Book Title: Mahapurana Part 5
Author(s): Pushpadant, P L Vaidya
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्यमाला : अपभ्रंश ग्रन्थांक-28 महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु [महाकवि पुष्पदन्त-विरचित महापुराण ] पाँचवाँ भाग तीर्थंकर नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और वर्धमान महावीर-चरित (सन्धि 81 से अन्तिम सन्धि 102 तक) मूल-सम्पादन डॉ. पी.एल वैद्य हिन्दी-अनुवाद डॉ. देवेन्द्रकुमार जैन, इन्दौर भारतीय ज्ञानपीठ प्रथम संस्करण : 1999 - मूल्य : 120.00 रुपये Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम सन्धि पृष्ठ 84 85 107 118 136 163 81 नेमिजिन को तीर्थकर प्रकृति का बन्ध 82 वसुदेव का जन्म एवं अन्धकवृष्णि का निर्वाण-गमन 83 समुद्रविजय और वसुदेव की भेंट तथा बलेदब का जन्म वासुदेव श्रीकृष्ण का जन्म कृष्ण का बालक्रीडा-वर्णन 86 कंस और चाणूर का वध 87 नेमिकुमार का जन्म 88 जरासंध-वध 89 बलदेव और कृष्ण के पूर्वभवों का वर्णन 90 कृष्ण और महादेवी के पूर्वभवों का वर्णन 91 रुक्मणि और कामदेव का संयोग तीर्थकर नेमिनाथ का निर्वाण-गमन मरुभूति और करीन्द्र जन्मावतार 94 पार्श्वनाथ का निर्वाण-गमन 95 वर्धमान महावीर का बोधिलाभ 96 महावीर का निष्कमण (दीक्षा-धारण) वर्णन 97 वर्धमान महावीर को केवलज्ञान की उत्पत्ति 98 चन्दना के पूर्वभनों का वर्णन 99 जीवन्धर स्वामी के पूर्वभवों का वर्णन 100 जम्बूस्वामी का दीक्षा-वर्णन 101 प्रीतिंकर आख्यान 102 वीर जिनेन्द्र का निर्वाण-गमन 186 208 231 252 266 290 305 318 325 348 374 386 405 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु एक्कासीतिमो संधि 'पणविवि गुरुपयई भव्यहं तमोहतिमिरंधह। कहमि मिचरिउं भंडणु मुरारिजरसंघह ॥ ध्रुवकं ॥ धीर' अविहियसामयं दूसियसोत्तियसामयं रक्खियसयत्तरसामयं चंडतिदंडुवसामयं जणियदुक्खवीसामयं गासियतिव्यतिसामयं बलविद्दविविवाहयं 'दूरुम्मुक्कविवाहयं 'कयणिवपुत्तिविसूरणं सीहं हयसरसामयं। विद्धंसियहिंसामयं। अक्खियधम्मरसामयं । अलिणीलंजणसामयं। अदविणजीवासामर्य। वेरीणं पि सुसामयं। पसमिबसेलविवाहयं। णिच्चं चेय विवाहयं। पयणयसुरणरसूरयः। 10 इक्यासीवीं सन्धि गुरुचरणों में प्रणाम कर उन भव्यजनों के लिए, जो अज्ञानसमूह के अन्धकार में हैं, मैं नेमिचरित तथा श्रीकृष्ण और जरासन्ध के युद्ध का वर्णन करता हूँ। जो धीर हैं, जिन्होंने लक्ष्मी का मद नहीं किया है, जिन्होंने कामरूपी हाथी को नष्ट कर दिया है, जिन्होंने ब्राह्मणों के सामवेद को दूषित (दोषपूर्ण) कहा है, जिन्होंने हिंसामतों को ध्वस्त किया है, जिन्होंने समूची पृथ्वीरूपी मृग की रक्षा की है; धर्मरूपी रसामृत का आख्यान किया है, जो प्रचण्ड त्रिदण्ड (मन-वचन-काय) का उपशम करनेवाले हैं, जो नीले अंजन के समान श्याम हैं, जो दुःखों को विश्राम दे चुके हैं, जो धनहीनों को जीवन की आशा देनेवाले हैं (अथवा द्रव्य की आशा रखनेवाले नहीं हैं), जिन्होंने तीव्र तृष्णा रोग को नष्ट कर दिया है, जो शत्रुओं से भी प्रियवचन कहनेवाले हैं, जिन्होंने अपनी शक्ति से, विष्णु (कृष्ण) के द्वारा रचाया गया विवाह अस्वीकार कर दिया है, जिन्होंने पर्वतों के पक्षियों और व्याधों को शान्त कर दिया है, नित्य विशेष बाधा देनेवाले विवाह को दूर से त्याग दिया है, जिन्होंने राजकन्या (राजुल) को विरहपीड़ा जीवासा । 6.5 दुरुविमुक्क। 7. AS "नृय | H. AS "विसूरयः । (1) 1. 5 पणमवि। 2. S"पइयं । १. ABP "जरसिंघहं। 4. ARP वीर। 5. विसरणं । 9. APS "सुरयण': T सुरणर । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [81.1.12 महाकपुष्कयतविरयउ महापुराणु हरिकुलणहवलसूरयं इंदियरिउरणसूरयं । णीणं सिवपुरवासरं" तिवारयणीवासरं। तवसंदणणेमीसयं णमिऊणं णेमीसयं । पत्ता-भारहु भणमि हउं पर किं पि णत्थि सुकइत्तणु। मज्झि वियक्खणहं किह मुक्खु *लहमि गुणकित्तणु ॥1॥ 5 णउ मुणमि विसेसणु णउ विसेसु णउ छंदु गणु वि देसिलेसु । अहिकरणु करणु णउ सरपमाणु णायण्णिउ आगमु णउ पुराणु। कत्तारु' कम्मु णउ लिंगजुत्ति परियाणमि णउ एक्क वि विहत्ति। दिगु दंदु कम्मधारउ समासु तप्पुरिसु बहूवीहि य पयासु। अव्वइभाउ वि णउ भावि लग्गु । णउ जोइउ सुकइहिं तणउ मग्गु। णउ गर वि मयंत टिकंतु दिहु पर अत्थि अत्थु णउ सदु मिठु। भरहहु केरइ मंदिरि णिविट्ठ जणि णउ लज्जमि एमेव घिठु । हउं कव्वपिसल्लल कव्वकारि जायउ बहुसुयणहं हिवयहारि।" खलसंढह" पुणु परदोसबसणु "ण णिवारमि विरसई भसउ भसणु। दी है। सुर, नर और नाग जिनके चरणों में नत हैं, जो हरिवंशरूपी आकाश के लिए सूर्य हैं, जो इन्द्रियरूपी शत्रु के लिए युद्धशूर हैं, जो मनुष्यों के लिए शिवपुर का वास देनेवाले हैं, जो तृष्णारूपी रात के लिए सूर्य हैं, जो तपरूपी चक्र के आरे हैं, ऐसे नेमीश्वर को नमस्कार कर__घत्ता-मैं भारत (कौरव-पाण्डव-युद्ध) का वर्णन करता हूँ। मेरे पास कुछ भी कवित्व नहीं है। विचक्षणों (बुद्धिमानों) के बीच में मैं मूर्ख किस प्रकार गुणकीर्तन (यश) पा सकता हूँ ! (2) न मैं विशेषण जानता हूँ और न विशेष्य । न छन्द जानता हूँ और न मात्राएँ, न गण (धातुओं के भवादिगण) और न देशी शब्दों को लेशमात्र जानता हूँ। अधिकरण, करण (कारक) और न स्वरों का प्रमाण मुझे मालूम है। न तो मैंने आगम सुना है और न पुराण; कर्ता, कर्म और लिंग को भी मैं नहीं जानता हूँ। एक भी विभक्ति; द्विगु, द्वन्द्व, कर्मधारय, तत्पुरुष, बहुव्रीहि और अव्ययीभाव समास में भी मेरा चित्त नहीं लगता; मैंने सुकवियों के मार्ग को भी नहीं देखा। न मैंने सुबन्त-तिङन्तपद देखे; न मेरे पास अर्थ है और न मीठा शब्द । मन्त्री भरत के भवन में रहता हुआ मैं ऐसा ही एक ढीठ हूँ जो लोगों से लज्जित नहीं होता। काव्य-निर्माता और काव्य में निपुण, मैं बहुत से सुजनों के हृदय का प्यारा हो गया हूँ। परन्तु फिर भी, मैं दूसरे के दोष IG. S औरउल । 11. "परिभ। 12.5 लादि। (2) 1. 5 कत्तार। 2. 5 परियाणवि एक पि ण वि। 3. A तप्पुरिसु वि घयिहि विहिपपासु। 4. B अन्वइमविं वि। 5. ABP भाउ। 6. A तिडंतु; P भियंत्। 7. AP पइट।H. A जणि 'गउ जणि लज्जयि एवं बिछु। 9. A एय; ] एमेय। 10. B हियह। 11. Als. संडष्टु अgainst Mss.; but gloss in S दुर्जनसमूहान। 12.18 ग: वारमि। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81.3.11] महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु 13 हउं करमि कच्चु सो करउ जिंद" फलु जाणिहिंति दोहं मि मुणिंद। 10 यत्ता-सरसु सकोमल? खलगलकंदलि पर देप्पिणु । हिंडेसइ विमल महु कित्ति तिजगु लंघेप्पिणु ॥2॥ (3) चिंतिज्जड़ काई खलावराहु बीहंतु वि किं ससि मुयइ राहु। मुडु पसियउ महु जिणवीरणाहु लइ करमि कब्बु सुहजणणु साहु। भो सुयण भव्ववरपुंडरीय भो णिसुणि भरह गुरुयणविणीय। पंदणवणपहुधारारसिल्लि 'महमहियविविहपप्फुल्लफुल्लि' । गुमुगुमुगुमंतहिंडियदुरेहि इह जंबूदीवि पच्छिमविदेहि। सीयाणइउत्तरतडणिवेसि जणसंकुलि गंधिलणामदेसि। गणागलग्गहिराधनलहम्मि' पायारगोउरारावरम्मि। सीहरि णराहिउ अरुहदासु वच्छत्थलि णिवसइ लच्छि जासु । वाईसरि मुहि जसु "दसदिसासु "पाणि? देबि जिणदत्त तासु। दोहिं मि जणेहिं णरणायबंदु एक्कहिं दिणि अहिसिंचिउ जिणिंदु। 10 णिसि सुंदरि कुलिसु व मज्झि खाम जिणयत्त पसुत्ती पुत्तकाम। ग्रहण करने की प्रकृतिवाले दुर्जन-समूह का निवारण नहीं करता। भले ही कुत्ते भौंकें, मैं काव्य की रचना करता हूँ। निन्दक भले ही निन्दा करे। मुनीन्द्र ही दोनों का फल जानेंगे। पत्ता-मेरी विमल कीर्ति अपने सरस और कोमल चरण दुर्जन के गले और सिर पर रखकर, त्रिलोक का अतिक्रमण करती हुई, विचरण करती हुई घूमेगी। दुष्टों के अपराधों की चिन्ता करने से क्या ? क्या काँपते हुए चन्द्रमा को राहु छोड़ देता है ? मुझ पर जिनवीरनाथ शीघ्र प्रसन्न हों। मैं सुखजनक (पुण्यजनक) काव्य की रचना करता हूँ। हे भव्यरूपी उत्तम कमल, गुरुजन-विनीत हे सज्जन भरत ! सुनो, जहाँ मधुधारा से रसमय और महकते हुए फूल खिले हुए हैं तथा गुनगुनाते हुए भ्रमर भ्रमण कर रहे हैं, ऐसे जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह में सीतोदा नदी के उत्तर तट पर स्थित, जनसंकुल सुगन्धिल नाम का देश है। उसमें सिंहपुर नामक नगर है; जिसमें अपने अग्रभाग से आकाश को छूनेवाले हिमधवल प्रासाद हैं, जो गोपुरों, परकोटों और उद्यानों से सुन्दर हैं। उसमें अरहदास नामक राजा निवास करता है। उसके हृदय में लक्ष्मी और मुख में सरस्वती तथा दसों दिशाओं में यश निवास करता है। जिनदत्ता उसकी प्राणप्रिया पली है। एक दिन उन दोनों ने मनुष्यों और नागों के द्वारा वन्दनीय जिनेन्द्रदेव का अभिषेक किया। मध्यभाग में वज्र की तरह दुबली-पतली (कृशोदरी) जिनदत्ता, पुत्र की कामना लेकर रात में सोयी। 19. AP गंथु। 14. R जिंदु। 15. APS टो िभि। 16. B मुणिंदु। 17. APS सुकोमलउं। (3) 1. BP वणि। 2. सैल्लि। 3. B महिए। 4. B'पफुल्ल । 5. B इय। 6. A सीबोयहि: P सोओयति । 7. P"यलि । ४.5 णराहियु। 9.5 अरहदात् । 10.11 दश। 11. 0 प्राणिट्ट। 12. B जिणवत्त। 13 B मज्झखाम। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकइपुम्फयंतविरवर महापुराणु [81.3.12 पत्ता–सिविणइ दिटु हरि करि चंदु सूरु सिरि गोवइ। ताइ कहिउँ पियहो" सो णिम्मलु णियमणि भावइ ॥3॥ होसई सुउ हरिणा रिउअजेउ ससिणा सूहल णिरु' सोम्मभाउ सिरिदसणि सुंदरु सिरिणिकेउ थिउ गब्भि ताहि 'मिगलोयणाहि उप्पण्णउ णवजोव्वणि बला कमणीयही कंतहं जणिउ राउ णहदसदिसिवहणिग्गयपयाऊ णिसुणेवि धम्मु 1 उववणिवासि कुलसंपय देवि सर्णदणासु पुत्तें गहियाई अणुव्ययाई आवेप्पिणु केसरिपुरि पइट्ठ करिणा गरुयउ गुरुसोक्खहेउ। सूरेण महाजसु तिब्बतेउ। कइवयदिणेहिं साणंदु देउ। णवमासहि कसणाणणथणाहि । देवह मि मणोहरु णाई सग्गु। अरिसिरचूडामणिदिण्णपाउ । जायउ दियहहिं रायाहिराउ। तारण विमलवाहणहु पासि। जिणदिक्ख लेवि कउ मोहणासु। पयडीकयसुरणरसंपयाई। कालेण पराइउ एक्कु इटु । 10 घत्ता-स्वप्न में उसने देखा-सिंह, हाथी, चन्द्र, सूर्य, लक्ष्मी और वृषभ । उसने यह बात अपने प्रिय से कही। वह भी अपने मन में विचार करने लगा। उसने कहा- "सिंह देखने से शत्रु के लिए अजेय पुत्र होगा, हाथी देखने से महान् और सुख का कारण होगा, चन्द्रमा देखने से अत्यन्त सुभग और सौम्य स्वभाव का होगा। सूर्य देखने से महायशस्वी और तीव्र तेजवाला होगा, लक्ष्मी देखने से सुन्दर और लक्ष्मी का घर होगा।" कुछ दिनों के बाद कोई देव आनन्दपूर्वक उस मृगनयनी देवी के गर्भ में स्थित हो गया। श्याम मुख और स्तनोंवाली उस देवी से नौवें माह में उत्पन्न वह शीघ्र नवयौवन को प्राप्त हो गया। उसकी रचना देवों से भी सुन्दर थी। उसने सुन्दर स्त्रियों में राग-चेतना उत्पन्न कर दी। शत्रुओं के सिरों के चूड़ामणियों पर पैर रखनेवाला और आकाश तथा दसों दिशाओं में अपने प्रताप का प्रसार करनेवाला वह कुछ ही दिनों में राजाधिराज हो गया। अपने उपवन के निवास-घर में मुनि विमलबाहन के पास धर्म सुनकर, पिता ने अपने पुत्र को कुलसम्पत्ति देकर और जिनदीक्षा ग्रहण कर मोहनाश किया। पुत्र ने भी देयों और मनुष्यों की सम्पत्ति को उत्पन्न करनेवाले अणुव्रत ग्रहण कर लिये। बह आकर सिंहपुर रहने लगा। कुछ समय बाद एक इष्ट (मित्र) उसके पास आया। 14. B प्रियह। 11.किन्नु नृभजनी राजा)। (4) 1. P मिरिसम्म । 2. 18 सोमभा। ४. B दिचतेउ; Als. Proprises to read दियकाउ without Ms. authority. 4. A मृग-। 5. 19] =पासहि: A कालाणगथणारे; As. reads in $ करणाणणप्पणाके, but the Ms. gives कसणाणपणाहे where this wrongly cupied for 2 । 7. P कमगीयहि। 8. गियराउ । 9. A तर दस": णहदशदिशिष। 10. B उययणि। ।। B आएप्पिणु। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81.5.13] [5 महाकपुप्फयतविरया महापुराणु घत्ता-तेण “पयंपियर्ड गउ विमलणाहु णिच्चाणाहु । जिह सो तिह अवरु तुह जणणु वि सासयठाणह ||4|| जं सुणिउ' ताउ संपत्तु मोक्नु तं जायउं अबराइयहु दुक्खु । र पलाद ण परिहद परिहणाई णउ लावइ अंगि विलेवणाई। णउ कुसुमई विसमियसडयणाई णउ आहरणइं णियकुलहणाई। घवघवघवंतपयणेउराई णालोयई पहु अंतेउराई। णउ भुंजइ उवणिउ दिव्यु भोउ ण सुहाइ तासु एक्कु वि विणीउ। चिंतइ णियमणि हयदुष्णयाई जइ तायविमलवाहणपयाई। 'पेच्छेसमि' मुंजमि पुणु धरित्ति णं तो "यसणंगहं महुं णिवित्ति। इय जाम ण लेइ गरिदु गासु गय दियह पुण्णु" अटोववासु । तहि अवसरि इंदहु चिंत जाय मुहकुहरहु णिग्गय महुर वाय। जज्जाहि धणय बहुगुणणिहाउ मा मरउ अपुण्णइ कालि राउ। सिरिअरुहदासरिसिणा सणाहु ___ दक्खालहि जिणवरु विमल" ताहु। पत्ता-सयमहपेसणिण ता समवसरणु किउ जक्खें। दाविउ परमजिणु दिज्जमाणु" सहसक्खें ॥5॥ 10 घत्ता-उसने कहा कि मुनि विमलनाथ निर्वाण चले गये हैं; जिस प्रकार वह, उसी प्रकार तुम्हारे पिता ने भी शाश्वत स्थान (मोक्ष) प्राप्त किया है। जब उसने सुना कि पिता मोक्ष को प्राप्त हुए, तो इससे अपराजित को बहुत दुःख हुआ। वह न नहाता, न वस्त्र पहिनता, और न शरीर में अंगलेपन करता, और श्रान्त हैं भ्रमर जिनमें ऐसे कुसुमों को भी धारण नहीं करता। न आभरण, न निज कुलधन, और न रुनझुन करते हुए नुपूरोंवाले अन्तःपुरों को वह राजा देखता । वह अपने मन में दुर्नयों का नाश करनेवाले पिता के श्रीचरणों का ध्यान करता (और कहता)-"जब मैं उनको देख लूँगा तभी धरती का भोग करूँगा, नहीं तो भोजन और काम से मेरी निवृत्ति।" इस प्रकार जब राजा को भोजन ग्रहण नहीं करते हुए आठ दिन बीत गये और उसके आठ उपवास हो गये, तो इन्द्र के मन में चिन्ता हुई और उसके मुख-कुहर से मधुर वाणी निकली-“हे धनद (कुबेर), तुम जाओ, अनेक गुणों का समूह वह राजा अपूर्ण समय में मृत्यु को प्राप्त न हो। श्री अरहदास ऋषि के साथ जिनवर विमलवाहन को तुम उसके लिए दिखा दो।" घत्ता-तब इन्द्र के आदेश से यक्ष ने समवसरण की रचना की, और इन्द्र के द्वारा वन्दनीय परमजिन को दिखाया। 12. भषिञ्। (5) 1. A णिसुन । 2. AS संपत्त। 3. A यियसियसड़यणाई। 4. A "कुलहराई। 5. Bणालीपइ। 6. A उ भुंजइ। 7. B पिछसपि; P पिक्खेसमि । 8. ABPS add तो after पेठोसमि and omit पुणु। 9. AP असणंगह। 10.A पतुः पाणु। 1. ABPS विमलवाहु। 12. A वंदिव्यपाणु। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 61 महाकपुप्फयंतविरयउ महापुराणु (6) वंदिउ भत्तिइ अवराइएण | गरुयहं वडइ गुणवंति हु । मंदीसरि अण्णहिं वासरति । अक्खंतु संतु धम्मक्खराई । ता ढुक्क बेणि हलि मुणिंद | मणिय महिणाहें मण्णणिज्ज । केवलदंसणगुण होउ सिद्धि । पहु पभणइ अण्णहिं कहिं मिठाणि । एवहिं सुमरंतु वि जाहिं सरमि । भणु जइ जाणहि तो जणहि तुट्ठि । ता चवइ जेठु पिट्टाइ खीणु । रुई कई दिठ्ठा गत्थिते । पुक्खरदीवि पसिद्ध । पच्छिमसुरगिरिहि" पच्छिमविदेहि धणरिद्धइ ॥6॥ पिउपायदिण्णदढसाइएण आहारु लइउ' आवेवि गेहु पुणु छुड छुडु संपत्तइ वसति वंदेपिणु जिणचेहराई सुविसुद्धसीलजलहरियकंद' वंदिवि वंदारयवंदणिज्ज तेहिं मि पउत्तु भो धम्मविद्धि पुणु सच्चतच्चसवणावसाणि मई दिट्ठा तुम्हई काई करभि पसरइ मणु मेरउं रमइ दिलि रिसि परमावहिपसरणपवीणु भो नृव चिरु ससहरकिति पत्ता - पण परममुणि नृव [ 81.6.1 5 10 (6) अपने पितृश्री के चरणों का आलिंगन करनेवाले अपराजित ने भक्तिपूर्वक वन्दना की । घर आकर उसने आहार ग्रहण किया। बड़े लोगों का गुणवान् के प्रति स्नेह बढ़ जाता है। फिर शीघ्र ही वसन्त ऋतु के आने पर, दूसरे दिन नन्दीश्वर में जिनचैत्यगृहों की वन्दना कर जब वह धर्माक्षरों की व्याख्या कर रहा था, तब पवित्रतम शीलंवाले तथा सजल मेघों के समान ( गम्भीर ) दो चारण मुनि आकाशमार्ग से वहाँ पहुँचे । देवों द्वारा वन्दनीय और माननीय उनका महीनाथ ने खूब सत्कार किया। उन्होंने भी कहा- “अरे, तुम्हारी धर्मवृद्धि हो और तुम्हें केवलज्ञान से युक्त सिद्धि प्राप्त हो। सच्चे तत्त्वों को सुनने के अनन्तर राजा कहता है - " किसी दूसरे स्थान पर मैंने आप लोगों को देखा है। क्या करूँ ? इस समय याद करने पर भी मैं याद नहीं कर पा रहा हूँ । मेरा मन फैल रहा है, दृष्टि रम रही है, यदि आप जानते हैं तो मुझे सन्तुष्टि दीजिए।" तब महा अवधिज्ञान के प्रसार में प्रवीण और साधना से क्षीण ( देहवाले) बड़े मुनि बोले - " चन्द्रमा की किरणों की तरह कान्तिवाले हे सुन्दर नृप । सुनो, हम लोगों को तुमने देखा है, इसमें भ्रान्ति नहीं है । " घत्ता - परममुनि कहते हैं- "हे राजन्, प्रसिद्ध पुष्कर द्वीप में मेरु के पश्चिम विदेह में धन से समृद्ध (6). B लयड 2. 13 जिणचेइय" 3S सुविशुद्ध 4. AP जलपरिय5. AP णहयरमुनिंद: B हबलमुणिंद 6. S मॅडिय महिणारुहं मडणिज्ज । 7. A सत्ततच्चययणावसाणे P सच्चतच्चसयणावसाणे। 8. ABP णिय 9 ABP णिव 10 B पछि 11 B विदेश | Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81.8.3] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु (7) गंधिलजणes खगमहिहरिंदि सूरप्पहपुरि" पहसियमुहिंदु पियकारिणि धारिणि तासु घरिणि जाया कालें सुकवाणुरूय ताहे णंदण णं धम्मत्थकाम ते तिणि सहोवर मुक्कपाव तहिं अवरु अरिंदमणयरि राउ तहु पणइणि गायें अजियसेण यत्ता - पीईमई तणय जाइ सरूवएण उत्तरसेडिहि धवलहररुदि । सुरहु णायें हरिं । वम्महधरणीरुहजम्मधरणि । भाभारवंत भूतिलयभूय । चिंतामणचवलगड त्ति णाम । णं दंसणणाणचरित्तभाव । णामेण अरिंज जयसहाउ कीलंत दोह मि रइरसेण । हुई" सा किं मई वणिज्जइ । उव्यसि " रइ रंभ हसिज्जइ ॥ 7 ॥ ( 8 ) परियत्रिवि सुरगिरिवरु तिवार णीसेस विणियपयमूलि घित्त मणगइचलगइणामालएहिं जो लेइ माल 'मणिकिरणफार । विज्जाह मेह भमंत जित्त । आवेष्पिणु धारिणिबालएहिं । 17 5 10 7) विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी के गन्धित जनपद में धवलगृहों से सुन्दर सूर्यप्रभपुर नगर में सूर्यप्रभ नाम का राजा था जो अपने मुख की कान्ति से चन्द्रमा का उपहास करता था। प्रिय करनेवाली धारिणी नाम की उसकी पत्नी थी जो कामरूपी कल्पवृक्ष की जन्मभूमि थी। समय आने पर, उसके पुण्य के अनुरूप आभा के भार से युक्त ऐश्वर्य की लता के बाहुवाले ( तीन ) पुत्र उत्पन्न हुए। वे तीनों धर्म, अर्थ और काम थे । चिन्तागति, मनोगति और चपलगति उनके नाम थे। वे तीनों ही भाई मुक्तपाप थे मानो दर्शन, ज्ञान और चारित्र्यभाव हों। वहीं अरिंदमपुर नगरी में जयस्वभाववाला अरिंजय नाम का राजा था। उसकी अजितसेना नाम की प्रणयिनी थी । रतिरस के अधीन क्रीड़ा करते हुए उन दोनों के घत्ता - प्रीतिमती नाम की कन्या हुई । उसका मैं क्या वर्णन करूँ ? अपने स्वरूप से वह उर्वशी, रति और रम्भा का उपहास करती थी । ( } वह श्रेष्ठ सुमेरु पर्वत की तीन बार प्रदक्षिणा कर मणिकिरणों से विस्फारित माला लेती थी। सुमेरु पर्वत की परिक्रमा देते हुए समस्त विद्याधरों को उसने जीत लिया था और अपने चरणों के नीचे डाल लिया था । (7) 1. P "हरेदि । 2. P पूरे 3. B धरिणी । 4. APS AP भू 6. S तहो। 7. 13 दोहिं & AP रइवसेण 9 D पिमइ P पीइयर | 10. ABP तणया । 1. 5 भूहं Als. हुइ against Mss. 12. A सुरुवएण। 13. A उन्मसि ( 8 ) 1 B तिवास। 2. मणिरयणिः । मणिस्य। 3. B फारु 1 4 णीसेशिवि। 5. मूल i. A पिज्जाहर । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ | महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु अक्खिय णियभायहु' एह वत्त दिंडी कुमारि णहयर" जिवंति चिंतागइ भासइ सोक्खखाणि लइ मुयहि माल 12 विम्हियमणार" विरपिणु तुहं पावहि ण जाम तं वयणु ताइ पडिवष्णु तेंय "केसरिकिसोरखयकंदरासु सूरप्पहतगाएं" धरिय माल जिहु । तास तेण वि कय तहं विजयजत्त । अमरायलापासहिं" परिभमंति । हलि वेयवंति कलहंसवाणि । सुरसिहरिहि तिणि पयाहिणाउ । हउं पंकयच्छि ध्रुवु धरमि ताम । थिय गयणंगणि जोयंत देव । लहु देवि तिभामरि मंदरासु । ॥ गइवेएं णिज्जिय खयरबाल । छत्ता - उत्तरं सुंदरिइ पई मुड़वि ण को वि महारउ । दिठु अदिट्टु तुहुं चिंतागइ कंतु महारउ ॥ 8 ॥ (9) ता भणिउं तेण मारुयजयेहिं पई जित्ता' ए इह धावमाण जो रुच्चइ सो महुं अगुउ कंतु मणसियसरजालणिरुद्धियाइ अहिलसिय कण्ण' तुहु बंधवेहिं । थिय कायर असहियकुसुमबाण | करि एवहिं एहु जि तुज्झ मंतु । तं णिसुणिवि बोल्लिउं मुद्धियाइ । [ 81.8.4 5 10 धारिणीबाला से उत्पन्न मनोगति और चपलगति नाम के पुत्रों ने यह बात अपने भाई से कही । तब उसने भी वहाँ के लिए 'विजययात्रा' की। सुमेरु पर्वत के चारों ओर परिक्रमा देते हुए विद्याधरों को जीतते हुए उसने कन्या को देखा । चिन्तागति बोला- “हे सुख खान तथा कलहंस के समान मधुर बोलनेवाली वेगशीले ! लो माला छोड़ो, जब तक तुम उसे नहीं पातीं तब तक मन को विस्मय में डालनेवाली सुमेरु पर्वत की तीन प्रदक्षिणाएँ कर मैं उसे धारण करता हूँ ।" उसने यह वचन, इसी रूप में स्वीकार कर लिया। देवता देखते हुए आकाश में स्थित हो गये। सिंहशावकों से क्षतविक्षत गुफाओंवाले मन्दराचल की शीघ्र तीन प्रदक्षिणा देकर सूर्यप्रभ के पुत्र ने माला ग्रहण कर ली। उसने अपने गतिवेग से विद्याधर कन्या को जीत लिया। घत्ता- सुन्दरी ने कहा- ' - "तुम्हें छोड़कर और कोई हमारा नहीं है। चिन्तागति ! तुम दृष्ट- अदृष्ट मेरे पति हो ।" (9) तब उसने कहा - "हे कन्ये पवन के समान वेगवाले मेरे भाइयों के द्वारा तुम चाही गयी हो। इस प्रकार दौड़ते हुए ये दोनों तुम्हारे द्वारा जीते गये कामबाण को नहीं सह सकने के कारण कायर हो गये हैं। जो तुम्हें अच्छा लगे, मेरे उस छोटे भाई से तुम विवाह कर लो। इस समय मेरा तुम्हारे लिए यही परामर्श 3. मायहि HAP तो 9 AP ताह किय 10. P बरे 11. P पासेहिं 12. BP विभिय। 13. P "भणाओ 1 14. ABP घुउ। 15. AP जोयंति 1 !6. B "किसोरु: S केशर्तिकेशांर 17. A सुप्पहताएं 1B B गयवेएं। (9) 1. कण्णे । 2. A प जिताई जि इह पलवमाण: IB जित्ता ए धावंतमाण; P जित्ता ए इह घावंतमाणः T पलायमाण धावन्ती 9. B सुज्नु H Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81.10.8] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु [9 मणणयणहुं वल्लहु जइ वि रम्मु बलिमटु ण किज्जइ तो वि पेम्मु। 5 हो हो णिणिलयहु चित्त जाहि मा दुल्लहसंगि अगि थाहि। इय चिंतिवि मेल्लिवि' मोहभंति पणविवि णिवित्तिः णामेण खंति। झाइउ जिणु केवलणाणचक्षु परिकातिर संजम "ड़ लिदछु । घत्ता--दीणहं दुत्थियहं सज्जणविओयजरभग्गहें । णीवइ दुक्खसिहि "जिणवरपयपंकयलग्गहं ॥१॥ (10) अवलोइवि 'कण्णहि तणिय वित्ति चिंतागइणा कय धरणिवित्ति। सहं भायरेहिं दमवरसमीवि तवचरणु' लइउ गुणमणिपईवि। संणासें मरिवि "सिरीवियप्पि जाया तिण्णि वि "माहेंदकप्पि। तहिं दीहकालु णियणियविमाणु । भुंजेप्पिणु सत्तसमुद्दमाणु। इह जंबुदीवि सुरदिसिविदेहि पुक्खलबइदेसि' सवंतमेहि। खयरावलि उत्तरदिसिणियबि । मंदारमंजरीरेणुतंबि। पुरि "णहवल्लहि पह गयणचंदु पिय गयणसुंदरी' मुक्कतंदु। अमियगइ पुत्तु हउं ताहि जाउ इहु अमियतेउ "लहुयरउ भाउ। है।" तब कामदेव के तीरों के जाल से निरुद्ध वह मुग्धा यह सुनकर बोली-'यद्यपि प्रिय मन और नेत्रों के लिए रम्य (सुन्दर) है, तब भी बलात् प्रेम नहीं करना चाहिए। हे मेरे मन ! तू अपने घर में जा, दुर्लभ संगवाले अनंग में मत फँस।' यह सोचकर और मोहभ्रान्ति छोड़कर, निवृत्ति नाम की साध्वी को प्रणाम कर उसने केवलज्ञानरूपी नेत्रवाले जिन का ध्यान किया और तीव्रतम संयम का परिपालन किया। ___घत्ता-दीन दुःस्थित सज्जन के वियोग-ज्वर से भग्न लोगों के दुःख की ज्वाला जिनवर के चरण-कमलों की सेवा करने से शान्त हो जाती है। (10) कन्या का आचरण देखकर चिन्तागति भी घर से निवृत्त हो गया, और गुणरूपी मणियों के प्रदीप रूप दमवर नामक मुनि के पास अपने भाइयों के साथ तपश्चरण ग्रहण कर लिया। संन्यासपूर्वक मरण कर वे तीनों श्री से विरचित माहेन्द्र स्वर्ग में उत्पन्न हुए। वहाँ लम्बे समय तक सात सागर प्रमाण अपने-अपने विमान में सुख भोगकर-इस जम्बूद्वीप के उत्तर विदेह में पुष्कलावती देश है जहाँ निरन्तर मेघ बरसते रहते हैं, वहाँ विजयाध पर्वत के उत्तर श्रेणी-तट पर जो मन्दार मंजरी की धूलि से लाल है, ऐसे नभबल्लभ नगर में राजा गगनचन्द है, आलस्य से रहित, उसकी गगनसुन्दरी नाम की पत्नी है। मैं उससे उत्पन्न अमितगति 4. B बलिपद्छु । यतिमंड; 5 बलिमद्द। 5. P16. B हो हो णियणिलयह: P हो होउ णियत्तहे; 5 हो हो णियणिलयहे। 7. मल्लिवि। . $ णिवित्त । 9. "वियोय। 10. BPSAI. णावइ । 11. "पवपकए: Sum. h in पयपंकए। (10)1, B कण्णह: P कण्णहो। 2. A किय। 3.9 घारे। 4. तउत्तरणु। 5. B सीरी। 6. BP माहिंद.17.A पुक्खलइदेसि। 8. Kणवल्याहि । 9. पयणसुंदरी। 10.5 लहुअय। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 ] महाकइपुप्फयंतविरवर महापुराणु वेण वि तुरीयसग्गावइण्ण तुह विरहणडिय अंसुय मुयंति जाणसि जं ताइ वउत्थु चारु अम्हई "तीहिं मि ववसियमणेहिं जाणसि "जं जित्ती आसि कण्ण । जाणसि जं ण समिच्छिय रुयंति । " जाणसि जं किउ चारितभारु । दमवरसयासि 16 पोसियगुणेहिं । घत्ता - छुडु खुड्डु जोइयउं" लड़ जइ वि सुठु दूरिल्लई" ॥ "ध्रुवु जाईभर गयणई मुणति गोहिल्लई 2 | || || ( 1 ) अम्हई ते भायर तुज्झु राय अरहंतु सयंपणामधे उ णियजम्मणु तुह 'जम्मे समेउ सीहउरि 'राउ दूसियविवक्खु सो तुम्हह बंध विधियारु जम्हह हूई दंसणसमीह पत्तिय" फुड जंपिउं जिणवरासु इय कहिवि साहु गय बे वि गवणि अण्णेत्तहि कम्मवसेण जाय । पुच्छियउ "पुंडरीकणिहि देउ । आहासइ णासियमयरकेछ । चिंतागर हु 'अवराइयक्खु । निसुनिधि केवलिवयणसारु । आया तुहुं दिट्टउ पुरिससीह । अण्णु" वि तुह जीविरं एक्कु मासु । णरणाहें इंडिय" तत्ति मयणि । [ 81.10.9 10 5 नाम का पुत्र हूँ, यह अमिततेज छोटा भाई है। ये दोनों ही स्वर्ग से अवतीर्ण हुए हैं । तुम जानते कि जो कन्या जीती गयी थी, वह तुम्हारे विरह में प्रबंचित, आँसू बहाती हुई, रोती हुई, जो तुम्हारे द्वारा नहीं चाही गयी थी, जानते हो उसने सुन्दर व्रत किया था, और जानते हो कि चारित्रभार - गुणों का पोषण करनेवाले हम तीनों ने भी निश्चितमन से मुनि दमवर के पास (व्रत) ग्रहण किया था । घत्ता -जल्दी-जल्दी, उन्होंने एक-दूसरे को देखा; यद्यपि वे काफी दूर थे, निश्चय से स्नेही नेत्रों को जातिस्मरण हो जाता है। ( 11 ) हे राजन् ! हम तुम्हारे वे ही भाई हैं। कर्म के बश से दूसरी जगह उत्पन्न हुए हैं। हे देव ! हमने पुण्डरीकिणी नगर में स्वयम्प्रभ नामवाले अरहन्त से तुम्हारे जन्म के साथ अपने पूर्वजन्म पूछे थे। कामदेव का नाश करनेवाले श्री अरहन्त ने बताया था कि शत्रुपक्ष को दूषित करनेवाला चिन्तागति सिंहपुर में अपराजित नाम का राजा हुआ है, वही तुम्हारा निर्विकार भाई है । केवलज्ञानी के वचनों के सार को सुनकर हम लोगों को तुम्हें देखने की इच्छा हुई, आकर हमने तुम्हें देख लिया । विश्वास करो, जिनवर का कथन स्पष्ट है। अब तुम्हारा जीवन एक माह का रह गया है।" यह कहकर वे दोनों साधु आकाशमार्ग से चले गये। राजा अपराजित ने कामदेव 11. APP । 12 । जाणसं 19. 5 णिउ 14. 13 विणि वि तिहिं मि। 15. A ववमियसणेहिं 15. 8 दमचर्यपासि । 17. B जीव । ॥ A दुरिल्ल Als. टूल्लिई against Mss. to accord with the end of the next line 19 AP भु; B धुई। 20. AP जाइसर 5 जाइभरई 1 21. APS पोहिल्ल brut UK गिहिल्लs and glass in K स्निग्धानि । (11) IAS पुंडरिकणिहे। 3. BK अभि 1. B राय 5. P 65 अवराइअक्खु । 7.5 बंधवु। 8. AB ययणु 19. BS 10. B. AP अक्खमि तुडु 12. AB डिय; 5 ढडिय Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81.12.9] महाकइपुष्फयंतबिरयउ महापुराणु अहिसिंचिवि जिणपडिमाउ तेण भावें पुज्जिवि अवराइएण। बहुदीणाणाहह" दाणु देवि घरपुत्तकलत्तइं परिहरेवि। इंदियकसायमिच्छत्तदमणु किउ मासमेत्तु पाओयगमणु' । मुउ उप्पण्णउ अच्चुयविमाणि बावीसजलहिजीवियपमाणि। घत्ता-तेत्थ ओयरिवि'" इह भरहखेत्ति विक्खायउ' । कुरुजंगलविसए पुणु हथिणायपुरि जायउ ॥11॥ (12) सिरिचर्दै सिरिमइयहि तणूउ णिरुवमतणु 'कुरुकुलनृवविणूउ । गुणवच्छलु णामें सुप्पइछु प्रिउ णंदादेविहि 'प्राणइछु । "तहु रज्जु देवि हुउ सो महीसु सिरिचंदु सुमंदिरगुरुहि सीसु। णीसंगु णिरंबरु वणि पइठ्ठ जहिं सिरि अणुहुंजइ सुप्पइर्छ । तहिं जसहरु रिसि चरियइ पवण्णु राएं पय धोइवि दिण्णु अण्णु। तहिं तासु भवणपंगणगयाई अच्छरियई पंच समुग्गयाई। कालें जंतें पिहुसोणियाहिं कीलंतु समउं रायाणियाहिं। पस्थिउ अवलोयइ दिसउ' जाम णिवइति णिहालिय उक्क ताम। चिंतइ णरवइ णिवडिय जलंति गय उक्क खबहु जिह पउ" करति। में अपनी तृप्ति छोड़ दी। उसने जिनप्रतिमा का अभिषेक कर, भाव से उसकी पूजा कर, बहुत से दीन अनाथों को दान देकर, घर, पुत्र और कलत्र का परित्याग कर, इन्द्रिय-कषाय और मिथ्यात्व का दमन करनेवाला एक माह का कायोत्सर्ग किया। मरकर वह अच्युत विमान में उत्पन्न हुआ। वहाँ बाईस सागर प्रमाण जीवन बिताकरधत्ता-वहाँ से अवतीर्ण होकर इस भरतक्षेत्र के कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में विख्यात हुआ। (12) श्रीचन्द्र से श्रीमती का पुत्र अनुपम शरीर, कुरुकुल के राजा के द्वारा संस्तुत, गुणवत्सल सुप्रतिष्ठ नाम का था। नन्दादेवी का प्रिय और प्राणों का इष्ट। वह राजा श्रीचन्द्र उसे राज्य देकर सुमन्दिर गुरु का शिष्य होकर अनासंग और दिगम्बर रूप में वन में चला गया। सुप्रतिष्ठ श्री का भोग करने लगा। वहाँ यशोधर मुनि चर्या के लिए आये। राजा ने चरण धोकर आहार-दान दिया। वहाँ उसके आँगन में पाँच आश्चर्य उत्पन्न हुए। समय बीतने पर स्थूलकटि वाली स्त्रियों के साथ रमण करते हुए जब वह दिशा की ओर देखता है, तभी एक तारे को गिरता हुआ देखता है। प्रचलित होकर गिरती हुई उल्का को देखकर राजा सोचता है-जिस 13. Sणाहहुँ। 14. AP पाओगमणु। 15. B तित्यहो। 16. S उयरेवि। 17.P विक्खायओ। (12) 1. P कुयलयणिवविणूसओ 1 2. AB गुणि बलु। 3. A पृयणंदा B प्रिय; P पिय: Als. प्रियदा 15. AP पाणइछु। 5. B सो हुल: Pहुओ; S रहो but gloss सुप्रतिष्ठस्य। 6. Hघोविनि। 7.AP पंगणे कयाई। 8.9 अवलोवइ। 9. A दिसिट। 10. Aणिवत। 1. AP पउरकति। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 121 महाकइपुप्फयंतविरयङ महापुराणु [81.12.10 10 तिह जीव विविहकिंकरसयाई जगि कासु वि होंति ण सासयाई। इय "चविवि सुदिविहि तणुरुहासु सई बद्ध पठ्ठ पहसियमुहासु। मिल्झाइयसिवपुत्मदिरासु पणपिशु पाय सुमंदिरासु। घत्ता-दिहिपरियरसहिउँ णीसेसभूयमित्तत्तणु ॥ गिरिकंदरभवणु पडिवण्णउं तेण रिसित्तणु ॥12॥ (13) सुपइटें दुद्धरु चिण्णु चरिडं मणु' सत्तुमित्ति सरिसउं जि धरिउं। परवाइमयाई परिक्खियाई एयारह अंगई सिक्खियाई। बिडवेसई केसई लुचियाई गयगण्णई पुण्णइं संचियाइं। रउ विहुणिवि णिहणिवि जिणिवि कामु अविरुद्धउं बद्धउं अरुहणामु। अ सि आ उ सा ई अक्खर सरेवि गवपासें संणासें मरेवि। अहमिदु अणुत्तरि हुउ' जयंति 'हिमहंससुहारुहकिरणकति। तेत्तीसमहण्णवणियमियाउ | तेत्तियहि जि पक्खहिं ससइ देउ। तेत्तियहि जि "सूरिपयासएहि। वोलीणहिं वरिससहासएहि । भुंजइ मणेण सुहुमाई जाई मणगेज्झइं किर पोग्गलई ताई। प्रकार लूका (उल्का) क्षय के स्थान को प्राप्त हुई, उसी प्रकार उसे भी क्षय को प्राप्त होना है। सैकड़ों तरह के अनुचर सदैव नहीं रहते। यह कहकर उसने स्वयं प्रहसित-मुख अपने सुदृष्टि नाम के पुत्र को पट्ट बाँध दिया और मोक्ष का ध्यान करनेवाले सुमन्दिर गुरु को प्रणाम कर, ___घत्ता-उसने ऋषित्व स्वीकार कर लिया-जो धैर्य के परिग्रह से युक्त है, जिसमें समस्त प्राणियों के प्रति मित्रता का भाव होता है और गिरिगुफाएँ ही जिसके घर होती हैं। (13) सुप्रतिष्ठ ने ऐसा कठोर तप किया कि मन में शत्रु और मित्र को समान रूप से समझा। परवादी के मतों का उन्होंने परीक्षण किया। ग्यारह अंगों को सीखा। विडरूप में दिखनेवाले केशों को उखाड़ा और अगणित पुण्यों का संचय किया। पाप को नष्ट कर, काम को जीतकर और नष्ट कर अविरुद्ध अरहन्त नाम की प्रकृति का बन्ध किया। 'अ सि आ उ सा' आदि अक्षरों का स्मरण कर पापरहित संन्यास से मरकर, हिम, हंस और चन्द्रमा की किरणों के समान कान्तिवाले अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुआ। तेतीस सागर प्रमाण आयु से नियमित, देव तेतीस पक्षों में साँस लेता, आचार्यों द्वारा प्रसारित उतने ही (33) हजार वर्षों में मन से 12. A सरेविः । भरेवि। 13. P"परियण' परियण' but corrects it io परियर । (13) 1. P मणि सतु पित्तु सरिसउं। 2. Pाइयपयाई। 5. A गवसण्णई। 4. B संचियामि। 5. APK विहिणेवि णिहिणेवि। 6. P हुओ। 7.8 हिमरासिसुहारयकिरण । 8. D तेत्तीयहिं धक्खहि; 9. 1 तेत्तीयहिं सूरि'; 10. A सूर। 11. P"पयासिएहिं। 12.5 "सहाएहिं। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81.14.9] महाकापुष्फयंतविरपर महापुराणु णाणे परियाणइ लोयणाडि करमेत्तदेहु मणहरकिरीडि। णिवसइ विमाणि पप्फुल्लवत्तु सो होही 'जहिं तं भणमि गोत्तु । पत्ता-गोत्तम भणइ सुणि मगहाहिव लद्धपसंसहु । रिसहणाहकयह पच्छिमसंतइ हरिवंसह ||13॥ ( 14 ) इह दीवि भरहि वरवच्छदेसि कोसंबीपुरवरि जणणिवासि। मधवंतु राउ पिसुणयणतावि तहु वीयसोय णामेण देवि। रहु णामें गंदणु सुमुह सेट्टि कालिंगदेसि कमलाहदिट्टि। दंतउरह होता' वीरदत्त वणि वणमालामहं पोम्मवत्तु'। वाहहुं भइयइ णावइ कुरंगु आवउ अणाहु कयसत्थसंगु । कोसंबि पइउ 'सुमुहमवणि ठिउ जालगवक्खविसंतपवणि। सव्वई वित्तई रइरसरयाई अण्णहिं दिणि 'वणकीलहि गयाइं। वणमाल बाल सुमुहेण दिव लायण्णवंत रमणीवरिष्ठ। अहिलसिय सुसिय" तह देहवेल्लि मणि लग्गी भीसणमयणभल्लि । ग्राह्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। ज्ञान से लोकनाड़ी को जानता है, एक हाथ प्रमाण शरीरवाला, और सुन्दर मुकुटवाला प्रफुल्ल-मुख वह विमान में निवास करता है। वह जहाँ जन्म लेगा, उसके कुल को कहता हूँ। घत्ता-गौतम मुनि कहते हैं-हे मगधराज, ऋषभनाथ द्वारा निर्मित प्रशंसा-प्राप्त हरिवंश की अन्तिम परम्परा सुनो। (ऋषभ जिन इक्ष्वाकुवंश के थे। कुरुवंश का प्रमुख सोमप्रभ था। उग्रवंश का कश्यप या मघवा, हरिवंश का प्रमुख हरिश्चन्द या हरिकान्त था तथा नाथवंश में अकम्पन या श्रीधर राजा)। इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के श्रेष्ठ वत्स देश में जननिवास से परिपूर्ण कौशाम्बी नगर वर में दुष्टों को सन्ताप देनेवाला मघवन्त नाम का राजा था। उसकी वीतशोका नाम की देवी (पत्नी) और रघु नाम का पुत्र था। वहीं सुमुख नाम का सेठ था। कलिंग देश से कमलों के समान नेत्रवाला कमलमुखी वीरदत्त वणिक् अपनी पत्नी वनमाला के साथ, दन्तपुर होता हुआ, व्याधों के भय से हरिण की भाँति, अनाथ होकर सार्थवाह के साथ आया। कौशाम्बी में प्रवेश कर, जालीदार झरोखों से जहाँ पवन प्रवाहित होता है ऐसे सुमुख सेठ के भवन में वह रहने लगा। रति-रस में रत नगर के सभी प्रसिद्ध लोग दूसरे दिन वनक्रीडा करने के लिए गये। सेठ सुमुख ने लावण्यवती श्रेष्ठ रमणी वनमाला को देखा। वह उसे चाहने लगा। उसकी देहलता सूखा 15. AIN मणहरू। 11. B जह। 15. P पत्थिवसंतए। (14)1.5"दच्छदेशे। 2. 5 सुमुह। 3. Bइंतज । 4. AP मरतुः । पेमवत्तुः K पोमयत्तु bul adds ap: पेम्म इति पाठे स्नेहवान् । 5. B पहए। GB सत्यु। 7. D सुमुह। B. A वि ताई: P वित्ताइ। 9. AP वणकीलागयाई। 10. AP लामण्णवण्ण। 11.5 सुसीय। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] महाकइपुष्फयंतविरयल महापुराणु [81.14.10 10 t । दूसीलें परजायारएण वणिवइणा णिरु मायारएण। बारत-शार हि नितु "वाणिजहि पेसिउ वीरदत्तु । घत्ता-गउ सो इयरु तहि" आलिंगणु देंतु ण धक्कई । परहरवासियहु धणु धणिय ण कासु वि चुक्कई ॥14॥ (15) इज्झउ परदेसु परावयासु परवसु' जीविउं परदिण्णुः गासु। भूभंगभिउडिदरिसियभएण रज्जेण वि किं किर परकएण। सभुयज्जिएण' सुई वणहलेण णउ परदिपणे मेइणियलेण'। वर गिरिकुहरु वि मण्णमि सलग्घु णउ परधवलहरु पहामहाधु । कीति ताई णारीणराई उरयलथणयलविणिहियकराई। बहुकालहिं आएं मयपमत्तु वणिणा वणिवइ वणमालरत्तु । जाणिउ तावें अंतंतझीणु अपसिद्धउ णिद्धणु बलविहीणु।। बलवंतें रुद्धउ काई करइ अणुदेिणु चिंतंतु जि णवर मरइ। खलसंगें लग्गी तासु सिक्ख पोलिलु मुणि पणविवि लइय दिक्ख । चिंतिवि" किं महिलइ कि धणेण । मुउ अणसणेण णियमियमणेण । 10 संपुण्णकाउ सोहम्मि देउ चित्तंगउ णामें जाम जाउ। गयी। उसके मन में मानो काम की भयंकर भाले की नोंक लग गयी। कुशील और परस्त्री के लम्पट अत्यन्त मायावी सेठ ने धन दिया और वीरदत्त को बारह वर्ष के लिए वाणिज्य के लिए भेज दिया। घत्ता-वह चला गया। दूसरा (सेठ) वहाँ आलिंगन देते हुए नहीं थकता था। दूसरे के घर में रखा हुआ किसी का भी धन और धन्या (स्त्री) बचती नहीं है। (15) परदेश, परनिवास परवश जीवन और दूसरे के द्वारा दिये गये भोजन को आग लगे। भ्रूभंगोंवाली भृकुटियों से जिसमें भय दिखाया जाता है, ऐसे दूसरे के राज्य से क्या ? अपने बाहुओं से अर्जित धनफल में सुख है। दूसरे के द्वारा दिये गये धरणीतल में सुख नहीं है। मैं गिरिगुफा को श्रेष्ठ और श्लाघनीय मानता हूँ, लेकिन प्रभा से महनीय दूसरे का धवलगृह अच्छा नहीं। उरतल और स्तनतल पर हाथ रखते हुए वे दोनों स्त्री-पुरुष (सुमुख और वनमाला) क्रीडा करने लगे। बहुत समय के बाद आये हुए बणिक् वीरदत्त ने जान लिया कि मद से प्रमत्त सेठ वनमाला में अनुरक्त है। सन्ताप से अत्यन्त क्षीण अप्रसिद्ध निर्धन बलविहीन वह, बलवान् से अवरुद्ध होने पर क्या करे; प्रतिदिन विचार करता हुआ केवल मर रहा था। उसे एक दुष्ट की सीख लग गयी और उसने प्रोष्ठिल मुनि को प्रणाम कर दीक्षा ले ली। यह सोचते हुए कि स्त्री और धन से क्या ? अनशन और मन के संयम के साथ वह मर गया। वह सौधर्म स्वर्ग में सम्पूर्णकाय चित्रांग नाम का देव उत्पन्न हुआ। 12. B दूसेलें5 दूशीलें। 13. B "रयेण। 11. : वरसावहि। 15. B वाणिज्जहो। 16. B वीरपत्तु। 17. B तहिं। (15)1. S परयस । 2. BP "दिण्णमासु। 3. भुपज्जिएहि। 4. 5 मेणियलेण। 5. A मण्णथि । 6. AH काले ता ताचे अंतु खाणु; P अंतंतु खीण, 5 अंतंतु शीणु। 9. B अपसिखिछ। 10. H पुहिल 5 पोट्ठिल। 1. P चिंतए। कालहं। 7. B आयएं। 8. A Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81.16.12] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु घत्ता - सावयवय धरिबि ता कालें कयमयणिग्गहु । रघु मघवंतसुउ सुरु हुन्छ तेत्यु" जि सूरम्पहु ॥15॥ ( 16 ) वणमालइ सुमुहें णिरु गिरीहु आयणिउ धम्मु जिनिंदसि' चिंतवइ सेट्ठि दुक्कियविरत्तु असहायहु आयहु विहलियासु सुयरई गेहिणि हउं कयकुकज्ज" हाकिं ण गइय हउं खंडखंडु इय जिंदत असणीयाई इह" भरहखेत्ति हरिवरिसविसइ णरणाहु पजणु सइ मिकंड 4 हुउ सुमुहुं पुत्तु तहि सीहकेउ सुहदेवि " सुहुप्पायण 19 गुणाल हूई परिणाविउ सीहचिंधु भुंजाविउ मुणिवरु धम्मसीहु । अप्पा' वि धूलिसमाणु दिठु । हा हित्तउं किं मई परकलत्तु । हा कि 'भई विरइउ गेहणासु । 'भत्तारदोहकारिणि अलज्ज" । हा पडउ मज्झु सिरि वज्जदंडु । कालेण ताई बिणि वि "मुयाई । भोयउरि "भोइभडभुत्तविसइ । तहु घरिणि णिरूविय "कामकंड 1 सालयपुरि" गरबइ वज्जचाउ" ! वणमाल ताहि सुय विज्जुमाल । जम्मंतरसंचियणेहबंधु”। [ 15 5 10 घत्ता - उसी समय, श्रावक व्रत धारण कर, अपने मन का निग्रह कर, राजा मघवन्त का पुत्र रघु उसी स्वर्ग में सूरप्रभ नामक देव हुआ । ( 16 ) वनमाला और सेठ सुमुख ने ( एक दिन ) अत्यन्त निरीह धर्मसिंह मुनिवर को आहार दिया और उन जिनवर के द्वारा कथित धर्म को सुनकर उसने अपने को धूल के समान देखा। खोटे काम से विरक्त सेठ सोचता है - हा ! मैंने दूसरे की स्त्री का अपहरण क्यों किया ? विह्वल और असहाय आये हुए इसका ( वीरदत्त का ) घर बर्बाद क्यों किया ? गृहिणी ( वनमाला) सोचती है-मैंने कुकर्म किया है। मैं अपने पति से द्रोह करनेवाली और निर्लज्ज हूँ। हा! मेरे टुकड़े-टुकड़े क्यों नहीं हो गये ? हा ! मेरे सिर पर वज्रदण्ड पड़े। इस प्रकार अपनी निन्दा करते हुए उसी समय वे दोनों बिजली गिरने से मर गये। इस भरतक्षेत्र के हरिवर्ष देश में, भोगी और सुभटों द्वारा भुक्त (विषयभोग के समान) भोगपुर नगर में प्रभंजन नाम का राजा था, और उसकी सती मृकण्ड नाम की स्त्री कामबाण कही जाती थी। सुमुख उससे सिंहकेतु नाम का पुत्र हुआ । सालयपुर (बस्वालय - उत्तरपुराण) का राजा बज्रचाप था। उसकी पत्नी शुभदेवी सुख देनेवाली और गुणवती थी । वनमाला वहाँ विद्युन्माला नाम की कन्या हुई। वह जन्मान्तर के संचित स्नेहबन्धवाले सिंहकेतु (पूर्वभव का सुमुख सेठ) से विवाही गयी । 12. 13 farg ( 16 ) 1. B जिणंद | 2. AP अप्पागाउं धूलि । 3. B "सुमाणु . A मई किह; P महं किं । 5. BP सुअरह G B कुकज्जु 17. H दोहि | 8. कारिणी। 9. B अलज्जु [US मथाई। 11. B इय 12. A भोइसंपत्तवितए। 13. B पहुंजभु 114. BS मिकडु। 15. BS कामकंडु। 16. A सायलपुरे । 17. AH चजवेड | IR. AP महएवं 19 A सुहुप्पा पणगुणाल 20: HS बिज्जमाल | 21. S 'सचिउ | Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16] [81.16.13 महाकड्युप्फयतविरयड महापुराणु छत्ता-पुरु घरु परिहरिवि रइणिब्भराइ एक्कहिं दिणि। कयकेसम्गहई कीति जाम णंदणवणि 16|| (13) 5 कुंडलकिरीडचिंचइयगत्त' ता बे वि देव ते तेत्यु आय चित्तंगएण परियाणियाई संतावयरइं संभावियाई वणमाल एह कुच्छ्यि कुसील' उच्चाइवि बेण्णि वि घिवमि तेत्यु इय चिंतिवि भुयबलतोलियाई किर णिप्फलजलगिरिगहणि घिवइ को एत्थु वइरि को एत्थु बंधु दोसेसु खंति इच्छाणिवित्ति कारुण्णु सन्चभूएसु जासु तं णिसुणिवि उवसमसंगएण चंपापुरि चंपयचूयगुज्झि सूरप्पह चित्तंगय सुमित्त। दंपइ पेक्खिवि मणि चिंत जाय। कहिं जारई विहिणा आणियाई। एवहिं कहिं जंति अघाइयाई। इहु सुमुह सेट्टि जें मुक्क वील। णउ खाणु पाणु णउ पहाणु' जेत्थु। देवेण ताई संचालियाई। तावियरु' अमरु करुणेण चवइ। मुइ मुइ सुंदर वइराणुबंधु' । गुणवति' भत्ति णिग्गुणि विरत्ति। किं भण्णइ अण्णु समाणु तासु। भवियव्यु मुणिवि चित्तंगएण। धित्ताई बे वि उज्जाणमज्झि। घत्ता-एक दिन, रति से परिपूर्ण होकर वे दोनों नगर-गृह छोड़कर जब नन्दनवन में एक-दूसरे के केश पकड़ते हुए क्रीड़ा कर रहे थे, तब कुण्डलों और मुकटों से शोभितशरीर सूर्यप्रभ और चित्रांगद मित्र, दोनों देव वहाँ आये। दम्पती को देखकर उनके मन में चिन्ता हुई। चित्रांगद ने जान लिया कि विधाता इन धूतों को कहाँ ले आया। यह खोटी और कुशील वनमाला है। सन्ताप करनेवाले एक-दूसरे पर आसक्त ये दोनों बिना आघात के कहाँ जाते हैं ? यह सुमुख सेठ है, जिसने लज्जा का परित्याग कर दिया। दोनों को उठाकर वहाँ फेंकता हूँ जहाँ खाना-पीना और नहाना नहीं है। यह सोचकर उसने अपने बाहुबल को तोला और उन दानों को संचालित कर दिया (फेंक दिया)। वह उन्हें जल और फलों से रहित गिरिगुहा में फेंकता है, कि तब तक दूसरा देव (सूर्यप्रभ) उससे करुणा के साथ कहता है, "यहाँ कौन बैरी है और कौन भाई है ? हे सुन्दर, तुम बैर के अनुबन्ध को छोड़ो। जिसकी दोषों में क्षमा, इच्छाओं में निवृत्ति, गुणवानों में भक्ति और निर्गुण में विरक्ति और सर्वप्राणियों के प्रति करुणा भाव है उसके समान दूसरा और कौन है ?" यह सुनकर चित्रांगद देव ने शान्त होकर और भवितव्य सोचकर उन दोनों को चम्पा और आम्रवृक्षों से गुह्य चम्पापुर के उद्यान में फेंक दिया। (17) 1. ABPS 'चंचइय। 2.8 तं। 9.4: तित्थु । 4.5 कुशौल | 5. A विवेचिः 5 चित्तमि। 6. रहाण 1 7.AP ता इ318. वइराणुओछु । 9.गुणवंत । 10. 5 णिग्गुण। 11. B°चूयर्गाटप। 12. B पित्ता बे बि जि। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81.18.121 महाकइपुष्फयंतविरयर महापुराणु [17 घत्ता-गय सुरखर गयणि तहिं पुरवरि अमरसमाणउ। यंदकित्ति विजय छुडु जिज जाम मुड. सगं ॥17॥ (18) तहु तहिं संताणि ण पुत्तु अत्यि अहिवासिउ 'मंतिहिं भद्दहस्थि ।। जलभरिउ कलसु 'करि दिण्णु तासु कंकल्लिपत्तसंछाइयासु। करडयलगलियमयसलिलबिंदु चलरुणुरुणंतमिलियालिवृंदु'। उत्तंगु णाई जंगमु" गिरिंदु सहुं परियणेण चल्लिउ करिंदु । दिब्वेण 'दइवसंचोइएण मुक्कंकुसेण उद्धाइएण। उवयणि पइसिवि सिरिसोक्खहेउ अहिसिंचिउ करिणा सीहकेउ । परिवारें मिलिवि णिबद्ध पटु मा को वि करउ भुयबलमरटु । परिणवई कम्मु सव्वायरेण । चिरभवसंचिउँ कि किर परेण। णउ दिज्जइ संपय दिणयरेण गोविंदें बंधे तिणयणेण। दुग्गाइ ण 'जक्खें रेवईइ विणडिज्जइ० जणु मिच्छारईई। जय जीव" देव पभणंतएहिं पुच्छिउ पुणु राउ महंतएहिं। को तुई भणु सच्चउं जणणु जणणि आगमणु काई का जम्मधरणि । घत्ता--देवश्रेष्ठ आकाश में चले गये। उस चम्पापुर नगरवर में देव के समान विजयी राजा चन्द्रकीर्ति राजा अचानक मर गया। ( 18 ) वहाँ उसकी परम्परा में कोई पुत्र नहीं था। मन्त्रियों ने भद्रहाथी को सजाया और जिसका मुख अशोक वृक्ष के पत्तों से ढका हुआ है ऐसा कलश उसकी सैंड में दे दिया। जिसकी सूंड से मदजल की बूंदें गिर रही हैं, जिस पर चंचल गनगनाता हआ भ्रमर-समह उढ़ रहा है. ऐसा पहाड के समान ऊँचा हाथी परिजनों के साथ चला। दिव्य दैव से प्रेरित, अंकुश से रहित दौड़ते हुए हाथी ने उपवन में प्रवेश कर श्री और सुख के हेतु सिंहकेतु का अभिषेक किया। परिवार ने मिलकर उसे पट्ट बाँध दिया। किसी को अपने बाहुबल का घमण्ड नहीं करना चाहिए। चिरसंचित कर्म समस्त रूप से परिणत होता है; दूसरे से क्या ? सम्पत्ति न तो दिनकर के द्वारा दी जाती है और न गोविन्द, ब्रह्म और शिव के द्वारा अथवा दुर्गा, यक्षी और नर्मदा के द्वारा। लोग मिथ्या-रति के द्वारा नचाये जाते हैं। "हे देव, जय, जिओ" यह कहते हुए मन्त्रियों ने राजा से पूछा-"सच बताओ, तुम कौन हो, कौन तुम्हारे माता-पिता हैं ? यहाँ क्यों आये ? तुम्हारी जन्मभूमि क्या है ?" (18) 1. B मंतहिं । 2. A करदिण्णु। 3. S"संदाइयासु। 4.5 मिलियालबंदु: BP विंदु। 5. ABPS उत्तुं। 6. B जंगम। 7. B दइय। ३. सिंचिऊ सिंथिय। 9. B जक्खि । 10. B विडिऊरइ11.5 जीय । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 | महाकइपुष्कयंतविरवउ महापुराणु [81.18.13 खत्ता-जणवइ2 हरिवरिसि पहु कहइ सयलमणरंजणु'। भोयपुराहिवइ मेरउं पिय" राउ पहंजणु ॥18॥ (19) महसोहाणिज्जियकमलसंड तहु गेहिणि महु मायरि मिकंई। हउं सीहकेउ केण वि ण जित्तु आणेप्पिणु केण वि एत्यु घित्तु। तं सुणिवि मिकंडइ' जणिउ जेण मंतिहिं मक्कंडु जि भणिउ तेण। त पवरसिंधुरारुढदेहु बहुवरु पइठ्ठ पुरि बद्धणेहु । बहुकिंकरहिं सेविज्जमाणु' धयछत्तावलिहिं पिहिज्जमाणु। चलचामरेहिं विज्जिज्जमाणु थिउ दीहु कालु सिरि भुंजमाणु। तडिमालापियकतासहाइ कालें कवलिइ मक्कंडराइ। संताणि तासु जाया अणिंद हरिगिरि हिमगिरि वसुगिरि गरिंद। जणसंबोहणउवणियसिवेहि अवर वि बहु गणिय गणाहिवेहि। पुणु देसि कुसत्थई हुउ अदीणु सउरीपुरि राणउ सूरसेणु । कुलि' तासु वि जायउ सूरवीरु धारिणिसुकंतमाणियसरीरु । घत्ता-समस्त मनों का रंजन करनेवाला राजा कहता है-हरिवर्ष जनपद में भोगपुर के राजा प्रभंजन मेरे पिता हैं। (19) मुख-सौन्दर्य से कमल-समूह को जीतनवाली, उनकी गृहिणी मृकण्डु मेरी माँ है। यह सुनकर कि इसे मृकण्दु ने उत्पन्न किया है, मन्त्रियों ने इस कारण उसका नाम मार्कण्डेय रख दिया। तब प्रवर गजवर पर आरूढ़ देहवाले, परम्पर बद्धस्नेह, वधू-वर ने नगर में प्रवेश किया। अनेक सेवकों से सेवा किये जाते हुए और ध्वज-छत्रों से आच्छादित, चंचल चमरों से हवा किये जाते हुए वे दोनों बहुत समय तक लक्ष्मी का भोग करते रहे। विद्युन्माला पत्नी है सहायक जिसकी, ऐसे मार्कण्डेय राजा के काल-कवलित होने पर, उसकी सन्तान परम्परा में क्रमशः अनिन्द्य हरिगिरि, हिमगिरि और वसुगिरि राजा हुए। लोगों को सम्बोधन के द्वारा शिव (मोक्ष) ले जानेवाले गणधरों ने (उस परम्परा में और भी राजा गिनाये हैं। फिर कुशस्थ देश के शौरीपुर में समर्थ (आदीन) राजा शूरसेन हुआ। उसके भी कुत में शूरवीर वीर राजा हुआ, जिसका शरीर कान्ता और धारिणी के द्वारा मान्य था, . -. ..-. -" I: Sणका। 13.8 कर्शन . PS मालगांजण। IBA पुरहिवह। 16. APS ज़ि। (19)। "संद। 2. BIFA | R. Biतु। 4. 8 मिकंडुए। 1. 5 मक्कंड । 6. AB ता पवरसंधुरा । 7.5 पहाविज्जमाणु। R. A कुसित्यए। ". A मुरारा Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 81.19.131 [19 महाकइपुप्फयंतविरवड महापुराणु घत्ता-भरहपसिद्धपहु थिरथोरबाहुदुज्जयबल"। जाया ताहिं सुय वरपुप्फयंततेउज्जल ॥19॥ इय महापुराणे तिसहिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महाभष्वरहाणुमण्णिए महाकव्वे मिजिणतित्ययरत्तणिबंधणं" णाम एक्कासीतिमो परिच्छेउ समत्तो ॥31॥ पत्ता-और जो भारत का प्रसिद्ध राजा था। उसके स्थिर और स्थूल बाहुओं से अजेय बलवाले तथा श्रेष्ठ नक्षत्रों के समान तेजवाले पुत्र उत्पन्न हुए। इस प्रकार प्रेसठ महापुरुषों के गुणों और अलंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महाभष्य भरत द्वारा अनुमत इस महाकाव्य का नेमिजिन-तीर्थकर-बन्ध नामक क्यासीयाँ परिच्छेद समाप्त हुआ। 10. B परहि। 11.8 "बाह। 12. P"पुष्पदंत । 13. A "तित्यपरन्नामबंध: B "तिस्थयरत्तणामणिबंधणं। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 201 महाकइपुप्फयंतविरयड़ महापुराणु यासीतिमो संधि सहि गीलधम्मेल्लउ 'अंधकविट्ठि 'पहिल्लाहि । णंदणु गयवयणिज्जउ णस्वविट्रिट्ठ' दुइज्जहि ॥ ध्रुबकं ॥ (1) क्षणजुयलघुलियचलहारमणि गुणि सुयणसिरोमणि परिगणिउ बीयउ णं पुण्णपुंजरइउ हिमवंतु विजउ अचलु वि तणउ लहुयउ' वसुएउ विसालमइ पुणु मद्दि कुंरि कुवलयणयण 10 पियगोत्तमणोरहगाराहु बीयहु "सुमही सरमहुरसर" तुरियह सुसीम 14 पंचमहु पिय अवरहुवि पहाव त्तिमहु अटूठमयहु सुप्पह सुहचरिय" जेहु सुभद्द णामें रमणि । सुताइ समुद्दविजउ जणिउ । अक्खोहु तिमियसायरु' तइउ । धारणु पूरणु अहिणंदणउ । उप्पण कोति पुणु हंसगइ मुणिहिं मि उक्कोइयमणमयण" । सिवएवि कंत पहिलाराहु । तइयरस सयंपह कमलकर । प्रियवाय'" णाम पच्चक्खसूय" । कालिंगी पणइणि सत्तमहु । णवमहु गुणसामिणि" संभरिय | (1) 1. B अंधर्यादि। 2. AP पहिल्लउ K. I दिनास 9. AP कुमरिः ISS कुवरि । ! पिपत्राय 16. ABP सिच 17 B सुद्धचरेिय [ 82.1.1 5 10 बयासीवी सन्धि पहली सती (धारिणी) से नीले केशवाला अन्धकवृष्णि उत्पन्न हुआ और दूसरी से निन्दारहित नरपतिवृष्णि । जेठे अर्थात् अन्धकवृष्णि की पत्नी स्तनयुगल पर आन्दोलित चंचल हारमणियोंवाली सुभद्रा थी। उससे गुणों में शिरोमणि गिना गया समुद्रविजय नामक पुत्र हुआ। दूसरा मानो पुण्यपुंज से शोभित अक्षोभ्य, तीसरा स्तिमितसागर, हिमवन्तविजय और अचलपुत्र, तथा धारणपूरण और अभिचन्द्र पुत्र हुए। सबसे छोटा विशालमति वसुदेव था। फिर हंसगामिनी कुन्ती उत्पन्न हुई। फिर कमलनयनी कुमारी माद्री हुई जो मुनियों के लिए भी कामोत्कण्ठा उत्पन्न करनेवाली थी। अपने कुल के मनोरथों को पूरा करनेवाले पहले (समुद्रविजय) की पत्नी शिवादेवी थी। दूसरे की काम के समान मधुरस्वरवाली धृति, तीसरे की कमल के समान हाथवाली स्वयंप्रभा, चौथे की सुनीता, पाँचवें की प्रिया कामदेव की माला के समान, प्रियावाक् (नामवाली), एक और (छठे ) की निष्पाप प्रभावती थी । सातवें की प्रणमिनी कलिंगी थी। आठवें की पत्नी शुभचरित सुप्रभा थी। नौवें की गुणस्वामिनी याद की जाती थी। 3. 5 णस्वर । 6. ABP दुइम्जउ 5 ABPS पुण्णपुंजु । 6A तिमिरसायक। 7. B नहुओ। Rष्णयणा 11 B या 12. 5 सुअमडी। 15. B सरु महुर। 14. A सुसीय 15. PS 18. A गुणभाषिणि । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82.3.11 महाकहपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [21 घत्ता-णरवइविविहि गेहिणि विमलसीलजलवाहिणि ॥ जणि भल्लारी भावइ पोमवयण पोमावइ ||1|| (2) तहि उग्गसेणु परसेणहरु सुउ जायउ करिकरदीहकरु। पुणु देवसेणु महसेणु हुउ साहसणिवासु णरवंदधुउ' । एबहु लहुई सस सोम्ममुहि गंधारि णाम तूसवियसुहि। विण्णाणसमत्ति पयावइहि किं वष्णमि सुय पोमावइहि । कुरुजंगलि हस्थिणायणयरि तहिं "हत्थिराउ 'छुहधोयघरि। तहु देवि सुवक्कि सुकोंतलिय सिद्धा इव वरवण्णुजलिय' । हूयउ पारासरु "ताहि सुउ "रू णं सुरवरु सग्गचुउ । मच्छउलरायसुय सच्चवइ तहु दिण्णी सुंदरि सुद्ध" सइ। ।"उप्पण्णु वासु "तहि अलियकइ तहु भज्ज सुभद्द पसण्णमइ । घत्ता-ताहि तेण उप्पण्णउ सुउ धयरटु अदुषणउ ॥ लक्खणलक्खियकायउ पंडु विउरु पुणु जायउ ॥2॥ ते तिण्णि वि भायर मणहरहु बहुकाले' गय 'सउरीपुरहु। घत्ता-नरपतिवृष्णि की विमलशीलरूपी जल की नदी और कमलमुखी पद्मावती लोगों को भली लगती थी। (2) उससे, हाथी की सैंड के समान लम्बे हाथवाला और शत्रुसेना का नाश करनेवाला उग्रसेन उत्पन्न हुआ। फिर देवसेन और महासेन हुए, साहस के घर और नरसमूह द्वारा संस्तुत। इनकी छोटी बहिन चन्द्रमुखी गान्धारी, सुधीजनों को सन्तुष्ट करनेवाली थी। वह विधाता की रचनाविज्ञान की परिसमाप्ति थी। पद्मावती की उस कन्या का मैं क्या वर्णन करूँ ? कुरुजांगल के चूने से पुते घरोंवाले हस्तिनापुर में हस्तिराज था। उसकी सुन्दर केशवाली सुवल्की नाम की देवी थी जो मातृकाओं के समान श्रेष्ठ और रंग में उजली थी। उससे पाराशर पैदा हुआ जो मानो स्वर्ग से च्युत सुरवर हो। मत्स्यकुल की शुद्ध और सती राजपुत्री से पाराशर का विवाह हुआ। उससे झूठा कवि व्यास उत्पन्न हुआ। प्रसन्नमति सुभद्रा उसकी पत्नी थी। घत्ता-उससे उसके न्यायप्रिय धृतराष्ट्र पुत्र हुआ। फिर लक्षणों से लक्षित शरीर विदुर और पाण्डु उत्पन्न हुए। (3) बहुत समय के बाद वे तीनों भाई सुन्दर शौरीपुर नगर गये। वहाँ पर कुमार पाण्डु ने त्रिजग द्वारा संस्तुत 19. परमषयण। (2) 1. AP परविंद। 2. P एपह। 9. B ससि। 4. B हो । 5. B“यहो। .A हत्यु राज। 7.5 दुहधोय। ४. B सकोतलिया। 9.5 पर" "वण्णुज्जलिया। 10. H तासु। 11. S रूएं। 12. B अहाजण्हुराय | 19 A सुद्धमइ। 14. Bउष्यण्ण। 15. B सहो। 16. A ललियगढ़। (3) 1. ABP कालहिं। 2. A सबरोपुरहो। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 | महाकपुष्कयतविरय महापुराणु तहिं पंडुकुमारें तिजगथुय सउहयति 'रमंती सहिहिं 'सहुं ता' लद्धउं मई णरजम्मफलु परु वंचिचि तंबोलेण हउ एक्कु वि खणु कण्ण ण वीसरइ * आणंदपणच्चियबरहिणहु" तहिं दिट्टिय पंडु" पुंडरिय विज्जाहरवरकरपरिगलिय पडिआयउ तं जोयइ" खयरु अक्खिउ खगेण रयणहिं जडिउं चिंतिवि किं किज्जइ परवसुणा अबलोइय अंघकविद्विस्य । चिंत सुंदरि जड़ होइ महुँ । कोतिर जोयंतु थिरच्छिदलु । सो सूहउ पुलइयदेहु गउ। रिसि सिद्धि व हियवइ संभरइ । अण्णाहिं दिणि गउ णंदणवणहु । पीयलिय हरियमणियरफुरिय" । तरुणेण लइय अंगुत्थलिय । किं जोयहि इय पुच्छइ" इयरु । इह मेरउं अंगुलीउं पडिउं । तं दंसिउं तासु वाससिसुणा । घत्ता - विहसिवि'" वासहु पुत्तें "णिवकुमारिहियचित्तें । हिं खयरु नियच्छिउ तहु सामत्थु पपुच्छिउ || (4) 'भो भणु भणु मुद्दहि तणउ गुणु तं णिसुणिवि' खेरु भई पुणु । [82.3.2 5 10 शोधतल पर अन्धकदृष्णि की पुत्री को सहेलियों के साथ खेलते हुए देखा। वह सोचता है कि यदि यह सुन्दरी मेरी हो जाय, तो मैंने अपने मनुष्य जन्म का फल पा लिया। स्थिरपलक देखते हुए उसे कुन्ती ने छकाने के लिए पान से आहत किया। वह सुभग एकदम रोमांचित हो गया। एक क्षण के लिए भी वह उस कन्या को नहीं भूलता, ऋद्धि और सिद्धि की तरह वह उसे अपने मन में याद करता रहा। दूसरे दिन वह आनन्द से जिसमें मयूर नृत्य कर रहे हैं, ऐसे नन्दनवन में गया। वहाँ पाण्डु ने पीले और हरे मणियों से चमकती हुई सफेद, किसी विद्याधर के हाथ से गिरी हुई अँगूठी देखी। उस तरुण ने उसे ले लिया । विद्याधर उसे खोजता हुआ वहाँ आया। दूसरा ( पाण्डु) उससे पूछता है- "तुम यहाँ क्या देख रहे हो ?" विद्याधर ने कहा - "रत्नों से जड़ी हुई मेरी अँगूठी यहाँ गिर गयी है ।" यह सोचकर कि दूसरे के धन से क्या, व्यास पुत्र ने वह अँगूठी उसे बता I घत्ता - राजकुमारी के द्वारा हर लिया गया है चित्त जिसका ऐसे व्यासपुत्र ने हँसते हुए स्नेह से विद्याधर की ओर देखा और उसका सामर्थ्य पूछा (4) "हो हो, अँगूठी के गुण बताओ।" यह सुनकर विद्याधर फिर से कहता है कि इससे (अँगूठी से ) तत्काल 3. 11 अंध्य 1. एक रमति 55 सड 64 सुंदरु ४ सुंदर 7. APS तो। B. B पणच्चिर। 9 A 'चरिणिहो। 10. APS दिई । 11. A पंडुर-पंडुरिय: B पंडु पुंडरिय; P पंहुं पंडुरिय। 19. AB मणि विष्कुरिय। 13, 8 जीवउ 14 B पुछिइ । 15. B वियसेधि। 16, A नृयकुमारि । ( 4 ) 1. AP भो भो भणु। 2. B मुद्दय 3. AP सुवि। 4. AP खगेसह 5. APS क Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82.4.161 [23 महाकद्दपुष्फयंतबिरयउ महापुराणु इच्छियउं रूउ खणि संभवइ वहरि यि पयपंकयाई णबइ। असणु होइ ण भंति क वि ता भासइ कुरुकुलगवणरवि । भो' णहयर एह दिव्य सुमह अच्छउ महु करि कइवय दियह । को णासइ सजण पेयउं तहु मुद्दारयणु समप्पियउं। गउ णहयरु एहु वि आइयत्र असणु णेय' विवेइयज। सयणालइ सुत्ती कोंति जहिं सहस त्ति पइट्टउ तरुणु ताह परिमट्ट1 हत्थे थणजुयलु वियसाविउं' धुत्तें मुहकमल । कण्णाइ वियाणिउ पुरिसकरु चिंतइ जइ आयड पंई यरु। तो देमि' तासु आलिंगणउं अण्णहु ण वि अप्पमि अप्पणउ ! भवणंति कवाडु गादु पिहिउं गुज्झहरइ अप्प णउ रहिउ। सरलंगुलिभूसणु घल्लियउं "जुवएं पयर्डंगें बोल्लियां। दे देहि देवि महुं सुरयसुई उल्हावहि" विरहहुयासदुहं। मज्जायणिबंधणु अइकॉमउं ता दोहिं मि तेहिं तेत्थु रमिट। घत्ता-ता चम्महसमरूवउ ताहि गब्भि संभूयउ। णवमासहि उप्पण्णउ कळ सयणहिं पच्छण्णउ ||4|| 15 मनचाहा रूप उत्पन्न किया जा सकता है, शत्रु चरणकमलों में प्रणाम करता है और अदर्शन होता है, इसमें जरा भी भ्रान्ति नहीं है। तब कुरुकुलरूपी आकाश का सूर्य पाण्डु कहता है- "हे विद्याधर, दिव्य और महनीय यह अंगूठी कुछ दिनों के लिए मेरे हाथ में रहे।" सज्जन के द्वारा कहे हुए को कौन टाल सकता है ? उसने उसके लिए मुद्रारल सौंप दिया। विद्याधर चला गया और यह (पाण्डु भी) चला आया। अदर्शन होने के कारण उसे जाना नहीं जा सका। कुन्ती जहाँ शयनकक्ष में सो रही थी, वह युवक तुरन्त वहाँ प्रविष्ट हुआ। हाथ से उसने स्तनतल को छुआ, और धूर्त ने उसका मुखकमल खिला दिया। कन्या ने जान लिया कि यह पुरुष का हाथ है। वह सोचती है कि यदि यह पाण्डु आया है तो आलिंगन दूंगी, किसी दूसरे के लिए स्वयं को अर्पित नहीं करूँगी। घर के भीतर से उसने किवाड़ मजबूती से लगा दिया। गुप्तघर में वह अपने को नहीं रख (छिपा) सका। अपनी सरल अंगुली से उसने अँगूठी उतार दी और युवक प्रकट रूप में बोला- "हे देवी मुझे सुरति-सुख दो और विरह की ज्वाला के दुःख को दूर करो।" दोनों ने मर्यादा के बन्धन का अतिक्रमण कर वहाँ रमण किया। पत्ता-उसके गर्भ रह गया। नौ माह में कामदेव के समान उसे पुत्र हुआ। स्वजनों ने उसे छिपा दिया। : 6.5 रूयु। 7. AP हो।8. A या19.Aणेव; । 10.5 परिपइडं। 11.5 विहसायि। 12-AS यि जानिरा. पंडव। 11.S 15. APS Jउ। 16. जुअए। 17. ओल्हावहि। 18.5 दोहं। 19. PS रूपउ। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 ] महाकइपुष्फयंतविश्यउ मष्ठापुराणु [82.5.1 कुंडलजुयलउं कंचणकवउ 'पत्तें सहुँ बालउ दिव्यवउ । णिविडहि मंजूसहि घल्लियउ । कालिदिपवाहि पमेल्लियउ। चंपापुरि पावसावरहिउ आइच्चे राएं संगहिउ। सुत्तउ अवलोइउ कण्णकरु कण्णु जि हक्कारिउ सो कुयरु। सुउ पडिवण्णउ समाणियहि तें" दिण्णउ राहहि राणियहि। णं पोरिसपिंड णिम्मविउ ण एक्कहिं साहसोहु थविउ। णं चायदुवंकुरु' णीसरिज *धरणिइ विहलुद्धरणु व धरिउ । चड्डइ सुंदरु वष्टियफुरणु णावइ बीयउ दससयकिरणु। एतहि गरणाहें सिरु धुणिवि धुत्तत्तणु जामायह मुणिवि। "सी कोंति मद्दि बेण्णि वि । जणिउ परिणविउ पंडु पीणथणिउ"। दइयह आलिंगणु देतियइ कोंतीइ तीइ कीलंतियइ। सुउ जणिउ जुहिडिलु भीमु णरु णग्गोहरोहपारोहकरु। मद्दी पउलु सयणुद्धरणु" अपणु वि सहएबु दीणसरणु। पत्ता-तिहुवणि' लद्धपइट्टहु णरवइविटें इट्टहु। . दिण्णी पालियरहहु गंधारि वि धयरट्ठहु ॥5॥ (5) कुण्डलयुगल, स्वर्णकवच और पत्र के साथ दिव्यशरीर बालक को मजबूत मंजूषा में रख दिया और उसे यमुना के प्रवाह में छोड़ दिया। चम्पापुर में पाप के आशय से रहित उसे, राजा आदित्य ने संगृहीत कर लिया। कान पर हाथ रखकर सोते हुए देखकर उस कुमार को ‘कर्ण' कहकर पुकारा गया। उसके द्वारा दिये गये उस शिशु को सम्माननीया रानी राधा ने पुत्रवत् अंगीकार कर लिया। वह मानो जैसे पौरुष-पिण्ड के रूप में निर्मित हआ हो. मानो साहससमह को एक जगह रख दिया गया हो, मानो त्याग का अंकर निकल आया हो, मानो धरती ने विहलों के उद्धार को धारण कर लिया हो। बढ़ रही है चमक जिसकी. ऐसा वह बढ़ने लगा मानो दूसरा सूर्य हो। यहाँ पर राजा (अन्धकवृष्णि) ने दामाद की धूर्तता देखकर और अपना माथा पीटकर, सघन स्तनोंवाली कुन्ती और माद्री की उससे शादी कर दी। अपने दयित (पति) को आलिंगन देते और क्रीड़ा करते हुए उस कुन्ती ने युधिष्ठिर को तथा वटवृक्ष के समान स्थूलबाहु भीम को उत्पन्न किया। माद्री ने स्वजनों का उद्धार करनेवाला नकुल और दोनों की शरण सहदेव को उत्पन्न किया। घत्ता-नरपतिवृष्णि ने भी त्रिभुवन में प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाले, राष्ट्र के पालनकर्ता धृतराष्ट्र को गांधारी परणा दी। (5) 1. B पत्तिहिं । 2. A दिलव३ । 3. A... गवासव" against Mss. 4.5 एएं। 5. AP कुपरु । 6. 1 तं। 7. APS "दुमकुरु। S, A घरणिविहलु। ५. A स। 10. A जणी.51 11B पीणत्यो । 2. कुलउद्धरण: Krecordsap: कुल। 19. A तिहुयण": B तिवण: तिहुयणि। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82.6.15] महाकपुष्कयतविरच महापुराणु ( 6 ) हुउ ताहि गब्धि कुलभूसणउ पुणु दुद्दरिस दुम्भरिसणउ सज नई एवं ताइ जणिउं अण्णाहं दिणि सूरवीरु सिरिहि गउ वंदिउ 'सुप्पट्ठइअरुहु' अप्प णीसंगु णिरंबरउ णिसिदिवसपक्खमासेण हय ता सुप्पट्टरिसिदिहि हरइ तं दुहुं दूसहु साहु सहि ं उप्पण्णउं केवलु विमलु" किह "जायउं चउविहु " देवागमणु पुच्छिउ मरमेसरु परमपरु उवसग्गहु कारणु काई किर दुज्जोहणु पुणु दूसासणउ । पुणु अण्णु अण्णु हूयउ तणउ । जिणभासिउं सेणिय मई गणिउं । गिविण्णु गंधमायणगिरिहि । सुयजमलहु महियलु देवि पहु । जायउ मुणि कयमणसंवरउ । बारह संवच्छर जाम गय। उवसग्गु सुदंसणु सुरु करइ । आऊरिडं झाणु रोसरहिउ " । जाणि तेल्लोक्कु झड त्ति जिह 1 तहिं अंधयविट्ठिहि'" "मिउ जिणु । णाणाविहजम्मणमरणहरु 1 - ता जिणमुहाउ णीसरिय गिर । घत्ता - जंबूदीवइ" भारहि देसि " कलिंगि सुहावहि । आवणभवणणिरंतरि दिण्णकामि कंचीपुरि ॥6॥ [ 25 5 10 15 (6) उसके गर्भ से कुलभूषण दुर्योधन और दुःशासन उत्पन्न हुए, फिर दुदर्शन दुर्मर्षण, और फिर दूसरे पुत्र उत्पन्न हुए। इस प्रकार उसने सौ पुत्रों को जन्म दिया । "हे श्रणिक ! जिनदेव द्वारा कथित इस तथ्य को मैं जानता हूँ। दूसरे दिन शूरवीर (अन्धकवृष्णि के पिता) से विरक्त होकर गन्धमादनगिरि पर गया । वहाँ सुप्रतिष्ठ अर्हत् की वन्दना की। अपने दोनों पुत्रों को भूमि प्रदान कर स्वयं अनासंग तथा निःसंग हो कर वह दिगम्बर मुनि हो गया। रात-दिन पक्ष और माह से आहत, जब बारह वर्ष बीत गये, तब सुदर्शनदेव उपसर्ग करता है और सुप्रतिष्ठ मुनि के धैर्य का हरण करता है। मुनि ने उस घोर दुःख को सहन कर लिया और क्रोधविहीन ध्यान आरम्भ किया । शीघ्र उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया और उन्होंने तीनों लोकों को जान लिया। चार प्रकार के देवों का आगमन हुआ। वहाँ अन्धकवृष्णि ने जिन को नमस्कार किया । नाना प्रकार के जन्म-मरण का हरण करनेवाले परम परमेश्वर से उसने पूछा कि उपसर्ग का क्या कारण है ? तब जिनमुख से यह वाणी निकली घत्ता - जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के सुखावह कलिंग देश में बाजारों और भवनों से भरी हुई और कामनाओं को पूरा करनेवाली कांचीपुरी नगरी है। ( 6 ) IP दुम्बु पुणु अण्णु हुए। 2. B निव्धिण्णः $ निविष्ण। 3. BP सुम्पटुः S सुप्पति। 4. S अरिहु। 5. AB पहु । 6. B अणु 7. APS मासेहिं । 8. A साहुहुं सहितं । 9. P रोसहरिउं| 10 S विमालु । 11. B आयड 12. ADP चउयिहदेवश यशुषिषु। 13. AP अंधकविट्ठि $ चिट्ठे । 14. PS गयिउ। 15. S जंबूदीवे । ६६. S देस । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 261 महाकइपुप्फवंतबिरयउ महापुराणु [82.7.1 तहिं दिणयरदत्त सुदत्त वणि किं वण्णमि धणयसमाणधणि। लंकाइहिं दीविहिं संचरिवि' अण्णण्ण' 'पसंडिभडु भरिवि। लोहिट्ठ ण सुक्कह देंति पणु भइयइ महिमज्झि घिति धणु। तरु णिहणंतहिं रसवणियरहि तं दिट्ठउं णियां जाम परहिं। ता जुज्झिवि ते तिहाइ हय अवरोप्परु भतिई' हणिवि मय। णारय हूया पुणु मेस वणि पंचत्तु पत्त पुणु भिडिवि' रणि । गंगायडि गोउलि पुणु वसह "जुझेप्पिणु पुणु संपत्तवह। संमेयमहीहरि पुणु पमय तण्हाइ सिलायलि" सलिलरय । अभिट्ट दसणणहजज्जरिउ मुउ एक्कु एक्कु तहिं उव्वरिउ । ईसीसि जाम णीससइ कइ संपत्ता ता तहिं बेण्णि जइ। चारण जियमण तेलोक्कगुरु ते णामें सुरगुरु देवगुरु। कहियाई तेहिं दक्कियहरई। करुणेण पंच परमक्खरइं। यत्ता-सिवगइकामिणिकंतहु धम्मु सुणिवि अरहंतहु। ___ मृउ वाणरु व्रउ लेप्पिण जिणवरु सरणु भणेप्पिणु ॥7॥ उसमें दिनकरदत्त और सुदत्त नाम के वणिक् हैं। क्या वर्णन करूँ ? वे कुबेर के समान धनिक हैं। लंका आदि द्वीपों में भ्रमण कर और दूसरे-दूसरे स्वर्णभाण्ड भरकर भी वे इतने लोभी थे कि पुण्य में एक पैसा भी नहीं देते थे, मारे इर के उन्होंने धरती में धन गाड़ दिया था। वृक्ष नष्ट करते समय मदिरा बनानेवाले दूसरे लोगों ने जब वह धन देखा, तो वे उसे ले गये। तब तृष्णा से आहत वे दोनों (सेठ) आपस में युद्ध कर और भ्रान्ति से एक-दूसरे को मारकर मर गये। पहिले नारकीय हुए, फिर वन में मेष हुए और युद्ध में लड़कर मर गये। फिर गंगातट पर, फिर गोकुल में बैल हुए। आपस में लड़कर वे फिर वध को प्राप्त हुए। फिर सम्मेदशिखर पहाड़ पर बन्दर हुए। वहाँ भी प्यास के कारण चट्टान से रिसते जल में रत होकर भिड़ गये, दौंतों और नखों से जर्जर होकर उनमें से एक मर गया, और एक वहाँ बच गया बन्दर जब थोड़ी-थोड़ी साँस ले रहा था, तभी दो महामुनि वहाँ आये; चारण मन को जीतनेवाले और त्रिलोकगुरु। उनके नाम देवगुरु और सुरगुरु थे। उन्होंने उससे दुःखों का अपहरण करनेवाले पाँच परमाक्षर (पंच णमोकार मन्त्र) कहे। घत्ता-शिवगति रूपी कामिनी के पति अरहन्त का धर्म सुनकर वानर व्रत लेकर और जिनवर की शरण ग्रहण कर मर गया। (7)1. Pसंबरेचि । 2. ABPS अण्णाणु। 9. B पसंडे। 4. A पुणु। 5. B वणियरेहि वणिवरेहि। 6. A णिव उजम परहि: P णियउ जाम परहि। 7. A सतिए। 8. AP पुणु हूया। 9.5 भिडवि। 10. A जुज्झेण जि पुणु वि पवण बह: B जुन्झेण जि पुणु वि पधण्णवहि। 11.5 सिलायल। 12.5 अरिहंतहो। 13. AP बउ। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82.8.16] महाकाइपुप्फयंतविरय महापुराणु [ 27 सोहम्मसग्गि सोहग्गजुर चित्तंगउ णामें अमरु हुआ। काले जंतें एत्थु जि भरहि देसम्मि सुरम्मइ सुहणिवहि। पोयणपुरि सुत्थियपस्थिवहु' तिक्खासिपरज्जियपरणिवहु । सिसु जायउ गदिम सुलक्खाह सुपइटु णामु सुवियखणाहे । पाउसि गड कत्थइ कालगिरि- तहिं दिट्ठा बेण्णि भिडंत हरि। हा मई मि आसि इय जुज्झियउँ कइदंसणि णियभवु बुज्झियउ। आसंधिउ सूरि सुधम्मु सई इय एहउँ जिणतयु चिण्णु मई। इयरु वि संसारइ संसरिवि पुणु आयउ बहुदुक्खई सहिवि। सिंधूतीरइ घणवणगुहिलि णवकुसुमरेणुपरिमलबहलि । तावसिहि विसालहि हरगणहु तवसिहि सिसु हूउ मृगायणहु । पंचग्गितावतवधंसण' हुउ जोइसदेउ सुदंसणउ। हउं सूरदत्तु चिरु वाणियउ इहु सो सुदत्तु मई जाणियउ। उवसग्गु करइ णियकम्मवसु ण मुणइ परमागमणाणरसु।। संसारि ण को मोहेण जिउ तं सुणिवि सुदंसणु धम्मि थिउ । घत्ता-तं णिसुणिवि' पणवेप्पिणु सिरि करजुयलु थवेप्पिणु। "अंधकविढेि जिणवरु पुच्छिउ णिययभवंतरु० ॥8॥ 10 15 वह सौधर्म स्वर्ग में सौभाग्य से युक्त चित्रांगद नाम का देव हुआ। समय बीतने पर इसी भरतक्षेत्र के सुरम्य देश के सुख से परिपूर्ण पोदनपुर नगर में; अपनी पैनी तलवार से शत्रुसमूह को पराजित करनेवाले राजा सुस्थित की पत्नी विलक्षण सुलक्षणा से सुप्रतिष्ठ नाम का पुत्र हुआ। वर्षाकाल में वह किसी क्रीडापर्वत पर गया हुआ था। वहाँ उसने दो वानरों को युद्ध करते हुए देखा। हाय, मैंने भी यहाँ युद्ध किया था; कपि के दर्शन से उसे पूर्वजन्म का स्मरण हो आया। (तब) मैं सुधर्मा मुनि की शरण में पहुँचा और मैंने यह जिनधर्म स्वीकार कर लिया। दूसरा (मेरा भाई सुदत्त) संसार में भ्रमण कर और अनेक दुःख सहनकर, सधन वन में गहर तथा नवकुसुम रेणु की परिमल से प्रचुर सिन्धुतट पर शिवगण के तपस्वी मृगायण की पत्नी विशाला तपस्विनी से पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। पंचाग्नितप के ताप से ध्वस्त होकर सुदर्शन नाम का (मैं) ज्योतिषी देव हुआ। मैं प्राचीन सूरदत्त वणिक् हूँ और यह वही सुदत्त है, मैंने जान लिया है। अपने कर्म के वशीभूत होकर वह उपसर्ग करता है। वह परमागम के ज्ञानरस को कुछ नहीं समझता। संसार में मोह से कौन नहीं जीता जाता।" यह सुनकर सुदर्शन धर्म में स्थित हो गया। ___घत्ता-यह सुनकर और सिर पर कर-युगल रख कर, प्रणाम कर अन्धकवृष्णि ने मुनिवर से अपने जन्मातर पूछे। (8) 1. B सुत्थिर। 2. B कालिगिरि। 3. APS बहुयारउ उपज्जियि मरियि; but K adds ap: बहुयारउ उप्पणिवि मरियि इति ताडपत्रे in second hand. 4. B "गुहलि । 5. 5 "बहुले । 6. B मिगयणहो । विगायणहो। 2..AP तावतणु,सणउ । R. B तं णिसुंणेपिणु सिरि। 9. AP "विट्रिहि। 10. B णियइ। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 ] महाकइपष्फयंतबिरयउ महापुराणु [82.9.1 जिणु कहइ एत्थु 'भारहवरिसि कोसलपुरि पउरजणियहरिसि। . णरवइ अणंतवीरिउ वसइ जसु जासु चंदजोण्ह वि हसइ । तेत्थु जि सुरिंददत्तउ वणिउ गुणवंतु संतु भल्लउ भणिउ। अरहंतदेवपविरइयपह अणवरउ देह दीणार दह। अहमिहि वीस चालीस पुणु अमवासहि' मणकवडेण विणु। अट्ठउणउं पब्धि पब्धि मुयइ' दविणे जिणु पुज्जइ मलु धुयई। तें जंतें सायरपारपरु घरि अच्छिउ पुच्छि' विप्पु वरु। भो रुद्ददत्त' सुइ करहि मणु लइ बारहसंवच्छरह" धणु। पुज्जिज्जसु जिणवरु एण तुहं हउँ एमि जाम जाएवि सुहं। इय भासिधि णिग्गउ सेट्टि किह बंभणमणभवणहु धम्मु जिह। घत्ता-विरइयकित्तिमवेसइ खद्धउं जूबइ। बेसइ। वडियजोवणदप्पें देवदव्वु खलविप्पें ॥9॥ (10) पुणु पट्टणि रयणिहिं संचरइ परघण्णु' सुवण्णइं अवहरइ। अवलोइउ सेणें तलवरिण कुसुमालु धरिउ गिठ्ठरकरिण । जिन कहते हैं-इस भारतवर्ष के पौरजनों के लिए हर्षदायक कोशलपुर में राजा अनन्तवीर्य निवास करता था। उसका यश चन्द्रमा की चाँदनी का उपहास करता था। वहाँ सुरेन्द्रदत्त वणिक गुणी और बहुत भला कहा जाता था। अरहन्तदेव की पूजा करने के अनन्तर वह प्रतिदिन दस दीनार देता था- अष्टमी को बीस और फिर अमावस्या को चालीस, बिना किसी कपट के। पर्व-पर्व पर आठ गुना अधिक देता था। इस प्रकार धन से जिन की पूजा (शुद्ध भावों से) करता और मल (कर्ममल) को धोता । समुद्रपार जाते हुए उसने (अपने मित्र) ब्राह्मण को घर में रखते हुए कहा-“हे रुद्रदत्त, तुम अपने मन को निर्लोभ रखना, यह बारह वर्ष का धन लो, इससे तुम तब तक जिनवर की पूजा करना, जब तक जाकर मैं सुख से लौट नहीं आता।" यह कहकर सेठ जैसे ही घर से निकला, वैसे ही ब्राह्मण के मनरूपी घर से धर्म निकल गया। पत्ता-उस दृष्ट ब्राह्मण ने यौवन का घमण्ड बढने पर सारा देव-द्रव्य बनावटी रूप बनानेवाली वेश्या और जुए में उड़ा दिया। (10) वह रात में नगर में घूमता और दूसरे के धन तथा स्वर्ण की चोरी करता। सेन नाम के कोतवाल ने (9) 1. P भरह 12.8 सुरिंदयत्तउPS सुरेंददत्तउ। 5. A मावासहे। 4. B मुवइ । 5. Bधुथइ। 6.5 "पारु परु। 7. AP पस्थिर। 8. ABP विष्पवरु; 5 विपरु । 9. B सइयत्त । 10. B संवच्छाहिं। 1. APS जूएं। (10) 1.8 "धण्ण। 2. A सेपणे। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82.11.12] महाकइपुष्फयतविरयउ पहापुरागु [29 पुणरवि मुक्कउ बंभणु भणिवि जइ पइसहि' तो पुरि सिरु लुणिवि। तं णिसुणिवि पीरसु वज्जरिउं कुसुमालहु हिक्वउं थरहरिउं । गउ भिल्लपल्लि कालउ सबरु तें सेविउ चावतिकंडधरूं । आसाइयतरुणाणाहलहिं अण्णहिं दिणि आविवि णाहलहि। तप्पुरवरगोमंडलु गहिउं धाविउ पुरवरु सेणियसहिउँ । सो सोत्तियसवरू णिवाइवउ णरयावणि मरिवि पराइयउ। पुणु" जलि झसु पुणु पुणु पुणु" उरउ पुणु बग्घु" जाउ मारणणिरउ । पुणु पक्खिराउ पुणु कूरमइ पुणु सीहु विरालु' रणेक्करइ । पुण भमिउ सत्तणरयंतरहेिं णाणाजोणिहिं तसथावरहि। पुणु एत्यु खेत्ति कुरुजंगलइ करिवरपुरि परिहाजलवलइ। घत्ता-लोयहु मग्गपउंजउ जहिं णरणाहु धणजउ। कविलु” सुणामें सोत्तिउ तहिं दइवें णिव्वतिउ ॥10॥ तहु घणयणसिहरणिसुंभणिहि जायउ' अणुराहहि बंभणिहि । सो गोत्तमु णामें णीसिरिउ पब्भट्ठजणिठ्ठपुण्णकिरिउ' । उसे देख लिया और अपने कठोर हाथ से उस चोर को पकड़ लिया। परन्तु ब्राह्मण समझकर उसे छोड़ दिया(और कहा) “यदि फिर से शहर में प्रवेश किया तो सिर काट लूँगा।" उस नीरस कथन को सुनकर चोर का हृदय धर-थर काँप उठा। वह भीलों के गाँव में चला गया। उसने धनुष-बाणधारी कालक भील की सेवा की। नाना प्रकार के वृक्ष-फलों का आस्वादन करनेवाले भीलों ने, दूसरे दिन आकर इस नगर के गौमण्डल को ग्रहण कर लिया। सेन कोतवाल के साथ नगर का नगर उसके पीछे दौड़ा। वह ब्राह्मण भील मारा गया। और मरकर नरकभूमि में पहुँचा। फिर जल में मछली, फिर साँप और फिर मारने में निपुण बाघ बन गया। फिर पक्षीराज (गरुड़), और फिर क्रूरबुद्धि, भयंकर युद्ध की एकमात्र बुद्धि रखनेवाला सिंह। फिर सातों नरकों और त्रस-स्थावर आदि नाना योनियों में घूमता रहा। फिर इस करुजांगल क्षेत्र के परिखा-जल से घिरे हुए हस्तिनापुर में; घत्ता-दैवयोग से कपिलायन नाम का ब्राह्मण हुआ जहाँ धनंजय नामक मार्गदर्शक राजा था। झुक गये हैं अग्रभाग जिसके, ऐसे सघन स्तनोंवाली उसकी अनुराधा ब्राह्मणी से वह गौतम नाम से (पुत्र) उत्पन्न हुआ। वह अत्यन्त दरिद्र था। लोगों के लिए पुण्यक्रियाओं से भ्रष्ट उसका समूचा कुल नष्ट हो गया। 5. पमुक्कु। 4.A पइसहि परि तो। 5. AS "त्रिकंडकताकBP गुरदरू। 7. BP था। 8. B सेणे P सेणिय सेणय। 9. सोत्तिक । 10. AP एण जलणिहि प्रभु पुणरयि पाड। 11. Hgs: Samits पुणु। 12. AT या हरिणभार: BP बग्घु जीवमारण" 5 बग्घु जीउ मारण.113. B पंखिराउ। 14 APS चियालु। 15. AP रणेक्कमह। 16. PS मगु। 17. A कविसलु णार्म । (11) I. Ar हुआ सुर आ'। 2. B पीलियरिङ PS गीरिक Kणीसियरित but strikes offP य; Als णीसिरिज Anthe strength of गुणभद्र who has निःश्रीकः । 3. H पन्धछ । 1.8 "पुण्णुकस्टि। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30] महाकइपुष्फयतविरयउ महापुराणु [82.11.3 णीसेसु वि पलयहु गयउं कुलु थिउ देहमेत्तु पाविळु खलु। मलपडलविलित्तु भुत्तविहुरु जूयासहाससंकुलचिहुरु'। मसिकसणवण्णु "जरचीरधरु आहिँडइ घरि घरि देहिसरू। जणिदिउ खप्परखंडकरु महिवालु व चल्लइ दंडधरु। दुई गाहिं हम आइ . . मुक्साइ लमियलोयणु पडइ । दुग्गउ" दूहउ दुग्गंधतणु | रसवसलोहियपवहंतवणु। तें पुरि पइसंतु सुद्धचरिउ दिउ समुद्दसेणायरिउ12 1 तहु मग्गेण जि सो चलियउ जाणिवि सुहकमें पेल्लियउ। घत्ता-पयडियपासुलियालउ दुइंसणु वियरालउ। वणिवरणारिहिं 4 दिट्ठउ णं दुक्कालु पइट्ठउ ||11॥ (12) पडिगाहिउ' रिसि वइसवणघरि आहारु दिण्णु सुविसुद्ध करि। मुणिचटु भणिवि हक्कारियउ रंकु वि तेत्थु जि वइसारियउ। भोयणु आकंछु तेण गसिउं णियचित्ति रिसित्तु जि अहिलसिउं। गउ गुरुपंथेण जि गुरुभवणु सो भासइ पेट्टालग्गहणु। 10 वह दुष्ट पापी देहमात्र रह गया। मल-समूह से लिपटा, भोगों से रहित, सैकड़ों लुओं से युक्त संकुल केशवाला, स्याही के समान कृष्णवर्ण, जीर्ण वस्त्र पहिने हुए, और 'दो' यह शब्द कहता हुआ वह घर-घर घूमने लगा। लोगों के द्वारा निन्दित, खप्पर का टुकड़ा तथा दण्ड हाथ में लिये हुए सजा की तरह चला। नगर के बच्चों के द्वारा बह मारा जाता, तब चिल्लाता। भूख के कारण आँखें घुमाते हुए वह गिर पड़ता। उसके सुर्गत-दुर्भग और दुर्गन्धित शरीर के घावों से रस पीप और खून बहने लगा। नगर में प्रवेश करते हुए उसने विशुद्धचरित समुद्रसेन आचार्य को देखा। वह शुभ कर्मों से प्रेरित यह जानकर, उसी रास्ते से चला। पत्ता-उसकी पसलियों की हड्डियाँ निकल रही थीं। अत्यन्त विकराल और दुदर्शनीय उसे वणिकवरों की स्त्रियों ने इस प्रकार देखा मानो दुष्काल ही प्रवेश कर रहा हो। (12) वैश्रवण के घर में मुनिवर को पड़गाहा गया और उनके विशुद्ध हाथों में आहार दिया गया। उसे भी मुनि का शिष्य कहकर बुलाया गया और उस गरीब को भी वहीं बैठाया गया। उसने गले तक खूब भोजन किया और अपने मन में मुनि बनने की इच्छा प्रकट की। वह महामुनि के रास्ते उनके भवन पर पहुंचा। उसका पेट दाढ़ी से लग रहा था। वह कहता है-'मैं दिन-रात तुम्हारी सेवा में रहूँगा। जिस प्रकार आप भायणु; 'लायण। 10. PS दोग्गज । 11. S दूहब्रु। 12. P5 °सेणाइरिज। 5. B"चलितु । 5. BP भुत्तु विहरु । 7. B"संकुलियसिरु । 8. 5 जरजीर । 9. 13. 2 पायडिय। 14. Bवणे। (12) 1. P5 पडिलाहिउ । 2. B मणि । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82.13.8] महाकइपुष्फयंतविरयड महापुराणु | 31 तुह' पेसणेण अहणिसु गममि तुर्ह जिह तिह हउँ णग्गउ भममि। गुरुणा तहु कम्मु णिरिक्खियउं दिण्णउं वउं सत्यु वि सिक्खियउं । कालें जंतें समभावि थिन हुहुउ सो सिरिगोनम लोगपिउ । मज्झिमगेवजहि उवरिल्लविमाणइ जाउ सुरु। सो तहि मरेचि अट्ठावीसहिं सायरहिं चुउ। इह जायउ अंधकविहि तुहं दिउ रुद्ददत्तु अणुहविवि दुई। घत्ता-अणुहुजियबहुकम्मई आयपिणवि णियजम्मई। पुणु तणुरुहहं भवावलि पुच्छिउ राएं केवलि ॥12॥ (13) जणसवणसुहे' जणइ ता जिणवरो भणइ। इह भरहवरिसम्मि वरमलयदेसम्मि। भद्दिलपुरे राउ मेहरहु विक्खाउ। णीरुयसरीरस्स' रायाणिया तस्स। णं अच्छा का वि भद्दा 'महादेवि। पाडियगुरुविणउ दढसंदणों तणउ। अरविंददलणेत्तु चणिवरु वि धणयत्तु । णंदयस तहु घरिणि णयणेहि जियहरिणि। हैं, उसी प्रकार मैं भी नग्न दीक्षा लेकर घूमूंगा।" गुरु ने उसके आचरण को देखा और उसे व्रत दिये तथा शास्त्र भी सिखाया। समय बीतने पर वह समता भाव में स्थित हो गया और इस प्रकार गौतम मुनि खूब लोकप्रिय हुआ। उसके गुरु समुद्रसेन मध्यम ग्रैवेयक के ऊपर के विमान में देव रूप में उत्पन्न हुए। वह भी (गौतम भी) वहाँ जाकर अहमेन्द्र हुआ और अठारह सागर (आयु) के बाद च्युत होकर, यह तू अन्धकवृष्णि उत्पन्न हुआ। हे रुद्रदत्त ! तू इस प्रकार के दुःखों को भोग कर-- यत्ता-इस प्रकार अनेक (तरह के कर्मों का अनुभव करनेवाले अपने पूर्वजन्मों को सुनकर राजा ने केवली से अपने पुत्रों के जन्मान्तर पूछे । (13) तब जिनवर लोगों के कानों को सुख देने वाले ऐसे वचन कहते हैं-इस भारत के श्रेष्ठ मलय देश के भद्रिलपुर का राजा मेघरथ बहुत विख्यात था। आरोग्यसम्पन्न उस राजा की भद्रा नाम की रानी थी, जैसे कोई अप्सरा हो। उसका महान् विनय प्रकट करनेवाला दृढ़रथ नाम का पुत्र था। वहीं अरविन्ददल के समान नेत्रवाला वणिग्वर धनदत्त भी रहता था। उसकी पत्नी नन्दयशा अपने नेत्रों से हरिणी को जीतनेवाली थी। 3. तुर। 1. AP रिसि गोतभु। 5. APS ता जि मरेवि! 6. P इय। (13) 1. AP जं मवण । 2. 5 वरमि . Pणिरुवमसरीरस्स। 4. AP महाएवि। 5. AS दढदंसणो। 6. APS Jटजस। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 ] महाकइपुष्फयंतविरयड महापुराणु [82.13.9 धणदेउ धणपालु अण्णेक्कु विणपालु। सुउ देवपालंकु जिणधम्मि णीसंकु। पुणु अरुहदत्तो वि सिसु अरुहदासो वि। दिणयत्तु पियमित्तु संपुण्णससिवत्तु। धम्मरुइजुत्तेहिं वणि णवहिं पुत्तेहि। णं णवपपत्थेहिं पसरंतगंथेहि। परमागमो सहइ रूढिं पर वहइ। पियदंस जेडा वि 'गुणजुत्ति। धत्ता-णाणातरुसंताणहु गउ महिवइ उज्जाणहु। सेट्टि वि पुस्तकलत्तहिं सहुं कयभत्तिपयत्तहिं ॥3॥ तहिं वंदिवि मुणि मंदिरथविरु' दढरहहु समप्पिवि धरणियलु मेहरहें संजमु पालियउ वणि जायउ रिसि सहं गंदणहिं मयकामकोहविद्धसणहि णंदयस सुणिव्वेएं लइय णिसुणेवि अहिंसाधम्मु चिरु। हियउल्लउं 'सुछ करिवि विमलु । अरि मित्तु वि सरिसु णिहालियउ । मणि' मण्णिय समतिणकंचणहि' । खंतियहि समीवि सुणंदणहि। पियदसण जेट्ट वि पावइय। धनदेव, धनपाल, एक और दिनपाल, और देवपाल नाम के पुत्र थे जो जैनधर्म में अत्यन्त निःशंक थे। फिर अरुहदत्त और अरुहदास । दिनदत्त और पूर्णशशि के समान मुखवाला प्रियमित्र और धर्म रुचि। अपने इन पुत्रों के साथ वह सेठ ऐसा मालूम होता था, मानो प्रसरित ग्रन्थ (धन और शास्त्र) वाले नौ पदार्थों से सहित परमागम रूढ़ि को प्राप्त है। उसकी दो गुणवती पुत्रियाँ थीं-प्रियदर्शना और सुज्येष्ठा। __ घत्ता-(एक दिन) राजा नाना वृक्षों की पंक्तियों से युक्त उद्यान में गया। सेठ भी भक्ति के लिए प्रयत्न करनेवाले पुत्रों के साथ वहाँ गया। वहाँ मन्दिर स्वरूप मुनि की वन्दना कर और बहुत समय तक अहिंसा धर्म सुनकर, दृढ़रथ (पुत्र) को धरतीतल (राज्य) सौंपकर तथा अपने हृदय को पवित्र बनाकर मेघरथ राजा ने संयम का पालन किया। उसने शत्रु और मित्र को समान समझा। सेठ भी तृण और स्वर्ण को मन में समान माननेवाले अपने पुत्रों के साथ मुनि हो गया। नन्दयशा बहुत ही निर्वेद (खेद) को प्राप्त हुई। प्रियदर्शना और ज्येष्ठा ने भी प्रव्रज्या ग्रहण 1. जिणपाजु । 8 । जिणवत्त। . : "सचिनत्तु। 10. 5 यणि वाहें। 11. P% गुणगुत्ति । (14) 1. पविरु। 2. AL' करेवि सुद्ध विफल। 3. ABS मणपणिय | 4. ABP -तण- "तिणु। 5. A पंदयसि । 6. B घियदलणि। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 82.15.8] महाकइपुष्फयंतविरवर महापुराणु [33 'कोल्लिकयलिककोलिघणि सुपियंगुडेि' मृगचंडवणि" । गुरु मंदिरथविरु' समेहरहु धणयत्तु वि णासियमोहगहु । गय तिण्णि वि सासवसिवपयहु मुक्का जरमरणरोयभय"। ते सिद्धा सिद्धसिलायलइ धणदेवाइ वि तेत्थु जि णिलइ। घत्ता-थिय अणसणि विणयायर महिणिहित्ततणु भायर । सहुं जणणिइ सहुं बहिणिहिं जोइयजिणगुणकुहणिहि ॥14॥ ( 15 ) पिदेशा मुभवोहबग संणासणि' चिंतइ णंदजस । जइ अस्थि किं पि फलु रिसिहि तवि ए तणुरुह तो आगामिभवि। एयर धीयउ महुँ होंतु तिह विच्छोउ ण पुणरवि होइ जिह। कइवयदियहहिं सब्वइ मयई तेरहमउ सग्गु णवर गवई। सायंकरि सुरहरि अच्छियई सुरवरकोडीहिं 'समिच्छियई। तहिं वीससमुद्दई भुत्तु सुह णिवडतहुं ओहुल्लियां मुई। हूई' णंदयस सुहद्द तुह गेहिणि परियाणहि चंदमुह। धणदेवपमुह जे पीणभुव इह ते समुद्दविजयाई सुय। कर ली। अशोक, कदली (केला) और कंकोल वृक्षों से सघन एवं पशुओं से प्रचण्ड प्रियंगुखण्ड वन में मेघरथ के साथ गुरु, मन्दिर-स्थविर और सेठ धनदत्त तीनों मोहरूपी ग्रह का नाश कर, शाश्वत शिवपद के लिए चले गये तथा जरामरणरूपी रोग के भय से वे होकर और सिद्धशिला में सिद्ध हो गये। धनदेव वगैरह उसी के घर में स्थित थे। ___घत्ता-अपनी माँ, और जिनवर के गुणों के मार्ग को खोजती हुई दोनों बहिनों के साथ, धरती पर अपने शरीर को समर्पित करनेवाले, बिनय के समूह वे भाई अनशन में स्थित हो गये। अपने शरीर से उत्पन्न पुत्रों के स्नेह के कारण संन्यासिनी नन्दयशा सोचती है-'यदि ऋषियों के इस तप का कुछ भी फल है, तो आगामी जन्म में ये फिर पुत्र हों और ये कन्याएँ भी इसी प्रकार हों कि जिससे उनका फिर से वियोग न हो।' कुछ ही दिनों में सब मृत्यु को प्राप्त हो गये और तेरहवें स्वर्ग में उत्पन्न हुए। वहाँ शान्तकर विमान में करोड़ों देवों द्वारा चाहे गये बाईस सागर (समय प्रमाण) तक सुख भोग करने के बाद, च्युत होते समय, उनका मुख म्लान हो गया। नन्दयशा तुम्हारी सुभद्रा हुई, उसे तुम अपनी चन्द्रमुखी गृहिणी समझो। और जो स्थूलभुज धनदेव प्रमुख पुत्र थे, वे ये समुद्रविजय आदि पुत्र हैं। 7. B किकिल्लि । ४.Aकक्फत" । "कोल्त कक्कोलि 19. Bखंहि। 10. AP मिगचंद": । 'चंदु। ।।. RP मंदिरु। 12. APS घणदत्तु: B धणयत्त। 13. B"भरहो। 4. Bअसण। 11. जणणिहे। 16. APS 'कुहिणिहिं। (15) I.Aआण्णाणि णियच्छड़ गांट: । अण्णाणिणि पत्यद णद. A भव्यई। 3.5 सग्ग। 4. PS °कोडिहिं। 5. सम्मठियई। 6. P ओहल्लियां। 7. हुइ। *. P सुभद। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 341 [82.15.9 महाकहपुष्फयंतविरपट महापुराणु घत्ता-पिबदसण सहुं जेदुइ किस 'हूई तवणिइ ॥ पुत्ति कोंति सा जाणहि अवर मद्दि अहिणाणहि ॥15॥ 10 पहु पुच्छइ वसुदेवायरणु जिणु अक्खइ णाणि जित्तकरणु। बहुगोहणसेवियणिविडबडु कुरुदेसि पलासगाउं पयडु। तहे सोमसम्मु णामेण दिउ हुउ णदि तासु सुर पाणपिउ। तें देवसम्मु णियमाउलउ सेविउ विवाहकरणाउलउ । सत्त' वि धीयउ दिग्णउ परह घणकणगुणवंतह दियवरह। णदि दिठ्ठउ णच्चंतु णडु भडसंकडि णिवडिय विबलु बडु। अण्णाणिउ बसु 'हवंतु हिरिहि जणपहसणि गउ लज्जिवि गिरिहि। गुरुसिहरारूढउ तसियमणु आवेवि' जाइ |उ घिवइ तणु। तलि आसीणा अच्चंतगुणि तहि संखणाम णिण्णाम मुणि। परछायामगु णियच्छियर दुमसेणु तेहिं आउच्छियउ। गुरु अक्खहि" कायछाय करहु कहु तणिय एह आइय घरहु। पत्ता-ता णियणाणु पयासइ ताहं भडारउ भासइ । होतउ सच्चउं दीसई जो तुम्हहं पिउ होसइ ॥16॥ घत्ता--ज्येष्ठा के साथ जो प्रियदर्शना तप की निष्ठा में अत्यन्त दुबली-पतली हो गयी थी, उसे पुत्री कुन्ती जानो और दूसरी को माद्री पहिचानो। (16) तब राजा वसुदेव का पूर्व चरित पूछता है। इन्द्रियों के विजेता केवलीजिन कहते हैं-कुरुक्षेत्र में बहुत-से गोधन की सेवा में अत्यन्त चतुर पलास नाम का प्रसिद्ध गाँव था। उसमें सोमशर्मा नाम का ब्राह्मण था। उसका नन्दी नाम का प्राणप्रिय पुत्र था। विवाह करने के लिए आकुल उसने अपने मामा देवशर्मा की बहुत सेवा की। परन्तु मामा ने अपनी सातों कन्याएं धन-अन्न और गुणों से युक्त दूसरे श्रेष्ठ ब्राह्मणों को दे दी। नन्दी ने (विवाह में) नट को नृत्य करते हुए देखा। वह बटुक योद्धाओं की उस भीड़ में दुर्बल होकर गिर पड़ा। वह अज्ञानी लज्जा के वशीभूत होकर लोगों के उपहास से घबराकर जंगल में चला गया। त्रस्तमन वह पर्वत की एक बड़ी चोटी पर चढ़ गया, उस पर आता और जाता, परन्तु अपना शरीर नहीं गिराता (पर्वत से नहीं कूदता)। नीचे तलभाग पर अत्यन्त गुणवान् नि म और शंख नाम के मुनि बैठे हुए थे। उन्होंने दूसरे का छायामार्ग देखा और उन्होंने गुरु द्रुमसेन से पूछा-गुरु जी बताइए यह किस मनुष्य के शरीर की छाया पहाड़ से धरती पर आ रही है ? ___घता-तब उनसे आदरणीय गुरु अपना ज्ञान प्रकाशित करते हुए कहते हैं, जो होनहार है वह सच है, वह तुम्हारा पिता होगा। दि। 5. A बलु। (16) I.A विवियइतङ्क, णिवडवडो; "थिइवडे। 2. "गाम। 3.5 सोम्मसम्मु 1 4. B सत्त वि जि धौउ 15.गर्दै भतु । M. Bपरिमणि परसाणें। 9. PS आवेड़। 10. B णु जि तहिं। 11, 8 अक्तह। 12.5 कायदाह' । 7 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82.18.2] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु [ 35 ( 17 ) तइयम्मि जम्मि आलद्धदिहीं। वसुदेउ नाम राप हॉवहाँ।। जो तुम्हह जणणु सीरिहरिहिं भुयबलतोलियपडिबलकरिहिं। तहु तणुछाहुल्लिय ओयरिय ता बे वि तहिं जि रिसि संचरिच । जहिं सो अपाणउ किर घिवइ अणुकंपइ संखु साहु चबइ। उब्वेइउ' दीसहि काई णिरु कि चिंतहिं णिसुणहि किं बहिरु। तं णिसुणियि पणइणिदुक्खियउ । पहिलवइ कुकम्मुवलक्खियउ' । महुं मामहु 'धूय जेत्तियउ लोयहं पविइगण' तेत्तियउ। हउँ दूह' णिद्धणु बलरहिउ कि जीवमि परणिंदइ गहिउ । णिद्दइयु णिरुज्जमु किं करमि इह णिवडिवि वर लणु संघरमि । घत्ता-मुणि पभणइ किं चिंतहि अप्पउं महिहरि घत्तहि । ___भो जिणवरतवु किज्जइ दुरि दिसाबलि दिज्जइ ||17 || ( 18 ) लब्भइ सयलु वि हियइच्छियउं पद तं मुणिवरहिं दुगुछियउं । मग्गिज्जइ णिक्कलु परमसु९ जहिं' कहिं मि ण दीसइ देहदुई । ( 17 ) तीसरे जन्म में, भाग्य को पानेवाला वसुदेव नाम का राजा होगा जो अपनी भुजाओं से शत्रुगजों को तोलनेवाला तुम दोनों बलभद्र और नारायण का पिता होगा 1 जहाँ से उसकी छाया आ रही थी, वे दोनों महामुनि उस स्थान के लिए चल दिये। जहाँ वह अपने को गिराना चाहता था, वहाँ करुणा से द्रवित होकर शंख मुनि बोले- "तुम अत्यन्त उद्विग्न दिखाई क्यों देते हो ? क्या सोच रहे हो, सुनो, क्या बहरे हो !" यह सुनकर प्रणयिनी के दुःख से दुःखी और कुकर्मों से उपलक्षित वह कहता है-"मेरे मामा की जितनी कन्याएँ थीं, उनसे दूसरों ने विवाह कर लिया। मैं निर्धन, बलरहित और असुन्दर हूँ, दूसरों की निन्दा से गृहीत क्या जिऊँ ? बिना देव और उद्यम के क्या करूँगा इसलिए यहाँ से गिरकर, अच्छा है अपने शरीर को नष्ट कर लूँ।" ___यत्ता-मुनि कहते हैं-तुम क्या सोचते रहते हो और स्वयं को पहाड़ से ढकेलते हो ? अरे, जिनवर का तप करना चाहिए जिससे पापों की दिशाबलि दे सको। (18) यद्यपि इससे सब कुछ पाया जा सकता है, परन्तु मुनिवरों द्वारा इसकी भी निन्दा की जाती है। केवल निष्फल परम सुख माँगना चाहिए, जिसमें कहीं भी देह-दुःख दिखाई नहीं देता। यह सुनकर उसने भी काम (17)1. आलद्धि। 2.5 तुमहुं। 9. 5 उपरिय। 4. A उजेय । .A टीसह 5 दीसह। 5. B णिसुणइ। 7. कुकम्मबलविखयउ । 8. B यूबउ। 9. B बडिवपण: Pपडियण्ण। 