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उत्तराध्यपनपत्रे ॥८॥
वास्तव में प्रस्तुत ग्रंथ रत्न की प्रस्तावना लिखने का अधिकारी में कुछ भी नहीं हूँ। आगमज्ञ विद्वान् ही इसके अधिकारी है। प्रस्तावना | मैंने अपनी असमर्थता भी मुनि श्री से निवेदित की पर प्रस्तुत भाग बीकानेर में छपा है और मुनि श्री को इसे शीघ्र ही प्रकाशित करवा
॥८ ॥ विहार करना है इसलिए बाहर के अन्य किसी विद्वान् से प्रस्तावना मंगाकर प्रकाशित करने का समय न देखकर मुझे ही लिख देने का कि उन्होंने भादेश दिया, जो मेरे लिए शिरोधार्य करना कर्तव्य हो गया । पुनः इस प्रसंग से प्रस्तुत सूत्र के प्रकाशित कई संस्करणों को पुनः देख जाने का मुझे सुयोग मिला इसके लिए में मुनि श्री का आभारी हूँ।
प्रस्तुत सूत्र में बहुत मर्मस्पर्शी उपदेश और सुभाषित गाथाओं का अनुपम संग्रह है। उनमें से कुछ सुनी हुई गायींओं को अर्थ ॥ सहित प्रस्तावना में देने का विचार था पर प्रस्तावना अधिक विस्तृत न हो जाय, इस भय से उस लोम का संवरण करना पड़ा है। इसी प्रकार भावविजय गणि की टीका में जो बहुत सी रोचक और प्रेरणादायक कथाएं हैं उनकी और भी पाठकों का ध्यान दिलाना श्राव श्यक था पर ग्रंथ छपा हुआ तैयार था अतः प्रस्तावना के लिए प्रकाशन में विलम्ब करना उचित नहीं समझा गया। आशा है कि भगवान महावीर की इस उदात्त वाणी के स्वाध्याय में हम सब अधिकाधिक प्रयत्नशील होंगे।
-अगरचन्द नाहटा