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________________ उत्तराध्ययनसूत्रम् ॥१॥ ABDDDSSSSS मुलम्—घाणस्स गंधं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाहु। तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु, समो उ जो अध्य०३२ तेसु स वीअरागो ॥४८॥ गंधस्स घाणं गहणं वयंति, घाणस्स गंधं गहणं वयंति । तं रागहेउं तु मणुएण- ॥१॥ माहु, दोसस्स हेउं अमणुएणमाहु ॥४६॥ गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालिअं पावइ से विणासं । रागाउरे ओसहिगंधगिद्धे, सप्पे बिलाओ विव निक्खमंते ॥५०॥ जे आवि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुईतदोसेण सएण जंतू , न किंचि गंधं अवरज्झई से ॥५१॥ एगंतरत्तो रुइरंसि गंधे, अ- || तालिसे से कुणई पओसं । दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले, न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥५२॥ गंधाणुगासा- lal गए अजीवे. चराचरे हिंसडोगरवेचित्तेहि ते परितावेद बाले. पोलेड अत्तगुरू किलिठे ॥ ५३॥ या गंधाणुवाए ण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्नियोगे। वए विओगे अ कहिं सुहं से, संभोगकाले अ अ तित्तिलाभे ॥५४ गंधे अतित्ते अपरिग्गहे अ, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढेि । अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥५५॥ ____ व्याख्या-'योसहि' इत्यादि-औषधयो नागदमन्याद्यास्तासां गन्धे गद्धः औषधिगन्धगृद्धः सन् ‘सप्पे बिलाओ विवत्ति' इहेवशब्दस्य भिन्नक्रमत्वात् सर्प इव विलानिष्क्रामन् , स सत्यन्तप्रियं तद्गन्धमुपेक्षितुमशक्तो विलानिष्कामति, ततो गारुडिकादिपरवशो दुःखम Everecev. AveVEVE
SR No.600344
Book TitleUttaradhyayanani Part 03 And 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavvijay Gani, Harshvijay
PublisherVinay Bhakti Sundar Charan Granthmala
Publication Year1959
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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