10. R दीहः । दूहड़। 1. Bणिज्जउ P णिइउ । 12. S संघरमि। 15. B वित्तहिद घेतहि। (18) 1.5 जें। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 ] महाकइपुष्फयतविरयज महापुराणु [82.18.13 तं णिसुणिवि तेण वि तवचरणु किउं कामकसायरायहरणु। उप्पण्णु सुक्कि णिरसियविसउ सोलहसायरबद्धाउसउ। कालें जंतें तेत्थहु पडिउ णररू णं वम्महु घडिउ। णं तरुणिणयणमणरमणहरु णं गहुँ कागदण्डविहारम् । णं कामबाणु णं पेम्मरसु णं पुरिसरूविं थिउ मयणजसु। वसुएवं एहु सूहबु सुहडु सुउ तुह जायउ हयहत्यिहडु' । तो' अधकविढेि वंसधउ णियवइ णिहियउ समुद्दविजउ । सुपइ?' भडारउ गुरु भणिवि मोहंधिवमूलई णिल्लुणिवि। उवसग्ग परीसह बहु सहिवि तवु करिवि घोरु दुरियई महिवि । घत्ता-भरहरायदिहिगारउ अंधकविठ्ठि भडारउ । गउ मोक्खहु मुकिदिउ "पुष्पयंतसुरवंदिउ ॥18॥ इय महापुराणे तिसटिमहापुरिसगुणालंकारे महाकापुप्फपंतविरइए महाभबभरहाणुमपिणए महाकबे बसुएबउप्पत्ती' अधकविधिणिव्याणगमणं णाम "टुयासीमो परिच्छेउ समत्तो ॥820 और कषायों का अपहरण करनेवाला तपश्चरण किया। विषयों का परित्याग करनेवाला वह सोलह सागर की आयु बाँधकर शुक्र स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। समय बीतने पर वहाँ से च्युत होकर मनुष्यरूप में उत्पन्न हुआ। मानो कामदेव ने उसका निर्माण किया हो, मानो तरुणियों के नेत्रों और मन के लिए रमण करने का घर हो, मानो दुर्मद विरहज्वर करनेवाला शनि हो, मानो कामदेव हो, मानो प्रेमरस हो, मानो पुरुष के रूप में कामदेव का यश हो। यह सुभग और सुभट तथा गजघटाओं को आहत करनेवाला तुम्हारा पुत्र हुआ है। तब अन्धकवृष्णि ने अपने कुल के ध्वज समुद्रविजय को अपने पद पर स्थापित कर दिया। आदरणीय । अपना गुरु मानकर, मोहरूपी वृक्ष की जड़ें काटकर बहुत से उपसर्ग और परीषह सहन कर, तपकर, घोर पापों को नष्ट कर; ___घत्ता-भरतक्षेत्र के राजाओं को सन्तोष देनेवाले, आदरणीय नक्षत्रों और देवों द्वारा वन्दनीय मुक्तेन्द्रिय अन्धकवृष्णि मोक्ष चले गये। इस प्रकार सठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभष्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का वसुदेव-उत्पत्ति एवं अन्धकवृष्णि-निर्वाण-गमन नाम का बयासीवा परिच्छेद समाप्त हुआ। पुष्कर्यत: 5 पुष्पयंत । 9. AP 2. A गारिहु । 3. AP कयदुम्महु। 4.A"हत्यिपहु। 5. A ता। 6. ABP पियपई। 7. B सुपडल। 8. P.पुष्पयंतुः समुहविजयादिश्यत्ती। 10. AS दुयासीतिमो; P दुयासीमी। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83.1.12] महाकइपुष्फयतविरयउ महापुराणु [37 तेयासीतिमो संधि सहुँ भायरहिं समिद्ध णायाणाय णिहालइ। पहु समुद्दविजयकु महिमंडलु परिपालइ || धुवकं ॥ एक्कहिं दिणि आरूढउ' करिवरि गावइ ससहरु उइउ* महीहरि। असहसणयणु णाइ कुलिसाउहु अकुसुमसरु णं सई कुसुमाउहु। णं अखारु सलवणु रयणायरु अकवडणिलउ णाई दामोयरु। अमलदेहु णावइ उग्गउ' इणु जगसंखोहकारि णावइ जिणु। 'चामरछत्तचिंधसिरिसोहिउ' विविहाहरणविसेसपसाहिउ । सो वसुएउ" कुमारु पुरंतरि हिंडइ हट्टमग्गि घरि चच्चरि । सो ण पुरिसु में दिट्टि ण ढोइय सा ण दिट्टि जा तहु ण पराइय। मणुल देर सो काम ण भावद संचरंतु तरुणीयणु तावइ । घत्ता-का वि कुमारु णियंति रोमि रोमि पुलइज्जइ। ___ अलहंती तहु चित्तु पुणरवि तिलु तिलु खिज्जइ ॥१॥ 10 तेरासीवीं सन्धि अपने भाइयों से समृद्ध समुद्रविजय न्याय-अन्याय को देखता है और इस प्रकार वह पृथ्वीमण्डल का पालन करता है। एक दिन श्रेष्ठ हाथी पर आसीन वह ऐसा लग रहा था जैसे उदगिरि पर चन्द्रमा हो, जैसे हजार नेत्रों के बिना इन्द्र हो, जो मानो बिना पुष्पबाणों के कामदेव हो, जो मानो क्षाररहित सुन्दर समुद्र हो, जो मानो कपटरूपी घर के बिना दामोदर हो, जो स्वच्छ देहवाला उगा हुआ सूर्य हो, जो मानो विश्व को स्पन्दित करनेवाला जिनवर हो। चामरों, छत्र और चिह्नों की शोभा से शोभित और विशेष आभरणों से प्रसाधित वह वसुदेव कुमार नगर और बाजारभागों, घर और चौराहों में घूमता फिरता है। ऐसा एक भी पुरुष नहीं है जो अपनी दृष्टि का उपहार उसे नहीं देता। ऐसी एक भी दृष्टि नहीं है जो उस तक नहीं पहुँचती। वह मनुष्य-देव किसे अच्छा नहीं लगता जो संचरण करता हुआ युवतीजनों को संतप्त कर देता है। घत्ता-कोई कुमार को देखकर रोम-रोम से पुलकित हो उठती है और उसकी समागम प्राप्ति न हो सकने के कारण वह मन में तिल-तिल दुःखी हो उठती है। (1) 1. 5 आरूट । 2. APS उययमही । 1. A सहसणयगु णावह। 4. Bणामि। 5. R उग्गओ। 5. AP "चिंधु। 7. 5 तिर" | 8. S विविहाहरण । 9.5 वसुदेव । 10. Somits ण! Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38] 183.2.1 महाकइपुष्फयंतविस्यउ महापुराणु (2) पासेइज्जइ का वि णियबिणि थिप्पइ णं अहिणवकालंबिणि । का वि तरुणि हरिसंसुय मेल्लइ काहि वि वम्महु वम्मई सल्लइ । सूहवगुणकुसुमहिं मणु वासिउं काहि वि मुहं णीसासें सोसिउं। णेहवसेण पडि चेलंचलु . काहि वि पायडु धक्कु थणस्थलु । काहि वि केसभारु चुउ' बंधणु काहि वि कड़ियलल्हसिउं 'पयंधणु। खलियक्खरइं का वि दर जंपई पियविओयजरवेएं कंपइ। चिक्कयंति' क' वि चरणहिं गुप्पई कवि पुरंधि णियदइयह कुप्पइ । मयणुम्मा मन्जाय . काहि निहियागिकुसु जायउं । 'लोहलज्जकुल भयरसमुक्कउं वरदेवरससुरयसुहिचुक्कउं"। काहि वि बउ पेम्मेण किलिण्णउं बिउणावेदु णियंबहु दिण्णउं। घत्ता-क वि ईसालुयकंत दप्पणि तरुणु 1पलोइवि ॥ विरहहुयासें दह मुय अप्पाणउं सोइवि ॥2॥ 5 10 तग्गयमण क वि मुहआलोयणि वीसरेवि सिसु सुग्णणिहेलणि। कोई सुन्दरी पसीना-पसीना हो उठती है, मानो अभिनव मेघमाला स्थापित कर दी गई हो। कोई तरुणी हर्ष के आँसू छोड़ने लगती है; किसी के मर्मों को कामदेव पीड़ित करने लगता है, किसी का प्रिय के गुणरूपी कुसुमों से सुवासित मन निश्वासों से सूख गया है। किसी का वस्त्रांचल स्नेह के कारण खिसक गया है और किसी का स्तनस्थल स्पष्ट रूप से प्रकट हो गया है। किसी का केशभार और बन्धन च्युत हो गया। किसी की साड़ी कमर से खिसक गयी थी। कोई लड़खड़ाते अक्षरों में कुछ भी कहती है और प्रिय वियोग के ज्वर में काँपती है। पैरों से चलती हुई कोई घबरा जाती है। कोई स्त्री अपने पति पर क्रुद्ध हो उठती है। किसी का ह्रदय कामदेव से उन्मत्तं और मर्यादा से रहित, एकदम निरंकुश हो गया है एवं लोक-लज्जा और कुल के भयरस से मुक्त, पति देवर ससुर और सुधी जन से चूक गया। किसी का शरीर प्रेम से आर्द्र हो उठा। उसने अपने नितम्बों को दुगुना आवेष्टित कर लिया। पत्ता-कोई अपने ईर्ष्या करनेवाले तरुण पति को दर्पण में देखकर अपने को सुखाकर, विरहञ्चाला में जलकर मर गयी। कोइ स्त्री कुमार में लीन होकर, उसका मुख देखने के लिए सूने घर में बच्चे को भूलकर और कमर (2) I. S णिणि । 2. $ "कालिबेिणि । ५. AP चुय"। 4. " पईघणु, ST पइंधणु। 5. A विक्कमति; P चिकर्माते। 6. P घरणहि क वि। 7. ABP लोथलज्जIR.H"रसभय 19.5 रस्तु। 10. P ससरय।HA सुहितुक्कडं। 12. A बडणायेद । 13. 5 पलोयथि। (3)। उग्गग्रणयण का यि भुयालोयणि । 2. A सुहयालोयणि। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83.3.15] महाकइयुष्फयतविरयउ महापुराणु [ 39 कड़ियलि घरमज्जारु लएप्पिणु धाइव जणवइ हासु जणेप्पिणु। काहि वि कंडतिहि ण उदूहलि णिवडिउ' मुसलघाउ धरणीयलि। काइ वि चट्ट्यहत्थई जोइउ रंककरकई पिंडु ण ढोइउ। चित्तु' लिहंति का वि तं झायइ पत्तछेइ तं चेय णिरूवइ । जा तहिं णच्चइ सा तहिं णच्चइ जा गायइ सा तं सरि सुच्चइ" | जा बोल्लइ सा तहु गुण वण्णइ णियभत्तारु ण काइं वि मण्णइ । विहरतिहिं इच्छिज्जइ मेलणु भुंजंतिहिं पुणु तह कह सालणु । णिसि सोवंतिहिं सिविणइ दीसइ इय वसुएउ' जांब पुरि विलसइ। णरणाहहु कयसाहुद्धारें ता पय गय सयल वि कूवारें। देव देव भणु किं किर किज्जइ विणु घरिणिहिं धरु केंव धरिज्जइ । मयणुम्मत्तउ पुरणारीयणु वसुएबहु' उप्परि ढोइयमणु। णिसुणि भडारा दुक्करु जीवई जाउ जाउ पय कहिं मि पयावइ । घत्ता-ता पउरहं राएण पउरु पसाउ करेप्पिणु। पत्थिउ रायकुमारु णेहें हक्कारेप्पिणु ॥३॥ 10 पर घर के मार्जार को लेकर लोगों में हँसी उत्पन्न करती हुई दौड़ी। धान्य कूटती हुई किसी का मूसल ऊखल के बजाय धरती पर गिर पड़ा। किसी ने करछुली हाथ में लिये हुए, उसे (कुमार को) देखा। उसने दरिद्र भिखारी के पात्र (खप्पर) में भोजन नहीं दिया। कोई चित्र लिखती हुई उसी का ध्यान करती है और पत्रच्छेद में उसी का निरूपण करती है। जो उस नगर में नृत्य करती है, वह उसी के सामने नृत्य करती है। जो गाती है, वह (अपने) स्वर में उसी की सूचना देती है। जो बोलती है, वह उसी के गुण का वर्णन करती है और अपने पति को कुछ भी नहीं मानती। विहार करती हुई उनके द्वारा वही (कुमार) चाहा जाता है, और भोजन करते हुईं उनके लिए उसकी कथा ही व्यंजन है। रात्रि में सोती हुई उनके द्वारा वह स्वप्न में देखा जाता है। इस प्रकार जब कुमार वसुदेव नगर में विलसित हो रहा था, तब समस्त प्रजाजन हाथों में वृक्ष की शाखाएँ उठाकर करुण विलाप के साथ राजा के पास गये और बोले-'हे देव ! देव !! बताइए, क्या किया जाए. बिना गहिणियों के घरों को कैसे रखा जाए ? पुरनारीजन काम से उन्मद होकर वसुदेव के लिए अपना मन अर्पित कर चुका है। हे आदरणीय ! सुनिए, अब जीना मुश्किल है। हे प्रजापति ! अब प्रजा जाए तो कहाँ जाए? धत्ता-तब राजा ने परिजनों पर प्रचुर प्रसाद करते हुए राजकुमार को बुलाकर प्रार्थना की। 3. B5 कतहि। 4. B विडिय। 5. B बटुल। 6.8 रंकहं करए।7. P चिन्हु । 8. A णिरूया। 9. P जहिं तहिं1 10. A गाया। 11.5 यसुएछु । 12. BP यसुदेयहु । 13. Sकयकारेप्पिणु। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 1 महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु (4) दिणयरु दहs - धूलि तणु भइलइ किं अप्पाणडं अप्पुणु दंडहि करि वकील विउलणंदणवणि' मणिगणबद्धणिद्धधरणीयलि सलिलकील करि कुवलयवाविहि जुबराएं पडिवण्णु णिरुत्तउं पुणु णिउणमइसहाएं" वुत्तजं पुरयणणारीयणु" तुह रत्तउ णायरलोएं तुहुं बंधाविउ तासु धयगु तं तेण पारेक्खि घत्ता - ता पडिहारणरेहिं एहउं तासु समीरिडं । घर दुट्ठदिट्टि ललियंगई जालइ । बंधव तुहुं किं बाहिरि हिंडहि । झिंदुकील करहि घरप्रंगणि । रमणीकील' करहि सत्तमयति । तं णिसुणेवि वयणु कुलसामिहि । गयकइवयदियहिं अजुत्तरं । पहुणा णियलणु " तुज्झु णिउत्तउं । जोइवि" विहलंघलु" णिवडंत । रवइवय" णिरोहणु पाविउ । विमदिरणाम जोक्खिजं । हिण तुम्हहं राएं वारि ं ॥ 4 ॥ (5) तओ सो सुहद्दासुओ बूढमाणो ' घराओ पुराओ गओ कालिकाले ण केणावि दिट्ठो विणिग्गच्छमाणो । अचक्खुप्पएसे तमालालिणीले । [ 83.4.1 5 10 (4) तुम्हें सूर्य जलाता है, धूल से शरीर मैला होता है, खराब दृष्टियाँ सुन्दर अंगों को जलाती हैं, तुम अपने को अपने से क्यों दण्डित करते हो ? तुम विशाल नन्दनवन में वनक्रीडा क्यों करते हो ? अपने घर के आँगन में गेंद खेला करो, मणिसमूह से रचित चिकनी धरतीवाले सातवें तलघर पर स्त्री-क्रीडा किया करो, कुवलय वापिकाओं में जलक्रीडा करो। वह सुनकर कुमार ने कुलस्वामी के वचन को निश्चित रूप से मान लिया। कुछ दिन बीतने पर निपुणमति नामक सहायक मन्त्री ने यह अयुक्त बात कही- "राजा ने तुम्हें बन्धन में डाल दिया । पुरजनों का नारीजन तुममें अनुरक्त है, तुम्हें देखकर विकल होकर गिर पड़ता । इसलिए नगर के लोगों ने तुम्हें बँधवाया है। राजा के रोकनेवाले वचन तुम्हें मिले।" निपुणमति के इन वचनों की कुमार ने परीक्षा की और उसने राजमन्दिर ( राजभवन ) से निकलकर देखा । धत्ता - तब द्वारपालों ने उससे इस प्रकार कहा कि हितकारी राजा ने तुम्हारा घर (भवन) से निकलना मना कर दिया है। । (5) इस पर, उस सुभद्रा पुत्र वसुदेव को अहंकार उत्पन्न हो गया। और घर से बाहर जाते हुए उसे किसी ने भी नहीं देखा। रात्रि के समय, जबकि तमाल और भ्रमरों के समान नीले प्रदेश में कुछ भी दिखाई नहीं ( 4 ) 1. APS हरूह 2 APS अप्पणु 1 9. AP किं तुहुं। 4. 5 चिउले। 5. B करिहि । 6. ABP पंगणे 7.5 रमणीयकील 8. 5om. दिय। HP विगुणमड 10. X णियलु । 11. AP पुरवरणारी 12. 5 जोयवि। 13. S विडलंघलणु वडलउ 11. B वयण। 15. AP णिरिक्खि । (5) 1. B दुहु: S बोद 2. BS विभिगच्छ । 3. 5 अचक्खुपएसे। द C Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83:6.3] महाकइपुष्फपतविरयड महापुराणु [41 वसावीसढं देहिदेहावसाणं पविट्ठो असाणं ससाणं' मसाणं । कुमारेण तं तेण दिटुं रउदं ललंततमालं' सिवामुक्कसह । महासूलभिण्णंगकदंतचोरं वियंभंतमज्जारघोसेण घोरं। विहंडतवीरेसहुंकारफार पलिप्पंतसत्तच्चिधूमधयारं। 'णहुड्डीणभूलीणकीलाउलूयं समुटुंतणग्गुग्गवेयालरूयं । 1"नृकंकालवीणासमालत्तगयं" दिसाडाइणीदुग्गखज्जतपेयं । "कुलुब्भूयसिद्धतमग्गावयारं दिजीडोंबिचंडालिपेयाहियारं । घणं णिग्धिणं भासियद्दइयवायं सया जोइणीचक्ककीलाणुरायं। धत्ता-अकुलकुलह संजोए कुलसरीरु' उवलक्खियउँ” । इय जहिं सीसहं तच्चु कउलायरिएं। 20अक्खियां ॥5॥ (6) जोइउ तहिं बम्महसोहालें डझंतर मडउल्लङ बालें। तहु उप्परि आहरणई वित्त . रयणकिणनिरिगतितिलाई . लिहिवि मरणवत्ताइ विसुद्धउँ हरिगलकंदलि' पत्तु णिबद्ध। देता था, वह घर के बाहर चला गया और वसा से बीभत्स, शरीरधारियों के शरीरों का अन्त करनेवाले, शब्दशून्य और कुत्तों से भरे हुए मरघट में पहुँचा। उस कुमार ने मरघट देखा, जिसमें आँतों की मालाएँ रही थीं, सियारनों के शब्द गूंज रहे थे, महाशूलों से विदीर्ण-शरीर चोर चिल्ला रहे थे, फैलते हुए बिलावों से जो भयंकर था। न । नष्ट होते हुए वीरेश मन्त्रसाधकों से जो भयानक था, प्रज्वलित अग्नियों के धुएँ से जो अन्धकारमय था, जिसमें आकाश में उड़ते हुए और धरती में लीन उल्लू दिखाई दे रहे थे, जिसमें नग्न और उग्र वैताल रूप दिखाई दे रहे थे, मनुष्यों की हड्डियों की वीणाओं से गीत प्रारम्भ किये जा रहे थे, जहाँ दिशारूपी डाइनों के दुर्गों में प्रेत खाये जा रहे थे, जिसमें कौलिक के द्वारा कथित सिद्धान्त मार्ग की अवतारणा हो रही थी. जिस मागी में ब्राणियों. डोबनियों और चण्डालिनियों को मद्य का अधिकार है तथा सघन और निर्दय द्वैतवाद का जिसमें कथन किया जा रहा था। घत्ता-अकुल (अप, तेज और वायु के संयोग से उत्पन्न चैतन्य शरीर) और कुल (पृथ्वी आदि द्रव्य) के संयोग से शरीर विश्लेषित किया जाता है। इस प्रकार जहाँ कौलाचार्यों के द्वारा शिष्यों के लिए तत्त्वों का व्याख्यान किया जा रहा है। झलर वहाँ कामदेव की तरह सुकुमार उस बालक (कुमार) ने एक शव को जलते हुए देखा। उसके ऊपर उसने रत्नकिरणों से चमकते और विचित्र आभूषण रख दिये और अपनी मरणवार्ता लिखकर, विशुद्ध पत्र घोड़े के 1. sonits ससाणं। 5. B पाला । 6. विहिंडत"17. A "वीणचूलीण। 8. Bउलूब 5 "उलीयं। 9. A "रूवं। 10. ABP णिकंकाल । 11. Bगी। 12. B कुलुज्यूय: Als. कुलुज्याय" on the strength of gloss in B: कुलाचार्यप्रणीतसिद्धान्तमार्गावतारम्। 13. A दिजिप्पाविचंडालपीयाहियारं। 14. A भासियं दइययायं। 15. A अकुलु । 16. P कुलु । 17. APS लक्खिउं। BAP सीसहि। 9. P कपलाइरिय: । काउलाझरेयहिं । 20.A रक्खिड; PS अक्खिन । (6). Bघेत्तई। 2. PS "विप्फुरण"। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकइपुष्फयतविरयल महापुराणु [83.6.4 5 सुललिउ सूहउ सयणादिरू' गउ अप्पणु सो' कत्यइ सुंदरु। उग्गउ सूरु कुमारु ण दीसइ हा कहिं गउ कहिं गउ पहु भासइ। कणयकोंतपट्टिसकंपणकर राएं दसदिसु पेसिय किंकर। पुरि घरि धरि अवलोइउ उववणि अवरहिं दिलउ हयवरु पिउवणि। पल्लाणिवउ पट्टचमरंकिउ तं अवलोइवि मडयणु सकिउ । लेहु लएप्पिणु णाहहु घल्लिउ तेण वि सो झड त्ति उव्वेल्निउ । रायह बाहाउण्णई णयणई दिवई एयइं लिहियई वयणई। गंदउ पय चिरु विपियगारो णंदउ सुहु' सिवएवि भडारी। णंदउ परियणु णंदउ परवइ गउ वसुएवसामि सुरवरगइ । घत्ता-ता पिउवणि जाइवि सयणहिं जियविच्छोइङ' । __दड्ढु' सभूसणु पेउ हाहाकारिवि जोइउ" ॥6॥ 10 ते' णव बंधव सहुं परिवारें सा सिवएवि रुयई परमेसरि हा कि जीविउं तिणु परिगणियउं सोउ करति दुक्खवित्थारें। हा देवर परभडगयकेसरि । कोमलवउ हुयवहि कि हुणियउं। गले में बाँध दिया। और सुललित, सुभग, स्वजनों को आनन्दित करनेवाला वह सुन्दर स्वयं कहीं चला गया। सबेरा हुआ, परन्तु कुमार दिखाई नहीं दिया। राजा कहता है- “वह कहाँ गया, कहाँ गया वह ?" राजा ने स्वर्णभाले, पटा (तलवार के आकार का शस्त्र) और कटारी हाथ में लिये हुए अनुचर दसों दिशाओं में भेजे। उन्होंने नगर में घर-घर में और उद्यान में खोजा। दूसरों ने मरघट में अश्ववर को देखा-काठी से सजा हुआ और पट्टचमर से अंकित। उसे देखकर योद्धागण आशंकित हो उठे। लेख लेकर उन्होंने राजा को दिया। उस पत्र से राजा भी शीघ्र उद्धेलित हो उठा। राजा की आँखें आँसुओं से गीली हो गयीं। उसने लिखे हुए ये वचन पढ़े-"मेरा बुरा चाहनेवाली. प्रजा चिरकाल तक आनन्द से रहे, आदरणीय शिवादेवी सुख से रहें, परिजन प्रसन्न रहें, राजा प्रसन्न रहें, स्वामी वसुदेव देवलोक के लिए चला गया है।" ___घत्ता-तब मरघट में जाकर, स्वजनों ने जीवरहित अलंकारों से रहित जला हुआ प्रेत हाहाकार करते हुए देखा। अपने परिवार के साथ वे नौ भाई दुःख के बढ़ने से शोक करते हैं। वह परमेश्वरी शिवादेवी रोती है-शत्रुभट रूपी गज के लिए सिंह के समान हे देवर ! तुमने अपने जीवन को तृण के समान क्यों समझा ? हाय ! सुरवइगई। 10. P पिउवणु।।1. 3. B"कटल। 4. AB णयणादिरू। 5. AP कत्वइ सो। 6. Pवणे यणे। 7.APS एपई दिई। 8.5 सहुं। 9. s यिन्छोइयज । 1. दिट्ट दछ। 15. B जायउ; 5 जोइयउ। (7) I. Aरोण वि बंधन। 2. B रुबइ। 3. AS Tणु। 4. PS कोमलंगु। 5. हुदवहे । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83.8.2] [43 महाकइपुष्फयंतबिरयउ महापुराणु हा पयाइ कि किउं पेसुण्णउं ___ हा किं पुरि परिभमहुं ण दिण्णउं । हा कुलधवलु केव" विद्धंसिउ हा' जयसिरिविलासु किं णिरसिउ। हा पई विणु सोहइ ण घरंगणु चंदाविवज्जि पं गयणंगणु। हा पई विणु दुक्खें पुरुष रुण्णउं हा पई विणु माणिणिमणु सुण्णउं। हा पई विणु को हारु थरि को कीलह सरहंसुः व सरवरि । पई विणु को जणदिविउ पीणइ कंदुयकील देव को जाणइ। हा पई विणु को एवहिं सूहउ पई "आपेक्खिवि मयणु वि दूहउ। हा पई विणु मियगोत्तससंकहु को भुयबलु समुद्दविजयंकहु । हा पई विणु 'सुण्णउं हियउल्लउं को रक्खइ मेरउं कडउल्लउं । छाररासि हूयउ पविलोयउ एंव बंधुवग्गे सो सोइउ । पंजलीहि मीणावलिमाणिउं *हाइवि सबहिं दिण्णउं पाणि। घत्ता-वरिससएण कुमार मिलइ तुज्झु गुणसोहिउ। ___णेमित्तियहिं परिंदु एंव भणिवि संबोहिउ ॥7॥ 10 एत्तहि सुंदरु विहरंतउ दिट्ठउं गंदणु' वणु तहि केहउं विजयणयउ सहसा संपत्तउ। महुँ भावई रामायणु जेहउँ । प्रजा ने इतनी दुष्टता क्यों की ? हाय ! उसे नगरी में क्यों नहीं घूमने दिया ? हे कुलश्रेष्ठ तुम कैसे नष्ट हो गये ? हाय ! जयश्री के विलास को क्यों निरस्त किया गया ? हाय, तुम्हारे बिना धर का आँगन शोभित नहीं होता, जैसे चन्द्रमा से शून्य आकाश। हाय, तुम्हारे बिना नगर दुःख से परिपूर्ण है। हाय, तुम्हारे बिना, माननियों का मन शून्य है। हाय, तुम्हारे बिना स्तनों के बीच कौन-सा हार है ? तुम्हारे बिना कौन सरहस के समान सरोवर में क्रीडा करेगा ? तुम्हारे बिना कौन जनदृष्टि को प्रसन्न करेगा ? हे देव, कन्दुक-क्रीडा कौन जानता है ? हाय, तुम्हारे बिना इस समय कौन सुभग है ? तुम्हारी तुलना में कामदेव भी असुन्दर है। हाय, तुम्हारे बिना अपने गोत्र के चन्द्र समुद्रविजय का बाहुबल क्या है ? तुम्हारे बिना हृदय शून्य है। अब कौन मेरे कटिसूत्र को बचाएगा। सबने उसे धूलि का ढेर हुआ देखा, और इस प्रकार बन्धुवर्ग ने उसके लिए शोक किया। सबने स्नान कर अपनी अंजलियों से मीनावलि के द्वारा मान्य पानी उसे दिया। पत्ता-तब नैमित्तिकों ने राजा को यह कहकर सम्बोधित किया कि गुणों से शोभित तुम्हारा कुमार सौ वर्ष में मिल जाएगा। (8) इधर, वह सुन्दर कुमार धरती पर विचरण करता हुआ शीघ्र विजयनगर पहुँचा। उसने वहाँ नन्दन वन 6. B कंम; P केण। 7.P हा हा सिरि । 8. B परु। 9.A कलहंसु। 10. 5 आपेक्खिबि। 11. P हियउन्लाई सुस्लर हियउल्लउ भुल्लई। 12. A सो सोयर, 5 संसोइ31 13. $ व्हायवि। (8) 1. ARS गंदण। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 441 महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [83.8.3 5 जहिं चरंति भीयर रयणीयर चउदिसु उच्छति लक्खणसर। सीयविरहि संकमइ णहतरु घोलिरपुच्छु' सरामउ वाणरु। णीलकंठु णच्चइ रोमंचिउ अज्जुणु जहिं दोणे संसिंचिउ। णउले सो ज्जि णिरारिखं सेविउ भायरु किं णउ कासु वि भायउ। इय सोहइ उववणु णं भारहु वेल्लीसंछण्ण' रविभार । जहिं पाणिउं णीयत्तणि णिवडइ जडहु अणंगई को किर पयडइ। तहिं असोयताले ता' आसीणउ सूहउ दीहरपथ रोणउ। णं वणु" लयदलहत्यहिं विज्जइ पयलियम बैंभहिं णं रंजइ। चलजलसीयरेहिं णं सिंचइ णिवडिकुसुमोहें गं अंचइ। साहाबाहहिं णं आलिंगइ परिमलेण णं हियवइ लग्गइ। पहिवपुण्णसामत्थे णव णव "सुक्कसुरुक्खहिं णिग्गय पल्लव । पणविवि पालियपउरपियालें रायह वज्जरियउं वणवालें। घत्ता-जो जोइसियहिं वुत्तु जरतरुवरकयछायउ। सो पुत्तिहि वरइत्तु णं अणंगु सई आयउ ॥8॥ 10 किस प्रकार देखा ? जिस प्रकार रामायण मुझे अच्छी लगती है। जहाँ भयंकर रजनीचर (उल्लू और राक्षस) विचरण करते हैं, चारों दिशाओं में लक्खणसर (सारस और लक्ष्मण के तीर) उछलते हैं। जहाँ वानर (बन्दर और सुग्रीव आदि) सीयविरह (शीत के अभाव, सीता के विरह में) में आकाश में उछलते हैं और अपनी पूँछ हिलाते हुए; सरामउ (वानरी और राम सहित) हैं। जिसमें नीलकण्ठ (शिखण्डी और द्रौपदी का भाई) नृत्य करता है। अर्जुन (इस नाम का वृक्ष और अर्जुन), द्रोण (घट और द्रोणाचार्य) से सींचा गया (जल से सींचा गया, तीरों से सींचा गया), जो नकुल (वृक्षविशेष, पाण्डवों का भाई) से अत्यन्त सेवित है। अपना भाई किसे अच्छा नहीं लगता ? वह उपवन इस प्रकार शोभित है मानो भारत हो (महाभारत हो), जहाँ रयि का प्रकाश लताओं से आच्छादित है, जहाँ पानी नीचे की ओर प्रवाहित है। जड (मूर्ख और जल) के लिए कौन (स्त्री) अपने अंग प्रकट करती है ? वहाँ वह अत्यन्त सुन्दर, लम्बे रास्ते से थका हुआ अशोक वृक्ष के नीचे बैठ गया। मानो वह उपवन अपने लतादल के हाथों से पंखा करता है, झरते हुए मकरन्द बिन्दुओं से रंजित करता है, चंचल जलकणों से सिंचित करता है, शाखा रूपी बाहों से मानो आलिंगन करता है। परिमल के द्वारा भानो हृदय से लगता है। उस पधिक के पुण्य सामर्थ्य से, सूखे हुए सुन्दर वृक्षों से नये-नये पत्ते निकल आये। चिरोंजी के प्रचुर वृक्षों का पालन करनेवाले वनपाल ने राजा से प्रणाम करते हुए कहा___घत्ता-जैसा कि ज्योतिषियों ने कहा था, जीर्ण वृक्षों में हरी-भरी छाया करनेवाला स्वयं कामदेव पुत्री के लिए घर बनकर आया है। Y. A "पुंछु। 3. A दोणि 14. F जु। 5. APण वि। 6. APS भाविउ । 7. 11. BK "मुहषैभहिं bul gloss in K मकरन्दश्चोतैः। 12. AP सुक्खहं रुक्ख: विल्लिहि। 8. P अण्णगई। 9. सोयासीणउ। 10.A वणलय। सुक्खसुरुक्खाएं। 13. B सयई। 14. B तरुवरु। 15. B आइट। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83.9.13| पहाकइपुष्फयंतचिरयउ मह पुराणु [45 (9) वि आयउ सई राणउ पुरि पइसारिउ रायजुवाणउ । हरियवंसवण्णेय रवण्णी सामाएवि तासु तें दिण्णी। कामुउ कतहि अंगि विलग्गउ थिउ कइवयदियहई पुणु णिग्गउ । सिरिवसुएवसामि संतुट्ठउ देवदारुवणु' णवर पइठ्ठउ। सहि .नंगचंदाणसुरहियालु' दिसिगातकोइलकुलकलयलु'। जहिं बहुदुमदलवारियरवियर रुहुचुर्हति णाणाविह णहयर। णवमावंदगोंदि गंजोल्लिय जहिं कइ कइकरेहिं उप्पेल्लिय। जहिं हरिकररुहदारियमयगल रुहिरवारिवाहाउलजलथल। दसदिसिवहणिहित्तमुत्ताहल गिरिकंदरि वसंति जहिं णाहल। ओसहिदीव तेयदावियपह जहिं तमालतमअविलक्खिय" रह। जहिं सबरहि संचिज्जइ" तरुहलु हरिणिहिँ चिज्जइ कोमलकंदलु । घत्ता-तहिं कमलायस दिटु णवकमलहि संछण्णउ | धरणिविलासिणियाइ जिणहु अग्घु णं दिण्णउ ॥9॥ 10 यह सुनकर राजा स्वयं आया और उसने उस राजयुवा को नगर में प्रवेश कराया और हरे बाँस के वर्ण की तरह सुन्दर श्यामा देवी उसने उसे दे दी। कान्ता से मिलाप कर वह कुछ दिन वहाँ रहा और फिर बाहर निकल गया। श्री वसुदेव स्वामी सन्तुष्ट होकर देवदारु के वन में प्रविष्ट हुए-जहाँ लौंग और चन्दन से सुरभित जल था, दिशाओं में कोयलों की कलकल ध्वनि हो रही थी, जहाँ रविकिरणों को आच्ादित करनेवाले द्रुमदल थे और नाना प्रकार के पक्षी शब्द कर रहे थे, जहाँ नव आम्रवृक्षों के समूह पर आनन्द को प्राप्त वानर दूसरे वानरों द्वारा ठेले जा रहे थे, जहाँ सिंहों के नखों से मदगल हाधी विदारित थे और स्थल तथा जल रुधिर रूपी जल से व्याप्त था, दसों दिशाओं में मोती बिखरे हुए थे, जहाँ गुफाओं में भील रहते थे, जहाँ औषधिरूपी दीपों के तेज से पथ आलोकित थे, जहाँ गलियाँ तमाल वृक्षों के अन्धकार से दिखाई नहीं देती थीं, जहाँ भीलनियाँ वृक्षों के फल इकट्ठा कर रही थीं और हरिणियों के द्वारा कोमल अंकुर खाये जा रहे थे। पत्ता-वहाँ उसने कमलों से ढका हुआ एक सरोवर देखा, मानो धरती रूपी विलासिनी ने जिनेन्द्र भगवान के लिए अर्घ्य दिया हो। (9) 1. "दियहेहि दियहिं। 2. A "वणिः P"वणे । ५. 5 "जल । 4. "कलयत। 5. A सहचुअंति; B रुहबुहति। 6. A "गुंद" B गोदि: Als. 'गोंदे। 7. दिब्ब°18. B"तमवियलक्खिय। ५. A सरिहि। 10. BK संचिम्लय। 11. B एण्णउ । 12. A "विलासिणिए। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 ] [83.10.1 महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु (10) सीयलसगाहगयथाहसलिलालि कंजरसलालसचलालिकुलकालि। मत्तजलहत्यिकरभीयझसमालि भ्वारिपेरंतसोहंतणवणालि। मंदमयरंदलवपिंजरियवरकूलि तीरवणमहिसढुक्कंतसदूलि। एंकपल्हायलोसंतचरको. कोरकारंडकलरावहलबोलि। कंकचलचंचुपरिउबियबिसंसि लच्छिणेउरखुडवियकलहसि। अक्करहदसणपओसियरहगि वायहयवेविरपघोलियतरंगि। ण्हतवियरंतविहसंतसुरसत्यि एंतजलमाणुसविसेसहयहत्थि' । यत्ता-करि "सरवरि कीलंतु तेण णिहालिउ मत्तउ। णावइ मेरुगिरिदु खीरसमुद्दि णिहित्तउ ॥10॥ (u) अंजणणीलु णाई' अहिणवघणु करतुसारसीयरतिम्मियवणु। दसणपहरणिद्दलियसिलायलु पायणिवाओणवियइलायलु। (10) (उसने सरोवर देखा) जो शीतल, जलचरों और अथाह जल और भ्रमरों से सहित था, जो कमलों के रस की लालसा से चंचल भ्रमर-समूह से काला हो रहा था, जिसमें मतवाले गजों की सैंडों से मत्स्वकुल भयभीत था, जिसमें जलपर्यन्त नवमृणाल शोभित थे, जिसके किनारे नव मकरन्द कणों से पीले हो रहे थे, जिसके किनारों के वनों में सिंह मैंसों पर झपट रहे हैं, जहाँ कीचड़ में पड़े हुए सुअर लोटपोट रहे थे, जहाँ तोतों तथा हंसों के कलरव का कोलाहल हो रहा था, जहाँ हंसों की चंचल चोंचों से कमलिनी-खण्ड चूमे जा रहे थे, जहाँ लक्ष्मी के नूपुरों की आवाज से सुन्दर हंस उड़ रहे थे, जहाँ सूर्य का रथ देख लेने पर चकवा पक्षी सन्तुष्ट हो रहे थे, पवन से आहत काँपती हुई लहरें जिसमें आन्दोलित हो रही थीं, जिसमें देवसमूह नहाता, विचरता और हँसता हुआ था, जिसमें आते हुए जलमानुष, विशेष हय और गज दिखाई दे रहे थे, ऐसे___ धत्ता-उस सरोवर में उसने खेलते हुए हार्थी को देखा, मानो क्षीरसमुद्र में सुमेरुपर्वत को फेंक दिया गया हो। जो अंजन के समान नीला और अभिनव मेघ के समान था, सैंड के जलकणों से उसने वनभूमि आर्द्र कर दी थी, दाँतों के आघात से शिलातल को चूर-चूर कर दिया था, पैरों के निपात से जिसने भूमि को ष्ट्रीण। B. S"पओसविय। 7. (10) 1. AP कंहस्पलालसा | 2. AP add यर before वारि। 3. Ds omit लव। 4. AP वणकोले। 5. A ABPS पोलिर"| S. A गिण्हत 19. A "वेसे हयहत्थे। 10. सरि। (11) 1. H णामि। 2. A "णिवाएं णमिय: । पणियायए णयिय" -णियारणविय"। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83.11.153 [ 47 महाकइपुष्फयंतबिरयज पहापुराणु कण्णाणिलचालियधरणीरुहु' गजणरवपूरियदसदिसिमुहु। मयजलमिलियघुलियमहुलिहचलु उग्गसरीरगंधगयगयउलु। गुरुकुंभयलपिहियपिहुणहयलु णियबलतुलियदिसामयगलबलु। तं अवलोइवि वीरु ण संकिउ "बहिबहिसदें कुंजरु कोक्किउ। जा पाहाणु ण पावइ मुक्कउ ता करिणा सो गहिउ गुरुक्कउ। करकलियउ' वियलियगवदेहहु उवरि भमइ तडिदंडु व मेहहु । वंसारुहणउं करइ सुपुत्तु व खणि करणहिं संमोहइ धुत्तु व। खणि ससि जेंव हत्थु आसंघइ खणि विउल्लई कुंभयलई लंघइ। खणि चउचरणंतरिहिं विणिग्गइ खणि हक्कारइ वारइ वग्गइ। दंतणिसिक्किय मुहं ण वियाणई कालें अप्पाणउं संदाणइ । जित्तउ वारणु जुवयरिदै णं मयरद्धउ परमजिणिदें। घत्ता-गववरखंधारूदु दिवउ खेयरपुरिसें। ___ अंधकविद्विहि पुत्तु उच्चाएवि' सहरिसें ॥1॥ __10 15 झुका दिया था, कानों की हवा से जिसने धरती के वृक्षों को हिला दिया था, गर्जना के शब्दों से दसों दिशाओं को आपूरित कर दिया था, जो मदजल से मिश्रित भ्रमण करते हुए भ्रमरों से चंचल था, जिसके शरीर की उग्रगन्ध से गजकुल भाग गया था, जिसने विशाल गण्डस्थल से विशाल आकाश को आच्छादित कर लिया था, अपनी शक्ति से जिसने दिग्गजों के बल को तोल लिया है, ऐसे उस महागज को देखकर वह वीर बिल्कुल भी शंकित नहीं हुआ। 'बहि बहि' शब्द कहकर उस हाथी को बुलाया। जब तक वह मुक्त पाषाण नहीं छोड़ पाता, तब तक उस हाथी ने उन्हें पकड़ लिया। रॉड से गृहीत विगलित गजदेह पर वह ऐसे मालूम हो रहे थे, जैसे मेघों के ऊपर विद्युत्दण्ड घूम रहा हो। वह (वसुदेव) सुपुत्र की तरह वंशारोहण (पीठ के बाँस पर आरोहण, वंश की उन्नति) करता है, एक क्षण में आवर्तन-विवर्तन-प्रवेशन आदि करणों से धूर्त के समान सम्मोहित करता है। एक क्षण में चन्द्रमा के समान हस्त (हस्त नक्षत्र, सूंड का अग्रभाग) पर आश्रित होता है, क्षण में विशाल कुम्भतल का उल्लंघन करता है, एक क्षण में चारों पैरों के नीचे से निकल जाता है, एक क्षण में हुंकारता है, आक्रमण करता है और क्रुद्ध होता है। यह दाँतों में से निकलकर मुख को नहीं जान पाता। दूसरे क्षण में वह (हाथी) अपने को बन्धन में डाल लेता है। उस युवा नरेन्द्र ने गज को जीत लिया, मानो कामदेव को जिनेन्द्र ने जीत लिया हो। ___ घत्ता-एक विद्याधर पुरुष ने उसे हाथी की पीठ पर बैठा हुआ देखा। वह अन्धकवृष्णि के पुत्र को हर्षपूर्वक ले उड़ा। 3. B "कह। 4. AP "दिसिबहु। 5. P गलबसु। 6.5 बहे रहे। 7.A करकलिउ8 करकलिक।.Sणरेंदें। A. Hउच्चाइवि। 10. A सह हरिसें। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 ] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु [83.12.1 (12) णहवललग्गरयणमयगोउरु णिउ वेयडूहु 'बारावइपुरु। कुलबलवंतहु "दइवसहायहु दरिसिउ असणिवेयखगराय। एंव ससामिसालु विष्णवियर विंझगइंदु एण विद्दवियउ। इहु सो चिरु जो णाणिहिं जाणिउ इहु तुह दुहियावरु मई आणिउ । तं णिसुणेवि असणिवेयं अवलोइयसुहिवयणससकें। पवणवेयदेवीतणुसंभव सामरि णामें सुय वीणारव। दिपणी तासु सुहद्दातणयहु पोहहु" पउणियपणयपसायहु। गवबहुदियहहिं पेम्मपसत्तउँ सो सूहउ जामच्छइ सुत्तउ । तावंगारयखयरें जोइउ सुहि' सुत्तु जि भुयपंजरि ढोइउ । भूमियरहु पन्भट्ठविवेयह मामें णियसुय दिण्णी एयहु । एम भणंतें णिउ णियइच्छइ सामरि सुंदरि धाइय पच्छइ। पत्ता--असिवसुणंदयहत्व" णियणाहहु कुढि लग्गी। पडिवक्खहु अभिट्ट समरसएहिं अभग्गी ॥12॥ 10 (12) वह उसे काशल सर्श कर रनमा गोधुरोंवाले, विजयाध की द्वारावती नगरी में ले गया। उसने कुल-बल में बलवान् दैव है सहायक जिसका, ऐसे अशनिवेग विद्याधर को उसे दिखाया और निवेदन किया, "ये मेरे स्वामिश्रेष्ठ हैं। इन्होंने विन्ध्याचल को विदीर्ण कर दिया है। यह वही प्राचीन पुरुष हैं जो ज्ञानियों द्वारा जाना गया है और जिसे मैं तुम्हारी कन्या का वर बनाने के लिए लाया हूँ।" यह सुनकर सुधीजन का मुखचन्द देखते हुए अशनिवेग विद्याधर राजा ने पवनवेगा देवी के शरीर से उत्पन्न वीणा के समान स्वरवाली उस युवती शाल्मली कन्या को, जो दिन दूनी रात चौगुनी प्रणय का प्रसाद प्रकाशित करनेवाली थी, सुभद्रापुत्र को दे दी। बहुत दिन बीतने के बाद, प्रेम में आसक्त जब वह सुन्दर सोया हुआ था तो अंगारक विद्याधर ने उसे देखा। सोते हुए उस सुधीजन को वह अपने बाहुफ्जर में ढोकर 'विवेकभ्रष्ट इस भूमिचर को ससुर ने अपनी कन्या दी है', यह विचार करते हुए वह अपनी इच्छा से उसे ले गया। शाल्मली सुन्दरी उसके पीछे दौड़ी। धत्ता-वसुनन्दक तलवार को अपने हाथ में लेकर वह अपने स्वामी के पीछे लग गयी। सैकड़ों युद्धों में अभग्न वह शत्रुपक्ष से भिड़ गयी। (12) 1. AP दारावह। 2. D दइय"। 3. AP खयरायहो। 4. P एहु जि मिरु 'जो एहु सो चिरु। 5. Bएहउ दुहिया । 6. AP पणइणिमणहरपणियांगयहो; B पोहह पऽणियपणइपसायडु: 5 पोडहु परणियपणइणिपणयहो; As. पोटहु पणियपणयपसाय against his Mt. on the strength of gloss प्रजनित । 7.5'पमत्तः । *. A तामंगारया; ता अंगारय। 9. ABPS सह। 10. P"कृत्यु। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83.13.13] महाकइपुष्फयंतविरवर महापुराणु [49 (13) असिजलसलिलझलक्कयसित्तें अंगारएण सुकसणियगत्ते । सोहदेउ झड त्ति विमुक्कउ पहरणकरु' सई संजुइ ढुक्कउ । परिणिः पड़ णिवतु णियच्छिउ पण्णलहुयविज्जाइ 'पडिच्छिउ। तहि पहरतिहि वहरि पलाणउ सुंदर गयणहु मयणसमाणछ । तरुकुसुमोहदिसोहपसाहिरि णिवडिउ चंपापुरवरबाहिरि। कीलमाण वणि मणिकंकणकर पुच्छिय तेण तेत्थु णावरणर। ते भणंति मुद्धत्तें णडियउ किं गवणंगणाउ तुहं पडियउ। वासुपुज्जजिणजम्मणरिद्धी' ण मुणहि चंपापुरि सुपसिद्धी। तं णिसुणिवि तें णयार' पलोइय" सहमंडवबहुविउसविराइय"। 1 चारुदत्तवणिवरवइतणुरुह जहिं जहिं जोइज्जइ तहिं तहिं सुह। जहिं गंधब्बदत्त" सई संठिय महुरवाय णावइ कलयंठिय । ___घत्ता--जहिं वइसवइसुचाइ रमणकामु" संपत्तउ। खेयरमहियरबंदु' वीणावज्जे जित्तउ |13|| 10 (13) तलवार के जल की लहरों के समान सिक्तशरीर और अत्यन्त कृष्ण शरीर अंगारक ने सुभद्रा के उस पुत्र (वसुदेव) को तत्काल छोड़ दिया। गृहिणी (शाल्मली) ने पति को गिरते हुए देखा, तो (तत्काल) उसने उसे पर्णलघु विद्या प्रदान कर दी। उसके प्रहार करने पर दुश्मन भाग गया। कामदेव के समान सुन्दर वह, वृक्ष कुसुमों के समूह से शोभित दिशाओंवाले चम्पापुर नगर के बाहर गिरा। उसने वहाँ पर मणियों के कंगन हाथ में पहिने हुए और वन में क्रीड़ा करते हुए नागरिकों से पूछा । वे कहते हैं- "मुग्धता से प्रतारित तुम आकाशमार्ग से गिर पड़े हो। वासुपूज्य जिनवर के जन्म से समृद्ध इस प्रसिद्ध चम्पापुरी को तुम नहीं जानते क्या ?" यह सुनकर उसने नगरी का अवलोकन किया जो सभामण्डप और प्रचुर विद्वानों से शोभित थी। वहाँ चारुदत्त श्रेष्ठिवर की कन्या जहाँ-जहाँ देखी जाती, वहाँ-वहाँ (सर्वांग) सुन्दर थी। वहाँ पर गन्धर्वदत्ता स्वयं बैठी हुई थी और कोयल के समान मधुर वाणीवाली थी। धत्ता-जहाँ उस वैश्यपति की कन्या के द्वारा कामभाव-प्राप्त विद्याधर राजाओं का समूह वीणावादन में जीत लिया गया था। (13) 1. A "झुलुक्कय BPS "झलक्कए। ५. A सुकसिणिय"। 3. B पहरणकक्कसि संजुए। 4. P धरणए। 5. B पहिच्छउ। 6. B भणंत। 7. K वासपुज्ज18. चंघाउरि। 9. ABP । 10. A पलोयज; ? पलोइउ। 11. AP विराहउ। 12. B चारुइत्तु: । चारुदत्तु। 19. HP "तणुरुहु। 11. DPP तु। 15. B गंधव्ययत्त सइ। [H. H स्म। 17. A "बिंदु: वेंदु । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 J महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु (14 गॅप कुमार वि तर्हि जि णिविङउ कम्बाणु व हियइ पट्ठउ हमि किं पि दावमि तंतीसरु ता तहु दोइयाउ सुइलीणउ' "जी तु" एही तंति ण एम बिज्झइ " सिरिहलु एव एवं किं धवियउं लक्खणरहियउ जडमणहारिउ अक्खर सो तहिं तहि अक्खाणउं किं कि कण्णइ' 'अणिमिसणयणइ' दिउ । विहसिवि पहिउ पहासइ सुट्टउ । जइ विण चल्लइ सरठाण पंच सत्त णव दह" बहु वीणउ । करु । डु ण एहउ जुज्जइ । वासुइ एहउ एत्थु विरुज्झइ । सत्यु ण केण वि मणि चिंतवियउं" । मेल्लिवि वीणउ पाइं" कुमारिउ । आलावणिक" चारु चिराणउं । घत्ता - हत्थायपुरि राउ मिज्जियारि घणसंदणु । 15 तहु पउमावइ" देवि विठु णाम पिउ णंदणु ||14|| ( 15 ) अवरु पउमरहु सुउ लहुयारउ जणु णविवि अरहंतु भडारउ । रिसि होएप्पिणु 'मृगसंपुष्णहु सहुं जेहें सुएण गउ रण्णहु । [83.14.1 5 10 (14) कुमार भी जाकर वहाँ बैठ गया। कन्या ने अपलक नेत्रों से उसे देखा । कामदेव का तीर उसके हृदय में चुभ गया। कुमार सन्तुष्ट होकर हँसते हुए कहता है- “मैं भी कुछ तन्त्रीस्वर का प्रदर्शन करना चाहता हूँ; यद्यपि स्वर- स्थानों पर मेरा हाथ नहीं चलता । तब कानों में लीन होनेवाली पाँच, सात, नौ और दस बहुत-सी वीणाएँ उसके सामने उपस्थित की गयीं । परन्तु वसुदेव कहता है, "क्या किया जाए ? यह वीणा उपयुक्त नहीं है। यह वीणा इस प्रकार निबद्ध नहीं की जाती, यह वासुकी (डोर) भी यहाँ पर विरुद्ध है। यह तुम्बक भी इस प्रकार क्यों रखा गया ? किसी ने भी ( इसकी रचना में) शास्त्र का विचार नहीं किया। इस प्रकार लक्षणों से रहित मूर्खों का मन हरनेवाली उस सुन्दर वीणा को, कुमारी के समान छोड़कर वह कुमार वहाँ पर वीणा के लिए एक पुराना आख्यान कहता है। घन्ता - हस्तिनागपुर में शत्रुओं को जीतनेवाला मेघरथ नाम का राजा था । उसकी पद्मावती देवी और विष्णु नाम का पुत्र था। ( 15 ) एक और उसका पद्मरथ नाम का छोटा पुत्र था । पिता आदरणीय अरहन्त को नमस्कार कर और मुनि होकर अपने बड़े पुत्र के साथ, पशुओं से व्याप्त वन में चला गया। पिता को अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया (14) 1. 13 कुमार | 2. AP कंत 5. PK अनिल 1. Sणवहिं । 5. HP हउं मि: S उउ दि। 6. A सरठाणहु । 7. A सरलीणउ 8. A मुबु III. AP वीणा 11. A त्रिवज्झई। 12. P चित्तत्रियउ । 13. A तासु कुसारिट 14. A कउ 155 पोमावर 16. A पियणंदणु । 2 APSB संग्णहो । (15) 1 ABP Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83.16.4] महाकइपुष्फयंतबिरयर महापुराणु [51 ओहिणाणु तायहु उप्पण्ण दिउं जगु बहुभावभिइण्णउँ । एत्तहि गयउरि पयपोमाइउ करइ रज्जु पउमरहु महाइउ । ता सौ पच्चतेहिं णिरुद्धउ तहु बलि णाम मंति "पविबुद्धउ। तेण गुरु वि ओहामि सक्कहु बुद्धिइ माणु मलिउ परचक्कहु। संतूसिवि' रोमंचियकाएं मग्गि मग्गि वरु बोल्लिउ राएं। भनि बुराः सुधि करेगसु . .. कहिं मि कालि महुँ मग्गिउं देज्जसु । कालें जंतें मारणका आयउ सूरि "अकंपण णामें। सहुँ रिसिसंघे जिणवरमार्गे 'पुरबाहिरि थिउ "काओसग्गें। 10 घत्ता-बलिणा मुणिवरु दिटु सुरिउं अवमाणेप्पिणु। इह एएं हठं आसि वित्तु'' विवाइ जिणेप्पिणु ।।15।। (16) अवयारहु अवयारु रइज्जइ उवयारह उबयारु जि' किज्जइ। खलहु खलत्तणु सुहिहि सुहित्तणु जो ण करइ सो णियमिवि णियमणु। तावसरूवें' णिवसउ णिज्जणि हउँ पुणु 'अज्जु खवमि किं दुञ्जणि । एंव भणेप्पिणु 'गउ सो तेत्तहिं अच्छइ णिवइ णिहेलणि जेत्तहिं। और उसने नानाभेदों से भिन्न संसार को देख लिया। गजपुर (हस्तिनापुर) में प्रजा के द्वारा प्रशंसित वह महाऋद्धियाला पद्यरथ राज्य करने लगा। शत्रुओं के द्वारा उसे घेर लिया गया। उसका बलि नाम का अत्यन्त प्रबुद्ध मन्त्री था। उसने इन्द्र के भी गुरु अर्थात् वृहस्पति को तिरस्कृत कर दिया था। उसने अपनी बुद्धि से शत्रु का मान-मर्दन कर दिया। इससे सन्तुष्ट होकर रोमांचित शरीरवाले राजा ने कहा-'वर माँग लो, वर माँग लो।' तब मन्त्री ने कहा-अभी सन्तुष्टि करना, किसी समय जब मैं माँगूं तब देना। समय बीतने पर कामदेव को पराजित करनेवाले अकम्पन नाम के आचार्य अपने मुनिसंघ के साथ आये। जिनवर के मार्ग से आकर वे नगर के बाहर कायोत्सर्ग से स्थित हो गये। ___घत्ता-मन्त्री बलि ने मुनिवर को देखा। उसने पिछले अपमान की याद की कि इसने यहाँ विवाद में जीतकर मुझे छोड़ दिया था। (16) 'अपकारी के साथ अपकार करना चाहिए और उपकारी के साथ उपकार किया जाए। दुष्ट के साथ दुष्टता और सज्जन के साथ जो सज्जनता नहीं करता, वह अपने मन को नियमन कर तपस्वी होकर निर्जन वन में रहे। आज मैं दुर्जन को क्यों क्षमा करूँ ?' यह सोचकर, वह वहाँ गया जहाँ राजा अपने राजप्रासाद 9. A अबहिणाणु। 4.A भावहिं wिs AIS भावविहि गाउं । 5.5 परमरह। 6.5 पविद्धन। 7. P ओहामिय। ४. 5 परयस्कही। 9. P संतोसिधि । 10. APS अपणु। 11. B पुरि। 12. P कायोसगें। 19. H घेत्तु। (16) 1. A' वि। 2. P सुइत्तणु। 3. 5 "कए। 4.5 रन्जमु खवमि व दुज्जणु। 5. B खपमि अज्जु । 6. S सो गउ । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 10 महाकइपुष्फयंतविरयड महापुराणु [83.16.5 भणिउ णवंतें पई पडिवण्णउं 'आसि कालि जं पई वरु दिण्णउ। 5 जं तं देहि अज्जु मई मग्गिउं जइ जाणहि पत्थिव ओलग्गिउं। ता राएण वुत्तु ण वियप्पमि जं तुहं इच्छहि तं जि समप्पमि। पडिभासइ बंभणु असमत्तणु सत्त दिणाई देहि रायत्तणु । दिण्णउँ पत्थिवेण तें लइयउं रोसें सब्बु अंगु पइछइयउ। साहुसंघु पाविढें रुद्धउ "मृगवहु महु चउदिसु पारद्धउ। सोत्तिएहिं सोमबु" रसिज्जइ सामवेय सुइसुमहुरु" गिज्जइ। भक्खिये जंगलु अड्डवियड्डइं उप्परि रिसिहिं णिहित्तइं हड्डई। धत्ता-नोज्असरायसमूह जंकण विण वि छित्तउ । __ तं सवणहं सीसग्गि जणउच्छिउँ चित्तउं ॥16॥ ( 17 ) सोत्तइं पूरियाई सुहवारें __बहलयरेण धूमपटमारें। अणुदिणु पयडियभीसणवसणहं तो वि धीर रूसंति ण पिसुणहं। तहिं अवसरि दुक्कियपरिचत्ता जणण' तणय ते जहिं तवतत्ता। णिसि णिवसति महीहरकंदरि भीरुभयंकरि सुयकेसरिसरि। में था। नमस्कार करते हुए वह बोला-"जो तुम्हारे द्वारा स्वीकृत और दिया हुआ वर है वह आज मुझे दो, मैं माँगता हूँ; हे राजन् ! यदि यह जानते हो कि मैंने सेवा की थी।" तब राजा बोला, "मैं कोई विचार नहीं करता, जो तुम चाहते हो वह मैं तुम्हें सौंपता हूँ।" तब वह मिथ्यादृष्टि ब्राह्मण कहता है-"सात दिन के लिए मुझे राज्य दे दो।" राजा ने राज्य दे दिया। उसने राज्य ले लिया। क्रोध से उसका (विप्र का) सास शरीर आच्छादित हो गया। उस दुष्ट ने साधुसंघ को अवरुद्ध कर दिया और उसने चारों दिशाओं में पशुवधवाला यज्ञ प्रारम्भ करवा दिया। ब्राह्मणों के द्वारा सोमजल पिया जाये, और श्रुतिमधुर सामवेद गाया जाये, और माँस खाकर टेढ़ी-मेढ़ी हड्डियाँ मुनियों के ऊपर फेंक दी गयीं। __ पत्ता-जिस भोजन और सुरा समूह को किसी ने भी नहीं छुआ, लोगों की वह जूठन मुनियों के सिरों पर फेंक दी गयी। (17 कष्टप्रद प्रचुरतर धूम के समूह से उनके कान भर गये। प्रतिदिन भयंकरतम कष्ट पहुँचानेवाले उन दुष्टों पर ये धीर मुनि क्रुद्ध नहीं हुए। उस अवसर पर पापों से मुक्त वे दोनों पिता-पुत्र जहाँ तप कर रहे थे और एक रात, जिसमें सिंह की दहाड़ सुनायी दे रही थी, ऐसी भयंकर पहाड़ी गुफा में निवास करते हुए 7. Aaklds aller 5 b तुदिक्षा आणंदपवण्ण Srcads for 5 b तुहिदाणु आणंदपाई। 8. P राहत्तणु। 9, ABPS पच्छइयउं। 10. AP मिगबहु। 11. A मोमंच। 12. AS सापवेज। 13. A सुइपहुरा सुइपहरें। 14. Als. विपित्त । (17) 1. Aसुहशागि। 2." मीडिय । . B दुक्लिय। 4. P जणय। 5. A जितहि तदतत्ताः हि । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83.18.6] [53 घार 10 महाकठपुप्फयंतविरपर महापुराणु तेहिं बिहि मि तहिं णहि पवहंतउं सवणरिक्खु दिउं कंपंतउ।। तं तेवड्डु चोज्जु जोएप्पिणु भणइ विठु पणिवाउ करेप्पिणु। कि णक्खत्तु भडारा कंपइ तं णिसुणेवि जणणमणि जंपइ। गयरि बलिणा मुणि उवसग्गें संताविय पायें भयभग्गें । सज्जणघट्टणु सबहु भारिउं तेण रिक्खु थरहरइ णिरारिउँ । पुच्छइ पुणु वि सीसु खमवंतह णासइ केंव उवद्दउ संतह। पत्ता-घणरहरिसिणा उत्तु तुम्ह विउव्वणरिद्धिइ। णासइ रिसिउवसग्गु भवसंसारु व सिद्धिइ ॥17 ।। (18) 'खलजणवयअच्चब्भुवभूवें छिद्दहि जाइघि वाधणरूवें। णिलयणिवासु णिरग्गलु मग्गहि पच्छह पुणु गयणंगणि लग्गहि । तं णिसुणेपिणु लहु णिग्गउ मुणि रिय पढंतु कियओंकारज्झुणि । भिसिवकमंडलु सियछत्तियधरु दब्भदंडमणिवलयंकियकरु । मिट्टवाणि उववीयविहूसणु देसिङ कासायंबरणिवसणु। सो णवणरणाहेण णियच्छिउ भणु भणु तुह' किं दिज्जउ पुच्छिउ । उन दोनों ने आकाश में श्रवण नक्षत्र को जाते हुए और काँपते हुए देखा। वह उतना बड़ा आश्चर्य देखकर, विष्णु (पुत्र) प्रणाम करके पूछते हैं-“हे आदरणीय नक्षत्र क्यों कॉप रहा है ?" यह सुनकार पिता मुनि से कहते हैं कि हस्तिनागपुर में पापी और भय से त्रस्त बलि ने उपसर्ग के द्वारा मुनि को सताया है। सज्जन को सताना सबसे बड़ा पाप है, इसीलिए वह नक्षत्र अत्यन्त थर-थर काँप रहा है।" तब शिष्य फिर क्षमावान् सन्त से पूछता है कि यह उपद्रव किस प्रकार शान्त हो सकता है ? ___घत्ता-मुनि बोले-"तुम अपनी विक्रिया ऋद्धि से मुनि का उपसर्ग उसी प्रकार नष्ट कर दो, जिस प्रकार सिद्धि से भव-संसार नष्ट हो जाता है। ( 18) तब छल से, दुष्टजनों को आश्चर्य में डालनेवाला वामनरूप बनाकर तुम प्रतिबन्ध रहित रहने का घर माँगो, बाद में फिर तुम आकाश के आँगन से जा लगना।" यह सुनकर मुनि विष्णु तत्काल वहाँ से निकलेऋचाएँ पढ़ते, ओंकार ध्वनि करते हुए, आसन और कमण्डलु लिये हुए, सफेद छतरी लगाये हुए, दूब और जपमाला से हाथ को अलंकृत कर, मीठी वाणी बोलते हुए, यज्ञोपवीत से विभूषित, गेरुए रंग का वस्त्र पहिने हुए, उपदेशक के रूप में। उसे राजा ने देखा और पूछा- "बताओ तुम्हें क्या हूँ ? क्या घोड़ा, क्या हाथी, 6. AP जाणु मुणि। . A हयभागें। 