दोषान्तरोत्पत्तिमाह-ततो विकारापात्तेः पश्चात् 'से' तस्य जायन्ते प्रयोजनानि विषयसेवाहिंसादीनि "निम्मज्जि अध्य०३२ उंति" 'निमज्जयितु' प्रक्रमात तमेव जन्तु मोहमहार्णवे, ये प्रयोजनर्मोहाब्धौ निमग्न इव जन्तुः क्रियते तादृशानीत्यर्थः, सत्पनविका | ॥१॥ रतया मृढ एव स्यात् , विषयसेवाद्यैश्च प्रयोजनैरत्यर्थं मुह्यतीति भावः । कीदृशस्य सतोऽस्य किमर्थ तानि प्रयोजनानि स्युरित्याह-'सुखै. पिणः शर्माभिलाषिणो 'दुःखविनोदनाथ' सुखैषी सन् दुःखक्षयाथमेव हि विषयसेवादी प्रवर्तते इत्येवमुक्तं । कदाचित कार्योत्पत्तावपि - तत्रायमुदासीनोपि स्यादित्याह-तत्प्रत्ययमुक्तप्रयोजननिमित्तं उद्यच्छत्येव, कोऽर्थः ? तत्प्रवृत्तादुत्सहते एव रागी उपलक्षणत्वात् द्वेषी च सन् , रागद्वेषयोरेव सकलानथहेतुत्वात् ॥ १०५ ॥ कुतो रागद्वेषयोरेवानर्थहेतुत्वमित्याह-विरज्यमानस्य उपलक्षणत्वात् अद्विषतच 'च' पुमत्र्ये या ततो विरज्यमानस्याद्विषतश्च पुनरिन्द्रियार्थाः, तावन्त इति यावन्तो लोके प्रतीतास्तावन्तः प्रकाराः खरमधुराधा भेदा येषां ते तावत्प्रकारा बहुमेदा इत्यर्थः, न तस्य मर्त्यस्य सर्वेपि मनोज्ञतां वा 'निवर्तयन्ति' जनयन्ति अमनोज्ञतां वा किन्तु रागद्वेषवत एव, स्वरूपेण हि रूपादयो नात्मनो मनोज्ञताममनोज्ञतां वा कत्तु क्षमाः किन्तु रक्तेतरप्रतिपत्तृणामाशयवशादेव । यदुक्तमन्यैरपि-"परित्राटकामुकशुना-मेकस्यां प्रमदातनौ । कुणपं कामिनी भक्ष्य-मिति तिस्रो विकल्पनाः॥१॥" ततो वीतरागद्वेषस्य नैवामी मनोज्ञताममनोज्ञतां वा कुयु रिति, तदभावे च विषयसेवाकोशदानादिप्रयोजनानुत्पत्ते वानर्थोत्पत्तिः स्यादिति सूत्रषट्कार्थः ॥ १०६ ॥ तदेवं रागद्वेषयोस्तदुपादानहेतोर्मोहस्य चोद्धरणोपायानुक्त्वोपसंहारमाहमूलम्-एवं ससंकप्पविकप्पणासु, संजायए समयमुवट्ठिअस्स । अत्थे अ संकप्पयओ तो से, पहीअए Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य अध्य०३२ ॥१२॥ पनसूत्रम् ॥३२॥ RBARDA KI कामगुणेसु तण्हा ॥१०७॥ स वीअरागो कयसव्वकिच्चो, खवेइ नाणावरणं खणे। तहेव जं दसणमावरेइ, जं चतरायं पकरेइ कम्मं ॥१०८॥ सव्वं तो जाणइ पासई अ, अमोहणे होइ निरंतराए। अणासवे झाणसमाहिजुत्ते, आउक्खए मोक्खमुवेइ सुद्धे ॥१०६॥ .. व्याख्या एवमुक्तनीत्या स्वस्थात्मनः सङ्कल्पा--रागद्वेषमोहरूपा अध्यवसायास्तेषां विकल्पनाः सकलदोषमूलत्वादिपरिभावनाः स्वसकल्पविकल्पनास्तासु 'उपस्थितस्य' उद्यतस्य सञ्जायतें 'समता' माध्यस्थ्यमितियोगः। 'अर्थाश्चाइन्द्रियार्थान् रूपादीन संकल्पयतः' चिन्तयतो यथा नैते कर्मबन्धहेतवः किन्तु रागादय एवेति । यद्वा 'अर्थान् जीवादीन् चस्य भिन्नक्रमत्वात् संकल्पयतश्च शुभध्यानविषयतयाध्यवस्यतः, ततः इति समतायाः 'से' तस्य साधोः प्रहीयते कामगुणेषु 'तृष्णा' अभिलापः ॥१०७ ॥ ततः स किं करोतीत्याह–स प्रहीणतृष्णो वीतरागो भवति, सप्णा हि लोभस्तत्क्षये च क्षीणमोहत्वावाप्तिरिति, तथा कृतसर्वकृत्य इव कृतसर्वकृत्यः प्राप्तप्रायत्वादनेन मुक्तेः क्षपयति ज्ञानावरणं क्षणेन, तथैव यत् दर्शनमावृणोति तत् दर्शनावरणमित्यर्थः, 'यच्चान्तरायं' दानादिविषयं विघ्नं प्रकरोति कर्मान्तरायाख्यमित्यर्थः यत्क्षयाच कं गुणमवाप्नोतीत्याह-सर्वं ततो ज्ञानावरणीयादिक्षयाद् 'जानाति' विशेषरूपत्वेनावगच्छति, पश्यति च सामान्यरूपतया, तथा 'अमोहनो' मोहरहितो भवति, तथा निरन्तरायः, 'अनाश्रवः' कर्मबन्धहेतुरहितः' ध्यान-शुक्लध्यान-तेन समाधिः-परमस्वास्थ्यं ध्यानसमाधिस्तेन युक्तो ध्यानसमाधियुक्तः, आयुपः उपलक्षणत्वात् नामगोत्रवेद्यानां च क्षयः आयुःक्षयस्तस्मिन् सति मोक्षमुपैति 'शुद्धो' विगतकर्ममल इति सूत्रत्रयार्थः ॥ १०६ ॥ मोक्षगतश्च यादृशः स्यात्तदाह Seeeeeeeeeeeeeeeeeeeee AAAAAसर Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्य यनसूत्रम् ॥३३॥ अध्य०३२ ॥३३॥ . मूलम-सो तस्स सव्वस्स दुहस्स मुक्को, जं बाहई सययं जंतुमेअं। दीहामयविप्पमुक्को पसत्थो, तो होइ अच्चंतसुही कयत्थी ॥११०॥ व्याख्या–स मोक्ष प्राप्तः तस्माज्जातिजरामरणादिरूपत्वेन प्रोक्तात् सर्वस्मात् दुःखात्-सर्वत्र सुब्ब्यत्ययेन षष्ठी, 'मुक्तः पृथग्भूतो यत्कीदृशमित्याह-यहःखं बाधते सततं जन्तुमेनं प्रत्यक्षं, दीर्घाणि स्थितितः प्रक्रमात कर्माणि तान्यामया इव विविधवाधाविधायितया दीर्घामयास्तेभ्यो विप्रमुक्तो दीर्घामयविप्रमुक्तः, अत एव 'प्रशस्तः प्रशंसाहः 'तो' इति-ततो दीर्घामयविप्रमोक्षात् भवत्यत्यन्तसुखी तत एव च कृतार्थ इति सूत्रार्थः ॥ ११० ॥ अध्ययनार्थोपसंहारमाह मूलम्-अण्णाइकालप्पभवस्स एसो, सव्वस्स दुक्खस्स पमोक्खमग्गो। विहिओ जं समुवेच्च सत्ता, कमेण अच्चंतसुही हवंतित्ति बेमि ॥१११॥ व्याख्या-अनादिकालप्रभवस्य एषोऽनन्तरोक्तः सर्वस्य दुःखस्य 'प्रमोक्षमार्गः' प्रमोक्षोपायो व्याख्यातोयं 'समुपेत्य' सम्यक प्रतिपद्य सत्त्वाः क्रमेणोत्तरोत्तरगुणावाप्तिरूपेण अत्यन्तसुखिनो भवन्तीति सूत्रार्थः ॥११॥ इति ब्रवीमीति प्राग्वत् FAVEGVEGVEGEVEEVEEVARE AVAY Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१४॥ अध्य०३३ ॥४॥ eeeeeeeeeeeeeeeeeeeeY ॥अथ त्रयस्त्रिंशमध्ययनम् ॥ ॥ॐ॥ उक्तं द्वात्रिंशमध्ययन, अथ कर्मप्रकृतिसंशं त्रयस्त्रिंशमारभ्यते । अस्य चायमभिसम्बन्धोऽनन्तराध्ययने प्रमादस्थानान्युतानि, तैश्च कर्म बध्यते इति सम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्मुलम्-अट्ठ कम्माई वोच्छामि, आणुपुवि जहक्कम । जेहिं बद्धो अयं जीवो संसारे परिअत्तइ ॥१॥ व्याख्या-अष्ट क्रियन्ते मिथ्यात्वाविरत्यादिहेतुभिर्जीवेनेति कर्माणि वक्ष्यामि, 'आनुपूर्व्या' परिपाटथा । इयं च पश्चानुपादिरपि | स्यादित्याह-यथाक्रम क्रमानतिक्रमेण । यैः 'बद्धः श्लिष्टोऽयं प्रतिप्राणिस्वसंवेदनप्रत्यक्षो जीवः संसारे 'परिवर्तते' अपरापरपर्यायाननुभवन् भ्राम्यतीति सूत्रार्थः ॥१॥ प्रतिज्ञातमाहमूलम्-नाणस्सावरणिज्जं, दंसणावरणं तहा । वेअणिज्जं तहा मोह, आउकम्म तहेव य ॥२॥ नामकम्म च गोत्तं च, अंतरायं तहेव य । एवमेआई कम्माई, अद्वैव उ समासओ ॥३॥ ____ व्याख्या-ज्ञानस्य विशेषावबोधरूप आवियते सदप्याच्छाद्यतेऽनेन धनेनार्क इवेत्यावरणीयम् । दर्शनं सामान्यावबोधस्तदात्रियतेऽनेन प्रतीहारेण नृपदर्शनमिवेति दर्शनावरणम् । तथा वेद्यते-सुखदुःखतयाऽनुभूयते लिह्यमानमधुलिप्तासिधारावदिति वेदनीयम् । तथा मोहयति जानानमपि मद्यवद्विचित्तताजननेनेति मोहस्तम् । आयाति दुगतेनिष्क्रमितुकामस्यापि जन्तोनिंगडवत् प्रतिबन्धकतामित्यायुस्तदेव कर्म आयुष्कर्म तथैव च ॥२॥नमयति गत्यादिविविधभावानुभवं प्रति जीवं प्रवणयति चित्रकर इव गजाश्वादिभावं प्रति रेखाकारमिति नाम Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराज्ययनसूत्रम् ॥8 ॥ verveeeeeeeeeeeeeeeeeee कर्म । गीयते शव्यते उच्चावचैः शब्दः कुलालात् मृदुव्यमिव जीवो यस्मादिति गोत्रम् । अन्तरा दातृग्राहकयोमध्ये भाण्डारिकव द्विघ्नहेतुत्वेनायते गच्छतीत्यन्तरायम् । कर्मेति सर्वत्र सम्बध्यते, एवममुना प्रकारेण एतानि कर्माण्यष्टैव, 'तुः पूतौं 'समासतः' संक्षेपतो वि- अध्य०३३ स्तरतस्तु यावन्तो जीवास्तान्यपि तावन्तीत्यनन्तान्येवेति भावः ॥ ३ ॥ एवं कर्मणो मूलप्रकृतीः प्रोच्योत्तरप्रकृतीराह ॥४ ॥ मूलम्-नाणावरणं पंचविह, सुझं आभिणिबोहिअं। ओहिना तइयं, मणनाणं च केवलं ॥४॥ व्याख्या-ज्ञानावरणं पञ्चविधं, तच्च कथं पञ्चविधिमित्याशङ्कायामावार्यभेदादेवात्र आवरणस्य भेद इत्याशयेनावार्यस्य ज्ञानस्येव भेदानाह-'सुअं' इत्यादि-॥४॥ मूलम्-निदा तहेब पयला, निद्दानिद्दा य पयलपयला य। तत्तो अ थीणगिद्धी उ, पंचमा होइ नायव्वा । ५॥ चक्खुमचक्खुओहिस्स, दंसणे केवले अ आवरणे । एवं तु नवविगप्पं नायव्वं दसणावरणं ॥६॥ ___व्याख्या-निद्रादीनां स्वरूपं त्वेवम्-"सुहपडिबोहा निदा १ निदानिद्दा य दुक्खपडिबोहा २। पयला ठिोवविट्ठस्स ३ पयलपयला उ चंकमओ ४ ॥१॥ दिणचिंतिअत्थकरणी, थीणद्धी अद्धचक्किअद्धबलत्ति ५ ॥" इदं निद्रापञ्चकम् ॥ ५ ॥ "चक्खुमचक्खु ओहिस्सत्ति" मकारोऽलाक्षणिकः, चक्षुश्वाचक्षुश्वावधिश्च चक्षुरचक्षुरवधीति समाहारस्तस्य, दर्शने इति दर्शनशब्दः प्रत्येकं योज्यः, ततश्चतुः। दर्शने चक्षुषा रूपसामान्यग्रहणे । अचत्पीति नत्रः पयुदासत्वाच्चतुःसदृशानि शेषेन्द्रियमनांसि तदर्शने तेषां स्वस्वविषयसामान्यावबोधे ।। अवधिदर्शने अवधिना रूपिद्रव्याणां सामान्यग्रहणे । 'केवले अत्ति' केवलदर्शने च सर्वद्रव्यपर्यायाणां सामान्यज्ञाने आवरणं । एतच्च चक्षुर्दर्शनादिविषयत्वाच्चतुर्विधमत एवाह-एवमित्यनेन निद्रापश्चविधत्वचतुर्दर्शनावरणादिचतुर्विधत्वलक्षणेन प्रकारेण 'तुः' पूत्तौं 'नवविक Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शा अध्य०३३ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१६॥ ॥६६॥ म्पं नवमेदं ज्ञातव्यं दर्शनावरणम् ॥६॥ मूलम-वेअणि पि अ दुविहं, सायमसायं च आहिनं । सायस्स बहू भेश्रा, एमेवासायस्सवि ॥७॥ ___व्याख्या-वेदनीयमपि द्विविधं, 'सात' सुखं शारीरं मानसं च, इहोपचारात्तन्निमित्तं कर्माप्येवमुक्तं, असातं च तद्विपरीतं । 'सायस्स उत्ति' सातस्यापि बहवो भेदाः, न केवलं ज्ञानदर्शनावरणयोरित्यपिशब्दार्थः, बहुभेदत्वं चास्य तद्धेतूनामनुकम्पादीनां बहुत्वात् । एवमेवेतिबहब एव भेदा असातस्यापि, दुःखशोकादीनां तद्धेतूनामपि बहुत्वादेवेति भावः ॥ ७ ॥ मूलम्-मोहणिज्जपि दुविहं, दसणे चरणे तहा । दसणे तिविहं वुत्तं, चरणे दुविहं भवे ॥८॥ सम्मत्तं चेव | मिच्छत्तं, सम्मामिच्छत्तमेव य । एआओ तिरिण पयडीओ, मोहणिज्जस्स दंसणे ॥६॥ चरित्तमोहणं कम्म, | दुविहं तु विआहिअं । कसायवेअणिज्ज तु, नोकसायं तहेव य ॥१०॥ सोलसविह भेएणं, कम्मं तु कसा. | यजं । सत्तविह नवविहं वा, कम्मं नोकसायजं ॥११॥ ___व्याख्या–मोहनीयमपि द्विविधं वेदनीयवत् , द्वैविध्यमेवाह-दर्शने' तस्वरुचिरूपे 'चरणे' चारित्रे, ततो दर्शनमाहनीयं चारित्रमोहनीयं चेत्यर्थः । तत्र 'दर्शने' दर्शनविषयं मोहनीयं त्रिविधं उक्तं, 'चरणे' चरणविषयं द्विविधं भवेत् ॥८॥ दर्शनमोहनीसूत्रैविध्यमाह-'स- म्यक्त्वं शुद्धदलिकरूपं यदुदयेपि तत्त्वरुचिः स्यात् १ । 'चेव' पूत्तौं, मिथ्याभावो-मिथ्यात्वमशुद्धदलिकरूपं यतोऽस्तवेतु तत्त्वबुद्धिर्जायते २। सम्पम्मिथ्यात्वं शुद्धाशुद्धदलिकरूपं यतो जन्तोरुभयस्वभावत्वं स्यात् ३ । इह सम्यक्त्वाद्या जीवधर्मास्तद्धेतुत्वाच्च दलिकानामपिवय ONEONCOING Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामध्य० ३३ उचराध्यवनस्त्रम् ॥३७॥ 18७॥ पदेशः । एतास्तिस्रः प्रकृतयो मोहनीयस्य 'दर्शने' दर्शनविषयस्य ॥४॥ चरित्रे मुह्यत्यनेनेति चरित्रमोहनं कर्म, येन जानमपि चारित्रफलादि न तत् प्रतिपद्यते, तत्तु द्विविधं व्याख्यातं । द्वैविध्यमेवाह-कषायाः-क्रोधाद्यास्तद्रूपेण वेद्यतेऽनुभूयते यत्तत्कषायवेदनीयं, चः समुच्चये, नोकषायमिति प्रकमानोकषायवेदनीयं । तत्र नोकषायाः कषायसहचारिणो हास्यादयस्तद्रूपेण यद्वद्यते । तथैव चेति समुच्चये ॥१०॥ अनयोर्भेदानाह–'सोलसविहत्ति" षोडशविधं भेदेन कर्म 'तु' पुनः कषायजं "जं वेअइ तं बंधइत्ति" वचनात् कषायवेदनीयमित्यर्थः, षोडशभेदत्वं चास्य क्रोधादीनां चतुर्णामपि प्रत्येकमनन्तानुवन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यान संज्वलनभेदाच्चतुर्विधत्वात् । 'सत्तविहत्ति' सप्तविधं नवविधं वा कर्म 'नोकषायज' नोकषायवेदनीयमित्यर्थः, तत्र सप्तविधं हास्यादिषट्कं हास्यरत्यरतिभयशोकजुगुप्सारूपं वेदश्च सामान्यविवक्षया एक एवेति । नवविधं तु तदेव षट्कं वेदत्रयसहितमिति ॥ ११॥ . मूलम-नेरइयतिरिक्खाउं, मणुस्साउं तहेव य । देवाउअं चउत्थं तु, आउकम्मं चउव्विहं ॥१२॥ ____ व्याख्या-"नेरइअतिरिक्खाउंति" आयुः शब्दस्य प्रत्येकं योगान्नैरयिकायुस्तिर्यगायुः, शेषं व्यक्तम् ॥ १२ ॥ मूलम्-नामकम्मं तु दुविहं, सुहं असुहं च आहिअं । सुहस्स य बहू भेया, एमेव असुहस्सवि ॥१३॥ ___ व्याख्या-नामकर्म द्विविध, कथमित्याह-शुभमशुभं च आख्यातं, शुभस्य बहवो मेदा एवमेवाशुभस्यापि । तत्रोत्तरभेदैः शुभनाम्नोऽनन्तभेदत्वेपि मध्यमविवक्षया सप्तत्रिंशद्भदा यथा-नर १ देवगती २ पञ्चेन्द्रियजातिः ३ शरीरपश्चकं ८ आद्यशरीरत्रयस्याङ्गोपाङ्गत्रयं ११ प्रशस्तं वर्णादिचतुष्कं १५ प्रथम संस्थानं १६ संहननं च १७ मनुष्य १८ देवानुपूज्यौ १६ अगुरुलघु २० पराघातं २१ उच्छ्वासं २२ आतपो २३ इद्योतौ २४ प्रशस्तविहायोगतिः २५ त्रस २६ बादर २७ पर्याप्त २८ प्रत्येक २६ स्थिर ३० शुभ ३१ AVG coverevereSVGEVEG Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्यपनसूत्रम् ॥४८॥ अध्य०३३ ॥८॥ सुभग ३२ सुस्वरा ३३ देय ३४ यशांसि ३५ निर्माणं ३६ तीर्थकरनाम ३७ चेति । एताश्च शुभानुभावत्वाच्छुभाः। तथा अशुभनाम्नो- पि मध्यमविवक्षया चतुस्त्रिंशद्भदास्तथाहि-नरक १ तिर्यग्गती २ एकेन्द्रियादिजातिचतुष्कं ६ प्रथमवर्जानि संहननानि पञ्च ११ संस्थानान्यपि प्रथमवर्जानि पंचैव १६ अप्रशस्तं वर्णादिचतुष्कं २० नरक २१ तिर्यगानुपूज्यौं १२ उपघातः २३ अप्रशस्तविहायोगतिः २४ वसदशकविपर्यस्तं स्थावरदशकं ३४ । एतानि चाशुभानां नारकत्वादीनां हेतुत्वादशुभानि । अत्र बन्धनसंघातनानि शरीरेभ्यो वर्णाद्यवान्तरमेदाश्च वर्णादिभ्यः पृथग्न विवक्ष्यन्ते इति नोक्तसंख्याविरोधः ॥१३॥ मूलम-गोअकम्मं दुविहं, उच्चं नीअंच आहिनं। उच्च अट्टविहं होइ, एवं नीअंपि आहिअं ॥१४॥ व्याख्या-गोत्रकर्म द्विविधं, उच्चमिक्ष्वाकुवंशादिव्यपदेशहेतु, नीचं तद्विपरीतमाख्यातं । तत्रोच्चमुच्चैर्गोत्रमष्टविधं भवति, एवमष्टविघं शा नीचमप्याख्यातं । अष्टविधत्वं चानयोर्बन्धहेतूनामष्टविधत्वात् । अष्टौ हि जातिमदाभावादयंउच्चैोत्रस्य बन्धहेतवः, तावन्त एव च जातिमदादयो नीचेर्गोत्रस्येति ॥ १४ ॥ मूलम-दाणे लाभे अ भोगे अ, उवभोगे वीरिए तहा । पंचविहमंतराय, समासेण विआहि ॥१५॥ - व्याख्या 'दाने' देयवस्तुवितरणरूपे, 'लामे च प्रार्थितवस्तुप्राप्तिरूपे, 'भोगे च' सकृदुपभोग्यपुष्पादिविषये, 'उपभोगे पुनः पुन| रुपभोग्यगृहस्त्र यादिविषये, वीर्ये पराक्रमे तथा । अन्तरायमिति प्रक्रमः, ततश्च विषयभेदात् पञ्चविधमन्तरायं समासेन व्याख्यातं । तत्र दानान्तरायं समासेन येन सति पात्रे देये च वस्तुनि जानन्तोपि दानफलं तत्र प्रवृत्तिर्न स्यात् १ । लाभान्तरायं तु येन भव्येपि दातरि याचादक्षेपि याचके लाभो न स्यात् २ । भोगान्तरायं तु येन सम्पद्यमानेप्याहारमाल्यादौ भोक्तुं न शक्नोति ३। उपभोगान्तरायं तु AVENGE OVER COVEVAVAVAVE L Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य बनसूत्रम् 1880 अध्य० ३३ IEEII BREGI येन सदपि वस्त्राङ्गनादि नोपभोक्तु प्रभवति ४ । वीर्यान्तरायं तु यतो नीरोगो वयःस्थोपि तृणकुब्जीकरणेपि न क्षमते ५। इति सूत्रचतु- दशकार्थः ॥१५॥ एवं प्रकृतयोऽभिहिताः, सम्प्रत्येतभिगमनायोत्तरग्रन्थसम्बन्धाय चाहमूलम्-एआओ मूलप्पयडीओ, उत्तराओ अ आहिआ। पएसग्गं खेत्तकाले अ, भावं चादुत्तरं सुण ॥१६॥ व्याख्या-एता मूलप्रकृतय 'उत्तराश्चेति' उत्तरप्रकृतयश्च आख्याताः । प्रदेशा:-परमाणवस्तेषामग्रं-परिमाणं प्रदेशाग्रं. 'खेत्तकाले अत्ति' क्षेत्रकालो च, 'भावं च'अनुभागलक्षणं कर्मणः पर्यायं चतुःस्थानिकादिरसमित्यर्थः, 'अत उत्तरमिति' अतः प्रकृत्यभिधानादल 'शृणु' कथयतो ममेति शेषः ॥१६॥ तत्रादौ प्रदेशाग्रमाहमूलम्-सव्वेसिं चेव कम्माणं, पएसग्गमणंतगं । गंठिअसत्ताईअं, अंतो सिद्धाण आहि ॥१७॥ व्याख्या-सर्वेषां चः पूतों एवोऽपिशब्दार्थः, ततः सर्वेषामपि कर्मणां 'प्रदेशाग्रं परमाणुपरिमाणं अनन्तमेवानन्तकं । तच्चानन्तकं ग्रन्थिकसत्त्वा-ये प्रन्थिदेशं गत्वापि तं भित्त्वा न कदाचिदुपरि गन्तारस्ते चाभव्या एवात्र गृह्यन्ते, तानतीतं तेभ्योऽनन्तगुणत्वेनातिक्रान्तं अन्थिकसच्चातीतं । तथा 'अन्तर मध्ये सिद्धानामाख्यातं, सिद्धेभ्यो हि कर्मपरमाणवोऽनन्तभागे एव स्युः । एकस्य जीवम्य एकसमयग्राह्यकर्मपरमाएक्पेक्षं चैतत् , अन्यथा हि सर्वजीवेम्योप्यनन्तानन्तगुणत्वात्सर्वकर्मपरमारणूनां कथमिदमुपपद्यतेति ॥१७॥क्षेत्रमाहमूलम्-सव्वजीवाण कम्मं तु, संगहे छद्दिसागयं । सव्वेसुवि पएसेसु, सव्वं सव्वेण बझगं ॥१८॥ __ व्याख्या-सर्वजीवानां कर्म ज्ञानावरणादि, 'तुः' पूत्तौं, 'संग्रहे' संग्रहक्रियायां योग्यं स्यादिति शेषः, यद्वा सर्वजीवाः 'ण' इति वा- | VEGVESVESEVGeerverovere S IOकर Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतराध्य पनसूत्रम् ॥१००॥ क्यालङ्कारे, कर्म 'संगहेत्ति' संगृह्णन्ति । कीदृशं सदित्याह - "छद्दिसागयंति" षण्णां दिशां समाहारः षड्दिशं तत्र गतं स्थितं षद्दिशगतं एतच्च द्वीन्द्रियादीनाश्रित्य नियमेन व्याख्येयं, एकेन्द्रियाणामन्यथापि सम्भवात् । यदागम :- “एवें दिए णं भंते ! तेआकम्मपोग्गलाणं गहणं करेमाणे किं तिदिसिं जावछद्दिसिं करेइ ? गोयमा ! सित्र तिदिसिं सित्र चउदिसिं सित्र पञ्चदिसिं सित्र छद्दिसिं करेइ । बेइ दिनतेइ दिन - चउरिंदि - पंचिंदिया निञ्चमा छद्दिसिंति ।" तच्च संगृहीतं सत् केन सह कियत् कथं वा बद्धं स्यादित्याह - "सव्वेसुवि पएसेसुति" सर्वैरपि प्रदेशैरात्मसम्बन्धिभिः सर्वं ज्ञानावरणादि, नत्वन्यतरदेकमेव, सर्वेणेति गम्यत्वात् प्रकृतिस्थित्यादिना प्रकारेण । बद्धं - क्षीरेणोदकवदात्मप्रदेशैः श्लिष्टं तदेव बद्धकम् ॥१८॥ कालमाह अ मूलम् — उदहिसरिसनामाणं, तीसई कोडिकोडिओ । उक्कोसिया ठिई होई, तोमुहुत्तं जहरिणा ॥१६ आवरणिजाए दुरहंपि, वेअणिज्जे तहेव य । अंतराए कम्मंमि, 'ठिई एसा विहि ॥२० उदहिसरिसनामागं, सत्तरि कोडिकोडियो । मोहणिजस्स उक्कोसा, अतोमुहुत्तं जहरिण २१ तेत्तीस सागरोवम, उक्कोण विहिया । टिई उ आउकम्मस्स, अंतोमुहुत्तं जहरिणा ॥ २२ उदहिस रिसनामागं, वीसई कोडिकोडियो । नामगोत्तारण उक्कोसा, अट्ठमुहुत्ता जहरिणा ॥ २३ सिद्धाणऽतभागो अ, अणुभागा भवंति उ । सव्र्व्वसुवि पएसग्गं, सवज्जीवेसऽइच्छित्रं ॥२४॥ अध्य० ३३ ॥१००॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतराध्य यनसूत्रम् ॥१०१॥ व्याख्या - उदधिना सदृशं नाम येषां तानि उदधिसदृशनामानि सागरोपमाणीत्यर्थः, तेषां त्रिंशत्कोटाकोत्यः 'उकोसिअत्ति' उत्कृष्टा भवति स्थितिः, अन्तर्मुहूर्तं जघन्यैव जघन्यका ॥ १६ ॥ केषामित्याह - 'आवरखिज्जाणत्ति' आवरणयोर्ज्ञानदर्शनविषययोर्द्वयोरपि वेदनीये तथैव च, अन्तराये च कर्मणि स्थितिरेषा व्याख्याता । किञ्चेह वेदनीयस्यापि जघन्या स्थितिरन्तर्मुहूर्त्तमानैवोक्ताऽन्यत्र तु द्वादशमुहूर्त्त - माना सा सकषायस्योच्यते । यदुक्तं- "मोत्तु' अकसायठिहं, बारमुहुत्ता जहन्नवेअणिएत्ति" । अकषायस्य तु समयद्वयरूपा सातवेद्यस्य स्थितिरिवोक्ता, तदत्र तत्त्वं तत्वविदो विदन्तीति ॥ २० ॥ स्पष्टानि ॥ २१ ॥ २२ ॥ २३ ॥ अथ भावमाह - सिद्धनामनन्तभागे 'अनुभागा' रसविशेषा भवन्ति, 'तुः' पूर्वौ, अयञ्चानन्तभागोऽनन्तसंख्य एवेति । तथा सर्वेष्वपि प्रक्रमादनुभागेषु प्रदिश्यन्त इति प्रदेशा बुद्धया विभज्यमानास्तद विभागैकदेशास्तेषामग्रं - परिमाणं प्रदेशाग्रं 'सन्त्रजीवेस इच्छिति' सर्वजीवेभ्योऽतिक्रान्तं, ततोपि तेषामनन्तगुणत्वादिति सूत्रनवकार्थः ॥ २४ ॥ अध्ययनार्थोपसंहारपूर्वमुपदेशमाह - मूलम् — तम्हा एएसि कम्माणं, अणुभागे विचाणि । एएसिं संवरे चेव, खवणे अजए बुहेत्ति बेमि २५ व्याख्या—यस्मादेवंविधाः प्रकृतिबन्धादयस्तस्मादेतेषां कर्मणामनुभागानुपलक्षणत्वात् प्रकृतिबन्धादींश्व 'विज्ञाय' विशेषेण कटुविपा. कत्वलचणेन भवहेतुत्वलक्षणेन च ज्ञात्रा एतेषां कर्मणामनुपात्तानां 'संवरे' निरोधे, 'च: ' समुच्चये एवोऽवधारणे भिन्नक्रमः सोऽग्रतो योक्ष्यते, 'क्षपणे च' पूर्वोपात्तानां निर्जरणे 'जएत्ति' यतेतैव यत्नं कुर्यादेव 'बुधो' धीमानिति सूत्रार्थः ||२५|| इति ब्रवीमीति प्राग्वत् २ अध्य० ३३ ॥१०१॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्यपनसूत्रम् अध्य० ३४ ॥१०२॥ ॥१०२॥ eeeee VEGVEGVEVE TEVEEVGeeve ॥अथ चतुस्त्रिंशमध्ययनम् ॥ का ॥ॐ॥ उक्तं त्रयस्त्रिंशमध्ययनमथ चतुस्त्रिंशं लेश्याध्ययनमारम्यते, अस्य चायं सम्बन्धोऽनन्तराध्ययने कर्मप्रकृतय उक्तास्तत्स्थि- तिश्च लेश्यावशात् स्यादितीह ता उच्यन्ते, इति सम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्मूलम्-लेसज्झयणं पवक्खामि, आणुपुव्वि जहक्कम । छण्हपि कम्मलेसाणं, अणुभावे सुणेह मे ॥१॥ | व्याख्या लेश्यावाचकमध्ययनं लेश्याध्ययनं प्रवक्ष्यामि, आनुपूयेत्यादि प्राग्वत् । तत्र परणामपि 'कमलेश्यानां' कर्मस्थितिविधा| तृतत्तद्विशिष्टपुद्गलरूपाणाम् 'अनुभावान् ' रसविशेषान् शृणुत मे कथयत इति शेषः ॥ १ ॥ एतदनुभावाश्च नामादिप्ररूपणे कथिता एवं भवन्तीति तत्प्ररूपणाय द्वारसूत्रमाह| मूलम् –णामाइं वरणरसगंधफासपरिणामलक्खणं ठाणं । ठिई गई च आउं लेसाणं तु सुणेह मे ॥२॥ व्याख्या-नामानि वर्ण-रस-गन्ध-स्पर्श-परिणाम-लक्षणमिति षण्णां समाहारः, परिणामश्चात्र जघन्यादिः, लक्षणं पश्चाश्रवसेवाका दि, स्थानमुत्कर्षापकर्षरूपं, स्थितिमवस्थानकालं, गतिं च नरकादिकां यतो यावाप्यते, आयुर्जीवितं यावति तत्रावशिष्यमाणे आगामिभव लेश्यापरिणामस्तदिह गृह्यते, लेश्यानां तु भृणुत मे वदत इति सूत्रार्थः ॥ २ ॥ यथोद्देशं निर्देश इत्यादौ नामान्याहमूलम-किण्हा नीला य काऊ य, तेऊ पम्हा तहेव य । सुक्कलेसा य छट्ठा उ, नामाई तु जहक्कम ॥३ जीमतनिद्धसंकासा, गवलरिट्ठगसन्निभा। खंजंजणनयणनिभा, किण्हा हिसार Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१०३॥ अध्य०३४ ॥१०३॥ Seeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee नोलासोगसंकासा, चासपिच्छसमप्पभा । वेरुलियनिद्धसंकासा, नीललेसा उ वएणओ ॥५॥ अयसीपुप्फसंकासा, कोइलच्छदसन्निभा । पारेवयगीवनिभा, काउलेसा उ वएणओ ॥६॥ हिंगुलधाउसंकासा, तरुणाइञ्चसन्निभा । सुअतुडपईवनिभा, तेउलेसा उ वण्णो ॥७॥ हरियालभेयसंकासा, हलिद्दाभेयसन्निभा । सणासणकुसुमनिभा, पम्हलेसा उवण्णओ ॥८॥ संखंककुदसंकासा, वीरधारासमप्पभा । रययहारसंकासा, सुक्कलेसा उ वएणो ॥६॥ व्याख्या स्पष्टा ॥ ३ ॥ वर्णानाह-"जीमूतनिद्धसंकासत्ति" प्राकृतत्वात् स्निग्धजीमृतसंकाशा, गवलं-महिषशृङ्ग रिष्टकः काकः फलविशेषो वा तत्सन्निभा, "खंजत्ति" खञ्जनं-स्नेहाभ्यक्तशकटाक्षघर्षणोद्भवं अञ्जन-कज्जलं नयनमित्युपचारानयनमध्यवर्तिनी कृष्णतारा तन्निभा. कृष्णलेश्या तु 'वर्णतो' वर्णमाश्रित्य परमकृष्णेत्यर्थः ॥४॥ नीलाशोकसंकाशा रक्ताशोकापोहामिह नीलग्रहणं, 'वेरुलियनिद्धसंका. सत्ति' स्निग्धवैडूर्यसङ्काशा अतिनीलेत्यर्थः ॥शा अतसी धान्यविशेषस्तत्पुष्पसङ्काशा, 'कोकिलच्छदः तैलकण्टकस्तत्सन्निभा, पाठान्तरे कोकिलछविसनिभा, पारापतग्रीवानिभा, कापोतलेश्या तु वर्णतः, किश्चित्कृष्णा किञ्चिद्रक्तेति भावः ॥ ६॥ इह धातुगैरिकादिः, 'सुअतुडे इत्यादि-शुकस्य तुण्डं-मुखं तच्च प्रदीपश्च तन्निभा रक्तेत्यर्थः ॥ ७ ॥ हरितालस्य यो भेदो द्विधामावस्तत्सङ्काशा, भित्रस्य हि तस्य वर्णः प्रकृष्टः स्यादिति भेदग्रहणम् , हरिद्राभेदसनिभा, सणो-धान्यविशेषः असनो-बीयकस्तयोः कुसुमं तमिमा पीतेत्यर्थः ॥८॥ शंखः प्रतीतः, अंको मणिविशेषः, कुन्द-कुन्दपुष्पं, तत्संकाशा, क्षीरधारासमप्रभा, पात्रस्थस्य हि तस्य तद्वशादन्यथात्वमपि स्यादितीह धाराग्रहणम् । トトレーントーーーーーーン Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतराध्य यनसूत्रम् ॥१०४॥ शेषं व्यक्तमिति सूत्रषट्कार्थः ॥ ६ ॥ रसानाह— मूलम् -- जह कडुअतु बगरसो, निंबरसो कडु अरोहिणिरसो वा । एत्तोवि अांतगुणो, रसो उ किरहाइ नायव्व ॥१०॥ जह तिकडुस्स य रसो, तिक्खो जह हत्थिपिप्पलीए वा । एत्तोवि अांतगुणो, रसो उनीलाइ नायव्वो ॥११॥ जह तरुण अंबगरसो, तुबरकविट्ठस्स वावि जारिस । एत्तोविश्रांतगुणो, रसो उ काऊइ नायव्वो ॥१२॥ जह परिणयंबगरसो, पक्ककविट्ठस्स वावि जारिस तेऊइ नायव्वो ॥१३॥ वरवारुणीइ व रसो, विविहाण व भासवाण जारिस पम्हाए परएणं ॥१४॥ खज्जूरमुद्दियरसो, खीररसो खंडसक्कररसो वा । एत्तोवि अांतगुणो, रसो उ सुक्काइ नायव्व ॥ १५॥ । एतोवि अांतगुणो, रसो उ । महुमेरगस्स व रसो, एत्तो व्याख्या—यथा कटुकतुम्बकरसो निम्बरसः कटुकरोहिणी - त्वग्विशेषः तद्रसो व यथेति सर्वत्र योज्यम् । इतोप्यनन्तगुणोऽनन्तसंख्येन राशिना गुणितो रसस्तु कृष्णाया ज्ञातव्यः ॥ १० ॥ ' त्रिकटुकस्य' शुण्ठीपिपलीमरिचरूपस्य, 'हस्तिपिप्पल्या ' गजपिप्पल्या ॥ ११ ॥ तरुणम् अपक्वं आम्रकम् आम्रफलं तद्रसः, तुबरं सकषायं यत् कपित्थं कपित्थफलं तस्य वापि यादृशको रस इति प्रक्रमः ॥ १२ ॥ यथा परिणताम्रकरसः किञ्चिदम्लो मधुरश्चेति भावः ॥ १३ ॥ वरवारुणी - प्रधानमदिरा तस्या वा यादृशक इति सम्बन्धः, विविधानां वा अध्य० ३४ ॥ १०४ ॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्य यनसूत्रम् ॥१०५॥ 'श्रासवानां' पुष्पोत्पन्नमद्यानां यादृशको रस इति योगः, मधु - मद्यविशेषो मैरेयं-परकस्तयोः समाहारे मधुमैरेयं तस्य वा रसो यादृशकः, तो वारुण्यादिरसात् पद्माया रसः ' परकेण' अनन्तगुणत्वात्तदतिक्रमेण वर्त्तते इति शेषः, श्रयं च किञ्चिदम्लः कषायो मधुरश्चेति भावनीयम् ॥ १४ ॥ अत्र मृद्वीका द्राक्षा, शेषं व्यक्तमिति सूत्रषट्कार्थः ॥ १५ ॥ गन्धमाह मूलम् —जह गोमडस्स गंधो, सुणगमडस्स व जहा अहिमडस्स । एतो विश्रांतगुणो, लेसाणं अप्पसत्थाणं १६॥ जह सुरहिकुसुमगंधो, गंधवासाण पिस्समाणाणं । एत्तो वि श्रणंतगुणो पसत्थलेसाण तिरहं पि व्याख्या – “गंधवासाणंति” गन्धाश्च - कोष्टपुटपाकनिष्पन्ना आसाश्वेतरे गन्धवासाः, इह च गन्धवासाङ्गान्येवोपचारादेवमुक्तानि तेषां ‘पिष्यमाणानां’ चूर्ण्यमानानां यथा गन्ध इति प्रक्रमः “पसत्थलेसाणंति" प्रशस्तलेश्यानां तेजः - पद्म - शुक्लानाम् । इह चानुतोपि गन्धविशेषो लेश्यानां तारतम्येनावसेय इति सूत्रद्वयार्थ ॥ १७ ॥ स्पर्शमाह - मूलम् - जह करगयस्स फासो, गोजिब्भाए व सागपत्ता । एत्तोवि अांतगुणो, लेसाणं अप्पसत्थाय १८ जह बूरस्स व फासो, नवणोअस्स व सिरीसकुसुमाखं । एत्तोवि अणंतगुणणे, पसत्थलेसाण तिरपि ॥ १६ ॥ व्याख्या—यथा “करगयस्सत्ति" क्रकवस्य स्पर्शो गोजिह्वायाः शाको - वृत्तविशेषस्तत्पत्राणां च स्पर्श इति प्रक्रमः । इतोप्यनन्तगुणः कर्कशः लेश्यानां प्रशस्तानां यथा क्रममित्यर्थः ॥ १८ ॥ यथा धूरस्य वनस्पतिविशेवस्य स्पर्शो नवनीतस्य वा शिरीषकुसुमानां एतस्मादप्यनन्तगुणः सुकुमारो यथाक्रमं प्रशस्तलेश्यानां तिसृणामपीति सूत्रद्वयार्थः ॥ १६ ॥ परिणामद्वारमाह अध्य० ३४ ॥१०५॥ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१०६॥ COLECEG GEVOLG AVEVCEVeves | मूलम-तिविहो व नवविहो वा, सत्तावीसइविहिक्कसीओ चा । दुसओ तेआलो वा, लेसाणं होइ परिणामो मध्य० ३४ का व्याख्या-त्रिविधो वा नवविधो वा सप्तविंशतिविध एकाशीतिविधो वा दसयो तेालो वत्ति त्रिचत्वारिंशदधिकदिशतविधो वा १०६॥ श्यानां भवति परिणामस्तत्तद्रुपगमनात्मकः । तत्र त्रिविधो जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदेन, नवविधो यदा एषामपि स्वस्थानतारतम्यचिन्तायां प्रत्येकं जघन्यादित्रयेण गुणना । एवं पुनः पुनविभिगुणने सप्तविंशतिविधत्वादिभावनीयम् । उपलक्षणं चैतत्, एवं तारतम्यचिन्तायां हि संख्यानियमस्याभावात् । तथा च प्रज्ञापना-"करहलेसाणं भंते ! कइविहं परिणाम परिणमइ ? गोयमा ! तिविहं वा नवविहं वा सत्तावीसइविहं वा एक्कासीइविहं वा तेालादुसयविहं वा बहुं वा बहुविहं वा परिणाम परिणमइ । एवं जाव सुक्कलेसा" इति सूत्रार्थः ॥ २० ॥ लक्षणद्वारमाहमूलम-पंचासवप्पवत्तो, तीहिं अगुत्तो छसु अविरओ अ। तिव्वारंभपरिणओ, खुद्दो साहस्सिओ नरो २१ निद्धधसपरिणामो, निस्संसो अजिइंदिओ । एअजोगसमाउत्तो, कण्हलेस तु परिणमे ॥२२॥ व्याख्या–पञ्चाश्रवप्रवृत्तः, त्रिभिः प्रक्रमान्मनोवाक्कायैरगुप्तः, षट्सु जीवनिकायेषु अविरतस्तदुपमईकत्वादिनेति शेषः, तीवा:-उकटाः स्वरूपतोऽध्यवसायतो वा आरम्भा:-सावधव्यापारास्तत्परिणतस्तदासक्तः, 'क्षुद्रः' सर्वस्याप्यहितैषी, सहसाऽनालोच्य प्रवर्तते इति श्री साहसिकश्चौर्यादिदुष्कर्मकारीत्यर्थः, नरः उपलक्षणत्वात् स्त्र यादि ॥ २१ ॥ 'निर्बुधसत्ति' ऐहिकामुष्मिकापायशङ्काविकलः परिणामो यस्य स तथा, निस्संसोति' निविंशो जीवान् निघ्नन् मनागपि न शङ्कते, अजितेन्द्रियः, एतेऽनन्तरोक्तास्ते च ते योगाश्च व्यापारा एतद्योगास्तैः समायुक्तोऽन्वित एतद्योगसमायुक्तः कृष्णलेश्यां तुरेवकारार्थस्ततः कृष्णलेश्यामेव परिणमेत् तद्व्यसाचिव्येन तथाविधद्रव्यस साहसिकधीयोदिमान निखिशो जीवान् निमाया तुरेवकारार्थस्ततः कृष्णन Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥१०७॥ ॥१०७॥ AVCEVCEVEGVEVERENAVEVEEVA | म्पर्कात् स्फटिकमिव तद्रूपतां भजेत् । उक्त हि-"कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् , परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशद | प्रयुज्यते ॥१॥" इति ॥ २२ ॥ तथामूलम्-इस्सा-अमरिस-अतवो, अविज माया अहीरिया। गेही पोसे य सढे, पमत्ते रसलोलुए ॥२३ सायगवेसए अ आरंभाविरओ खुद्दो साहस्सिओ नरो। एअजोगसमाउत्तो, नीललेसं तु परिणमे । व्याख्या - ईर्षा च-परगुणासहनं अमर्षश्च-रोषादत्यंताभिनिवेशः, अतपश्च-तपो विपर्ययोऽमीषां समाहारः। 'अविद्या'-कुशास्त्ररूपा, माया प्रतीता, 'अहीकता' असदाचारगोचरो लज्जाभावः, 'गृद्धि' विषयलाम्पटयं, 'प्रदोषश्च' प्रद्वेषः, अभेदोपचाराच्चेह सर्वत्र तद्वान् जन्तुरेवमुच्यते । 'शठो' धृष्टः, 'प्रमत्तः' प्रकर्षेण जातिमदाद्यासेवनेन मत्तः प्रमत्तो रसेषु लोलुपः-लम्पटो रसलोलुपः ॥ २३ ॥ सातं सुखं तद्वेशकश्च कथं मे सुखं स्यादिति बुद्धिमान् , आरम्भात्-प्राण्युपमर्दादविरतः, शेषं प्राग्वत् ॥ २४ ॥ मूलम्-वके वकसमायारे, निअडिल्ले अणुज्जुए । पलिउंचग ओवहिए, मिच्छदिट्ठी अण्णारिए ॥ २५ ॥ उप्फालगदुद्रुवाई अ, तेणे आवि अ मच्छरी । एयजोगसमाउत्ते, काऊलेसं तु परिणमे ॥ २६ ॥ | - व्याख्या-वक्रो वचसा, वक्रसमाचारः क्रियया, निकृतिमान् मनसा, अनृजुकः कथमपि ऋजूकर्तुमशक्यः, 'परिकुश्चक:' स्वदोषप्रच्छादकः, उपधिच्छम तेन चरत्यौपधिकः सर्वत्र व्याजतः प्रवृत्तिः, एकार्थिकानि वैतानि, मिथ्यादृष्टिरनार्यश्च ॥ २५ ॥ 'उप्कालगत्ति' येन पर उत्प्रास्यते तदुत्त्रासकं, दुष्टं च रागादिदोषवद्यथा भवत्येवं वदनशील उत्प्रासकदुष्टवादी, चः समुच्चये । 'स्तेनः चोरः चापि समुच्चये। Yeuveeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeet Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्य यनसूत्रम् ॥१०८॥ 'मत्सरी' परसम्पदोऽसासहिः शेषं प्राम्बत् ।। २६ ।। मूलम् - वित्ती अचवले, अमाई अकुतूहले । विणीयविणए दंते, जोगवं उवहाणवं ॥ २७ ॥ पियधम्मे दधम्मे, वज्जभीरू हिएसए । एयजोगसमाउत्ते, तेउलेसं तु परिणमे ॥ २८ ॥ व्याख्या —— नीचैवं 'तिर्मनोवाक्कायैरनुत्सिक्तोऽचपलः, श्रमायी, अकुतूहल:, 'विनीतविनयः' स्वभ्यस्तगुर्वाद्युचितप्रवृत्तिः, श्रत एव दान्तः, योगः-स्वाध्यायादिव्यापारस्तद्वान्, उपधानवान् विहितशास्त्रोपचारः ।। २७ ।। 'पिय' इत्यादि - तत्र 'वज्जभीरूति' श्रवद्यभीरुः 'हितैषको ' मुक्तिगवेषकः, शेषं प्राग्वत् ॥ २८ ॥ मूलम् - पयणुकोहमाणे, मायालोभे पयणुए । पसंतचित्ते दंतप्पा, जोगवं उवहाणवं ॥ २६ ॥ तहा - पयरवाई य, उवसंते जिइंदिए । एयजोगसमाउत्ते, पम्हलेसं तु परिणमे ॥ ३० ॥ व्याख्या— प्रतनुक्रोधमानः चः पूर्वौ माया लोभश्च प्रतनुको यस्येति शेषः, अत एव प्रशान्तचित्तो दान्तात्मा 'तहा पयणु' इत्यादितथा 'प्रतनुवादी' स्वम्पभाषकः उपशान्तोऽनुद्भटत्वेनोपशान्ताकारः, शेषं प्राग्वत् ॥ ३० ॥ मूलम् — भट्टरुद्दाणि बज्जित्ता, धम्मसुक्काणि झायए 1 पसंतचित्ते दंतप्पा, समिए गुत्ते य गुत्तिसु ॥३१॥ सरागे बीअरागे वा उवसंते जिइंदिए । एजोगसमाउत्ते, सुक्लेसं तु परिणमे ॥ ३२ ॥ व्याख्या - श्रार्तरौद्रे वर्जयित्वा धर्मशुक्ले ध्यायति यः कीदृशः सन्नित्याह - प्रशान्तचित्त इत्यादि, 'संमितः' समितिमान्, 'गुप्तो' अध्य० ३४ ॥१०८॥ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥१०॥ अध्य०३४ ॥१०॥ निरुद्धाशुभयोगः 'गुतिसुचि' गुप्तिभिः, सरागे स च सरागोऽक्षीणानुपशान्तकषायो वीतरागस्तद्विपरितो वा उपशान्तो जितेन्द्रियः एतद्योगसमायुक्तः शुक्लेश्यां तु परिणमेत , विशिष्टलेश्यापेक्षं चैतल्लक्षणाभिधानं तेन देवादिभिर्व्यभिचार इति सूत्रद्वादशकार्थः ॥ ३१ ॥ ३२ ॥ स्थानद्वारमाहमूलम्-अस्संखेज्जाणोसप्पिणीण उसप्पिणोण जे समया । संखाईआ लोगा, लेसाणं हुंति ठाणाई ३३ ___ व्याख्या असंख्येयानामवसर्पिणीनां तथोत्सर्पिणीनां ये समयाः कियन्त इत्याह-संख्यातीता लोकाः कोऽर्थः १ असंख्येयलोकाकाशप्रदेशपरिमाणाः तावन्तीति शेषो लेश्यानां भवन्ति स्थानानि प्रकर्षापकर्षकृतानि अशुभानां संक्लेशरूपाणि शुभानां च विशुद्धिरूपाणीति सूत्रार्थः ॥ ३३ ॥ स्थितिमाह मूलम-मुहुत्तद्ध तु जहन्ना, तेत्तीस सागरा मुहुत्तहिआ । उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा किण्हलेसाए ॥३४ ॥ | मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, दसउदही पलिअमसंखभागमब्भहिआ । उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा नीललेसाए ३५ मुहुत्तद्ध तु जहन्ना, तिण्णुदही पलिअमसंखभागमब्भहिआ । उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा काउलेसाए ॥३६॥ मुहुत्तद्ध तु जहन्ना, दुण्णुदही पलिअमसंखभागमभहिआ । उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा तेउले- । साए ॥३७॥ मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, दस होती सागरा मुहुत्तहिना । उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा पम्हले BEGELEEEEEEEEE Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्यपनपत्रम् ॥११०॥ अध्य० ३४ ॥११०॥ साए ॥३८॥ मुहुत्तद्धंतु जहन्ना, तेत्तीसं सागरा मुहुत्तहिमा । उक्कोसा होइ ठिई, नायव्वा सुक्कलेसाए३६ . व्याख्या-मुहूर्ताद्धं तु कोऽर्थोऽन्तर्मुहूर्तमेव जघन्या, त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि 'मुहुत्तहिअत्ति' इहोत्तरत्र च मुहूर्त्तशब्देनोपचारान्मुहू- का देश एवोक्तः ततश्चान्तमु हाधिकानि उत्कृष्टा भवति स्थितिर्ज्ञातव्या कृष्णलेश्यायाः, इयं चास्याः स्थितिः सप्तमपृथ्व्यां ज्ञेया। इहान्त मुहर्चशब्देन पूर्वोत्तरभवसम्बन्ध्यन्तमुहद्वयमुक्तं द्रष्टव्यं, एवमुत्तरत्रापि । जघन्या स्थितिस्तु सर्वासामासां तिर्यग्मनुष्येष्वेवावसेया ॥३४॥ मुहर्ताद्धोऽन्तमहतं जघन्या, दश 'उदधयः सागरोपमाणि 'पलिअत्ति' पल्योपमं तस्यासंख्यभागेनाधिकानि उत्कृष्टा भवति स्थितिनीललेश्यायाः । नन्वस्या धूमप्रभोपरितनप्रस्तटं यावत्सम्भवस्तत्र च पूर्वोत्तरभवान्तमुहूर्त्तद्वयेनाधिकास्याः स्थितिः किं नोक्ता ? उक्तैव पल्योपमा| संख्येयभागे एव तस्याप्यन्तमुहर्तद्वयस्यान्तर्भावात् , पल्यासंख्येयभागानां चाऽसंख्यभेदत्वादिहेतावन्मानस्यैवास्य विवक्षितत्वान्न विरोधः एवमोऽपि ॥ ३५ ॥ इयं स्थितिालुकाप्रभोपरितनप्रस्तटे तावदायुष्केषु नारकेषु द्रष्टव्या ॥ ३६ ॥ इयमीशानकल्पे ज्ञेया ॥ ३७॥ इयं ब्रह्मलोकस्वर्गे च बोध्या ॥ ३८ ॥ एषा अनुत्तरविमानेषु मन्तव्येति सूत्रषट्कार्थः ॥ ३९ ॥ प्रकृतमुपसंहरन्नुत्तरग्रन्थसम्बन्धमाह मूलम्-एसा खलु लेसाणं, ओहेण ठिई उ वरिणा होई । ___ चउसुऽवि गईसु एत्तो, लेसाण ठिइं तु वोच्छामि ॥४०॥ व्याख्या-'मोहेणंति' भोघेन सामान्येन ॥ ४० ॥ प्रतिज्ञातमाह| मूलम्-दसवाससहस्साई, काऊए ठिई जहन्निा होई । तिण्णुदही पलिओवम-असंखभागं च उक्कोसा AGRIHITRA Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥११॥ अध्य०३४ ॥११॥ SOURCEOGeeeeeeeeeeeeeeee व्याख्या-दशवर्षसहस्राणि कापोतायाः स्थितिर्जघन्यका भवति त्रय, 'उदधयः सागरोपमाणि 'पलियमसंखभागं चत्ति' पल्योपमासंख्येयभागश्चोत्कृष्टा । इयं च जघन्या रत्नप्रभायामुपरितनप्रस्तटनारकाणामेतावस्थितीनां, उत्कृष्टा च वालुकाप्रभायामेतावस्थितिकनारकाणां प्रथमप्रस्तट एवेति भावनीयम् ॥४१॥ मूलम्-तिण्णुदही पलिअमसंखभागो उ जहएण नीलठिई । दस उदही पलिओवम-असंखभागं च उक्कोसा व्याख्या-नीलाया जघन्या स्थितिर्वालुकाप्रभायां, उत्कृष्टा धूमप्रभायां प्रथमप्रस्तटे ॥ ४२ ॥ मूलम्-दस उदही पलिअमसंख-भागं जहन्निा होई । तेत्तीससोगराई, उक्कोसा होई किराहाए ॥४३॥ ___ व्याख्या कृष्णाया जघन्या धूमप्रभायामितरा तु तमस्तमायां, किन्वेह नारकाणामुत्तरत्र च देवादीनां द्रव्यलेश्यास्थितिरेव चिन्त्यते, तद्भावलेश्यानां तु परिवर्त्तमानत्वेनान्यथापि स्थितेः सम्भवात् । यदुक्तं-'देवाण नारयाण य, दव्वलेसा भवंति एआयो । भावपरावचीए, सुरणेरइमाण छल्लेसा" ॥४३॥ मूलम-एसा नेरइआणं, लेसाण ठिई उ वरिणमा होई । तेण पर वोच्छामि, तिरिभ्रमणुस्साण देवाणं ' व्याख्या-'तेण परति' ततः परम् ॥४४॥ मुलम्-अंतोमुहत्तमद्ध, लेसाण ठिई जहिं जहिं जा उ। तिरिमाण नराणं वा, वजित्ता केवल लेस ४५ 'व्याख्या-"अतोमुहूत्तमद्धति" 'अन्तमुहर्ताद्धां' अन्तमुहर्त्तकालं लेश्यानां स्थितिर्जघन्योत्कृप्टा चेति शेषः, कासामित्याह-'जहिं Vecvecveeeeeee Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्ययनस्त्रम् ॥११२॥ अध्य०३४ ॥११२॥ जहिति' यत्र यत्र पृथिव्यादौ संमृच्छिममनुष्यादौ वा याः कृष्णाद्याः तुः पूत्तौं, तिरश्वा नराणां वा मध्ये सम्भवन्ति तासामित्यध्याहारः। लेश्याश्च पृथिव्यपवनस्पतिष्वाद्याश्चतस्रः, तेजोवायुविकलसंमूच्छिमेष्वाद्यास्तिस्रः, शेषेषु षट् । ततश्च सर्वासामप्यासां तिर्यग्मनुष्येषु अन्तमुहर्तमान स्थितिः प्राप्तेत्याह-वर्जयित्वा केवलां शुद्धां लेश्यां शुक्ललेश्यामित्यर्थः ॥ ४५ ॥ अस्या एव स्थितिमाहमूलम् -मुहुत्तद्धं तु जहन्ना, उक्कोसा होइ पुत्वकोडी उ । नवहिं वरिसेहिं ऊणा, नायव्वा सुक्कलेसाए - व्याख्या-इह यद्यपि कश्चिदष्टवार्षिकः पूर्वकोत्यायुतपरिणाममाप्नोति तथापि नैतावद्वयःस्थस्य वर्षपर्यायादाक् शुक्ललेश्यायाः सम्भव इति नवभिवर्षे रूना पूर्वकोटिरुच्यते ॥ ४६॥ मलम् एसा तिरिअनराणं, लेसाण ठिई उ वरिणा होई । तेण परं वोच्छामि, लेसाण ठिई उ देवाणं ॥४७॥ दसवाससहस्साई, किण्हाए ठिई जहरिणा होई । पलिअमसंखिज्जइमो, उक्कोसो होइ किण्हाए ॥४८॥ जा किण्हाइ ठिई खलु, उक्कोसा सा उ समयमब्भहिआ । जहन्नेणं नोलाए, पलिश्रमसंखेज उकोसा ॥४६॥ जा नीलाए ठिई खलु, उक्कोसा उ समयमब्भहिआ । जहन्नेणं काऊए, पलिअमसंखं च उक्कोसा ॥५०॥ व्याख्या- स्पष्टम् ॥४७॥ 'पलिश्रमसंखिज्जइमोति' पल्योपमासंख्येयतमः प्रस्तावाद्भागः, इयं च द्विधापि कृष्णायाः स्थितिरेताबदायुषां भवनपतिव्यन्तराणामेव द्रष्टव्या । इत्थं नीलकापोतयोरपि ॥ ४८ ॥ या कृष्णायाः स्थितिः खलुक्यालङ्कारे उत्कृष्टा पल्या CEEVEE VEETE Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसत्रम् ॥११३॥ PRESESVEEVEEVESES RECECECECSET संख्येयभागरूपा 'सा उत्ति' सैष समयाम्यधिका जघन्येन नीलायाः 'पलिश्रमसंखेज्जत्ति' पम्योपमासंख्येयभाग उत्कृष्टा बृहत्तरश्चार्य भागःअध्य०३४ पूर्वस्मादवसेयः ॥ ४६॥ इहापि पूर्वस्मात्पल्योपमासंख्यभागाद् बृहत्तमो भागो ज्ञेयः, शेषं प्राग्वत् ॥ ५० ॥ एवं निकायद्वयभाविनीमाद्य ॥११३॥ लेश्यात्रयस्थिति दर्शयित्वा समस्तनिकायभाविनी तेजोलेश्यास्थितिमभिधानुमाहमुलम्-तेण परं वोच्छामि, तेऊलेसा जहा सुरगणाणं । भवणवइवाणमंतर-जोइसवेमाणिमायां च ॥५१॥ पलिओवमं जहन्ना, उक्कोसा सागरा उ दुण्णहिआ। पलिअमसंखिज्जेणं, होइ तिभागेण तेऊए ॥५२॥ दसवाससहस्साई, तेऊइ ठिई जहन्निा होइ । दुण्णुदही पलिओवम-असंखभागं च उक्कोसा ॥५३॥ व्याख्या-"तेणत्ति" ततः परं प्रवक्ष्यामि तेजोलेश्यां 'यथेति' येन प्रकारेण सुरगणानां स्यात्तथेति शेषः, केषामित्याह-भवनपतिवानमन्तरज्योतिप्कवैमानिकानां, चः पूत्तौं ॥५१॥ प्रतिज्ञातमाह-पल्योपमं जघन्या, उत्कृष्टा द्वे सागरोपमे अधिके, केनेत्याह-पल्योपमासंख्येयेन भागेन भवति तैजस्याः स्थितिः, इयं चास्याः स्थितिवैमानिकानेवाश्रित्यावसेया, तत्र जघन्या सौधर्मे उत्कृष्टा वेशाने । उपलक्षणं चैतत् शेषनिकायतेजोलेश्यास्थितेः, तत्र भवनपतिव्यन्तराणां दशवर्षसहस्राणि जघन्या, उत्कृष्टा तु व्यन्तराणां पल्यं, भवनपतीनां साधिकं सागरं, ज्योतिषां जघन्या पन्याष्टभागः, उत्कृष्टा वर्षलक्षाधिकं पल्यमिति ॥ ५२ ।। अत्र सूत्रे देवसम्बन्धितैजस्याः स्थितिः सामान्येनोक्ता, इह च दशवर्षसहस्राणि जघन्याऽस्याः स्थितिरुच्यते, प्रक्रमानुरूप्येण तु योत्कृष्टा कापोतायाः स्थितिः सैपास्याः समयाधिका जघन्या प्राप्नोति, तदत्र तत्त्वं तद्विदो बदन्तीति ।। ५३ ॥ पनायाः स्थितिमाह GNENetra Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥११४॥ मूलम् - जा तेऊए ठिई खलु, उक्कोसा सा उ समयमभहि । जहणणेणं पम्हाए, दस उ मुहुत्ताहिआईं उक्कोसा ॥५४॥ व्याख्या – अत्र 'सा उत्ति' सैव 'दस उत्ति' दशैव देवप्रस्तावात्सागरोपमाणि 'मुहुत्ताहि आई ति' पूर्वोत्तरभवसत्कान्तर्मुहूर्त्ताधिकानि, इयं च जघन्या सनत्कुमारे, उत्कृष्टा ब्रह्मलोके । श्राह-यदीहान्तमुहूर्त्तमधिकमुच्यते तदा पूर्वत्रापि किं न तदधिकमुक्तं ? उच्यते - देवभवलेश्याया एव तत्र विवक्षितत्वात्, प्रतिज्ञातं हि 'तेरा परं वोच्छामि, लेसाण ठिई उ देवाणंति एवं सतीहान्तमुहूर्त्ताधिकत्वं विरुध्यते, नैवं, यत्र हि पूर्वोत्तरभवलेश्यापि " अंतोमुहुत्तंमि गए, अंतमुहुसंमि सेसए चैवत्ति" वचनादेव भवसम्बधिन्येवेति प्रदर्शनार्थमित्थमुक्तमिति न विरोध इति भावनीयम् ॥ ५४ ॥ शुक्लायाः स्थितिमाह मूलम् - जा पन्हाई ठिई खलु, उक्कोसा सा उ समयमभहिया । जहगणेश सुक्काए, तित्तीसमुहुत्तमम्भहिया ॥५५॥ व्याख्या— 'तित्तीसमुहुत्तमब्भहित्ति' त्रयस्त्रिंशन्मुहूर्त्ताभ्यधिकानि सागरोपमाण्युत्कृष्टेति गम्यते, अस्या जघन्या लान्तकेऽपरा त्वनुतरेष्विति द्वाविंशतिसूत्रार्थः ।। ५५ ।। उक्तं स्थितिद्वारं गतिद्वारमाहमूलम् - किएहा नीला काऊ, तिरिणऽवि एआ उ हमलेसाओ । एहिं तिहिंऽवि जीवो, दुग्गईं उववजइ ॥ ५६ ॥ तेऊ पहा सुक्का, तिरिणऽवि एमा उ धम्मलेसाओ । एहिं तिहिंऽवि जीवो, सुग्गइं उवव eeee अध्य० ३४ ॥११४॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥११शा का अध्य० | ॥११॥ ज्जइ ॥ ५७॥ व्याख्या-अत्र "तिषणवित्ति" तिस्रोऽपि 'अधमलेश्या' अप्रशस्तलेश्याः, 'दुर्गति' नरकतिर्यग्गतिरूपां 'उपपद्यते' प्राप्नोति ॥५६ "धम्मलेसाप्रोत्ति" धर्मलेश्या विशुद्धत्वेनासां धर्महेतुत्वात् , सुगतिं नरगत्यादिकामिति सूत्रद्वयार्थः ॥ ५७ ॥ संप्रत्यायुारावसरस्तत्र चावश्यं जीवो यल्लेश्येषूत्पत्द्यते तल्लेश्य एव म्रियते, तत्र च जन्मान्तरभाविलेश्यायाः प्रथमसमये परभवायुष उदय आहोस्विचरमसमयेऽन्यथा वादकामिति सूत्रद्वयार्थः । 10 ल श्य एव म्रियते, तत्र च || वा ? इति संशयाप LeveceGEE-Veaves-NEGEEE-VEGENEveer मूलम्-लेसाहिं सव्वाहिं, पढमे समयंमि परिणयाहिं तु। न हु कस्सवि उववाओ, परे भवे होइ जीवस्स। लेसाहिं सव्वाहि, चरमे समयंमि परिणयाहिं तु । न हु कस्सवि उववाओ, परे भवे होइ जीवस्स। अंतमुहुत्तमि गए, अंतमुहुत्तमि सेसए चेव । लेसाहिं परिणयाहिं, जीवा गच्छंति परलोगं ॥६॥ | व्या०-जेश्याभिः सर्वामिः प्रथमसमये प्रतिपत्तिकालापेक्षया परिणताभिरात्मरूपतयोत्पन्नाभिरुपलक्षितस्येति शेषः 'तुः' पूरणे 'न हु' नैव कस्यापि 'उपपाद' उत्पत्तिः परे भवे भवति जीवस्य ॥५८॥ तथा लेश्याभिः सर्वाभिः चरमसमये' अन्त्यसमये परिणताभिस्तु नैव कस्याप्युपपादः परे भवे भवति जीवस्य ॥५६॥ कदा तीत्याह-अन्तमुहर्ते गते एव तथान्तमुहर्ते शेषके चैव अवशिष्यमाण एव लेश्याभिः परिणताभिरुपलक्षिता जीवा गच्छन्ति परलोकं, अनेनान्तमु हविशेषे आयुषि परभवलेश्यापरिणाम इत्युक्तम्भवति । अत्र च तिर्यग्मनुष्या आगामिभवलेश्याया अन्तमुहूर्त गते, देवनारकाच स्वभवलेश्याया अन्तमुहूर्ते शेषे परलोकं यान्तीति विशेषः । उक्तं च-"तिरिनर आगामिभव REVEVEVELEVEVEEVEVEREEVE Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चराध्य अध्य० ३४ ॥११६॥ पनसूत्रम् ॥११६॥ గాల అంశాలు लेसाए अइगए सुरा निरया । पुष्वभवलेससेसे, अंतमुहुने मरणमिति' वि स्त्रयार्थः ॥ ६०॥ सम्प्रत्यध्ययनार्थमुपसहरन्नुपदेष्टुमाह- मूलम्-तम्हा एमाण लेसाणं, अणुभागे विआणिआ। अप्पसत्था उ वजित्ता, पसत्था उ अहिटिजासित्ति बेमि ॥ १२॥ __ व्याख्या-यस्मादेता अप्रशस्ता दुर्गतिहेतवः प्रशस्ताश्च सुगतिहेतवः तस्मादेतासां लेश्यानामनुभावं उक्तरूपं विज्ञाय अप्रशस्ता वर्जयित्वा प्रशस्ता 'अधितिप्टेद भावप्रतिपत्त्याश्रयेन्मुनिरिति शेषः, उभयत्रापि 'तुः पूतौ इति सूत्रार्थः ॥ ६१ ॥ इति ब्रवीमीति प्राग्वत् ॥ Bakerdsaasardhafertsexdsakseriferasadixiteraturalerisixexistic । इति श्रीतपागच्छीयमहोपाध्याय श्रीविमलहर्षगणिशिष्यमहोपाध्याय श्रीमुनिविमलगणिशिष्योपाध्याय-है 8 श्रीभावविजयगणिसमर्थितायां श्रीउत्तराध्ययनसूत्रवृत्तौ चतुस्त्रिंशत्तममध्ययनं सम्पूर्णम् ॥३४॥ SHRONICIPAPATRAParXAKSHAMPARACARRIAATHARAMAIRasany Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥११७॥ अध्य०३५ ११७॥ ॥ अथ पञ्चत्रिंशमध्ययनम् ॥ अहम् ।। उक्तं चतुस्त्रिंशमध्ययनमथानगारमार्गगत्याख्यं पञ्चत्रिंशमारभ्यते, अस्य चार्य सम्बन्धः-दहानन्तराध्ययनेऽप्रशस्ता लेश्या- स्त्यक्त्वा प्रशस्ता एवाश्रयणीया इत्युक्त, तच्च गुणवता भिक्षुणा सम्यकत्तुं शक्यमिति इह तद् णा उच्यन्त इति सम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्| मूलम्-सुणेह मेगग्गमणा, मग्गं बुद्ध हिं देसि । जमायरतो भिक्खू , दुक्खाणंतकरो भवे ॥१॥ ___व्याख्या-शृणुत मे वदत इति शेषः, हे शिष्याः ! यूयं 'एकाग्रमनसो'अनन्यचित्ताः, किं तदित्याह-मार्ग मुक्तेरिति प्रक्रमः, 'बु-| द्वैः'अहंदाद्यैर्देशितं, याचरन्'आसेवमानो भिक्षुः दुःखानामन्तकरो भवेत्सकलकर्मनिर्मूलनादिति भावः ॥१॥ प्रतिज्ञातमेवाह| मूलम्-गिहवासं परिच्चज्ज, पव्वज्ज अस्सिए मुणी । इमे संगे विआणेज्जा, जेहिं सज्जंति माणवा ॥२ ___व्याख्या-गृहवासं परित्यज्य प्रव्रज्यामाश्रितो मुनिः इमान् प्रतिप्राणिप्रतीतत्वेन प्रत्यक्षान् सङ्गान् पुत्रकलत्रादीन् विजानीयात् , भवहे| तवोऽमी इति विशेषेणावबुध्येत, ज्ञानस्य च विरतिफलत्वात् प्रत्याचक्षीतेति भावः । सङ्गशब्दव्युत्पत्तिमाह-यैः 'सज्यन्ते' प्रतिबन्धं भजन्ति मानवा उपलक्षणत्वादन्येऽपि जन्तवः ॥ २ ॥ मलम-तहेव हिंसं अलि, चोज्ज अब्बभसेवणं । इच्छाकामं च लोभं च, संजओ परिवज्जए ॥३॥ व्याख्या-तथेति समुच्चये, एवेति पूरणे, हिंसामलीकं चौर्यमब्रह्मसेवनं इच्छारूपः काम इच्छाकामस्तं च अप्राप्तवस्तुवान्छारूपं 'लोभं | च' लब्धवस्तुविषयगृद्धिरूपं अनेनोभयेनापि परिग्रह उक्तस्ततः परिग्रहं च संयतः परिवर्जयेत् ॥ ३ ॥ तथा ST Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनस्त्रम् ॥११॥ ܦܝܤܙܟܕܒܒܠܒܕܩܝܕܩܝܒܝܒܩܬ वा मूलम्-मणोहरं चित्तघरं, मल्लधूवेण वासिअं । सकवाडं पंडरुल्लोअं, मणसावि न पत्थए ॥४॥ इंदिआणि ॥ अध्य० ३५ | उ भिक्खुस्स, तारिसम्मि उवस्सए । दुक्कराई निवारेउं, कामरागविवडणे ॥५॥ सुसाणे सुन्नगारे वा, रू ॥१८॥ | क्खमूले वा एगगो । पइरिक्के परकडे वा, वासं तत्थाभिरोअए ॥६॥ फासुमि अणाबाहे, इत्थीहिं अणभिदुए । तत्थ संकप्पए वास, भिक्खू परमसंजए ॥७॥ न सयं गिहाई कुविज्जा, नेव अन्नेहिं कारवे । का गिहकाम्मसम्मारम्भे, भूआणं दिस्सए वहो ॥८॥ तसाणं थावराणं च, सुहुमाणं बायराण य , गिहकम्म- | समारंभ, संजो परिवज्जए ।।६॥ ___ व्याख्या—'मनोहरं' मनोज्ञं चित्रप्रधानं गृहं चित्रगृहं माल्यधूपेन वासितं सकपाटं पाण्डुरोल्लोचं मनसाप्यास्तां बचसा न प्रार्थयेत् , किं पुनः तत्र तिष्ठेदिति भावः ॥४॥ किं पुनरेवमुपदिश्यते ? इत्याह-इन्द्रियाणि तुरिति यस्माद्भिदोस्तादृशे उपाश्रये 'दुष्कराणि' करोतेः सर्वधात्वर्थव्याप्तत्वात दुःशकानि निवारयितु स्वस्वविषयेभ्य इति गम्यते, 'कामरागविवर्द्धने' विषयाभिष्वङ्गपोषके इत्युपाश्रयविशेषणम् ॥५॥ तहिं वव स्थेयमित्याह-श्मशाने शून्यागारे वा वृक्षमूले वा 'एकको' रागादिवियुक्तोऽसहायो वा 'प्रतिरिक्ते' स्त्र्याधसङ्कले 'परकृते' परैर्निष्पादिते स्वार्थमिति शेषः, वा समुच्चये, 'वासम् अवस्थानं तत्र श्मशानादौ अभिरोचयेद्भिक्षुरिति योगः ॥६॥ 'प्रासुके अचित्तीभूतभूभागे 'अनाबाधे' कस्याप्यावाधारहिते स्त्रीभिरुपलक्षणत्वात् पण्डकादिभिश्च 'अनभिद्रुते'अपिते, तत्र प्रागुक्तविशेषणे श्मशानादौ 'सङ्कल्पयेत्'कुर्याद्वासं भिक्षुः, परमो-मोक्षस्तदर्थ संयतः परमसंयतः। प्राग् वासं तत्राभिरोचयेदित्युक्ते रुचिमात्रेणैव कश्चित्तुष्येदिति तत्र Veevee EEEEveeeeeeeeeeeeeeeee Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥११॥ NEEAVers ܕܦܕܕܦܝܕܦܝܕܦܦܟܦܦܫܬܟܕܩ सङ्कल्पयेद्वासमित्युक्तम् ॥ ७ ॥ ननु ? किमिह परकृत इति विशेषणमुक्तमित्याशंक्याह--न स्वयं गहाणि कुर्वीत नैवान्यैः कारयेदुपलक्षण- अध्य०३५ त्वान्नापि कुर्वन्तमन्यमनुमन्येत, किमिति यतो गृहकर्म इष्टकामृदानयनादि तस्य समारम्भः-प्रवर्त्तनं गृहकर्मसमारम्भः तस्मिन् 'भूतानां' ॥११॥ प्राणिनां दृश्यते वधः ॥ ८॥ कतरेषामित्याह-त्रसाणां स्थावराणां सूक्ष्माणां शरीरापेक्षया बादराणां च तथैव तस्माद्गृहकर्मसमारम्भं । संयतः परिवर्जयेत् ॥ ६ ॥ अन्यच्चमूलम्-तहेव भत्तपाणेसु, पयणपयावणेसु अ। पाणभूयदयट्ठाए, न पए न पयायए ॥१०॥ जलधन्ननिस्सिा पाणा, पुढविकट्ठनिस्सिा । हम्मति भत्तपाणेसु, तम्हा भिक्खू न पयावए ॥ ११॥ विसप्पे | सव्वओ धारे, बहुपाणिविणासणे । नस्थि जोइसमे सत्थे, तम्हा जोइं न दीवए ॥ १२॥ व्याख्या-तथैवेति प्राग्वदेव भक्तपानेषु पचनपाचनेषु च वधो दृश्यते इति प्रागुक्तेन सम्बन्धः, ततः किमित्याह-प्राणास्त्रसा भूतानि पृथिव्यादीनि तद्दयार्थ न पचेत् न पाचयेत् ॥ १०॥ अमुमेवार्थ स्पष्टतरमाह-जले धान्ये च निश्रिता ये तत्रान्यत्र वा उत्पद्य तन्निश्रया स्थितास्ते जलधान्यनिश्रिताः पूतरकेलिकापिपीलिकादयो जीवा एवं पृथ्वीकाष्ठनिश्रिताः, हन्यन्ते भक्तपानेषु प्रक्रमात्पच्यमानेषु, यत एवं तस्मात् भितर्न पाचयेत् , अपेर्गम्यत्वान्न पाचयेदपि कथं पुनः स्वयं पचेत् ? अनुमतिनिषेधोपलवणं चैतत् ॥ ११ ॥ तथा–विसति स्वल्पमपि बहु व्याप्नोतीति विसर्प, सर्वतो धारं सर्वदिकस्थितजीवोपघातकत्वात , अत एव बहुप्राणिविनाशनं नास्ति 'ज्योतिःसम' वन्हितुल्यं शस्त्रं, यस्मादेवं तस्मात् ज्योतिर्न दीपयेत् ॥ १२ ॥ ननु ? पचनादौ जीववधः स्यान तु क्रयविक्रययोस्ततो युक्त एवाभ्यां निर्वाह JEETBEGELE ZAVEZAVE Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FESDADस उत्तराध्य- इति कस्यचिदाशङ्का स्यादिति तदपोहार्थमाह अध्य०३५ पनसूत्रम् | मूलम्-हिरण आयरूवं च, मणसावि न पत्थए । समलेठ्ठ कंचणे भिक्खू, विरए कयविक्कए ॥ १३॥ ॥१२०॥ ॥१२॥ किमांतो कइओ होइ, विकिणांतो अ वाणिो। कयविकयमि वट्टतो, भिक्खू न हवइ तारिसो १४ ॥ भिक्खिअव्वं न केअव्वं, भिक्खुणा भिक्खवत्तिणा। कयविक्को महादोसो, भिक्खावित्ती सुहावहा । समुआणं उंछमेसिज्जा, जहासुत्तमणिदिवे । लाभालाभंमि संतु?, पिंडवायं चरे मुणी ॥ १६॥ अलोले न रसे गिद्धे, जिब्भादंते अमुच्छिए । न रसट्ठाए भुजिज्जा, जवणटाए महामुणी ॥१७॥ व्याख्या-'हिरण्यं कनकं, 'जातरूपं च रूप्यं, चकारोऽनुक्ताशेषधनधान्यादिसमुच्चये, मनसापि न प्रार्थयेद्भिक्षरिति योगः, कीदृशः सन् ? समे प्रतिबन्धाभावात्तुल्ये लेष्टुकाञ्चने यस्य स समलेष्टुकाञ्चनो भितः 'विरतो' निवृत्तः क्रयविक्रये-क्रयविक्रयविषये ॥ १३ ॥ कुत एवमित्याह-क्रीणन् परकीयं च वस्तु मूल्येनाददानः क्रायको भवति, तथाविधेतरलोकसदृश एव स्यात् , विक्रीणानश्च स्वकीयं च वस्तु pil परस्य ददद्वणिग् भवति, वाणिज्यप्रवृत्तत्वादिति भावः । अत एव क्रयविक्रये वर्तमानः प्रवर्त्तमानो भिक्षुर्न भवति तादृशो यादृशः समये ऽभिहितः ॥ १४ ॥ ततः किं कार्यमित्याह-भिक्षितव्यं याचितव्यं तथाविधवस्त्विति गम्यते, न क्रेतव्यं उपलक्षणत्वाच्च नापि विक्रेतव्यं | भिक्षणा भिक्षावृत्तिना, अत्रैवादरख्यापनार्थमाह-क्रयश्च विक्रयश्च क्रयविक्रय महादोषं, लिङ्गव्यत्ययः सूत्रत्वात् , भिक्षावृत्तिः सुखावहा ॥१५ भिक्षितव्यमित्युक्तं तच्चैककुलेऽपि स्यादत आह–'समुदान' भैक्ष्यं तच्च उञ्छमिव उन्छ अन्यान्यगृहेभ्यः स्तोकस्तोकमीलनात् एषयेद्वे लर Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तराध्य नसूत्रम् १२१॥ पयेत् यथासूत्रं आगमार्थानतिक्रमेण उद्गमोत्पादनैषणाद्यबाधात् इति भावस्तत एवानिन्दितं जात्यादिजुगुप्सितजनसम्बन्धि यन्न भवति, तथा लाभालाभे सन्तुष्टः पिण्डस्य पातः पतनं प्रक्रमात् पात्रेऽस्मिन्निति पिण्डपातं चरेदासेवेत मुनिर्वाक्यान्तरविषयत्वाच्च नं पौनरुक्त्यम् १६ इत्थं पिण्डमवाप्य यथा भुञ्जीत तथाह - 'अलोलो' न सरसान्ने प्राप्ते लाम्पत्यवान्, न रसे मधुरादौ गृद्धोऽप्राप्तेऽभिकांक्षावान्, "कुतश्चैवंविधः ? यतः “जिन्भादत्ति" दान्तजिह्वोऽत एवामूर्च्छितः सन्निधेरकरणेन भोजनकाले ऽभिष्वङ्गाभावेन वा । एवंविधश्व 'न' नैव 'रसहात्ति' रसो धातुविशेषः स चाशेषधातूपलक्षणं ततस्तदुपचयः स्यादिति रसार्थं धातूपचयार्थमित्यर्थः न भुञ्जीत, किमर्थ तत्याह-यापनानिर्वाहः स चार्थात् संयमस्य तदर्थं महामुनि जीतेतियोगः ।। १७ ।। तथा मूलम् अच्चां रयणं चेव, वंदणं पूर्ण तहा । इड्डीसक्कारसम्माणं, मणसावि न पत्थर ॥ १८ ॥ व्याख्या – 'अर्चना' पुष्पादिभिः पूजां, 'रचना' निषेद्यादिविषयां स्वस्तिकादिरूपां वा, 'चः' समुच्चये एवोऽवधारणे नेत्यनेन योज्यः, वन्दनं प्रतीतं, 'पूजन' वस्त्रादिभिः प्रतिलाभनं तथेति समुच्चये, ऋद्धिश्व श्रावकोपकरणादिसम्पत्सत्कारश्चार्घदानादिः, सम्मानं चाभ्युत्थानादि ऋद्धिसत्कारसम्मामं मनसाप्यास्तां वाचा नैव प्रार्थयेत् ॥ १८ ॥ किं पुनः कुर्यादित्याहमूलम् - सुक्कं झाणं भित्राएजा, अनि अकिंचणे । वोसट्टकाए विहरेज्जा, जाव कालस्स पजओ १६ व्याख्या – “सुक्कं झाणंति” सोपस्कारत्वात् सूत्रस्य शुक्लं ध्यानं यथा भवति तथा ध्यायेत् अनिदानोऽकिञ्चनः व्युत्सृष्टकायों निप्रतिकर्मशरीरो विहरेदप्रतिबद्धविहारितयेति भावः । कियन्तं कालमित्याह - यावत् 'कालस्य' मृत्योः ' पर्यायः - प्रस्तावो यावज्जीवमित्यर्थः ॥ १६ ॥ प्रान्तकाले चायं यत्कृत्वा यत्फलं प्राप्नोति तदाह EXEEEEEEENG अध्य० ३५ ॥