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उत्तराध्य-
अध्य० ३२
॥२॥
यनसूत्रम् ॥२॥
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नुभवतीति ॥ ५० ॥ अत्र मूषकमुष्कमृगनाभिप्रभृतिहेतवे पुष्पादिहेतवे व चराचरान् हिनस्तीति ॥ ५३ ॥ इहादत्तं सुगन्धितैल-कस्तू- रिका-कुसुमादि ॥ ५५॥ मूलम्-तहाभिभूअस्स अदत्तहारिणो, गंधे अतित्तस्स परिग्गहे अ। मायामुसं वडइ लोभदोसा, तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ।५६॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थो अ, पोगकाले अ दुही दुरते। एवं अदत्ताणि समाययंतो, गंधे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो॥५७॥ गंधाणुरत्तस्स नरस्स एवं, कुत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि।। तत्योवभोगेवि किलेसदुक्खं, निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ॥५८॥ एमेव गंधम्मि गओ पोस, उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। पदुटुचित्तो अ चिणाइ कम्मं, जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥५६॥ गंधे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमन्झवि संतो, जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ॥६०॥३॥ मूलम्—जीहाए रसं गहणं वयंति, तं रागहेडं तु मणुएणमाहु। तं दोसहेउं अमणुण्णमाहु, समो अ जो तेसु स वीअरागो ॥६१॥ रसस्स जिन्भं गहणं वयंति, जिब्भाए रसं गहणं वयंति। रागस्स हेडं समणुएणमाहु, दोसस्स हेउं अमणुण्णमाहु ॥६२॥ रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालिनं पावइ से विणासं । रागाउरे बडिसविभिनकाए, मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे ॥६३॥ जे आवि दोसं समुवेइ तिव्वं, तंसि
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