8. B सच्चउ । (18) I.A खलु । 2. Pआवश्यभूयं 13. B हिंदह। 4. BS बामण" | R.AIणियेसु । 6. Aओंकायरझुणि। 7. रिसिय। 8. B कि तुह। 9. P दिजः। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 | महाकइपुष्फयंतविरपर महापुराणु 183.18.7 10 किं हय गय रह कि जंपाणई कि धयछत्तई दव्वणिहाणई। कवडविप्यु भासइ महिसामिहि णिव कम तिण्णि देहि महु भूमिहि। तं णिसुणिवि बलिणा सिरु धुणियउं हा हे दियवर किं पई भणियउं। वाय तुहारी दहवें भग्गी लइ धरित्ति मढथितिहि जोग्गी। घत्ता-ता विठ्ठहि बडूंतु लग्गउं अंगु णहरि ॥ _णिहियउ मंदरि पाउ एक्कु बीउ मणुउत्तरि" |॥18॥ (19) तइयउ कमु उक्खित्तु' जि अच्छइ कहिं दिज्जउ तहि थत्ति ण पेच्छइ। सो विज्जाहरतियसहिं अंचिउ पियवयणेहिं कह व आउंचिउ। ताव तेत्थु घोसावइवीणइ देवहिं दिण्णइ मलपारहाणइ। गरुयारउ णियभाइ सहोयरु तोसिउ पोमरहें जोईसरु। मारहुं आढत्तउ दियकिंकरु विण्हुकुमारु अभयंकरु। अच्छउ जियउ वराउ म मारहि रोसु म हियउल्लइ वित्थारहि। रोसें चंडालत्तणु किज्जइ रोसें “णस्यविवरि पइसिज्जइ। एण' जि कारणेण हयदुम्मइ कयदोसह मि खमंति महामई। स्या पालकी, क्या ध्वजछत्र, क्या द्रव्य-कोष ?' तब कपटी ब्राह्मण कहता है-“हे पृथ्वीस्वामी नृप, मुझे तीन पैर धरती दीजिए।' यह सुनकर राजा बलि ने अपना माथा ठोका कि हे द्विजवर ! तुमने यह क्या कहा ? तुम्हारी वाणी को दैव ने नष्ट कर दिया है, इतनी धरती तो लो जिसमें एक मठ बन सके। ___ घत्ता--तब विष्णु का बढ़ता हुआ शरीर आकाश से जा लगा, एक पैर उसने राजा के घर पर रखा और दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर। (19) तीसरा पैर उठा हुआ रह गया, कहाँ रखा जाय, कोई स्थान दिखाई नहीं देता था। तब विद्याधरों और देवों ने उसकी पूजा की, और प्रियवचनों से किसी प्रकार संकुचित कराया। देवों ने उस अवसर पर मल से रहित घोषावती वीणा दी। पद्मरथ ने अपने सगे बड़े भाई योगीश्वर को सन्तुष्ट किया। उसने द्विज-अनुचर (मन्त्री) को मारना शुरू किया, परन्तु अभयंकर विष्णुकुमार उसे क्षमा कर देते हैं कि वह जीवित रहे। उस बेचारे को मत मारो। अपने हृदय में क्रोध धारण मत करो। क्रोध से चाण्डालत्व होता है, क्रोध से नरक विवर में प्रवेश किया जाता है। इसी कारण से दुर्गति को नष्ट करनेवाले महामति दोष करनेवालों को भी क्षमा कर देते हैं। 1. A देहु महु। 11. A मालनिहिः । मदत्तिहि। 12. A मंदिर। 18. B मणउत्तरि । (19) 1. RK उक्वेतु। 2. BEAs. तहो धत्ति। 3. भायसहो। 4. APS रोसें सत्तममहि पाविज्जइ। 5. A एण वि। 6. AP महाजइ। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 83.20.12] महाकइपुष्फयंतविरवड महापुराणु पत्ता-एम भणेप्पिणु जेठु' गउ गिरिकुहरणिवासहु। मुणिवरसंघु असेसु मुक्कउ दुक्खकिलेसहु |॥19॥ (20) अज्ज वि वीण तेत्थु सा अच्छड जइ मह आणियि को' वि पयच्छइ। तो गंधव्वदत्त किं वायइ महुँ अग्गई पर वयणु णिवायइ । वणिणा त णिसुणिवि विहसतें। पेसिय णियपाइक्क तुरंते। गय गयउरु वल्लइ पणवेप्पिणु मग्गिय तव्वंसिय मणु लेप्पिणु। वियलियदुम्मयपंकविलेवहु आणिवि' ढोइय करि वसुएवहु। सा कुमारकरताडिय वज्जई सुइभेयहिं बावीसहिं छज्जइ । सत्तहिं वरसरेहिं तिहिं गामहिं अट्ठारहजाइहिं सुहधामहि । अंसह सउ "चालीसेक्कोत्तरु गीइ पंच वि पथडइ सुंदरु। तीस वि गामराय रइआसउ चालीस वि भासउ छ विहासउ"। एक्कवीस मुच्छणउ" समाणइ एक्कूणइं" पण्णासई ताणई। घत्ता-तहु वायंतहु एंव वीणा'" सुइसरजोग्गउ। ___णं वम्भहसरु तिक्खु मुद्धहि हियवइ लग्गउ ॥20॥ घत्ता--यह कहकर बड़े भाई (विष्णु) पहाड़ी गुफा के निवास में चले गये। समस्त मुनिसंघ दुःख-कष्ट से मुक्त हो गया। (20) परन्तु वह वीणा आज भी वहाँ है, यदि कोई उसे लाकर मुझे दे दे, तो गन्धर्वदत्ता क्या बजाती है, मेरे आगे उसका मुख मैला हो जाएगा। यह सुनकर सेठ ने हंसते हुए, अपने अनुचर शीघ्र भेजे। हस्तिनापुर जाकर, राजा को प्रणाम कर, उसके कुटुम्ब के लोगों का मन लेकर वीणा माँगी। और लाकर, दुर्मद की कीचड़ को धोनेवाले वसुदेव के हाथ में वह दे दी। कुमार के हाथों से प्रताड़ित होकर वीणा बजती है, और बाईस ही स्वरभेदों से सज्जित हो उठती है। श्रेष्ठ स्वरों, तीन ग्रामों, शुभधाम अठारह जातियों, एक सौ इकतालीस अंशों, पाँच गीतों, पाँच प्रकृतियों, रति के आश्रय तीस ग्रामराग, चालीस भाषाएँ, छह विभाषाएँ, इक्कीस मूर्च्छनाएँ और उनचास समान तानें। ___घत्ता-इस प्रकार उसके श्रुतियों और स्वरों के योग्य, वीणा बजाने पर, कामदेव का तीर उस मुग्धा के हृदय में जा लगा। 7. AP निट्ठ। (20) 1.5 का वि। 2. 0 तं सुरिणवि बियसतें। 3. A पहसते। 1. A यीणा पण । 5. A मग्गिय तक्खणि वीण लएप्पिण; 8 मणुणेपिण; Als. तत्वंसियमणुणेपिणु (सध्यतिय+म+अणुणेपिणु)। 6. P "दुम्मा । 7.A आणिय। 8. S Nो। H. AP छज्जर । 10. AP वजड़।।1. AP विहिं गामहिं. ६ बहुमामझिं। 12. 5 अंसहिँ। 19. A चालीसेकुत्तरु; B घालौतिक्कुतरु; s चालीसेक्कोत्तरु। 14. A गीउ पंचविहु। 15. S रइयासय। 16. S विहासव। 17. पुच्छण। 19. A एस्कूणह पण्णास जि B एक्कूण यि पण्णाताई। 19, AP als. चीणासरू सुद। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 561 महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु ( 21 ) या उपरि घुलियई तंतीरवतोसियगिव्याणहु संधु तरुणु सुरिंदें ससुरें पुणरवि सो विज्जाहरदिष्णहं मणहरलक्खणचच्चियगत्तउ राउ हिरण्णवम्मु तहिं सुम्मइ तासु कंत णामें पोमावइ रोहिणि पुत्ति जुत्ति णं मयणहु ताहि सयंवरि मिलिय गरेसर ते "जरसंधपमुह अवलोइय नहिं पिते पसिन् माल पडिच्छिय उडिउ कलवलु जरसिंधहु" आणइ कवविग्गह तेहिं हिरण्णवम्मु संभासिउ मालइमाल ण कइगलि बज्झइ अनंगई वेवंतई बलियई' । चित्त सयंवरमाल जुवाणहु । विहिउ विवाहमहुच्छउ ' ससुरें । सत्तसयई परिणेपिणु कण्णहं । कालें रिद्वय संपत्तउ । जासु रज्जि णउ कासु वि दुम्मइ । परहुयसद्द बालपाडलगइ' । किं वण्णमि भल्लारी भुयणहु' । तेयवंत णावइ ससिणेसर । कण्णइ माल ण कासु वि ढोइय । जिणिवि कण्ण सकलाकोसल्लें । संणद्ध सयलु वि पत्थिवबलु । धाइय जादव" कउरव मागह पई गउरविउ काई किर देसिउ । जाव ण अज्ज वि राउ विरुज्झइ । [83.21.1 5 10 15 ( 21 ) उसके नेत्र स्वामी के ऊपर व्याप्त हो गये । उसके आठों अंग काँपते हुए मुड़ गये। अपने वीणा - स्वर सं देवों को सन्तुष्ट करनेवाले युवक के ऊपर उसने स्वयंवर माला डाल दी । इन्द्र ने देवों के साथ उसकी प्रशंसा की। ससुर ने विवाह का महोत्सव किया। फिर भी, उसने विद्याधरों के द्वारा दी गयीं सात सौ कन्याओं के साथ विवाह किया और सुन्दर लक्षणों से अलंकृत शरीरवाला वह कुछ समय के बाद रिष्टनगर पहुँचा । वहाँ अच्छी बुद्धिवाला राजा हिरण्यवर्मा था। उसके राज्य में कोई भी दुर्गति में नहीं था। उसकी पत्नी का नाम पद्मावती था। वह कोयल के समान बोलीवाली और हंस के समान चालवाली थी। उसकी रोहिणी नाम की पुत्री थी, जो मानो कामदेव की युक्ति थी। भुवन में श्रेष्ठ उसका क्या वर्णन करूँ ? उसके स्वयंचर में सूर्य-चन्द्र के समान तेजवाले अनेक राजा सम्मिलित हुए। उसने जरासन्ध प्रमुख राजाओं को देखा; परन्तु उसने किसी को स्वयंवरमाला नहीं डाली । वहाँ पर उस वनगज के प्रतिमल्ल वसुदेव ने अपने कला-कौशल से कन्या को जीतकर माला स्वीकार कर ली। तब समस्त राजसेना समृद्ध हो उठी। जरासन्ध की आज्ञा से युद्ध करनेवाले समस्त कौरव, मागध और यादव दौड़े। उन्होंने हिरण्यवर्मा से कहा--"तुमने इस राहगीर को इतना गौरव क्यों दिया ? मालतीमाला बन्दर के गले में नहीं बाँधी जाती, इसलिए जब तक कोई दूसरा राजा क्रुद्ध नहीं होता, (21) AP चलिय । 2. महोच्छ । 3. A 4 A पडलगइ। 5. A भुषणहो $ सुयणहो । 6. B जरसंघ K जरसंधु जरसिंधु । वियि । 9 B जरसंघहो $ जरधिहो । 10. A आणच 11. APS जायव । ' C Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83.22.12] [ 57 महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु घत्ता-ता पेसहि लहु धूय मा संधहि धणुगुणि सरु ॥ वढ" जरसंधि विरुद्धं धुवु पावहि वइवसपुरु ॥21॥ (22) तं णिसुणेप्पिणु' सो पडिजंपइ भडबोक्कहं वर वीरु' ण कंपइ। जो महं पुत्तिहि चित्तहु रुच्चइ सो सूहउ किं देसिउ बुच्चइ । पहु तुम्हहं वि घिट्ट परयारिय अज्ज ण जाह' समरि अवियारिय। ता तहिं लग्गह रोहिणिलुद्ध महिवइसेण्णई सहसा कुद्धई। थिय जोति' देव गयणंगणि अण्णहु अण्णु भिडिउ समरंगणि' । कंचणविरइइ रहयरि चडियउ णववरु णियभाइहिं अभिडियउ। बिंधते० सहस त्ति परिक्खिउ तेण समुद्दविजउ ओलक्खिउ। जे सर घल्लई ते सो छिंदइ अप्पुणु" तासु ण उरयलु भिंदइ । जलगि मा दोह. नियमानु... सुरु गिहालवि जउवइभुयबलु। दिव्वपत्तिपत्तेहिं विहूसिउ णियणामंकु बाणु पुणु पेसिउ। पडिउ पर्यंतरि सउरीणाहें उच्चाइउ अरिमयउलवाहें । अक्खराइं वाइयई सुसत्तें "वियलियबाहजलोल्लियणेत्तें। 10 घत्ता-तब तक शीघ्र ही कन्या भेज दो, और धनुष की डोरी पर तीर मत चढ़ाओ। हे मूर्ख ! जरासन्ध के क्रुद्ध होने पर तुम निश्चय से यमपुर प्राप्त करोगे।" (22) यह सुनकर वह कहता है--"योद्धा रूपी बकरों से श्रेष्ठवीर नहीं डरते। जो मेरी पुत्री के मन को अच्छा लगा वही सुन्दर, तुम उसे देशी क्यों कहते हो ? तुम लोग और तुम्हारा राजा भी परदारिक (दूसरे की स्त्री का लालची) है जो आज भी यद्ध में अविचारशील है।" तब वहीं पर रोहिणी की लोभी राजा की सेनाएँ पीछे लग गयीं और क्रुद्ध हो उठी। देव आकाश के आँगन में स्थित होकर देखने लगे। समरांगण में वे एक-दूसरे के विरुद्ध लड़ने लगे। नया वर भी स्वर्णनिर्मित श्रेष्ठ रथ पर चढ़कर अपने भाइयों से भिड़ गया। तीर से भेदते हुए उसने शीघ्र परीक्षा कर ली। उसने समुद्रविजय को पहचान लिया। वह जो तीर छोड़ता, उन्हें वह काट देता, और स्वयं उसके वक्षःस्थल का भेदन नहीं करता। विश्व में भाई वत्सलता से रहित नहीं हो सकता। बहुत समय यदुपति के भुजबल को देखकर, उसने फिर दिव्य पंक्ति पत्रों से विभूषित तथा अपने नाम से अंकित वाण भेजा। पैरों के बीच में पड़े हुए उस पत्र को शत्रु रूपी मृगकुल के शिकारी शौरीनाथ समुद्रविजय ने उठाया, सत्त्व और साहस के साथ, आँखों से हर्षाश्रु बहाते हुए, उसके अक्षर पढ़े-लोगों के अनुरोध पर 12. 135 तहो धूप। 19. BK वट। (22) 1. PS णिसुचि सो वि। 2. A याची 115 वरधारू । 3.5 सूहयु। . ' जाहु । . तो।6.5 गेहिणि" K गहिणि in second hand. 7. B जोत; 5 जोयंत । 8. A' लगु। 9. 5 सबरंगणि। 10. 3 विद्धते बिधनें। 11. APS अप्पणु। 12. D जीवइभुय": P जोयड़ : 19. BAIS. दिव्यपारख"; दिव्यपंति। 14. "मियल1 15. B"वाहभोल्लिया। 16. A "पसें। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 ] महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु 183.22.13 जणउवरोहें पई घरि धरियउ जो चिरु विहिवसेण णीसरियउ। पत्ता-संवच्छरसइ पुण्णि आउ एउ" समरंगणु || हउं वसुएवकुमारु देव देहि आलिंगणु ॥22॥ (23) जइ वि 'सुवंसु गुणेण विराइउ कोडीसरु णियमुट्ठिहि माइउ । आवइकाले जई वि ण भज्जइ जइ वि सुहडसंघट्टणि गज्जइ। भायरु पेक्खिवि पिसुणु व बंकर्ड तो वि तेण बाणासणु मुक्कउं । गरवइ रहवराउ उत्तिण्णउ कुंअरु' वि संमुह लहु अवइण्णउ। एक्कमेक्क आलिंगिउ बाहहिं पसरियकरहिं णाई करिणाहहिं। भायमहंतु णविउ वसुएवं पिउ पहुणा महुरालावें। हउं पई भायर संगरि णिज्जिउ बंधु भणंतु ससूअ' लज्जिउ । अण्णहु चावसिक्ख कहु एही पई अब्मसिय धुरंधर जेही। पई हरिवंसु बप्प उद्दीविउ तुहं महु धम्मफलें' मेलाविउ। अज्ज मन्झ पोरेपण मणारह गय णियपरवरू दस वि दसारह। 10 खेयरमहियरणारिहिं माणिउ थिउ यसएव। रायसंमाणिउ। 5 तुमने जिसे घर में रखा, वह बहुत पहले, भाग्य के वश से निकल गया। ___ घत्ता-सौ वर्ष पूरे होने पर, इस समरांगण में आया हुआ मैं वसुकुमार हूँ। हे देव ! आलिंगन दीजिए। (28) यद्यपि उसका धनुष सुवंश (अच्छे बाँस, अच्छे वंश) का था, और गुण से (डोरी, गुण) से शोभित था, फिर भी वह मुट्ठी में समा गया। यद्यपि वह आपत्तिकाल में नष्ट नहीं होता, तथापि सुभटों की लड़ाई में गरजता है, फिर भी भाई को देखकर वह दुष्ट की तरह टेढ़ा होता है, तब भी उसने (समुद्रविजय ने) धनुष छोड़ दिया। राजा श्रेष्ठ रथ से उतर पड़ा। कुमार भी शीघ्र आकर सामने उपस्थित हुआ। बाँहों से एक-दूसरे को आलिंगन किया, मानो सूंड फैलाए हुए महागजवर हों। वसुदेव ने अपने बड़े भाई को नमस्कार किया। मधुर आलाप में राजा ने उससे कहा--"हे भाई ! युद्ध में मैं तुम्हारे द्वारा जीत लिया गया। तुम्हें अपने सारथि के निकट (सम्मुख) भाई कहते हुए लज्जित हूँ। तुमने धनुर्विद्या का जैसा धुरन्धर अभ्यास किया है, वैसी धनुर्विद्या दूसरे की कहाँ है ? हे सुभट ! तुमने हरिवंश को उजागर किया है, धर्म के फल से ही तुम्हारा मुझसे मेल हुआ है। आज मेरे मनोरथ पूर्ण हुए। समुद्रविजय आदि दसों भाई अपने पुरवर चले गये। विद्याधरों और मनुष्यों की नारियों के द्वारा मान्य और राजा के द्वारा सम्मानित वसुदेव स्थित हो गया। शंख 17. राव। (23) 1. Bघस। 2. APS "कालए। 8. जंपि। 4. 4. AP पण्णमा।. RP अज् मज्झ। 11. B बसुपबरार । कुमर कुंवरु। 5. 13 णामेिं। 6. AL'S भाइ । 7.A सभूयह। 8. D कहि कह । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83.23.14] | 59 महाकइपुष्फयतविश्यउ महापुराणु मंगु मम सिजो लो ससिमुहु महसुक्कामरु रोहिणितणुरुहु । घत्ता-भरहखेत्तनृवपुज्जु णवमु सीरि उप्पण्णउ। पुप्फदंततेयाउ तेण तेउ पडिवण्णउँ ॥23॥ इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फपतविरइए महाभश्वभरहाणुमण्णिए महाकचे खेयरभूगोयरकुमारीलंभो" समुद्दयिजय वसएवसंगमो णाम तेयासीतिमो"परिच्छेउ समत्तो॥8 नाम का जो महाऋषि था, वह महाशुक्र स्वर्ग का चन्द्रमुख देव होकर रोहिणी का पुत्र हुआ। ___घत्ता-फिर भरतक्षेत्र के राजाओं में पूज्य नौवें वलभद्र के रूप में उत्पन्न हुआ। उसने नक्षत्रों के तेज से भी अधिक तेज स्वीकार किया। इस प्रकार प्रेसठ महापुरुषों के गुणों और अलंकारों से सहित महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का तेरासीयाँ परिच्छेद समाप्त हुआ। 12. A खेत्ति णिव' । 18. ६ खयर 111. A "वसुदेवसंगमो बलदेवउप्पत्ती। 15. P तेपासीमो; S तीयासीतिमी। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 1 महाकइपुष्फयंतविरवउ महापुराणु [84.1.1 चउरासीतिमो संधि 'गणि भणिउं रिसिदें सोत्तसुहाई जणेरी। सुणि सेणिय जिह जिणजाणिय तिह कह कसहु केरी ॥ धुवकं ॥ धायंतमहंततरंगरंगि गंगागंधावइसरिपसंगि। पप्फुलियफुल्लवेइल्लवेल्लि कउसिय णामें तावसह पल्लि । तहिं तवसि' विसिटु वसिठ्ठ णामु पंचग्गि सहइ णिवियकामु। मुणि भद्दवीरगुणवीरसण्ण अपणहिं दिणि आया समियसण्ण । बोल्लाविउ तावसु तेहिं एवं अण्णाणे अप्पउ खवहि केंव। "तवहुयवहजालउ विश्वरंति किमिकीडय महिणीडय मरंति। विणु जीवदयाइ ण अस्थि धम्मु । धम्में विणु कहिं किर सुकिउ कम्म। विणु सुक्किएण कहिं सग्गगमणु । किं करहि णिरत्यउं देहदमणु। पडिबुद्ध तेण वयणेण सो वि णिग्गथु जाउ जिणदिक्ख लेवि। मणिवरचरियई तिव्यई चरंतु आइउ महुरहि महि परिभमंतु। 10 चौरासीवीं सन्धि अनिन्द्य मुनीन्द्र गौतम गणधर ने कहा-हे राजा श्रेणिक ! जिस प्रकार जिन भगवान के द्वारा ज्ञात है उस प्रकार तुम कानों को सुख देनेवाली कंस की कथा सुना। दौड़ती हुई बड़ी-बड़ी लहरों की क्रीडा से युक्त गंगा और गन्धावती नदियों के संगम के किनारे खिले हुए फूलोंवाले वृक्ष और लताओं से युक्त, तपस्वियों का कौशिक नाम का गाँव था। उसमें विशिष्ट वशिष्ठ तपस्वी रहता था। काम को जिसने नष्ट कर दिया है. ऐसा वह पंचाग्नि तप तपता था। दसरे दिन इन्द्रिय चेतना को शान्त करनेवाले भद्रवीर और गुणवीर नाम के दो मुनि वहाँ आये। उन्होंने तापस से इस प्रकार कहा-अज्ञान से अपने को क्यों नष्ट करते हो ? आग की ज्वालाएँ फैलती हैं तो धरती के घोंसलों में कृमि और कीड़े मरते हैं। जीव-दया के बिना धर्म नहीं होता और धर्म के बिना पुण्य कर्म कैसे हो सकता है और पण्य कर्म के बिना स्वर्ग-गमन कैसे ? इसलिए तम व्यर्थ देह का दमन क्यों करते हो ? इस वचन से उस तपस्वो का विवेक जाग्रत हो गया और जैन-दीक्षा लेकर वह दिगम्बर मुनि हो गया। मुनिवर के तीव्र (i) 1.5 गयणेदें। 2. 11 सह । 3. AP "तरंगमांगे । 4. AB सरिसुसंगे; P°मरिससांगे। 5. 11 पप्फुल्लफु' | 6. AB 'वल्लि । 7. A तवसिछु वसिटु; B सिट्टु बिसिछु। 8. Aणवहु । 9. AT जाला: B जालई। 10. B पहुरह । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84.2.8] । 61 15 महाकइंपुष्फयंतांवरयड महापुराणु उववासु करइ सो मासु मासु देहति ण दीसइ रुहिरु मासु। गिरिवरि चरंतु अच्चंतणिठु रिस उग्गसेणराएण दिछु। तें भत्तिइ बोल्लिउ णिरु णिरीहु लब्भइ कहिं एहउ सवणसीहु। पत्ता-ओसारिउ णयरु णिवारिउ मा परु करउ पलोयणु। सविवेयहु साहुहु एयह हउं जि करेसमि भोयणु ।।।। (2) जोयंतहु भिक्खुहि पिंडमग्गु' 'पहिलारइ मासि हुयासु लग्गु। मयगिल्लगडु हिंडियदुरेह बीयइ कुंजरु णं कालमेहु। भिंदइ दंतहिं 'नृवभिच्चदेहु तइयइ आइउ णरणाहलेहु। पहु भंतउ कज्जपरंपराइ हियउल्लउं ग गयीउं णिहयराइ। तहु तिषिण मास गय एम जाम केण वि पुरसेण पउत्तु ताम। परु वारइ सई णाहारु देइ एहउ वि केम भण्णइ विवेइ। भुंजाविउ भुक्खइ दुक्खु तिक्खु हा हा राएं मारियउ भिक्खु । तं णिसणिवि' रोसहयासणेण पज्जलिउ तवसि "दम्मिउ मणेण। 5 'चरित्र का आचरण करता हुआ, धरती पर भ्रमण करता हुआ वह मथुरा नगरी में आया। वह माह-माह के उपवास करता, उसके शरीर में मांस और रक्त दिखाई नहीं देता था। अत्यन्त निष्ठावान राजा उग्रसेन ने उन मुनि को पर्वत पर विचरण करते हुए देखा। उसने भक्तिभाव से कहा कि ऐसे अत्यन्त निरीह श्रमण-श्रेष्ठ को कहाँ पाया जा सकता है ? धत्ता-उस राजा ने आहार देने के लिए द्वाराप्रेक्षण करने के लिए नगरवासियों को मना कर दिया और यह भी कहा कि विवेकशील इन मुनि को मैं ही भोजन कराऊँगा। मुनि के आहार के मार्ग को देखते हुए पहले महीने में राजमन्दिर में आग लग गयी। दूसरे महीने में, जिस पर भौरे गूंज रहे हैं ऐसा मद से गीले कपोल वाला हाथी, जो मानो कालमेघ के समान था, राजा के अनुचर के शरीर को दाँतों से फाड़ डालता है। तीसरे महीने में एक राजा का पत्र आ गया। इस प्रकार कार्य की परम्परा के कारण (कार्यभार के कारण) वह भूल गया और मुनि में राग होते हुए भी (मुनि में श्रद्धा होते हुए भी) उसका मन उनकी ओर नहीं गया। इस प्रकार जब उनके तीन माह बीत गये, तो किसी एक आदमी ने कहा कि ऐसे राजा को विवेकवाला किस प्रकार कहा जा सकता है जो न तो स्वयं आहार देता है और फिर दूसरे को भी मना कर देता है। इस प्रकार उसने भूख के तीव्र दुःख का अनुभव इस मुनि को कराया है तथा (कहा कि) अफसोस है कि उसने इन्हें मार डाला। यह सुनकर क्रोध की ज्वाला 11. A देहेण ण दीसह। 12. AP तयतु । (2) 1. B पिंडु। 2. 5 पहिलाए। 3. BPAIN. 'गंउ । 1. HP णिव । 5. PS आया। 5. S पमुत्तु। 7. Sणिसुगति। 8. B दूमिय: P दूमिज । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 1 महाकइपुप्फयंतविरवर महापुराणु मंजीररावराहियपयाउ सत्त वि भणति भो भो" वसिद्ध किं उग्गसेणकुलपलयकालु किं महुर जलणजालालिजलिय" ता चवइ दियंबक भिण्णगुज्झु कडिसुत्तयघोत्लिरकिंकिणीउ उत्सव महिमंडन्ति यत्ति पडिउ तवसिद्धउ आयउ देवयाउ । दूरुज्झियदूदुडति । पाय हुं णिविदुक्किय करालु" । दक्खालहुं" तुह महिबलयघुलिय । जम्मंतर पेणु करहु मज्झु । तं इच्छिवि गयीय जक्खिणीउ । पुणु रोणियाणवसेण पडिउ । पत्ता - मुणि दुम्मइ नियमणि तम्मइ उग्गसेणु अइसंधमि । कुलमद्दणु " एयहु णंदणु होइवि एहु जि बंधमि ॥2॥ (3) मुउ सो पोमावइगभि थक्कु पियहिवयमाससद्धालुवाइ उ अक्खि भत्तरहु सईइ कारिमउ विणिम्मिउ उग्गसेणु भक्खि विरमणहु देहमासु णं णियतायहु जि अक्कालचक्कु । झिज्जतियाइ सुललियभुयाइ । बुड्ढेहिं मुणिउं णिउणइ मईइ । फाडिउ णं सीहिणिए करेणु । उप्पण्णउ पुत्तु सगोत्तणासु । [84.2.9 10 15 9. हो हो। 10. A शिवदुक्खय: । 11. ABP 'जालोलि । 12.5 बखान। 13. A कुलमंडणू । ( 3 ) 1 A 'तायहु जिसकालचक्कु B "तायडो जि अकात 5 "तायहो अक्काल । 2. 11 सो फाड़िउ णं सीहिणिए, S फालिज | 5 में वह तपस्वी जल उठे और मन से अत्यन्त खिन्न हो उठे। तब नूपुरों की ध्वनि से शेभित पैरोंवाली सात तपसिद्ध देवियाँ आयीं और वे सातों बोलीं- "दुष्ट तृष्णा को दूर से छोड़नेवाले हे वशिष्ठ मुनि ! क्या हम लोग सघन दुष्कृतों से भयंकर उग्रसेन के कुल के लिए प्रलय की रात का काल उत्पन्न करें या आग की ज्वाला में जलती हुई धरतीतल में मटियामेट कर दिखाऊँ ? तब जिसका अन्तरंग परिणाम नष्ट हो चुका है, ऐसे दिगम्बर मुनि बोले कि तुम जन्मान्तर में मेरी आज्ञा मानना । तब कटिसूत्र की हिलती हुई किंकणियोंवाली वे यक्षणियाँ चली गयीं। वह मुनि की शीघ्र क्रोधरूपी ज्वाला के वश से प्रबंचित होकर धरती - मण्डल पर गिर पड़ा। धत्ता - दुर्मति वह मुनि अपने मन में खेद करते हैं कि मैं इस उग्रसेन को वंचित करूँगा। मैं इसका कुल नाशक पुत्र होकर इसी को बन्धन में डालूँगा । ( 3 ) वह मरकर पद्मावती के गर्भ में स्थित हो गया मानो अपने पिता के लिए ही अकाल चक्र हो। अपने पिता के प्रिय हृदय के मांस खाने की इच्छा रखनेवाली दिन-दिन क्षीण होती हुई सुन्दर बाहुवाली उस सती ने अपने पति से यह बात नहीं कही। लेकिन वृद्ध मन्त्रियों ने अपनी बुद्धि से यह जान लिया। उन्होंने एक कृत्रिम उग्रसेन बनाया। उसे उसने इस प्रकार फाड़ा जैसे सिंहनी हाथी को फाड़ दे। उसने इस प्रकार अपने Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84.3.19] महाकइपुष्फयतविरयड महापुराणु [ 63 10 अवलोइउ ताएं कूरदिट्टि णिहणेक्ककामु उग्गिण्णमुट्ठि। कंसियमंजूसहि किउ अथाहि घल्लिउ कालिंदीजलपवाहि। मंजोययरीइ' सोमालियाइ पालिउ कल्लालयबालियाइ। सियमंजूसहि जेण दिछ तेण जि सो कंसु भणेवि घुछ। कोसंबिपुरिहि' पत्तउ पमाणु णं कलिकयंतु णं जाउहाणु। णिच्चु जि परउिंभई ताडमाणु धाडिउ ताएं जायउ जुवाणु। गउ सउरीपुरु वसुएवसीसु" जायउ णाणापहरणविहीसु। असिणा 'जरसिधे जिणिवि वसुह । णिहावय वारे सुहि णिहिय ससुह। एक्कहिं दिणि अत्थाणंतरालि थिउ पभणइ सो गायणरवालि। परमंडलिय' जित्त 1"धरणि वि तिखंड साहिय विचित्त। पर अज्जि वि णउ सिज्झइ सदप्पु णउ पणवइ णउ महु देइ कप्पु । पोयणपुरवइ सीहरहु राउ र णि दुज्जउ रिउजलवाहबाउ । घत्ता-जो जुज्झइ तहु बलु बुज्झइ धरिवि णिबंधिवि आणइ। रइकुच्छर' णं अमरच्छर मेरी सुय सो माणइ ॥3॥ पति के देह का मांस खाया। उससे अपने कुल का ही नाश करनेवाला पुत्र हुआ। पिता ने देखा कि वह क्रूरदृष्टि, हिंसा की इच्छा रखनेवाला और खुली हुई मुट्ठियोंवाला है। उसे काँसे की मंजूषा में रखा और यमुना के अथाह जल में डाल दिया। कलाल बालिका सुकुमारी मंजोदरी ने उसे पाला, चूंकि वह काँसे की मंजूषा में देखा गया था, इसलिए घोषणापूर्वक उसे कंस कहकर पुकारा गया। कौसाम्बी नगरी में उसके होने का प्रमाण मालूम हो गया। मानो वह काल-काल का यम हो या राक्षस । प्रतिदिन दूसरों के बच्चों को वह मारता-पीटता। पिता के द्वारा निष्कासित किया गया वह अब युवा हो गया। शौरीपुर में जाकर वह वसुदेव का शिष्य हो गया और नाना हथियारों से यह भयंकर हो उठा। जरासन्ध ने तलवार से धरती को जीतकर, शत्रुओं को नष्ट कर, अपने मित्रों को सुख में स्थापित कर दिया। एक दिन संगीत से गूंजते दरबार में बैठा हुआ वह बोला-"मैंने अनेक प्रकार के शत्रु जीते और तीन खण्डवाली यह विचित्र धरती भी जीत ली, लेकिन मैं आज भी एक गीले राजा को नहीं जीत सका। वह न तो प्रणाम करता है और न मुझे कर देता है। पोदनपुर का स्वामी राजा सिंहस्थ रण में अजेय है और शत्रुरूपी मेघ के लिए पवन के समान धत्ता-जो उससे लड़ता है, उसके बल को समझता है और पकड़कर बाँधकर लाता है, वह कामकुतूहल उत्पन्न करनेवाले देहवाली अप्सरा के समान मेरी लड़की को माने। I. B मंदावरीए । ५. 9. मंदिलिय , . कल्लालिए। 3. AP लेण वि। 4. AP कोसंविषयो। 5.5 घाडियउ । G. AP बसुदेव। 7. घराणी तिखंद। 1. AP पय पणवइ। 12.5.'वायु। 19. APS 'कोछ । जरसें जरसंधै। 8. A समुह । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 ] महाकइपुष्फयतविरय महापुराणु [ 84.4.1 अण्णु' वि हियइच्छिउ' देमि देसु छुडु करउ को वि एत्तउ किलेसु । इय भणिवि णिचंकविहूसिवाईं आलिहियई पत्तई पेसियाई। सयलहं मंडलियहं पस्थिवेण गय किंकरवर दसदिसि जवेण। एक्केण एक्कु तं धित्तु तेत्यु अच्छइ वसुएउ" कुमारु जेत्थु। जोइउं वाइउं तं वइरिजूरु देवाविउं लहं संगामतरू। पक्खरिय तुरय करि कवयसोह मच्छरफुरंत' आरूढ जोह। णीसरिउ सणि व कयदेसदिट्ठि अंधयकविहिसु वइरिविट्टि । सहं कसें रोहिणिदेविण्याहु णं ससिमंडलह विरुद्ध राह। परमंडलु विद्धसंतु जाइ पहि उप्पहि बलु कत्थ वि ण माइ। घत्ता-चलकेसरकररुहमासुरहरिकट्टिइ। रहि चढियउ। जयलंपटु कुइउ' महाभडु वसुएबडु "अभिडियउ ॥4॥ 10 'सउहद्देएं संगामि वुत्त आवाहिउ सो धयधुव्वमाणु हरिमुत्तसित्त हय रहि णिउत्त। दलट्टिउ रिउ' जपाणु जाणु। और भी मनचाहा देश मैं दूंगा, कोई भी शीघ्र इतना कष्ट करे-यह कहकर अपने अक्षरों से विभूषित लिखे गये पत्र, उस राजा ने सब माण्डलिक राजाओं को प्रेषित किये। श्रेष्ठ अनचर सब टिश से गये। एक अनुचर ने वह पत्र वहाँ डाला जहाँ कुमार वसुदेव थे। शत्रुओं को सतानेवाले उसने देखा और बाँधा और शीघ्र ही युद्ध का नगाड़ा बजवा दिया। घोड़ों को पाखर (लोहे की झूल) पहना दिये गये। शोभायमान कवच पहने हुए, मत्सर से तमतमाते हुए योद्धा उन पर आरूढ़ हो गये। उस देश की ओर दृष्टि बनाकर कनिष्ठ भाई का पुत्र वह शत्रुओं के लिए पापवती के समान निकला। रोहिणी देवी के स्वामी क्रुद्ध वसुदेव कंस के साथ ऐसे मालूम होते थे मानो राहु चन्द्र-मण्डल के विरुद्ध हो गया हो। शत्रुमण्डल का नाश करती हुई कंस की सेना जाती है, और मार्ग-कुमार्ग कुछ भी नहीं देखती है। __घत्ता-चंचल अयाल और नखों से भास्वर सिंहों के द्वारा खींचे गये रथ पर बैठा हुआ तथा जय के लिए चंचल महाभट्ट (सिंहरय) कुमार वसुदेव से भिड़ गया। अन्ध संग्राम में सुभद्रा के पुत्र ने सिंहों के मूत्र से लिपटे घोड़ों से रथ बाँध लिये और उड़ते हुए ध्वज से (4) 1. P 2 . PREMS हियक्षिा APS पराएव"। 1, वैरिजूरु। 3. PSAS. संगाहतूरु। HAR. मच्छरपारय।AP अंधकट्टीस्ट । B. 1 उरांवड़ि। 9. रोहिणी | 10. भासुरू। 11. "कहिय। 12. कुर्दिड। 18. APणे भिडिय। (5) | AP सउहटे जा सगामधुत्त । सउहाँ गं संगाने। 2. A रहबरे णिउत्त। 3. B आवाहिवि। 4. तहिं। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84.6.41 महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु | 65 वसुएवकंस भूभंगभीस लग्गा "परबलि उज्झायसीस । वरसुहहहं सीसई जिल्लुणति थिरु थाहि थाहि हणु हणु भगति। वंचंति विलंति खलति धति पइसंति एंति पहरंति यति। अंतई' लंबंतई ललललंति रत्तई पवहंतई झलझलति। महि णिविडमाण हय हिलिहिलंति सरसल्लिय गयवर गुलुगुलति। दवोट्ट रुट्ठ मारिवि मरंति जीविउं मुयंत पर हुंकरंति। पललुद्धई गिद्धई णहि मिलंति भूयई येयालई किलिकिलति। पहरणइं पडतइं धगधगंति विच्छिण्णई कवयइ जिगिजिगति। यत्ता-पहरंतहु सामाकंतहु सीहरहेण णिवेइय। पर टामण नामनिवारण कंचणमुखविराइय ॥5॥ 10 एयारह बारह पंचवीस ___पण्णास सट्टि बावीस तीस। तेण वि तहु तहिं मग्गण विमुक्क रह वाहिय खोणियखुत्तचक्क। ते वीर बे वि आसण्ण ढुक्क णं खयसागर मज्जायमुक्क।' परिभडघंघलु भुयबलु कलंति अवरोप्परु किल' कोतहिं हुलंति। युक्त उस रथ को नष्ट कर दिया, शत्रु और जम्पान यान को चकनाचूर कर दिया। इस प्रकार भौंहों के भंग से भयंकर गुरु और शिष्य, वसुदेव और कंस शत्रुसेना से भिड़ गये। ये श्रेष्ठ योद्धाओं के सिर काट डालते हैं। ठहरो ! ठहरो ! मारो-मारो कहते हैं, चलते हैं, मुड़ते हैं, स्खलित होते हैं, नष्ट करते हैं, घुसते हैं, आते-जाते प्रहार करते हैं और ठहर जाते हैं, लम्बी-लम्बी पताकाएँ हिलती हैं, बहते हुए रथ झलमलाते हैं। धरती पर पड़े हुए घोड़े हिनहिनाते हैं और तीरों से बिंधे हाथी चिंधाड़ रहे हैं। कटे हुए होठोंवाले क्रुद्ध योद्धा मारकर मरते हैं और प्राण छोड़ते हुए हुँकार भरते हैं। पांस के लोभी गिद्ध आकाश में इकट्ठे हो रहे हैं। भूत और वैताल किलकारियों मार रहे हैं। धक-धक करते हुए हथियार गिरते हैं। कवच विछिन्न होकर जगमगा रहे हैं। घत्ता--प्रहार करते हुए श्यामा के पति वसुदेव पर मर्म का छेदन करनेवाले और स्वर्णपंख से शोभित भयंकर तीर सिंहरथ ने छोड़े। 6 ] ग्यारह, बारह, पच्चीस, पचास, साठ, बाईस और तीस तीर और उसने (वसुदेव ने) भी उतने ही तीर छोड़े। जिसके चके धरती को खोद रहे हैं, ऐसे रथ को आगे बढ़ाया। वे दोनों वीर परस्पर निकट पहुंचे मानो मर्यादा से मुक्त प्रलय समुद्र हों। शत्रुसमूह अपना बाहुबल इकट्ठा करता है और एक-दूसरे को भालों 5. 5 वरबले। 6. BP Als. चलाते। 7. B गत्तई लुंचतई। 8. APS णिवद्रमाण19. AP कयययई। (6) 1. BS खोणीखुत्त । 2. AP मज्जायचुक्क। 3. ABPS किर। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 | [84.6.5 पा महाकइपुष्फयतविरवर महापुराणु ता 'सुहडसमुमड़ चप्परेवि रणि णियगुरुअंतरि पइसरेवि। पवरपोवंगयीं संपरेवि चक्लाउहपरिवंचणु करेवि। उल्ललिवि धरित सीहरहु केम कसें केसरिणा हस्थि जेम। आवीलिवि बद्धल बंधणेण ।। जंडजोउ" व "जीयासाधणेण। णिउ दाविउ अद्धमहीसरासु अहिमाणु भुवणि णिव्यूद कासु। तं पेरिखवि राएं वुत्तु एव वसुएव तुझु सम णेय देव। घत्ता-साहिज्जइ केण धरिजई एहु पयंडु महाबलु । पहरुदें जिह णहु चंदें तिह पई मंडिउं णियकुलु° ॥6॥ 10 को पावइ तेरी वीर छाव लइ लइ जीवंजस जसणिहाण ता रोहिणेयजणणेण वुत्तु हउँ पर मेहमि परपुरिसयारु रायाहिराय जयलच्छिगेह पहु पुच्छइ कुलु वज्जरइ कंसु कोसंबीपुरि कल्लालणारि कालिंदिसेणसइदेहजाय। मेरी सुय संतावियजुवाण। परमेसर परजपणु अजुत्तु। एबहु कसें किउ बंधणारू। दिज्जउ कुमारि एयहु जि एह । णउ होइ महारउ सुद्ध वंसु। मंजोवरि' णामें हिययहारि। से छेदता है। तव सुभटों की भीड़ को चाँपकर, युद्ध में अपने गुरु के बीच प्रवेश कर, तथा उत्तम अंगोपांगों को ढंककर, चंचल हथियारों की प्रवंचना कर, उछलकर कंस ने सिंहरथ को उसी प्रकार धर पकड़ा, जैसे सिंह हाथी को पकड़ लेता है। उसे पीड़ित कर बन्धन में बाँध लिया जाता है। ले जाकर उसने उसे अर्ध-चक्रवर्ती जरासन्ध को दिखाया। इस संसार में किसी का भी अहंकार नहीं रहता। यह देखकर राजा जरासन्ध ने इस प्रकार कहा कि हे वसुदेव ! तुम्हारे समान देवता भी नहीं है। घत्ता-किसके द्वारा यह प्रपंच महाबली लड़ा और पकड़ा जा सकता था। जिस प्रकार चन्द्रमा अपने प्रभापूंज से आकाश को आलोकित करता है, उसी प्रकार तुमने अपने कुल को शोभित किया है। हे वीर ! तुम्हारी कान्ति कौन पा सकता है ? तुम कालिन्दीसेन रानी के शरीर से उत्पन्न युवकों को सतानेवाली मेरी इस जीर्वजसा कन्या को जो यश की निधान है, स्वीकार करो। तब बलभद्र के पिता वसुदेव ने कहा, "हे देव ! अन्यथा कहना गलत है। दूसरे के पौरुष को मैं स्वीकार नहीं करूंगा। इसको पकड़नेवाला कंस है, इसलिए हे राजाधिराज और विजयलक्ष्मी के आश्रय आप वह कन्या उसे दें। तब राजा कंस से पूछता है और वह उत्तर देता है कि मेरा कुल पवित्र नहीं है। कौसाम्बी नगरी में, हृदय को सुन्दर लगनेवाली 1.A सुहड समभड्। 5. AB परतणु। 6. 1 जन्। 7. AP ऋम्मणिचणेण। HAPS पेधिनि। 9.Aणिययकस। (7)1. P"सः। 2. P RI. ली । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84.8.8] महाकइपुष्पयतविरयउ महापुराणु [ 67 10 तहि तणुरुहु हउं अच्चतचंडु परडिंभमुंडि घल्लंतु दंडु। मुक्कउ णियप्राणद्दपिणयाइ मायइ टुपुत्तणिव्विणियाइ। "सूरीपुरि सेविउ चावसूरि अमसिउ' मई वि धणुवेउ भूरि। सहुं गुरुणा जाइवि धरिउ बी अवलोयहि पासकियसरीरु। तं सुणिवि णरि, सीसु धुणिउँ एयहु कुलु एउं ण होइ भणिउं। घत्ता-रणतत्तिउ" णिच्छउ खत्तिउ एहु ण परु भाविज्जइ"। कुलु सव्वहु णरहु अउबहु आयारेण मुणिज्जइ ॥7॥ इय पहुणा मणिवि किसोयरीहि पेसिउ दूयउ मंजोवरीहि। तें जाइवि' महआरिणि पवृत्त पई कोक्कइ पहु बहुबंधुजुत्त । कि भासियाइ बहुयइ' कहाइ अच्छइ तेरउ सुउ तहिं जि माइ। सुयणामें कपिय जणणि केव पवणंदोलिय वणवेल्लि जेव। सा चिंतइ उ संवरइ चित्तु किउं पुत्ते काई मि दुच्चरित्तु । हक्कारउ आयउ तेण मज्झु बज्झउ मारिज्जउ सो ज्जि वज्झु। इय 'चविवि चलिय भयथरहरंति मंजूस लेवि पहि संचरति ।। दियहेहिं पराइय रायवास दिइड परवइ साहियदिसासु'। मंजोदरी नाम की एक कलाल स्त्री है। मैं उसका अत्यन्त प्रचण्ड पुत्र हूँ। मैं दूसरों के बच्चों के सिर पर डण्डे मारता रहता था। अपने खोटे पुत्र से विरक्त तथा अपने प्राणों को पीड़ित करनेवाली उसे मैंने छोड़ दिया। मैंने शौरीपुर में आकर धनुषाचार्य (वसुदेव) की सेवा की और वहाँ धनुर्विद्या का खूब अभ्यास किया। गुरु के साथ जाकर मैंने इसे पकड़ा। बन्धन से चिह्नित शरीर इसे आप देखिए।" यह सुनकर राजा ने अपना माथा पीटा कि इसके द्वारा कहा गया यह कुल इसका नहीं है। ___घत्ता-रण की चिन्ता से युक्त यह निश्चय ही क्षत्रिय है, यह बात दूसरे में नहीं आ सकती। अज्ञात सभी व्यक्तियों का कुल उनके आचरण से जानना चाहिए। ___ यह कहकर राजा ने कृशोदरी (दूती) को मंजोदरी के पास भेजा। उसने जाकर उस कलारिन (कलवारिन) से कहा कि तुम्हें अनेक बन्धुओं से युक्त राजा ने बुलाया है। बहुत कथा कहने से क्या लाभ ? माँ, तुम्हारा पुत्र भी वहाँ है। पुत्र के नाम से माता उसी प्रकार काँप उठी, जिस प्रकार हवा से आन्दोलित होकर वन की लता काँप जाती है। वह सोचती है और वह अपने चित्त को रोक नहीं पाती है-पुत्र ने जरूर खोटा काम किया है। इसी कारण से मुझे यह बुलावा आया है। उसे मारा जाय, बाँधा जाय, वह बन्धन योग्य है। यह कहकर भय से थर-थर काँपती हुई वह मंजूषा लेकर रास्ते में चलती है। कुछ दिनों में वह राजभवन 4. AP पाण| 5. PS मपाए। 1S सउरी 17.A अभासिउ। 3. BSAls. धीरु। 9.5 धुणी। 10. A रणतिउ। II. B पर। 12. AP चिंतिजइ। (8) 1. S जोएपि; Kजोइवि in sccon hand. 2. A पञ्त्तु; पवुत्तः पउत्त। . AR "जुनु। 4. AP बहुलइ। 5. AP परिवि। 6. A संवरति। 7. AKP सासुः buleloss in k साधितदिशामुखः। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 1 मलकपुष्यंत विरपर महापुराणु राण भणिय त तण तणउ ता सा भासइ भयभावखद्ध" ओहछ " एयहु तणिय माय कलियार सइसवि सिसु हणंतु मेरउ ण होइ मुक्कउ गुणेहिं घत्ता - तहिं अच्छिउं पत्तु नियच्छिउं सुहदिहि र जत्ति ( 9 ) पवरुग्णमावईहि ' इय वइयरु " जाणिवि तुटू पाहु ससुरेण भणिउं वरवीरवित्ति' जमाएं वुत्तु णिरुत्तवाय महिमंडलसहिय महाभडासु सहुं सेण्णें उग्गयधरणिपंसु अविणीयजीयजीविउ हरंतु 9. ABPS] दिन । इहु कंसवीरु जगि "जणियपणउ । कालिदिहि मई मंजूस लद्ध । ह ं तुम्हहं सुद्धिनिमित्तु आय । गणिउ घराउ विप्पिउ चवंतु। जोइय मंजूस वियक्खणेहिं । जयसिरिमाणिणिमाणिउ । होए लाणि ॥१॥ (9) 1. S "उमावईहि । 2 जाग3 सुउ कंसु एहु सुमहासईहि । जीवंजस दिण्णी किउ विवाहु । जा रुच्च सा मग्गहि "धरिति । महुं महुर देहि रायाहिराय । सा' दिण्ण तेण राएण तासु । णिय सहुयासणु चलिउ कंसु । दिवसेहि पत्तु मच्छरु वहंतु । [ 84.8.9 10 15 पहुँचती है। दिशामुखों को सिद्ध करनेवाले राजा को उसने देखा । राजा ने कहा कि जग को प्रणत करनेवाला यह वीर कंस क्या तुम्हारा बेटा है? तब वह भयभाव से अभिभूत कहती है कि यमुना नदी में मुझे एक मंजूषा मिली थी। इसकी माता यह है। हम तुम्हारे पास सही वृत्तान्त कहने आये हैं। यह झगड़ालू बचपन में ही बच्चों को पीटता था। मैंने अप्रिय कहकर उसे घर से निकाल दिया। गुणों से रहित यह मेरा बेटा नहीं है। तब पण्डितों ने उस मंजूषा को देखा । 5 पत्ता - उसमें रखा हुआ पत्र देखा और लोगों ने जाना कि विजयलक्ष्मी और मानिनियों द्वारा मान्य यह शुभदृष्टि नरपतिवृष्णि का नाती है। (9) महान् उग्रसेन की अत्यन्त महासती पद्मावती का यह कंस नाम का पुत्र है । यह वृत्तान्त जानकर राजा सन्तुष्ट हुआ और अपनी कन्या जीवंजसा को दान में देकर शादी कर दी। ससुर ने कहा- श्रेष्ठ वीरवृत्ति से युक्त जो धरती तुम्हें लगे, वह माँगो दामाद ने कहा- आप सत्य बोलनेवाले हैं। हे राजाधिराज ! मुझे मथुरा नगरी दे दो। राजा ने भी उस महाभट्ट को धरणी- मण्डल सहित वह नगरी उसे दे दी। तब जिस धरती से धूल उठ रही है, ऐसा कंस अपने वंश के लिए हुताशन के समान सेना के साथ चला। अविनीत लोगों . 3 Als. कहीं; Als considers तर to be a mistake in s for कहु 10. B जगजणिय 11. P भवताय । 12, A एह अच्छर ।" हत्थड 13. B छ । बहुबीरवित्तिः B वरु वीरवन्ति । 5. A रुध्यइ ता। 6. B धरति । 7. AP ता B. B'जीव' । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84.10.8] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु वेदिय महुराउरि दुद्धरेहिं अट्टालय पाडिय" दलिउ कोट्टु अक्खिउ "रेहिं गंभीरभाव जो पई कालिदिहि धित्तु आसि हत्थिहिं रहेहि हरिकिंकरेहिं । "साडिउ पुररक्खणणरमरटूट्टु । आयउ तुज्झुप्परि पुत्तु देव । एवहिं अवलोयहि नियभुयासि । धत्ता - आयणिवि रिउ तणु मण्णिवि दाणु देंतु णं दिग्गउ | संणज्झिवि हियइ विरुज्झिवि उग्गसेणु पहु णिग्गउ ॥9॥ ( 10 ) संचोइयणाणावाहणाहं करमुक्कसुलहलसव्वलाहं 'घोलंत अंतमालाचलाह पडिदंतिदंतलुयमयगलाहं FarenaenjaTesis विडंतहं मुच्छाविंभलाह" * अइदूसहवणवेयणसहाहं दरिसावियदेहवसावहाह जायउ रणु दोहिं मि साहणाहं । ददधरियाउंचियकुंतलाह' । 'पवहंतपहरसंभवजलाई । असिवरदारियकुंभत्थलाहं । दोखंडियकमकडियलगलाहं । णारायणियरछाइयणहाहं । भडभिउडिभंगभेसियगहाहं । णीसारियणियणरवइरिणाहं । 1 69 10 5 के जीवन को हरण करता हुआ तथा ईर्ष्या धारण करता हुआ कुछ दिनों में वह वहाँ पहुँचा। उसने दुद्धर हाथियों, रथों, अश्वों और किंकरों द्वारा मथुरा नगरी को घेर लिया । अट्टालिका गिरा दी गयीं, परकोटा बरबाद कर दिया गया। नगरी की रक्षा करनेवालों का मान चकनाचूर कर दिया। तब लोगों ने जाकर कहा- हे गम्भीरभाव देव ( उग्रसेन ) ! तुम्हारे ऊपर तुम्हारा बेटा चढ़ आया है जो तुम्हारे द्वारा यमुना में फेंक दिया गया था । इस समय वह हाथ में तलवार लिये है । उसे देखो। घत्ता - यह सुनकर दुश्मनों को तिनके के बराबर समझकर जैसे मद-जल झरता हुआ हाथी हो, तैयार होकर और मन में क्रुद्ध होकर राजा उग्रसेन निकला । ( 10 ) दोनों सेनाओं में युद्ध होने लगा - ऐसी सेनाओं में कि जिनमें नाना वाहन चला दिये गये हैं। शूल-हल और सब्बल हाथ से छोड़े गये, मजबूती से पकड़े हुए कुन्तल खींचे जाने लगे। अंतड़ियों के चंचल जाल फैलने लगे और प्रहारों से उत्पन्न रक्त के जल ( झरने) बहने लगे, मदमाते हाथी प्रतिवादी हाथियों के दाँतों से छिन्न होने लगे, श्रेष्ठ तलवारों से हाथियों के गण्डस्थल फाड़ डाले गये । रक्तरंजित मोती नष्ट किये जाने लगे। पैरों, कटितलों और गालों के दो टुकड़े हो गये। मूर्च्छा से विह्वल होकर सैनिक गिरने लगे । तीरों के समूह से आकाश छा गया। अत्यन्त असह्य घावों की वेदना को सैनिक सहन करने लगे । योद्धाओं की भौंहों I 10. H याड़िय। 11. A साडिय पुरक्क्षणु णरमर: BAls. गिद्धाईिड पुररक्खणमरट्टु 5 साडिए पुररक्खणमडमरट्टु । 12. A चरेहिं । (10) 1. APS दोहं मि। 2. 5 read from here down to line to the text in a confused manner. 9. S लोलंत: K लोलंत in second hand. 4. D पहवंत । 5. B Als. पाडिय। 6. A सरंत 7. S मिला। 8. S इय दूसह । . AP 'वसायया । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 ] महाकइपुष्फयंतविरपर महापुराणु [84.10.9 10 अवलोइयकरधणुगुणकिणाह। ता उग्गसेणु वाहियगयींदु धाइउ "सहुं गिरिणा णं मइंदु । बोल्लाविउ रूसिवि तणउ तेण किं जाएं पई णियकुलबहेण। गब्भत्थें खद्धउं मज्झु मासु तुहुं महुं हूयउ णं "दुमि हुयासु। यत्ता-विधतें समरि कुपुत्तें उग्गसेणु पच्चारिउ।। .. . जो ऐल्ला पासा पल्लई सो मह वप्पु वि वइरिउ ||10॥ बोल्लिज्जड़ एवहिं काई ताय गज्जंतु महंतु गिरिदतुंगु पहरणई णिवारिय' पहरणेहिं णहयलि हरिसाविउ अमरराउ पडिगयकुंभत्यलि पाउ देवि असिधाउ देंतु करि धरिउ ताउ आवीलिवि भुयवलएण रुद्ध तेत्थु जि पोमावइ माय धरिय 'परिहच्छ पउर दे देहि घाय। ता चोइउ मायंगहु मयंगु। पहरंतहिं सुयजणणेहिं तेहिं। उड्डिवि कसें णियगयवराउ। पुरिमासणिल्लभडसीसु लुणिवि। पंचाणणेण णं मृगु वराउ। पुणु दीहणायपासेण' बद्ध । किं तुहुं मि जणणि खल कूरचरिय। के भंग से ग्रह डर गये, वसा समूहों से लिपटे शरीर दिखाई देने लगे। सैनिकों के द्वारा अपने राजा का ऋण चुकाया जाने लगा। अपने कर और धनुष की डोरी के चिह्न देखे जाने लगे। तब उग्रसेन ने अपना हाथी आगे बढ़ाया, मानो पहाड़ के साथ सिंह दौड़ा हो। उसने क्रुद्ध होकर अपने पुत्र से कहा--"अपने ही कुल का वध करनेवाले तुम्हारे पैदा होने से क्या ? गर्भ में रहते हुए तुमने मेरा मांस खाया, तुम मेरे लिए वैसे ही पैदा हुए, जैसे पेड़ के लिए हुताशन। घत्ता-युद्ध में वेधन करते हुए कपूत कंस ने उग्रसेन को ललकारा कि जिसने मुझे पीड़ित किया और पानी में फेंका, वह बाप होकर भी मेरा दुश्मन है। हे पिता । इस समय बोलने से क्या, शीघ्र तुम प्रचुर आघात दो। इस प्रकार उसने गरजते हुए पहाड़ की तरह ऊंचे महान् मातंग नाम के हाथी को प्रेरित किया। इस प्रकार एक-दूसरे पर प्रहार करते हुए बाप-बेटे ने हथियारों से प्रतिकार किया। आकाश में इन्द्र पुलकित हो उठे। कंस ने अपने गजवर से उठकर दूसरे हाथी के गण्डस्थल पर पाँव देकर आगे बैठे योद्धा के सिर को काटकर तलवार का आघात देकर पिता को हाथ से पकड़ लिया। सिंह ने बेचारे हरिण को पकड़ लिया है। अपने बाहुबल से पीड़ित उसे आबद्ध कर लिया और तब लम्बे पाश में बाँध लिया 1 यहीं पर उसने माता पद्मावती को भी पकड़ लिया कि तुम भी 10. AP बाहवि गयंदु। IH. APणं सहुं गिरिणा मइंदु। 12. AP दुपु हुवासु। (11). परिहत्युः 5 परिहत्य। 2. ६ गिरिदु। 3. B चोयउ। 1. APS णिवारिवि। 5. AP सीतु लचि। 6. BP मिगुः 5 मिग। 7. वासेण । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84.12.6] महाकइपुप्फयंतविरवर महापुराण [ 71 इयो भणिय बे विमसिकतात .. णिहिगई णियदिरि "गोउति। असिपंजरि पिचरई पावएण चिरभवसंचियमलभावएण। थिउ अप्पुणु पिउलच्छीविलासि लेहारउ पेसिउ गुरुहि पासि । लेहें अक्खिउ जिह उग्गसेणु रणि धरिवि णिबद्धउ णं करेणु । पई विणु रज्जेण वि काई मज्झु जइ वयणु ण पेच्छमि कहि मि तुज्झु । तो" महु गरभवजीविठं णिरत्यु आवेहि देव उड्डियउ4 हत्थु । धत्ता-तें वयणे रंजियसयणे संतोसिउ सामावइ । 15 गउ महुरहि वियलियविहरहि सीसु तासु मणि 'भावइ ||1|| (12) लोएं गाइज्जइ धरिवि वेणु जो पित्तिउ णामें देवसेणु। तहु तणिय धूय' तिहुवणि पसिद्ध सामा वामा गुणगामणिद्ध । रिसहि मि उक्कीइयकामबाण देवइ णामें देवक्समाण। सा णियसस गुरुदाहिण भणेवि महुराणाहें दिण्णी थुणेवि। सुहं भुंजमाण' णिसिवासरालु अच्छति जाव "परिगलइ कालु। ता अण्णहिं दिणि जिणवयणवाइ अइमुत्तउ णामें कंसभाइ। मेरी दुष्ट और क्रूरचरित्र माँ हो। यह कहकर चन्द्रमा की कान्ति के समान उन दोनों को अपने प्रासाद के भीतर गोपुर में बन्दी बना लिया। इस प्रकार पूर्वभाव के सचित पाप की भावना करनेवाले उस पापी ने अपने माता-पिता को बेड़ियों में डाल दिया और स्वयं पिता के लक्ष्मी-बिलास में स्थित हो गया। उसने एक पत्र गुरुजी के पास भेजा। उस पत्र में यह कहा गया था कि किस प्रकार उग्रसेन को रण में पकड़कर हाथी के समान बाँध दिया गया है। आपके बिना मेरे राज्य करने से क्या ? यदि मैं आपका मुख नहीं देखता हूँ, तो मेरा मानव-जीवन व्यर्थ है। हे देव ! आइए यह मेरा हाथ उठा हुआ है। ___घत्ता-स्वजनों को रंजित करनेवाले इन शब्दों से (गुरु) सन्तुष्ट हुए और वे संकटों को नष्ट करनेवाली मथुरा नगरी के लिए गये। उन्हें अपना शिष्य कंस बहुत अच्छा लगा। ( 12 ) लोगों के द्वारा वेणु पर यह गीत गाया गया कि जो कंस का देवसेन नाम का चाचा है, उसकी गुणसमूह से युक्त, सुन्दर और त्रिभुवन में प्रसिद्ध बेटी है जो ऋषियों के लिए भी काम के तीरों से उत्कण्ठित करनेवाली है। देवता के समान जिसका नाम देवकी है, उस अपनी बहन को गुरु-दक्षिणा कहकर मथुरा के स्वामी कंस ने स्तुतिपूर्वक वसुदेव को दे दी। वह भी दिन-रात सुख का भोग करते हुए रहने लगे। इस बीच समय बीतता गया तब एक दिन जिन-वचनों को माननेवाला कंस का भाई अतिमुक्तक पिता के बन्धन से विरक्त, B.S इस मणिवि। ५. मंदिर। 