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________________ उत्तराध्य यनसूत्रम् ॥११४॥ मूलम् - जा तेऊए ठिई खलु, उक्कोसा सा उ समयमभहि । जहणणेणं पम्हाए, दस उ मुहुत्ताहिआईं उक्कोसा ॥५४॥ व्याख्या – अत्र 'सा उत्ति' सैव 'दस उत्ति' दशैव देवप्रस्तावात्सागरोपमाणि 'मुहुत्ताहि आई ति' पूर्वोत्तरभवसत्कान्तर्मुहूर्त्ताधिकानि, इयं च जघन्या सनत्कुमारे, उत्कृष्टा ब्रह्मलोके । श्राह-यदीहान्तमुहूर्त्तमधिकमुच्यते तदा पूर्वत्रापि किं न तदधिकमुक्तं ? उच्यते - देवभवलेश्याया एव तत्र विवक्षितत्वात्, प्रतिज्ञातं हि 'तेरा परं वोच्छामि, लेसाण ठिई उ देवाणंति एवं सतीहान्तमुहूर्त्ताधिकत्वं विरुध्यते, नैवं, यत्र हि पूर्वोत्तरभवलेश्यापि " अंतोमुहुत्तंमि गए, अंतमुहुसंमि सेसए चैवत्ति" वचनादेव भवसम्बधिन्येवेति प्रदर्शनार्थमित्थमुक्तमिति न विरोध इति भावनीयम् ॥ ५४ ॥ शुक्लायाः स्थितिमाह मूलम् - जा पन्हाई ठिई खलु, उक्कोसा सा उ समयमभहिया । जहगणेश सुक्काए, तित्तीसमुहुत्तमम्भहिया ॥५५॥ व्याख्या— 'तित्तीसमुहुत्तमब्भहित्ति' त्रयस्त्रिंशन्मुहूर्त्ताभ्यधिकानि सागरोपमाण्युत्कृष्टेति गम्यते, अस्या जघन्या लान्तकेऽपरा त्वनुतरेष्विति द्वाविंशतिसूत्रार्थः ।। ५५ ।। उक्तं स्थितिद्वारं गतिद्वारमाहमूलम् - किएहा नीला काऊ, तिरिणऽवि एआ उ हमलेसाओ । एहिं तिहिंऽवि जीवो, दुग्गईं उववजइ ॥ ५६ ॥ तेऊ पहा सुक्का, तिरिणऽवि एमा उ धम्मलेसाओ । एहिं तिहिंऽवि जीवो, सुग्गइं उवव eeee अध्य० ३४ ॥११४॥
SR No.600344
Book TitleUttaradhyayanani Part 03 And 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavvijay Gani, Harshvijay
PublisherVinay Bhakti Sundar Charan Granthmala
Publication Year1959
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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