१२१॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य० ३५ ॥१२२॥ ॥१२२॥ उचराध्य- मूलम-निज्जूहिऊण आहार, कालधम्मे उपट्टिए । जाहऊण माणुस बोंदि, पभु दुक्खे विमुच्चइ ॥ २०॥ यनस्त्रम् 2 -म्याख्या-'निज्जूहिऊणत्ति परित्यज्य आहार संलेखनादिक्रमेण 'कालधर्मे आयुःक्षयरूपे उपस्थिते, तथा त्यक्त्वा मानुषी 'बोन्दि' तर्नु मुवीयान्तरापिगमाद्विशिष्टसामर्थ्यवान् 'दुःखेत्ति' दुःखैः शारीरमामसैर्विमुच्यते ॥ २० ॥ कीदृशः सन् दुःखैर्विमुच्यते | इत्याह मलम-निम्ममे निरहंकारे, वीरागें अण्णासवे । 'संपत्ते केवलं नाणं, सासयं परिनिव्वुडेत्ति बेमि ॥२१॥ II व्याख्या-निर्ममो निरहङ्कारः कुतोऽयमीहंग यतो वीतराग उपलक्षणत्वाद्वीतद्वेषश्च, तथा 'अना'"'काश्रवरहितः, संप्रातः केवलं । KAI ने शाश्वतं कदापि विच्छेदाभावात् , परिनृवतोऽस्वास्थ्यहेतुकर्माभावात् सर्वथा स्वस्थीभूत इत्येकविंशतिमूत्रार्थः ॥ २१ ॥ इति अवीमीति प्राग्वत् Palasaritaklaraleritariasatnamalariasisaxdesisticator से इति श्रीतपागच्छीयमहोपाध्याय श्रीविमलहर्षमणिशिष्यमहोपाध्याय श्रीमुनिश्मिलगणिशिष्योपाध्याय-है " श्रीभावविजयगणिसमर्थितायां श्रीउत्तराध्ययमसूत्रकृतौ पञ्चत्रिंशमध्ययनं. सम्पूर्णमः ॥३५॥ SAMAONKALPAPAHARANAKAMAPANEKANATAKAMARPATARIKAssary OREVEVEGVESECEVERERE ܢܐܕܩܕܕܟܬܕܟܟܟܬܕܬܫܬܐܟܩܩܬܩܠܐܟܕܟܟ܂ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनस्त्रमा ॥१२३॥ अध्य० ३६ १२३॥ TOGEVEER GEVGverove ॥ अथ षट्त्रिंशमध्ययनम् ॥ ॥ॐ॥ उक्तं पञ्चत्रिंशमध्ययनमथ जीवाजीवविभक्तिसंझं पट्विंशमारभ्यते, अस वायमभिसम्बन्धोऽनन्तराध्ययने, भिक्षुगुणाः उक्तास्ते च जीवाजीवस्वरूपपरिज्ञानादेवासेवितु शम्बा इति तज्ज्ञापनार्थमिदमारभ्यते इति सम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्मूलम-जीवाजीवधिभर्ति, सुरणेहः मे एगमणाः इओ। जं जाणिऊण भिक्खू , सम्म जयइ.संजमे ॥..१ "व्याख्या-जीवाजीवानां विभक्तिस्तभेद दिदर्शनेन विभामेनावस्थापनं जीवाजीबविभक्तिस्तां शृणुत मे कथयतः इति शेषः, एकमनस क सन्तः, अतोऽनन्तराध्ययनादनन्तरं, या जीवाजीवविभक्ति प्ररूपणाद्वारेणैव ज्ञात्वा भिक्षुः सम्यम् 'यतते' प्रयत्नं कुरुते सुंयमे इति स्वार्थी ॥१॥ जीवाजीवविभक्तिप्रसङ्गादेव लोकालोकबिभक्तिमाहमूलम्- जीवा चेव अजीवा य, एस लोए विभाहिए । अजीक्देसे आगासे, अलोए से विवाहिए ॥ २ ॥ दव्वओ खेत्तओं चेव, कालओ भावओ तहा। परूवणा तेसि भवे, जीवाणं अजीवाण य॥ ३ ॥ ____ व्याख्या—जीवाश्चैव अजीवाश्च एष सर्वप्रसिद्धो लौको व्याख्यातोऽर्हदायैः, अजीवदेश आकाशमलोकः स व्याख्याती धर्मास्तिका यादिरहितस्याकाशस्यैवालोकत्वात् ॥ २॥ इह'च जीवाजीवानां विभक्तिः प्ररूपणाद्वारेणैव स्यादिति तामाई-द्रव्यत इदमियझेदं द्रव्य मिति क्षेत्रतश्चैव इदमियति क्षेत्रे स्यादिति, कालंत इदमियत्वालस्थितिक्रमिति, भावतः इमेस्प पर्यापास्तवेति समुखये इति प्ररूपणा तेषा विभननीयत्वेन प्रक्रान्तानां भवेज्जीवानामजीवानां चेति सूत्रद्वयार्थः ॥ ३॥ तत्राल्पवक्तव्यत्वाद् द्रव्यतोऽजीवप्ररूपणामाह ܝܕܩܠܒܬ݂ܗ݈ܒܨܒܬܕܟܬܕܟܟܬܟܛܛܦܬܦܬܐܦܬܒܬܕܦܝܪ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चराध्य- निक्षत्रम् ।१२४॥ EVAESTEVEEEEEEEEEEEEEEEE मूलम्-रूविणो चेकऽरूवी अ, अजीवा दुविहा भवे । अरूवी दसहा वुत्ता, रूविणोऽवि चउ.विव्हा ॥४॥ अध्य०३६ धम्मस्थिकाए सद्दे से, तप्पएसे अ आहिए। अधम्मे तस्स देसे अ, तप्पएसे महिए ॥५॥ का॥१२४॥ आगासे तस्स देसे अ, तप्पएसे अ आहिए । अद्धासमये चेब, अरूवी दसहा भवे ॥६॥ व्याख्या-रूपिणश्चैव समुच्चये अरूपिणश्च अंजीवा द्विविधा भवेयुः, तत्रारूपिणो दशधा उक्ताः, 'रविणोवित्ति' अपिः पुनरर्थस्ततो रूपिणः पुनश्चतुर्विधाः । अत्राप्यल्पवक्तव्यत्वादेवारूपिणां प्राक् प्ररूपणेति ध्येयम् ॥ ४ ॥ तत्रारूपिणो दशविधानाह-घाश्यत्यनुगहह्णाति | गतिपरिणतान् जीवपुद्गलास्तत्स्वभावतयेति धर्मः, अस्तयः प्रदेशास्तेषां कायः समूहोऽस्तिकायः, धर्मश्चासावस्तिकायश्च धर्मास्तिकायः १ Ell तस्य धर्मास्तिकायस्य देशस्त्रिभागश्चतुर्भागादिः तद्देशः २ तस्य प्रदेशो निर्विभागो भागस्तत्प्रदेशश्च आख्यातः ३ न धारयति जीवाणून गतिपरिणतौ स्थित्ववष्टम्भकत्वादित्यधर्मः स एवास्तिकायोऽधर्मास्तिकायः १ तस्य देशः २ तत्प्रदेश ३ वाख्यातः ॥ ५॥ आङिति मर्याKा दया स्वरूपात्यागरूपया काशन्ते भासन्तेऽस्मिन् पदार्था इत्याकाशं तदेवास्तिकायः आकाशास्तिकायः १ तस्य देशश्च २.. तत्प्रदेशश्वाख्यातः ३ एवं ह अद्धा कालस्तपः समयोऽद्धासमयोऽनिर्विभागत्वाच्चास्य न देशप्रदेशसम्भवः, श्रावलिकाद्यास्तु कालभेदा व्यवहारत एवोच्यन्त इति नेह विवक्षिताः, एवमरूपिणो दशधा भवेयुरिति सूत्रत्रयार्थः ॥ ६ ॥ सस्प्रत्येतानेव क्षेत्रत आह-.... मूलम्-धम्माधम्मे अ दोवेए, लोगमेत्ता विश्वाहिआ । लोपालोए अ अगासे, समए समयखेत्तिए.॥७ । व्याख्या-'धमाधम्मौ च' धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकायौ लोकमात्रौ व्याख्यातौ, लोकेऽलोके चाकाशं सर्वगतत्वात्तस्य, 'समयो' प्र VEEEEEEEEEEEEEEEEEE Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ।। १२५।। द्धासमय: : 'समयक्षेत्रम् ' अर्द्धवतीसी वादियरूपं विषयभूतस्यास्तीति सुसमक्षेत्रिकस्तत्परतस्तस्याभावाद्विति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ स्थानेष कालत आह... मूलम - धम्म धुम्मागासा, तिरिणऽत्रि एए अणाइआ । अपन्जवासच्या चेव, सव्वद्ध ं तु विमा ८ समपति संत, पप्प, पत्रमेव विचाहिए। आए पप्प साइए, सपज्जवसिएवि अ॥६॥ 15 व्याख्या - धर्माधर्म्माकाशानि त्रीण्यप्येतानि अनादिकानि अपर्यवसितानि चैव अनन्तानीत्यर्थः, “सुबद्धं तुति” 'सर्वाद्वामेव ' सर्वदा स्वस्वरूपात्याग्रतो नित्यानीति यावत् व्याख्यातानि ॥ ८ ॥ समयोऽपि 'सन्ततिं' श्रपरापरोत्पत्तिरूपप्रवाहात्मिकां 'प्राप्य' श्रिय 'एवमेव' अनाद्यनन्तलक्षणेनैव प्रकारेण व्याख्यातः, 'आदेश' विशेषं प्रति नियतव्यक्तिरूपं घट्यादिकं प्राप्य सादिकः सपर्यवसितोऽपि चेति सूत्रद्वयार्थः । अथार्ततयाऽमीष पर्यायाः प्ररूप्यमाणा अप्यवबोद्ध दुरशका इति भावतस्तत्प्ररूपणामनादृत्य द्रव्यतो रूपियाः प्ररूपयितुमाहमूलमखंधा, य १ खंधदेसा य २ तप्पएसा ३ तहेव य । परमाणुणो अ बोधव्वा, रूविणो य चउव्विझ व्याख्या -स्कन्धाश्च पुद्गलोपचयापचयलचणाः स्तम्भादयः, स्कन्धदेशाश्च स्तम्भादिद्वितीयादिभागरूपाः तेषां प्रदेशालादेशाः सतम्भादिसम्पृक्तनिरंशांमुसास्तथैव चेति समुच्चये, परमाणवश्च निरंशद्रव्यरूपा बोद्धव्याः, रूपिणच रूपिणः पुनश्वतुर्विधाः ॥ १० ॥ ह च देशप्रदेशात स्वान्तर्भावात् स्कन्धाश्च परमावश्चेति समासतो द्वावेव रूपिद्रव्यभेदौ, तयोश्व किं लचयमित्याह--- मूलम् - एगत्तेण पुहत्तेां, खंधा य परमाणुणो । लोएगदेसे लोए अ, भइअव्वा ते उ खेत्त । अध्य० ३६ ॥१२५॥ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१२६॥ अध्य०३६ ॥१२६॥ इत्तो कालविभागं तु, तेसिं वोच्छं चउल्विहं ॥ ११॥ व्याख्या—'एकत्वेन' पृथग्भूतद्वयादिपरमाणुसंघाततो द्विप्रदेशिकाविलक्षणसमानपरिणतिस्वरूपेण, 'पृथक्त्वेन' परमाण्वन्तरैः सहा- 1 संघातरूपेण बृहत्स्कन्धेभ्यो विचटनात्मकेन वा स्कन्धाश्च लक्ष्यन्त इति शेषः। एतानेव क्षेत्रत आह-'लोएगदेसे' इत्यादि-लोकस्यैकदेशे लोके च 'भक्तव्या' भजनया विज्ञेयाः ते इति स्कन्धाः परमासनश्च, 'तु:' पूरणे, क्षेत्रतः । अत्र चाविशेषोक्तावपि परमाणूनामेकप्रदेश एवावस्थानात् स्कन्धविषयैव भजना द्रष्टव्या । ते हि विचित्रपरिणामत्वेन बहुतरप्रदेशोपचिता अपि केचिदेकप्रदेशे अवतिष्ठन्ते, अन्ये तु संख्येयेष्वेव प्रदेशेषु यावत्कोऽपि सकललोकेपि तथाविधाचित्तमहास्कन्धवत्ततो भजनीया इत्युच्यन्ते । 'इत्तोत्ति' इत इति क्षेत्रप्ररूपणातोऽनन्तरं | 'कालविभागं तु' कालभेदं पुनस्तेषां स्कन्धादीनां वक्ष्ये चतुर्विधं साधनादिसपर्यवसितापर्यवसितमेदेनेति सूत्रार्थः । इदं च सूत्रं षट्पादं, प्रत्यन्तरेषु चान्त्यपादद्वयं न दृश्यतेऽपि ॥ ११ ॥ प्रतिज्ञातमाह| मूलम्-संतई पप्प तेऽणाई, अपज्जवसिआवि अ । ठिई पडुच्च साईआ, सपज्जवसिावि अ । १२ असंखकालमुक्कोस, एगं समयं जहन्नयं । अजीवाण य रूविणं, ठिई एसा विाहिमा ॥१३ अणंतकालमुक्कोस, एगं समयं जहन्नयं । अजीवाण य रूवीणं, अंतरेअं विआहि ॥ १४ व्याख्या-'सन्ततिम्'अपरापरोत्पत्तिरूपां 'प्राप्य' आश्रित्य ते इति स्कन्धाः परमाणवश्च अनादयः अपर्यवसिता अपि च, न हि प्रवाहतस्तद्वियुक्तं जगत् कदाप्यासीत् अस्ति भविष्यति मा । 'स्थिति' प्रतिनियतक्षेत्रावस्थानरूपां प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च, Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्य पनसूत्रम् ॥१२७॥ व्रजन्ति हि कालान्तरे नवनवं क्षेत्रं परमाणवः स्कन्धाश्चेति ॥ १२ ॥ सादिसपर्यवसितत्वेप्येषां कियत्कालं स्थितिरित्याह-असंख्यकालमुत्कृष्टा, एक समयं जघन्यका, अजीवानां रूपिणां स्थितिरेकक्षेत्रावस्थानरूपा एषा व्याख्याता । ते हि जघन्यत एकसमयादुत्कृष्टतोऽसंख्य मध्य०३६ कालादप्यूचं ततः क्षेत्रात्क्षेत्रान्तरमवश्यं यान्तीति ।। १३ ।। इत्थं कालद्वारमाश्रित्य स्थितिरुक्ता, सम्प्रत्येतदन्तर्गतमेवान्तरमाह-स्पष्टं, 6॥१२७॥ नवरं-'अंतरेअंति' अन्तरं विवक्षितक्षेत्रात् प्रच्युतानां पुनस्तत्प्राप्तिव्यवधानं एतत्पूर्वोक्तमिति सूत्रत्रयार्थः । एतान्येव भावतोऽभिधातुमाहमूलम्-वरणओ गंधओ चेव, रसमो फासओ तहा। संठाणओ अ विएणेओ, परिणामो तेसिं पंचहा १५ ॥ वरणओ परिणया जे उ, पंचहा ते पकित्तिा । किण्हा नीला य लोहिआ, हालिद्दा सुक्किला तहा ॥१६॥ गंधो परिणया जे उ, दुविहा ते विमाहिआ। सुन्भिगंधपरिणामा, दुब्भिगंधा तहेव य ॥१७॥ रसमो परिणया जे उ, पंचहा ते पकित्तिमा । तित्त-कडुअ-कसाया, अंबिला महुरा तहा १८॥ फासो परिणया जे उ, अट्टहा ते पकित्तिा । 'कक्खडा-मउआचेव, 'गरुआ-लहुआ तहा ।१६॥ "सीआ-उपहा' य, | निद्धा य, तहा 'लुक्खा य आहिआ । इति फासपरिणया, एए पुग्गला समुदाआ ॥२०॥ संठाणपरिणया | Fll जे उ, पंचहा ते पकित्तिमा । परिमंडला य वट्टा, तसा 'चउरंसमायया ॥२१॥ .......... व्याख्या-वर्षतो गन्धतश्चैव रसतः स्पर्शतस्तथा संस्थानतच विज्ञेयः 'परिणाम स्वरूपावस्थितानामेव वर्णाधन्यथामावस्तेषामणूनां स्कन्धानां च पञ्चधा ॥ १५ ॥ प्रत्येकमेषामेवोत्तरभेदानाह-पत्र कृष्णाः कज्जलादिवत् , नीला हरितादिवत् , लोहिता हिंगुलकादिवत् , YEGEeeeeeeeee Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतराध्य पनसूत्रम् ॥१२८॥ दिवत् अध्य० ३६ ॥१२८॥ 'हरिद्रा:' पीता. इण्द्रिादिवत् शुक्ला संखादिवत् ॥ १६ ॥ सुरभिकान्धपरियानाः श्रीखण्डादिवत्, 'दुरभिगन्धा' दुर्गन्धा ॥ १७ ॥ अत्र विका निम्बादिषद्, रुदकाः शुरुयादिवत्, कमाया बुन्छ्लादिवत्, अम्ला अम्लिकावत्, मथुराः सर्करादिवत् ॥ १८ ॥ कर्कशाः पाषाणादिवत्, बृदको प्रत्तणादिवत्, गुरको हीरकादिवत्, लघवोऽर्कतुतादिचत् ॥ १६ ॥ शीता जलादिवत्, उष्णा दहनादिवत् , स्निग्धा घृतादिवत् रूच्चा रक्षादिवत् ॥ २० ॥ संस्थानानि आकारास्तैः परिणताः संस्थान परिणताः 'परिमण्डलं' मध्यशुषिरं वृत्तं वलयवत्, 'वृत्तं' मध्ये पूरणं झल्लरीवत्, 'त्र्यस्र" त्रिकोणं शृङ्गाटकवत्, 'चतुरस्त्र' चतुष्कोणं वर्यपट्टादिवत्, 'श्रायतं' दीर्घं दण्डादिवत् ॥ २१ अथैषामेवान्योन्यं संवैधमाह २२ मूलम् — वगओ जे भवे किराहे, भइए से उगंध। रस फासओ वेव, भइए संठालो व्याख्या तो यः स्कन्धादिर्भवस्कृष्णो माज्यः 'से उत्ति' स पुनर्मन्यतः सुरभिदुर्गन्धो वा स्थान तु नियतमन्ध एमेति भावः " । एवं रसतः स्पर्शतश्चैव भ्रान्यः; संस्थानतोऽपि च । अन्यतररस्तादियोगादिति तत्त्वम् ।। २२ ।। मूलम्सा जे भवे नीले, भइए से उ गंधच्यो। रसयो फ़ास्सयो चेव, भइए ठानि • वो लोहिए जे उ भइए से उ. गंधयो । रसओ फासओ चेव, भइए संठा पीए जे उ, भइए से उगंध । स्सयो फासच चेव, भइए संठारणचोवि च । २५५ घरको सुकिले में उ भइसे । सो फासो चेव, भइए सठाणओवि । २६ । गंधच्यो जे भवे सुदमी, भइए से । २३ | २४| Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन उ वण्णओ । रसओ फासो चेव, भइए संठाणमोवि अ। २७॥ गंधओ जे भवे दुब्भी, भइए से उ क- उचराध्य अध्य०३६ यनसूत्रम् एणो । रसमो फासो चेव भइए संठाणोवि अ।२८ ॥ रसओ तित्तए जे उ, भइए से उ वएणो। ॥२६॥ ॥१२॥ गंधमओ फासो चेव, भइए संठाणमोवि अ । २६ ॥ रसओ कडुए जे उ; भइए से उ वएणओ। गंधमो फासो चेव, भइए संठाणमोवि । ३०॥ रसओ कसाए जे उ, भइए से उ वरणभो । गंधयो फास ओ चेव, भइए संठाणोवि । ३१ ॥ रसओ अंबिले जे उ, भइए से उ वण्णओ। गंधो फासो - || व, भइए संठाणवि अ। ३२ । रसओ महुरे जे उ, भइए से उ वरणओ। गंधो फासी चेव, भइए । का सटाणोवि अ।३३। फासो कक्खडे जे उ. भडए से उवण्णो । गंधो रसंत्री चेव, भइए सैठाका गोवि । ३४ । फासओ मउए जे उ, भइए से उ वण्णो । गंधो रसओ चेव, भइए संठाणओवि | श्र। ३५ । फासो गरुए जे उ, भइए से उ वण्णओ । गंधो रसओ चेव, भइए संठाणंओवि अ॥३६।। फासमी लहुए में उ, भइए से उ वण्णो । गंधो रसओं चेव, भइए सँठाणोवि मा।३७ । फासी | सोभए उ, भइए से उ वएणों । गंधों रसओ चेव, भइए संठाणेोवि अ । ३८ । फासओ उगहए । | जे उ भैइएं से उ, घण्णंभों। गंधों रसओ चेव, भैइए सँठाणीवि अ । ३६ । फासो निद्धए जै उ, RAI सSE VEGVEEVAS Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्य यनसूत्रम् ॥१३०॥ भइए से 3 वरण | गंधओ रसओ चेव, भइए सठाणओवि । ४० । फासओ लुक्खए जे उ, भइए से उ वण्णओ । गंधओ रसच चेव, भइए संठाणवि । ४१ । परिमंडलसंठाणे, भइए से उ वर । गंध रस चेव, भइए फासओवि अ । ४२ । संठाणच भवे वट्टे, भइए से उ वण्णओ। गंधओ रस चेव, भइए फासवि अ । ४३ । संठाणओ भवे तंसे, भइए से उ वरण | गंध रसओ चेव, भइ फासवि । ४४ । संठाण अ चउरंसे, भइए से उ वरणओ। गंधच रसओ चेव, भइए फास |४५ | जे आययसंठाणे, भइए से उ वरणओ। गंधओ रसच चेव, भइए फासयवि ॥ व्याख्या – इमानि सर्वाण्यपि प्राग्वद्व्याख्येयानि समुदायार्थस्त्वयमेषां तथाहि श्रत्र द्वौ गन्धौ, पञ्च रसाः, अष्टौ स्पर्शाः, पञ्च संस्थानानि, तेषु वर्णपञ्चकं विनाऽन्येऽमी मीलिता विंशतिः, एते चैकेन कृष्णवर्णेन लब्धाः, एवं विंशतिभङ्गान् प्रत्येकं पञ्चापि वर्णा लभन्ते, एवं लब्धं शतं १०० । तथा द्वौ गन्धौ तौ विनाऽन्ये पूर्वोक्ता अष्टादश १८, पञ्चभिर्वर्षैमीलितास्त्रयोविंशतिः २३, ततो गन्धद्वयेन लब्धाः ४६ । एवं रसपञ्चके वर्णगन्धस्पर्शसंस्थानमेदैर्विंशत्या लब्धं शतं १०० । इत्थं स्पर्शाष्टके वर्ण ५ गन्ध २ रस ५ संस्थान ५ मेदैः सप्तदशभिर्लब्धं पट्त्रिंशं शतं ९३६ । एवं संस्थानपञ्चके वर्णादिमेर्दे विंशत्या लब्धं शतं १०० । वर्णादिसर्वभङ्गकमीलने जातानि चत्वारि शतानि द्यशीत्यधिकानि ४८२ ॥ इति 'द्वात्रिंशत्सूत्रार्थः ॥ ४६ ॥ अथोपसंहारद्वारेणोत्तरग्रन्थसम्बन्धमाह १ १५ सूत्रादारभ्य ४६ सूत्रपर्यन्तमवसेयम् ॥ अध्य० ३६ ॥१३०॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१३१॥ अध्य०३६ ॥१३॥ BEVEGEVEGVEGVEEVEE VEETEVEGVEVO all मूलम्-एसा अजीवपविभत्ती, समासेण विाहिआ। एसो जीवविभत्ति, वुच्छामि अणुपुव्वसो ॥४७॥ व्याख्या स्पष्टम् ॥४७॥ प्रतिज्ञातमेवाहमलम-संसारत्था य सिद्धा य, दुविहा जीवा विहिआ। सिद्धाऽणेगविहा वुत्ता, तं मे कित्तयो सुण व्याख्या संसारस्थाश्च सिद्धाश्च द्विविधा जीवा व्याख्याताः, तत्राल्पवक्तव्यत्वादादौ सिद्धानाह-सिद्धाः अनेकविधाः प्रोक्ताः 'तं मेत्ति' तान्मे कीयतः शृणु हे शिष्येति सूत्रार्थः ॥४८॥ सिद्धानामनेकविधत्वमेवोपाधिभेदेनाहमूलम-इत्थी पुरिस सिद्धा य, तहेव य नपुंसगा। सलिंगे अन्नलिंगे अ, गिहिलिंगे तहेव य ॥४६॥ ____ व्याख्या-सिद्धशब्दः प्रत्येकं योज्यः, स्त्रियश्च ते पूर्वभावापेक्षया सिद्धाश्च स्त्रीसिद्धाः, एवं पुरुषसिद्धा, तथैव च नपुंसकसिद्धाः, 'स्व|| लिंगे' साधुवेषे, 'अन्यलिंगे' च शाक्यादिवेषे, 'गृहिलिंगे' गृहस्थवेषे सिद्धास्तथैवेत्युक्तसमुच्चये, चकारोऽनुक्तसिद्धभेदसंसूचक इति सूत्रार्थः | ॥४६॥ अथ सिद्धानेवावगाहनातः क्षेत्रतश्चाहमूलम्-उक्कोसोगाहणाए अ, जहन्नमज्झिमाइ अ। उड्डे अहे भ तिरिमं च, समुद्दमि जलंमि अ५० व्याख्या उत्कृष्टावगाहनायां पञ्चशतधनुर्मानायां सिद्धाः "जहन्नमज्झिमाइ अत्ति" जघन्यावगाहनायां द्विहस्तमानायां, मध्यमावगाहनायां चोक्तरूपोत्कृष्टजघन्यावगाहनान्तरालवर्तिन्यां सिद्धाः, 'ऊर्ध्वम्' ऊर्ध्वलोके मेरुचूलिकादौ, 'अधो' अधस्तादधोलोकेऽधोलौकिकग्रामरूपे, 'तिर्यकच तिर्यग्लोके अर्द्धतीयद्वीपसमुद्रस्यरूपे । तत्रापि केचित्समदे सिद्धाः, 'जले च' नद्यादिसम्बघिनीति सूत्रार्थः ।।५०॥ AAPAARAAAAAAAAAAAAAAADI Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्य यनसूत्रम् ॥१३२॥ इसीलि 'श्रीत्यादिषु सिद्धसम्म उक्तः सम्प्रीति तत्रापि क कियन्तः सिध्यन्तीत्याह मूलम् - दस चेव नपुसेस, वीलई इत्थित्रासु । पुरिसेंसु अ अट्ठसयं, समएरोगेण सिज्मई ॥५१॥ चतर म गिहिलिंगे, अन्नलिंगे दसेव य । सलिंगेां य अट्ठसय, समएरोगेण सिज्झइ ॥५२॥ उक्कोंसोगाहरणाए उ, सिज्झते जुगवं दुवे । चत्तारि जहराणाएं, जवमज्झ ठुत्तरं सयं ॥५३॥ चउरुडुलोए अ दुवे समुद्दे, तो जले वोसमहे तहेव य । सयं च श्रट्ठत्तर तिरिअलोए, समएण एगेण उ सिभई धुवं ॥५४ व्याख्या —– अत्र नपुंसकेषु कृत्रिमेष्वेव नान्येषु तेषां प्रवज्यापरिणामस्याप्यभावात्, 'असयंति' अष्टोत्तरशतम् ॥ ५१ ॥ स्पष्टम् ॥ ५२ ॥ 'जवमज्झत्ति' यवमध्यमिव यवमध्यं मध्यमावगाहना तस्यामष्टोत्तरं शतं यवमध्यत्वं चोत्कृष्टजघन्यावगाहनापेक्षया श्रस्या बहुतरसंख्यात्वेन पृथुलतयैवावभासमानत्वात् ॥ ५३ ॥ चत्वार ऊर्ध्वलोके, शेषं स्पष्टमिति सूत्रचतुष्कार्थः ।। ५४ ।। तेषामेव प्रतिघातादि प्रतिपादनायाह मूलम् - कहिं पहिया सिद्धा, कहिं सिद्धा पइट्टिया । कहिं बोंदि चइत्ता हां, कत्थ गंतूण सिझइ ॥ ५५ ॥ अलोए पहिया सिद्धा, लोअग्गे अपइट्टिया । इहं बोंदिं चइत्ता गं, तत्थ गंतूरा सिज्झइ ॥ ५६ ॥ व्याख्या – क्व 'प्रतिहताः' स्खलिताः सिद्धाः १ क सिद्धाः 'प्रतिष्ठिताः' साद्यनन्तं कालं स्थिताः १ क्व 'बोन्दि' शरीरं त्यक्त्वा १ क गत्वा 'सिज्झइत्ति' सिध्यन्ति निष्ठितार्था भवन्ति १ ५५ ॥ अत्रोत्तरमाह — 'अलोके' केवलाकाशरूपे प्रतिहताः सिद्धाः, तत्र धर्मास्तिका - अध्य० ३६ ॥१३२॥ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य० ३६ ॥१३३॥ याभावेन तेषां गतेरभावात , लोकाग्रे च 'प्रतिष्ठिताः सदावस्थिताः, ननु तिर्यगधो वा तेषां गतिर्भाविनी तत्कथं लोकाये तदवस्थान ? उत्तराध्य उच्यते-अधस्तिर्यग्गत्योः कर्माधीनत्वात् तेषां च क्षीणकर्मत्वान्न तत्सम्भवो यदुक्तं-'अधस्तिर्यगथोवं च, जीवानां कर्मजा गतिः । ऊर्ध्वयनसूत्रम् मेव तु ताद्धा-द्भवति क्षीणकर्मणाम् ॥ १॥" इह तिर्यग्लोकादौ 'बोन्दि' वपुस्त्यक्त्वा तत्र लोकाग्रे गत्वा सिध्यन्ति । इह च यस्मिन्स॥१३३॥ मये देहत्यागस्तस्मिन्नेव मोक्षो लोकाग्रे गतिः सिद्धत्वं च "मुखं व्यादाय स्वपिति" इत्यादिवदिहापि क्त्वाप्रत्ययस्य समानकाल एव प्रयो गादिति सूत्रद्वयार्थः ॥ ५६ ॥ लोकाग्रे गत्वा सिध्यन्ति इत्युक्तं, लोकाग्रं चेषत्प्राग्भाराया उपरीति तत्स्वरूपं सिद्धस्वरूपं चाहमूलम्-बारसहिं जोअणेहिं, सव्वट्ठस्सुवरिं भवे । इसीपब्भारनामा उ, पुढवी छत्तसंठिा ॥ ५॥ पणयालसयसहस्सा, जोषणाणं तु आयया। तावइअं चेव विच्छिण्णा, तिगुणो तस्सेव परिरओ अट्ठजोअणबाहल्ला, सा मज्झमि विआहिआ। परिहायंती चरिमंते, मच्छिपत्ताओ तणुअतरी ५६ अज्जुणसुवगणगमई, सा पुढवी निम्मला सहावेणं। उत्ताणगछत्तसंठिआ य, भणिया जिणवरेहि। संखंककुदसंकासा, पंडुरा निम्मला सुभा। सीआए जोअणे तत्तो, लोअंतो उ विश्राहिओ ॥६॥ व्याख्या-द्वादशभियोजनैः सर्वार्थस्यानुत्तरविमानस्योपरि भवेत् , ईषत्प्राग्भारेति नाम यस्याः सा ईषत्प्राग्भारनामा, 'तुः पूत्तौं पृथिशबी । 'छत्रसंस्थिता' छत्राकारा ॥ ५७॥ पञ्चचत्वारिंशत् शतसहस्राणि-लक्षाणि योजनानां 'तुः पूत्तौं 'आयता' दीर्घा, "तावइयं चेवत्ति" प्र तावतश्चैव शतसहस्त्रान् विस्तीर्णा, त्रिगुणः 'तस्सेवत्ति' तस्मादायामात्परिरयः-परिधिः । इह च त्रिगुण इत्युक्तेऽपि विशेषाधिक्यं द्रष्टव्यम् । XDODARA ܦܬܕܦܝܕܦܦܣܝܝܟܒܝܟܒܝܟܬܒܕܙܕ݂ܟܬ݂ܗ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१३४॥ अध्य०३६ ॥१३४॥ PA INDI ܢܢܣܣܒܩܕܒܒܝܕܒܢܝܦܝܒܒܐ परिरयमानं चैवं-'एगा जोअणकोडि, बायालीसं भवे सयसहस्सा । तीसं चेव सहस्सा, दो चेव सया अउणपण्णत्ति ॥१॥ ५८॥ अ- ष्टयोजनबाहल्या सा 'मध्ये मध्यप्रदेशे व्याख्याता, ततः परि-समन्तात् हीयमाना "चरिमंतेत्ति" 'चरमान्तेषु' सकलदिग्वर्तिपर्यन्तप्रदेशेषु मक्षिकापत्रादपि तनुकतरा। हानिश्चात्र प्रतियोजनमङ्ग लपृथक्त्वस्य ज्ञेया ।। ५६ ॥ 'अर्जुनसुवर्णकमयी' शुक्लकनकमयी सा पृथ्वी निर्मला स्वभावेन नोपाधितः, उत्तानकच्छत्रसंस्थिता पूर्व छत्रसंस्थितेति सामान्येनोक्त, इह तु उत्तानत्वं तद्विशेष इति न पौनरुक्त्यम् ॥६॥ पूर्वार्दू स्पष्टं, "सीआएत्ति" शीतायाः शीताभिधायाः पृथ्व्या उपरीति शेषः, योजने उत्सेधाङ्ग लनिष्पन्ने इति गम्यं, तत इति तस्या लोकान्तस्तुः पूतौ व्याख्यातः ॥ ६१ ॥ ननु यदि योजने लोकान्तस्तर्हि किं तत्र योजने सर्वत्र सिद्धाः सन्ति उत नेत्याहमूलम्-जोअणस्स उ जो तस्स, कोसो उवरिमो भवे । तस्स कोसस्स छब्भाए, सिद्धाणोगाहणा भवे ६२ ॥ तत्थ सिद्धा महाभागा, लोगग्गंमि पइट्ठिा । भवप्पवंचउम्मुक्का, सिद्धिं वरगई गया ॥ ६३ ॥ उस्सेहो जस्स जो होइ, भवम्मि चरिमम्मि अ। तिभागहीणा तत्तो अ, सिद्धाणोगाहणा भवे ६४ एगत्तेणं साईआ, अपज्जवसिावि अ। पुहत्तेण अणईआ, अपज्जवसिआवि अ॥ ६५ ॥ अरूविणो जीवघणा, नाणदंसणसन्निा । अउलं सुहसंपत्ता, उवमा जस्स नत्थि उ ॥६६॥ लोएगदेसे ते सव्वे, नाणदसणसन्निा । संसारपारनित्थिरणा, सिद्धिं वरगई गया ॥ ६७॥ व्याख्या-योजनस्य तु यस्तस्य क्रोश "उवरिमोति" उपरिवर्ती भवेत् तस्य क्रोशस्य पड़भागे द्वात्रिंशदंगुलत्रयस्त्रिंशद्धनुरधिकधनुः Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य अध्य०३६ ॥१३॥ यनसूत्रम् ॥१३॥ शतत्रयरूपे सिद्धानामवगाहना भवेत् ॥६२॥ अवगाहना च चलनसम्भवेऽपि स्यादित्याह-तत्र योजनषड्भागे सिद्धा 'महाभागा' अतिशयाचिन्त्यशक्तयो लोकाग्रे प्रतिष्ठिताः, एतच्च कुतः ? इत्याह--भवा-नारकादिभवास्तेषां प्रपञ्चो-विस्तारस्तेनोन्मुक्ताः सिद्धिं वरगतिं गताः । अयं भावो भवप्रपञ्च एव चलने हेतुः स च सिद्धानां नास्तीति कुतः तेषां चलनमिति ॥६३॥ सिद्धानामवगाहनामाह-'उत्सेध' उच्छयः प्रक्रमा देहस्य "जस्सचि" येषां सिद्धानां य इति यत्परिमाणो भवति भवे चरमे पर्यन्तवर्तिनि 'तुः' पूत्तौं ततश्चरमभवोत्सेधात्रिभागहीना सिद्धानां H यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात् तेषामवगाहना भवेत् त्रिभागस्य शरीरान्तर्विवरपूरणेन कृतार्थत्वात् ॥ ६४॥ एतानेव कालतो निरूपयितुमाह एकत्वेन सादिकाः अपर्यवसिता अपि च, यत्र काले ते सिध्यन्ति तत्र तेषामादिः न च कदाचिन्मुक्तेभ्रश्यन्तीति न पर्यवसानं । पृथक्त्वेन बहुत्वेन सामस्त्यापेक्षयेत्यर्थः अनादिका अपर्यवसिता अपि च, न हि ते कदाचिन्नाभूवन्न भवन्ति न भविष्यन्ति चेति भावः ॥६५॥ एपामेव स्वरूपमाह-'अरूपिणो' रूपरसादिरहिताः, जीवाश्च ते सततोपयुक्ततया घनाश्च शुपिरपूरणनिचितप्रदेशतया जीवघनाः, ज्ञानदर्शने एव संज्ञा जाता येषां ते ज्ञानदर्शनसंज्ञिताः, ज्ञानदर्शनोपयोगानन्यस्वरूपा इत्यर्थः । 'अतुलं' असमं सुखं संप्राप्ताः, उपमा यस्य सुखस्य नास्ति तुः पूतौ ॥६६॥ उक्तग्रन्थे ज्ञातमपि विप्रतिपत्तिनिरासाय क्षेत्रं स्वरूपं च तेषामाह-लोकैकदेशे ते सर्वे इत्येनन सर्वत्र मुक्तास्तिष्ठन्तीति मतमपास्तं, ज्ञानदर्शन संज्ञिता इत्यनेन ज्ञानोच्छेदे मुक्तिरितिमतं निरस्तं, संसारपारं निस्तीर्णाः पुनरागमनाभावलक्षणेनाधिक्येन अतिक्रान्ताः, अनेन तु "ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य, कर्तारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि, भवं तीर्थनिकारतः॥१॥" इति मतमपाकृतं, सिद्धिं वरगतिं गता अनेन क्षीणकर्मणोऽपि स्वभावेनैवोत्पत्तिसमये लोकाग्रगमनं यावत्सक्रियत्वमप्यस्तीति ख्याप्यते, इत्येकादशस्त्रार्थः ॥ ६७ ॥ इत्थं सिद्धानुक्त्वा संसारस्थानाह REVIEVIETATETEVEVEEVEEVE /b Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य- पनसूत्रम् ॥१३६॥ अध्य० ३६ ॥१३६॥ रासससससससस मूलम्-संसारत्था उजे जीवा, दुविहा ते विश्राहिआ। तसा य थावरा चेव, थावरा तिविहा तहिं ॥६॥ पुढवी आउ जीवा य, तहेव य वणस्सई । इच्चेते थावरा तिविहा, तेसिं भेए सुणेह मे ॥ ६ ॥ | व्या०–स्पष्टं ॥६॥ त्रैविध्यमेवाह-स्पष्टम् , नवरं इह तेजोवाय्वोर्गतित्रसत्वेन स्थावरमध्येऽनभिधानम् ॥६६॥ पृथिवीकायिकानाह मूलम्-दुविहा पुढवीजीवा उ, सुहुमा बायरा तहा। पजत्तमपजत्ता, एवमेए दुहा पुणो ॥७०॥ वायरा जे | उ पज्जत्ता, दुविहा ते विआहिआ। सण्हा खरा य बोधव्वा, सण्हा सत्तविहा तहिं ।।७१॥ किण्हा १ नीला २ य रुहिरा ३ य, हालिद्दा ४ सुक्किला ५ तहा। पंडू ६ पणगमट्टीआ ७, खरा छत्तीसईविहा ॥७२॥ पुढवी अ सक्करा वालुगा य उवले सिला य लोणूसे । अय-तंत्र-तउव-सीसग-रुप्प-सुवरणे अ वइरे अ | ॥७३॥ हरिपाले 'हिंगुलए, 'मनोसिला 'सासगंजण पवाले' । 'अब्भपडलब्भवालुअ, बायरकाए मणि विहाणा ॥७४॥ गोमेज्जए' अरुअगे,' अंके फलिहे अ लोहिअखे अ। 'मरगय-मसारगल्ले, भुनश्री मोअग इंदनीले अ॥७॥ चंदण" गेल्य" हंसगब्भ"पुलए सोगंधिए" अ बोधव्वे । "चंदप्पभ''वेरुलिए, "जलकंते "सूरकते अ॥७६॥ व्याख्या-द्विविधाः पृथिवीजीवास्तु सूक्ष्माः सूक्ष्मनामकर्मोदयात् , बादरा बादरनामकर्मोदयात् , 'पज्जत्तमपज्जत्तत्ति' आहारशरीरे ܟܕܟܕܨ@ܓܨܝܒܕܟܕܟܕܟܬܕܦܕܦܛܦܢ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१३॥ अध्य०३६ ॥१३७॥ ANDADADAAAAAA न्द्रियोच्छवासवाग्मनोनिष्पत्तिहेतुदलिक पर्याप्तिस्तद्वन्तः पर्याप्ताः, तद्विपरीता अपर्याप्ताः, एवमेते सूक्ष्मा बादराश्च प्रत्येकं द्विधा पुनः ॥७॥ पुनरेषामेवोत्तरभेदानाह-"सएहत्ति" श्लक्ष्णा चूर्णितलोष्टुकल्या मृदु पृथिवी तदात्मका जीवा अप्युपचारतः श्लक्ष्णा एवमुत्तरत्रापि, खरा कठिना ॥ ७१ ॥ सप्तविधत्वमेवाह-कृष्णा नीला 'रुहिरत्ति' रक्ता हारिद्रा शुक्ला 'पंडुत्ति' पाण्डुः पाण्डुरा ईषच्छुक्लत्ववतीत्यर्थः, इत्थं वर्णभेदेन षड्विधत्वमुक्तं, इह च पाण्डुरग्रहणं कृष्णादिभेदानामपि स्वस्थाने भेदान्तरसम्भवसूचकम् । पनकोऽत्यन्तसूक्ष्मरजोरूपः स एव मृत्तिका पनकमृत्तिका, पनकस्य च नभसि विवर्त्तमानस्य लोके पृवित्वेनारूढत्वाभेदेनोपादानम् । खरा पृथ्वी 'षट्त्रिंशद्विधा' षट्त्रिंशभेदा ॥ ७२ ॥ तानेवाह-'पृथिवी' शुद्धपृथिवी १ 'शर्करा' लघूपलशकलरूपा २ वालुका प्रतीता ३ 'उपलो' गण्डशैलादिः ४ शिला च बट्टा दृषत् ५ 'लवणं' समुद्रलवणादि ६ 'ऊरः' ७ क्षारमृत्तिका ८ अयस्ताम्र इत्रपुक १० सीसक ११ रूप्य १२ सुवर्णानि १३ प्रतीतानि, 'वज' हीरकः १४ ॥ ७३ ॥ हरितालादयः प्रतीताः, 'सासको' धातुविशेषः, अञ्जनं, 'प्रवालं' विद्रुमं, 'अभ्रपटलम्' अभ्रक, 'अभ्रवालुका' अभ्रपटलमिश्रा वालुका । बादरकाये' बादरपृथ्वीकायेऽमी भेदाः। 'मणिविहाणत्ति' चस्य गम्यत्वान्मणिविधानानि च मणि भेदाः ॥ ७४ ॥ मणिभेदानाह-इह च पृथिव्यादयश्चतुर्दश हरितालादयोऽष्टौ गोमेदकादयश्च क्वचित्कथञ्चित्कस्यचिदन्तर्भावाच्चतुर्दशे| त्यामी मीलिताः षट्त्रिंशद्भवन्तीति सूत्रनवकार्थः ।। ७६ ॥ प्रकृतोपसंहारपूर्वकं सूक्ष्मपृथ्वीकायिकानाहमूलम्-एते खरपुढवीए, भेा छत्तीसमाहिआ। एगविहमनाणत्ता, सुहमा तत्थ विआहिआ ॥७॥ सुहुमा य सव्वलोगंमि, लोगदेसे अ बायरा । एत्तो कालविभागं तु, तेसिं वोच्छं चउव्विहं ॥७८॥ संतई पप्पऽणाईआ, अपज्जवसिावि अ । ठिई पडुच्च साईआ, सपज्जवसिआ वि अ॥७॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्ययनसूत्रम् अध्य०३६ ॥१३८॥ ॥१३॥ बावीस सहस्साई, वासाणुकोसिआ भवे । आउठिई पुढवीणं, अंतोमुहुत्तं जहन्नगं ॥८॥ असंखकालमुक्कोस, अंतो मुहुत्तं जहन्नगा । कायठिई पुढवीणं तं कायं तु अमुचओ ॥८१॥ अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नगं । विजढम्मि सए काए, पुढवीजीवाण अंतरं ॥२॥ एएसिं वण्णओ चेव गंधो रसफासो । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥८३॥ व्याख्या-'एगविहंति' सूत्रत्वादेकविधाः, किमित्येवंविधाः १ यतो'अनानात्वा' अमेदाः सूक्ष्माः तत्र पृथ्वीजीवेषु व्याख्याताः ॥७७॥ पृथ्वीकायानेष क्षेत्रत पाह-सूक्ष्माः सर्वलोके, 'लोकदेशे च' रत्नप्रभापृथव्यादौ बादराः । शेषं स्पष्टम् ॥ ७॥ सन्तति' प्रवाहं 'प्राप्य' आश्रित्य अनादिका अपर्यवसिता अपि च पृथ्वीकायिकानां प्रवाहतः कदाप्यसम्भवाभावात् , 'स्थिति भव स्थितिकायस्थितिरूपां प्रतीत्य सादिकाः सपर्यवसिता अपि च ॥ ७९ ॥ 'असंख्यकालम्' असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणोत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूपं 'उकोसंति' उत्कृष्टा, अन्तमुहूर्त जघन्यका कायस्थितिः पृथिवीनां' पृथिवीकायजीवानां 'त' पृथ्वीरूपं कायं 'अमुञ्चमोत्ति' अमुञ्चतां मृत्वा मृत्वा तत्रैवोत्पद्यमानानाम् ।।८०॥८॥ कालान्तर्गतमेवान्तरमाह-'अनन्तकालम' असंख्येयपुद्गलपरावर्तरूपं उत्कृष्टं, अन्तमुहूर्त जघन्यकं "विजढंमित्ति" वक्ते 'स्वके' स्वकीये 'काये' पृथिवीकाये जीवानां अन्तरं । कोऽर्थो जघन्यत उत्कर्षतश्च यथोक्तं कालं पृथिवीजीवोऽन्यकायेषु भ्रान्त्वा पुनः पृथ्विकाये उत्यते इति ॥ २॥ एतानेव भावत आह-स्पष्टं, नवरं-'विधानानि' भेदाः सहस्रश इति अतिबहुतरत्वख्यापनार्थमिति सूत्रसप्तकार्थः ॥८३ ॥ अपकायिकानाह Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१३॥ अध्य०३६ ॥१३॥ VEGEEVEevee ELEVEVE LEGYE मूलम-दुविहा आउजीवा उ, सुहुमा बायरा तहा । पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेए दुहा पुणो ॥४॥ बायरा जे उ पज्जता, पंचहा ते पकित्तिा । सुद्धोदए अ उस्से, हरतणु महिआवि अ ॥५॥ एगविहमनाणत्ता, सुहुमा तत्थ विआहिआ। सुहुमा सव्वलोगम्मि, लोगदेसे अ बायरा ॥८६॥ संतई पप्पऽणाईआ, अपज्जवसिावि अ । ठिई पडुच्च साईआ, सपज्जवसिावि अ॥८॥ सत्तेव सहस्साई, वासाणुक्कोसिआ भवे । आउठिई आऊ, अंत्तोमुहत्तंजहन्निा ॥८॥ असंखकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्निया । कायठिई आऊ, तं कायं तु अमुचओ ॥८६॥ अणंतकालमुक्कोस, अंतोमुहुत्तं जहन्नगं । विजढम्म सए काए, आऊजीवाण अंतरं ॥१०॥ एएसिवण्णो चेव, गंधो रसफासओ । संठाणदेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥ १॥ व्याख्या-'शुद्धोदक' जलदजलं 'उस्सेत्ति' अवश्यायः शरदादिषु प्राभातिकः सूक्ष्मवर्षों 'हरतनुः प्रातः स्निग्धपृथ्वीभवस्तृणाग्रजलबिन्दुः, 'महिका" गर्भमासेषु सूक्ष्मवर्षों 'घूमर' इति प्रतीता, हिमं प्रसिद्धम् ॥८४ ॥८५ ॥ अमूनि प्राग्वत् व्याख्ययेयानि ॥८६॥८७॥८८॥८६॥६०॥ ११॥ अथ वनस्पतिकायिकानाहमूलम्-दुविहा वणप्फईजीवा, सुहुमा बायरा तहा । पज्जत्तमपज्जत्ता, एवमेए दुहा पुणो ॥२॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य० ३६ उत्तराध्यपनसूत्रम् ॥१४॥ ॥१४०॥ बायरा जे उ पज्जत्ता, दुविहा ते विवाहिआ । साहारणसरीरा य, पत्तेगा य तहेव य ॥१३॥ पत्तेअसरीरा 3, णेगहा ते पकित्तिा । रुक्खा गुच्छा य गुम्मा य, लया वल्ली तणा तहा ॥४॥ वलयलया पव्वगा कुहणा, जलरुहा ओसही तहा। हरिप्रकायाय बोधव्वा, पत्ते इति आहि । व्याख्या-अत्र 'साहारणसरीरा यत्ति' साधारणमनन्तजीवानामप्येकं शरीरं येषां ते साधारणशरीराः, 'पचेगा यत्ति' प्रत्येकशरीराश्च प्रत्येकं भिन्नभिन्नशरीरवन्तः ॥ १२ ॥ ३॥ अत्र 'रुक्खत्ति' वृक्षाः चूतादयः॥१॥ गुच्छा वृन्ताकिप्रमुखाः॥२॥ गुल्मा नवमालिकाद्याः ॥३॥ लताश्चम्पकलतामुख्याः ॥४॥ वल्ल्यत्रपुषीप्रभृतयः॥ ५॥ तृणानि जुञ्ज कार्जुनादीनि ॥ ६॥ १४ ॥ 'वलयलयत्ति' लतावलयानि-नारिकेलीकदल्यादीनि, तेषां हि शाखान्तराभावेन लतात्वं वलयाकारत्वेन च वलयत्वं ज्ञेयम् ॥ ७॥ पर्वाणि-सन्धयस्तेभ्यो जाताः पर्वजा इनुप्रमुखाः ॥ ८॥ कुहणा-भूमिस्कोटाश्छत्राकाराः ॥ ६ ॥ जलरुहा:-पद्माद्याः ॥ १०॥ ओपध्यः-फलपाकान्ताः शाल्यादयः ॥ ११ ॥ तथेति समुच्चये, हरितान्येव काया येषां ते हरितकायाः तन्दुलीयकाद्याः ॥ १२ ॥ चशब्दः स्वगतानेकभेदसूचकः ॥६॥ साधारणानाहमूलम्-साहारणसरीरा उ, णेगहा ते पकित्तिा । आलूए मूलए चेव, सिंगबेरे तहेव य॥६६ हिरिली सिरिली सिस्सिरिली, जावईकेअकंदली । पलंडू लसण कंदे कंदली अ कुहुव्वए ॥ १७ १ "येषां ते” इतिपाठो 'घ' पुस्तके नास्ति ।। BIRRISeeeeeeलहर Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१४॥ AAAAAAAAAA लोहणी हुन थीह अ, कुहगा य तहेव य । कण्हे अ वज्जकंदे अ, कंदे सूरणए तहा ॥ ६८ मध्य० ३६ अस्सकएणी अ बोधव्वा, सीहकरणी तहेव य । मुसुढी अ हलिद्दा य, णेगहा एवमायओ ॥EE MEN ॥१४१॥ व्याख्या-एते आलुकाद्या हरिद्रापर्यन्ता प्रायः कन्दविशेपास्तत्तद्देशप्रसिद्धाः॥ १६ ॥ १७ ॥ ६ ॥ ६ ॥ मूलम्-एगविहमनाणत्ता, सुहमा तत्थ विआहिआ। सुहमा सव्वलोगंमि, लोगदेसे अ बायरा ॥१०॥ संतई पप्पऽणाईआ, अपजवसिावि अ। ठिई पडुच्च साईआ, सपज्जवसिआ वि अ॥१०॥ दस चेव सहस्साइं, वासाणुकोसि भवे । वणस्सईण आउं तु, अंतोमुहुत्तं जहन्नगं ॥१०२॥ अणंतकालमुक्कोसा, अंतोमुहत्तं जहण्णगा। कायठिई पणगाणं, तं कायं तु अमुचओ ॥१०॥ असंखकालमुक्कोसं, अंतोमुहत्तं जहन्नगं । विजढम्म सए काए, पणगजीवाण अंतरं ॥१०४॥ एएसिं वण्णो चेव, गंधओ रसफासो । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥१०॥ इच्चेते थावरा तिविहा, समासेण विभाहिआ। एत्तो उ तसे तिविहे, वोच्छामि अणुपुव्वसो॥१०६ । व्याख्या-सूक्ष्माणां सर्वेषामेकविधत्वं साधारणशरीरत्वात् ॥१०॥ अत्र ज्येष्ठं आयुः प्रत्येकशरीरपर्याप्तवादरवनस्पतीनामेव, तदितरेषां तु तेषां सर्वेषामपि जघन्यमेव, एवं पूर्वोक्तयोः पृथ्वीकायाप्काययोः वक्ष्यमाणयोश्च तेजोवाय्वोः पर्याप्तबादराणामेव ज्येष्ठस्थितिर्भवतीति । Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उधराध्ययनसूत्रम् ॥१४२॥ ध्येयम् ॥ १०१ ॥ १०२ ॥ श्रत्र "पणमाति" 'पनकानां' पनकोपलक्षितानां वनस्पतीनां, इह च सामान्येन वनस्पतिजीवान्निगोदान् वाश्रित्यानन्तकालमुच्यते, विशेषविवक्षायां तु प्रत्येकतरुबादरनिगोदयोरुत्कृष्टा कायस्थितिः सप्ततिकोटाकोटिसागरमाना, सूक्ष्मनिगोदानां च स्पृष्टव्यवहारराशीनामसंख्येयकालमामेति ॥ १०३ ॥ इह हि काश्विद्वनस्पतिभ्यो निर्गत्य पृथ्व्यादिषु भ्रान्त्वा भूयस्तत्रासंख्यकालादेवोत्पद्यते, वनस्पतिं विना सर्वेषामपि कायस्थितेरसंख्येयत्वादत एवोत्कृष्टमप्यन्तरमसंख्यकालमानमेवोक्तम् ॥ १०४ ॥ १०५ ॥ प्रकृतमुपसंहरन्नुतरग्रन्थसम्बन्धमाह ।। इत्येते ऽनन्तरोक्ताः स्थावरास्त्रिविधाः समासेन संक्षेपेण व्याख्याताः श्रतः स्थावरविभक्तेरनन्तरं तु पुनस्त्रसांस्त्रिविधान् वक्ष्यामि चानुपूर्व्येति सूत्रपञ्चदशकार्थः ॥ १०६ ॥ मूलम् - ते वाऊ अ बोधव्वा, उराला य तसा तहा । इच्चेते तसा तिविहा, तेसिं भेए सुरोह मे ॥ १०७ दुविहा ते जीवा उ, सुहुमा बायरा तहा । पज्जत्तमपज्जत्ता, एत्रमेए दुहा पुणो ॥ १०८ ॥ बायरा जे उपज्जता, रोगहा ते पकित्तिया । अंगारे मुम्मुरे अगणी, अच्ची जाला तहेव थ ॥१०६ उक्का विज्जु बोधव्वा, रोगहा एवमाइयो । एगविहमनारणत्ता, सुहुमा ते विचहिया ॥ ११०॥ हुमा सव्वलोम्मि, लोगदेसे अ बायरा । एतो कालविभागं तु, तेसिं वोच्छं चउव्विहं ॥ १११ ॥ संत पप्पऽणाईआ, अपज्जवसियावि । ठिइं पडुच्च साईया, सपज्जवसिश्रावि ॥ ११२ ॥ तिण्णेव अहोरत्ता, उक्कोसेण विश्राहिमा । आउठिई तेऊणं, अंतोमुहुत्तं जहन्ना ॥ ११३ ॥ अध्य० ३६ ॥१४२॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्सराध्ययनसूत्रम् ॥१४३॥ अध्य० ३६ ॥१४३॥ CEVEREVEVEYE FEEVEEVerever असंखकालमुक्कोसा, अंतोमुहत्तं जहन्नगा । कायठिई तेऊणं, ते कार्य तु अमुचओ ॥ ११४॥ अणंतकालमुक्कोस, अंतोमुहत्तं जहन्नगं । विजढंमि सए काए, तेऊजीवाण अंतरं ॥ ११५ ॥ एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥११६॥ व्याख्या तेजोयोगात्तेजांस अग्नयो वायवश्व बोधव्याः, उदारा एकेन्द्रियापेक्षया प्रायः स्थूला द्विन्द्रियाद्या इत्यर्थः, चः समुच्चये, प्रसास्तथा तेनागमोक्तप्रकारेण इत्येते त्रस्यन्तीति चलन्तीति त्रसास्त्रिविधाः । तत्र तेजोवायूनां स्थावरनामकर्मोदयेऽपि गत्यपेक्षया त्रसत्वं, द्वीन्द्रियादीनां च सनामकर्मोदयवतां लब्धितोऽपि प्रसत्वं, तेषां भेदान् शृणुत मे कुर्वत इति शेषः ॥ १०७ ॥ तत्र तेजोजीवानाहअत्राङ्गारो धूमज्वालाहीनो दह्यमानेन्धनात्मको भास्वरस्वरूपः, 'मुम्मरो' भस्ममिश्रामिकणरूपः, 'अग्निः' उक्तभेदातिरिक्तो बन्हिः, 'अचिर मूलप्रतिबद्धाग्निशिखा, 'ज्वाला' छिन्नमूला सैव ॥१०८॥१०६॥ अत्रोल्का विद्युच्च नभसि समुत्पन्नोऽग्निः ॥११०॥११०॥ वायुजीवानाहमूलम्-दुविहा वाउजीवा उ, सुहुमा बायरा तहा। पज्जत्तमपज्जता, एवमेए दुहा पुणो ॥११७॥ बायरा जे उ पज्जत्ता, पंचहा ते पकित्तिआ। उक्कलिआ मंडलिआ, घण गुञ्जा सुद्धवाया य ११८ संवदृगवाए अ, णेगहा एवमायो । एगविहमनाणत्ता, सुहुमा ते विवाहिआ ॥११६॥ मुहुमा सव्वलोगंमि, लोगदेसे अ बायरा । एत्तो कालविभागं तु, तेसिं वोच्छं चउन्विहं ॥१२०॥ VEGVGVEZEeeeeVEVGVEZEVEEVEEVEE Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य वामध्य० ३६ | ॥१४४॥ पनसूत्रम् ॥१४४॥ PereGAR संतई पप्पऽणाईआ, अपज्जवसिआवि । ठिई पडुच्च साईआ, सपज्जवसिमावि अ॥१२१॥ तिण्णेव सहस्साई, वासाणुक्कोसिआ भवे । आऊठिई आऊणां, अंतोमुहुत्तं जहन्निा ॥ १२२॥ असंखकालमुक्कोसा, अंतोमुहुत्तं जहन्निया । कायठिई वाऊ, तं कायं तु अमुचओ ॥ १२३॥ अणंतकालमुक्कोस, अंतोमुहत्तं जहन्नयं । विजढंमि सए काए, वाउजीवाण अंतरं ॥ १२४ ॥ एएसिं वगणो चेव, गंधो रसफासओ। संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥१२५॥ व्याख्या-'पंचहत्ति' पञ्चधेत्युपलक्षणं, अत्रैवास्याऽनेकधेत्यभिधानात् । 'उत्कलिका वाता' ये स्थित्वा २ वान्ति, 'मण्डलिका वाता' वातोलीरूपाः, 'घनावाता' रत्नप्रभाधाधाराः, 'गुञ्जावाता' ये गुञ्जन्तो वान्ति, 'शुद्धवाताः' सहजवाता मन्दानिलादयः ॥११८ ॥ 'संवतंकवाता' ये बहिः स्थितमपि तृणादि विवक्षितक्षेत्रान्तः क्षिपन्ति ॥ ११६ ॥ उदारत्रसानाहमुलम-उराला य तसा जे उ, चउहा ते पकित्तिा । बेइंदिअ तेइंदिअ, चउरो पंचिंदिआ चेव ॥१२६॥ बेइंदिआ उ जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिा । पज्जत्तमपज्जत्ता, तेसिं भेए सुणेह मे ॥१२७॥ किमिणो मंगला' चेव, अलसा माइवाहया । वासीमुआ सीप्पिा, संखा संखणया तहा पलोगाणुलयाचेव, तहेव य वराडगा । जलूगा जालगा चेव, चंदणा य तहेव य ॥ १२६ ॥ १ "सोमङ्गला" इति पाठो 'घ' संज्ञकपुस्तके । MENENANENARAVEENENANEN Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् || १४५|| acaex मूलम् — इंदिया एए रोगहा एवमायो । लोएगदेसे ते सव्वे, न सव्वत्थ विमाहिया ॥१३०॥ संतई पप्पऽणाईभा, अपज्जवसियावि अ । ठिई पडुच्च साईआ, सपज्जवसियावि ॥ १३१ ॥ धासाई बारसेव उ, उक्कोले विमाहिया । बेइदिम भाउठिई, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥१३२॥ संखेज्जकालमुक्कोसा, तोमुहुत्तं जहन्निया । बेइंदिकायठिई, तं कार्यं तु श्रमुचो ॥१३३॥ अांतकालमुक्कोसं, अंतोमुहत्तं जहगणयं । बेइंदियाण जीवाणं, अंतरेचं विमाहि ॥ १३४ ॥ एएसिं वण्णओ चेव, गंध रसफास । संठाणादेस वावि, विहाणारं सहस्तसो ॥१३५॥ व्याख्या - अत्र 'चउरोति' चतुरिन्द्रियाः ॥ १२६ ॥ द्वीन्द्रियानाह — श्रत्र क्रमयोऽशुच्यादिजाताः, मातृवाहका ये काष्ठशकलानि समोभयाग्रतया सम्बन्धन्ति, वास्याकारमुखा वासीमुखाः, 'सिप्पीअत्ति' शुक्तयः, 'शंखनका' लघुशंखाः, 'चन्दनका' अचाः, शेषास्तु केचित्प्रसिद्धाः केचित्तु यथासम्प्रदायं वाच्याः इति ॥ १२७ ॥ १२८ ॥ १२६ ॥ १३५ ॥ त्रीन्द्रियानाह - मूलम् - तेईदिना उ जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिया । पज्जत्तमपज्जत्ता, तेसिं भेए सुरोह मे ॥ १३६ ॥ ॐ पिपील उद्दसा, उक्कलुद्दे हिचा तहा । तणहारकट्ठहारा, मालुगा पत्तहारगा ॥१३७॥ कप्पासट्ठिमिंजा य, तिंदुगा तउसमिंजगा । सदावरी अ गुम्मी अ, बोधव्वा इंदकाइया ॥१३८॥ अव्य० ३६ ॥ १४५॥ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य० ३६ उचराध्यपनसूत्रम् ॥१४६॥ ॥१४६॥ इंदगोवगमाइमाऽणेगहा एवमायओ। लोएगदेसे ते सव्वे, न सव्वत्थ विवाहिआ ॥१३६॥ संतई पप्पडणाईना. अपज्जवसिमावि . ठिई पडच साईआ. सपज्जवसिवि ॥१७॥ एगणपण्णहोरत्ता, उक्कोसेण विहिआ । तेइंदिअाउठिई, अंतोमुहुत्तं जहरिणा ॥१४॥ संखेज्जकालमुक्कोसा, अंतोमुहुत्तं जहन्निा । तेइंदिअकायठिई, तं कायं तु अमुचओ ॥१४२॥ अपांतकालमुक्कोसं, अंतोमुहत्तं जहन्नगं । तेइंदिअजीवाणं, अंतरे विश्राहिमं ॥१४॥ एएसिं वण्णओ चेव, गंधो रसफासओ । संठाणादेसो वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥१४४॥ व्याख्या-इह कुन्थुप्रमुखाः केचित्प्रतीताः, 'गुल्मी' शतपदी, केचित्तु यथासम्प्रदायं ज्ञेयाः ।। १३६ ॥ चतुरिन्द्रियानाहमूलम-चउरिदिआ उ जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिा । पज्जत्तमपज्जत्ता, तेसिं भेए सुणेह मे ॥१४५ अंधिआ पोत्तिा चे व, मच्छिा मसगा तहा । भमरे कीडपयंगे अ, ढिंकुणे कुकुणे तहा १४६ कुक्कुडे सिंगिरीडी अ, नंदावत्ते भ विच्छिए । डोले भिंगिरीडी अ, विरिली अच्छिवेधए ॥१४७ अच्छिले माहए अच्छिरोडए विचित्ते चित्तपत्तए। ओहिंजलिमा जलकारि अनीआ तंबमावि मा चतुरिंदिया एएऽणेगहा एवमायभो । लोगस्स एगदेसंमि, ते सव्वे परिकित्तिमा ॥ १४६ ॥ । । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१४७॥ संत पप्पऽणाई, अपज्जवसिवि छ । डिं पडुच्च साईआ, सपज्जवसिवि ॥ १५० ॥ छच्चेव य मासाऊ, उक्कोसेण विचहिया । चउरिंदि माऊठिई, अंतोमुहुत्तं जहरिण १५१ संखेज्जकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नगं । चउरिंदियकायटिई, तं कार्यं तु अमु च ॥१५२॥ अांतकालमुक्कसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नगं । चउरिंदियाण जीवाणं, अंतरे विमाहि ॥ १५३॥ एएसिं वण्णओ चेव, गंध रसफास । संठाणादेस वावि, विहाणाइ सहस्तसो ॥ १५४ ॥ व्या० - एतेष्वपि केपि प्रतीताः केचित्तु यथासम्प्रदायं तत्तदेशप्रसिद्धया वा वाच्याः || १४५ || १४६ ॥ १४७ ॥ १४८ ॥ पंचेन्द्रियानाहमूलम् — पंचिंदिया उ जे जीवा, चउव्विहा ते विचहिया । नेरइया तिरिक्खा य, मरणुआ देवाय श्रहिआ नेरईआ सत्तविहा, पुढवीसु सत्तसु भवे । रयणाभसक्कराभा, वालुआभा य आहि ॥ १५६ ॥ पंकाभा धूमाभा, तमा तमतमा तहा । इति नेरइया एते, सत्तहा परिकित्तिया ॥ १५७॥ लोगस्स एगदेसम्म ते सव्वे उ विमाहि । इत्तो कालविभागं तु, तेसिं वोच्छं चउव्विहं १५८ संतङ्गं पप्पऽणाईचा, अपज्जवसियावि । ठिई पडुच्च साईआ, सपज्जवसियावि अ ॥१५६॥ कमाख्या--नैरयिकानाह – नैरयिकाः सप्तविधाः किमिति १ यतस्ते पृथ्वीषु सप्तसु भवेयुः ततस्तद्भेदास्तेषां सप्तविधत्वमिति भावः । अध्य० ३६ 1128011 Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यनसूत्रम् ॥१४८॥ का पुनस्ता इस्याह-'स्यणाभत्ति' रत्नानां रत्नकाण्डस्थितानां भवनपतिभवनस्थानां च प्रामा प्रभा यत्र सा रत्नामा १ एवं सर्वत्र शर्करामध्य०३६ लघुपाषाणखण्डरूपा तदाभा २ वालुकामा ३ पङ्कामा ४ धूमामा तत्र धूमाभावेऽपि तत्तुल्यपुद्गलपरिणामसम्भवात् ५ 'तमति' तमप्रमा ॥१४॥ तमोरूपा ६ तमस्तमःप्रभा महातमोरूपा ७ ॥१५७ ॥ लोकैकदेशे अधोलोकरूपे ॥१५८ ॥ मूलम्—सागरोवममेगं तु, उक्कोसेण विभाहिआ। पढमाए जहएणेगां, दसवाससहस्सिा ॥१६०॥ तिगणेव सागराऊ, उक्कोसेण विभाहिआ। दोच्चाए जहणणेणं, एगं तु सागरोवमं ॥१६॥ सत्तेव सागराऊ. उक्कोसेण विमाहिआ। तइआए जहन्नेणं, तिपणेव उ सागरोवमा ॥१६॥ दस सागरोवमाऊ, उक्कोसेण विआहिमा। चउत्थीए जहन्ने, सत्तेव उ सागरोवमा ॥१६३॥ सत्तरस सागराऊ, उक्कोसेण विहाहिआ। पंचमाए जहन्नेणां, दस चेव उ सोगरोवमा ॥१६॥ बावीस सागराऊ, उक्कोसेण विश्राहिआ । छट्ठीए जहन्नेणं, सत्तरस सागरोवमा ॥१६५॥ तेत्तीस सागराऊ, उक्कोसेण विश्राहिमा । सत्तमाए जहन्नेणं, बावीसं सागरोवमा ॥१६६॥ जा चेव उपाऊठिई, नेरईआणं विनाहि । सा तेसिं कायठिई, जहण्णुकोसिमा भवे ॥१६७१ अणंतकालमुक्कोस, अंतोमुहुत्तं जहएणगं । विजढंमि सए काए, नेरइमाणं तु अंतरं ॥१६॥ JANNENANENAVATNENE Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NO मध्य० ३६ उत्तराध्ययनस्त्रम् ॥१४॥ ॥१४॥ एएसिं वण्णमओ चेव, गंधमो रसफासो । संठाणादेसओ वावि, विहाणाइ सहस्ससो ॥१६॥ व्याख्या अत्र सर्वत्रापि स्थितिरिति शेषः ॥ १६० ॥ या चैव आयुः स्थितिनैरयिकाणां व्याख्याता सा तेषां कायस्थितिर्जघन्योत्कृष्टा च भवेत् , तेषां हि तत उद्धृत्तानां गर्भजतिर्यग्मनुष्येष्वेवोत्पाद इति ॥ १६१, १६२, १६३, १६४, १६५, १६६, १६७॥ अत्रान्तमुहुत्तं जघन्यान्तरं, यदा कोऽपि नरकादुत्य गर्भजपर्याप्तमत्स्येपुत्पद्यान्तमुहुर्तायुः प्रपूर्य क्लिष्टाध्यवसायवशात् पुनर्नरके एवोत्पद्यते तदा लभ्यत इति भावनीयम् ॥ १६८ ॥ तिरश्च आहमूलम्-पंचिंदिअतिरिक्खा उ, दुविहा ते विहिआ। समुच्छिमतिरिक्खा य, गब्भवक्कंतित्रा तहा १७० दुविहावि ते भवे तिविहा, जलयरा थलयरा तहा। खहयरा य बोधव्वा, तेसिं भेए सुणेह मे १७१ मच्छा य कच्छभा य, गाहा य मगरा तहा। सुसुमारा य बोधव्वा, पंचहा जलचराहिआ ॥१७२ लोएगदेसे ते सव्वे, न सव्वत्थ विआहिआ । एत्तो कालविभागं तु, तेसिं वोच्छं चउब्विहं ॥१७३ संतई पप्पऽणाईमा, अपज्जवसिआवि अ । ठिइं पडुच्च साईआ, सपज्जवसिावि अ॥१७४॥ एगा य पुव्वकोडी उ, उक्कोसेण विभाहिआ। आउठिई जलयराणं, अंतोमुहुत्तं जहरिणा ॥ पुवकोडिपुहुत्तं तु, उक्कोसेण विआहिया । कायठिई जलयराणं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं ॥१७६॥ A AAAAAA Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१५॥ ॥१५॥ अशांतकालमुक्कोस, अंतोमुहसं जानन विजहमि-सप, कार, जलयरावां तु अंतर ॥१७॥ अत्र संमच्छिमतिनो मनोहीनाः संमर्छनजन्मानः, गमें व्यत्रान्तिरुत्पत्तिर्येषां ते गर्भपळान्तिका गर्भजा इत्यर्थः का॥१७०॥ द्विविधा अपि ते संमूछिमा गर्भजाश्चेत्यर्थः भवेयुस्विविधाः, जलचराः स्थलचराः खचराश्च ॥ १७१ ॥ जलचरानाह 'गाहत्ति' ग्राहाः जलचरविशेषास्तन्तव इति प्रसिद्धाः, 'सुसुमारा' मकरविशेषा एव ॥ १७२ ।। इह स्थितिः संमूछिमानां गर्भजाना च तुल्यैव ॥ १७५ ॥ पूर्वकोटीपृथक्त्वं द्विप्रभृत्यानवम्यः, तत इहाष्ट पूर्वकोटयः कायस्थितिजलचराणां, इयती चैषां कायस्थितिरित्थं स्यात्, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्नृणां उत्कृष्टतोऽप्यष्टै निरन्तरा भवा मवन्ति तदायुमखिने च एतावत्य एवं पूर्वकोत्यः स्युन चैतेषु मुगलिनः स्युर्यलोक्ता विरोधः स्यादिति ॥ १७६ ॥ स्थलघरानाहमूलम-चउप्पया य परिसप्पा, दुविहा थलयरा भवे । उप्पया घरविहा, ते मे कित्तयो सुण ॥१७८ एगखुरा दुखुरा चेव, गंडीपय सणप्पया । हयमाई गोणमाई, गयमाई सीहमाइणो ॥१७६॥ भुमोरपरिसप्पा उ, परिसप्पा दुविहा भवे । गोहाई महिमाई अ, एकेकाऽवेगह्म भवे १en लोएगदेसे ते सव्वे, न सव्वत्थ विश्राहिमा। एसो कालविभामं तु, लेसि वोच्छ उनिहं ॥१८१ संतई पप्प णाईआ, अपज्जवसिावि अ । ठिई पडुच्च साईश्रा, सपज्जवसिावि अ॥१८॥ पलिओवमा उ तिमिण 3, उक्कोसेण विश्राहिना । आउठिई थलयराणं, अंतोमुहुत्तं जहरिणमा Nee Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य० ३६ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१५॥ ॥१५॥ पलिओवमाई तिरिण उ, उक्कोसेण विभाहित्रा । पुवकोडीपुडुत्तेणं, अंतोमुहुत्तं जहन्निा १८४ कायठिई थलयस, अंतर तेसिमं भवे। कालं अणंतमुक्कोस, अंतोमुहुरा जहन्नगं ॥१८॥ विजढंमि सए काए, थलयराणं तु अंतरं । चम्मे उ लोमपक्खी अ, तइया समुम्गपंक्ती अ॥ विततपक्खी अ बोधव्वा, पक्खिणो उ चउठिवहा । लोएगदेसे ते सव्वे, न सव्वत्थ विाहिआ व्याख्या एकखुरा हयादयः, द्विखुरा गवादयः, गएडी-पचकर्णिका तद्ववृत्ततया पदा येषां ते गण्डीपदा गजादयः, 'सणप्पयति सनखपदाः सिंहादयः, हयमाई-इत्यादि व्याख्यातमेव ॥१७९ ॥ परिसर्पानाह–'भुयोरपरिसप्पत्ति' परिसर्पशब्दस्योभयत्र योगात भुजाम्या परिसर्पन्तीति भुजपरिसाः गोपादयः । उरसा परिसंपन्तीति उरःपरिसर्पाः सदियः । ते च एकैकाः प्रत्येकमनेकविधा मवेयुः ।। गोधेरकनकुलादिभेदंगोनसादिमेदैश्च ।। १८० ॥ अत्र चायं विशेषो गर्भमभुजोरःपस्सिर्पयोरुस्कृष्टमायुः पूर्वकोटिः, संमूचियोस्तु तयोः । क्रमात् द्वाचत्वारिंशत्रयःपञ्चाशच वर्षसहस्राः । संमूर्च्छजस्थलचराणां तु चतुरशीतिवर्षसहस्रा इति ॥ १८३ ॥ अत्र पन्योपमत्रयमायुयुग-1 लिचतुष्पदतिरश्वा तद्भवानन्तरं च न पुनस्तेष्वेवोत्पादः, ततः पूर्व तु उत्कर्षतोऽपि तेषु पूर्वकोटिमानायुषः सप्त भवा भवन्तीति पूर्वकोटिपृथक्वाधिकपल्यत्रयमाना तेषों कास्थितिः॥ १८४ ॥ अत्र पूर्वार्द्धन स्थलचराणामन्तरद्वारं समाप्योचरार्द्धन खचरानाह-चम्म उत्ति" प्रक्रमाञ्चमपविणधर्ममयपक्षाश्चमटकादयः, रोमपक्षिणी रोमप्रधानपमा हसादयः, समुद्पक्षिणः समुद्रकाकासवास्ते च मानुभोत्तराहिपhि areी सर्वदा विशिल्याने वास येषि मानुपोषराजदिरेख बलदेव पहियर्विया ॥ १८७ ॥ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्यपनसूत्रम् ॥१५२॥ ध्य० ३६ ॥१५२॥ मूलम-संतई पप्पऽणाईआ, अपजवसिावि । ठिई पडुच साईना, सपज्जवसिमावि अं॥१८॥ पलिओवमस्स भागो असंखिज्जइमो भवे । आउठिई खहयराणं, अंतोमुहुत्तं जहरिणा ॥१८ असंखभागो पलिअस्स, उक्कोसेण उ साहिओ। पुव्वकोडिपुटुत्तेणं, अंतोमुहुत्तं जहरिणा॥ कायठिई खहयराणं, अंतरं तेसिमं भवे । कालं अणंतमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहएणगं ॥१९॥ एएसिं वण्णओ चेव, गंधो रसफासो । संठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥१२॥ व्याख्या-इहपल्योपमासंख्येयभागायुयुगलिपक्षिणां ज्ञेयं, तदन्येषां तु गर्भजानां पक्षिणां पूर्वकोटिः। संमृच्छिमानां तु तेषां द्वासनतिवर्षसहस्राण्युत्कृष्टमायुरिति विशेषः ॥ १८८ ॥ १८६ ॥ मनुजानाहमूलम्-मणुआ दुविहभेआ उ, ते मे कित्तयो सुण । समुच्छिममणुस्सा य, गब्भवक्कंतित्रा तहा १६३ गब्भवक्कंतिआ जे उ, तिविहा ते विहाहिआ । अकम्मकम्मभूमा य, अंतरद्दीवया तहा ॥१६४॥ पण्णरस तिसई विहा, भेा य अट्ठवीसई । संखा उ कमसो तेसिं, इइ एसा विआहिआ १६५ समुच्छिमाण एसेव, भेश्रो होइ आहिओ। लोगस्स एगदेसंमि, ते सव्वेवि विहिआ ॥१६६॥ संतई पप्पऽणाईआ, अपजवसिआवि भ । ठिइं पडुच्च साईआ, सपज्जवसिावि अ॥१९॥ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१५३॥ व्य० ३६ ॥१३॥ पलिभोवमाई तिषिण उ, उक्कोसेण विभाहिआ । आऊठिई मणुनाणं, अंतोमुहुत्तं जहरिणा पलिओवमाई तिषिण उ, उक्कोसेण विभाहिआ। पुवकोडीपुहुत्तेणं, अंतोमुहुत्तं जहएणगा १६६ कायठिई मणुआणं, अंतर तेसिमं भवे । अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहत्तं जहएणगं ॥२००॥ .. एएसिं वरणओ चेव, गंधओ रसफासओ । संठाणांदेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससो ॥२०॥ व्याख्या-इह संमूछिममनुष्या ये. मनोरहिता गर्भजमनुष्यसम्बन्धिवान्तादिषुत्पत्तिभाजोऽन्तमुहूर्तायुषोऽपर्याप्सा एवः नियन्ते ते ज्ञेयाः॥१६३ ॥ अकम्मेत्यादि-अत्र भूमशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धादाकर्मभूमास्तत्र कर्माणि कृषिवाणिज्यादीनि न सन्ति यासु ता अकर्मभूमयो हैमवतादिक्षेत्राणि तत्र भवा आकर्मभूमा युगलिनः, एवं कार्मभूमा भरतादिक्षेत्रजाः, अन्तरमिह समुद्रमध्यं तत्र द्वीपा अन्तरद्वीपाः तेषु जाता अन्तरद्वीपजाः ॥१४॥ 'पएणरस तीसई विहत्ति' विवशब्दस्य प्रत्येक योगात् पञ्चदशविधाः कामभूमाः, कर्मभूमीनां भरतैरवतविदेबहानां त्रयाणां प्रत्येकं पञ्चसंख्यत्वात् । त्रिंशद्विधा पाकर्मभूमाः, हैमवत-हरिवर्ष-रम्यकवर्ष-हैरण्यवत-देवकुरुत्तरकुरूणां षण्णामकर्मभूमानां प्रत्येकं पञ्चसंख्यत्वात् । इह च क्रमत इत्युक्तेपि पश्चाभिर्दिष्टामामपि कर्मभूमानां मुक्तिसाधकत्वेन प्राधान्यात् पूर्व भेदाभियानम् । अन्ये तु तीसई परावरसविहत्ति' पठन्ति । मेदाचाष्टाविंशतिरन्तरद्वीपजानामिति विमतिपरिणामेन सम्पन्वते, अष्टविंशतिसंख्यत्वं चैषामतसंख्यत्वादन्तरद्वीपाला, ते हि हिमक्तः पूर्वापरप्रान्तयोश्चतसृषु विदिप्रसृतकोटिषु जीणि श्रीसि योजनशतान्यवनाथ तावन्त्येव योजनशतान्यायामविस्तासम्प-प्रथमे चत्वारोऽन्तरद्वीमा ततोऽप्येकैकयोनमशतावधालगाइनया योजनशतचतुष्काधाषामविस्तारा द्वितीयादयः षट्। एप Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपराध्ययनसूत्रम् ॥१५४॥ ELEVEGEVEERENCE CereCROR चैशान्यादिक्रमात प्रादक्षिण्येन प्रथमचतुष्कस्य एकोक १ आभाषिको २ वैषाणिको ३ लांगुलिका ४ इति नामानि । द्वितीयस्य हयकर्णमध्य ३६ १ गजकर्ण २. गोकर्ष ३ शकुलीकः ४। तृतीयस्य आदर्शमुख-१ मेषमुख २ हयमुख ३ गजमुखाः'४"चतुर्थस्याचमुख १ हस्ति- ॥१५४॥ मुख २ सिंहमुख ३ व्याघ्रमुखाः ४ । पञ्चमस्याश्वकर्ण १ सिंहकर्ण २ गजकर्ण ३ कर्णप्रावरणाः ४ । षष्ठस्य उम्कामुख १ विद्युन्मुख २ जिह्वामुख ३ मेघमुखाः ४ । सप्तमस्य घनदन्त १ गूढदन्त २ श्रेष्टदन्त ३ शुद्धदन्ताः ४ इति नामानि । एषु च द्वीपनामसदृशनामान | 'श्व युगलिनो वसन्ति । तदेहमानादि चाभ्यां गाथाम्यां ज्ञेयम् |... 'अंतरीवेसु नरा, धणूअसयठ्ठसिया सया मुइया । पालंति मिहुणधम्मं, पलिअस्स असंखमागाऊ ॥१॥ | चउसट्ठी पिट्ठकरंडयाणे, मणुप्राण तेसिमाहारो । भत्तस्स चउत्थस्स उगुणसीति दिणाण पालणया ॥२॥" एते च शिखरिणोऽपि पूर्वापरप्रान्तविदिप्रसृतकोटिपूक्तन्यायतोऽष्टाविंशतिः सन्ति, सर्वसाम्याच्चैषां भेदेनाविवक्षितत्वान्न खत्रेऽष्टाविशतिसंख्याविरोध इति ध्येयम् ॥ १६५ ॥ संमूछिमानां एष एव मेदो यो गर्भजानां, ते हि तेषामेव वातपित्तादिषु सम्भवन्तीति ॥१६६ पल्यत्रयं स्थितिश्च युगलिनों ज्ञेया, संमृच्छिममनुष्याणां तु उत्कृष्टमप्यन्तमुहूत्तमेव ॥१९८॥ त्रीणि पल्योपमानि पूर्वकोटीपृथक्त्वेन पूर्वकोटिसप्तकात्मकेनाधिकानीति शेषः ।। १६ ।। देवानाहमुलम्-देवा चउब्विहा वुत्ता, ते मे कित्तयओ सुण । भोमेजवाणमंतरजोइसवेमाणिया तहा ॥२०२॥ “दसहा भवणवासी, अट्ठहा वणचारिणो । पंचविहा जोइसिआ, दुविहा वेमाणिा तहा ।।२०३॥ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. तराध्यधनसूत्रम् ॥