10. APS अनु।।. धरवि। 12.APS कह घ। 13 ता. 14. ओडियन; P ओड्डियउ।।5। तासु सीसु । (12) 1.Bधीय . 2. B तिवण" | S. 1 उपकोय कामवाण: PN उक्कोइबकुसुमबाण। 4. BP धुंजमाणु। 5. A अच्छंतु 1. AB परिगलिय": पडिगलइ। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 | महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु पिउबंधणि चिरु पावइउ वीरु चरियइ पट्टु मुणि दिट्टु ताइ दक्खालिउ देवइपुष्पचीस जरसंध# कंस जस लंपडेण होसइ एउं जि तुह दुक्खहेउ णिप्पिहु आमेल्लिवि णियसरीरु । मेहुणउ हसिउ जीवंजसाइ । जई जंपर जायकसायहीरु । मारेवा" एएं कप्पडेण । मा जंपहि अणिबद्ध ं अणेउ । पत्ता - हयसोत्तजं मुणिवरवुत्तरं णिसुणिवि कुसुमविलित्त ं । तं चीवरु सज्जगदिहिहरु मुद्धइ फाडिवि " घित्तरं । । 12 ।। ( 13 ) रिसि भासइ पुणु उज्झियसमंसु ता चेलु ताइ पाएहिं कुण्णु तुह जणणु हणिवि रणि दढभुएण गउ जइबरु वासु विलासियासु पुच्छ्रिय पिएण किं मलिणवयण* ता सा पड़िजंप पुण्णजुत्तु णिहणेव्वउ तें तुहुं अवरु ताउ कण्हें फाडेवउ' एम कंसु । पुणरवि मुणिणा पडिवयणु दिष्णु | भुंजेवी महि★ एयहि सुएण । जीवंजस गय भत्तारपासु । किं दीसहि रोसारत्तणयण । होसइ देवइयहि को वि पुत्तु । महिमंडलि होसइ सो ज्जि राउ [84.12.7 10 5 निस्पृह होकर, अपने शरीर की आशा छोड़कर संन्यासी हो गया। वह मुनिचर्या में प्रवृत्त हुआ। कंस की पत्नी जीवंजसा ने देवर अतिमुक्तक का मजाक उड़ाया। उसने उसे देवकी का रजोवस्त्र दिखाया, जिससे क्रोध कषाय उत्पन्न हो गयी। मुनि ने कहा कि यश के लम्पट जरासन्ध और कंस इसी कपड़े के द्वारा मारे जाएँगे। यह तुम्हारे दुःख का कारण होगा। इसलिए तुम अज्ञेय (अज्ञात) और अनिबद्ध (असम्बद्ध) शब्दों को मत कहो । घत्ता - कानों को आहत करनेवाले मुनिवर के वचन को सुनकर उस मूर्ख जीवंजसा ने रजोधर्म के खून से सने हुए तथा सज्जनों की दृष्टि का हरण करनेवाले उस वस्त्र को फाड़कर फेंक दिया। (13 उपशमभाव को छोड़ देनेवाले मुनि ने फिर कहा - इसी प्रकार कृष्ण के द्वारा कंस चीरा जाएगा। फिर उस वस्त्र को उसने पैरों से खण्डित कर दिया। तब मुनि ने फिर प्रत्युत्तर दिया कि इसका दृढ़ बाहुबाला पुत्र युद्ध में तुम्हारे पिता को मारकर धरती का भोग करेगा। वह कहकर मुनि चल दिये। बढ़ी हुई इच्छावाली जीवंजसा भी अपने पति के पास गयी। पति ने पूछा कि तुम्हारा मुख मैला क्यों हैं ? क्रोध से आँखें लाल क्यों दिखाई दे रही हैं ? तब वह प्रत्युत्तर देती है- देवकी का कोई पुण्य से युक्त पुत्र होगा। उसके द्वारा तुम और तुम्हारे पिता मारे जाएँगे और इस धरती - मण्डल का वही राजा होगा । 7. BPS धोरु & APS आमेल्लिय । . 4 जरसिंघ जरसेंध 10 A मारेच्या 11. S फालिविं (13) L. PS कालेयउ। 2. P चुष्णु। 3. P पुर्तये । 4.5 भुजेयि नहीं । 5. AP विणासिसु । 6. P मलियवयण । 7. A सा पडिजंप तुह पुण्णजंतु । i · " Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84.14.10] महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [ 73 ता चिंतइ कसु णिसंसियाइ लियई ण होते रिसिभासियाई। णिहुउ' वि पवण्णउ कंसु तेत्यु अच्छइ वसुएउ गरिंदु जेत्थु। घत्ता-सो भासइ गुज्झु पयासइ "सगुरुहि खयभयजरियउ।। हरिसिंदणु कयकडमद्दणु जइयहुं मई रणि धरियउ ।।13।। ( 14 ) तइयहुं 'महुं तूसिवि मणमणोज्जु वरु दिण्णउ अवसरु तासु अज्जु । जाएं कैण वि जगरुभएण हउ णिहणेव्वउ ससडिभएण। इय वायागुत्तिअगुत्तएण' भासिउं रिसिणा अइमुत्तएण' । जइ बरु पडिवज्जहि सामिसाल' परबलदलवट्टणबाहुडाल। णाहीपएसविलुलतणालु जं जं होसइ देवइहि बालु। तं तं हउं मारमि म करि रोसु जइ मण्णहि णियवायाविसेसु । ता सच्चवयणपालणपरेण तं पडिवण्णउं रोहिणिवरेण। गउ गुरु पणवेप्पिणु घरहु सीसु माणिणिइ पबोल्लिउ माणिणीसु । वरकंतहं सत्तसचाई जासु दुक्कालु ण पुत्तहं तुज्झु तासु। मइं जाणेव्वउ वेयणयसाहि दुक्खेण तणय होहिंति जाहि। 10 तब कंस विचार करता है कि मुनि के द्वारा कहे गये वचन मनुष्यों द्वारा प्रशंसित होते हैं, वे झूठ नहीं होते। तब विनीत कंस वहाँ गया जहाँ वसुदेव राजा था। ___घत्ता-अपने मरण के ज्वर से पीड़ित वह बोलता है और अपना रहस्य गुरु को बताता है कि जब मैंने युद्ध में खून-खच्चर करनेवाले सिंहरथ को पकड़ा था, उस समय तुमने प्रसन्न होकर मुझे सुन्दर वर दिया था। आज उसका अवसर है। जग का रोधन करनेवाली अपनी बहन से उत्पन्न किसी पुत्र द्वारा मैं मारा जाऊँगा। यह बात वचनसंयम की रक्षा नहीं करनेवाले अतिमुक्तक ने कही है। इसलिए शत्रु-सेना को चकनाचूर करनेवाली बाहुरूपी शाखाओंवाले हे स्वामी ! यदि आप वह वर देना स्वीकार करें कि देवकी के जो-जो लड़का पैदा होगा, जिसकी नाभि में नाल हिल-डुल रहा है, उसको मैं मारूँगा। आप क्रोध नहीं करना। तब सत्य वचन का पालन करनेवाले वसुदेव ने यह बात स्वीकार कर ली। शिष्य गुरु को प्रणाम करके अपने घर गया। माननीय स्त्रियों के स्वामी वसुदेव से देवकी ने कहा कि तुम्हारे पास सात सौ सुन्दर स्त्रियाँ हैं; इसलिए तुम्हें पुत्रों का अकाल नहीं रहेगा, लेकिन जिसे कष्ट से सन्तान होती है ऐसी मैं, उस वेदना को जानती हूँ। K. Sणीससिवाई। 9.४ णिपुर जि णिहुयउं जि। 10. APS राउ। 11. A सुगुरुहे; B ससुरहि। 12. A°भयजजरिध भयजरिउ । 15. S हरिदंसणु। 14.S" वंदण। (14) 1. P पहुं। 2. P महो मणोज्जु। . A "अगुत्तिएण। 4. A "मुत्तिएण। 5. P सामिसालु। 6.5 "दलबद्दणः। 7. पवेसे। H. AP दोस्। 4. B i s in ssecond hand. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 | महाकइपुष्फयतविरया महापुराणु [84.14.11 यत्ता-सुय मारिवि दुज्जणा धीरिवि णाह म हियवउं सल्लाह । हो णेहें हो महु गेहें लेमि" दिक्ख" मोक्कल्लहि ।।14 ।। ( 15 ) 'परताडणु पाडणु' दुण्णिरिक्रतु किह पेक्खमि डिंभहं तणउं दुक्खु । मई मेल्लाह' सामिय मुयाम संगु जिणसिक्खइ भिक्खई खवमि अंगु। वसुएउ भणइ हलि गुणमहति गयी मज्झु तुहारी णिसुणि कति। जइ सिस एयह मारह ण देमि तो हठे असच्च जणमज्झि होमि। हम्मतउ बालं सलोयणेहि किह जोएसमि दुहभायणेहि। सलिलंजलि 'रयरससुहहु देहं तवचरणु पहायही बे वि लेहुँ। दइयबसें दइयादइयएहिं अम्हई दोहिं मि "पावइयएहिं। 1"णउ पुत्तुप्पत्ति ण तासु भंसु मारेसई पच्छइ काई कंसु। इय ताई वियप्पिवि थियई जांव बीयइ दिणि सो रिसि टुक्कु तांव। णियचित्ति संख मुणि परिगणंतु बलएक्जणणभवणंगणंतु। । बहुवारहिं 'मुक्क णमोत्थुवाय पडिगाहिउ जइवरू धोय पाय। अँजिवि भोयणु तवपुण्णवंतु मुणिवरु णिसण्णु आसीस देंतु। 10 यत्ता-अपने बच्चों को मारकर और दुर्जन को सान्त्वना देकर हे स्वामी ! आपका हृदय पीड़ित नहीं होता हो, तो इस प्रेम से और इस घर से क्या ? मुझे छोड़ दो। मैं दीक्षा ले लूँगी। (15) दूसरे के द्वारा पीटा जाना और मारा जाना अत्यन्त दुर्निरीक्ष्य (कठिनाई से देखने योग्य) होता है। मैं कैसे अपने बच्चों का दुःख देख सकूँगी ? हे स्वामी ! मुझे छोड़िए। मैं तुम्हारा साथ छोड़ती हूँ। मैं जिन-दीक्षा और भिक्षा के द्वारा अपना शरीर गला दूंगी। तब वसुदेव ने कहा-गुणों से महान् हे कान्ते ! सुनो। जो तुम्हारी गति है वही मेरी। यदि इसे मैं पुत्र नहीं मारने दूंगा, तो लोगों के बीच झूठा कहा जाऊँगा और दुःख के भाजन अपने नेत्रों से मैं मरते हुए बच्चों को कैसे दे गा ? इसीलिए राज्य-सुख को जलांजलि देकर हम दोनों तपस्या ग्रहण कर लेंगे। भाग्य के वश से हम दोनों पति-पत्नी के दीक्षा ले लेने पर, न तो पुत्र की उत्पत्ति होगी और न नाश । तब बाद में कंस किसे मारेगा ? इस प्रकार सोचकर जब वे दोनों बैठे हुए थे, तो दूसरे दिन वे मुनि वहाँ पहुँचे। अपने मन में गृहों की संख्या को गिनते हुए बलदेव के पिता के भवन के आँगन में आते हुए उन्हें उन लोगों ने 'बारम्बार नमस्कार हो'-यह वचन कहा । मुनि को पड़गाहा तथा उनके पैर धोये, आहार लेने के पश्चात् पुण्यात्मा मुनिवर आशीर्वाद देकर बैठ गये। 10. A लेवि।।। दिल। (15) 1.A सिजताउणं। ५.A H रहास | 8.1 तयरण। 9. पहार: 11. P विमुश्क। 15. णवपुण्णवंतु। BP फाडण। ५. 18 पिक्तमि PS पेक्वमि। 4. B मिल्लिहि। E AP दिक्खा। एहो। 7. BPS पहावे bur gloss प्रभाते। 10. B पथ्यदयारहि। 11. Sण : A णियवित्तिसंख। 19. A बहुबरहि चि। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84.17.11 [ 75 महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु पत्ता-मुणि जंपिउ कि पई विप्पिउं पहरणसूरि' पधोसइ। ___ घरि जं सइ डिंभु जणेसइ तं जि कंसु "पहणेसइ ।।15।। मई तह पडिवण्णउं एह वयणु ता पडिजपइ णिम्महियमयणु। होहिंति ससहि जे 'सत्त पुत्त । ते ताहं मज्झि मलपडलचत्त। अण्णत्त लहेप्पिणु 'बुड्डिसोक्खु छह चरमदेह जाहिति मोक्खु। सत्तमु सुउ होसइ वासुएह 'जरसंधहु कंसह धूमकेउ । जं एम भणिवि जिणपयदुरेहु गउ झत्ति दियबरु मुक्कणेहु । तं दो वि ताइं संतोसियाई णं कमलई रवियरवियसियाई। कालें तें कयगडभछाय सिसुजमलई तिणि पसूय माय । इंदाणइ देवें गइगमेण भद्दियपुरवरि सुहसंगमेण । धत्ता-थिरचित्तहि जिणवरभत्तहि' वररयणत्तयरिद्धिहि ॥ घणथणियहि 'पुत्तत्विणियहि दविणसमूहसमिद्धहि ॥6॥ 10 (17) 'वणिवरसुयाहि ते दिण्ण तेण वेहाविउ णियतीवियवसेण । धत्ता-वसुदेव कहते हैं-हे मुनि ! आपने यह अप्रिय बात कैसे कहीं कि घर में यह सती जो बच्चे पैदा करेगी, कंस उनको निश्चित मारेगा। ( 16 ) मैंने उसे वचन दे दिया है। तब कामदेव को नष्ट करनेवाले मुनिवर कहते हैं- "बहिन के जो सात पुत्र होंगे, उनमें से मलपटल से रहित छह पुत्र दूसरी जगह बड़े होकर सुख प्राप्त करेंगे और छहों चरमशरीरी मोक्ष जाएँगे। सातवाँ पुत्र वासुदेव होगा जो जरासन्ध और कंस के लिए धूमकेतु होगा।" जब इस प्रकार कहकर जिनचरणों के भ्रमर तथा मुक्तस्नेह (राग-द्धेष रहित) वह दिगम्बर मुनि शीघ्र चले गये, तब वे दोनों खूब सन्तुष्ट हुए; मानो सूर्य की किरणों से विकसित कमल हों। समय बीतने पर गर्भ की कान्ति से युक्त माता ने तीन युगल पुत्र पैदा किये। इन्द्र की आज्ञा से सुख के संगम नैगमदेव ने भद्रिय नगरवर में___ घता-स्थिरचित्त जिनवर की भक्त, श्रेष्ठ रत्नत्रय से सम्पन्न, सघन स्तनोंवाली, पुत्र की कामना रखनेवाली और प्रचुर धनसमूह से सम्पन्न, ( 17 ) वणिक्यर की पुत्री को वे पुत्र दे दिये। और देव-विक्रिया से उत्पन्न मरे हुए बालकों को, अपने जीवन 15. P पई किं। 17. H पहणेसूरि। 18. A णिठणेसइ । (16) 1. AP पुत्त सत्त। 2. AP अण्णत्य। 9. A बुद्धिसोक्तु बुद्धिसोक्खुः वद्विसोक्खु । 1. A छच्चरमदेह। 5. RS जरसेंधही। 6. चे दि। 7. A कयअंगछाय। ४. 5 सुहिसंगमेण 19. A भत्तिहे। 10. PS रिद्धो। II K पुत्तधणियहि । (17) 1. P वणे। 2. । विसेण। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 ] महाकरपुष्पयंतविरयउ महापुराणु [84.17.2 बालई सुरवेउव्वणकयाई महुराहिउ जडु मारइ मयाई। अप्फालइ सिलहि ससंकु झत्ति ण बियाणइ अप्पाणहु भवित्ति । अण्णहिं दिणि पंकयययणियाइ णिसि देविइ मउलियणयणियाइ। करिरत्तसित्तु रुंजंतु घोरु दिट्ठउ सिविणइ केसरिकिसोरु। महिहरसिहराई समारुहंतु अवलोइउ गोवइ ढेक्करंतु'। उययंतु भाणु सियभाणु अवरु सरु फुल्लकमलु परिभमियभमरु। णियरमणहु अक्खिउं ताइ दि? तेण वि णिच्चफ्फलु ताहि सिछु । हलि णिसुणि सुअणफलु' ससहरासि हरि होसइ तेरइ गभवासि। अइमुत्तमहारिसिवयणु ढुक्कु ता मेल्लिवि सग्गु महाइसुक्कु। णिण्णामणामु जो आसि कालि सो देउ आउ गयणंतरालि । थिउ जणणिउवरि संपण्णकुसलु सुहं जणइ णाई णवणलिणि भसलु। पत्ता-सुच्छायइ। 'बाहिरि. आयइ जाणमि पिणा नि कालिय । किं खलमुह अवर वि उररुह पुरलोएण णिहालिय ॥17॥ (18) कि 'गब्भभावि पंडुरिउं वयणु णं णं जसेण धवलियउं भुवणु। 10 की आशा से प्रवंचित मूर्ख मथुराराज मारता है। शंकालु कंस शीघ्र उन्हें चट्टान पर पछाड़ता है। वह अपनी भवितव्यता नहीं जानता। एक दूसरे दिन कमलमुखी, अपनी आँखें बन्द किये हुए देवकी ने रात में स्वप्न में ऐसा एक सिंह का बच्चा देखा जो गजरक्त से रंजित और घोर गर्जना कर रहा था। पहाड़ के शिखर पर चढ़ता हुआ और आवाज करता हुआ वृषभ देखा । उगता हुआ सूर्य और चन्द्रमा देखा। खिले हुए कमलोवाला सरोवर देखा, जिस पर भ्रमर मँडरा रहे हैं। उसने जो देखा था वह अपने पति से कहा। उसने भी उसे उनका निश्चित फल बताया-हले चन्द्रवदने ! स्वप्न फल सुनो। तुम्हारे गर्भवास से हरि का जन्म होगा। अतिमुक्तक महामुनि के वचन निकट आ पहुंचे हैं। तब महाशुक्र स्वर्ग को छोड़कर, जो पहले विनमि नाम का देव था, वह आकाश के अन्तराल में आया और सम्पूर्ण कुशल माँ के उदर में स्थित होकर इस प्रकार सुख देता है, मानो नवकमलिनी में भ्रमर बैठा हो। ___घत्ता-पुत्र की बाहर आती हुई कान्ति से ऐसा मालूम होता था कि दोनों (कंस और जरासन्ध) काले हो गये हैं। नगर के लोगों ने दुष्टमुख उनको (कंस और जरासन्ध को) और उरोजों को काला देखा। (18) क्या गर्भावस्था में उसका मुख सफेद हो गया है ? नहीं, नहीं, यश से विश्व सफेद हो गया है। क्या 3. B"सित्त। 4. 1 ढिक्करंतु। 5. B उवयतु। 6. A पुष्पकमलु। 7.A सुवणु एणसस: सिविणफलुः । सुइणफन्नु । 8. 5 णिपणामु गाम । 9. PAIN. संपुण्ण" | 10. P सुयायए। 11. B बाहिर। 12. S वेणि मि। (18) 1.5 गमभाव। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84.18.121 महाकइपुष्फयंतयिरयज महापुराणु | 77 कि एयउ सइतिवलिउ गया णं णं रिउजयलीहउ हयाउ। सिसुअवयवेहिं कि भरिड पेटु णं णं दुत्थियकुलधणविसर्दु। किं जाबउ णिद्ध' मयच्छिकाउ णं णं हउं मण्णमि भूमिभाउ। किं रोमराइ णीलत्तु पर्ता णं णं खलकित्ति सियत्तचत्त । सीयलु वि उण्हु कि जाउ देहु णं णं किर पुत्तपयाउ एहु। कि माय समिच्छइ नृवपहुत्तु' णं णं तत्तणुजायहु चरित्तु । कि मेइणिभक्खणि इच्छ करइ णं णं तें केसउ धरणि हरइ। किं दुक्कर "तहि सत्तमउ मासु णं णं अरिवरगलकालपासु"। कि उप्पण्णउ भद्दिउ विरोउ ण णं पडिभडकामिणिहिं सोउ। पता. दाणादाणा अणि जगदाणा जणणिइ भरहद्धेसरु। सपया कतिपहावें पुप्फदंतभाणिहिहरु ॥18॥ 10 इय महापुराणे तिसद्विमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुष्फयंतविरइए महाभवभरहाणुमण्णिए महाकब्बे “वासुएबजम्मणं णाम "चउरासीमो परिच्छेउ समत्तो ॥84।। इसके पेट की त्रिवलियाँ समाप्त हो गयीं हैं ? नहीं, नहीं, शत्रु की विजय रेखाएँ मिट गयी हैं। क्या शिशु के अवयवों से पेट उभर आया है ? नहीं, नहीं, दुःस्थितों के लिए कुलधन का पिण्ड है। क्या मृगनयनी का शरीर स्निग्ध हो गया है ? नहीं, नहीं, मैं मानता हूँ, यह भूमिभाग कान्तिमान हो गया है। क्या रोमराजि नीली हो गयी है ? नहीं, नहीं, दुष्ट की कीर्ति ने सफेदी छोड़ दी है। क्या शीतल देह उष्ण हो गयी है ? नहीं, नहीं, यह पुत्र का प्रताप है। क्या माता राजा के प्रभुत्व को चाहती है ? नहीं, नहीं, यह तो उससे उत्पन्न होनेवाले पुत्र का चरित्र है। क्या धरती (मिट्टी) खाने की इच्छा करती है ? नहीं, नहीं, उस केशव के द्वारा धरती का अपहरण किया जाता है। क्या उसका सातवाँ माह आ पहुँचा है ? नहीं, नहीं, शत्रुओं के लिए यह काल का पाश है। क्या यह निरोग भद्रिय (कृष्ण) उत्पन्न हुए हैं ? नहीं, नहीं, प्रतिभटों की स्त्रियों के लिए शोक उत्पन्न हुआ है। पत्ता-राक्षसों का संहार करनेवाले अर्धचक्रवर्ती भरतेश्वर नारायण को माँ ने जन्म दिया जो अपने प्रताप और कान्ति के प्रभाव से नक्षत्रों की शोभानिधि को धारण करता है। प्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महामव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का वासुदेवजन्म नाम का चौरासीवों परिष्छेद समाप्त हुआ। 2.2 किं तामु उयतिव" in second hand. 3. S"धणु। 4. Sपिद्ध। 5. BP पत्तु16. BP सियत्तु चत्तु17. AB णिय": P णिय°18, APS तं तणुः। 9.A'अयउ। 10.5 केस।।1.A गहे। 12. AP °कालयासु। 19. AP ससहावें। 14. A कंसकहतप्पत्ती कसकण्हुप्पत्ती। 15. चउरासीतियो। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 ] महाकइपुप्फयंतविरपज महापुराणु [85.1.1 पंचासीमो संधि केसड' कसणतणु बसुएवें हयणियबसहु। उच्चाइवि लइउ सिरि कालदंडु णं कंसहु ॥ ध्रुवकं ॥ दुबई–णं हरिवंसवंसणवजलहरु णं रिउणयणतिमिरओ'। ____ जोइउ दीवएण हरि मायइ णं जगकमलमिहिरओ ॥ छ । कण्हु मासि सत्तमि संजावउ मारणकखिरु कसु ण "आयउ । हउं जाणमि सो दइवें मोहिउ महिवइलक्खणलक्खपसाहिउ। . लइयउ 'वासुएउ वसुएवं धरि वारिवारणु बलएवें। णिसि संचलिय छत्ततमणियरें ण वियाणिय णिरु करें इयरें। अग्गइ दरिसियतिमिरविहंगिहिं वच्चइ बसहु फुरतहिं सिंगहिं। को वि पराइउ* अमरविसेसउ कालहि कालिहि मग्गपयासउ । देवयचोइइ" आवयकुंठइ लग्गइ माहवचरणंगुष्ठुइ। जमलकवाडइं गाढविइण्णई विहडियाई णं वइरिहि पुण्णई। कुलिसायसवलयंकियपाएं बोल्लिचं सुमहुरु'3 महुराराएं। 10 पचासीवीं सन्धि वसुदेव ने श्यामशरीर केशव को ऊँचा कर सिर पर इस प्रकार ले लिया, मानो अपने वंश का नाश करनेवाले कंस के लिए यमदण्ड हो। (1 ) मानो हरिवंशरूपी बांस के लिए नव जलधर हो, मानो शत्रु के लिए अन्धकार हो। माता ने दीपक के उजाले में हरि को देखा, मानो विश्व-कमल के लिए सूर्य हो। कृष्ण सातवे माह में उत्पन्न हो गये। लेकिन मारने की इच्छा रखनेवाला कंस नहीं आया। मैं जानता हूँ कि उसे दैव ने मोहित कर लिया। राजा के लाखों लक्षणों से प्रसाधित वासुदेव को वसुदेव ने ले लिया। बलराम ने ऊपर छत्र कर लिया। छत्र और तम के समूह के साथ वे रात्रि में चले। कोई दुष्ट इसे नहीं जान सका। आगे-आगे वृषभ अन्धकार के नाश को दिखाता हुआ और चमकते हुए सींगों के साथ चल रहा था। रात्रि के समय मार्ग प्रकाशन करनेवाला जैसे कोई देव विशेष आ गया हो, देवता से प्रेरित और आपत्तियों को नष्ट करनेवाले माधव के पैर का अँगूठा लगते ही मजबूती से लगे हुए दोनों किवाड़ इस प्रकार खुल गये, मानो शत्रु के पुण्य ही विघटित हो गये। (1) I. PS केसबु । 2. Bउच्चाहय । 3. AP हरिवंसकंदणव। 4. P"तमरओ। 5. 1 जोयउ । १. आइ51 7. वासुएयु। 8. 5 संचरिय। 9. AP पाबिर। 10. पण पयासिउ; HP मयापयासिट। 11. P चोइय। 11. A आययकार: B आवयकुंछए। 19. A समहरु। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85.2.8] महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु छत्तालकिड को किर णिग्गइ भासइ सीरि रूसि व सुहदंसणु जो जीव" सो णिग्गउ तुह सोक्खजणेरउ को णिसिसमइ दुवारहु लग्गइ" । जो तुह "णिविडणियलविद्धंसणु । "पोमवइकरमरिमेल्लावष्णु | उग्गसेण नृव" अच्छहि सेरउ । घम - एम्व भणंत गय ते हरिसें कहिं मि ण माझ्य । सरहु णीसरिवि जउणाणइ झत्ति पराय ||1|| (2) दुबई - ता कालिंदि तेहिं 'अवलोइय मंथरवारिगामिणी । णं सरिरुवु धरिवि थिय महियलि घणतमजोणि जामिणी ॥ छ ॥ अंजणगिरिवरिंदकंती विव । बहुतरंग 'जरहयदेहा इव । कंसरायजीवियमेरा इव । णारायणतणुपपंती वि महिमयणाहिरइयरेहा इव महिहरदतिदाणरेहा इव वसुहणिलीणमेहमाला इव णं सेवालवाल दक्खालइ गेरुतु तोउ रतंबरु "साम समुत्ताहल बाला' इव । फेणुपरियणु णं तहि घोला । णं परिहइ चुयकुसुमहिं कब्बुरु" । [ 79 15 5 कुलिश, अंकुश और वलय से अंकित पैरोंवाले मथुराराज ( उग्रसेन) ने मधुर स्वर में पूछा - "छत्र से शोभित वह कौन जा रहा है, कौन रात के समय दरवाजे से लग रहा है ?" चन्द्रमा के समान शुभदर्शन बलराम बोलते हैं- " जो तुम्हारी गाढ़ी श्रृंखलाओं को ध्वस्त करनेवाला है, जो जीवंजसा के पति का नाश करनेवाला, पद्मावती के हाथों की जंजीरों को तोड़नेवाला है और तुम्हारे लिए सुख उत्पन्न करनेवाला है, वह निकल रहा है। हे उग्रसेन ! तुम चुप रहो।" बत्ता - ऐसा कहते हुए वे चले गये। हर्ष के मारे कहीं भी फूले नहीं समाये । नगर से निकलकर शीघ्र ही यमुना नदी पर पहुँचे । (2) मन्थर-मन्थर जल से बहनेवाली कालिन्दी नदी (यमुना ) को उन्होंने इस प्रकार देखा, मानो सघन अन्धकार से उत्पन्न होनेवाली यामिनी ही नदी का रूप धारण कर धरणीतल पर स्थित हो। वह (यमुना ) नारायण (कृष्ण) के शरीर की प्रभापंक्ति के समान, अंजनगिरिरराज की कान्ति के समान, कस्तूरी के द्वारा रचित रेखा के समान, वृद्ध देह के समान अनेक तरंगोंवाली, पहाड़ी गजों की दानरेखा के समान, राजा कंस की जीवन-मर्यादा के समान, धरती में व्याप्त मेघमाला के समान, मोतियों सहित श्याम बाला के समान थी। मानो वह अपने शैवाल रूपी बाल दिखा रही है, मानो उस पर फेन का दुपट्टा डाल रही है। गेरु से मिला जल उसका रक्त 14. A 15 A लग्गउ 16. B णिचडशियल | 17. AP विद्दारणु। 18. ABPS करिमरि 19. AP णिव: B णिदु । ( 2 ) 113 पविलोम । 2 । सरिरु । 3. AP resud 4 bas 54. A जलहरदेश: P जलधरवेला AP read 5a as 4 b 6 A सोम । N. AP रत्ततोय रतंवर 9 AP कचुर B कच्छुरु । 7. AB Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 800 महाकइपुप्फवंतविरयड महापुराणु [85.2.9 10 किणरिथणसिहरई णं दावइ विभमेहिं णं संसउ भावइ। फणिमणिकिरणहिं णं उज्जोयइ कमलच्छिहिं णं कण्ह पलोयड। भिसिणिपत्तथालेहि सुणिम्मल "उच्चाइय णं जलकणतंदुल। खलखलंति णं मंगलु घोस णं माहवहु पक्ख्नु सा पोसइ । णउ कासु वि सामण्णहु अण्णहु अवसें तूसइ जवण "सवण्णहु । बिहिं "भाइहिं थक्कउ तीरिणिजलु णं "धरणारिविहत्तउं कज्जलु । धत्ता–दरिसिउं ताइ तलु कि जाणहुं णाहहु रत्ती। पेक्खिवि महुमहणु मवणे णं "सरि वि विगुत्ती" ॥2॥ दुवई–णइ उत्तरिवि जाव थोवंतरु जति समीहियासए। दिवउ णंदु तेहिं सो पुच्छिउ णिक्कुडिलं समासए ॥ छ । महु कंतइ देवय ओलग्गिय धूय ण सुंदरु' पुत्तु जि मग्गिय। देविइ दिण्णी सुय किं किज्जइ तहि केरी लइ ताहि जि दिज्जइ । जइ सा तणुरुहु पडि महुं देसइ तो पणइणिहि आस पूरेसइ। णं तो गंधधूवचरुफल्लई चारुभक्खरूवाई रसिल्नई। वस्त्र है, गिरे हुए फूलों से मानो वह चितकबरा वस्त्र पहिन रही है। मानो वह किन्नरियों के स्तनों को दिखा रही है, मानो जलावर्तों से अपना संशय प्रकट कर रही है। नागराज की मणिकिरणों से मानो आलोक कर रही है। कमलों की आँखों से मानो कृष्ण को देख रही है। मानो जिसने कमलपत्रों की थालियों के द्वारा निर्मल जलकणरूपी तन्दुल उठा लिये हैं। खल-खल करती हुई मानो वह मंगल की घोषणा कर रही है, मानो माधव के पक्ष का समर्थन कर रही है कि यमना किसी दूसरे सामान्य मनुष्य से नहीं, अपित अपने सवर्ण (समान वर्णवाले) मनुष्य से अवश्य संतष्ट होगी। नदी का जल दो भागों में विभक्त होकर स्थित हो गया. मानो धरतीरूपी स्त्री का काजल दो भागों में विभक्त हो गया हो। घत्ता-उसने मानो अपना तलभाग दिखा दिया है। हम जानते हैं कि वह अपने स्वामी में अनुरक्त है। मधुमथन (कृष्ण) को देखकर मानो काम के द्वारा नदी तिरस्कृत की गयी हो। (3) नदी उतरकर (पार कर), अपनी चाही हुई इच्छा के अनुसार जैसे ही वे थोड़ी दूर पर जाते हैं, उन्हें नन्द दिखाई दिये। उन्होंने निष्कपट भाव से थोड़े में उनसे पूछा । (नन्द कहते हैं)-मेरी पत्नी ने देवी की सेवा की थी, कन्या सुन्दर नहीं होती इसलिए उसने पुत्र माँगा था। परन्तु देवी ने पुत्री दी, उसका क्या किया जाय ? उसकी कन्या उसी को दी जाय। यदि वह फिर से मुझे पुत्र देगी, तो मेरी प्रियतमा की आशा पूरी 10. A भटहरू। 11. D उज्जोषई। 12.8 पलोबइ। 19A उच्चायइ। 14. P मोसइ। 15. A समण्णहो। 16. RS भावहिं। 17. A धरणारिहि हित्तउं: P घरमारिशिहित्त। 18. A तणु। 19. A महणु णं मवणेण व सरी निव गुत्ती। 20. Pणं व सरि वि। 21. B विगुत्ती। (3) I. A सुंदर। 2. B2 °धूमः। 3. B"रूआई। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85.4.4 1 महाकपुप्फयंतविरयउ महापुराणु देमि ताम जा देवि णिरिक्खमि लइ लड़ लच्छिविलासरवण्णउ भति" म करहि काई मुहु जीवहि ता हियउल्लइ गंदु वियप्पइ लेमि पुत्तु किं पउरपलावें एम "चवेपि अप्पिय बाली लउ वि सादें णंदें हुउ सकयत्थउ गउ सो गोउलु ता हलहेइ भइ सुणि अक्खमि । एहु पुत्तु तुह देवि दिण्णउ । मेरइ करि तेरी सुय ढोयहि । परवेसेण भडारी जंपड़ । परिपालमि सणेहसमावें । बलकरकमलि कमलसोमाली । मेहु व जालिंगियउ गिरिंदें । जणय' तणय पड़िआया राउलु । घन्ता - सुय छणससिवयण देवइयहि पुरउ णिवेसिय । केण वि किंकरिण णरणाहरु वत्त समासि ॥ ॥ (4) दुवई - पुरणहहंस कंस परधरिणिविलंबिरहारहारिणा । जाया पुत्ति देव गुरुघारिणिहि वइरिणि 'मलयदारुणा ॥ छ ॥ तं णिसुणेपिणु णरवइ उडिउ जाइवि ससहि णिहेलणि संठिउ । तेण खलेण दुरियवसमिलियहि कुंडु जायहि णं अंबयकलियहि । [ 81 10 15 होगी और नहीं तो गन्ध, धूप, नैवेद्य और पुष्प तथा सुन्दर रसीले खाद्यरूप देवी को दूँगा जब उसे देखूंगा । तब बलराम कहते हैं- "सुनो, मैं बताता हूँ । लो ! लो ! लक्ष्मीविलास रमणीय यह पुत्र । यह तुम्हें देवी दिया है। तुम भ्रान्ति मत करो। मुख क्या देखते हो, मेरे हाथ में तुम अपनी पुत्री दे दो ।" इस पर नन्द अपने मन में विचार करते हैं कि यह मनुष्य के रूप में देवी ही बोल रही है। मैं पुत्र ग्रहण कर लेता हूँ । चहुत बकवास से क्या, स्नेह और सद्भाव से इसका परिपालन करूँगा। यह विचारकर उसने बालिका सौंप दी - कर-कमलोंवाली और कमल के समान सुकुमार । नन्द ने आनन्द से विष्णु (कृष्ण) को ले लिया, जैसे गिरीन्द्र ने मेघ का आलिंगन किया हो। वह कृतार्थ होकर गोकुल के लिए चला गया। वसुदेव और बलराम राजकुल में वापस आ गये। घत्ता - उन्होंने पूर्णिमा के चन्द्रमा ने राजा से यह बात कह दी। समान मुखवाली कन्या देवकी के सम्मुख रख दी। किसी अनुचर (4) हे नगररूपी आकाश के सूर्य कंस ! पर स्त्रियों के लटकते हुए हार को ग्रहण करनेवाले वसुदेव के द्वारा गुरुगृहिणी (देवकी) से शत्रुकन्या उत्पन्न हुई है । यह सुनकर राजा उठा और जाकर बहिन के घर में स्थित हो गया। उस दुष्ट ने पाप के वश से मिली हुई, शीघ्र उत्पन्न हुई, आम्रकलिका के समान कोमल और सरल J. S दिए। . Aumits म and reads करेहि livr करहि । 6. AP मणेपिणु। 7. PS चरकरकमलि 8 Als सुकन्यagainst Mss. 9. As जणण नग्य। (4) 1 A दलवदारुणाः पतयासी । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 | [85.4.5 महाकइपुष्फयंतबिरयर महापुराणु तलहत्थें सरलहि कोमलियहि चप्पिवि णासिय दिल्लिदिलियहि । रूवु' विणासिवि' सुटु रउद्दे भूमिमवणि घल्लाविय खुद्दे। सरसाहारगासपियवायड तहिं मि धीय वडारिय मायइ। हूई णवजोब्बणसिंगारें भज्जइ णं टस ति धणभारें। सुव्वयखंति सधम्म समीरइ आउ जाहुं सुंदरि' तउ कीरइ। णासाभंगें रू" विणट्ठउं "जाणिवि सा दप्पणयलि दिछउँ । णिग्गय गय वयधारिणि होइदि' थिय काणणि ससरीरु पमाइवि। धोयई धवलंबरई णियथी जिणु झायंति पलंबियहत्थी। कुसुमहिं मालिय 'चडहिं मि पासहिं पुज्जिय णाहलसमरसहासहि।। घत्तागय ते णियभवणु "एक्काल्ली कण्ण णिरिक्खिय। ___ अरिहु सरंति मणि वणि भीमें बम्बें भक्खिय ॥14॥ 10 15 दुवई-गय सा णियकएण सुरवरघर' अमलिणमणिपवित्तयं । उपरिवं कह पि अलियल्लहि तीए करंगुलित्तयं ॥ छ । तं पुजिउं णाहलकुलवाले' कुहियां सडियउं जंतें कालें । बालिका की नाक अपने हाथ से चपटी कर दी। उस भयंकर क्षुद्र ने उसका रूप बुरी तरह नष्ट कर उसे तलघर में डलवा दिया, परन्तु माता ने वहाँ भी सरस आहार के कौर और मीठी वाणी से उस कन्या को बड़ा कर लिया। नवयौवन की शोभावाले स्तनों से वह तिलभर भी भग्न नहीं हुई। आर्या सुव्रता उसे स्वधर्म की प्रेरणा देती है कि आओ चलें, हे सुन्दरी ! तप किया जाय। यह जानकर कि नाक के नष्ट हो जाने से उसका रूप चौपट हो गया है, बालिका ने दर्पण देखा। वह व्रतधारिणी होकर, निकलकर चली गयी। बन में कायोत्सर्ग से स्थित हो गयी। धुले हुए वस्त्रों को पहिने हुए हाथ ऊँचे किए हुए बह जिनदेव का ध्यान करने लगी। वह चारों ओर से फलों से लाद दी गयी और-भीलों तथा शबरों ने उसकी पूजा की। __ घत्ता-वे लोग अपने-अपने घर चले गये। कन्या अकेली वहाँ असुरक्षित रह गयी। वन में अर्हन्त भगवान का स्मरण करती हुई उसे बाघ ने खा लिया। अपने किए हुए पुण्य से, वह स्वर्ग गयी। परन्तु निर्मल मणि के समान पवित्र हाथ की तीन अँगुलियाँ किसी प्रकार बच गयीं। भील-कुलों के पालकों ने उनकी पूजा की। समय बीतने पर उक्त अँगुलियाँ सड़ 2. P दिण्णेदिलियहो। 3. P काउं। 4.दिणासबि। 5. B दसत्ति। 5. AP सुधम्म। 1. A सुंदरू | H.P रूट19. जाणवि। 10. Dणिग्गय सायक। 1.5 होयचि। 12.5 एमाषयि। 15. A घोइयधवलंबर । 14. B चउहं मि; S चहुं मि। 15. BPS "सवर | 16. B एकल्ली। (5) 1. A "वस्मभलिण: । घोर अमलिण: P"यस धरुपमलिण: "घरममक्षिण | 2. B उद्वरियं । 9. PS कहिं पि। 4. B कुलबालेंPकुलपालें। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85.6.2 महाकइपुप्फयंतविरयट महापुराणु अंगुलियाउ ताहि संकप्पिवि गंधफुल्लचरुयहिं मणमोहें दुग्ग विझवासिणि तहिं हूई एतहि केस माणियभोयहि णं मंगलणिहिकल मणोहरु तातो दामोयरु दुत्थियचिंतामणि " अरिणरमहिहरिंदसोदामणि पविउलभुवर्णभोरुहदिणमणि 3 fatus णाहु पसारियहत्वहिं 'लक्कड लोह" विरइउ' थप्पिवि । पुणु तिसूलु पुज्जिउ सवरोहें। मेसहं महिसहं णं जमदूई । दें "जाइवि दिष्णु जसोयहि । सुहिकरकमलहं णं इंदिदिरु । छज्जइ "माहउ माहउ जेहछ । समरगहीरवीरचूडामणि । जणवसियरणकरणविज्जामणि । विवि" पुत्तु हरिसिय गोसामिणि । गंदगोवगोवालिणिसत्थहिं । धत्ता - गाइउ "कलरवहिं आलाविउ ललियालावहिं । ass महुमहणु" कइगंधु जेम रसभावहिं ॥5॥ (6) दुवई - धूलीधूसरेण 'वरमुक्कसरेण तिष्णा मुरारिणा । कीलारसवसेण गोवालयगोबीहिययहारिणा छ ॥ 5. 5 लक्कुड़। . BP "लोहें। 7. विषय ४ AP गंधधूयचरू: BS गंधपुष्पच after 11 अणुदिणु परिणिवसद्द सुहियणमणि। 13. A भवभो। 14. P णिएवि (6)1. A दरमुक्क' 5 बरमुक्कु । [ 83 5 10 15 गयीं। शबर समूह ने लकड़ी और लोहे से निर्मित उसकी अंगुलियों को संकल्पित और स्थापित कर उनकी तथा त्रिशूल की भी गन्ध-पुष्प और नैवेद्य से पूजा की। वहीं विन्ध्यवासिनी दुर्गा उत्पन्न हुई जो मानो मेढों और भैंसों के लिए यमदूती थी । वहाँ पर नन्द ने केशव (कृष्ण) को भोगों के लिए मनानेवाली यशोदा को दे दिया, मानो वह मंगलनिधियों का सुन्दर कलश हो, मानो सुधियों के कर-कमलों पर भ्रमर हो, मानो स्तनरूपी घड़ों पर तमालपत्र हो । माधव (कृष्ण) माधव (विष्णु) के समान शोभित हैं। दामोदर दुस्थितों के लिए चिन्तामणि हैं, युद्ध में गम्भीर श्रेष्ठ योद्धा हैं, शत्रुरूपी महीश्वरों के लिए सौदामिनी (बिजली) हैं, लोगों को वश में करने के लिए विद्यामणि हैं और विशाल विश्वरूपी कमल के लिए सूर्य हैं। पुत्र को देखकर माँ हर्षित हो उठी । नन्दगोप और ग्वालिनों का समूह हाथ फैलाकर स्वामी को ग्रहण करता है। घत्ता- कलरवों में गाये गये सुन्दर आलापों में आलापित किये गये मधुमथन (कृष्ण) उसी प्रकार बढ़ने लगते हैं, जिस प्रकार रसभावों से कविग्रन्थ । (6) धूल-धूसरित श्रेष्ठ मुक्त स्वरवाले तथा गोप-गोपियों के हृदय को चुरानेवाले मुरारी ने क्रीड़ा-रस के बहाने 9 5 केस 10. P जायवि। 11. 5 माह माहवु 12. B adds 15. APS घेप्पड़ 16. BP कलरवेहिं 17. A महमहणु। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 ] महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [85.6.3 रंगतेण रमंतरमंतें मंथउ धरिउ भमंतु अणतें। मंदीरउ तोडिवि आवट्टिउं अद्धविरोलिउ दहिउं पलोट्टिउँ। का वि गोवि गोविंदहु लग्गी एण महारी मंथणि भग्गी। एयहि मोल्नु' देउ आलिंगणु णं तो मा मेल्लहु मे पंगणु। काहि वि गोविहि पंडुरु' चेलउं हरितणुतेएं जायउं कालऊं। मूढ' जलेण काई पक्खालइ णियजडत्तु सहियहिं' दक्खालइ। थण्णरहिच्छिरु छायावतउ "मायहि संमुहू परिधावंतउ। । महिससिलंवउ' हरिणा" धरियउ 'ण करणिबंधणाउ णीसरियउ। दोहउ दोहणहत्थु समीरइ मुइ मुइ माहव कीलिउं पूरइ। कत्थइ अंगणभवणालुद्धउ "बालबच्छु बालेण णिरुद्धउ। गुंजाझेंदुयरइयपओए मेल्लाविउ दुक्खेहिं 1 जसोएं। कत्थइ लोणियपिंडु णिरिक्खिउ कण्हें कंसहु णं जसु भक्खिउं। घत्ता-पसरियकरयलेहि सइंतिहिं 2"सुइसुहकारिणिहिं।। भांद्दइ णियाई थिए घरयम्मु ण लग्गइ णारिहिं ॥6॥ चलते-चलते घूमती हुई मथानी पकड़ ली और लोहे की साँकल को तोड़कर फेंक दिया। अधबिलोया दही उलट दिया। कोई गोपी गोविन्द के पीछे लग गयी कि इसने मेरी मथानी तोड़ दी है। इसका मूल्य ये मुझे आलिंगन दें, या फिर मेरे आँगन को न छोड़ें। किसी गोपी का सफेद वस्त्र कृष्ण के शरीर की कान्ति से काला हो गया। वह मूर्ख जल से उसे धोती है और इस प्रकार अपनी मूर्खता सखियों को बताती है। दूध के स्वाद की इच्छा रखनेवाले भूखे, माँ के सम्मुख दौड़ते हुए भैंस के बच्चे को कृष्ण ने पकड़ लिया। यह उनकी हाथ की पकड़ से नहीं निकल पाता है। दुहनेवाला दुहने का पान हाथ में लिये हुए प्रेरित करता है। (कृष्ण से कहता है)-खेल पूरा हो गया, हे माधव इसे छोड़ो। कहीं आँगन में भवन के लोभी छोटे से बछड़े को बालक ने रोक लिया। तब यशोदा ने घुघची की गेंद के प्रयोग द्वारा बड़ी कठिनाई से उसे छुड़ाया। वहीं कृष्ण ने नवनीत का पिण्ड रखा देखा और उन्होंने कंस के यश के समान उसे खा लिया। ___घत्ता-कानों को सुन्दर लगनेवाले मधुर स्वरों में गाती हुईं और हाथ फैलाई हुई स्त्रियों का (कृष्ण के निकट रहने पर) गृहकार्य में मन नहीं लगता। 2.जाबाद। 3. A भाँपणि S प्रत्याग : 1. " मुल्ल। 5.AA पेलार घरपंगणुः महु पंगणुः 5 मेल्लऊ ये पंगणु। 6. पंडरु। 7.A मूद्धि। . B का चि। 9. AS राहियह सहियहुं। 10. मायए। 11. ABPS महिसि । 12. BP "सिलिंबध। 13. A सिसुणा। 14. Pण करबंधणार। 15. " त्रवन पथ । HAI "झिंडुज। 17. A'S Tओपए। 18. APS जसोयाए। 19. A 'करयलई सरहिं। 20. P हिसुह121. APS 'कारिहि । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85.7.14 | महाकइपुप्फयंतवियर महापुराणु ( 7 ) दुवई - उ भुजति गीव कयसंसय णिज्जियणीलमेहई । केस कायकतिपविलित्तई दहियई अंजणाहई । छ । । घयभायणि' अवलोइवि' भावइ पियपडिबिंबु विठु बोल्लावइ । हसइ पंदु लेप्पिणु अवरुडइ तहु उरयलु परमेसरु मंडई | अम्माहीरएण तं दिज्जइ निधइयउ परियंदिज्जइ । हल्लस हल्ल जो जो भण्णइ तुज्झु पसाएं होस उष्णइ । हलहरभायर वेरिअगोयर तुहुं सुहुं सुयहि देव दामोयर । तहु घोरं हयतु गज्जइ सुत्तविरुद्ध ण केण लइज्जइ । पुहणाहु किर कासु ण वल्लहु अच्छउ णरु सुरहं मि सो दुल्लहु । वियलियपयकिलेससंतायें पसरतें तहु पुण्णपहावें । महुहारि सांग" कंदइ " । सिविणंतरि भग्गइं णिवछत्तई । विणएण नियच्छिउ । णाम आउच्छिउ ॥7॥ दहु के मोडलु ांत" महि कंपइ पडंति गक्खत्तई धत्ता - णियवि 14 जलति दिस कंसें जो सत्थणिहि दिउ वरुणु [ 85 5 7. AP Als. सुतु विउ B उड्छु विरुद्ध 8. B केण वि 14. Pगिएव । 15 A णारं । 10 { } कृष्ण की देह की कान्ति से विलिप्त, मेघों को भी जीतनेवाले, अंजन के समान काले दही में संशय करते हुए गीप उसे नहीं खाते। घी के बर्तन में अपना प्रतिबिम्ब देखकर कृष्ण को अच्छा लगता है, विष्णु उसे बुलाते हैं। यह देखकर नन्द हँसते हैं और लेकर बालक का आलिंगन करते हैं। उनके वक्षस्थल पर कृष्ण शोभित हैं। 'जो-जो' की लोरी सुनकर वह सोते हैं और नींद से उठने पर हाथों-हाथ लिये जाते हैं। तुम्हारे प्रसाद से उन्नति होगी। हे शत्रुओं के लिए अगोचर हलधर के भाई दामोदर आज सुख से सोएँ । उनके घुर घुर करने पर आकाश गरज उठता है । सोकर उठने पर वह किस-किसके द्वारा नहीं लिये जाते ! ( अर्थात् उसे सभी लेते हैं) पृथ्वीनाथ भला किसके लिए प्रिय नहीं हैं ! मनुष्य की बात छोड़िए वह देवताओं के लिए भी प्रिय हैं। प्रजा के क्लेश और सन्ताप को नष्ट करनेवाले उनका पुण्य प्रभाव फैलने पर नन्द के गोकुल में आनन्द मनाया जाता है; जबकि मथुरा की स्त्रियाँ मरघट में विलाप करती हैं, धरती कौंपने लगती है, नक्षत्र टूटने लगते हैं। स्वप्न में राजा कंस का नृपछत्र भंग हो जाता है । घत्ता - दिशाओं को जलते हुए देखकर कंस ने विनयपूर्वक, ज्योतिषशास्त्र के निधि वरुण नाम के द्विज से पूछा (7) 1. B भाइणि 2. अगलोयवि: S अबलोवइ । 3. AP णंदिज्जइ । 4. AP परिअंदिज्ज। 5. AP बइरियगोयर 5 वइरिअगोयर 6 A गयलु । . P सुदुल्लहु 10. P गंदउ 11 P मसालाहि 12. A कंदज। 13. ABP निवछत्तई । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 | महाकड्पुप्फयंतविरयउ महापुराणु [85.8.] दुवई-भणु भणु चंदवयण जइ जाणसि' जीवियमरणकारणं । मह कह विहिवसेण इह होही असुहसुहावयारणं ॥ छ ॥ किं उप्पाय जाय कि होसइ तं मिसुणावे गिपारा धोस । तुज्झु णराहिब बलसंपुण्णउ' गरुयउ' को वि सत्तु उप्पण्णउ । ता चिंतवइ कंसु हयछायउ हउ जाणमि' असच्चु रिसि जायउ। हउं जाणमि सससुय विणिवाइय हर्ड आणमि महुँ अस्थि ण दाइय। हउं जाणमि महिवइ अजरामरु हउं जाणमि अम्हह' किर को परु। हउं जाणमि पुरि महु ण णासइ णवर कालु के किर ण गवेसइ । इय चिंतंतु जाम विदाणउ तिलु तिलु झिज्जइ हियवइ राणउ। सव्वाहरणविहूसियगत्तउ ता तहिं देवियाउ संपत्तउ। ताउ भणति भणहि किं किज्जड को रुधिवि बंधिवि आणिज्जड।। को" मारिज्जइ को वसि किज्जइ किं वसि करिवि वसुह तुह दिज्जइ। हरि बल मुएवि कहसु को जिप्पइ को लोहिवि दलवट्टिवि धिप्पइ। घत्ता-भणइ णराहिवइ रिउ कहिं मि एत्थु मह अच्छा। सां तुम्हई" हणहु तिह जिह' जमणयरहु गच्छई ॥8॥ 10 15 "हे चन्द्रमुखि ! बताओ, यदि तुम जीवन और मृत्यु का कारण जानते हो। बताओ, मुझे शुभ और अशुभ की अवतारणा किस प्रकार होगी ? यह क्या उत्पात हो रहा है ? क्या होगा ?" यह सुनकर ज्योतिषी कहता है-'हे नराधिप ! तुम्हारा बल से परिपूर्ण कोई महान् शत्रु उत्पन्न हो गया है।" तब क्षीण-कान्ति कंस विचार करता है-'मैं समझता था कि मुनि का कहा हुआ झूठ हो गया। मैं जानता था कि बहिन के पुत्र मारे गये। मैं जानता था कि मेरा अब कोई दुश्मन नहीं है। मैं जानता था कि राजा अजर-अमर है। मैं जानता था कि मेरा बैरी कौन हो सकता है। मैं जानता था कि मेरी नगरी नष्ट नहीं होगी। लेकिन नहीं, काल किसे नहीं खोजता?' यह सोचते हुए जब वह दुखी हो उठा, और अपने हृदय में तिल-तिल जलने लगा, तब सब प्रकार के आभरणों से अलंकृत देहवाली देवियाँ वहा आयीं। वे बोली, "बताओ हम क्या करें, किसे रोककर बाँधकर लाएँ, किसे मारा जाये, किसे वश में किया जाए ? क्या धरती वश में कर तुम्हें दी जाए ? बलभद्र और नारायण को छोड़कर, कहो किसे जीता जाए ? किसे लुण्ठित और चकनाचूर किया जाए ? किसे पकड़ा जाये ? छत्ता-राजा कंस कहता है-“यहीं कहीं मेरा शत्रु है, तुम लोग उसे इस प्रकार मार डालो कि जिससे यह बमनगरी के लिए चला जाए।" (8) 1. A जाणस। 2. महु कइया भविस्सिही णिन्छिक असुझरणायचारण ! मह कश्या भविस्सिहीदि पिच्छर असुहरणावयारण; 3. ASणैमित्तिक । 1. AR "संपणाउ।5. गरुय 51646415 जाणवि throughout. 7. AP अम्हहं को किर परु। 3. ABPS कि किर। 9.Aछिज्जई 10. A ता चति विउ मिगणेत।।1. A सरहि वि दिनद को मारिजइ सरेहिं विहिज्जा को मारिज्जई। ।५. AP रिङ एथ् कहिं मि,5रि कहि विएत्यु। FA तुम्हह हणह। 11. Sजिय। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85.9.20] महाकपुष्कयंतविरयउ महापुराणु (9) दुवई -- कहियं देवियाहिं जो गंदणिहेलगि यसइ बालओ ।। ( 9 ) मायाजोइणि; सो पई णिव भंति के दिवसु वि मारइ मच्छरालओ । छ।। ता तहिं अवसरि मायासें । धाइय जोइणि । गय तं गोउलु । णवमहु कहहु । झत्ति पिसण्णी । जाणिइ अरिवरि कंसाएसें बल मायाविणि चच्छरवाउलु जयसिरितण्डु पासि पवण्णी पभइ पूयण पियगरुडद्धय दुद्धरसिल्लउ तं आयण्णिवि चुयपयiदुरि हरिणा णिहियचं णं सरिमंडलु सुरहियपरिमलु सिकल सुपरि कडुएं खीरें जणणि ण मेरी जीवियहारिणि हे? महुसूयण । आउ धणद्धय । पियहि धणुल्लउ । चंगउं मणिवि । ओहरि । वयणु * राहुं गहिय ं । सोहइ धणयतु । णं पीलुप्लु । विभिउ मणि हरि । जाणिय वीरें। विप्पियगारी । रक्खसि इरिणि । [ 87 5 10 15 20 } तब देवियों ने कहा - " नन्द के घर में जो बालक रहता है, हे राजन् ! इसमें सन्देह नहीं, एक दिन ईर्ष्या से भरा हुआ वह तुम्हें मारेगा।" शत्रुवर को जान लेने पर उस अवसर पर कंस के आदेश से मायावी रूप में बलयुक्त योगिनी दौड़ी और बछड़ों स्वर से संकुल गोकुल में पहुँची। वह विजय और लक्ष्मी के आकांक्षी नौवें नारायण कृष्ण के पास गयी और पास में बैठ गयी। पूतना कहती है- "हे मधुसूदन ! हे गरुड़ध्वज ! हे पुत्र ! दूध से रिसते मेरे स्तन को पी लो।" यह सुनकर और अच्छा समझकर, गिरते हुए दूध से सफेद स्तन में उन्होंने मुख दिया, मानो राहु द्वारा ग्रस्त चन्द्रमण्डल हो । वह स्तनमण्डल ऐसा शोभित हो रहा था, मानो सुरभित परिमलवाला नीलोत्पल हो जो श्वेत कलश पर रखा हुआ है। अपने मन में विस्मित हुए हरि ने कडुए दूध से जान लिया कि यह मेरी माँ नहीं है, यह तो कोई बुरा करनेवाली, जीवन का अपहरण Kणित 2. AP अहो 3. P पनोहरे । 4. P राहु व 5.5 विभिउ । 6. P वयरिणि; S बेरिणि 7 A adds alter 20 b क्रूरवियारिणि, adds it in second hand. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [85.9.38 25 महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु अज्जु जि मारमि पलउ समारमि। इच चिंततें रोसु वहतें। माणमहंतें भिउडि करतें। लच्छोकतें देवि अपंतें। पीडिय. "मुहिक हामिय: दिट्टिइ.५ तज्जिय थामें णिज्जिय। अणु वि ण मुक्की णहहिं विलुक्की। खलहि रसंतहि सुण्णु" हसंतहि। भीमें बालें कयकल्लोलें। लोहिडं सोसिउं पलु आकरिसिउं। दाणवसारी भणइ भडारी। हिवरुहिरासव मुइ मुइ केसव। गंदाणंदण मेल्लि जणइण। कंसु ण सेवमि रोसु" ण दावमि। जहिं तुहं अचाहि कील समिच्छहि। तहिं णउ 'पइसमि छ लु ण गवेसमि। यत्ता-इय रुयति कलुणु कह कह व "गोविंदें मुक्की गय देविच कहिं मि पुणु णंदणिवासि" ण ढुक्की ॥७॥ करनेवाली दुष्ट राक्षसी है। इसे मैं आज ही मारता हूँ, प्रलय प्रारम्भ करता हूँ। यह सोचते हुए और क्रोध करते हुए, मान से महान् भौहें चढ़ाते हुए लक्ष्मीकान्त अनन्त ने उस देवी को दांतों से पीड़ित किया, मुट्ठी से प्रताड़ित किया, दृष्टि से डाँटा और शक्ति से जीत लिया । अणु बराबर भी उसे नहीं छोड़ा। वह आकाश में छिप गयी। क्रीड़ा करते हुए उस भीम बालक ने दुष्ट बोलती हुई, शून्य में हँसती हुई उसका मुख सोख लिया, मांस खींच लिया। तब दानवीश्रेष्ठ वह बेचारी कहती है, "हे केशव ! हृदय के रुधिरासव को छोड़ो, नन्द को आनन्द देनेवाले हे जनार्दन ! मुझे छोड़ दो, मैं कंस की सेवा नहीं करूंगी, क्रोध नहीं दिखाऊँगी, जहाँ तुम रहते हो और क्रीड़ा करते हो, वहाँ मैं प्रवेश नहीं करूँगी, छल नहीं करूंगी। __घना--इस प्रकार करुण रोती हुई उसे गोविन्द ने बड़ी कठिनाई से छोड़ा। वह देवी अन्यत्र चली गयी। और फिर कभी नन्द के निवास स्थान पर नहीं आयी। 1. Sमार्गच, माठि . Pमाग मंत। 2. B दंतिस्।ि 11. BP हिहि मुहिए। 12. B दिद्रिय। 13. AP खण वि। 14. Pणीहें। 15. AP तहि असहि । 16.5दोरा। 1.5 गांधि। H. Sनजसपासधि।।9. APS । 20. APS गया। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85.10.19] महमकइपुष्फबपर महापुराण 1 89 (10) 5 दुवई-यरकाहलियबसरवबहिरिए' पाइयगेयरससए। रोमंथंतथक्कगोमहिसिउलसोहियपएसए' ॥ छ । अण्णहिं पुणु दिणि तहिं णियपंगणि। जणमणहारी रमइ मुरारी। घोट्टइ खीर लोट्टइ गीरं। भंजइ कुंभं पेल्लइ डिभं। छंडई' महियं चक्खइ दहियं। कहइ चिच्चि धरइ चलच्चि । इच्छइ केलिं करइ दुवालि। तहिं अवसरए कीलाणिरए। कवजणराहे पंकयणाहे। रिउणा सिट्टा देवी दुट्ठा । अवरा घोरा सयडायारा। पत्ता गो९ गोवइइ8।। चक्कचलंगी दलियभुयंगी। उप्परि एंती पलउ करती। दिवा तेणं महुमहणेणं । पाएं पहया णासिवि' विगया। रविकिरणावहि अवरदिणावहि"। (10) जो श्रेष्ठ काहल और बाँसुरी के शब्दों से वधिर है, जिसमें सैकड़ों रसपूर्ण गीत गाये जा रहे हैं, जो जुगाली कर बैठी हुई गाय-भैंसों के कुल से शोभित है, ऐसे अपने प्रांगण में एक दिन जनमन के लिए सुन्दर मुरारी क्रीड़ा करते हैं। दूध गिराते हैं, पानी लुढ़का देते हैं, घड़ा फोड़ देते हैं। दही चखते हैं, आग निकालते हैं, उसको ज्वाला पकड़ते हैं, क्रीड़ा की इच्छा करते हैं, गोलाकार बनाते हैं। उस अवसर पर, लोगों की शोभा बढ़ानेवाले कमलनाथ श्रीकृष्ण जब खेलने की इच्छा करते हैं, तब शत्रु द्वारा निर्मित एक और भयंकर दुष्ट देची शकट के आकार में, नन्द की अत्यन्त प्रिय गोठ पर पहुँची। चक्कों के समान चलते हुए अंगोंवाली, साँपों को कुचलती हुई, ऊपर आती हुई, प्रलय मचाती हुई उसे मधुमथन कृष्ण ने देखा। पैर से आहत किचा, वह नष्ट होकर सूर्य की किरणों के मार्ग से भाग खड़ी हुई। (10) 1. A"काहलेच; 15 काहिलय 12.AP गाहयगोयराए। 