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________________ उत्तराध्ययनसूत्रे प्रस्तावना ॥७॥ NEOYEGreecVEGEGYEEYEGeeeeeeeeee और भी कुछ फुटकर साहित्य खोज करने पर मिलेगा। इस सूत्र के अनेक संस्करण अनेक स्थानों से निकल चुके हैं । मूल और टीकाओं के गुजराती व हिन्दी में अनुवाद कई प्रकाशित हुए हैं। अंग्रेजी में डा. हार्मन याकोबी ने अनुवाद किया और रोमन अक्षरों में श्रीमूलमूत्र प्रकाशित हो चुका है। | इस ग्रंथ में भावविजयगणी रचित टीका प्रकाशित हो रही है। उन्होंने रोहिणीपुर में संवत १६८६ में इसकी रचना की है। इनके गुरुभ्राता विजयहर्षगणि ने इसकी रचना में सहायता की थी। ये तपागच्छीय विजयदानमरि के शिष्य विमलहर्ष शि० उपाध्याय मुनिविमल के शिष्य थे । प्रस्तुत टीका में उन्होंने कथाएं पद्यबद्ध रची है। ये बहुत अच्छे विद्वान् थे। इन्होने सं० १६७६ में पत्रिंशज्जल्पविचार और सं० १७०८ वीजापुर में चम्पकमाला कथा की रचना की है। इससे इनका साहित्य सृजन का काल ३० वर्षे का सिद्ध होता है। इन्होंने अन्य विद्वानों के रचित कई ग्रंथों का संशोधन भी किया है। जैसे सं० १६७७ में जयविजयकृत कल्पसूत्र दीपिका और | सं० १६६६ विनयविजयकृत सुबोधिका टीका तथा उन्हीं के सं० १७०८ में रचित लोकप्रकाश नामक बृहत ग्रंथ का संशोधन किया है। | इससे आपकी विद्वता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। प्रस्तुत टीका का प्रकाशन सं० १६७४ में आत्मान्द सभा, भावनगर द्वारा दो भागों में हुआ था। वह अप्राप्त होने से मुनि श्री हर्षविजयजी ने यह संस्करण बड़े परिश्रम से संशोधन करके प्रकाशित करवाया है। मुनि श्री का यह प्रयत्न प्रत्येक स्वाध्याय प्रेमी और | व्याख्यानदाता मुनियों के लिए लाभप्रद होगा। इसी तरह वे और अन्य ग्रंथों के सम्पादन और प्रकाशन में प्रयत्नशील रहकर जैन साहित्य की अच्छी सेवा करते रहेंगे इस शुभ आशा के साथ यह प्रस्तावना पूर्ण की जा रही है।
SR No.600344
Book TitleUttaradhyayanani Part 03 And 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavvijay Gani, Harshvijay
PublisherVinay Bhakti Sundar Charan Granthmala
Publication Year1959
Total Pages456
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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