१५५॥ असुरा नाग सुवरणा, विज्जू अग्गी अ आहिश्रा । दीवोदहि दिसा वाया, थणिया भवणवासिरो पिसाय भूमा जक्खा य, रक्खसा किन्नरा य किंपुरिसा। महोरगा य गंधब्वा, अट्ठविा वाणमंतरा चंदा सूरा य नक्खत्ता गहा तारागणा तहा । ठिया विचारिणो चेव, पंचविहा जोइसालमा २०६ व्याख्या - " भोमेज्जत्ति" भूमौ भवा 'भौमेयां' भवनपतयः ॥ २०२ ॥ एषामुत्तस्मेदानाह एतानेव नामत आह-यंत्र असुराः असुरकुमाराः कुमारवत्क्रीडामियत्वात् वेष-भाषा-शस्त्र - यान - वाहनादि भूषापरत्वाच्चामी कुमारा इत्युच्यन्ते । एवं नागादिष्वपि 'कुमारशब्दो योज्यः ॥ २०४ ॥ अन्येऽप्यष्टौ व्यन्तरा 'अणपण्णी' प्रभृतय एष्वेवान्तर्भावनीयाः ॥ २०५ ॥ “विचारिणोत्ति" विशेषेण मेरुप्रादचि-एयलक्षणेन चरन्तीति विचारिणः, तत्रामी मनुष्यक्षेत्राद्वहिः स्थिता एव सन्ति, तन्मध्ये तु विचारिण एव ॥ २०६ ॥ मूलम् - वेमाणिया उ जे देवा, दुबिहा ते विद्याहिया । कप्पोवगा य बोधव्वा, कप्पातीता तहेव य । २०७ कंप्पोवगा बारसहा, सोहम्मीसागगा, तहा । सकुमारा माहिंदा, बंभलोगा य लंगा ॥२०८॥ महासुक्का सहस्वारा, आणया पाण्या तहा । भारखा अच्चुमा चेत्र, इति कप्पोबगा सुरा । २०६ कप्पातीता उ जे देवा, दुविहा ते विमाहिया । गेविज्जाणुत्तरा चेव, गेविज्जा नवविहा तहिं २१० # महिमा व हिमा मज्झिमा तहा । हिट्ठिमा उवरिमा चेव, मज्झिमा हिट्ठिमा तहा । अध्य० ३६. ॥ १५५॥ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चराव्यपनसूत्रम् ॥१५६॥ मध्य० ३६ ॥१६॥ मझिमा मजिकमा चेब, मज्झिमा जबरिया तहा। उकस्मिा हिट्ठिमा चेव, उदरिमा मजिकमा सहा उवरिमा उवरिमा चेव, इह गेविश्जमा सुरा। विजया वेजयंता य, जयंता अपराजिया ॥२१ सबट्ठसिद्धगा चेव, पंचहाऽणुत्तरा सुरा । इइ बेमाणिआ एएउणेगहा एवमायो ॥२१॥ लोगस्स पगदेसम्मि, ते सब्बे परिकिचिया । इत्तो कालविभागं तु, तेसिं वोच्छ चठविहं ॥२१५ संतई पप्पऽणाईआ, अपज्जवसिावि अ। ठिई पडुच्च साईआ, सपज्जवसिावि अ॥२१६॥ साहियं सागरं इक्कं, उक्कोसेण ठिई भवे । भोमेज्जाणं जहन्नेणं, दसवास सहस्सिा ॥२१७॥ पलियोवममेगं तु, उक्कोसेण ठिई भने । वंतरावं जाहन्नेणं, दसवास सहस्सिा ॥२१॥ पलिमोवमं तु एगं, वासलक्खेण साहि। पलिलोवमट्ठभागो, जोईसेसु जहन्निा ॥२१॥ व्याल्पा-'कप्पोषगत्ति' कल्पान्-सौधर्मादिदेवलोकानुपगच्छन्तीति 'कल्पोपगाः' सौधर्मादिदेवलोकदेवाः, कल्पानतीतास्तदुपरिवर्तिस्थानोत्पन्नतयाऽतिक्रान्ताः कल्पातीता अवेयकानुत्तरविमानवासिसुराः ॥२०॥ सत्र सर्वत्र तात्स्थ्यात्तथपदेश इति न्यायात्स्वर्मनामभिरेव देव मेदा उक्ताः ॥२०॥२०६॥ 'गेविज्जागुत्तरत्ति' अबेयकेषु भवा अवेयकाः, अनुचरेषु प्रक्रमाद्विमानेषु भवा प्रानुसराः॥२१०॥ ग्रैबेपकहि aadaीणि त्रिकानि, तत्र प्रथमत्रिकं मधस्तनत्वेन हिटिठममित्युच्यते, तत्रापि प्रथमं ग्रैवेयकमधस्तनत्वेन हिट्ठिमहिठिममिति, तब भवा देवा हिट्ठिमाहिट्ठिमा इति । एवं सर्वत्रापि भावनीयम् ॥२१॥२१२॥ इहोत्तरार्द्धनानुत्तरविमानानाह-॥२१॥२१४॥ अत्र वर्षलवाधिक Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥१५७॥ I पल्योपर्म उत्कृष्टा स्थितिरिति गम्यं, इयं च चन्द्रविमानदेवानां जघन्या तु ताराविमानदेवानाम् ॥ २१६ ॥ मूलम् — दो चेव सागराई, उक्कोसेण विमाहिआ । सोहम्मम्मि जहराणेणं, एगं च पविमं ॥ २२०॥ सागरा साहिदुन्नि, उक्कोसेण विझाहिया । ईसारामि जहराणेणं, साहियं पविमं ॥२२१ सागराणि च सत्तेव, उक्कोसेण ठिई भवे । सांकुमारे जहराणेां, दुरिण उ सागरोवमा । २२२ साहिया सागरा सत्त, उक्कोसेण ठिई भवे । माहिंदम्मि जहन्नेणं, साहिया दुरिण सागरा ॥ दस चेव सागराई, उक्कोसेण ठिई भवे । बंभलोए जहन्नेणं, सत्त उ सागरोवमा ॥२२४॥ चउस उ सागराई, उक्कोसेण ठिई भवे । लंतगंमि जहन्नेां, दस उ सागरोवमा ॥ २२५ ॥ सत्तरस सागराई, उक्कोसेण ठिई भवे । महासुक्के जहराणेणं, चउद्दस सागरोवमा ॥२२६॥ अट्ठारस सागराई, उक्कोसेण ठिई भवे । सहस्सारे जहणणेणं, सतरस सागरोवमा ॥२२७॥ सागरा अउणवीसं तु, उक्कोसेण टिई भवे । श्राणयम्मि जहराणेगां, अट्ठारस सागरोवमा २२८ ai तु सागराई, उक्कोण ठिई भवे । पाणयम्मि जहरणेणं, सागरा अउणवीसई ॥२२६॥ सागरा इक्कीसं तु, उक्कोसेण ठिई भवे । भरणम्मि जहराणेणं, वीसई सागरोवमा ॥ २३०॥ अध्य० ३६ ॥१५७॥ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्य यनसूत्रम् ॥ १५८ ॥ बाघीस सागराई उक्सेस ठिई भने । चुम्मि जहनणं, सोगरा इक्कीसई ॥ २१५१ तेवीस सागराई, उक्कोसे ठिई भवे । पडमंमि जहराणेण, बाबीसं सामरोवमा ॥२३२॥ चवीस सागराई, उक्कोसेरा ठिई भवे । विश्रमि जहराणे, तेवीस सांगरोवमा ॥ २३३॥ पणबीस सागराई, उक्कोसेरा ठिई भवे । तइयंमि जहन्नेणं, चडवीस सागरोवमा ॥ २२४ ॥ छब्वीस सागराई, उक्कोसेरा ठिई भवे । चउत्थमि जहरणेणं, सागरा पणवीसई ॥ २३५॥ सागरा सत्तवीसं तु, उक्कोले ठिई भवे । पंचमम्मि जहराणेणं, सागरा उ छबीसई ॥ २३६ ॥ सागरा अट्ठावीस तु, उक्कोसेण ठिई भ॑वे । छट्ठमि जहन्मे, सागरा सप्ावीसई ॥ २३७॥ सागरा अणतीस तु, उक्कोसेण टिई भवे । सतमम्मि जहन्नेणं, सागरा अठबीसई ॥२३८ तीस तु सागराई, उक्कोसेण ठिई भवे । अट्ठमम्मि जहरणेणं, सागरा उणतीसई ॥२३६॥ सागरा इक्कतीसं तु, उक्कोसेरा ठिई भवे । नवमम्मि जहरुणेणं, तीसई सागरोक्मा ॥ २४०॥ तेत्तीस सागराई, उक्कोण ठिई भवे । चउसु पि विजयाईसु, जहन्ना इक्कतीलई ॥२४११ महरणमगुनकोस, तित्तीस सागरोवमाः । महाविमाये सव्बट्ठे, ठिईं एसा विचहिया ॥२४२॥ अध्य• ३६ ॥ १५८ ॥ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य० ३६ उत्तराध्यपनस्त्रम् ॥१५॥ ॥१५॥ जा चेव य अठिई, देवाणं तुं विवाहिया । सा तेर्ति कीठिई, जहणुक्कौसिया भवें ॥२४३ प्रतिकालमुक्कोर्स, अंतोमुहुर्त जहरणय । विजāमि सए काए, देवाण हुज अंतर ॥२४॥ एएसि वगणो चैव, गंधओं रसफासओ । सठाणादेसओ वावि, विहाणाई सहस्ससों ॥२४५ व्याख्या अत्र सर्वत्र 'अवेयके' इति शेषः ॥ या तेषां देवानामायुःस्थितिः सैष कायस्थितिमृत्वा पुनस्तत्रोपावसभावात् ॥ २४३ ॥ प्राग्वदिति केपाश्चिदवयवार्थः ॥ २४४, २४५ ॥ संप्रति निगमनमाहभूल-संसारस्था य सिद्धा य, इइजीवा विवाहित्रा । रूविणो घेवऽरूवी , अजीया दुषिहावि २४९ व्याख्या - संसौरस्थाचे सिद्धाब इत्यनेन पूर्वोक्तन्यायेन जीवा व्याख्याताः, रूपिणीरूपिणश्यति अजीवी अपि द्विविधा व्याख्याता इति योगः ॥ ४६॥ अथ कचिज्जीवाजीवविभक्तिश्रवणश्रद्धानमात्रदेिव कृतार्थी मन्येताऽतस्तदाशङ्कापनोदार्थमाहँमूलम्-जीवमजीवे अ सुच्चा संदहिऊण य । सवनयाल गुमए, रमिजी संजमें मुणी ॥२४णों व्याख्या कति विनिजीवि श्रुत्वा श्रेबाय च सर्वे च तें नया सर्वनया-शाननियानयान्तर्गता नैगमादयस्तेषाम् 'अनुमते' अभिप्रेते रमेत संक्मे मुमिरिति सार्यः॥ २४७ ॥ संयमें रति छात्वा यत्कार्य तदाहमूलम्-तको कणि कासाणि, सोमखमाशुपालिका मे कमजोनणं; पाणं संलिहे मुणी ॥२४८ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उतराध्ययनसूत्रम् ॥१६०॥ ATACARACALACATALAAAAA बारसेव 3 वासाई, संलेहुक्कोसिया भवे । संवच्छरं मज्मिमिश्रा, छम्मासे अ जहरिणा ॥ २४६ पढमे वासचउकंम्मि, विगई निज्जूहां करे । बिइए वासचउकम्मि, विचित्तं तु तवं चरे ॥२५०॥ एगंतरमायामं कट्ट, संवच्छरे दुवे । तत्रो संवच्छरद्ध ं तु, नाइविगिट्ठ तवं चरे ॥२५१ ॥ वच्छर, तु विगिट्ठं तु तवं चरे । परिमिचं चेव आयाम, तमि संवच्छरे करे ॥ २५२॥ मायामं, संवच्छरे मुणी । मासद्धमासिएणं तु, आहारेणं तवं चरे ॥२५३॥ व्याख्या—अत्र ‘कम्मजोगेणंति' क्रमेण योगस्तपोऽनुष्ठानरूपो व्यापारः क्रमयोगस्तेन “संलिहेत्ति” 'संलिखेत्' द्रव्यतो भावतथ कृशीकुर्यात् ॥ २४८ ॥ क्रमयोगमेवाह – द्वादशैव तुः पूत वर्षाणि संलेखना द्रव्यतो वपुषो भावतः कषायाणां कृशतापादनमुत्कृष्टा भवति, संवत्सरं मध्यमा, षण्मासांश्च जघन्यका ॥ २४६ ॥ उत्कृष्टायाः क्रमयोगमाह – प्रथमे वर्षचतुष्के 'विकृतिनियू हनं' विकृतित्यागं कुर्यात्, इदं च विचित्रतपसः पारणके । यदाह निशीथचूर्णिकार : - " अण्णे चचारि वरिसे बिचित्तं तवं काउं आयंबिलेण निव्विहरण वा पारेइत्ति " केवलमनेन द्वितीये वर्षचतुष्के इदमुक्तं, अत्र तु प्रथमे दृश्यते ततोऽस्य प्रकारद्वयेनापि करणे न दोष इति ज्ञायते । द्वितीये वर्षचतुष्के 'विचित्तं तुत्ति' विचित्रमेव षष्ठाष्टमादिकं तपश्चरेदत्र च पारणके सर्वं कल्पनीयं पारयतीति संप्रदायः ॥ २५० ॥ एकेन चतुर्थलचणेन तपसा अन्तरं व्यवधानं यस्मिंस्तदेकान्तरं 'आयाम' आचाम्लं कृत्वा संवत्सरौ द्वौ, ततः 'संवत्सरार्द्ध' मासषट्कं तुः पूर्वौ न नैवातिविकृष्टमष्टमदशमादि तपश्चरेत् ।। २५१ ॥ ततः संवत्सरार्द्धतुः एवकारार्थे ' विगिट्ठं तुति' विकृष्टमेव तपश्चरेत्, अत्रैव विशेषमाह - "परिमिश्रं चैवत्ति" अध्य० ३६ ॥ १६०॥ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य- पनसूत्रम् ॥१६॥ Veeeeeeeeeeeeeevee परिमितमेव स्वल्पमेव आचाम्ल, द्वादशे हि वर्षे निरन्तरमाचाम्लमिह तु चतुर्थादिपारणक एवेति परिमितमित्युक्तं, तस्मिन् द्विधा विभ- अध्य० ३६ | ज्योक्ते संवत्सरे कुर्यात् ॥ २५२ ॥ कोत्यौ-अग्रे प्रत्याख्यानाद्यन्तरूपे सहिते-मीलिते यस्मिंस्तत्कोटीसहितं, अयं भावः-विवक्षितदिने ॥१६॥ आचाम्लं कृत्वा पुनर्द्वितीयेऽहिन आचाम्लमेव प्रत्याख्याति ततः प्रथमस्य पर्यन्तकोटिर्द्वितीयस्य प्रारम्भकोटिरुमे अपि मीलिते भवतस्ततस्तत्कोटीसहितं स्यात् , इदृशं निरन्तरमित्यर्थः आचाम्लं कृत्वा संवत्सरे प्रक्रमात् द्वादशे मुनिः 'मासत्ति' मासिकेन अर्द्धमासिकेन वा 'श्राहारेणंति' आहारप्रत्याख्यानेन 'तप इति' प्रस्तावाद्भक्तपरिज्ञादिकमनशनं चरेत् । निशीथचूर्णावुक्तः संप्रदायश्चायमत्र-“दुवालसमं परिसं निरंतरं हीप्रमाणं उसिणोदएणं आयंबिलं करेइ, तं कोडीसहि भएणइ जेणायंबिलस्स कोडी कोडीए मिलइ, जहा पदीवस्स बत्ती तिल्लं च समं निट्ठवह तहा बारसमे वरिसे आहारं परिहावेइ जहा आहारसंलेहणाए आउग्रं च समं निट्ठवइ । एत्थ वारसमस्स वासस्स पच्छिमा जे चत्तारि मासा तेसु तेल्लगंडूसे निसीठं धरेउं खेल्लमल्लगे णिच्छुहइ, मा अइरुक्खत्तणो मुहजंतविसंवाो भविस्सइति, तस्स य विसंवाए नो सम्म नमुक्कारमाराहेइ" इति सूत्रषट्कार्थः ॥ २५३ ॥ इत्थं प्रपन्नानशनस्याप्यशुभभावनानां मिथ्यात्वादीनां चानर्थहेतुत्वं तद्विपर्ययाणां च शुभहेतुतामाहमूलम्-कंदप्पमाभियोगं च, किब्विसिनं मोहमासुरत्तं च । एयाओ दुग्गईमो, मरणम्मि विराहया हुति ।। मिच्छादसणरत्ता, सनिआणा हु हिंसगा। इइ जे मरति जीवा, तेसिं पुण दुल्लहा बोही ॥२५५ ।। सम्मदसणरत्ता, अनिआणा सुक्कलेसमोगाडा। इइ जे मरंति जीबा, सुलभा तेसिं भवे बोही २५६ । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्य KEE CG CE यनसूत्रम् अध्य• ३६ ॥१६२॥ ॥१६२॥ ereܬܦܦܕܦܒܟܦܢ मिच्छादसणरत्ता, सनिाणा कण्हलेसमोगाढा । इन जे मरति जीवा, तेसिं पुण दुल्लहा बोही ॥ व्याख्या-'कंदप्पति' कन्दर्पभावना' एवमाभियोग्यभावना' किल्विषभावना मोहभावनाआसुरभावना' च, एता भावना हेतुत्वात् दुर्गतय एतद्विधातृणां दुर्गतिरूपेषु तथाविधदेवनिकायेष्वेवोत्पादात्, 'मरणे' मरणकाले विराधिका भवन्ति सम्यग्दर्शनादीनामिति गम्यते, इह च मरण इत्यभिधानं पूर्वमेतत्सत्तायामपि प्रान्तकाले शुभभावनाभावे सुगतिरपि स्यादिति सूचनार्थम् ॥ २५४ ॥ मिथ्यादर्शनम्-अतत्त्वे तत्वाभिनिवेशस्तत्र रक्ताः-आसक्ता मिथ्यादर्शनरक्ताः सनिदानाः कृतभोगप्रार्थनाः 'हुः' पूत्तौं 'हिंसकाः' जीवोपमईकारिण इतीत्येवंरूपा ये नियन्ते जीवास्तेषां पुनदुर्लभा 'बोधिः' जिनधर्मावाप्तिः ॥ २५५ ।। "सुक्कलेसमोगाढत्ति" शुक्ललेश्यामवगाढा:-प्रविष्टाः ॥ २५६ ।। स्पष्टम् , ननु पुनरुक्तत्वादनर्थकमिदं सूत्रं, नैवं विशेषज्ञापकत्वादस्य, विशेषश्चायं-तादृशे संक्लेशे सत्येव दुर्लभबोधित्वं, सामान्येन तु पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टानामपि तद्भवे भवान्तरे वा बोधिलाभो दृश्यतेऽपीति विशेषसूचकत्वादस्य न पौनरुक्त्यम् । इह चायेन सूत्रे ण कन्दर्पादिभावनानां दुर्गतिरूपानर्थस्य हेतुत्वमुक्तं, अर्थाच्छुभभावनानां च सुगतिरूपार्थस्य । द्वितीयेन मिथ्यात्वरक्तादीनां दुर्लभबोधित्वमनर्थ उक्तः, तृतीयेन सम्यक्त्वरक्तानां सुलभबोधित्वं शुभार्थः, चतुर्थेन तूक्तरूपो विशेषःरचित इति सूत्रचतुष्कार्थः ॥ २५७ ॥ जिनवचनाराधनमूलमेव संलेखनादि श्रेयस्ततोऽन्वयव्यतिरेकाम्यां तन्माहात्म्यमाहमूलम्-जिणवयणे अणुरत्ता, जिणवयणं जे करिति भावेणं । अमला असंकिलिट्ठा, ते होति परित्तसंसारी बालमरणाणि बहुसो, अकाममरणाणि चेव ब आणि। मरिहंति ते वराया, जिणवयणं जे न याति २५६ EGGGEOGGeeeeeeeeeeee Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥१६३॥ व्याख्या – 'अमलति' श्रद्धामालिन्यहेतुमिध्यात्वादिभावमलरहिताः, तथा 'असंक्लिष्टाः' रागादिसंक्लेशमुक्ताः 'परिचसंसारिति ' परितः - परिमितः स चासौ संसारश्च परित्तसंसारः सोऽस्ति येषां ते परिचसंसारिणः ॥ २५ ८ || 'बालमरणैः' 'उद्बन्धनादिनिबन्धनैः 'बहुशो' बहुवारं श्रकाममरणैश्चैवानिच्छारूपमरणैर्बहुभिः सुव्यत्ययः प्राकृतत्वात् मरिष्यन्ति ते वराका जिनवचनं ये न जानन्ति, उपलक्षत्वानानुतिष्ठन्ति चेति सूत्रद्वयार्थः ॥ २५६ ॥ यतश्चैत्रमतो जिनवचनं भावतः कर्त्तव्यं तत्र चातिचारसम्भवे आलोचना तच्छ्रवणयोम्यानां श्रावणीया, ते च यैर्हेतुभिर्भवन्ति तानाह मूलम् — बहुआगमविण्णाणा, समाहिउप्पायगा य गुणगाही । एएण कारणेणं, अरिहा लोणं सोउं ॥ व्याख्या— बहुः सूत्रतोऽर्थतश्च स चासावागमश्च बह्वागमस्तत्र विशिष्टं ज्ञानं येषां ते बह्वागमविज्ञानाः, 'समाघेरुत्पादका' ये देशकालाभिप्रायादिविज्ञतया समाधिमेव मधुरवाक्यादिभिरालोचकानामुत्पादयन्ति चशब्दो भिन्नक्रमस्ततो 'गुणग्राहिणश्च' उपबृंहणार्थं परेषां सद्भूतगुणग्रहणशीलाश्च, 'एएण कारणेणंति' एतैः कारणैः अर्हा भवन्त्याचार्यादय आलोचनां श्रोतुमिति सूत्रार्थः ॥ २६० ॥ इत्थमनशनस् यत्कृत्यं तदुपदर्श्य सम्पति पूर्वोद्दिष्टकन्दर्पादिभावनानां स्वरूपमाह - मूलम् — कंदष्पकुक्कुआई, तह सीलसहावहासविगहाहिं । विम्हायंतो अपरं, कंदप्पं भावणं कुणइ ॥२६१ व्याख्या– कन्दर्प्यकौक्रुच्ये कुर्वन्निति शेषः, तत्र कन्दर्प्यः - श्रट्टहासहसनं अनिभृताश्वालापा गुर्वादिनापि सह निष्ठुरवक्रोक्त्यादिरूपाः कामकथोपदेशप्रशंसाथ कन्दर्पः, उक्तं च- 'कहकहकहस्स हसणं, कंदप्पो अणिहुआ य आलावा । कंदप्यकहाकहणं, कंदप्युवएससंसा य eeve अध्य० ३६ ॥१६३॥ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्य० ३६ ॥१६४॥ उचराध्य- ॥१॥" कौकुन्यं द्विधाकायेन वाचा च, तत्र कायकौकन्यं यत्स्वयमहसन्नेक भ्रनयनादिविकारांस्तथा करोति यथान्यो हसति, यदुक्र- यनस्त्रम् "भूनयणवपणदसणच्छएहिं करचरणकरणमाईहिं । तं तं करेइजह बह, इसइ परो अक्षणा अहसं ॥१॥" तथा तज्जल्पति येनान्यो ॥१६४क इसति नानाविधजीवरुतानि मुखातोद्यवादनं च यत्र कुरुते तद्वाकौकुच्यं, यदाह-"वायाए कुक्कुइओ, तं जंपइ जेण हस्सए अन्नो । नाणा विहजीवरुए, कुवइ मुहतूरए घेत्र ॥१॥" 'तहत्ति' येन प्रकारेण परस्य विस्मय उत्पद्यते, तथा यच्छीलं-फलनिरपेक्षा प्रवृत्तिः, स्वभावथ-परविस्मयोत्वादनाभिप्रायेणैव तत्तन्मुखविकाराधिकं स्वरूपं, हासश्च-अट्टहासादिः, विकथाश्च-परविस्मापकविविधालापकलापरूपाः शीलस्वभावहास्यविकथास्ताभिः विस्मापयन् परमन्यं । 'कंदप्पंति' कन्दर्पयोगात् कन्दस्तेि च प्रस्तावाद्देवास्तेषामियं तेषूत्पत्तिहेतुतया कान्दप्पी तां भावनां तद्भावाम्यासरूपां करोति ॥ मूलम्-मंताजोगं काउं, भूईकम्म च जे पउंजंति । सायरसइडिहेडं, अभिभोगं भावणं कुणइ ॥२६२॥ व्याख्या-'मंताजोगंति' सूत्रत्वान्मंत्राश्च योगाश्च तथाविधद्रव्यसंयोगा मंत्रयोगं तत्कृत्वा भूत्या-भस्मना उपलक्षणत्वात् मृदा सूत्रेण च कर्म रक्षार्थ क्रिया भृतिकर्म चशब्दात्कौतुकादि च 'जे पउंजंतित्ति' सूत्रत्वात् यः प्रयुक्ते 'सातरसर्द्धिहेतोः' साताद्यर्थमित्यर्थः, अनेन पुष्टालम्बने निःस्पृहस्यैतकुर्वतोऽपि न दोषः किन्तु जिनशासनप्रभावनालक्षणो गुण एवेति सूचितम् । स आभियोगी भावनां करोति ।२६२ मूलम्-नाणस्स केवलीणं, धम्मायरिअस्स संघसाहूणं । माई अवण्णवाई, किदिवसि भावणं कुणइ ॥ व्याख्या-'ज्ञानस्य' श्रुतादेरवर्णवादी यथा-"काया वया य तेच्चित्र, ते चेव पमायमप्पमाया य । मोक्खाहिगारिमाणं, जोइसजो-' शाणीहि किं कज्ज ॥१॥" अत्र श्रुते त एव कायाः तान्येव च व्रतानि पुनः पुनर्निरूप्यन्ते, तावेव प्रमादाप्रमादौ च, ततः पुनरुक्तिदोषा Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१६॥ मध्य० ३६ ॥१६॥ Vereveece A VEEVEEVEE EVGA घातमिदम । किञ्च ते मोतार्थ पठ्यते मोक्षाधिकारियां च ज्योतिर्योन्यादिभिः किं कार्य यत्र तानि प्ररूप्यन्त इति । केवलिनां यथाज्ञानदर्शनयोः क्रमोपयोगे परस्परावरणती, युगपदुपयोगें क्यापत्तिस्ततः कथमिदं घटते ? इत्यादि । धर्माचार्यस्य यथा-"जच्चाईहिं अवएणं, भासइ वट्टइ नयावि उववाए । अहिओ बिर्दप्पेही, पग्गासवाई अणणुकूलों ॥१॥" 'जचाहिंति जात्यादिभिरवर्ण भाषते, वर्तते न चाप्युपपाते समीपावस्थानरूपै पंगासवाईत्ति' गुर्वादः समित्यादौ कथञ्चित्स्खलित प्रकाश-प्रकटं वदतीति प्रकाशवादी । संघस्य यथाबहवः श्वभृगालादिसंघाः सन्ति तथायमपि तत्को सौ संघः ? इत्यादि । साधूनां यथा-"अविसहणा तुरिअगई, अणाणुवित्ती इमे गुरुपंपि । खणमेत्तपीइरोसा, गिहिवच्छलगा य संचइया ॥१॥" अविषहना मिथोऽसहना अत एव पृथक् २ तिष्ठन्ति यतयः, अत्वरितगतयो मन्दगतयस्ततो बकवृत्तिरियमेषामिति, गुरूणामपि अननुवर्तिनः गुरुभ्योऽपि पृथक् विहारित्वात् , क्षणमात्रप्रीतिरोषाः, अयं भाव:मुनयो हि यस्य गुणान् वीक्ष्य प्रियन्ते तस्याप्यतिचारादिकं दोषं न क्षमन्ते ततो दोषान्वेषी क्षणमात्रप्रीतिरोषा एते इति वक्ति, तथा गहिवत्सलका विरका अपि गहिण धर्म प्रतिपादयन्तीति, सञ्चयिकाश्थोपधिधारित्वात , इत्थं ज्ञानादीनामवर्णवादी । तथा मायी स्वस्वभावनिमूहनादिमान्, पाहाव-"गृहइ आयसहावं, पायद म गुणे परस्स संते वि । चोरोव्व सव्वसंकी, गूढायारो वितहमासी ॥