9. B रोमंधक्कबहुलगो। 4. पहिलीउल पहिसिडले । 5. A अग्णहिं मि दिणे; Pअपि दिणे। HAP प्णियभवगे। 7. PS | R. A वलाच्च। 9. B केली। 10. B दुवाली; PS दुबालि। 1.गोपा। 12. BS यंती। 1. महमहणेण। 14. पापण हया। 5. Pणासेवि गया। 16. P"किरणारहे। 17. P अवरम्मि अहे। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90] महाकपुष्फयतविरयउ महापुराणु 185.10.20 तमुदूहलयं इंदाइणिए पियचारिणिए । दिहिचोरेण दरडोरेणं पबलबलालो बद्धो बालो। उदूखलए णिहियउ णिलए। सीयसमीरं तीरिणितीरं। सिसुकयछाया विगया माया। ता सो दिव्यो अव्यो अब्यो। इय सतो 24परियडेतो। पणियपुलर्य। णवकयकण्हहुने जयजसतण्हहु । जाणियमग्गो पच्छई लग्गो। अरिविज्जाए गयणयराए। ता परिमुक्कं णियडे0 दुक्कं। मारुवचवलं तरुवरजुयलं। अंगे घुलिये भुयपडिखलियं। कीलतेणं विहसतेणं। बलवंतेणं सिरिकतेण । पत्ता-होइवि तालतरु रंगतहु पहि तडितरलई। रक्खसिर केसवह सिरि घिवइ कढिणतालहलई ॥10॥ 35 एक-दूसरे दिन सबेरे, प्रिय के साथ जाती हुई यशोदा ने धैर्य को चुरानेवाली मजबूत रस्सी से, प्रबल बलवाले उस बालक को ओखली से बाँध दिया और घर में डाल दिया। वह माँ शीतल समीरवाले यमुनातीर पर, शिशु का उत्सव मनाने के लिए चली गयी। तब वह दिव्य (बालक) 'अम्मा, अम्मा' कहता हुआ और रोमांच उत्पन्न करनेवाली उस ओखली को खींचता हुआ, मार्ग जानता हुआ उसके पीछे लग गया। तब आकाशचारी शत्रुविद्या के द्वारा मुक्त पवन से चंचल वृक्षयुगल, नवीन पुण्य से युक्त और जय के यश के आकांक्षी उनके निकट पहुँचे। क्रीड़ा करते हुए, हँसते हुए बलवान श्रीकान्त ने शरीर पर गिरते हुए उन्हें (वृक्षयुगल को) बाहुओं से प्रतिस्खलित कर दिया। __घत्ता-तब वह राक्षसी तालवृक्ष बनकर, पथ में खेलते हुए केशव के सिर पर बिजली की तरह शब्द करती हुई कठोर तालफल गिराती है। 18. AP णंदाणीए। 19. AP पियघरणीए। 20. A दहिचोरेणं। 21. A ददोरेणं। 22. Pउक्ख लए: S उहुक्खलए। 23. P णिहियो: 5 णिहिओ। 24. AP परियंदतो B परिअइंतोः परिपतो। 25. B तमहल'। 26. A पयलियः B पयणव | 27. A यणवयतण्हो; Pधणपवतहो। 28, AP सहसा कण्हो। 29, AP पष्ठा लग्गो। 30. AP साहगुरुवक। 31. P सिरकतेणं। 32. B रक्खसे। 33. PS 'ताडहलई। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85.11.18]] महाकइपुष्फयंतबिरयड महापुराणु [ 91 दुवई-सिरिरमणीविलासकीलाघरि' वच्छ्यले घडतइं। ___अरिवरसिराई विहिलुक्कई दसदिसिवहिं पड़तइं ॥ ॥ ताइ इच्छए सो पइिच्छए। पंजलीयरो कीलणायरो। गयणसंचुए णाइ झिंदुए। ता महारवा तिब्बभेरवा। पुंछलालिरी' कण्णचालिरी। घाइया खरी विभिओ हरी। उल्ललंतिया णहि मिलतिया। वेयवतिया दीहदतिया। उवरि एंतिया घाउ देतिया। णंदवासिणा जायवेसिणा। आहया उरे धारिया खुरे। मेहसंगहे भामिया णहे। सुठुर चाविरी कंसकिंकरी। तीइ ताडिओ महिहि पाडिओ। तालरुक्खओ पुणु विवक्खओ। जगि ण माइओ तुरउ धाइओ। लक्ष्मीरूपी रमणी के विलास के क्रीडाघर उनके वक्ष-स्थल पर वे फल इस प्रकार गिरते हैं, मानो विधाता द्वारा काटे गये शत्रुवरों के सिर दसों दिशापथों में गिर रहे हों। ___वह फेंकती है, वह झेलते हैं; जैसे वह अंजली बाँधकर आकाश से गिरती हुई तीव्र गेंद में क्रीडारत हों। तब महाशब्द करनेवाली तीव्र और भयंकर पूँछ हिलाती हुई, कान चलाती हुई एक गधी दौड़ी; कृष्ण आश्चर्य में पड़ गये। उछलती हुई, आकाश में मिलती हुई, वेगवती लम्बे दाँतोंवाली, ऊपर आती हुई, आघात पहुँचाती हुई, उसके वक्ष पर नन्दवासी यादवेश ने आहत किया और खुरों को पकड़ कर मेघों के संग्रह से युक्त आकाश में घुमा दिया। खूब चर्वण करनेवाली कंस की दासी, उनसे ताड़ित होकर धरती पर गिर पड़ी। तब तालवृक्ष पराजित हो गया। तब जग में नहीं समाता हुआ अश्व दौड़ा। गम्भीर रूप से हिनहिनाता हुआ (11) 1. Aबिलासि। 2. A "वरुपईतई। पु. P इन्दिछए। 4. P पडियच्छिए। 5. झेडुए। 6. A भिच्चभइरवा; B तिब्ब भरवा । 7. पुन्छ । ४.5 विम्हिओ। 9. B मिलितिया। 10. BP बोतेया। |I. B दतिया। 12,AP सुद्धचाबिरी। 13. P केंकरी। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 ] महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [85.11.19 20 25 गहिरहिंसिरो जीरहिसिरो। चकियाणणो णाइ" दुजणो। हिलिहिलंतओ महि दतंतओ। कालचोइओ एंतु जोइओ। लच्छिधारिणा चित्तहारिणा। घुसिणपिंजरे बाहुपंजरे। छुहिवि पीलिओ गयणि” चालिओ। मोडिओ गलो पत्तपच्छलो। रणि हओ हओ णिग्गओ गओ। घत्ता-ता जसोय भणिय णइपुलिणइ" पाणियहारिहिं। णंदणु कहिं जियइ जायउ तुम्हारिसणारिहिं ||1|| (12) दुवई-मरुहयमहिरुहेहिं पहि चप्पिउ गद्दह तुरय चूरिओ। अवरु उदूहलम्मि' पई बद्धउ जाणहुं बालु मारिओ ॥ छ । धाइय' तासु जसोय विसंठुलं करयलजुयलपिहियचलथणयल । बदउ उक्खलु' मेरिलवि" घल्लिउ महु जीविएण' जियहि सिसु बोल्लिउ । और जीवों को मारता हुआ। दुर्जन की तरह वक्रमुख, हिलता-डुलता हुआ, धरती को दलता हुआ और काल से प्रेरित आते हुए उसे, चित्त चुरानेवाली लक्ष्मी के धारक कृष्ण ने देखा। केशर से पीले बाहुपंजर से छूकर और पीड़ित कर उसे आकाश में घुमा दिया। गला मोड़कर, पृष्टभाग से मिला दिया। युद्ध में आहत अश्व निकलकर भाग गया। पत्ता-उस समय नदी-तट पर पनहारिनों ने यशोदा से कहा कि तुम जैसी स्त्रियों से जन्मा बालक कैसे जीवित रह सकता है ? ( 12 ) पवन से आन्दोलित वृक्ष-युगल से पथ में चाँपा गया, गर्दभ और अश्व के द्वारा पीड़ित और तुम्हारे द्वारा ओखली से बाँधा गया बालक, हम समझती हैं, मारा गया। इससे यशोदा अपने दोनों चंचल स्तनों को हाथों से ढकती हुई अस्त-व्यस्त होकर दौड़ी। बँधी हुई ओखल खोल दी। और बोली, “हे पुत्र ! तुम मेरे जीवन से जिओ, नागों, मनुष्यों और देवों से भी अतिशय महान् हरि को मुख में चूमकर उसे कटितल पर उठा 11. B दक्किया। 15. Bणाय। 16. A सो पराइओ। 17.AS गयण। 18. R"पुस्लणए। (12) I. BAIS. उदूखणम्मि; P उदूखलम्मि। 2. । धाथिय। 3. A ताम: B तामु। 4. । विसंगुल; P विसंयुल: 5 दुसयुल। 5. B जुवल । 6. B "धणयल। 7.5 ओखल। 8. P मल्लवि19, BP जीएण। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85.13.2] 5 10 महाकइपृष्फयंतविरब महापुराणु फणिणरसुरहं मि अइअइसइयउ "हरि मुहि चुंबिवि कडियलि लइयउ। किं खरेण किं तुराएं दद्वछ मायइ सयलु अंगु परिमट्ठउं। अण्णहिं दिणि रच्छहि कीलंतहु वालहु 'बालकील दरिसंतहु। दुछ अरिदेउ विसवेसें ।आइउ महुरावइआएसें। सिंगजुयलसंचालियगिरिसिलु" 'खरखुरग्गउक्खयधरणीयलु। सरवरवेल्लिजालविलुलियगलु कमणिवायकंपावियजलथलु। गज्जियरवपूरियभुवणंतरू हरवरवसहणिवहकयभयजरु'" । ससहरकिरणणियरपंडुरयरु 'गुरुकलाससिह रसोहाहरु। किर झड णिविड" देइ आवेप्पिणु ता कण्हें भुयदंडे। लेप्पिणु। मोडिड कंदु कड त्ति विसिंदहु को पडिमल्लु तिजगि गोविंदहु । 'घत्ता-ओहमियधवलु हरि गोउलि धवलहि गिज्जइ। धवलाण वि धवलु कुलधवलु केण ण थुणिज्जइ ॥12॥ ( 13 ) दुवई-ता कलयलु सुति गोवालहं पणयजलोहवाहिणी। सुयविलसिउ मुणति णिग्गय णियगेहहु णंदरोहिणी ॥छ। लिया। माँ ने उसका समूचा शरीर छुआ कि कहीं गधे या घोड़े ने काटा तो नहीं। एक दूसरे दिन, जब बालक गली में खेलता हुआ अपनी बालक्रीड़ा का प्रदर्शन कर रहा था कि मथुरापति के आदेश से दुष्ट अरिष्ट देव बैल के रूप में आया। वह अपने दोनों सींगों से शिलातल को संचालित कर रहा था। तीखे खुरों से धरणी-तल को उखाड़ रहा था, उसका गला सरोवरों के लताजाल से लदा हुआ था। पैरों की चपेट से धरती को कँपा रहा था। गर्जना के शब्द से भुवनान्तर को गँजा रहा था, शिव के नन्दी बैल को भय उत्पन्न कर रहा था, जो चन्द्रमा के किरणसमूह के समान सफेद था, महान् कैलाश-शिखर की शोभा को धारण कर रहा था। (ऐसा पह) शीघ्र आकर जैसे ही आक्रमण करना चाहता था कि कृष्ण ने अपने बाहुदण्ड पर लेकर, उस वृषभेन्द्र का, कड़-कड़ करके गला मोड़ दिया। गोविन्द के समान त्रिलोक में प्रतिमल्ल कौन धत्ता-धवल ल को पराजित करनेवाले हरि का, गोकुल में धवल गीतों में गान किया जाता है। धवलों में धवल (श्रेष्ठों में श्रेष्ठ) धवल कुल की गान-स्तुति किसके द्वारा नहीं की जाती : (13) तब, प्रणयरूपी जलसमूह की वाहिनी (नदी) नन्द की गृहिणी यशोदा गोपाल बालकों की कल-कल ध्वनि सुनती हुई और अपने पुत्र की करतूत जानती हुई अपने घर से निकली। माँ बोली-"आपत्ति में फंसा हुआ In.हरिपुह विनि।।।. AP बाललील। 12. आपर। 13.AP संचालियाविरलिल । 14.A सुरागखपत्रावरणीयल । [5. A गज्जव । 15.A ट्यवर। 17. पुरु केलास.AIS. गिरिकेलास | 18. महरि। 19. B सोहावरु। 10. ई। 21. PS दंडहिं। 22.A कंधु। 29. Pटरे। 24. B गोजल 1 25. Bधवलिहिं। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 ) [85.13.3 महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु भणइ जणि ण दुआलिहि धयउ पुत्तु ण रक्खसु कुच्छिहि जायउ। किह वलदु मोडिउ ओत्थरियउ दइववसें सिसु सई उव्वरियउ। हरिखरवसहहिं सह सउ जुज्झइ जणु जोवइ महु हियवउं डज्झइ। केत्तिउं मई कुमार संतायहि आउ जाहु घरु बोल्लिउं भावहि। तेयवंतु तुहं पुत्त णिरुत्तर रक्खहि अप्पाणउं करि वुत्तउं । परमहि भडकोडिहि आरूढउ बाहुबलेण बालु जणि रूढउ। महुरापुरि घरि घरि वणिज्जइ गंदगोट्टि पत्थिबहु कहिज्जइ। तहु देवइमायरि उक्कठिय पुत्तसिणेहें' खणु वि ण संठिय। गोमुहकूबउ'" सहउ वउत्थी लोयहु मिसु मंडिवि वीसत्यी। चलिय गंदगोउलि" सहुँ गाहें सहुं रोहिणिसुएण चंदाहें। घत्ता-मायइ महुमहणु बहुगोवहं मज्झि णिरिक्खिउ । बयपरिवेढियउ कलहंसु जेम ओलक्खिउ ||13|| ( 14 ) दुवई-हरि मुयजुवलदलियदाणवबलु' णवजोव्वणविराइओं । उग्गयपउरपुलय पडहच्छे वसुएवेण जोइओ ॥ छ । 10 तू पुत्र नहीं, राक्षस है जो मेरी कोख से जन्मा है। आते और क्रुद्ध होते हुए बैल को तूने क्यों मोड़ा ? दैव के अधीन बालक स्वयं बच गया। वह (मेरा लाल) घोड़ा, गधा और बैल से स्वयं लड़ता है। लोग तमाशा देखते रहते हैं। उससे मेरा जी जलता है। हे कुमार ! तू मुझे कितना सताएगा ? आओ घर चलें, मेरी बात मान । हे पुत्र ! तुम निश्चित ही तेजस्वी हो। अपनी रक्षा करो, मेरा कहा मानो। तुम श्रेष्ठ करोड़ों योद्धाओं में प्रसिद्ध और बाहुबल के कारण लोगों में बाल नाम से प्रसिद्ध हो। मथुरापुरी के घर-घर और नन्द गोष्ठी में तुम्हारा वर्णन किया जाता है। राजा से भी कहा जाता है (तुम्हारे विषय में)। उसकी देवकी माता भी उत्कण्ठित हो जाती है, पुत्र के स्नेह के कारण एक क्षण भी ठहर नहीं पाती। व्रत में स्थित गोमुखकूप व्रत करती हुई लोगों से वहाना बनाती हुई, विश्वस्त होकर अपने स्वामी (वसुदेव) और चन्द्रमा के समान बलराम के साथ वह नन्द-गोकुल के लिए चली। घत्ता-माता ने बहुत से ग्वाल-बालों के बीच कृष्ण को इस प्रकार देखा, जैसे वगुलों से घिरा हुआ कलहंस हो । अपने भुजवल से दानव-दल का दलन करनेवाले, नवचौवन से शोभित और अत्यन्त रोमांचित हरि को वसुदेव ने शीघ्र ही देखा। बलराम ने शिशुक्रीडा की धूलि से धूसरित अपने भाई का दृष्टि से ही आलिंगन (13)!.A ग अलिहि णो घाय। 2. | वनइह, बलद्ध। 3. Pमोडिय उत्या । 1. PS इयर' | B.AS जोयद P जीयउ। क. म जाहं धारे। 1.Al3Pld atter Rh : कंस्तु गा जाणइ कि मणिमूटर Kgives it but scores it oft; BP add funher जयसिरिमाणणु (B माणि ) जायउ पोढछ। H. त्तसहें। 9. AP का मिण संठिय। 10. गोमुहं कु वि वउ; 5 गोमुह कूबउ। 1. APS परेउलु । (14) 1. AS "जुबान । 2. जोघण। 3. वसुदेवेण। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85.15.20 महाकइपुप्फयंतविरयड महापुराणु [ 95 भायरु सिसुकीलारवरंगिउ' हलहरेण दिट्ठिइ आलिंगिउ। भुयजुयलउं पसरंतु णिरुद्धउं जायउं हरिसे अंगु सिणिद्धउँ । चिंतिवि तेण कंसपेसुण्णउँ आलिंगणु देंतेण ण दिपणउं। गाढसिणेहवसेण णवंत आणाविय रसोइ गुणवंतइ। गंधफुल्लदीवउ' संजोइउ भोयणु मिट्ठउं मायइ ढोइउं। अल्लयदलदहिओल्लियकूरहि मंडयपूरणेहि घियपूरहि। णाणाभक्खविसेसहिं जुत्तउं सरसु भाविभूणाहें भुत्तउं। सिरि . णिबद्धवेल्लीदलमालह कंचणदंड दिण्ण गोवालह। सुण्हई" मउदेवंगई वत्थई भूसणाई मणिकिरणपसत्थई। पुणु जणणिइ तिपयाहिण देतिइ तणयह उप्परि खीरु सवंतिइ । घसा--पोरिसरयणणिहि ।'गुणगणविभावियवास" । कुलहरलच्छियइ णं सई अहिसित्तर केसउ ॥14॥ (15) टुवई-दीसइ णंदणंदु' णारायणु जणणीदुद्धसित्तओ। ‘णाई तयाणीतु हर सतह कमलित्तओ ॥छ । किया, अपने फैलते हुए बाहुओं को उसने रोक लिया, हर्ष से उसका शरीर स्निग्ध हो गया। कंस की दुष्टता की चिन्ता कर, मानो आलिंगन देते हुए बलराम ने आलिंगन नहीं दिया। नम्र माँ, प्रगाढ़ स्नेह के वशीभूत होकर गुणवती रसोई ले आयी। गन्ध, फूल और दीप सैंजो दिये गये। माँ ने मीठा भोजन दिया, गीले पत्तों के भाजन में परोसा गया दही मिश्रित भात, घृत से भरे हुए माण्ड और पूरण और भी नाना खाद्य विशेषों से युक्त सरस भोजन, भावी भूपति ने किया। सिर में लता-दल की मालाओं को बाँधे हुए ग्वालों को स्वर्ण के दण्ड दिये गये और सूक्ष्म कोमल दिव्य वस्त्र तथा रवि-किरणों से प्रशस्त भूषण भी दिये गये। फिर तीन प्रदक्षिणाएँ देते हुए पुत्र के ऊपर वे दूध की धारा छोड़ते हैं। घत्ता-माँ ने, पौरुष-रत्न की निधि, अपने गुणगणों से इन्द्र को विस्मित करनेवाले केशव का अभिषेक किया, मानो कुलगृह की लक्ष्मी ने स्वयं उनका अभिषेक किया हो। (15) माता के दूध से अभिषिक्त नारायण नन्दनन्दन कृष्ण ऐसे दिखाई दे रहे थे, मानो तमालपत्र के समान नीला नवमेघ चन्द्रमा की किरणों से लिपट गया हो, मानो कामधेनु स्वयं अवतरित हुई हो। झरते हुए स्तनों 4. APS इरतिउ। 5. B कंसु। 6. Pणमंतई। 70 P°दीवय': दोघाइ। B. A मंडिय"19. ABS घियकाह। 10. A भाऊभूणा; BK भाइमूणाहे। 11. B सुम्हट; P$ सण्हई। 12, Pउप्परे। 13. Bखीर। 14. S"बिहाविय | 15. 5 वासदु। 16.5 कैसवु। (18) I. Bण पंदु। 2. Bणामि। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 । महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [85.15.3 कामधेणु णं सई अवइण्णी गलियथण्णथणि जणणि णिसण्णी। जाव ण पिसुणु को वि उवलक्खइ' ता तहिं संकरिसणु सई अक्खइ। सुललियंगि भुक्खासमरीणी उववासेण पमुच्छिय राणी। तेणिय भणियि भुएहिं समस्थित दुद्धकलसु देविहि पल्हत्थिउ। हरि' जोडाये णीवंताह णयहिं मणि आणंदु पाँच्चउ सयणहिं। सबलाहणमिसेण' संफासिवि आउच्छणमिसेण संभासिवि। भायणाई होइवि" संतोसह गयई ताई महुराउरिवासहु। कालें जंतें छज्जइ पत्तउ __ आसाढागमि वासारत्तउ। घत्ता-हरियउं पीयलउं दीसइ जणेण तं सुरधणु। खरि पओहरहं णं णहलच्छिहि उप्परियणु ॥15॥ (16) दुवई-दिठ्ठउं इंदचाउ पुणु पुणु मई' पंधियहिययभेयहो। घणवारणपवेसि- णं मंगलतोरण णहणिकेयहो ॥ छ ॥ जलु गलइ झलझलइ। दरि भरड सरि सरइ। तडयइइ तडि पडइ। गिरि फुडइ सिहि णइइ मरु चलइ तरु घुलइ। से माँ बैठी हुई थी। जब तक कोई दुष्ट पुरुष न देख ले, तब तक वहाँ बलभद्र स्वयं कहते हैं-"भूख के श्रम से क्षीण सुन्दर अंगोंवाली यह रानी उपवास के कारण मूच्छित हो गयी है।" उसने यह कहकर उठा हुआ दुग्ध-कलश देवी के ऊपर उड़ेल दिया। अपने गीले नेत्रों से हरि को देखकर स्वजन मन में आनन्द से नाच उठे। विलेपन के छल से स्पर्श कर, पछने के बहाने बात कर, और सन्तोष के भाजन बनकर वे लोग मथुरा नगरी के अपने निवास के लिए चले गये। समय बीतने पर असाढ़ के आगमन पर प्राप्त वर्षा ऋतु शोभित हो उठती है। ___घत्ता-मेघों के ऊपर लोगों को हरा और पीला इन्द्रधनुष ऐसा दिखाई देता है, मानो नभरूपी लक्ष्मी के ऊपर का आवरण (दुपट्टा) हो। (16) ____ मैं बार-बार इन्द्रधनुष को देखता हूँ, मानो पथिकों के हृदयों का भेदन करनेवाले आकाशरूपी घर में मेघरूपी महागज के प्रवेश के लिए मंगल तोरण हो। जल गिरता है, झलझलाता है। घाटी भरती है, नदी बहती है, तड़तड़कर बिजली गिरती है, पहाड़ फूटता है, मोर नाचता है, हवा चलती है, पेड़ हिलता है। 8. Hघण्णलिं 4. B ओलाखद । 5. Aति इय भगेवि तें इस मणेथि। 6. BAS. समुस्विछ।7.Aomits this line. ४. BS जोयवि। ५. A units Ra10. A भोवणाई। 11. "होचचि। 12. APS जण सुरतरण। (16) 1. AP अइपंधिय। 2.5 घस वारण | 3A तडककइ। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85.16.301 महाकइपुष्फयंतबिरयर महापुरागु [ 97 जलु थलु वि णिरु रसिउ थरहरइ जा ताव धीरेण सरलच्छितण्हेण सुरथुइण वित्थरिउ महिहरउ तमजडिउं महिविवरु फुप्फुबई परिघुलइ तरुणाई तहाई कायरई पडिया चित्ताई हिंसालचंडाई तावसई दरियाई गोउलु वि। भयतसिउ। किर मरइ। थिरभाववीरेण। जयलच्छिकण्हेण। भुयजुइण। उद्धरिउ। दिहियरउ'। पायडिउं। फणिणियरु। विसु मुयइ। चलवलइ। हरिणाई। पाट्ठाई। वणयरइं। रडियाई। चत्ताई। चंडालकंडाई। परवसई। जरियाई। 25 जल और थल हिल उठते हैं, गोकुल अत्यन्त आवाज करता है। भय से त्रस्त है, थरथराता है, मरता है। तब तक स्थिरभाववाले धीर, वीर, सरल आँखोंवाली जयलक्ष्मी के चाहनेवाले कृष्ण ने देवों से संस्तुत अपना भुजयुगल फैलाया, और उठा लिया धैर्य करनेवाला पहाड़। तम से जड़ित और धरती का विवर और नागसमूह प्रकट हो गया। वह फू-फू करता विष उगलता है, फैलता है, चिलबिल करता है। तरुण हरिण त्रस्त और नष्ट हो जाते हैं। कायर वनचर गिर जाते हैं और चिल्लाने लगते हैं, फेंक दिये जाते हैं, छोड़ दिये जाते हैं। चाण्डाल हिंसा करते हैं। पानी प्रचण्ड है, तापस परवश हैं, भय से आक्रान्त और ज्वराक्रान्त हैं। 4. P दिहिहरत । 5. AB पृष्फुवइ, PS पुप्फुयइ। G. B बरियाई। 1.AP रत्ताई। 8. A रडियाई। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 ] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु [85.16.31 घत्ता-गोवद्धणपरेण गोगोमिणिभारु व जोइट। गिरि गोवद्धणउ गोवद्धणेण उच्चाइउ" ॥16॥ (17) दुवई-ता सुरखेयरेहिं दामोयरु' यासारत्तरुंधणो। . गोवद्धणु भणेवि हक्कारिउ कयगोजूहवद्धणो || छ । कण्हें बाहुदंडपरियरिब गिरि छत्तु व उच्चाइवि धरियउ । जलि पवहंतु जंतु ण' उवेक्खिउ धारावरिसे गोउलु रक्खिउं। परउवयारि सजीविउ देंतहं दीणुद्धरणु विहूसणु संतहं । पविमल कित्ति भमिय महिमंडलि" हरिगुणकह हूई' आहेडलि। कालि गलतइ कतिइ अहियई कलिमलपंकपडलपविरहियई। महुरापुरवार जमराहें महिंधई जरताला स्वण मिहेयई। तिणि ताई तेलोक्कपसिद्धई रवटकारदेहसुहणिद्धई। तं रयणत्त कहिं मि णिरिक्खिउं पुच्छिउ कसें वरुणे अक्खिउँ । 10 णायामिजइ विसहरसवणे जो जलयरु आऊरइ वयणे। जो सारंगकोडि गुणु" पावइ सो तुज्झु वि जमपुरि पहु दावइ । घता-गो-वर्धन (गायों की वृद्धि, उन्नति) करनेवाले कृष्ण के द्वारा उठाया गया गोवर्धन गिरि ऐसा मालूम हो रहा था जैसे गोवर्धन में तत्पर व्यक्ति ने भू और लक्ष्मी का भार उठा लिया हो। ( 17 ) तब वर्षा ऋतु को रोकनेवाले और गौ-समूह का संवर्धन करनेवाले दामोदर को देवों और विद्याधरों ने गोवर्धन कहकर पुकारा। बाहुदण्ट से घिरा हुआ पर्वत कृष्ण ने छत्र की तरह उठाकर धारण कर लिया। जल में वहते हुए जन्तु की भी उन्होंने उपेक्षा नहीं की और मेघवर्षा से गोकुल की रक्षा की। दूसरों के उपकार में अपना जीवन अर्पित कर देनेवाले सन्तों के विभूषण और दीनों के उद्धारकर्ता। उनकी पवित्र कीर्ति पृथ्वीमण्डल में घूम गयो। हरिगुण की कथा मानो इन्द्र-कथा हो गयी। समय बीतने पर उनकी कान्ति और अधिक हो गयो, तथा कलिमल के पटल से मुक्त हो गयी। मथुरा नगरी के अरहन्तालय (जिन-मन्दिर) में देवों के द्वारा पूज्य तीन रत्न रखे हुए थे जो तीनों लोकों में प्रसिद्ध थे-शंख, धनुष और नागशय्या। कंस ने कभी उस रत्नत्रय को देखकर वरुण से पछा था। उसने कहा था-"जो नागशय्या के द्वारा कष्ट नहीं पाता, जो अपनी ध्वनि से शंख को फूंक देता है और जो धनुष पर डोरी चढ़ा देता है, वह तुम्हें भी यमपुरी भेज सकता ५. A गांवद्धगधरे गांबद्धणण। 10. Aच्यावउ: 5 उधारउ । (17)1. S द्वानीपर। 2. ।। नासारत् । ३. ४ परियस्ति । 1. A उपेक्सि BP उवाख3। . 'बरितहो; As. वरिसें against Mss h. Aणहमउलि। 1.S | B AP परिहिरई। 4. ग्यगात्त। 1. HS गुण। 11. पुरे। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85.18.121 महाकइपुष्फयतविरयड महापुराणु [ 99 घत्ता-उग्गसेणसुयणु बिहुरंधरासि" तारिव्वउ। तेण णराहिवइ जरसिंधु" समरि मारिव्यउ" ॥17॥ दुवई-पत्तिय कंस कुसलु णउ पेक्खमि पत्ता मरणवासरा। पूयण वियडसयडजमलज्जुणतलखरदुहियहयवरा' ॥ छ | जित्ता' जेण गंदगोवालें जाउहाणु पसु भणिवि ण मारिउ जेण अरिहवसहु ओसारिउ । फुल्लकडंबविडविदिपणाउसि' सत्त दियह परिसंतइ पाउसि । गिरि गोवद्धणु जें उच्चाइ सो जाणमि तुम्हारउ दाइज। जीविउं सहुं रज्जेण हरेसइ दइवहु पोरिसु काई करेसइ। तं णिसुणिवि णियबुद्धिसहाएं पुरि डिडिमु देवाविउ राएं। जो फणिसयणि सुयइ धणु णावइ संखु ससासें पूरिवि दावइ। तहु' पहु देइ देसु दुहियइ सहुं ता धाइयउ णिवहु सई महुं महं। 10 पत्ता-दसदिसु वत्त गय मंडलिय असेस समागय"। __णं गणियारिकए दीहरकर मयमत्ता गय" ||1|| पत्ता-दुःख के अन्धकार की राशि उग्रसेन को वह तारेगा और हे राजन् ! उसके द्वारा जरासन्ध युद्ध में मारा जाएगा। ( 18 ) हे कंस ! तुम विश्वास करो, मैं कुशल नहीं देखता; तुम्हारे मरने के दिन आ गये हैं। पूतना, विकट, शकट, यमलार्जुन, ताइवृक्ष, गधा और घोड़े को, शत्रु-योद्धाओं के संघर्ष-मद को दूर करनेवाले जिस नन्दगोपाल ने जीता है और अरिष्ट को पशु समझकर नहीं मारा और उसे बैल समझकर हटा दिया, खिले हुए कदम्ब-वृक्षों को आयु देनेवाले पावस के लगातार सात दिनों तक बरसते रहने पर जिसने गोवर्धन पर्वत को उठा लिया, उसे मैं तुम्हारा शत्रु मानता हूँ। वह जीवन के साथ तुम्हारे राज्य का अपहरण करेगा, देव का पौरुष इसमें क्या करेगा ?" यह सुनकर, अपनी बुद्धि ही है सहायक जिसकी, ऐसे राजा कंस ने नगर में मुनादी करवा दी-"जो नागशय्या पर सोएगा, धनुष चढ़ाएगा (झुकाएगा) और श्वास से शंख को फूंककर दिखाएगा, उसे राजा अपनी कन्या के साथ देश देगा।" (यह सुनकर) सब लोग, मैं पहले मैं पहले करते हुए दौड़े। धत्ता-यह वार्ता दसों दिशाओं में फैल गयी। समस्त माण्डलिक राजा आये, मानो हथिनी के लिए लम्बी सैंडबाले मतवाले महागज आये हों। 12. ABPS बिहुरंबुरासि।।3. P5 जरसेंघु। 14. 5 मारेयर । (18) J. AP "ज्जुणतरुखर | 2. P जित्तउ। 3. A "कर्षक: "कर्दछ। 4. B पावसि। 5. AP जेणुच्चाया। 6. 5 जागोवे। 7. P पहो। H. Aदेसु देह । 9. " दुहिए। 10. BAIs. ता घाइय णिय होसह महं महं। 11. S समागया। 12. P दीहरयर। 13. AP मयमत्त। [4.5 गया। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 100 ] महाकइपुष्पायंतविरयर महापुराणु [85.19.! (19) दुवई-भाणु सुभाणु णाम विसकंधर 'वरजरसिंधणदणा। संपत्ता तुरंत जउणावहि थिय खंचियससंदणा' ॥ छ ॥ अरिकरिदंतमुसलहय कलुसिय जइ वि तो वि अरविंदहिं वियसिय। काली' कतिइ जई वि सुहावई तो वि तब जणघुसिणे भावइ । जइ वि तरंगहिं चवलहिं बच्चइ तो वि तुरंगह सा ण पहुच्चइ। जइ वि तीरि वेल्लीहर दावइ तो वि ण दूसह संपय पावइ। पविउलु दिउँ सिविरु' पमुक्कउं गोवबिंदु' साणंदु पढुक्कउ। तणकयवलयविहूसियधिरकरु वणकणियारिकुसुमरयपिंजरु। ससुसिरवेणुसद्दमोहियजणु काणणधरणिधाउमंडियतणु। करणिबंधणवेढियकंदल कंदलदलपोसियमहिसीउल । घत्ता-गुंजाहलजडियदंडयविहत्यु" संचल्लिउ। महिवइतणुतहेण आसण्णु पढुक्कड बोल्लिाउ ॥19॥ (20) दुवई- भो आया किमत्थु कि जोयह दीसह पवर' दुज्जया। पभणइ णंदपुत्तु के तुम्हई कहिं गंतुं समुज्जया ॥ छ । (19) श्रेष्ट जरासन्ध के, वृषभ के समान कन्धोंवाले भानु, सुभानु नाम के पुत्र शीघ्र की यमुना-तट पर पहुंचे और अपने रथों को टहराकर स्थित हो गये। यद्यपि यमुना शत्रुओं के हाथियों के दाँतोंरूपी मूसलों से आहत और कलुषित है, तो भी वह कमलों से विकसित है। यद्यपि कान्ति से काली है, तब भी अच्छी लगती है और लोगों को केशर से ताम्र दिखाई देती है। यद्यपि यह चंचल तरंगों से बहती है, तो भी तुरंग उसे नहीं पा सकते। यद्यपि वह किनारों पर लतागृह दिखाती है, फिर भी वस्त्रों की सम्पत्ति उसे प्राप्त नहीं कर सकती। उन्होंने विशाल मुक्त शिविर देखा और गोपसमूह सानन्द वहाँ पहुँच गया। जिसके स्थिर कर तिनकों के बने वलयों से विभूषित हैं, जो बन के कनेर पुष्पों के पराग से पीला है, जो अपनी सच्छिद्र बाँसुरी के शब्द से जनों को मुग्ध कर लेता है, जिसका शरीर वनभूमि की धातुओं से शोभित है, जिसके कपाल मजबूत बन्धनों से बँधे हुए हैं और जो लता-पत्रों से भैसों को पोषित करता है, घत्ता-जिसके हाथ में गुंजाफलों से विजड़ित दण्ड हैं, ऐसा गोण्ममूह चला। तब निकट पहुँचने पर राजा के पुत्र ने उससे कहा-- (20) "अरे : तुम लोग किसलिए आये ? क्या देखते हो, बहुत प्रबल दुर्जय दिखाई देते हो !" तब नन्द-पुत्र (19) 1. PS "जरसेंध | P.AP जडणात। A मंचियः। 4. B कालिए। 5.5 चबल पबच्चड़। CAPS तोरवेली 17.AP सिमिरु। 8. B गोरबंदु । 9. वरकणियार, BP यणकणिशर | . दंडहत्यु। (20) !.AP परमदुञ्जया। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I 85.21.4] महाकपुष्यंतविरय महापुराणु अम्हई गंदगोव फुत्त भणइ सुभाणु जणणु अम्हारउ बढ़ जाएसहं महुरापट्टणु तहिं विरएव सरासपचप्पणु पुलयवसेणुग्गय मंचय हवं मि जामि गोविंदें भासि तरुणि ण लहमि लहमि विहि जाणइ तं णिसुप्पि बालें बालउ आया पुच्छहुं भणहुं णिरुत्तरं । अद्धमहीसरु रिउसंघारउ । संखाऊरणु" फणिदलवट्टणु । कण्णस्यणु लएसहुं घणथणु । तं सुणिवि जोयं विभुय | करमितिविहु जं पई णिद्देसितं । हालिउ किं णिवधीयउ माणइ । जोय" कंसहु" अयसु व कालउ । घत्ता - माहवपयजुयलु" उद्दिटु" सुभाणुं रत्तउं । दिसकरिकुंभयलु सिंदूरें णावइ छित्तॐ" ॥20॥ ( 21 ) दुबई - दप्पणसंणिहाई रुइवंतई विरइयचंदहासई । क्खड़ वसुह णाई मुहपंकयपविलोयणविलास ॥ छ ॥ जंघउ पुणु लक्खणहिं समग्ग वारण आरोहणकिणजोग्ग' । ऊरउ वहुसोहग्गपवित्तिउ तियमणकंदुयघुलणधरित्तिउ' । [ 101 5 10 कहता है - "तुम लोग कौन हो, कहाँ जाने के लिए उद्यत हो ?" "हम लोग नन्द गोप हैं। हमने साफ बता दिया है, हम पूछने आये हैं; निश्चित बताएँ ।" सुभानु कहता है- "हमारा पिता शत्रुसंहारक और अर्धचक्रवर्ती है । हे मूर्ख, मैं मथुरानगरी जा रहा हूँ, वहाँ शंख बजाकर, नागशय्या का दलन कर, धनुष चढ़ाकर, सघन स्तनोंवाली कन्या ग्रहण करूँगा । " यह सुनकर जिनमें पुलक विशेष से रोमांच उत्पन्न हो गया है, ऐसी अपनी भुजाओं को देखते हुए गोविन्द ने कहा - " मैं भी जाऊँगा और जो तुमने निर्दिष्ट किया, वे तीनों काम मैं भी करूँगा। तरुणी पाता हूँ या नहीं पाता हूँ यह तो विधाता ही जानता है। गोप राजा की बेटी को कैसे माँग सकता हूँ ?" यह सुनकर बालक ने बालक की ओर देखा जो कंस के अयश की तरह काला था । घत्ता - सुभानु ने कृष्ण के रक्त चरण-युगल को देखा, मानो दिग्गज का कुम्भस्थल सिन्दूर से पुता हुआ हो । ( 21 ) उसके नख दर्पण के समान कान्तिवान, चन्द्रकिरणों का उपहास करनेवाले और धरती के मुख-कमल के देखने के लिए मानो विलास (दर्पण) थे। लक्षणों से सम्पूर्ण उसकी जाँघें हाथी पर चढ़ने की मांसग्रन्थि के योग्य थीं, अनेक सौभाग्यों की प्रवृत्तियोंवाला उसका वक्ष स्त्रियों की मनरूपी गेंदों के लिए क्रीडाभूमि था । 2. 11 भणहिः । भ्रणहं । 3.5 संखारणु। 4. S फणिटलु। 5. A सासणकप्पणु। 6. AP नियंलें। 7. S जाति । . K पिवधूयउ 1 9 APS जोइछ । 10. A कतिहि अजसु । 11. AP "जुबलु । ५. P ओदि। 13. A लित्त । (21) 1. AP, Als वसुहणारिमुह against Mss. und against gloss. 2. P समस्यउं । 3. B किं ण। 1. B "कंव" P "क" । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 ] महाकइपुष्फयंतविरपर महापुराणु [85.21.5 मयणगिरिंदणियंबु व कडियलु सोहइ जुवयह जइ वि अमेहलु। मज्झएसु किसु पिसुणपहुत्ते णाहि' गहीर हिययगहिरतें। वलिरेहकिउं उयरु सुपत्तलु विरहिणिपणइणिसरणु व उरवलु। दीह बाह पालियणियवक्खहं कालसप्पु णावइ पडिवक्खहं। हारेण वि विणु कंठु वि रेहइ पट्टबंधु भालयलु समीहइ। मुह सुहमुहं जममुहं पडिवण्णउं सज्जणदुज्जणाहं अवइण्णउं। कण्णजुवलु' कयकमलहिं सोहिउं णं लच्छीइ सचिंधु पसाहिउँ । केस कुडिल बुहं मता इव मइ परमणहारिणि कंता इव । घत्ता-तें तहु माहबहु जो जो पएसु" अवलोइउ। सो सो तहु जि समु उवमाणविसेसु' पढोइउ ॥21॥ (22) दुवई-चिंतइ सो सुभाणु सामण्णु ण एहु अहो महाभड़ो। णिज्जउ' णयरु करउ तं साहसु रमणीरमणलपड़ो ॥ छ | अग्गि व अंबरेण ढंकेप्पिणु गय ते तं पुरु कण्हु लएप्पिणु । उसका कटितल कामरूपी पहाड़ का नितम्ब था, जो बिना मेखला के ही शोभित था। उस युवक का मध्यदेश कस की प्रभुता की चिन्ता से कृश था। हृदय की गम्भीरता के कारण नाभि गम्भीर थी और त्रिबलि से अंकित पेट पतला था। उसका उर-तल विरहिणी प्रणयिनीजनों के लिए शरण का आधार था। उसके लम्बे बाहु अपने पक्ष का पालन करनेवाले प्रतिपक्ष के लिए काल सर्प के समान थे। हार के बिना भी उसका कण्ट शोभित था और उसका मालतल पट्टबन्ध की इच्छा कर रहा था। उसका मुख सज्जनों और दुर्जनों के लिए (क्रमशः) शुभमुख और यममुख बन गया था। उसके दोनों कान कमलों के अवतंसों से शोभित थे, मानो लक्ष्मी ने अपना चिल प्रसाधित कर लिया हो। उसके धुंघराले केश वृद्धों के मन्त्रों के समान थे और उसकी बुद्धि दूसरे की मति आकृष्ट करने (हरने) वाली कान्ता के समान थी। ( 22 ) वह सुभानु विचार करता है-यह सामान्य मनुष्य नहीं है, यह कोई महाभट है। इसको नगर ले जाया जाये। रमणीरमण-लम्पट यह विशेष साहस कर सकता है। इस प्रकार वे आग को कपड़े से ढकने के समान, कृष्ण को लेकर गये। वहाँ जिनमन्दिर की उत्तरदिशा मुहं मुहं मुहूं, महु सुहमुहूं। 9. PS "जुवलु। 10. " पवेस। 11. B उयमाणु। 5. S अमेलदु। 6. B मज्झयेसु। 7. Bणाही गहिर। . । मुह मुह मुह 12. A अढोइड; Pव दाइज। (22) 1. Pणिज्जद। 2. P करई। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 85.23.31 • महाकइपुप्फयतविरयउ महापुराणु [ 103 जिणघरसुरदिसि जखीमंदिरि तहिं मिलियइ गरणियरि णिरंतरि। दिट्ठी णायसेज्ज दिवउं धणु दिउ पंचयष्णु गुरुणीसणु। गोविदं मयवंत सुदुम्मह दिट्ट चडत पुरिस णाणाविह। पडिय भुयंगमजतें पीडिय फणताडियों अच्छोडिय मोडिय। ता हरिणा फणि तणु व वियप्पिउ । कुप्परकरकडिदेसें' चप्पिउ। लइउ संखु णं जसतरुवरफलु उरसरि तासु अहिहि णं सयदलु । दीसइ धवलु दीहु णं मउलिउं णावइ कालिंदीदहि विलुलिउं। अरिवरकित्तिवेल्लिकंदो इव करसहुँ धारय चंदा इव । मुहणीलुप्पलि हंसु व सारिउ केसवेण कंबुउ'' आऊरिउ। पेच्छालुयमणवउलु' पुलइउं पायंगुट्टएण धणु वलइउं। घत्ता-एक्कु ण चाउ जागे अण्णु वि णयमग्गे आयउं। गुणणवणे सहइ सुविसुद्धवंसि जो जायउ ॥22॥ (23) दुवई-'विसहरसयणरावजीयारवजलरुहरवपऊरिय । भुवणं ससरि सदरिगिरिवलयमहो णिहिलं पि जूरियं ॥ छ । विहडियफुडियपडियघरपंतिहिं मुडियालाणखंभगयदंतिहिं। में यक्षीमन्दिर में नरसमूह निरन्तर एकत्र हो रहा था। वहाँ उन्होंने नागशय्या देखी, धनुष देखा और भारी स्वरवाला पांचजन्य शंख देखा। गोविन्द ने मदवाले दुर्दमनीय नाना प्रकार के लोगों को चढ़ाते हुए देखा, जो सर्पयन्त्र से पीड़ित होकर गिर पड़े, फन से ताड़ित और आस्फालित होकर मुड़ गये। तब कृष्ण ने साँप को तिनके के समान समझकर अपने हाथ की हथेली से उसके कटिभाग को चाँप लिया। उन्होंने शंख को इस प्रकार ले लिया, मानो यशरूपी वृक्ष का फल हो, या मानो उस साँप के उर रूपी सरोवर में (खिला) शतदल कमल हो, धवल, दीर्घ और मुकुलित जिसे मानो यमुना सरोवर से तोड़ लिया गया हो। शत्रुप्रवर की कीर्तिरूपी लता के अंकुर के समान वह ऐसा लग रहा था मानो उसके हाथरूपी राहु ने चन्द्रमा को पकड़ लिया हो। उसका मुखरूपी नीलकमल ऐसा शोभित था, मानो हंस स्थापित कर दिया हो। केशव ने शंख बजा दिया । दर्शक मानवसमूह पुलकित हो उठा। उन्होंने अपने पैर के अंगूठे से धनुष को मोड़ दिया। ___घत्ता-जग में वह अकेला धनुष ही नहीं था, दूसरा भी नीतिमार्ग से आया था, गुणों की नम्रता (डोरी की नम्रता) से वह शोभित, सुबिशुद्ध वंश में उत्पन्न हुआ था। (23) नागशय्या का शब्द, प्रत्यंचा का शब्द और शंख के शब्द से पूरित विश्व नदियों, घाटियों और पर्वत-मण्डलों के साथ पूरित हो उठा, यह आश्चर्य है। गृह-पंक्तियाँ विघटित होकर बिखरकर गिर गयीं। हाथियों ने अपने S.APS गणियर!M.A मनाते । 5. AP फडताडिया फणिताडिय। 6. Pअच्छोड़िय।7.AP कोप्परकरकडियलसंघप्पिान कोप्पर18.K कालिंदिदहि । 9.AP किर रा य । 10. PS धरिउ। 11. A कंटऊ ओसारिउ। 12, B पिडालुवः। 18. A माणच अवलोइट। (23) 1. A सयणचाव। 2. A 'जलहरवपूरिय: B "जलमहरावकरियं । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 ] महाकइपुष्यंतविरयउ महापुराणु खरखुरहणणवणियमणुसंगहिं कृष्णदिष्णकरणरहिं मरंतहिं पउरहिं महिमंडलि धोलंतहिं हल्लोहलिउ णवरु ता एक्कें पूरिउ संखु जलहिगंजणसरु' अहि अक्कंतउ चाउ चडाविउं कालएण कालु व आहञ्चे चउदिसिवहि णासंततुरंगहिं । हा हा एउं काई पलवंतहिं । धावंतहिं कंदंतकणंतहिं । कंसह वक्त कहिय पाइक्कें । परमारणउ मयंदभयंकरु । पट्टणु तेण णिणाएं तावि ं । अपसिद्धेन सुभाशुहि भिच्चें । घत्ता - णिसुणिवि तं वयणु जीवंजसबइ तहु अक्ख इ । वरिल मई एवहिं मारमि को रक्खइ ||23|| ( 24 ) दुबई - इय' पभणंतु लेंतु करवालु ससेष्णु सरोसु णिग्गओ । ता रोहिणिसएण अवलोइउ भावरु जित्तदिग्गओ ॥ छ ॥ फणदलि देहणालि फणिपंकइ अच्छइ भयरु मुक्कउ संकइ । सावणमेहु व वलए भूसिउ । तु दुब्बासाइ किं वासिउ । संखें णं चंदेण पयासिउ सो संकरिसणेण संभासिउ [ 85.24.5 5 10 5 बाँधने के खूँटे मोड़ दिये, घोड़ों के तीव्र खुरों के आघातों से मनुष्यों के अंग घायल हो गये, कानों पर हाथ रखे हुए लोग, हा हा यह क्या, इस प्रकार चिल्लाने लगे। महीमण्डल में व्याप्त, दौड़ते हुए, आक्रन्दन करते हुए बहुतेरे मनुष्यों ने कहा- जलधि के गर्जन के समान स्वरवाला शंख पूरित कर दिया गया है, दूसरे को मारनेवाला और सिंह के समान भयानक साँप आक्रान्त कर दिया गया है, धनुष चढ़ा दिया गया है, उसके शब्द से नगर सन्तप्त है। कृष्णवर्ण काल के समान आघात करनेवाले, अप्रसिद्ध, सुभानु के अनुचर सेधत्ता - यह वचन सुनकर जीवंजसा का पति (कंस) उससे कहता है- मैंने शत्रु को पा लिया है, अब मैं उसको मारूँगा, देखें कौन बचाता है ? ( 24 ) यह कहते हुए और तलवार हाथ में लेते हुए वह सैन्य सहित बाहर निकला। तब इतने में बलराम ने दिग्गज को जीतनेवाले अपने भाई को देखा कि वह उस नागरूपी कमल पर निःशंक बैठा है, जिसके फन दल हैं और शरीर मृणाल । शंख से वह (कृष्ण) ऐसा शोभित है, जैसे चन्द्रमा से प्रकाशित हो या इन्द्रधनुष से सावनमेघ भूषित हो । संकर्षण ने तब उससे कहा- तुम दुर्वासना में क्यों पड़े हुए हो ? यहाँ क्यों आये ? यह क्या किया ? तुम्हारा गोकुल भीलों ने ले लिया है। यह सुनकर अपने सुभटत्व के तेज से घिरा हुआ वह नगर से निकलकर चल दिया । वह गोपाल वृषभ 3. ।।' चउदिम् । 4. ।' डरंतहिं । AP एक्कहिं 6. AP पाक्कहिं 7. ABPS 'गज्जण' | N. AP पडु भयंकरु, BS मयंयु भयंकरु; Als. मयंधभयंकरु । *. * का कालुय। 10. A अविसिद्वेण । ( 24 ) 1. 13 एम भणंतु 5 इय भगंतु । 2. B तेगु । 3. AP भमरु व 4. AP मेहु व तानें भूसिउ । 6 t २ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85.25.41 महाकपुष्फयंताविरयड महापुराणु [ 105 कि आओ सि एउं कि रइयर गोउलु तेरउं भिल्लहिं लइयउं। णियसुहडत्ततेयपरियरियउ तं णिसुणिवि पुराउ णीसरियउ। 'वसहविंदढेक्कारविसहि लग्गउ गोवउ गोउलवहि। अवरहिं गपि पहेण तुरंतहिँ कंपियदेहएहिं सयभंतिहि । सुयवित्तंतु पिउहि समईरिउ चंपिउँ70 चाउ संखु आऊरिउ । विसहरवरसयणयलु णिसुभि तं आयण्णिवि पुत्तवियंभिउं । णवउ कहिं मि रायमयतासिउं गोउलु अण्णत्तहिं आवासिउं। घरु आयउ रोमंचियगत्तइ" अवलंडिउ हरिसंसुयणेत्तइ । .. नारद मशिद हार पर मुक्कर पुत्तु "दुवालिइ। पत्थिवसयणयलि किह चडियउ डिभयकेलिइ ॥24॥ (25) दुवई–णदें णंदणिज्नु' णियणंदणु ससणेहें णिहालिओ। पाहुणयाई जाहुं सुयबंधुहं इय वज्जरिवि चालिओ ॥ छ । तावग्गइ पारद्धृ णिहेलणु तहि मि परिहिउ महिवइरक्खणु। मिलिय जुवाण अणेय महाबल' पायपहरकंपावियमहियल । .... समूह के शब्दों के विशिष्ट गोकुल के रास्ते जा लगा। दूसरों ने मार्ग से जाकर तुरन्त काँपते हुए शरीर और डर से पुत्र का समाचार पिता को दिया कि इसने धनुष चढ़ा दिया, शंख पूर दिया, नागशय्या-तल को नष्ट कर दिया। पुत्र के इन विस्मयों को सुनकर (पिता सोचता है)-राजभय से त्रस्त मैं (समझ लो) नष्ट हो गया, अब कहीं और अपना आवास बनाऊँगा। बालक घर आया, और रोमांचित शरीर एवं हर्ष के आँसुओं से भरे हुए नेत्रोंवाली माँ ने उसका आलिंगन किया। पत्ता-माँ ने हरि से कहा- "हे पुत्र ! कुचाल से तुम्हारा पिण्ड नहीं छूटा, तुम शिशुक्रीडा से राजा की नागशय्या पर क्यों चढ़े ? ( 25 ) नन्द ने बढ़ते हुए अपने पुत्र को स्नेह से देखा, और वह पुत्र-बन्धुओं से यह कहकर चला कि चलो पहुनाई कर आयें। तब उसने मार्गमध्य में आवास बनाना शुरू किया। सजा के रक्षक वहाँ भी उपस्थित थे। अनेक महाबलवान युवक इकट्ठे हुए जो अपने पैरों के आघात से धरती हिला देते थे। जिन पाषाण-खम्भों को अपनी शक्ति से कोई भी नहीं हिला सका, उन्हें विजयश्री की कामना रखनेवाले श्रीकृष्ण ने ऐरावत 5. P आयो सि। 6. P सुहडत्तु। 7. ABS बसहयं । 8. Hoविसहहि। 9.A भयवंतहिं; PK सपतिहि and glass in K उत्पन्नशतसंदेहः। PS सयमंतहि AK. 'भयभंतहि against Mss. 10. AP चषित। 11. Sआओरिउ। 12.Aगत्तउ। 13. A हरिसुव"हरि अंसुव । 14. A गणेहड। 15. P दुयालिए। 15. A कह। (25) 1. AP बंदणिज्ज । 2. P सांसणेहें। 3. A महिवइ तहि पि परिविउ रक्खणु। 4. A यहाभड। 5. Aणहयल। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 ] महाकइपुष्फयंतबिरयउ महापुराणु | 85.25.5 को वि ण संचालइ जे थामें ते महुमहणे जयसिरिकामें। उच्चाइवि सुरकरिकरचंडहिं पत्थरखंभणिहियभुयदंडहिं'। अरिवरणरणियरें परियाणिउ गंदगोउ लहु जणणिइ णीणिर। आउ जाहुं हो पुत्त पहुच्चइ गोउतु सुण्ण सुइरु ण मुच्चइ । एव भणेप्पिणु कण्हपया परिमुक्काई ताई भयभावें। मलवज्जिइ महिदेसि समाणइ पुणरवि तेत्यु जि ठाणि चिराणइ। आणिवि गोविंदु वि गोविंदु वि थियई ताई "दइउ जि अहिणदिवि । घत्ता-सुपसिद्ध भरहि सो गंदगो" गुणराहहिं । पुष्फयंतसमहि वणिज्जइ वरणरणाहहिं ॥25॥ 10 इय महापुराणे तिसहिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतबिरइए महाभष्यभरहाणुमण्णिए महाकब्बे णारायणबालकीलावण्णणं ___णामपंचासीमो परिच्छेउ समत्तो ॥85॥ की सैंड के समान प्रचण्ड अपने भुजदण्डों के द्वारा उटाकर रख दिया। शत्रुवर-समूह ने यह जान लिया, तब नन्दगोप को शीघ्र माँ ने प्रेरित किया- "हे पुत्र ! बहुत हुआ, आओ चलें, गोकुल को बहुत समय तक सूना छोड़ना ठीक नहीं।" इस प्रकार विचारकर वे लोग कृष्ण के प्रताप से भय से मुक्त हो गये। मल से रहित समतल महीदेशवाले अपने उसी पुराने स्थान पर आकर गोविन्द और गोप-समूह रहने लगा। देव का अभिनन्दन कर वे भी वहीं स्थित हो गये। __ घत्ता--भारत में गुणशोभा से युक्त जो प्रसिद्ध नन्दगोप हैं, उनका नक्षत्रों के समान उज्ज्वल श्रेष्ठ नरनाथों द्वारा वर्णन किया जाता है। इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषों ने गुणों और अलंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महाभय भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य में नारायण-लीलावर्णन नाम का पयासीवौं परिच्छेद समाप्त हुआ। Er. AP संचालइ णियथा। 7. Bधंभ'TH.Aपई मुक्काई। 9. B महिदेस। 10. A देत जि: BS दइबु जि। 11. Bणंदगोठ्ठ; गंदगोउ, गंदगोचुः Als. गंदगोउ। 19. P पुष्पदंत । 14. A बालकीडा। [5. पंचासीतितपो। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86.1.15] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु [ 107 छासीतिमो संधि वइरि जसोयहि पाय कसे पणि परिछि ! क्रमलाहरणु रउदु ते णंदहु पेसणु दिण्णउं ॥ ध्रुवकं ।। सिहिचुरुलिभूउ' तें भणिउ णंदु जहिं गरलगाहि जउणासरंतु जायवि जवेण आणहि वराई ता णंदु कणइ जहिं दीणसरणु जहिं राउ हणइ किं धरइ अण्णु हउं काई करमि फणि सुठु चंडु को करिण शिवइ गउ रायदूउ। मा होहि मंदु। णिवसइ महाहि। तं तुहुं तुरंतु। कयजणरवेण। इंदीवराई। सिरकमलु धुणइ। तहिं दुक्कु मरणु। अण्णाउ कुणइ। तहिं विगयगण्णु। लई जामि मरमि। तं कमलसंडु। को झेंप घिवइ। छियासीवीं सन्धि कंस ने अपने मन में यह समझ लिया कि यशोदा का पुत्र (ही उसका) दुश्मन है। उसने नन्द के लिए कमल लाने का भयंकर आदेश दिया। राजदूत आग की ज्वाला होकर गया। उसने कहा- “नन्द ! तुम देर मत करो, जहाँ विषग्राही महासर्प रहता है, उस यमुना सरोवर के मध्य तुम वेग से जाकर, जनकोलाहल से व्याप्त नीलकमल ले आओ।" __तब नन्द क्रन्दन करता हुआ अपना सिर-कमल घुमाता है कि जहाँ दीनों के लिए शरण मिलती है, वहाँ मृत्यु मिल रही है। जहाँ राजा ही मारता है और अन्याय करता है, वहाँ किस प्रसिद्धि-रहित मनुष्य की शरण ली जाव ? मैं (इस समय) क्या करूँ ? लो मर जाता हूँ। सर्प अत्यन्त भयंकर है, उस कमल-समूह को (1) 1. P"चुरुलिय भूट। 2. P गय। 3. APS जाइचि। 5. A विगयमण्णु। 5. ABP अंप। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1081 महाकइपुष्फयंतविरक्त महापुराणु [86.1.16 20 धगधगधगति हुयवहि जलंति। उप्पण्णसोय कंदड जसोय। महु एक्कु पुत्तु अहिमुहि णिहित्तु। मा मरउ बालु मंई गिलउ* कालु। इय जा तसंति दीहर' ससंति। पियरई रसंति ता विहियसंति। अलिकायकति रणि धीरु मंति। पभणई उविंदु णिहणवि' फणिंदु। लिणाई हरमि जलकील करमि। वत्ता-इय भणिवि'" गउ कण्हु संप्राइउ जउणासरवरु। उभडफडविवडंगु जमपासु व धाइउ विसहरु ॥1॥ णं कंसकोवहुयवहहु' धूमु णं ताहि जि केरउ जलतरंगु सियदाढाविज्जुलियहि फुरंतु हरिसउहुं फडंगुलिरयणणक्खु णं दंडदाणु सरसिरिइ मुक्कु णं णइतरुणीकडिसुत्तदामु। णं कालमेहु दीहीकयंगु। चलजमलजीहु विसलव मुयंतु । पसरिउ जमेण करु घावदक्खु । गयीवेयउ" कणहहु' पासि ढुक्कु । कौन छू सकता है ? कौन गुच्छे को तोड़ सकता है। शोक से व्याकुल यशोदा विलाप करती है, मानो धक-धक् करती हुई आग जल रही हो, मेरा एक ही पुत्र है और उसे साँप के मुख में डाल दिया गया। मेरा बच्चा न मरे, चाहे काल मुझे खा ले। इस प्रकार वह त्रस्त होती है और लम्बी साँसें लेती है। इस प्रकार माता-पिता के कहने पर शान्ति करनेवाले, भ्रमर के शरीर के समान कान्तिवाले, युद्ध में धीर और विचारशील उपेन्द्र (कृष्ण) कहते हैं-नागराज को मारकर कमलों का हरण करूँगा और जलक्रीड़ा करूँगा। घत्ता-यह कहकर कृष्ण गये और यमुना-सरोवर पर जा पहुँचे। अपने उद्भट फनों से भयंकर अंगवाला वह विषधर यमपाश की तरह दौड़ा। मानो वह कंस की कोपरूपी आग का धुआँ हो, मानो नदीरूपी तरुणी की कटि का सूत्रदाम हो, मानो उसी की जलतरंग हो, मानो अपना लम्बा शरीर फैलाए हुए वह कालमेघ हो। अपनी श्वेत दंष्ट्राओं की बिजलियों से चमकता हुआ वह चंचल दो जीभवाला विषकण उगल रहा था। फनों की अंगुलियों के रत्नरूपी नखवाले उसने आघात में दक्ष अपना हाथ यम की तरह हरि के सम्मुख फैलाया, मानो सरोवर की लक्ष्मी ने दण्डबाण G. B गिलिउ। 7. 5 दोहरु । R. A रणवीर मंतिः रणधीरु मंति। 9. APS णिहणेवि। 10. B भणधि। 11. Pसंपाइऊ। 12. A "विहडंगु। (2) 1.5 पबहो। 2. D"चिजलिया। 3. "जवल । 4. सिक्खु । 5. A दंडवाणु सरसरिपमुक्क। 5. BP गयवेयः। 7.5 कंसप्लो पासु। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86.3.61 महाकइपुष्फयतविरयउ महापुराणु [ 109 फणि फुप्फुयंतु" चलु जुज्झलोलु णं तिमिरहु मिलियउ तिमिरलोल। दीसइ हरि दहि' भसलउलकालु णं अंजणगिरिवरि" णवतमालु। लणुकंतिपरज्जियघणतमासु। णक्खई फुरति पुरिसोत्तमासु"। सिरि माणिक्कई विसहरयरासु दीसंतई देति व देहणासु। तंवेहि कुसुममणियरहि। तंबु ण सरिवेल्लिहि पल्लउ" पलंबु। अहि घुलिउ अंगि महुसूयणासु णं कत्थूरीरेहाविलासु। : पत्ता-विसहरघेलिरदेह सरि भमंतु रेहइ हरि। कच्छालंकिउ तुंगु णं मयमत्तउ दिसकरि ॥2॥ 