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उचराध्यपनसूत्रम् ॥८ ॥
अध्य०३२ ॥८ ॥
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| चित्तेहिं ते परितावेइ बाले, पीलेइ अत्तगुरू किलिट्ठे ॥४०॥
व्याख्या अत्र 'चराचरे हिंसइत्ति' वाद्योपयोगिस्नायुचर्माद्यर्थ चरान् , वंशमृदङ्गकाष्ठाद्यर्थमचरांश्च हिनस्ति ॥४०॥ | मूलम-सदाणुवाए ण परिग्गहेण, उप्पायणे रक्खणसन्निओगे । वए विओगे अ कहिं सुहं से, संभोगकाले
अ अतित्तिलाभे ॥४१॥ सद्दे अतित्ते अ परिग्गहे अ, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुर्दिछ । अतुट्ठिदोसेण दुही । परस्स, लोभाविले आययई अदत्तं ॥४२॥ तण्हाभिभूअस्स अदत्तहारिणो, सद्दे अतित्तस्स परिग्गहे अ।
मायामुसं वडइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ४३॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ अ, पोगकाले अ दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो, सद्दे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ४४॥ सदाणुरत्तस्त
नरस्स एवं, कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि । तत्थोवभोगेवि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ॥ ४५॥ एमेव सदमि गओ पोसं, उवेइ दुवखोहपरंपराओ। पदुट्ठचित्तो अ चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ बुहं विवागे ॥४६॥ सद्दे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमज्झवि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ॥४७॥२ .
व्याख्या-'अदत्तं' गीतगायकदास्यादि वीणावंशादिकं वा शोभनशब्दोत्पादकं वस्तु पादत्ते ॥४२॥
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