१॥" ईदृशः किल्विपिकी भावनां करोति । २६३ ।। इदानी विचित्रत्वात्सूत्रकृतेर्मोहीप्रस्तावेऽप्यासुरीहेतूनाहमूलम् -अणुबद्धरोसपसरो; तह प निमित्तम्मि होइ पडिसेवी। एएहिं कारणेहि, आसुरिअं भावणं कुणइ। व्याख्या-अनुषद्धोऽध्यवच्छिन्नो रोषप्रसरो यस्य स तथा, तत्स्वरूपं चैवं-"निच्चं वुग्गहसीलो, काऊणं नाणुतप्पए पच्छा । न य खामियो पसीअई, अबराहीणं दुषेण्हपि ॥१॥" अत्र 'दुवेण्हंपित्ति' द्वयोः स्वपरयोरपराधिनोरपि सतोः । 'तथा' समुच्चये, 'च' पूरणे, Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपराज्यपनस्त्रम् ॥१६६॥ प्रध्य०३६ ॥१६६॥ निमिरावतीतादि तद्विषये भवति प्रतिसेवी अपुष्टालम्बनेऽपि बापखात्, एतान्या कारणान्या भासुरी भावनां करोति ।।२६४ ॥ तथासत्यम्गहणं पिसभक्खयां च जलयां च जलप्पबेसो भ। अणायामभंडसेवा जम्ममामरणाणि बंधति ॥२६५. नि॥२५ व्याख्या-शसस्य ग्रहां वधार्थमात्मनि व्यापारणं शाखाग्रहणं, विषमवणं, चशब्द उक्तसमुचये, ज्वलनं च दीवनमात्मन इति घोषः, जलप्रवेशव चशब्दोऽनुक्तभृशुपातादिपरिग्रहार्थः । प्राचारः-शाखविहितो व्यवहारस्तेन भाण्डमुपकरणं आचारभाण्डं न तथा अनाचारभाण्ड तस्य सेवा हास्यमोहादिभिः परिभोगोऽनाचारभाण्डसेवा च, चस्य गम्यत्वादेतानि कुर्वन्तो जन्ममरणानि उपचारात्तबिमितकर्माणि बना न्ति, संक्लेशहेतुतया शस्त्रग्रहणादीनामनन्तभवनिवन्धनत्वात् । अनेन चोन्मार्गप्रतिपच्या मार्गविप्रतिपत्तिराधिता तथा हार्थतो मोही भार नोक्ता । यतस्तवणमिदं-"उम्मग्गदेसमो मग्गनासो मन्नविपडिवची श्र। मोहेण य मोहित्ता समोहणं भाषखं कुणइ ॥१॥" फलं पासामनन्तरं परम्परं चैवं-"एयामो भावणायो, भाविता देवदुमाई जति । तत्तो अचुना संता, पडंति भवसागरमांतं ॥१॥" इहानन्तरं फलं देवदुर्गतिगमन परम्परं तु भवान्धिभ्रमणमिति सूत्रार्थः ॥ २६५ ।। संप्रत्युपसंहारद्वारेण शास्त्रस्य माहात्म्यमाहमूलम्-इइ पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिव्वुए । छत्तीसं उत्तरमाए, भवसिद्धियसंमएत्ति बेमिः ॥२६६॥ व्याख्या-ति एताननन्तरोक्तान् "पाउकरेति प्रादुष्कृत्य कांश्चिदर्थतः कांश्चित्त सूत्रतोऽपि प्रकाश्य 'बुद्धः केवलज्ञानाबमलसकलवस्तुतस्यो 'ज्ञातजो' भातकुलोद्भवः स चेह श्रीवर्द्धमानस्वामी 'परिनिवतो' निर्वाणं गतः, यद्वा "पाउकरेति" 'प्रादुरकात्'ि प्रकाशितवार शेष प्रागवनवरं 'परिनितः कषायादितपोपशमात्स्वस्थीभूतः । कान् प्रादुरकालीदित्याह-पत्रिंशदुत्तरा:-प्रधाना अध्याया-अध्ययनानि उत्तराव्यायास्ताम्, 'भवसिद्धिकाना' भव्यानो 'समतान् । अभिप्रेतान् । इति परिसमाप्ती नवीनीति प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ इति SNORAM-TEYETATER Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -hal AR यनसूत्रम् ॥१६७॥ षट्त्रिंशमध्ययनम् ॥ ३६ ॥ धर्मकन्पद्रुम स्कन्धस्यास्य श्रुतस्कन्धस्य नियुक्तिकारोऽप्येवं माहात्म्यमाह - 1 मूलम् - जे किर भवसिद्धिमा, परित्तसंसारिश्रा य जे भव्वा । ते किर पढंति एए, छत्तीसं उत्तरझाए ॥१ हुति [अभवसिद्धि, ठिसत्ता अांतसंसारी । ते संकिलिट्ठकम्मा, अभव्विद्या उत्तरज्झाए २ तम्हा जिणपणचे, अरांतगमपजवेहिं संजुत्ते । अज्झाए जहजोगं, गुरुप्पसाया श्रहिंजिज्जा ॥३॥ जस्साढसा एए, कहवि समप्पंति विग्धरहिमस्स । सो लखिज्जइ भव्वो, पुव्वरिसी एव भासंति ४ व्याख्या -- अत्र 'मव्वति' भव्या आसनाचिप्तसिद्धयो रत्नत्रयाराधका भिवप्रन्थय इत्यर्थः, भवसिद्धिकशब्दस्तु सामान्येन भव्यत्वार्थः ॥ १ ॥ “ मंठि असतति” 'ग्रन्थिकसचा' अभिग्रन्थय इत्यर्थः ।। "अभव्विमत्ति" 'अभव्या' अयोग्या उत्तराध्याये उत्तराध्ययनपठने ॥ २ ॥ ततः किं कार्यमित्याह — तस्माज्जिनप्रज्ञप्ताननन्तैर्गमैः - अर्थमेदैः पर्यवै:- शब्दप्रययैः संयुक्तान् अध्यायान् उत्तराध्ययनानि 'यथायोग योग उपधानाद्युचितक्रिया तदनतिक्रमेण गुरुप्रसादादधीयेत पठेन तु प्रमादं कुर्यादित्यर्थः । गुरुप्रसादाभिधानं चेह श्रुताध्ययनार्थिना गुरवोऽवश्यं प्रसाद्या इति ख्यापनार्थमिति गाथाश्रयार्थः ॥ ३ ॥ ४ ॥ इति सम्पूर्णा श्रीउत्तराध्ययनसूत्रवृत्तिः ॥ ॥ अथ प्रशस्तिः ॥ अनन्तकन्यायनिकेतनं तं नमामि शंखेश्वरपार्श्वनाथम् । यस्य प्रभावाद्वरसिद्धिसौध - मध्यास्त निर्विघ्नमसौ प्रयत्नः ॥१॥ अध्य० ३६ ॥१६७॥ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य- यनसूत्रम् ॥१६८॥ अध्य० ३६ ॥१६॥ eceVEEVEGANTE AI श्रिया जयन्तीं घुतिमैन्दवींदामुदाभिवन्दे श्रुतदेवतां ताम् । प्रसादमासाद्य यदीयमेषा, वृत्तिर्मया मन्दभियापि तेने ॥२॥ सत्कीर्तिलक्ष्मीपरिवर्द्धमानं, श्रीधद्ध मानं जिनराजमीडे । पुनाति लोकं सुरसार्थशाली, यदागमो गाङ्ग इव प्रवाहः ॥३॥ तच्छिष्यमुख्यसकलर्द्धिपात्रं, श्रीगौतमौ मे शिवतातिरस्तु । गणी सुधर्मा च सतां सुधर्मो-वहोस्तु वीरप्रभुदत्तपट्टः ॥४॥ जम्बूद्वीपे सुरगिरिरिव चन्द्रकुलं विभाति तद्वंशे । मेरौ नन्दनवनमिव तस्मिन्नन्दति तपागच्छः ॥॥ तत्र मनोरमसुमनोराजिविराजी रराज मुनिराजः । श्रीआनन्दविमलगुरुरमरतरुनन्दन इवोच्चैः ॥६॥ शुद्धां क्रियां दधौ यः सुधाव्रतव्रततिमित्र मसद्वतः । कल्पतरोः सौरभमिव यस्य यशो व्यानशे | विश्वम् ॥७॥ तत्पट्टगगनदिनमणिरजनिष्ट जनेष्टदानदेवमणिः । श्रीविजयदानमुनिमणिरनणुगुणाधरितरजनिमणिः ॥ श्रीमान् जगद्गुरुरिति प्रथितस्तदीय-पट्ट स हीरविजयायमूरिरासीत् । योऽष्टाऽपि सिद्धिललनाःसममालिलिङ्गः, तत्स्पद्धयेव दिगिभांश्च पदीयकीर्तिः ॥६॥'श्रीमानकब्बरनृपाम्बुधरोधिगम्य, श्रीमरिनिर्जरपतेरिह यस्य वाचम् । जन्तुव्रजानभयदानजलैरनल्प-रपीणयत्पटहवादनगज्जिपूर्वम् ॥१०॥ तत्पट्टभूषणमणिणिलक्ष्मीकान्तः, मरिर्बभौ विजयसेन इति प्रतीतः । योऽकब्बराधिपसभे द्विजपैर्यदीय-गोभीजितेगुरपि द्युतिमानमानि ॥११॥ विजयतिलकः सूरिः पट्ट तदीयमदीदिप-दिनकर इव व्योमस्तोमं हरंस्तमसा क्षणात् । प्रसृमरमहाः पद्मोल्लासावहो जडतापहो, विदलितमहादोषः क्लप्तोदयः सुदिनश्रियाम् ॥१२॥ धिषणधिषणादॆश्या प्रेक्षा गिरः श्रवसोः सुधा, अधरितधरं धैर्य यस्य क्षमानुकृतक्षमा । जगति महिमा हेमक्षोणीधरद्वयसो यशः, शशिजयकर नाभूत्कस्याद्ध तीर्य मुनिप्रभोः ॥१३॥ | तदीये पट्ट सद्गुणगणमणिश्रेणिनिधयः, क्षमापीयूषाम्भोनिधय उचिताचारविधयः । स्वभक्तेच्छापूर्तित्रिदशतरवो बुद्धिगुरवो, जयन्ति १ श्रीमानकम्बरपाम्बुधरोपि यस्य, श्रीसूरिनिर्जरपतेरधिगभ्य वाचम् । "" पुस्तके - SUBBAGADE Tareeeeeeee Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१६॥ मध्य०३६ ॥१६॥ RAAAAAAAAAAAAM | श्रीमन्तो विजयिविजयानन्दगुरवः ॥१४॥ तेषां तपागणपयोनिधिशीतभासां, विश्वत्रयीजनमनोरमकीर्तिभासाम् । वाग्वैभवाधरितसाधुसुधासवानां, राज्ये चिरं विजयिनि बतिवासवानाम् ॥१५॥ इतश्च-शिष्याः श्रीविजयादिवानसुगुरोः सिद्धान्तवारांनिधि-श्रीकान्ताः परतीर्थिकव्रजरजःपुजैकपाथोधराः। पूर्व श्रीविमलादिहर्षगुरवः श्रीवाचका जज्ञिरे, यै वैराग्यरति वितीर्य विरतिं चक्रे ममोपक्रिया ॥१६॥ विनेयास्तेषां च प्रसृमरयशः पूरितदिशः, श्रुतं दत्त्वा मादृग्जडजनमहानुग्रहकृतः। महोपाध्यायश्रीमुनिविमलपादाः समभवन् , भवोदन्वन्मज्जज्जननिवहबोहित्यसदृशाः ॥१७॥ वैरङ्गिकाणामुपकारकाणां, वचस्विनां कीर्त्तिमतां कवीनाम् । अध्यापकानां सुधियां च मध्ये, दधुः सदा ये प्रथमत्वमेव ॥१८॥ तेषां | शिष्याणुरिमां भावविजयवाचकोऽलिखत्तिम् । स्वपरावबोधविधये स्वल्पधियामपि सुखावगमाम् ॥१६॥ निधिवसुरसवसुधा [१६८६] मितवर्षे 'श्रीरोहिणीमहापुर्याम् । सोऽस्याः प्रथमादर्श स्वयमेव प्रापयत्सिद्धिम् ॥२०॥ गुणगणसुरतरुसुरगिरिकल्पैस्तस्याग्रजैः सतीर्थ्यश्च । । श्रीविजयहर्षकृतिभिर्विदधे साहाय्यमिह सम्यक ॥२१॥ अनुसृत्य पूर्ववृत्तीलिखितायामपि यदत्र दुष्टं स्यात् । तच्छोध्यं मयि कृत्वा कृपां कृतीन्द्रः प्रकृतिसरलैः ॥२२॥ श्रीशंखेश्वरपाश्वप्रभुप्रभावात् प्रभूतशुभभावात् । प्राचन्द्रार्क नन्दतु वृत्तिरसौ मोदयन्ती ज्ञान् ॥२३॥ शान्ति तुष्टिं पुष्टिं श्रेयः सन्तानसौख्यकमलाश्च । व्याख्यातृश्रोतणां वृत्तिरसौ दिशतु मङ्गलैकगृहम् ॥२४॥ ससूत्रायामिह श्लोक-संख्या संख्याय निर्मिता । 'शते द्वे पञ्चपश्चाशे, सहस्राणि च षोडश ॥२॥ "सूत्रग्रन्थाग्रं [२०००] वृत्तिग्रन्थानं [१४२५५] उभयं [१६२५५]" १भीरोहिणीपुरि महौं ।। इति “घ” पुस्तके ।। २ पञ्चपञ्चाशे शते द्वे. “घ” पुस्तके। Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे ॥१७॥ | प्रेसदोषाः ॥१७०॥ श्रीउत्तराध्ययनसूत्र भाग ३-४ मां प्रेसमा त्रुटीगयेल टाईपोनी भलोने नीचे मुजय सुधारीने वांचो? पृ० पं० | ५ ४ जिणसासणे । १२ ८ स्वरूपा- २४ १० -ऽनैषी- । ५५ ४ स्वर्ययौ ॥ । ३ ६ दाया ५ ६ विणीए १२ १४ त्यक्त- २४ १४ सरोवरात् ५८ ६ नीरैः ३ भवाहि ५ १३ "कस्स- १४ ११ तन्नूनं ३७ २ सूत्रम् ६६ १-मिरथं ३१. संपाय, ६ हपभासति १६ - श्रुत्वा ३७ ३ ऽमिततेजा ६६ ५-विशेषः । ३१. रायं ७ १-देशस्थस्या१६ ३-द्विक्रम ३७ १४ वक्तु- ७० ह सर्वेप्यागुर्लि३ ११ दाराणि प्ययस्का२० ८ विप्रः ३८ १० निकाचित- ७. १४ बकः ३ ११ सुत्रा ६ ५ -ऽहमपि २० धर्म तं, ४२ १०-घोषो ७२ -सिपमहं. ३ ११ मित्ताय परेषाञ्च २० १२ पृष्ठे ४२ १४ २ युद्धाय | ६५ १४ श्रुत्वा ३ ११ नाणुव्वयं हर्जानामि । २१ ६ इतश्चात्रैव ४४ ४ स्वपुत्र- १०१-१०२ अध्य०१६ १० -पृष्टमपि २१ १४ सार्धम् ४८ १३ मूर्छितो १०६ १३ वालु। KI४ १२ नरा १० १३ धम्म चर सु- २२८-११ क्वापि ४६ १४ नगरीम् ११३ १० 'चूर्णीतः' | ४ १३ राजस्वप- ११ ३ सेवस्व २२ १३ लगाम ५० ११ नाम्ना- ११५ २ तत्त्वत्तः ५३ सोऊण तस्स ११ ६ पूर्वोक्तं २४ ५ मुमुचे ५४ ५ प्राणिहिंसां ११७ १२ छिंदई VEVEEVARTALECE ELEVEREE ला४ १दारे Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य नसूत्रे ॥ १७१ ॥ पृ० पं० १२२ ११ यत्त्वं १२४ १ माणुसे १२६ ६ दुक्खा १२८ ६ दुप्पष्टिअ १४७ ४ समयेऽवत १४७ ७ पुण्यरूपां २ योद्धु १५३ १५३ ५ मूच्छितः १५४ १५४ ६ संज्ञस्तु १६० ६ पुण्याढ्ये १ यथावृत्त १६० १० - श्रान्ता१६० ११ - निर्जितो ७ शार्ङ्ग १ चुभितस्त १६३ १६४ १६८ १२ सारहिं १७३ १ चतुर्निकाया १७३६ 'अतिगताः ' १७८ ६ जिइदिओ १७८ १० हस्ती १६० ११ सुमेरी १६१ १ क्रीडागृहं १६१ ४ प्रभावती १६६ १४ - पार्श्वः श्री २०० १३ -संघसमा ४ - गवबोद्ध ७ बहिर्वर्त्तिनः | २०११० बोद्ध| २०३ २०५ २१० २१५ ६ 'च' २१८ ८ चतुर्भिः २१८ १३ कीर्तयतः | २२५ १० किंचेह २२७ ७ तत्काम्यं २३० ८ कामेहिं | २३१ १२ तायंति | २३२ ३ जेहिं ६ शेषः २३२ २३५ १३ प्रवर्त्तितव्य२३७ १२ किं अध्य० २३ २३८ १ - दूनोपि | २३६ ६ छहिं | २४३ १२-१३ तिर्यग्वे | २४३ १४ एकं २४६ ३ इमेहिं | २४८ ११ अहिंतो | २५१ १ सप्तविंश२५१ ८ संघटय२५७ ६ स्वरूप| २६३ ५ बिंदू, २६५ ६ एभिर्लिंगैः २६७ १ संपरायं २६७ १४ - मध्येऽपि | २६७ १४ किट्टीकरणा भाग ४ मां १-४ उतराध्ययन सूत्रम् १-४ अध्य० २६ ५ यनसूत्रम् ७ ११ नपुं संग ८११ गर्हणेन १६ १७ ६ किं ६ किं १८ ७ चारित १६ ६ तक्केइ १६ १२ तार्थिका २१ ११ -प्रत्या २३५ - निवृत्ति२ २५ प्रेसदोषाः ॥१७१॥ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्य पनसूत्रे ॥ १७२॥ पृ० पं० २८ ३१ ५ किं ८ फासिंदि ३२ ८ -ट्ठितिचं ३३ ४ स्त्यानर्द्धि ४० १३ चतुर्विधं ४१ अध्य० ३० ४३ ५ राजधानीनि ४३ १० 'संनिवेशे' ४४ १० कालो ४४ १० मुणेअं ४५ अध्य० ३० ४५ ४५ ६ वयः ३ औत्सर्गिक ४५ ११ 'तुः ' ४५ ११ 'भावाः ' ४६ ५ अप्पले ४६ ४६ १२ तदा ६ गृह्णतः ४६ १४ संसृष्टा ४८ २ सज्झाओ ४६ अध्य० ३१ ५३ ५४ ५६ ६१ ६१ ७ सयणा ६२ ६ आङ्गम तर २ - तिथिषु १ चंदिमा १ ज्योतिष्क ६६ ७२ ७४ ५ दानकार १ नोचितं ८वतुर्निग्र ७५ १ तर्हि ८२ १० वयंति ८२ १२ आमिस ८४ १ तत्थोव ८४ ५ वयंति ८५ ३ चराचरान् १ त्वेतदपि ८७ ६४ १२ दुर्गनि ६५ ५] ज्ञानस्यैव ६.६ १२ तत्त्वेषु ६७ ३ तथैव ६७ ६७ ६७ ६८ १०३ १०६ १११ ११२ ४ वचनात् ५ नुबन्ध्य ७ नवविधं १०३ ६ शृङ्ग १०८ १-६ प्राग्वत् ४ - प्पिणी ८ य उच्च १ नीला ११८ ११६ ४ उक्कोसा २ संमूच्छिमे ११८ २ भिक्खु ११८ ५ गिहकम्म १० क्व ८ सम्बधः १२२ १२३ १ जहिऊण ६ तेसिं १२६ ८ ठाणवि १३० १ -श्रो लुक्खए १३१ ७ -सिद्धाः, | १३४ १३ षड्भागे १३६ २ तेसिं १३८ ११ त्यक्ते १३८ १२ काये उत्पद्यते १३८ १३ अकायि ७ 'अर्चिः' ११ ओहिंजलिया १ कौक्रुच्यं १४३ १४६ १४६ प्रेसदोषाः ॥ १७२॥ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे ॥१७३॥ शुद्धिपत्रम् -॥१७३॥ PDATोललसिला श्रीउत्तराध्ययनसूत्रवृत्तः (भाग ३-४) शोधनपत्रम पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध । २४ १४ हर्ष प्रोतो हर्पप्रतौ ४५ ३ दन्वहम् दन्वहम् १ १३ यार्थः द्वयार्थः २५ ६ बितेनिरे वितेनिरे ४५४ -कुम्भा -कुम्मा ६ सूत्राद्वयार्थः सूत्रद्वयार्थः २५ ११. कृत्वो- कृत्वो- ४६ १३ बजेः बजेः३. ४ विनयेन . विनयेन २५. १४ पण्डिता- पण्डिता- ४८ १२ दमितार- दमितारि३ ५ ध्यान- . -ध्यान २६ १ -भूघरम -भूधरम् ५६ १ चवं . चैवं ६ १० -विशिष्ट- -विशिष्ट- २७ ७ -चन्वेग- चंद्रवेग- ५६, २ क्रमाच्चस्व- क्रमाच्च स्व६ १३ आत्मानो आत्मनो ३२ २ -कान मजा- कानमजा- ६० १-८ प्रावाजी- प्रावाजी- ३ सम्बन्धिनी सम्बन्धिनी' ३३ ३ -चल मूर्द्धनि -चलमूर्द्धनि ७१ ३ तद्विधा- तद्विद्या६ विपु । म्न- वपुः॥म्र- ३७ १४ -त्रागात -त्रागात् ७३ ७ राजचिहन- राजचिन्ह Eन ते न ते कृपा ३८ ७ महार्थ- महानथे- ७३ १४ व्रतामाददे व्रतमाददे २० ५ वपुः वपुः ४० १० अमिततेजाः-मिततेजाः ८१ ११ इवापारः . इवापरः । २० ६ -भवत् भवत् । ४३ ४ ब्रजन् वजन् । ८३ १४ स्वर्णकारम् स्वर्णकारम् २२ २ बाहो वह्व- वाहो बह- ४४ ७ -शंसिनीम् -शंसिनीम् ॥ | ८७ १२ मार्चा-.. मच्चा mm www. - Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उचराध्ययनसूत्रे ॥१७४॥ शुद्धिपत्रम् ॥१७॥ पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध । १३३ ६क्रियत्का किचिक | १८२ ३ बिडम्बनां विखम्बना ११ यात्वेति सूदमी- ध्यास्वेति | १३५ मुलद्ध' खुचि 'मुलद्धं खुत्ति १८८४ मात्रयो बैमानेयों सूदमि | १३७ ३ -विविक विविक्त- १६० ११ चमहो- जन्ममहो१२ ४ -वीभोर्वाणी -विभोर्वाणी १४६ ४ धर्मश्रमा- धर्मश्रमा- | १६१ ४ प्रसेमिज- प्रसेनजि सोऽभुक्तः सोऽभुक्त १४८ २ स्मारं स्मारं स्मारं | १६३ १४ तहतस्या- ततस्या १. विमला-हतः बिमलाईतः | १५० ४ामावहिः प्रामाद्वहिः १९४ ५ -अनव- धन६५ १४ मनि १५५ ६ मणीनीरेण मणिनीरेण | १६४ १४ विसृज्पमानः विकृत्यमानः | १ तरिष्यन्त- तरिष्यन्त्य- | १६२ ७ नययोजन. नषयोजन- | १९७ १० -विद्यद्या- विधव्या११ बृहदृक्षा- बृहदक्षा | १६३ १० गाभि- गर्जाभि- १६७ १३ पाश्र्वभत्तु: पाश्र्वभत्तु १०५ ४ काममोग- कामभोग- | १६४ १४ ध्वानात्तातः ध्वानात्ततः | २०१ ११ -सिक्खनो -सिक्सिो १०६ २ घोरेउ पोरं धारेउं । १६४ १४ प्रथमपदः । प्रथमपादः २०२ १३ रूपंप्रति- रूपं-प्रति१०६ १२ बोढभ्य बोढव्य | १६६ १४ -जवन- -जयन- २०२ १३ -वित-प्रति- चितप्रति१०८ चि किंचि | १७० ६ स्वाभीष्टो स्वाभीष्टे | २०५२ साव: साधवः १२२ १० उपस्थितश्व उपस्थितश्च | १७४ १४ अद्वेला- मुद्धेला- २०५५ चक्रजड़- वक्रजड Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनस्त्रे ॥१७॥ शुद्धिपत्रम् ॥१७॥ س पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध २४८ २ विदर्भ विदर्भ १५ ७ देशाम्ना देशाग्रा २०६ २ भयंकराः भयङ्कराः २४६ ११ घुन २३ १२ -तथा -तया २१३ १२ त्वामारूढः त्वमारूढः २५० ६ तद्वन्दमं ६ स्पाहिति स्पादिति २२० १० स्जोहणा- रजोहरणा- २५५ १ बहुत्व- बहुत्व- २४ १३ पुत्राकि- पुत्रादि२२१ १ आणावाए अणावाए २५६ १ अप्ता- अष्टा - नववधं नवविध २२१ २ वघाइ घाइने २५६ ३ अधर्मास्किाय अधर्मास्तिकाय ३५ ६ -लित्रक- लिप२२२ २ -पदिन- पदनि- २५६ १४ सम्बम्ब- सम्बन्ध १२ -निहारि, निहारि, २२५ १० -पद्रनाशक: पदवनाशक: | २६२ ११ प्रणामे भावाने निस्याभिसम्ब-नित्याभिसम्बन २३५ ३ चाचश्यं चावश्यं २६२ १२ सम्मा- सम्भवा १४ तरेक्कातीसा तहेषकातीसा २३६ ५ दर्शयितु- दर्शयितु भाग ४ पञ्चनी पञ्चमी २४० १३ नभश्रतु- नभश्चतु- १६ मिच्छसंवेगं संवेगं । १३ सर्व पर्याय- सर्वपर्याय२४२ ६ तिर्यगर्ध्व- विर्यगर्ध्व ५ भागार- भगार ५ जीवश्य जीवस्य २४४ १. -बाऊ वाऊ- ६ ६ खङ्गादिना खादिमा २४५ ३ प्याव्यन्ते प्लाव्यन्ते १२ ३ पायच्चि- पायच्छित- ५३ ७ -कहतर- तर Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तराध्ययनसूत्रे ॥१७॥ शुद्धिपत्रम् HD॥१७६॥ GRICURRRRRRRRRRRASर पृष्ट पंक्ति अशुद्ध शुद्ध १०० २ एदिए एगेंदिए . १३८ २ अंतो मुहुत्तं अंतोमुहुत्तं ३ -सतिः सतिः स्थितिः १०१ १ व्याख्य व्याख्या १३८ ६ अमुञ्जतां अमुञ्चतां ३ -मुपलक्षा- -मुपलक्षणा | १०१ ११ ज्ञात्ता ज्ञात्वा १३८ ११ त्यक्ते त्यक्ते १२ -विभिन- विभिन्न- १०७ १ -शम्दः शब्दः १३८ ११ कोऽयों कोऽर्थों . १ स्वेतदपि त्वेतदपि १०८ १-६ प्राग्वत् प्राग्वत् १३६ २ पज्जता पज्जता ५ अद्विष्टचेति अद्विष्टश्चेति | १०६ १ 'गुत्तसुत्ति' 'गुत्तिसुत्ति' १३६ ५ अंतो अंतो ६ संक्षेपेणुाह. संक्षेपेणाह | १११ ४ उकोसा उक्कोसा | १३६ १० 'घूमर' . 'धूमर', २ विकारापातेः विकारापत्तेः | ११६ १ -संपरन्नु- संहरन्नु- | १४२ ३ काश्चिद्ध- कश्चिद्व१ मृदुव्य- मृद्व्य- | ११८ ५ गिहकाम्म- गिहकम्म- १६४ ११ -स्यैतकु- -स्यैतल५ पञ्चविधि- पञ्चविध- ११६ ८ सम्बन्धः सम्बन्धः | १६८ १ 'दवींद्रा' -दवीं द्रा४ -शब्दार्थः -शब्दार्थः | १२० ८ विकृये विक्रये | १६८ ५ मिव मिव । ६६ १२ ऽत्तवेषु ऽत्तत्त्वेषु | १२६ ७ संठाण ओवि संठाणोवि १६८ ७ -सद्धयेव -पद्धयेव १८ ७ -मिक्षघाकु- -भिक्षावाकु- | १३५ ११ दर्शन संज्ञि- दर्शनसंज्ञि १६८१ गोर्भी- -गोभि६८. ८ -यउ च्चे- न्य उच्चै- १३७. ११ त्यामी त्यमी ANG LALAFAQATGGVGVESEN Page #455 --------------------------------------------------------------------------  Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | E ... प्रशान्तामृतपथोधिः, सरिजंगति विश्रतः विजयभद्रनामासो, भूयाच शरणं मम / / महामहोपाध्याय श्रीभावविजयगणिविरचितया वृत्या समलंकृतम् भक्ति श्रीउत्तराध्ययनसूत्रं समाप्तम् वक्तृत्वकलया युक्तः, पंन्यासपदभूषितः / चरणविजयो गुरु-र्जियाच जिनशासने / H सुन्दर