10 फणि दादाभासुरू फुक्करंतु फणि उरुफणाइ ताडइ त ति फणि वेढइ उब्वेदइ अणंतु फणि धरइ सरइ सो वासुएउ इय विसमजुज्झसंमद्दु सहिवि पीयलवासें हउ उत्तमंगि महुमहणु व' जुज्झइ हुंकरंतु। पष्टिखलइ तलप्पइ हरि झड ति। फणि तुंचइ वंचइ लच्छिकंतु। ण बीहइ सप्पहु गरुडकेउ। दामोयरेण पत्थाउ लहिदि। मणिकिणसिहासंताणसंगि'। छोड़ा हो। फू-फू करता हुआ चंचल युद्ध-लोल वह ऐसा लगता है मानो तिमिर-समूह तिमिर से मिल गया हो। भ्रमर-कुल की तरह श्याम सरोवर में ऐसे दिखाई देते हैं, मानो अंजन गिरिधर पर नया तमाल हो। शरीर की कान्ति से सघन अन्धकार को पराजित करनेवाले पुरुषोत्तम के नख ऐसे शोभित हैं, मानो विषधर के सिर के ऊपर श्रेष्ठ माणिक्य दिखाई देते हों, मानो उसके शरीर का नाश प्रकट कर रहे हों। लाल कुसुम रूपी पद्मराग मणियों से लाल, मानो सरोवर की लता-पल्लव हो, मधुसूदन के अंग पर पड़ा हुआ सौंप ऐसा लगता है, मानो कस्तूरी की रेखा का विलास हो। ___ घत्ता--विषधर से व्याप्त शरीरयाले सरोवर में घूमते हुए हरि ऐसे शोभित हैं, मानो कच्छा (वस्त्र) से अलंकृत ऊँचा मतवाला दिग्गज हो। दंष्ट्राओं से भास्वर और फूत्कार करता हुआ वह नाग हुँकार करते हुए मधुसूदन के साथ युद्ध करता है। अपने भारी फन से तड़-तड़ करके ताड़ित करता है। हरि हाथ के प्रहार से शीघ्र उसे हटा देते हैं। नाग हरि को घेरता है, अनन्त (कृष्ण) उसे घेर लेते हैं; नाग लोंचता है, लक्ष्मीकान्त उसे प्रताड़ित करते हैं। नाग पकड़ता है, वसुदेव उसे चला देते हैं। गरुड़ध्वजी वह साँप से नहीं डरते। इस प्रकार विषम युद्ध में सम्मर्दन सहकर, प्रस्ताव पाकर पीताम्बर वस्त्रधारी उन्होंने मणिकिरणों की ज्वालमाला से युक्त सिर पर उसे आहत H. A पुष्फतु; PS पुप्फुयतु । 9.A देहि गं भसन' । देहए: S देहे। 10.5 अंजगिरि । 11. S "परिज्जयः। 12.8 पुरुसो"। 13. B देहमासु In second vand: 1 दोहणासु। 14.5 गंतहि 1 15. P कुसुमणियरेटिं। 16. A सरवेल्लोपल्लवपलबुः सरिघल्लिर। 17.5 पल्लवु। 18. B कत्थरिय। (3) 1. A थि। 2. P"कडाए । S. A तइप्पए। 4. 5 सरद धरइ। 5. P जुङ्ग समदु । 6. APS उत्तिमांग। 7. A "किरणसहासें तेण सांग। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110] महाकइपुप्फर्यतविरयड महापुराणु [ 86.3.7 10 गउ णासिवि विवरंतरि पइटु जयसिरिइ" विहूसिउ झत्ति विठ्ठ। जलि कीलइ अमरगिरिंदधीरु "कल्लोलुप्पीलियविउलतीरु' । 'विहडियसिप्पिउडसमुग्गयाई मुत्ताहलाई दसदिसु' गयाई। मीणउलई भयरसमंथियाई ण सत्तुकुडुंबई दुत्थियाई। घत्ता-उडिवि गणि गयाइं कीलतहु हरिहि ससंसहु । दिट्टई हंसउलाई अट्ठियई णाई तहु कंसहु ॥3॥ भसलउलई तारदिस गुमुगमति णं कसमरणि बंधव रुयति। कण्हहु तेएं जाया विणीय रंगति कंक णं पिसुण भीय। कमलाई अलीढई तेण केंव खुडियई अरिसिरकमलाई जेंव। हरियई पीयई लोहियसियाई महुरापुरणाहहु' पेसियाइं। पयपब्भदुई मलिणंगयाई खलविहिणा सुकयाई व हयाई। पडिवक्खभिच्चकरपेल्लियाई बद्धाई घरंगणि घल्लियाई। णलिणाई णिवेण णिहालियाई णं णियसयणइं उम्मूलियाई । अण्णहिं दिणि 'भुवबलवूढगाव' । हक्कारिय सयल वि गंदगोय। परजीवियहारणु मंतगुज्झु पारद्धउं राएं मल्लजुज्झु। कर दिया। नष्ट होकर वह बिल के भीतर चला गया और विष्णु (कृष्ण) शीघ्र ही विजयलक्ष्मी से विभूषित हुए। अमर गिरिवर की तरह गम्भीर और लहरों से विशाल तट को उत्पीड़ित करते हुए वह जल में क्रीड़ा करते हैं। विघटित सीपियों के सम्पुटों से निकलते हुए मोती दसों दिशाओं में बिखर गये। मछलियों के कुल भयरस से पीड़ित हो गये, मानो दुःस्थित शत्रु-कुटुम्ब हो। ____घत्ता-प्रशंसा-युक्त हरि के जलक्रीड़ा करने पर, उड़कर आकाश में गये हुए हंसकुल कंस की हड्डियों के समान प्रतीत होते हैं। भ्रमरकुल चारों दिशाओं में गुनगुना रहे हैं, मानो कंस की मृत्यु पर उसके भाई रो रहे हैं। कृष्ण के तेज से विनीत हुए बगुले इस प्रकार चलते हैं, मानो डरे हुए दुष्ट हों। उसने कमलों को इस प्रकार ले लिया, मानो शत्रुओं के सिरकमल तोड़ लिये गये हों। हरे, पीले, लाल और सफेद कमल मथुरापुरी के राजा के लिए भेज दिये गये। वे ऐसे लगते थे, मानो दुष्ट विधाता के द्वारा आहत, पदभ्रष्ट मैले-कुचैले शरीरवाले पुण्य हों। शत्रु के भृत्यों के द्वारा पीड़ित, बँधे हुए वे घर में डाल दिये गये। राजा कंस ने उन कमलों को इस प्रकार देखा, मानो उसके अपने स्वजन उखाड़ दिये गये हों। एक दूसरे दिन, भुजबल में बढ़ा हुआ है गर्व जिनका, ऐसे समस्त नन्द गोपों को बुलवाया और राजा ने गुप्त मन्त्रणा कर दूसरे के जीवन का अपहरण करनेवाला मल्लकुद्ध प्रारम्भ किया। B. A जयमिरिए। 9. APS "उप्पेल्लिय। 10. AP "विरलपीस । 11. PS विडिय। 12. A "सिप्पिउल"। 13. P दसदिसि।।4. B कुडंबई P कुटुंबई। (4) 1. AP महराजरि"; " पहुरापुरि । 2. A णिमूलियाई: B जिम्मूलिपाई। 3. B°भुव। 4. ' -कढ। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86.5.11]] [ 111 महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु पत्ता-कसहु णाउं सुणतु तिव्वकोवपरिणामें। चल्लिउ देउ मुरारि णं केसरि गयणा ॥4॥ संचलिय' णंदगोवाला सयल. दीहरकर णं मायंग पबल । वियइल्लफुल्लबद्धद्धकेस उद्दुत यंत' जमदूयवेस। सिंदूरधूलिधूसरियदेह गज्जिय णं संझारायमेह। कालाणल कालकयंतधाम' भसलउलगरलपणजालसाम । बलतोलियमहिमहिहर रउद्द मज्जायरहिय णं खयसमुद्द। सणिदिविविविविसविसहराह रणि दुण्णिधार अरिहरिणवाह। कयभुयरव दिसि उठ्ठियणिहाय पडुपडहसंखकाहलणिणाय । खलमलणकउज्जम जमदुपेच्छ जयलच्छिणिवेसियवियडवच्छ । रत्तच्छिणियच्छिर मच्छरिल्ल महुरापुरि" पत्त महल्ल मल्ल । पत्ता-ता2 तं रोलविमदु उव्वग्गणसंचालियधरु। गोवरविंदु" गणावि आरूसिति धाय" कुंजरु ॥5॥ 10 पत्ता-कंस का नाम सुनते ही, तीव्र क्रोध-परिणामवाले प्रसिद्ध नाम मुरारी इस प्रकार चले मानो सिंह हो। लम्बी बाँहोंवाले, समस्त गोपाल इस प्रकार चले मानो प्रबल गज हों। खिले हुए फूलों से बँधे हुए ऊर्ध्व केशवाले यमदूत के रूप में, उठते हुए सिन्दूर की धूल से धूसरित देहवाले वे ऐसे लगते थे, मानो सन्ध्या गगवाले मेघ गरज रहे हों। कालानल काल और यम के घर भ्रमरकुल एवं गरल के घनजाल के समान श्याम, अपने बल से पर्वतों को तौलनेवाले रौद्र, वे ऐसे मालूम होते हैं, मानो मर्यादा से रहित प्रलयसमुद्र हों। शनि की दृष्टि में और विष्टि के समान विषधारण करनेवाले विषधर, युद्ध में दुर्निवार शत्रुरूपी हरिणों के लिए व्याध, बाहुओं से शब्द करते हुए तथा दिशाओं में घोर पटुपटह, काहल और शंखों के कठोर शब्दोंवाले, दुष्टों के दमन के लिए उद्यमी, यम की तरह दुर्दर्शनीय और अपने विशाल वक्ष में लक्ष्मी को निवेशित करनेवाले, लाल-लाल आँखों से देखनेवाले ईर्ष्या से भरे हुए वे मल्ल मथुरा नगरी पहुंचे। ____घत्ता-तब शब्द से गरजता हुआ, उछलने से धरती को संचालित करता हुआ हाथी गोपवृन्द को देखकर उन पर क्रुद्ध होकर दौड़ा। 3. AP णिरु तिव्य । 5. A चलिउ मुरारि समोउ णं पलिउ मुरारि सगोउ थे। (5)1.AP ता पलिय। 2. AP चबल । 3. A पर । 4. विवउल्ल। 5. Pठत। 6.5 सेंदुर 17. AP कयंतयाम। 8. Y"काहलि' 19.Aवियविछ। 10. 13 यिच्छिय। ।।. 5 महुरारि। 12. A तहि गेलविसदु। 13. वेदुः 5 "वंदु। 14. AS धाउ। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 ] महाकइपुष्फर्यतविरयड महापुराणु [86.6.1 मउल्लियगडु' पसारियसुंदु। सरासणवंसु सयापियपंसु। घणंजणवण्णु समुण्णयकण्णु। दिसागयभिंगु धराधरतुगु। महाकार तेण जसोयसुएण। पडिच्छिउ एंतु णियविवि' दंतु। सिरग्गि तह त्ति गओ' हउ झत्ति। भएण गयस्स विसागु गयस्स। बलेण समत्थि सिरीहरहत्थि। विरेहइ चारु जसो इच सारु। रिस्स पयंडु जमेण व दंडु पयासिङ मुरारि णिसीहु। घत्ता-अप्पडिमल्लहु' मल्लु पडिभडमारणमग्गियमिसु । अक्खाडइ अवइण्णु हयबाहुसद्दबहिरियदिसु ॥6॥ सुयपक्खु धरिवि ओहामियक्कु परिछेउ करिवि। संणहिवि थक्कु। (6) आई गण्डस्थलवाला, सूंड फैलाए हुए, धनुष वंशीच धूल को सदैव चाहनेवाला, घन और अंजन के रंग का समुन्नत कर्णवाला, दिशागज के आकारवाला, पर्वत की तरह ऊँचा, ऐसे उस आते हुए महागज को यशोदा के उस पुत्र ने ललकारा और दाँत खींचकर तथा सिर पर ताड़ित कर शीघ्र गदा मारा। भय को प्राप्त उस हाथी का वह सुन्दर दाँत, बल में समर्थ श्रीकृष्ण के हाथ में ऐसा शोभित है, जैसे वम ने अपना दीर्घदण्ड प्रकाशित किया हो। मुरारी नृसिंह (महामल्ल), ___ धत्ता-जो अप्रतिमल्लों के मल्ल प्रतिभटों को मारने का बहाना ढूँढ़नेवाले, अपने बाहुशब्द से दिशाओं को अधीर कर देनेवाले हैं, ऐसे कृष्ण अखाड़े में उतरे। पुत्र के पक्ष को धारण कर अपने पक्ष का विचार कर, सूर्य को पराजित करनेवाले, गजलोलगामी वासुदेव (6) 1. मोल्लिय'। ५. "सोंड़ ! १. "कंतु। 4. 2 मिनहिविः पियट्टिवि। 5. Aऊ गओ झत्ति हओओ ति। 6. Kणिशीहु। 7. PS मालह। 8. HAS हयवहुसद : PS दमाहु। (7)1. ऊहामिव । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P : 86.7.231 महाकपुष्यंतविरयउ महापुराणु गयलीलगामि कण्हणु बलेण पइसरिवि रंगि वज्जरि कज्जु जुज्झेवि कंसु करि बप्प तेम तुह जम्मवेर खलु खबहु जाउ 'भडभुरवाति' पक्खिजूरि आहवर सिल्लि घिल्ति अणण्णवण्ण सणवज्झि रिउणा विमुक्कु पसरियकरासु ता सो वि सोवि संचालणेहिं आवट्टणेहिं परिभमिवि लद्ध बंधेण बंधु वसुएवसामि । सुहिवच्छलेण । लग्गेवि अंगि। गोविंद अज्जु । दलट्टियं । उ जियइ जेम । उव्यूढखेरि" । उग्गिण्णघाउ । कोवग्गिजालि । तर णच्चतमल्लि । कुंकुण्डलोल्लि | विक्खित्तचुणि' । तहु बाहुजुज्झि । चाणूरु ढुक्कु । दामोयरासु । आलग्ग दो वि। अंदोलणेहिं । अंबि" लुट्टणेहिं । संरुद्ध" बद्धु । रुधेण" रुंधु । [ 113 5 10 15 20 स्वामी तैयार होकर बैठ गये। सज्जनों के लिए चत्सल, बलराम ने रंगभूमि में जाकर, कृष्ण के अंग से लगकर यह काज कहा - " हे गोविन्द ! आज तुम कंस से लड़कर उसके कन्धे उखाड़कर उस सुभट को इस प्रकार बना दो कि जिससे वह जीवित नहीं रह सके। तुम्हारा जन्मशत्रु द्वेष रखनेवाला और आघात पहुँचानेवाला यह दुष्ट नष्ट हो जाये।" जहाँ योद्धाओं का कोलाहल हो रहा है, क्रोध की ज्वाला फूट रही है, जो प्रतिपक्ष को सतानेवाला है, जहाँ नगाड़े बज रहे हैं, जो आयुधों से झनझना रहा है, जिसमें मल्ल नृत्य कर रहे हैं, फूल बरसाये जा रहे हैं, केशर-जल छिड़का जा रहा है, तरह-तरह के रंगों के चूर्ण बिखेरे जा रहे हैं, जिसमें वध निकट है, ऐसे उस बाहुयुद्ध में शत्रु के द्वारा प्रेषित चाणूर हाथ फैलाये हुए कृष्ण के पास पहुँचा । तब वह भी, यह भी, दोनों आपस में भिड़ गये। संचालनों, आन्दोलनों, आवर्तनों और लुट्टनों से घूमकर, उसे 2. BP गोबिंदु 3 A उच्चददेरि । 1 AP भट्टमुयदमालि 5. AP णिक्खित्तपुण्णे। 6. ABPS तहिं 7 AP पमुक्कु BA ये 9 AP add after 20 b. उल्लालणेहि आयीन गोहिं । 10. AP पविलुणेति । 11. B संरुद्ध । 12. AP संघेण बंधु1 19. AP बंधेण बंधु । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 ] महाकइपुष्फयंतविश्यउ महापुराणु [86.7.24 बाहाइ' बाहु गाहेण माहु। दिट्ठीइ दिट्टि मुट्ठीइ मुट्ठि। 25 चित्तेण चित्तु गत्तेण गत्तु। परिकलिवि तुलिवि उल्ललिवि मिलिवि। तासियगहेण सो महुमहेण। पीडिवि करेण पेल्लिवि उरेण। रुभिवि छलेण मोडिउ बलेण। मणि" जणियसल्लु चाणूरमल्लु। कउ मासपुंजु' णं गिरिणिउंजु। गेरुयविलित्तु धिप्पतरत्तु। महियलणिहित्तु पंचत्तु पत्तु। घत्ता-चिणिवाइवि चाणूरु पहु बहुदुव्ययणे” दूसिवि। 35 पुशु हक्कारिज क ह ल ५ रूचि ॥7॥ (8) णवर ताण दोण्हं भुयारणं जाययं जणाणंदकारण। सरणधरणसंवरणकोच्छर भिउडिभंगपायडियमच्छरं। करणकत्तरीबंधबंधुरं कमणिवायणा वियवसुंधरं। मिलियवलियमहिलुलियदेहयं णहसमुल्ललणदलियमेहयं । पाकर, अवरुद्ध कर उन्होंने उसे बाँध लिया। बन्ध से बन्ध, रुन्ध से सन्ध, बाहु से बाहु, ग्राह से ग्राह, दृष्टि से दृष्टि, मुट्ठी से मुट्ठी, चित्त से चित्त और गात्र से गात्र मिलाकर, तौलकर, उछलकर, मिलकर ग्रहों को सतानेवाले श्रीकृष्ण ने हाथ से पीड़ित कर, उर से ठेलकर, छल से रोककर, शक्ति से उसे मोड़ दिया, मानो मन में शल्य उत्पन्न करते हुए चाणूर पहलवान का उन्होंने ढेर बना दिया, मानो गेरु से लिप्त पहाड़पुंज हो। खन से लथपथ और धरती पर पड़ा हआ वह मत्य को प्राप्त हो गया। पत्ता-चांणर का पतन कर और राजा कंस की अपशब्दों से निन्दा कर. कष्ण ने काल की तरह कपित होकर कंस को ललकारा। (8) उन दोनों का बाहुयुद्ध लोगों के लिए आनन्द का कारण हुआ। शरण, धरण और संवरणों (रोक देने) से उत्सुकता पैदा करना, भुकुटियों के भंग से मत्सर प्रगट करना तथा करण, कर्तरी बन्ध से सुन्दर होना, पैरों की चपेट से धरती पर झुकाना, मिलने और मुड़ने से शरीरों का धरती पर लुढ़कना, आकाश में उछलना और मेघों को दलित करना, महान् नगरजनों के जोड़ों को सन्तुष्ट करना, नाना प्रकार के आभूषणों का गिरना, 14. P बाहेण बाहु। 15. B पेल्लवि। . APS माग | 17. P दुव्यपणेहि। 18. P हक्कारिदि। (8)1. A बंधुबंधुरं। 1. A णापिय । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86.9.10] [ 115 महाकइपुप्फवंतविरया महापुराणु पवरणयरणरमिहुण-तोसणं परिघुलतणाणाविहूसणं। 'परपरक्कमुल्लुहियदूसणं जुज्झिऊण सुइरं सुभीसणं। 'चरणचप्पणोणवियर्कधरो वरमयाहियेणेव सिंधुरी'। पत्ता-कड्डिउ पएहि धरिवि णिहलिउ गलियरुहिरोल्लिउ । कंसु कयंतहु तुड़ेि' कण्हेण भमाडिबि घल्लिउ ॥8॥ हइ कसि वियभिय तियसतुहि आयासह णिवडिय कुसुमविहि। किंकर वर णरवइ उत्थरत' कण्हेण भणिय भंडिणि भिडंत । मा मइं आरोडहु गलियगच मा एयहु पंधे जाहु' सव्व। तहिं अवसरि हरि संकरिसणेण आलिंगिउ जयहरिसियमणेण। वसुएवं भणिय म करह" भति इहु केसरि तुम्हई मत्त दति। भी मुयह मुयह णियमणि अखंति कण्हहु बलवंत वि खयहु जंति। उप विहि दंघईह गब्मम्मि पसण्णि महासईहि। कुलधवलु वसुंधरभारधारि सुउ मज्झु कंसविद्धंसकारि। पच्छण्णु पवहित गंदगोटि एवहिं करु ढोइउ कालबढि"। जो कुज्झइ जुज्झइ सो ज्जि मरइ गोविंदि कुइइ कि कोइ" धरइ । 10 दूसरों के द्वारा खूब उलाहने दिये जाना-इस प्रकार बहुत समय तक भीषण युद्ध करने के बाद, पैरों की चपेट और कन्धे से झुकाकर जिस प्रकार श्रेष्ठ सिंह के द्वारा हाथी निर्दलित किया जाता है, उसी प्रकार___घत्ता-खींचकर, पैरों से कुचलकर, गिरते हुए रक्त से लथपथ उसे नष्ट कर कृष्ण ने कंस को घुमाकर यम के मुंह में डाल दिया। (9) कंस के मारे जाने पर देवता आश्चर्यचकित रह गये। सन्तुष्ट होकर उन्होंने आकाश से कुसुमबृष्टि की। तब राजा के किंकर उछल पड़े। युद्ध में लड़ते हुए कृष्ण ने कहा-“हे गलितगर्व ! तुम लोग मुझसे मत लड़ो, सब लोग इसके रास्ते मत जाओ।" उस अवसर पर विजय से हर्षितमन बलराम ने श्रीकृष्ण का आलिंगन किया। वसुदेव ने कहा-"भ्रान्ति मत करो। यह सिंह है और तुम लोग मतवाले गज हो, अपने मन की अशान्ति को तुम लोग छोड़ो। कृष्ण से अधिक बलवाले भी नाश को प्राप्त होते हैं। महासती देवी देवकी के प्रसन्न गर्भ से उत्पन्न, कुलधवल पृथ्वी का भार वहन करनेवाला, कंस का नाश करनेवाला यह मेरा पुत्र है। यह नन्दगोठ में प्रच्छन्न रूप से पलपुस कर बड़ा हुआ है। इस समय इसके हाथ में कालवृष्टि है। जो क्रोध करता है या लड़ता है, वहीं मरता है। गोविन्द के क्रुद्ध होने पर कौन बचा सकता है ?" 3. मिश्रुण" । 4. A परपरक्कम लुहियदूसण: B परपरक्कमटलुहियदेहय; S"मुल्लिहिय । 5. A चप्पणोष्णपिय । 6. A दरमहाहवेण ब; B यस्मयाहियेणेव्य । 7.5 सेंधुरी। B.EK गलिर। 9. APS तोडेि। 10. BP केसवेण । (9)I, Pओत्थरंत। 2. P आगेलहु। 3.5 पंधे। 4.$जाह। 5. B भणिउ। 5. D करहि करहु। 7.A पहु18, Bमुहि मुअहि19. A बलयंतहो। 10. B देवोदेवहिं। 1. A कालविट्टि B कालयहि। 12, A गोविंदें कुढ़ें। 13. AP को वि। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 ] महाकइपुप्फयंतविस्य महापुराणु पत्ता - जाणिवि जायवणाहु जियगोत्तहु मंगलगारउ । दिउ "णिवणियरेहिं दामोयरु बइरिबियार ॥9॥ 10 कण्ण समाण को वि पुत्तु दुद्धरभररणधुरदिष्णखंधु' अजिवि णियलई गयवरगईइ अहिदियजिणवरपायरेणु कइवयदियहहिं रइकीलिरीहिं' पंगुत्त ं पदं माहव सुहिल्लु एवहिं महुराकामिणिहिं रतु कवि भणइ दहिउ पंथंतिबाई " लवणीयलित्तु करु तुज्झु लग्गु तुहुं पिसि णारायण सुयहि नाहिं सो सुयरहि किं ण पउण्णवंछु' संजणउ' जणणि विद्दवियसत्तु । उद्धरिय जेण निवड़ंत बंधु । सहुं माणिणीइ पोमावईइ । महुरहि संणिहियउ उग्गसेणु । बोल्लाविउ पहु गोवालिणीहिं । कालिंदितीरि मेरउं कडिल्लु । महं उप्परि दीसहि अथिरचित्तु । तुहुं मई धरियउ उन्मंतियाइ । कवि भणइ पलोयइ मज्झ मग्गु । आलिंगिउ अवरहिं गोवियाहिं । संकेयकुडगुड्डीणरिंछु । वत्ता का वि भणइ णासंतु उद्धरिवि खीरभिंगारउ । कि बीरियड जज्जु जं मई सित्तु भडारउ ॥ [ 86.9.11 5 10 पत्ता - यादवनाथ को अपने कुल का कल्याणकर्ता जानकर शत्रुसंहारक दामोदर की राजसमूह द्वारा वन्दना की गयी। ( 10 ) कृष्ण के समान कौन पुत्र है, शत्रुसंहारक दुर्धर भारवाले रण की धुरा में कन्धा देनेवाले जिसे माँ ने पैदा किया हो ? उन्होंने गजवर के समान चालवाली मानिनी पद्मावती के साथ श्रृंखलाएँ तोड़कर, जिनवर के चरण कमलों का अभिनन्दन करनेवाले उग्रसेन को मथुरा नगरी में स्थापित किया। कुछ दिनों तक कृष्ण के साथ क्रीड़ा करनेवाली ग्वालिनों ने कृष्ण से कहा- हे माधव ! तुमने मेरा सूक्ष्म कटिवस्त्र यमुनातीर पर छिपाया था, लेकिन इस समय आप मथुरा की स्त्रियों पर आसक्त हैं। हम लोगों पर अस्थिर चित्त दिखाई दे रहे हैं। कोई एक कहती हैं- दही मथते हुए उद्भ्रान्त होकर मैंने तुम्हें पकड़ लिया था और मेरा नवनीत से लिप्त हाथ तुम्हें लग गया था। कोई कहती है मेरा रास्ता देखते रहने के कारण हे नारायण ! तुम रात्रि भर नहीं सो सके, दूसरी- दूसरी गोधियों के द्वारा तुम्हारा आलिंगन किया गया। संकेत-वृक्ष के लिए जाने को उत्सुक और सम्पूर्ण है इच्छा जिसकी ऐसे तुम उसे याद नहीं करते ? पत्ता- कोई कहती है- क्षीरभृंगारक उठाकर भागते हुए तुम्हारा जो मैंने अभिषेक किया था; क्या उसे तुम आज भूल गये ? 11. AP for: ( 10 ) 1. 13 मंजणिउ 2 A Als भरघुरदिष्णकंधुः B दुद्धरमडरणदिण्णखंधु 3. B Als. अहिदिय । . AP 'कीलणीहि: B कीलरीहिं । 5. AP पहिल। 6. 4 वी वत्यु AP उद्धर्मि 9 AP मई अहिंसितुं भहार। | Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 1 ' 86.11.10] महाकइपुप्फयंतविरकर महापुराणु ( 11 ) इय गोवीयणवण सुगंतु संभासिउ । मेल्लिवि गव्यभाउ परिपालिउ थणथपणेण जाइ कइवयदियहई तुहुं जाहि ताम इस भणिवि तेण चिंतविद्ध' दिष्णु आलाविय भाविव नियमणेण पट्टविउ णंदु महुसूवणेण सहुं वसुए कीलइ परमेसरु दरहसंतु । इहजम्महु महुं तुहुं ताय ताउ । वीसरमिण खणुं मि जसोय माइ । पक्खिकुलक्खउ करमि जाम । वरवसुहार" दालिंदु छिष्णु । मोवालय पूरिय कंचणेण । ओहामियदेवयपूयणेण । सहुं परिवणेण हरिकरिजणेण* । सहुं हलहरेण घत्ता - सउरीणयरि पट्टु अहिसुरणरेहिं पोमाइउ । भरधरित्तिसिरीइ हरि पुप्फयंतु अवलोइउ ॥11॥ इय महापुराणे तिसट्ठिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महाभव्यभरहाणुमणि महाकव्ये कंसचाणूरणिहणणो णाम छासीतिमो" परिच्छेउ समत्तो ॥ 6॥ [ 117 5 सठ महापुरुषों के गुणों और अलंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य में कंस-धाणूर-हनन नाम का छियासीय परिच्छेद समाप्त हुआ। 10 ( 11 ) इस प्रकार गोपीजनों के बचन सुनते हुए, कुछ मुस्कराते हुए परमेश्वर क्रोड़ा करते हैं। गर्वभाव छोड़कर उन्होंने सम्भाषण किया - हे तात! इस जन्म के तुम मेरे पिता हो। जिसने अपने थलथलाते स्तनों से मेरा परिपालन किया उस यशोदा माँ को मैं एक पल के लिए नहीं भूल सकता। कुछ दिनों के लिए आप जाएँ, तब तक के लिए जब तक मैं प्रतिपक्ष का नाश कर लूँ। यह कहकर उन्होंने मनचाहा दान किया, श्रेष्ठ धनधारा से दारिद्र्य दूर कर दिया। अपने मन से बातचीत कर और चाहकर उन्होंने ग्वालों को सोने से लाद दिया । देवी पूतना को तिरस्कृत करनेवाले मधुसूदन ने नन्द को भेज दिया और स्वयं वसुदेव के साथ, हलधर के साथ, परिजनों अश्वों तथा गजों के साथ धत्ता - शौरी नगर में प्रवेश करने पर नागों, सुरों और नरों ने उनकी वन्दना की । भारतभूमि की लक्ष्मी ने नक्षत्रों के समान आभावाले श्रीकृष्ण का साक्षात्कार किया। ( 11 ) । 13 संभातिथि मेल्लिउ 2 B यणि थण्णेण । 3. B बीसरिमि। 1. B खणु यि । 5. S चित्तवि। 6. PS वसुधारए। 2. AP बोलें आकऱिसिक्पूयणेण । HR सुबह 9. APS हरिकरिमरेण । 10. A श्यासमोः P छायासीमो 5 छासीतितमो। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1181 महाकदपुप्फयंतविरयऊ महापुराणु [87.1.1 सत्तासीतिमो संधि मारिए म जीवादारविधा गय सोएण रुयंति पिउहि' पासि जरसिंधहु ॥ ध्रुवकं ॥ (1) दुवई-दुम्मण णीससंति पियविरहहुयासणजालजालिया। ___ वणदवदहणहुणियणववेल्लि व सन्चावयवकालिया ॥ गयकंकण दुहिक्खलीला' इव पुप्फविरहिय भेलमहिला इव । गट्टपत्त फागुणवणराइ व सुठ्ठ झीण णवचंदकला इव। मोक्कलकेस कउलदिक्खा इव पहाणविवज्जिय जिणसिक्खा इव । पउरबिहार बउद्धपुरी विव वरविमुक्क काणीणसिरी' विव । कंचिविचज्जिय उत्तरमहि विव पंडुछाय छणदंयहु सहि विव । णिरलंकारी कुकइहि वाणि व दुक्खहं भायण णारयजोणि व। गलियंसुयजलसित्तपओहर अवलोएवि धीय मउलियकर। भणइ जणणु गुरु आवइ पाविय किं कज्जेण केण संताविय। भणु तुह केण' कयउं विहवत्तणु को ण गणइ महुँ तणउ पहुत्तणु। जीविउं अज्जु जि कासु हरेसइ कासु कालु कीलालि तरेसइ। 10 सतासीवीं सन्धि मथुरानाथ के मारे जाने पर यशचिलवाले पिता जरासन्ध के पास शोक से रोती हुई जीवंजसा आयी। दुर्मना, प्रिय विरह की अग्निज्वाला से प्रज्वलित निश्वास लेती हुई, दावानल से दग्ध वनलता की तरह उसके सभी अंग काले पड़ गये थे। दुर्भिक्ष लीला की तरह 'गयकंकण' (कंगन, अन्नकण से रहित) वृद्ध महिला की तरह, पुष्परहित (फूल, ऋतु रहित), फागुन की वनस्पति की तरह नष्टपत्र (नष्ट पत्ररचना और पत्ते), नवचन्दकला के समान अत्यन्त क्षीण, कौलदीक्षा की तरह मुक्तकेश, जिनशिक्षा की तरह स्नान से रहित, बौद्ध नगरी की तरह (प्रचुर विहारवाली, विशेष हारों से रहित), कानीन की लक्ष्मी की तरह (पति, वर से मुक्त), उत्तरभारत की तरह कंचीविवर्जित (काँची नगरी, करधनी से रहित), कुकवि की वाणी की तरह निरलंकार, नरकयोनि के समान दुःख की भाजन थी। पिता कहता है-तुमने महान् आपत्ति पायी है, किस काम से किसने तुझे सताया है ? बताओ, तुम्हारा वैधव्य किसने किया ? कौन मेरी प्रभुता को स्वीकार नहीं करता ? आज भी मैं किसके जीवन का अपहरण नहीं कर सकता ? आज यम किसके रक्त में तैरेगा ? (1) I.A पहुहे पासि। 2. AP जरसेंधहो। 3. P दुभिक्य" । 1. काणीणे। .. P महि उत्तर। 6. A पंडुच्छाय सहि छणहंदहो इव। 7. AP कयर केण. Bअज्जु वि। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87.2.12] [ 119 महाकइपुप्फयंतविरय महापुराणु पत्ता-जीवंजसइ पवुत्तु गुणि किं मच्छरु किजइ। ___ ताय सत्तु बलवंतु तुज्झु समाणु भणिज्जइ ॥१॥ दुवई-वासारत्ति पत्ति बहुसलिलुप्पेल्लियणंदयोउले। जेणेक्केण धरिउ गोवद्धणु' गिरि हत्येण णहयले ॥छ।। वइरिणि णियथामेण विणासिय बालत्तणि जें पूयण तासिय । मायासयडु जेण संचूरिउ जेण तुरंगु तुंगु मुसुमूरिउ। जेण तालु धरणीय पाविउ जेण अरिठ्ठवयणु वंकाविउं। तरुजुवलउ* मोडि भुयजुयलें णायसेज्ज आयामिय पबलें। चाउ पणाविउ संखापूरणु' कियां जेण णियपिसुणविसूरणु। कालियाहि तासिवि अरविंदई खुडियई जेण पउरमयरंदई। दंतिहि जेण दंतु उप्पाडिउ सो ज्जि पुणु वि कुंभत्थलि ताडिउ । जो वग्गिवि भडरंगि पइट्सउ कालसलोणउ लोएं दिट्ठउ। घत्ता-जेण मल्लु चाणूरु जममुहकुहरि णिवेइउ । तेण गंदगोवेण मारिउ तुह जामाइउ ॥2॥ 10 घत्ता-जीवंजसा ने कहा--गुणवान व्यक्ति में क्या ईर्ष्या की जाए, हे पिता ! दुश्मन तुम्हारे समान दृढ़ बताया जाता है। वर्षाऋतु प्राप्त होने पर नन्द गोकुल के अत्यधिक जल में डूबने पर जिसने अकेले गोवर्धन पर्वत को हाथ से आकाश में उठा लिया, बचपन में जिसने शत्रुणी पूतना को त्रस्त कर दिया, जिसने माया-शकट को चूर-चूर किया, जिसने ऊँचे घोड़े को मसल दिया, जिसने ताल वृक्ष को धरती पर गिरा दिया, जिसने अरिष्ट वृषभ को नम्र बना दिया, भुजयुगल से तरुयुगल को मोड़ दिया, जिस प्रबल ने नागशय्या को झुका दिया, धनुष चढ़ा दिया, शंख बजा दिया, और जिसने अपने शत्रुओं को नष्ट कर दिया, कालियानाग को वस्त कर प्रचुर मकरन्दवाले कमल तोड़ लिये, जिसने हाथी का दाँत उखाड़ दिया, और उसी को फिर कुम्भस्थल पर ताड़ित किया, जो क्रुद्ध होकर मल्लयुद्ध-भूमि में प्रविष्ट हुआ, और जिसे लोगों ने यम के समान सुन्दर देखा। ___घत्ता--जिसने चाणूरमल्ल को यम के मुँहरूपी कुहर में निवेदित कर दिया, उसी नन्दगोप ने तुम्हारे दामाद को मारा है। 1. AP पउत्तु; 5 उपत्तु । (2) 1.5 गोवरणगिरि। 2. A तिय थामेण। 3. 5 बालतें। 1. B तुरंगतुंग। 5. B As. अरियु 6. APS "जुयल। 7. ABPS संखाऊरणु। H. ABP कयउं। 9. B पर। 10. PS पहु। 11. PS णिवाइउ। 12. B गंदगोबिदें। 13. P जामाइओ। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 महाभयंतविरया महापुराणु [87.3.1 दुवई-वसुएवेण पुत्तु सो घोसिउ भायरु सीरहेइणा। ससयणमरणवयणु णिसुणेप्पिणु ता कुद्धेण राइणा ॥७॥ पेसिया सणंदणा ससंदणा। धाविया' सवाहणा ससाहणा। सूरपट्टणं चियं धयंचियं। कण्हपक्खपोसिरा सरोसिरा। णिग्गया दसारुहा जसारुहा। जाययं सकारणं महारणं। दिण्णघायदारुणं पलारुणं। रत्तवारिरेल्लियं रसोल्लिय। दंतिदंतपेल्लियं विहल्लियं । छिण्णछत्तचामरं णयामरें। पुप्फवासवासियं णिसंसियं। घत्ता-णवर दुरंतरयाहं दुप्पेक्खहं गयणायहं । णट्ठा वइरिणरिंद णारायणणारायहं ॥3 दुवई-णासंतेहिं तेहिं महि कंपइ णाणामणियरुज्जला । ___ महुमंधणरयाहि महिमहिलहि हल्लइ जलहिमेहला ॥छ॥ (3) वसुदेव ने उसे अपना पुत्र घोषित किया है और बलराम ने अपना भाई। तब स्वजन की मृत्यु की खबर सुनकर राजा एकदम क्रुद्ध हो उठा। उसने रथ के साथ अपने पुत्र भेजे। वे वाहनों और सेना के साथ दौड़े। वीर पट्टों से वेषित और ध्वजों से सहित कृष्णपक्ष के समर्थक, रोष से भरे हुए कृष्ण के यशस्वी भाई दशार्हादि भी निकल पड़े। जो किये गये आघातों से भयंकर हैं, मांस से अरुण, रक्तजल से प्रेरित, रुधिर से आर्द्र, गजदन्तों से आहत कम्पित, छिम्न छत्र-चँवरों से युक्त, और देवत्व को प्राप्त है, ऐसा महायुद्ध उनमें कारण हुआ। पुष्पवास से सुवासित और मनुष्यों द्वारा वह प्रशंसित था। घत्ता-दुष्टों का अन्त करनेवाले दुर्दर्शनीय आकाशगामी नारायण के तीरों से शत्रुराजा नष्ट हो गये। उनके नष्ट होते ही नाना मणिकिरणों से उज्ज्वल धरती काँप उठी। वासुदेव में अनुरक्त महीरूपी महिला (3) I. A घाइया। 2. PS सुरोसिरा । 3. A दहारुहा। 1. 5 दसोल्लियं । 5. A यहिल्लियं । 6. A णियामर; P णयोमरं। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E 87.5.2] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु णियपयपंकयतलि' आसीणा राएं अवरु पुत्तु अवरायउ तेण वि जाइवि जयसिरिलोहें सउरीपुरु चउदिसहिं निरुद्धॐ * करिकरवेढणेहिं असरालिहि चंडगयासणिदलियधुरिल्लाहिं फुरियकिरणमालापइरिक्कहिं "भडकरगाहधरियसिरमालहिं 2 विणविवलियलोहियकल्लोलहिं" दाढाभासुरभइरवकायहिं ते अवलोइवि संगरि रीणा । पेसिउ जो केण वि ण पराइउ । रहर्किकंकरहयगयसंदोहें। णीसरियउं जायवबलु कुद्ध ं । रहसंकडि पडतमहिवालहिं । विडियकोंतसूलहल सेल्लिहिं" । विहडियमउडकडयमाणिक्कहिं" । असिसंघट्टणहुयवहजालहिं" । दिसिविदिसामिलंतवेयालहिं" । किलिकिलिसद्दहिं भूयपिसायहिं । धत्ता - जुज्झइ गरघोराई** करि करवालु करेष्पिणु" । छायालीस तिणि सयई एम जुज्झेपणु || 4 || (5) दुबई - गइ अवराइयम्मि' 'वसुएबतपूरुहसरणिसुभिए । पविउलसयलभुवणभवणंगणजसवडहे * वियंभिए ॥ छ ॥ [ 121 5 10 की जलधिरूपी मेखला हिल उठी । राजा (कृष्ण) के चरणकमलों के नीचे बैठे हुए, युद्ध में खिन्न अपने पुत्रों को देखकर राजा जरासन्ध ने अपना दूसरा पुत्र अपराजित भेजा, जो किसी से भी पराजित नहीं हुआ था । रथों, अनुचरों, अश्वों और गजों के समूह से और विजयश्री के लोभ से उसने भी जाकर शौरीपुर को चारों ओर से अवरुद्ध कर लिया। यादवकुल भी क्रुद्ध होकर निकला। हाथियों की सूंडों के प्रचुर वेष्टनों, रथों के अवकाश पड़ते हुए भूमिपालों, प्रचण्ड वज्रगदाओं से दलित सारथियों (या धुरीनों), गिरते हुए भालों, शूलों, हलों और सेलों से स्फुरित किरणमालाओं से प्रचुर नष्ट हुए मुकुट कंटकों के मणियों व योद्धाओं के हाथों से पकड़े हुए शिरस्त्राणों तथा तलवारों की रगड़ से उत्पन्न अग्निज्वालाओं, घावों से रिसते हुए रक्त के कल्लोलों से, दिशा - विदिशा में मिलते हुए वेतालों की डाढ़ों से भास्वर और भैरव शरीरवाले भूत-पिशाचों के द्वारा किलि- किलि शब्द करनेवाले थे । पत्ता - हाथ में तलवार लेकर भयंकर तीन सौ छियालीस योद्धा युद्ध करने के लिए आये । (5) वसुदेव के पुत्र कृष्ण के तीरों से अपराजित के विनष्ट होने पर समस्त भुवनरूपी विशाल भवन के आँगन ( 4 ) 1. 13 णिवपंकयतल 2. D जायविरुद्ध 4. A विंमलेहिं: B पेडणेहिं । 5. APK असरालहिं । 6. P महिपालहिं । 7. B गयारिणि । 8. AP लभल्लाहिं 9 B परिक्कहिं । 10. APS 'कडयमउड । 11. B करवाल 12 AP सिरवालहिं 13 B "हुययय । 11. K विण । 15. BKP मिलति । 16, A नरधोरेहिं B णरघोराहं 17 A लएविशु । ( 5 ) 1. 13 अबरायमि। 2. R प्तपुरुह । S.S सचलभुषणंगण । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 । महाकइपुप्फयंतयिस्यड महापुराणु [87.5.3 अण्णु वि सुउ जरसिंधहु' केरउ विहलियसुयणह सुहृई जणेरउ। कालु व वइरिवीरजीवियहरु । उद्विउ कालजमणु दहाहरु। पभणइ ताय ताय आयण्णहि दीण वइरि' किं हिययइ मण्णहि। पित्तिएहि सहुं समरि धरेप्पिणु आणमि गंदगोउ बंधेप्पिणु। पुलउ जणंतु णराहिवदेहहु सहुं सेण्णेण विणिग्गउ गेहहु। जलि थलि णहयलि कहिं मि ण माइड सो सरोसु सहरिसु उद्धाइउ। गपिणु पिसुणचरिउं जं दिहां तं तिह हरिहि चरेण उबइठ्ठउं । तं णितुणेपिणु जाणियणाए सहु मतिहि सुह सुहिसंघाएं। बंधुवग्गु मंतणइ पइट्टर मंतिइ" मंतु महंतउ दिद्वत। जइ सबलेहिं अबलु आढप्पइ तो णासइ जइ सो पडिकुप्पइ । बेण्णि जि- होंति विणासह अंतरु तप्पवेसु': अहवा देसंतरु। तहि पहिलारउ अज्जु ण जुज्जइ देसगमणु पुणु णिच्छउँ किज्जइ। हरि असमत्थु दइउ' का जाणइ को समरंगणि जयसिरि माणइ। 15 खतरामाहिरामसुविरामें तं णिसुणेप्पिणु अलिउलसामें। घत्ता-बोल्लिउं महुमहणेण हउं असमत्थु ण वुच्चमि। मई मेल्लह रणरंगि एक्कु जि रिउहं पहुच्चमि ॥5॥ में यशरूपी पट के ध्वस्त होने पर, जरासन्ध का दूसरा पुत्र कालयवन, जो विह्वल स्वजनों को सुख देनेवाला तथा काल के समान शत्रुवीरों के जीवन का अपहरण करनेवाला था, अपने होंठ भींचता हुआ उठा। वह पिता से बोला-“हे पिता ! सुनिए, सुनिए, दीन शत्रु को आप अपने मन में बड़ा क्यों मानते हैं ? युद्ध में चाचाओं के साथ पकड़कर और बाँधकर मैं नन्दगोप को ले आऊँगा।" । इस प्रकार राजा के शरीर में पुलक उत्पन्न करता हुआ। सैन्य के साथ वह अपने घर से निकला। जल, थल और आकाश में, यह कहीं भी नहीं समा सका, क्रोध और हर्ष के साथ वह शीघ्र दौड़ा। जब दूत ने उस दुष्ट का चरित जैसा देखा, वैसा हरि से निवेदित किया । यह सुनकर न्याय-नीति जाननेवाले बन्धुवर्ग ने सुधिसमूह और पण्डितों के साथ मन्त्रणा की। मन्त्री ने यह महान् परामर्श दिया कि यदि कोई अबल सबलों के द्वारा मारा जाता है, तो जो (दुर्बल) प्रतिरोध (प्रतिक्रोध) करता है, वह नाश को प्राप्त होता है। यद्यपि दोनों विनाश के लिए हैं, चाहे तपस्वी वेश हो या देशान्तर गमन । इसलिए आज पहला ठीक नहीं है, देशगमन निश्चित रूप से करना चाहिए। हरि असमर्थ हैं ? देव को कौन जानता है ? कौन युद्ध में विजयश्री को मानता है ? शत्रुओं की स्त्रियों के सौन्दर्य को विराम देनेवाले भ्रमरकुल की तरह श्याम कृष्ण ने यह सुनकर कहा__घत्ता-कृष्ण ने कहा- मैं कहता हूँ कि मैं असमर्थ नहीं हूँ, मुझे तुम युद्धभूमि में छोड़ दो, अकेला ही मैं शत्रु के लिए पहुँचता हूँ। 4. PS जग्सेंधही। 5. A विडिय" | 6. AP दीणजयगु । 7. K पित्तिएण, burgloss पितृत्यैनंबभिः सह। B.Sआणेवि। 9. B चरें एय| 10. AP णिसणेवि वियाणियाणाएं: 5 णिसुणेविण जाणियणाएं। ।।. P यतिज पतु महतहिं। 12 A वि। 19. " हप्पवितु। 11. P इबु। 15. P रिउहें । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87.6.14] महाकइपष्फरतविरयत महापुराणु [ 123 दुवई–णासिउ जेहिं वइरिविजागणु भेसिउ जेहिं विसहरो। __मारिउ जेहिं कंसु चाणूरु वि तोलिउ जेहिं महिहरो ।।छ।। ते भुन होति ण होंति व मेरा कि एवहिं जाया विवरेरा। इय गज्जत मुरारि णिवारिउ । हलिणा' मंतमग्गि संचालिउ । जं केसरिसरीरसंकोयणु तं जाणसु करिजीवविमोयणु। अज्जु कण्ह ओसरणु तुहारउं पुरउ पहोसइ परखयगारउं । इय कवि मच्छरु ओसारिउं मड्डुइ दाणवारि णीसारिउ । गंवउरसउरीमहुरापुरवइ णिग्गय जायव सयल वि गरवइ । बहइ सेण्णु अणुदिणु णउ थक्कइ । महि कंपइ अहि भरहु ण सक्कइ। भूबइ भूमि कमंतकमंतहं जंतह ताहं पहेण महंतह । कालु व कालायरणि ण भग्गउ कालजमणु' अणुमग्गे लग्गउ । जलियजलणजालासंताणई डज्झमाणपेयाई मसाणई। हरिकुलदेवविसेसहि रइयइं सिवजंबुयवायससयछइयई। गावरणारिरूपेण' रुवंतिउ दिट्टउ देवयाउ सोयंतिउ। जिन मेरे बाहुओं ने शत्रु के विद्यासमूह को नष्ट किया है, जिनने विषधर को डराया, जिनने कंस और चाणूर का काम-तमाम किया और पहाड़ को उठा लिया, क्या वे मेरे बाहु आज मेरे होते हुए भी मेरे नहीं हैं ? क्या वे आज विपरीत हो गये हैं ? इस प्रकार गर्जना करते हुए मुरारी ने उनको मना किया। बलराम उन्हें नीति के मार्ग पर ले आये कि सिंह का जो अपने शरीर का संकोचन है, उसे तुम हाथी के प्राणों का विमोचन जानो। इसलिए हे कृष्ण ! आज तुम्हारा हटना आगे शत्रु के विनाश का कारण होगा। यह कहकर उसका मत्सर दूर किया और बलपूर्वक दानवारि श्रीकृष्ण को हटा दिया गया। गजपुर, शौरीपुर और मथुरापुर के राजा, यादव और दूसरे समस्त राजा निकल पड़े। दिन-प्रतिदिन सेना चली जा रही है, वह थकती नहीं है। धरती काँप उठती है, शेषनाग भार नहीं उठा पाता है। राजा और धरती को लाँधते और पथ पर चलते-चलते उन महान् लोगों का काल के समान मृत्यु में आदर नष्ट नहीं हुआ (अर्थात् मृत्यु उनके पीछे पड़ी हुई थी); कालयवन उनके पीछे लग गया। तब यादवकुल के किसी देवविशेष के द्वारा सैकड़ों सियारों और वायसों से आच्छादित जलती हुई आग की ज्वालाएँ, जलते हुए प्रेत और श्मशान निर्मित किये गये। नागर-नारियों के रूप में रोती हुईं शोक करती हुई देवियाँ दिखाई गयीं। (6) 1. हरिणा। 2. AP मंडुए: B महुए। ५. B तहतहं । 4. A कालजमण। 5. 5 हारेउलवंसविसेसहि। 6. A जंधू गयरणारिसवेण: 5 णायरणारीरूचि । 8. रुयंतिउ। जंयुब । 7. ABP Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124] महाकद्दपुप्फयतविरयर महापुराणु [87.6.15 15 पत्ता-हा समुद्दविजयंक हा धारण हा पूरण। थिमियमहोयहिराव' हा हा अचल अकपण ॥6॥ दुवई-हा वसुएव वीर हा हलहर दुम्महदणुयमद्दणा। __ हा हा उग्गसेण गुणगणणिहि हा हा सिसु जणद्दणा ॥७॥ हा हा पंडु चंडु कि जायउं पत्थिववइरु विहरु संप्राव। हा हा धम्मपुत्त हा मारुइ हा हा पत्थ विजयमहिमारुइ। हा सहएव पउल कहिं पेक्खमि वत्त कासु कहिं जाइवि' अक्खमि। हा हा कोंति मद्दि हा रोहिणि हा देवह अणंगसुहवाहिणि . हा महिणाहु कुइउ जमदूयउ सव्वहं' केम कुलक्खउ हूयउ। तं आयण्णिवि चोज्पुरते . . मुसि पिचर विहसलें। . कज्जें केण दुहेण विसण्णा' किं सोयह के मरणु पवण्णा। तं णिसुणेवि देवि तहु ईरइ भणु णरणाहि' कुद्धि को धीरइ। तहु भीएहिं सिबिरु" संचालिज महियलि सरणु ण कहिं मि णिहालिऊं। हय" पुण्णक्खइ णं जरपायव अग्गिपवेसु करिवि मय जायव । तं णिसुणेप्पिणु रणभरजुत्तें भासिउं खोणीयलवइपुत्तें। 10 घत्ता-"हा समुद्रविजयांक, हा धारण, हा पूरण, हा स्तमितसागर, अचल, अकम्पन ! तुम्हारा अस्त हो गया। हा वसुदेव वीर ! हा दुर्मददानवों का मर्दन करनेवाले हलधर ! हा हा उग्रसेन ! गुणगणनिधि हा हा, शिशु जनार्दन, हा हा प्रचण्ड, चण्ड, तुम्हें क्या हो गया ? राजा के शत्रु ने संकट पैदा कर दिया है। हे हे धर्मपुत्र ! हे मारुति (भीम) ! विजय की महिमा की कान्तिवाले हे अर्जुन ! हे सहदेव ! नकुल ! तुम्हें कहाँ देखें ? किससे कहाँ जाकर बात कहें ? हे कुन्ती ! माद्री ! हे रोहिणी ! कामसुख को देनेवाली हे देवकी !....हा महीनाथ, यमदूत क्या कुपित हो गया है ? सबका कुलक्षय कैसे हो गया !" यह सुनकर आश्चर्य करते हुए हँसकर राजा कालयवन ने पूछा "ये लोग किस दुःख से दुःखी हैं, किसका शोक कर रहे हैं, कौन लोग मरण को प्राप्त हुए हैं ?" __ यह सुनकर देवी उससे कहती है-"बताइए, नरनाथ के कुपित होने पर कौन धीरज धारण कर सकता है ? तुम्हारे भय से शिविर चल पड़ा है, उसे महीतल में कहीं भी शरण नहीं दिखाई दी। पुण्य का क्षय होने पर वे नष्ट हो गये, मानो जीर्ण पेड़ हों। यादव आग में प्रवेश करके मर चुके हैं।" यह सुनकर रणभार में जुते हुए पृथ्वीतलपति के पुत्र कालयवन ने कहा ५. P 'महोबा। (7)1. Pके। 2. A संजायर; संपाइर। 3. P जायवि। 4. ABPS सब्दहुं। 5. B चुछु । 6. P हाहे। 7.A TARII 8. 9. A तुह। 10. PS सिमिरु। II. AP णियपुराण" । णरणाइ । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87.8.131 महाकइपुप्फयतविरपर महापुराणु [ 125 घत्ता-भल्लउ' सुहडणिहाउ णिग्धिणजलणे तं" खद्धउ । आहवि सउहुं" भिडेवि मई जसु जिणिवि ण लद्धउं ॥7॥ (8) दुबई-हा मई कंसमरणपरिहवमलु रिउरुहिरें ण धोइओ। __ इय चिंतंतु धंतु मलिणाणणु जणणसमीबि आइओ ॥छ।। पायपणामपयासियविणएं' दिवउ ताउ तेण पियतणएं। जोइउ सुवउं सच्चु विष्णवियउं अरिउलु' णिरवसेसु सिहिखवियउं। अथमिएण णियाहियवदे थिउ मेइणिपहु परमाणदें। एतहि पहि पवहंत महाइव हरि बल जलहितीरु संपाइय" । दिउ भदिएण' रयणायरु वेलालिंगियचंददिवायरु। वाडवग्गिजालाहिं पलित्तउ जलकरिकरजलधारहि सित्तउ । णवपवालसरलंकुररत्तउ णं कुंकुमराएण विलित्तउ जलयरघोसें भणइ व मंगलु हसइ गाइ मोत्तियदंतुज्जलु। तलणिहित्तणाणामणिकोसें णच्चइ" संवड्डियसंतोसें। परगंभीर। पयइगंभीरउ ण सहई मलु णं अरुहु भडार। महमह आउ आउ साहारइ ण तरंगहत्यें? हक्कार। धत्ता-"अच्छा हुआ कि शत्रुसमूह को दुष्ट आग ने खा लिया। युद्ध में सामने लड़कर उसे जीतने का यश मुझे नहीं मिल सका।" 10 हा, मैंने कंस की मृत्यु के पराभव का मल शत्रु के खून से नहीं धो पाया-यह सोचता हुआ वह अपना ख किये पिता के पास आया। चरणों में प्रणाम कर अपनी विजय प्रकाशित करते हुए प्रिय पुत्र ने अपने पिता से भेंट की। पिता ने पत्र को देखा और उसे सना और मान लिया कि अशेष शत्रकल आग में नष्ट हो गया। अपने अहित-समूह के अस्त हो जाने पर-पृथ्वी का राजा आनन्द से रहने लगा। यहाँ पर महाआदरणीय वे (हरि और बलराम) पथ पर चलते हुए, समुद्र के किनारे पहुँचे। कृष्ण ने समुद्र देखा जिसके तट सूर्य-चन्द्रमा का आलिंगन कर रहे थे, जो वाडवाग्नि की ज्वाला से जल रहा था और गजों की सूड़ों की धाराओं से जल सींचा जा रहा था। नये मूंगों के सरल अंकुरों से जो लाल रंग का था, मानो केदार राग से लिप्त हो। शंखों के घोष से जो मंगल कहा जाता था, मोतियों के दाँतों से उज्ज्वल जो मानो हँस रहा था, अपने तल में रखे हुए नाना मणिकोषों के कारण, बढ़े हुए सन्तोष के कारण जो नाच रहा था, शत्रु के लिए गम्भीर वह मल सहन नहीं करता, मानो प्रकृति से गम्भीर परमजिन हो। हे मधुसूदन ! तुम आओ, आओ-यह कहकर जो धीरज देता है और अपने तरंगरूपी हाथ से मानो उसे बुलाता है। 12.AP भग्गर। 13. ABPS Cl. तं। 14. R समुहु। (8) 1. पाशियपणएं। 2. 5 गियतणएं। 3. K सच्चु and glos3 सधै सत्यं वा; APPS सब्बु । 4. P अरिकुल। 5. A णियाहियचंदें। 6. AP तंपाइच। 7. A भद्दएर, 8. APटेलाढोकेप'। ५. B°करजलधारासित्तज; "करचारांहें सित्तउ। 10. AP गज्जइ गं बहियः। 1. AP पर दुलंघु। 12. ABPS हत्या। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 | महाकइपुष्फयंतबिश्य महापुराणु [87.8.14 घत्ता-भूसणदित्तिविसालु णावई तारायणु थक्कउँ । __जायवणाहें तेत्थु सायरतडि सिबिरु'' विमुक्कउं ॥8॥ 15 5 दुवई-खंचिय रह तुरंग मायंगोयारियसारिमारया। खंभि णिवद्ध के वि गय के वि कराहयभूरिभूरया ॥छ॥ णियसंताबयारिरविसयणई उम्मूलंति के वि करि पलिणइं। केण वि पंकु सरीरि णिहित्तउ सीयलु मइलु बिलेवणु' थक्कउ। दाणबिंदुचंदियचित्तलजलु दीसइ काणणु चूरियदुमदलु' । मुक्कई खलिणई मणिपरियाणइं। तुरयह भडहं विविहतणुताणइं। थाणुणिबद्धई तवसिउलाई व गुणपसरियई सुधम्मफलाई व। उब्भियाई दूसई बहुवण्णइं चलियचिंध मंडवि वित्थिण्णई। कइवय दियह तेत्यु णिवसंतह गय दुग्गमपएस'५ जोयंतह। पुणु अण्णहि दिणि मंतु समस्थित गुरुयणेण माहउ' अब्मस्थिउ । हरि तुहं पुण्णवंतु जं इच्छहि तं जि होइ णिवसत्ति" णियच्छहि। 10 पत्ता-यादवनाथ ने उस सागर-तट पर अपने शिविर ठहरा दिये। भूषणों की दीप्ति से विशाल वह ऐसे लगते थे, जैसे तारागण आकर ठहर गये हों। (9) रथ और तुरंग तथा जिनसे पर्याणों का भार उतार लिया गया है ऐसे महागज ठहरा दिये गये। कितने ही गज खम्भों से बाँध दिये गये। कितने ही गज अपनी सूंड़ों से धूल उड़ा रहे थे। कोई गज अपने राजा के लिए सन्ताप देनेवाले सूर्य के स्वजन कमलों को उखाड़ रहे थे। किसी ने कीचड़ अपने शरीर पर डाल ली, मानो शीतल कीचड़ का विलेपन उसके शरीर पर स्थित हो। मदजल की बूंदोंरूपी चन्द्रिका से जल चित्रित दिखाई देता है और कानन ऐसा दिखाई देता है, जैसे उसके द्रुमदल चूर-चूर हो गये हों। अश्वों के लगाम और मणियों के जीन तथा भटों के शरीरों से विविध कवच उतार दिये गये। रंग-बिरंगे तम्बू तान दिये गये, जो तपस्वियों के कुल के समान थान पर बैंधे (स्थाणु-खूटा, स्थान से बँधे हुए) थे, जो सुधर्म के फल की तरह गुणों (डोरी, दयादि गुणों) से प्रसारित थे, जो चंचल पताकाएँ बाँधकर मानो फैला दिये गये थे। वहाँ रहते हुए और उस दुर्गम प्रदेश को देखते हुए उनके कई दिन बीत गये। दूसरे एक दिन उन्होंने मन्त्रणा की याचना की। गुरुजन ने माधव से अभ्यर्थना की "हे हरि ! तुम पुण्यवान हो, जो चाहते हो वही होगा। अपनी शक्ति-सामर्थ्य को देखें। तुम ऐसा करो 13.6 स्तिमिरु। (9) 1. Bोत्तारिय" | 2, 5 खंभ।..A के वि करहाहिय बसह वि भूरिमारवा; BPS कराहिय । 4. AP णिव 15. APS केहि मि। 6. AP सीयलु णाई विलेवणु घित्तई। 7. B विलेपणु। B. A"योदय । 9. AP लूरिया। 10. B"भंग। 11. A पंड्य'। 12. APS एवेसु। 13. 5मास्यु। 14. A णियसति। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87.10.101 महाकइपुण्फयंतबिरयउ महापुराणु [ 127 15 तिह करि जिह रयणायरपाणिउं देइ मग्गु मयरोहरमाणिउं। णिरसणु अट्ट दियह मलणासणि ता रक्खसरिउ घिउ दमासणि। णइगमु अमरु णिसिहि संपत्तउ हरिवेसें हरि तेण पवुत्तउ। घत्ता-आउ जिणिंदु णवेवि जणियतायजयतुहिहि । माहब" चिंतहि काई चडु महु तणियहि पुट्टिहि ॥७॥ (10) दुवई-ता हय गमणभेरि कउ कलयलु लंघियदसदिसामरे। मणिपल्लाणपट्टचलचामरि' चडिउ उविंदु हयवरे ॥छ।। चवलतुरंगतरंगणिरंतरि तुरउ पइठ्ठ समुद्दब्मंतरि। हरिवरगइमज्जायइ धरियउं पाणिउं बिहिं भाइहिं ओसरिठ। तहु अण्णुगों लाहणु चल्लिर इरादतकारवटरिमामोल्लिां '। थियउं सेण्णु सुरणिम्मिइ गयमलि वेसादप्पणसंणिहि महियलि। भवसंसरणदुक्खदुक्खियहरि बावीसमु समुद्दविजयहु घरि। तित्थंकर सिवदेविहि होसइ छम्मासहिं सुरणाहु पघोसइ। एयहं दोहिं मि पंकयणेत्तहं वणि णिवसंतह वहुवरइत्तहं। जक्खराय तुहु करि पुरु भल्लउं चित्तजयंतिपंतिसोहिल्लउँ । कि जिससे मत्स्यों से मान्य समुद्र का जल रास्ता दे दे। तब राक्षसों के शत्रु हरि, पापनाशक दर्भासन पर आठ दिन तक निराहार बैठे। रात्रि में निगम नाम का अमर आया और अश्व के रूप में वह हरि से बोला पत्ता-जिनेन्द्र को नमस्कार करके आओ और पीड़ित विश्व को सन्तुष्ट करनेवाली मेरी पीठ पर चढ़ जाओ। हे हरि, तुम चिन्ता क्यों करते हो। (10) तब युद्ध के नगाड़े बजा दिये गये, कोलाहल होने लगा, मणिमय पर्याण-पट्ट और चंचल चामरों से युक्त, दसों दिशाओं को लाँघनेवाले अश्व पर उपेन्द्र (हरि) आरूढ़ हो गये। चंचल तुरंग की तरह तुंग तरंगों से परिपूर्ण समुद्र के भीतर अश्व चला। अश्ववर की गति की मर्यादा से गृहीत उसका पानी दो भागों में हट गया। उसके (अश्व के) पीछे-पीछे सेना चल दी, बजते हुए नगाड़ों के शब्दों और हर्ष-ध्वनियों से रसाई, देवों से निर्मित, मल से रहित, वेश्या के दर्पण के समान स्वच्छ महीतल पर सेना ठहर गयी। देवेन्द्र घोषित करता है कि संसार के भ्रमण के दुःख से दुःखितों को धारण करनेवाले समुद्रविजय के घर में शिवादेवी से छह माह में बाईसवें तीर्थंकर होंगे। अतः हे कुबेर ! तुम वन में निवास करनेवाले कमलनयन इन दोनों बन्धुवरों के लिए चित्रित ध्वजपंक्तियों से शोभित एक सुन्दर नगर की रचना कर दो। th. AP "यरवाणिउं115. AP जणियजयत्तयतुद्भिः। 17.5 माहज। 18. B तणिहिं। (10) I. P"पहे। 2.4 चंचल तुरउ तरंग":" चलतरंगरंगसणिरंतरि। 3. APS पायाहिं। 4. Pढयकारए हरिस 15. A दुक्किय । 6. AP करि Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1281 [87.10.11 महाकइपुप्फयंतविरयउ पहापुराणु घत्ता--झत्ति पसाउ भणेवि गल पेसिउ सहसरखें। पुरि परिहाजलदुग्ग कय दारावइ जक्खें |॥10॥ (11) दुवई-कच्छारामसीमणंदणवणफुल्लियफलियतरुवरा। सोहइ' पंचवण्णचलचिंहिं दूरोरुद्धरवियरा ॥छ। धरई सत्तभउमई मणिरंगई रयणसिहरपरिहठ्ठपयंगई। पंगणाई माणिक्कणिबद्ध तोरणाडं मरगयदलणिद्धई। जलई सकमलई थलई ससासई माणुसाई पालियपरिहासइं। कुंकुमपंकु धूलि कप्पू पउ धुप्पइ ससिकतहु णीरें। महुयर रुणुरुणंति महु थिप्पड़ परहुय' वासइ पूसउ कुप्पइ। कह कहंतु जायउ रसु खंचइ कलमकणिसु एमेव विलुंचइ। कुसुमरेणु पिंगलु णहि' दीसइ कालायरुधूमउ दिस भूसइ। बेण्णि वि णं संझाषण णवघण जहिं दुहु णउ मुगति णायरजण। जहिं जिणहरई वरइं रमणीयई वीणावंसविलासिणिगेयई। यत्ता-तहि सभवणि सुत्ताए रयणिहि दुक्कियहारिणि । दिली सिविणयपति सिवदेविइ सिवकारिणि ॥॥ 10 घत्ता-देवेन्द्र द्वारा प्रेषित कुबेर 'जो प्रसाद' यह कहकर शीघ्र गया और उसने परिखा तथा जलदुर्ग से युक्त द्वारावती की रचना कर दी। (11) गृहवाटिकाओं, उद्यानों, सीमाओं, नन्दनवनों और फूले-फले तरुवरों से युक्त और रविकिरणों को दूर से रोक देनेवाली वह नगरी पचरंगी चंचल ध्वजों से शोभित है। उसमें सातभूमियों, मणिमण्डपों और रत्नशिखरों से सूर्य को घर्षित करनेवाले घर हैं। माणिक्यों से विरचित प्रांगण हैं। मरकतदल से रचित तोरण हैं। कमलों सहित जल और धान्यों सहित स्थल हैं। परिहास करनेवाले मनुष्य हैं। जहाँ केशर की कीचड़ है और कपूर की धूल है, जहाँ चन्द्रकान्त मणि के जल से पैर धोये जाते हैं। भ्रमर गुनगुनाते हैं, मधु झरता है। कोयल शब्द करती है, तोता क्रोध करता है, कथा कहते-कहते रस में मग्न हो जाता है, और धान्य के कणों को यों ही लोचता है। पीली कुसुमधूल आकाश में दिखाई देती है। कालागुरु का धुऔं दिशाओं को शोभित करता है। दोनों (पुष्परज और अगुरुधूम) ऐसे लगते हैं, मानो सन्ध्यावन और नवघन हों। जहाँ नागरजनों को किसी प्रकार का दुःख नहीं है, जहाँ विशाल और रमणीय जिनमन्दिर हैं, वीणा, बाँसुरी और विलासिनियों के गीत हैं, पत्ता-ऐसी उस नगरी में अपने भवन में रात्रि में सोती हुई शिवादेवी ने पापों का हरण करनेवाली कल्याणमयी स्वप्न-पंक्ति देखी। (11) 1. B सोहिय। 2. भवणि। भोपई। १. १ पंगणाई । 4. पंक। 5. A ससियंतहो। 6. BS परहुव । 7. APणछ। 8. Pणीयई। 9. AB तहिं जि Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87.12.13] [ 129 महाकइपुप्फयंतविरयत महापुराणु (12) दुवई-वियलियदाणसलिलचलधारासित्तकओलमूलओ' । पसरियकण्णतालमंदाणिलोलिरभसलमेलओ ॥छ। दिट्ठउ मत्तउ णयणसुहावउ संमुहं एंतउ करि अइरावउ । कामेधेणुकीलारसलीणउ विसु ईसाणविसिंदसमाणउ। रायसीहु उल्लंघियदरिगिरि सिरि पुणु' दिट्ठी णं तिहुयणसिरि। झुल्लंतउं णहि भमरझुणिल्लउं सुरतरुकुसुमदामजुयलुल्लऊं। सारयससहरु जोण्हइ जुट्टाउ हेमंतागमदिणयरु' दिवउ । मीण झसंकझसा इव रइघर" गंगासिंधुकलस मंगलधर। सरु माणसु समुदु खीरालउ मयरमच्छकच्छवरावालउ । सेहीरासणु जणमणमोहणु इंदक्मिाणु फणिंदणिहेलणु। रयणपुंजु" हुयवहु अवलोइउ मुद्धइ सिविणउ पियहु'" णिवेइउ । पत्ता-सिविणयफलु जउजेठु!कहइ सइहि णिवकेसरि। होसइ तिहुयणणाहु" तुझु गभि परमेसरि ॥12॥ 10 (12) जिसका कपोल झरती हुई नवजलधारा से सिक्त है, जिस पर फैले हुए ताल के समान कर्ण मन्द पवन से भ्रमर-समूह जैसे घूम रहे हैं, जो नेत्रों को सुहावना लगनेवाला है-ऐसा सामने आता हुआ ऐरावत हाथी देखा। रुद्र के वृषभ (नन्दी) के समान, कामधेनु से क्रीडारस में लीन बैल; घाटियों और पहाड़ों को लाँधनेवाला सिंहराज देखा। फिर लक्ष्मी को देखा जो मानो त्रिभुवन की लक्ष्मी हो। भ्रमरों की ध्वनि से युक्त, आकाश में झूलती हुई कल्पवृक्ष के फूलों की दो मालाएँ देखीं। पुनः ज्योत्स्ना से युक्त शरतकाल का चन्द्रमा देखा। हेमन्त के आगमन के साथ दिनकर देखा। रति के स्वामी कामदेव की पलक के समान दो मीन देखे। गंगा-सिन्धु के समान मंगल को धारण करनेवाले कलश देखे। मानसरोवर, क्षीरसमुद्र, मगर-मत्स्य एवं कछुओं के शब्दों से युक्त समुद्र देखा। जनमन के लिए सुन्दर सिंहासन, इन्द्र का विमान, नाग-लोक, रत्न-समूह और अग्नि देखी। उस मुग्धा ने ये स्वप्न अपने प्रिय को बताये। ____घत्ता यादवों में सबसे जेठा नृपसिंह समुद्रविजय उस सती को स्वप्नफल बताता है-हे परमेश्वरी ! तुम्हारे गर्भ से त्रिभुवन-स्वामी होगा। [12) I. PS कवोल | 2. B'मुहायइ। 3. A अहराबइ। 1. B पुण। 5. 5 सायरसस' | 6. AP जुत्तर। 7.A "दिगयरि दित्त देणयरदित्तओ। .A रहबर रइथर। 9. B कच्छमच्छव। 10. B मेरीहासणु। 11. B पुंज। 12. B पियहि। 13. A जणजेछु B जमिछु। 14. AP पियहे। 15. " लिहवण: Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 ] महाकइपुष्पयंतविरयड महापुराणु 187.13.1 (13) दुवई-हिरिसिरिकतिसंतिदिहिबुद्धिहि देविहिं कित्तिलच्छिहिं। सेविय रायमहिसि महिसामिणि' अहिणवपंकयच्छिहि ।छ॥ सक्कणिओइवाहिं पणवंतिहिं अवराहि मि उचयरणई देंतिहिं । तहिं पहुपंगणि' पउरंदरियइ आणइ पउरपुण्णपरिचरियई। मणिमयमउडपसाहियमत्थाउ पुवमेव णिहिकलसविहत्थर। उडुमागाइं तिण्णि पविउहउ" धणयमेहु धणधारहिं बुट्टउ । कत्तियसुक्खपक्खि छट्टई' दिणि उत्तरआसाढइ मयलछणि। देउ जयंलु" गणसंपण्णउ गयरूवेण गब्मि अवइण्णउ । आय देव देवाहिव दाणव वंदिवि भावें सफणि समाणव । पुज्जिवि जिणपियराई महुच्छवि पच्च्यि पवियंभियभंभारवि । णवमासावसाणकयमेरें। पुणु वसुपाउसु विहिउ कुबेरें। पंचलक्खवरिसई" णरसंकरि संजाय जांभणाहजिगतार सावणमासि समुग्गड़ ससहरि पुण्णजोइ पुव्युत्तइ वासरि। तक्कालंतजीवि णिम्मलमणु जणणिइ जणिउ देउ सामलतण। 15 (13) ह्री, श्री, कान्ति, शान्ति, धृति, बुद्धि, कीर्ति और लक्ष्मी (अभिनव कमल के समान आँखोंवाली) देवियों ने ही स्वामिनी राजरानी की सेवा की। देवेन्द्र के द्वारा नियोजित और प्रणाम करती हुई और दूसरी देवियों ने भी उपकरण देते हुए (सेवा की)। उस राजा के प्रांगण में इन्द्र के प्रचुर पुण्य से युक्त आज्ञा से, जिसका मस्तक मणिमय मुकुटों से प्रसाधित है और जिसके हाथ में पहले से ही निधियों के कलश हैं, ऐसा कुबेर छह माह तक धनरूपी धाराओं को बरसाता रहा। ___कार्तिक शुक्ल पक्ष छठी के दिन, चन्द्रमा के उत्तर आसाढ़ नक्षत्र में स्थित होने पर, ज्ञान से सम्पूर्ण जयन्त स्वर्ग से देव गजरुप से गर्भ में अवतीर्ण हुआ। तब देव-देवाधिप, दानव, नाग और मनुष्य आये और भावपूर्वक वन्दना कर जिन भगवान् के माता-पिता की पूजा कर, जिसमें भम्भा (वाद्य विशेष) का शब्द बढ़ रहा है ऐसे महोत्सव में उन्होंने नृत्य किया। नौ माह पर्यन्त की अवधि में कुबेर ने फिर से धनवृष्टि की। नमिनाथ जिन के जन्म के पश्चात् मानव-परम्परा में पाँच लाख वर्ष बीतने पर सावन माह में चन्द्रमा के उदय होने पर (शुक्ल पक्ष में) ब्रह्मयोग में छठी के दिन उस काल के अन्त में जीनेवाले (अर्थात् एक हजार वर्ष जीनेवाले) निर्मल-मन, श्यामल-शरीर देव (जिनदेव) को माता ने जन्म दिया। (19) . Sदिदि। 2.A सासामिाण: Pतियतामिणिपु. A अमराहिवउवचरणई तिहिं। 4. AP पंगणि। 5. APF परियरियइ। 6. AP परिउद्गार; ६ परितुल । . हि । ४. जयंत। 9. B माणु। 10. B मेरं। 11. P"चरिसह। 12. R पुण्ण। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87.14.131 [ 131 महाकद्दपुप्फवंतविस्यउ महापुराण पत्ता-उप्पण्णे जिणणाहे सग्गि सुरिंदहु आसणु। कंपइ ससहावेण कहइ व देवह'' पेसणु ॥13॥ UT दुवई-घंटाझुणिविउद्ध कप्पामर हरिसवसेण' पेल्लिया। जोइड इरिरहिं घेतर पपरददेहि गल्लिया। भावण संखणिणायहि णिग्गय गयणि ण माइय कत्थइ हय गय। सिवियाजाणहिं विविहविमाणहिं उल्लोवेहिं दियंतपमाणहि। मोरकीरकारंडहिं चासहिं फणिमंजारमरालहि मेसहिं । करिदसणाहयणीलवराहिं आया सुरवर सहुं सुरणाहिं। दारावइ पइट्ठ परियचिवि मायाडिंभे मायरि चिवि। जय परमेट्टि परम पभतिइ उच्चाइछ जिणु सुरवइपत्तिई। पाणिपोमि भसलु व आसीणउ इंदहु दिण्णउ तिहुयणराण। अणिमिसणयणहिं सुइरु णियच्छिउ कयपंजलिणा तेण पडिच्छिउ। अंकि णिहिउ कंचणवण्णुज्जलि हरिणीलु व सोहइ मंदरयलि। घत्ता-ईसाणि छत्तु देवहु उप्परि धरियउं। सोहइ अहिणवमेहि ससिबिंबु व विप्फुरियउं ॥4॥ घत्ता-जिननाथ के जन्म लेने पर स्वर्ग में स्वभाव से देवेन्द्र का आसन कौंपता है और वह देवों को आज्ञा देता है। घण्टों की ध्वनियों से प्रबुद्ध कल्पवासी देव हर्ष के कारण प्रेरित हो उठे। ज्योतिष देव सिंहनादों से तथा पटुपटह के शब्दों से छह व्यन्तर देव चल पड़े। भवनवासी देव शंख-निनादों के साथ निकले। हाथी और घोड़े आकाश में कहीं भी नहीं समा सके। शिविका, यानों, विविध विमानों, दिगन्त प्रमाणवाले चैंदोबों, मोरों, तोतों, कारण्डों, चातकों, साँपों, बिलायों, हंसों, मेढ़ों, हाथियों के दाँतों से प्रताड़ित नीले मेघों और इन्द्र के साथ सुरवर आये। तीन प्रदिक्षणा देकर वे द्वारावती में प्रविष्ट हुए। मायावी बालक से माता को प्रवंचित कर तथा 'परम परमेष्ठी की जय हो' यह कहते हुए, देवियों की कतार ने जिनवर को उठा लिया। करकमल में भ्रमर की तरह बैठे हुए त्रिभुवननाथ को उसने इन्द्र के लिए दे दिया। वह अपने अपलक नेत्रों से बहुत समय तक देखता रहा और फिर हाथ जोड़कर उसने उन्हें ले लिया। स्वर्ण-रंग के समान उज्ज्वल गोद में रखे हा जिन ऐसे शोभित हैं, जैसे मन्दराचल पर इन्द्रनीलमणि हो। ___घत्ता-ईशानेन्द्र ने देव के ऊपर छत्र धारण किया, जो अभिनव मेघ में चमकते हुए चन्द्रबिम्ब के समान प्रतीत हो रहा था। 13. उमहि । [4. A दवहो । दइचहो । (14) हरियधभेण। 2. APS पहसरोहिं । 9. APS "मजार-14. B पह।..Sसुरचर" | 6. AP पाणिपोम"17. APतिवण" 18. Pईसाणंदें। 9.3 । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1321 महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [87.15.! (15) दुबई- सनूर६. पिहोरों रितिरिवारयो । चरणंगुष्ठएहि संचोइउ सुरयइणा सयारणो ॥छ। तारायणगहपतिउ लंधिवि सुरगिरिसिहरु झत्ति आसंघिवि। दसदिसिवहि धाइयजोण्हाजलि अद्धचंदसंकासि सिलायलि। णच्चियसुररामारसणासणि णिहिड सुणासीरें सिंहासणि। णाहणाहु परमक्खरमंतें साया, हबिंदुरेहनें। इंदजलणजमणेरियवरुणहं पवणकुबेररुद्दहिमकिरणहं। पडिवत्तीइ दिणेसफणीसही अण्णभाउ ढोइवि णीसेसह। पंडुरेहिं णिज्जियणीहारहिं कलसहिं वयणविणिग्गयखीरहि। णं कित्तीथणेहिं पयलंतहिं णं संसारमलिणु णिहणंतहिं। णावइ रइरसतिस णिरसंतहिं यं अट्ठारहदोस धुयंतहिं। सित्तउ देवदेउ देविंदहि गज्जंतहिं सिहरि व णवकंदहि । पत्ता-इंदें जिणणिहियाई पुप्फई तंतुयबद्धई। णं बम्महकंडाई" आयमसुत्तणिबद्धई ॥15॥ (15) मंगल तूर्य, वाद्य और वीरतापूर्ण शब्दों के साथ, इन्द्र ने अपने पैरों के अँगूठे से महीधर भित्तियों को विदारण करनेवाले अपने हाथी ऐरावत को प्रेरित किया। तारागणों और ग्रहों की कतारों को लाँघते हुए वह शीघ्र ही सुमेरु पर्वत के शिखर पर पहुँच गया। जिसका ज्योत्स्नारूपी जल दशों दिशापथों में दौड़ रहा है, ऐसे अर्धचन्द्र के समान शिलातल पर नाचती हुई देवांगनाओं की करधनियों के शब्दों से युक्त सिंहासन पर इन्द्र ने, 'ओं स्वाहा' इस साकार परमाक्षर मन्त्र के साथ, उन्हें स्थापित कर दिया। इन्द्र, ग्नि, यम, नैऋत्य, वरुण, पवन, कुबेर, रुद्र और चन्द्रमा, दिनेश और नागेश सभी देशों को आदर के साथ, आदर देकर, हिमकणों को पराजित करनेवाले जिनके मुख से सफेद दूध निकल रहा है, ऐसे कलशों के द्वारा देवदेव का अभिषेक किया, मानो प्रगलित कीर्तिस्तनों से संसार की मलिनता को नष्ट करते हुए, मानो रतिरस की तृष्णा का निरसन करते हुए, मानो अठारह दोषों को धोते हुए, देवेन्द्र ने इस प्रकार अभिषेक किया मानो गरजते हुए नवमेघों ने पर्वत का अभिषेक किया हो। घत्ता-धागे से बँधे हुए, जिन पर रखे हुए पुष्प ऐसे प्रतीत हो रहे थे, मानो कामदेव के तीरों को आगम सूत्रों ने बाँध दिया हो। (15) 1.A'दारुणी। 2. PS द्वरण 13. AS "यह 14. AP पसारिपजोण्डाTS. HP सीहासणि । 6.P"फणेसह। 7. कंतीथणेहि P कित्तीयगेटिं। 8. s देयदेवु19. P तंतुहि बरई। 10. कुंडाई। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87.16.13] महाकइपुष्फयंतविरयड महापुराणु [ 133 ( 16 ) दुवई-हरिणा कुंकुमेण पविलित्तउ छज्जइ णाहदेहओ। संझारायएण पिहियंगउ णावइ कालमेहओ ॥छ॥ णिवसणु काई तासु वणिज्जइ जो णिग्गंथभाउ पडिवज्जइ। महइ हारु घच्छयलि विलंबिरुणं अंजणगिरिवरु' सरणिज्झरु। कुंडलाई रयणावलितंबई कण्णालग्गई णं रविबिंबई। भणु कंकणहिं कवण किर उण्णइ भुयबंधणई व मुणिवइ वण्णइ । पहु मेल्लेसइ अम्हइं जोएं पयणेउरई कणंति व सोएं। सयमहु जाणइ जिणहु ण रुच्चइ भूसणु सो परिहइ जो णच्चइ। लोयायारे सव्वु समारिलं तियसिदै थुइवयणु उईरि । णाणासद्दमहामणिखाणि पुणु लज्जिउ वण्णंतु सवाणिइ' । तुच्छइ जिणगुणपारु ण पेक्खइस अण्णु जहण्णु मुक्खु किं अक्खड़। धत्ता-अमर मुणिंद धुणंतु बाल वि बुद्धिइ कोमल । तो सव्वहं फलु एक्कु जइ मणि भत्ति सुणिम्मल ॥16॥ 10 (16) इन्द्र के द्वारा केशर से लिप्त स्वामी की देह ऐसी शोभा दे रही थी, जैसे सन्ध्याराग से कालमेघ ढक दिया गया हो। उसके वस्त्रों का क्या वर्णन किया जाय जो निर्ग्रन्थ भाव को स्वीकार करते हैं। वक्षःस्थल पर लटकता हुआ हार शोभित था मानो जल के निर्झर से सहित अंजन पर्वत हो। रत्नावलि से ताम्र कुण्डल ऐसे जान पड़ते थे मानो सूर्य के प्रतिबिम्ब कान से आ लगे हों। बताओ, कंगनों की क्या उन्नति हो ? मुनिवर उसे बाहु के बन्धन के समान बताते हैं। पैरों के नुपूर मानो शोक से कण-कण ध्वनित होते हुए यह कह रहे थे कि स्वामी योग लेकर मुझे छोड़ देंगे। इन्द्र जानता है कि स्वामी को आभूषण अच्छे नहीं लगते। भूषण यह पहिनता है जो नाचता है, परन्तु लोकाचार से उन्होंने सब कुछ किया। देवेन्द्र ने स्तुति वचन शुरू किये, "नाना शब्द रूपी महामणियों की खान अपनी वाणी के द्वारा आपका वर्णन करते हुए, मैं पुनः लज्जित हूँ। तुच्छ व्यक्ति जिनवर के गुणों के पार को नहीं देख सकता, दूसरा निकृष्ट मूर्ख क्या कहे ? ___घत्ता-यदि अमर मुनीन्द्र और बुद्धि से कोमल बालक की स्तुति करता है तो सबका फल एक है; यदि मन में निर्मल भक्ति हो। भावु। 3. S यच्छयल । 4. A गिरिवरं 5. P तियसेंदें। 6. B समीरिज । ' सवाणिज । ४. P5 पेसा । ५. 5 जघाणु। (16) 1. A तासु काई। 2. 10. A कोसल। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134] 187.17.1 महाकइपुप्फयतविरयड महापुराणु (17) दुवई-दहिअक्खयसुणीलदूवंकुरसेसासीहिं' णदिओ। धम्ममहारहस्स गइगुणयरु णेमि सहिओ ॥छ।। पुणु दारावइपुरु* आवेप्पिणु 'सुद्धभाउ भावें भावेप्पिणु । 'तिवरण सुविसुद्धिई' पणवेप्पिणु जिणु जणणीउच्छोंगथवेप्पिण। णच्चइ सुरवइ दससयलोयणु "दहसयद्धपहसियपवराणणु'। दिसिदिसिपसरियचलदससयकरु डोल्लइ णहयलु सरवि सससहरु। महि हल्लइ विसु मेल्लइ विसहरु''। दिण्णुइंडवाउ' णहि णज्जइ पायंगुटुणक्खु ससि छज्जइ। चलइ जलहि धरणीयलु रेल्लइ लीलइ बाहुदंडु जहिं घल्लइ। तहिं कुलमहिहरणियरु विसट्टइ । विष्फुरति तारावलि तुट्टइ। णच्चिवि एम सरसु आणदें । वंदिवि जिणु" सहुं सुरवरवंदे" । गउ सोहम्मराउ सोहम्महु पुरवरि पाहहु पालिवधम्महु। णिवसंतहु वउ णिरुवमरूवउंगे। दहधणुदंडपमाणु'' पहूयउं । णवजोव्यणु सिरिहरु णित्तामसु सामिउ" एक्कु सहसवरिसाउसु। 10 (17) दही, अक्षत, अत्यन्त हरे दूर्वादल, शेषपुष्पों और आशीर्वादों से हर्षित तथा धर्मरूपी महारथ की गति को सम्भव करनेवाले उन्हें 'नेमि' (आरा) कहकर पुकारा गया। फिर द्वारावती नगरी में लाकर, भाव से शुद्धभाव का ध्यान कर, तीन प्रकार की विशद्धियों से प्रणाम कर, जिन बालक को माता की गोद में स्थापित कर. अपने पाँच सौ मुखों से हँसता हुआ, दिशा-विदिशाओं में अपने हजार करों को फैलाता हुआ सहस्रनयन देवेन्द्र नृत्य करता है। आकाश सूर्य और चन्द्रमा के साथ डोल उठता है। धरती हिल जाती है, विषधर विष उगलने लगता है, आकाश में उद्दण्ड वायु जान पड़ती है। पैरों के अंगूठे के नख में चन्द्रमा शोभित है, समुद्र चलायमान है, धरणीतल प्रवाहित है। लीलापूर्वक वह बाहुदण्ड जहाँ फेंकता है, वहाँ. कुलमहीधरों का समूह नष्ट हो जाता है, चमकती हुई तारावलि टूटने लगती है। इस प्रकार आनन्द के साथ सरस नृत्य कर और सुरवर-समूह के साथ जिनदेव की वन्दना कर, सौधर्मराज अपने सौधर्म स्वर्ग चला गया। धर्म का परिपालन करते हुए, नगरी में निवास करते हुए उनकी वय, अनुपम रूप और शरीर दस धनुष प्रमाण हो गया। लक्ष्मी का धारक नवयौवन, अदैन्य स्वामित्व, एक हजार वर्ष आयु, (17)1.5"दुव्यंकुर । 2. ABPS 'पुरि । 3. RS आणेप्पिणु। 1. AP read 3 basia. 3. "भावु। 6, B पणवेष्पिणु। 7. AFTEad 40 as Jh. R. AD तिरयण' K तिरयण in second hand but gloss त्रिकरण। 9. AB सुविसुद्धि: ' सुद्धबुद्धि। 10. AHP दस | 11. A सहसअद्ध' ।।2. Badds तंतीपटलाइमरसस । IS A दिण्णदंडपाउ यि पाहिः ओह। 14. AB "सिहरु। 5. Bणयदि। 16. Pजिणयस सहुं सुरबिदें। 17. Fs सुरविंदें। 19. B णिरुपम19. 5 पवाणु। 20. A सामिट एक्कु वरिसु सहसाउनु " साभिउ तहसु एक्कु यरिसाउसु । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87.17.16] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु घत्ता - थिउ भुजंतु सुहाई णेमि सबंधवसंजुउ | भरसरोरुहसूरु पुष्पदंतगणसंउ ॥17॥ इय महापुराणे तिसट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुष्फयंत बिरइए महाभयभरहाणुमणि महाकचे मितित्थकरउप्पत्ती" णाम सत्तासीतिमो" परिच्छेउ समत्तो । [ 135 पत्ता - और सुखों का भोग करते हुए अपने भाइयों से युक्त नेमि, भरतरूपी कमल के सूर्य थे, और नक्षत्रों के द्वारा संस्तुत थे। इस प्रकार प्रेसट महापुरुषों के गुणों और अलंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महाभव्य भरत द्वारा अनुमत इस महाकाव्य का नेमि तीर्थकर उत्पत्ति नामक सत्तासीव परिच्छेद समाप्त हुआ । 21. A "तित्यंकर": S तित्ययर । 22 सत्तासीमो S सत्तासीतितम् । 15 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1361 महाकइपुष्फयंतविरयड महापुराणु [88.1.1 अट्ठासीतिमो संधि धणुगुणमुक्कविसक्कसरु' ओरुद्धदिवायरकरपसरु । णं वणकरि करिहि' समावडिउ जरसिंधहु' रणि मुरारि भिडिउ ॥ध्रुवका? 5 दुवई-सउरीपुरि विमुक्किी जउणाहें मउलियसयणवत्तए। __णिवसुइ कालजमणि कुलदेवयमायावसणियत्तए' ॥छ॥ गज्जिइ' हरिपयाणभेरीरवि खंचिइ अमरिसविसरइ णवि णवि। पंथि पउरि० कप्यूरें वासिइ करिघंटाटंकारवविलासिइ"। 'दसदिसिवहमयणिवहि पणासिइ सायरतीरि सेण्णि आवासिइ । पित्तिइ मंतिम महति अणुढिइ णारायणि कुससयणि परिटिइ। आवाहिइ” मणहरसुरहयवरित दोहाईहूयइ रयणायरि। लद्धइ मगि विणिग्गय हरिबलि पुणरवि चलियमिलियजलणिहिजलि । अठासीवीं सन्धि धनुष को डोरी के साथ जिसने बाण और हुंकार शब्द छोड़ा है, जिसने सूर्य की किरणों का प्रसार अवरुद्ध कर लिया है, ऐसा मुरारी युद्ध में जरासन्ध से भिड़ गया, मानो वनगज वनगज से भिड़ गया हो। शौरीपुर के नष्ट होने पर, यदुनाथ अर्थात् कृष्ण द्वारा स्वजनों का समाचार छिपा लेने पर, तथा उसकी कुलदेवता की माया के वशीभूत हो जाने पर, राजपुत्र कालयवन लौट गया। हरि के प्रस्थान की भेरी बजने पर, क्रोध का नया-नया वेग उत्पन्न होने पर, मार्ग के प्रचुर कपूर से सुवासित होने पर, हाथियों के घण्टों के टंकारव के विलसित होने पर, दशों दिशापथों में मृग-समूह के भाग जाने पर, सागर-तीर पर सेना के ठहरने पर, बड़े चाचा के मन्त्र का अनुष्ठान करने पर, नारायण (श्रीकृष्ण) के कुशासन पर स्थित होने पर, नैगमदेव रूपी अश्व के आने पर, समुद्र के दो भागों में स्थित होने पर, मार्ग मिलते ही हरि-सेना के चलने p has, at the beginning of this Sumdhi, the following stanza - बम्भण्डाखण्डलखोणिमण्डलुच्छनियकित्तिषसरस्स । खास्स समं समसीसियाद करणो ण लज्जन्ति ॥१॥ This stanza occurs at the beginning of XXX for which see Vol. . ABKS do not give it at all. (1) 1. PS. "मुक्कपिसक्क' | 2. ABP रुद्ध;KS औरुद्ध । 3. करिहो; "करिहे। 4.PS जरलैंघहो। 5. A विक्कमु। 6. A मउलियः मिलिपए। 7. BK भाय | H. B गज्जिय। 9. Bणबणवि। 10. A पवर' PS पउर। 1. AP 'टंकारा। 12. P"दिसियहे। 13. Bfणवह'। 14. S पवासिए। 15. B पित्तए; पित्तिय: 5 पितृपयंते; As. पितृयमंते against Mss. 16. B पंत। 17. BP आवाहिय" 118. B सुरवरहरि। 19. B विणिग्णय। 20. B चलिए मलिए P बलिय मिलिय: Als थलिए मिलिए against Mss. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88.2.10] [ 137 महाकइपुप्फयतविरयउ महापुराणु जिणपुण्णाणिलकंपियसयमहिम रयणकिरणमंजरिपिंजरणहि। बारहजोयणाई वित्यिण्णइ रइयइ णयरि रिद्धिसंपण्णइ। घत्ता-संगामदिखसिक्खाकुसलि वसुएवचरणसररुहभसलि। असुरिंदमहाभडमयमहणि सिरिरमणीलंपडि महुमहणि ॥1॥ दुवई-'दीहरकंसविडविउम्मूलणगयवरगरुयसाहसे । थिय' सुहिसीरिविहियआणाविहिकयणयभयपरव्वसे ॥छ। उप्पण्णइ सामिइ जेमीसरि तबहुयवहमुहहुयवम्मीसरि। कालि गलतई पइहि णिरतरि एत्तहि रायगिहंकइ पुरवरि । मगहाहिउ अत्थाणि बइठ्ठउ केण वि वणिणम पणविवि दिट्ठउ। ढोइयाइं रयणाइं विचित्तइं तासु तेण करि णिहिय पवित्तई। सपसाएण वयणु जोएप्पिणु पुच्छिउ राएं सो विहसेप्पिणु।। कहिं लद्धई माणिक्कई दिव्य मलपरिचत्तई णावइ भब्बई। भणइ सेट्टि हउं गउ वाणिज्जहि पस्थिव दविणावज्जणविज्जहि । दुव्वाएं जलजाणु ण भग्गउं जाइवि कस्य पुरवरि' लग्गउं।। पर, समुद्र के भंग हुए जल के फिर से मिल जाने पर, जिनदेव के पुण्यरूपी पवन से इन्द्र के काँप उठने पर, रत्नों की किरणमंजरी से आकाश के पीला होने पर, बारह योजन विस्तृत और ऋद्धि से सम्पन्न नगर की रचना होने पर, ___घत्ता-संग्राम की शिक्षा और दीक्षा में कुशल, वसुदेव के चरणरूपी कमलों के भ्रमर, असुरेन्द्ररूपी महाभटों के मद को चूर करनेवाले, लक्ष्मीरूपी रमणी के लिए लम्पट, (2) कंसरूपी विशाल वृक्ष के उन्मूलन के लिए गजवर के समान महान् साहसवाले श्रीकृष्ण के सुधी बलभद्र द्वारा की गयी आज्ञाविधि के कारण नीतिभय के अधीन रहने पर, तपरूपी आग के मुख में कामदेव को आहत करनेवाले नेमीश्वर स्वामी के उत्पन्न होने पर, जब प्रजा निरन्तर अपना समय बिता रही थी, तब वहीं राजगृह नगर में मगधराज दरबार में आसन पर बैठा था। तभी एक वणिक ने प्रणाम कर उससे मेंट की। लाये हुए बहुत-से पवित्र रत्नों को उसने उनके हाथ पर रख दिया। प्रसादपूर्वक उसका मुख देखते हुए राजा ने उससे हँसकर पूछा-ये माणिक्य-धन कहाँ पाया ? मल से रहित ये ऐसे लगते हैं मानो भव्य हों ? सेठ बोला-हे राजन् ! द्रव्य कमाने की वाणिज्य विधा के लिए मैं गया था। दुर्वात से किसी प्रकार "I AIS. "कपिए। 22. B सरोरुह । (2) I. P"उग्मूलणे। 2. गरूव। 3. Als. थिए against Mss. 4. Aणहयरपरवसे; RS 7. 5 दविणायज्जण। 8. 5 दुग्याई। 9. Bपुरि वरि। बाहय । 5. P गलति पड़ी। 6. मगहाहियु। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 महाकइपुष्फयंतविरयड महापुराणु [88.2.1] मई पुच्छिउ णरु एक्कु जुवाणउ पुरवरु कवणु एत्थु को राणउ। कहइ पुरिसु पडिभडदलवट्टणु किं ण मुणहि दारावइ पट्टणु। कि ण णहि बहुपुण्णहं गोयरु राणउ एत्यु देउ दामोयरु । ता हउं णवरि पइउ केही मणहारिणि सुरवरपुरि" जेही। घत्ता-तहिं] णिवधरु सणिहु मंदरहु अणुहरइ गरिंदु पुरंदरहु। __णर' सुर सुतिरच्छणियच्छिरउ णारिउ णावइ अमरच्छरउ ।।2।। 15 दुवई-तं पेच्छंतु संतु हउँ विभिउ' गेण्डियि रयणसारयं । ___ आयउ तुज्झु पाति मगहाहिव पसरियकरवियारयं' ॥छ। तं णिसुणिवि विहिवंचणढोइउं पहुणा कालजमणमुहं जोइउं । मई जियति जीवति ण जायव हुयवहु लग्गु धरति ण पायव। कहिं वसंति णियजीविउं लेप्पिणु वणि सियाल सीहहु ल्हिक्केप्पिणु। हलं जाणउं ते सवल विवण्णा सिहिपइट्ट' पाणभयदण्णा । णवरज्ज वि जीति विवक्खिय गंदगोवभुयबलपरिरक्खिय' । मारमि तेण समउं णीसेस वि फेडमि बलविलासु पसरच्छवि। मेरा जलयान नष्ट नहीं हुआ, और जाकर किसी प्रकार किसी नगर से जा लगा। मैंने एक युवक से पूछा कि यह कौन-सा नगर है और यहाँ कौन राजा है ? वह बोला-क्या तुम नहीं जानते कि शत्रु-योद्धाओं को नष्ट करनेवाला यह द्वारावती नगर है ? क्या नहीं जानते कि अनेक पुण्यों के द्रष्टा देव दामोदर (कृष्ण) इसके राजा हैं ? तब मैं नगरी में इस प्रकार घुसा, मानो सुन्दर अमरावती हो। __घत्ता-वहाँ सब देखते हुए मैं विस्मय में पड़ गया और अपने किरण-समूह को प्रसारित करनेवाले इन श्रेष्ठ रत्नों को लेकर आपके पास आया हूँ।। यह सुनकर राजा ने विधि की प्रवंचना को प्राप्त कालयवन के मुख की ओर देखा। वह (कालयवन) बोला-"मेरे जीते-जी यादव लोग जीवित नहीं रह सकते। आग लगने पर पेड़ को नहीं बचाया जा सकता। अपना जीवन लेकर सियार वन में सिंह से छिपकर कहाँ रह सकते हैं ? मैंने समझा था कि वे सब नष्ट हो गये और प्राणों के भय से पीड़ित होकर आग में जल मरे। लेकिन नहीं, आज भी शत्रु जीवित हैं और नन्दगोप के बाहुबल से सुरक्षित हैं। मैं उसके सहित सबको मारूँगा और फैलती हुई कान्तिवाले उसे और सैन्य विलास को नष्ट कर दूंगा।" 10. P"पुरे जेझी। 11. P ताहें। 12. नृवधत। 13. A अणुहबइ। M.Aणवसरभिसिणिणिवचिरट। 15. APS तिरिचि Boतिरछि। (3) 1.5 यिहिउ। 2. तुझा । SA कादिवायरं। 4. जाणाम। 5. P सिहिहि पदक। 6. B पाण। 7. PS पडिरक्खिय। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88.4.6] महाकइपुण्फवंतविरयद्ध महापुराणु ता संगामभेरि अप्फालिय उद्वय जोह को हदुद्दसण चावचक्ककोतासणिभीसण खलकुलदूषण नियकुलभूषण हक्कारिय दिसिविदितसवासण इच्छियजयसिरिकरसंफासण गुरुरवेण मेइणि संचालिय । कंचणकवयविसेसविहूसण | गुलुगुलंति" मयमयगलणीसण । हिलिहिलंत हरिवर बद्धासण | रुहिरासोसण डाइणिपोसण | मग्गिय अमरविलासिणिदंसण | घत्ता-रह रहियहिं चोइय हयपवर धाइय सुहडुक्खयखग्गकर | दुज्जर पहु जरसिंधु' समायउ अच्छइ कुरुखेत्तर समरंगणि हि कहिं मि ण माइय सुरखयर गुरुडमरडिंडिमोमुक्कसर " ||3|| (4) भुयबलचप्पियसयणफणिदहु+ दुबई - लहु संचलिउ राउ जरसंधु' मबंधु महारिदारणी | गउ कुरुखेत्तमरुणचरणंगुलिचोइ मत्तवारणो ॥ छ ॥ णारयरिसिणा गंपि उविंदहु । णियपोरिंसगुणरंजियतिहुयण' । बहुविज्जाणियरेहिं समेय । सुहडदिण्णसुरवहु आलिंगणि' । कहिउ गहीर वीर गोवद्धण MP स्माइल 3 AP "दित। [ 139 10 HARA "बिलारा 9. HPS संणक्रमेरि 10 ABS गुलुगुलंत 11. B रहियई। 12. AB 'डाएर" | खेतिपरुण 3. B चरणुंगुलि" (4). ABPS जरधु। 9 11 खेत्त अरुण 15 तब संग्राम भेरी बज उठी और भारी शब्द से धरती हिल गयो । क्रोध से दुर्दर्शनीय और स्वर्णकवचों के विशेष भूषणवाले तथा धनुष, चक्र, भाला और वज्र से भीषण योद्धा उठे। मदमाते गले के स्वरवाले हाथी चिंघाड़ते हैं। शत्रुकुल के लिए दूषण और अपने कुल के लिए आभूषण तथा जिन पर आसन बँधा हुआ हैं, ऐसे श्रेष्ठ अश्व हिनहिनाते हैं। दिशा-विदिशा में खून पीनेवाले और डाइनों का पोषण करनेवाले, राक्षसों को हकारनेवाले, विजयश्री के कर का स्पर्श चाहनेवाले और अमर विलासिनियों का दर्शन माँगनेवाले, 5 धत्ता- रथिकों (सारथियों) द्वारा अश्वप्रबर और रथ प्रेरित कर दिये गये और सुभट अपनी तलवारें हाथ में उठाकर दौड़े। (4) तब अपनी अरुण चरणांगुलियों से मस्त गज को प्रेरित करनेवाला, भयंकर शत्रुओं को मारनेवाला, मदान्ध राजा जरासन्ध शीघ्र चला। इस बीच नारद ऋषि ने अपने बाहुबल से नागशव्या को चाँपनेवाले उपेन्द्र (कृष्ण) से जाकर कहा - हे गम्भीर वीर गोवर्धन, अपने पौरुष से त्रिभुवन को रंजित करनेवाले (हे देव), अनेक विद्या-समूह से सहित दुर्जेय राजा जरासन्ध आ गया है। जहाँ सुभटों द्वारा देववधुओं को आलिंगन दिया जाता है, ऐसे S " सचल । 5. P तिहुवण 6. B इहु- PS एहु 7. PS जरसेंधु । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140] [88.4.7 महाकइपुप्फयंतविरयड महापुराणु अज्ज वि किर" तुहुँ काई चिरावहि णियदुयालि किं णउ मणि भावहि"। किं संघारिउ तहु जामाइउ किं चाणूरु रणंगणि घाइउ । तं णिसुणिवि हरि कयपहरणकरु उद्विउ हणु भणंतु दट्ठाहरु। हलहर अज्ज वइरि णिद्दारमि दे आएसु असेसु वि मारमि। ता संणद्ध कुद्ध ते णरवर चोइय गयवर वाहिय हयवर"। पहयई रणतूराइं रउद्दई रवपूरियगिरिकुहरसमुद्दई। जायवबलु जलणिहिजलु लघिवि थिउ कुरुखेत्तु झत्ति आसंघिवि । पत्ता-संणद्धई वड्डियमच्छरई करवालसूलसरझसकरइं। अभिट्टई कयरणकलयलई दामोयरजरसिंधह" बलई ॥4॥ दुबई--'हयगंभीरसमरभेरीरवबहिरियणहदियंतये । ___ *उक्खयखग्गतिक्खखणखणरवखंडियदंतिदंतयं ॥छ। कोंतकोडिचुंबियकुंभयलई रुहिरवारिपूरियधरणियलई। चुयमुत्ताहलणियरुज्जलियई विलुलियंतचुंभलक्खलियई। सेल्लविहिण्णवीरवच्छयलई सरबरपसरपिहियगयणयलई। कुरुक्षेत्र के युद्ध-प्रांगण में स्थित है। आप देर क्यों कर रहे हैं ? अपनी दुःयाल क्या मन में नहीं सोचते उसके दामाद का संहार क्यों किया ? चाणूर का रणांगण में वध क्यों किया ? यह सुनकर कृष्ण अपने हाथ में अस्त्र लेकर उठे। होठ चबाते और मारो कहते हुए बोले-हे बलराम ! आज मैं शत्रु को चूर-चूर करूँगा। आदेश दें, सबको मारूँगा। ___ तब वे नरश्रेष्ठ क्रुद्ध होकर तैयार हो गये। उन्होंने गजवरों को प्रेरित किया और अश्यवरों को चलाया। भयंकर रणतूर्य आहत कर दिये गये। यादवसेना समुद्र का जल लाँघकर और अध्यवसाय करके कुरुक्षेत्र में स्थित हो गयी। घता-बढ़ रहा है मत्सर जिनमें ऐसी तथा हाथ में करवाल, शूल, तीर और झस लिये हुए, युद्ध का कोलाहल करती हुई, दामोदर और जरासन्ध की तैयार सेनाएँ आपस में भिड़ गयीं। आहत, गम्भीर समरभेरियों के शब्द से दिशाएँ और आकाश बहरे हो गये। उठी हुई तलवारों की तीखी खन-खन आवाज से हाथियों के दाँत खण्डित हो गये। भालों की नोकों से गजों के कुम्भस्थल चुम्बित थे। रक्तरूपी जल से धरणीतल आप्लावित हो गया। गिरे हुए मोतियों के समूह से उज्ज्वल हो गया। हिलते हुए शिरोभूषण गिर गये। वीरों के वक्षःस्थल बरछों से विदीर्ण हो गये। श्रेष्ठ तीरों के प्रसार से आकाशतल 10. AP तुहूं किर। 31. P दादहि । 12. S संसारित । 13. °पहरणु। 14. B णिहारिमि। 15. ABP कुछ णिव णरयर। 16. P$ रहयर। 17. B "जरसिंध चिलई: PS *जरसेंधह। (5)1. P"तूरभेरी । 2. BPS ALS. "दियंतई। 3. APAIS. "तिक्खखग्ग" 14. BPS ALS. "दंतई। 5. Pविलुलियत" | 6. A "पिहिण्ण: "विहीण। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88.6.4] महाकपुष्फयंतविरवर महापुराणु [ 141 उच्छलंतधणुगुणटंकार जोहविमुक्कफारहुंकारई। तोसियफणिदिणयरससिसम्कई वज्जमट्टिचूरियसीसक्कइं। हयमत्थई मस्थिक्करसोल्लई दलियष्टियवीसढवसगिल्लई। मोडियधुरई विहिण्णतुरंगई लउडिघायजज्जरियरहंगई। पग्गहणिल्लूरण'"विहिभीसई करकट्टियसारहिसिरकेसई । भग्गरहाई लुणियधयदंडई पासखंडपीणियभेरुंडई"। लुद्धगिद्धखद्धंगपएसई सुरकामिणिकरघल्लियसेसई। वणवियलियधाराकीलालई" किलिकिलति जोइणिवेयालइं। यत्ता-ता रहबरहरिकरिवाहणहं जुझंतह दोह। मि साहणहं। 15 जो सुहडहं मच्छरम्गि जलिउ तहुधूमु' व रउ णहि उच्छलिउ ॥5॥ दुवई--णं मुहवडु णिहित्तु जयलच्छिहि लोयणपसरहारओ। ___णं रणरक्खसस्स' पवणुद्धउ पिंगलकेसभारओ ॥छ॥ असिधारातोएण ण पसमिउ पंडुरछत्तहु णवरुष्परि' थिउ । उद्धु गोप कुंभस्थलि पडियउ णिच्यभासें गयवरि चडियउ। छा गया। धनुषों और डोरियों की टंकारें उछलने लगीं। योद्धा स्फीत हुंकार करने लगे। नाग, दिनकर, चन्द्र और इन्द्र सन्तुष्ट हो गये। वजमुट्ठियों से शिरस्त्राण टूटने लगे। घोड़ों के सिर रक्तरूपी रस से आर्द्र थे। दलित हड्डियों से भयंकर और वसा से गीले थे। जिनकी धुराएँ मुड़ चुकी हैं, अश्व अलग-अलग जा पड़े हैं, ऐसे रथचक्र दण्डों के आधात से जर्जर हो गये। जो रस्सी (लगाम) खींचने की विधि से भयंकर हैं, हाथों से सारथि के सिर के बाल खींच लिये गये हैं, ऐसे रथ भग्न हो चुके थे। ध्वजदण्ड काटे जा चुके थे। मांसखण्डों से भेरुण्ड पक्षी प्रसन्न हो रहे थे। लुब्ध गिद्धों के द्वारा आधे अंग-प्रदेश खाये जा रहे थे, देवबालाओं के द्वारा हाथों से शिरीष पुष्य डाले जा रहे थे, घावों से रक्तधाराएँ विगलित हो रही थीं। योगिनी और वैतालिक किलकारियाँ भर रहे थे। ___घत्ता-तब रथवरों, घोड़ों और हाथियों के वाहनों से युक्त दोनों ओर की सेनाएँ आपस में भिड़ जाती हैं। सुभटों की ईष्या की आग जल उठी, मानो आकाश में उड़ रही धूल उसी का धुआँ हो। वह (धूल) ऐसी लग रही थी मानो विजयलक्ष्मी पर आँखों के प्रसार को रोकनेवाला मुखपट डाल दिया गया हो; जो मानो युद्धरूपी राक्षस का पवन से उड़ता हुआ पीला केशसमूह हो। वह (धूल) तलवार के धारारूपी जल से शान्त नहीं हुई, वह सफेद छत्रों के ऊपर स्थिर हो गयी, ऊपर जाकर हाधियों के कुम्भस्थलों पर 7. धणगुण" | B. APS जयमत्थय । 9. B मौकक्क | 10. A रसगिल्लई। 11. P लगुडि । 12. AP खग्गह। 18. A णिल्नूरियाय"। 14. AP °सीसइं। 15. B "करकेसई। 16. लुलिया। 17. । मंस | 18. A'पबेसई। 19. B "विगलिय" । 20. AAP फिलिकिलंत": किलिागलत । 21. B दोहिं। 22. P तहे. भूम। 23. Bधूमरओ। (6) 1. A णहरमखसस्स। 2. 5 पवण । 1. A पसरिट। 4. Pउपरि। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 ] महाकवि महापुराणु गोड" यंतु कण्णेण झडम्पिउ चंसि यंतु चिंधेण गलत्थिउ करपुक्खरि पइसइ गणियारिहि चेलंचलपडिपेल्लिउ गच्छइ दिपिसरु" असिपसरु" णिवारइ मणि" विलग्गु वीसासु अ" मग्गइ हरिखुरखउ रोसेण व उड ढंकइ मणिसंदणजंपाणई मलसील कासु ण विप्पिस । दंडि तु चमरेणवहत्थिउ । लोes श्रोरथणत्थति णारिहिं । चउदिसि' णिब्भंछिउ किं अच्छइ । अंतरि पइसिवि णं रणु वारइ । पयणिवडिउ " णं पायह" लग्गइ । जं जं पावइ तर्हि तहिं संठइ । जोयंत सुरवरहं विमाणई । [88.6.5 घत्ता - धूलीरउ रुहिररसोल्लियजं णं रणवहुराएं पेल्लियउं । थिउ रतु पउ वि णउ" चल्लियउं णं वम्महबाणें " सल्लियउं ॥6॥ (7) दुबई - पसमिइ धूलिपसरि पुणरवि रणरहसुद्धाइया' भडा । अंकुसवस' विसंत विसमुब्मड चोइय मत्तगयघडा ॥ छ ॥ 5 10 पड़ी। अपने नित्य के अभ्यास से हाथियों के ऊपर चढ़ गयी। गण्डस्थल पर स्थित वह कानों के द्वारा झड़प दी गयी। मलिन स्वभाववाला किसे बुरा नहीं लगता ? बाँस पर स्थित उसे पताका ने गर्दनिया दी, दण्ड पर स्थित होने पर उसे चमरों ने अपने हाथ से हटा दिया। वह हथिनियों के कररूपी सूँड में प्रवेश कर जाती है। नारियों के स्थूल स्तनस्थल पर घूमती है, उनके वस्त्र के अंचल से हटायी गयी वह चल देती है । चारों ओर से लांछित होकर (मसित होकर ) वह क्या ठहर सकती है ? वह दृष्टि-प्रसार और असि प्रसार को रोकती है, मानो भीतर प्रवेश कर युद्ध का निवारण करती है। मन में लगकर वह मानो विश्वास की याचना करती है। पैरों पर उड़कर, मानो पैरों से लग गयी है। घोड़ों के खुरों से आहत होकर जो क्रोध से उठती है । जो जो वह पाती है, वहाँ-वहाँ स्थित हो जाती है। वह मणि- रथों, जपानों और देखते हुए देवविमानों को ढक लेती है। धत्ता-रणवधू के राग से प्रेरित होकर, रक्तरूपी रस से आर्द्र हो वह एकदम रक्त (रक्त, लीन और लाल) होकर एक भी कदम नहीं चल सका, मानो कामदेव के बाण से पीड़ित हो गया । (7) धूल का प्रसार शान्त होने पर फिर से योद्धा युद्धरथों से उठे । विषम उद्भट द्वेष करती हुई, अंकुश के वश में रहनेवाली गजघटाएँ प्रेरित कर दी गयीं। किसी का तीरों से उर विदीर्ण हो गया, मानो नागों 5. B गल्ल । 6. P चमरेण त्रित्थि 7 A स्वबिसु PS चउदिसु । 8 AB णिन्भच्छित S णिष्यंडिउ 9 AP add after this: अंधार करंतु दिसं गच्छ A मंतु पच्छ कहिं किर गवई, P अह चंचलु किं मिच्चलु अच्छछ। 10. AP असर 11 A सवणि पइसि बीसासु 12. APS | 19. PS पयवडियउ । 14. APS पार्टि 15. A तं तहिं । 16. H रत्तपओ वि रत प वि; Als रतवं पउ वि against Mss. 17. Sण चल्लियउं। 18. A खानहं । (7) 1.6 ° सुद्धाविया 12. A विसविसंत Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88.7.16] महाकइपुष्फयंतविरया महापुराणु [ 143 कासु वि णारायहिं उरु दारिउं गायहिं णं वसुहयलु वियारिङ। को वि अद्धइदें सिरि भिण्णउ सोहइ भडु रुदु व अवइण्णउ । गुणमुक्केहि सगुणसंजुत्तउ बहुलोहेहिं लोहपरिचत्तउ। को वि सुहडु धरणियलु ण पत्तउ मग्गणेहिं चाई उक्खित्तउ। केण वि जगु धवलिउ णिस णि 'असिधेणुयविढत्तजसदुद्धे । धरह ण सक्किउ छिण्णकरग्गहि केण वि धरिउं चक्कु दंतग्गहि । कासु बि सिरु अच्चंततिसाइ असिवरपाणियधारहिं" धाय।। कासु वि अंतइं पयजुबधुलियई पहुरिणबंधणाई णं दुलियई। 10 कासु वि गलिउं रत्तु गत्तंतह फेडइ तिस णिरु तिसियकयंतहु"। कासु वि सिव कामिणि व णिरिक्खड़ णहहिं वियारिवि हियवउं चक्खइ। को चि सुहडु पहरणुत णउ मुज्झइ मुच्छिउ7 उम्मुच्छिउ पुणु जुज्झइ। को वि सुहडु जहिं जहिं परिसक्कइ तहिं तहिं संमुह को वि ण दुक्कइ। घत्ता-चलचामरपट्टालंकरिया हरिवाहिय मच्छरफुरुहुरिय" । अभिडिय गरुयरणभारधर पवरासवारकरवालकर ॥7॥ द्वारा वसुधा-तल फाड़ दिया गया हो। कोई अर्धचन्द्र से सिर में विदीर्ण हो गया। वह योद्धा, मानो अवतरित हुए रुद्र के समान शोभित है। गुणों (तीरों, याचकां? से मुक्त होने पर भी, जो सगुण (स्वगुण) से युक्त है, बहुत से लोहों (लोहा) के होते हुए भी लोह (लोभ) से परित्यक्त है। कोई सुभट धरतीतल पर नहीं आ सका, त्यागी (दानी) के समान उसे मग्गणों (तोरों, याचकों) के द्वारा ऊपर उठा लिया गया। अत्यन्त चिकने असिरूपी धेनु से अर्जित यशरूपी दूध से किसी ने सारे विश्व को धवल कर दिया। कटे हुए हाथों के अग्रभागों से जो चक्र पकड़ा नहीं जा सका, उसे किसी ने अपने दाँतों के अग्रभाग से पकड़ लिया। किसी का सिर प्यास से शान्त हो गया। किसी की आँतें पदयुगलों में व्याप्त हो गयीं, मानो स्वामी के ऋण गिर गये हों। किसी के शरीर के मध्य से रक्त स्खलित हो उठा और वह अत्यन्त तृषाकुल यम की प्यास मिटाने लगा। किसी के लिए शिवा (सियारिन) कामिनी के समान दिखाई देती है जो हृदय को अपने नखों से विदीर्ण कर चखती है। कोई सुभट अपना अस्त्र नहीं भूलता, मूच्छित-उन्मूछित होकर भी वह फिर युद्ध करता है। कोई सुभट जहाँ-जहाँ पहुँच जाता है, वहाँ-वहाँ सामने कोई भी सुभट नहीं आता। घत्ता-हिलते हुए चमरों और पट्टों से अलंकृत, घोड़ों से ले जाये गये, ईर्ष्या से विस्फरित भारी युद्धभार को उठानेवाले तथा प्रवर तलवारों को हाथों में लिये हुए अश्वारोही आपस में भिड़ गये। 3. APS अदयदें। 1. A सिरु। 5. AP घणियले। 6. पायइ उक्तित्तउ। 3. P णुव । 8. B"दिदंत । ५. Aणच्चतु: अच्वंतु। 10. PS धारहे। I. PS धाउं। 12. P"जुब"। 15. A धुलियउ। 11. A खलिबउ; चलिपाई बलियई। 15. P"कहो।।6. A पहरणि ण समुज्झाइ न पहरणे गउ। 17.A मच्छिउ पुगु उ मुछिउ जुझड: P मुछिड मुच्छिउ पुण पुणु जुज्झइ। 18. P समुहुँ। 18. A °पटालंकरिय । 20,"हुरुहुरिय: 5 "फुरुहरिय। 21. AL अभिगम्ब: 5 अभिष्ट्रिय । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 1 महाकइपुष्यंतविरयउ महापुराणु ( 8 ) दुबई - 'हयसंणाहदेहणिव्वट्टियलोट्टियतुरयसंकडे" । के वि समोवइति पडिभडथडि विरसियतूरसंघडे ॥छ॥ एक्कमेक्क पहरंतहं कुद्धहं । कढकदंतु सोसिउ सोणियदहु । पक्खरचमरई चिंधई छत्तरं । महुमहबलु दसदिसिवहणजं । हणु भणंतु सई' धाइउ केस । सारई दारइ मारइ जूरइ । ers as चिहुइ विणिवारइ । संघट्टर लोट्टई आवट्टई । खंच कुंचइ " लुंचइ वंचइ । रूसइ दूसइ पीलइ हूलइ " । रोes मोहइ" जोहर साहइ । संधावर records Bp 1. 15 अकाल जयसिरिरामालिंगणलुद्ध असिसंघट्टणि उडिउ हुयवहु दसविदिसासइं तेण पलित्तई ता पडिवक्खपहरभयतट्ठउं पोरिस गुणविंभावियदासउ णरहरि तुरय रहिण" संचूरइ धीरइ हक्कारइ पच्चारइ दमइ रमइ परिभमइ पयट्टइ सरइ धरइ अवहरइ ण संचइ उल्लालइ वालइ ? अप्फालइ " fes संखोहइ आवाहड़ [88.8.1 5 10 (8) जिसमें कवचों के नष्ट हो जाने से विघटित और लौटते हुए अश्वों का संकट है तथा मृदंग समूह बज रहा है, ऐसी प्रतियोद्धाओं की टोली में कितने ही योद्धा गिर पड़ते हैं। विजयलक्ष्मीरूपी रमणी के आलिंगन के लोभी एक-दूसरे पर प्रहार करते हुए अत्यन्त क्रुद्ध योद्धाओं की तलवारों के संघर्षण से आग निकली और उसने कड़कड़ करते हुए 'रक्त सरोवर' को सोख लिया। उससे दिशा-विदिशाएँ, कवच, चमर, चिंघ बिखर और छत्र, प्रज्वलित हो उठे। तब प्रतिपक्ष के प्रहार के भय से त्रस्त कृष्ण की सेना दशों दिशापथों गयी। (उस समय ) अपने पौरुष गुण से देवेन्द्र को विस्मित करनेवाले केशव 'मारो, मारो' कहते हुए दौड़े। नरश्रेष्ठ वह घोड़ों रथों को चूर-चूर करते हैं, हटाते हैं, प्रहार करते हैं, विदीर्ण करते हैं, मारते हैं, पीड़ित करते हैं, धीरज बँधाते हैं, हकारते हैं, पुकारते हैं, हनन करते हैं, घाव करते हैं, धुनते हैं, निवारण करते हैं, दमन करते हैं, रमते हैं, घूमते हैं, प्रवृत्ति करते हैं, संघर्ष करते हैं, लौटते हैं, घुमाते हैं, चलते हैं, पकड़ते अपहरण करते हैं। घुमाते हैं, चलते हैं, पकड़ते हैं, संकुचित करते हैं, ले जाते हैं, वंचित करते हैं। ऊँचा फेंकते हैं, मोड़ते हैं, आस्फालित करते हैं। क्रुद्ध होते हैं, दूषण लगाते हैं, पीड़ित करते हैं, शूल घुसेड़ते हैं, अवलोकन करते हैं, आह्वान करते हैं, घिराव करते हैं, मुग्ध करते हैं, देखते हैं, कहते हैं, झूलती हुई सघन ( 8 ) 1 A विडिय । 2. B लुट्टिय; P 'लोहिय। 3. 3 'तुरसंडे 4. P "दिसिवहे; 5 "टिसबह 5.5 नवविय6. S श्वास 7. AP केस 9 AP सो नरहरि तुमहिं (P तुरयहं) संयूरह B Als गरकरि though Als. thinks that क is written in second hand: कर इति वा पाठ: T also records pरकर रि ) इति था पाटः 10 5 रहे। 1. ABS बुंचइ 1 कॉचई। 12. A चालह । 14 लहर 15. 5 जोहर मोडड। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88.9.9]] महाकइपुष्फयंतविरयर महापुराणु [ 145 अंत" ललंतई गाढई ताडइ संडमुंडखंडोहई पाडइ । वेढइ उब्बेढइ संदाणइ रक्खे भुक्खारीणई पीणइ। वग्गइ रंगइ णिग्गई पविसई दलइ मलइ उल्नलइ ण दीसइ । घत्ता-कुसपास विलुंचइ हयवरहं गलगिज्जउ तोडइ गयवरह। वरवीर रणगणि पडिखलइ मंडलियहं रयणमउड दलइ ॥8॥ दुवई-जुज्झइ वासुएउ परमेसरु परबलसलिलमंदरो'। सुरकामिणिणिहित्तकुसुमावलिणवमवरंदपिंजरो' ॥७॥ गयमयपंकभमिइ चलमहुयरि हवलालाजलवाहिणि दुत्तरि। संदणसंदाणियइ दुसंचरि रुंडमुडविच्छंडभयंकरि । लोहियंभथिंभेहि सुसंचुएइ कडयमउडकुंडलहारंचिइ। सामिपसायदाणरिणणिग्गमि दुक्क विहंगमि तहिं रणसंगमि । सिरिसंकुलससामत्थमयंधे माहउ पच्चारिउ जरसंधै"। गंदगोव घियदुढे मत्तउ जं तुहं महु करि मरणु ण पत्तउ। तं जाणहि करिमयररउद्दइ ल्हिक्किवि धक्कउ लवणसमुद्दइ। आँतों को ताड़ित करते हैं, सिरों और धड़ों के समूहों को गिराते हैं, बाँधते हैं, सहारा लेते हैं, भूख से पीड़ित राक्षसों को सन्तुष्ट करते हैं, व्याकुल होते हैं, चलते हैं, निकलते हैं, प्रवेश करते हैं, दलन करते हैं, मलते हैं, गीले होते हैं, दिखाई नहीं देते।। ___घत्ता--अश्वबरों के तर्जकों को वह नष्ट कर देते हैं। गजवरों की सूड़ों को मसल देते हैं और माण्डलिक राजाओं के रत्नमुकुटों को चूर-चूर कर देते हैं। शत्रुसेनारूपी जल के लिए मन्दराचल के समान, सुरबालाओं द्वारा रखी गयी कुसुमांजलि के नवपराग से पीत परमेश्वर वासुदेव युद्ध करते हैं। जिसमें गजमदजल की कीचड़ बह रही है, भ्रमर चल रहे हैं, जो घोड़ों की लार के जल की नदी से दुस्तर है, जिसमें रथों का सहारा लिया जा रहा है, जो दुस्संचर है, सिरों और धड़ों के समूह से भयंकर है, जो रक्तरूपी जल की बूंदों से सुसिंचित है, जो कटकमुकुट और कुण्डलहारों से अंचित है; जिसमें स्वामी के प्रसाद और दान के ऋण का निर्यातन किया जा रहा है, ऐसे उस भयंकर युद्ध-संगम में पहुँचे हुए माधव को श्री और अपने कुल के सामर्थ्य मद से अन्धे जरासन्ध ने ललकारा-हे नन्दगीप ! घी-दूध से मत्त तुम मेरे हाथ से मृत्यु को प्राप्त नहीं हुए-उसका तुम यह कारण जान लो कि li.A अंतललंतः अपणेणण्णां। 17. APS गाद। 18. AS "रोणे; रिण इ)। ।५. 5 रग्गइ। 20. D हिलसइ । 21. P पइसइ। (9) IA"मंदिरो। 2. ABS कुलपंजलि'1. PS "मरिंद। 4. भमिय' । 5. Kजतियाहणि दुरि butgloss नदी on लियाहाण।5. IBPS "दिच्छ । .. $ धंधेहिं । A. APN मुसिंचिए; B संचिए। 9. B रणि। 10. AP सिरिकुलबलसामत्थ। 11. P जर । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 ] महाकइपुष्फयंतविरपर महापुराणु [88.9.10 पई विणु गाइहिं महिसिहि रुण्णउं णंदहु केरउं गोउलु सुण्णउं। जाहि जाहि गोवाल म ढुक्कहि अज्जु मज्झु कमि पडिउ ण चुक्कहि। णिवकुलकमलसरोवरहंसु जेण परक्कमु भग्गउ कंसहु। तं मुयबल तेर दक्खालहि पेक्खहुँ कुलकलंकु पक्खालहि। एवहिं तुज्झु ण णासहुँ जुत्तउं ता पारायणेण पडिवुत्तउं। घत्ता--पई मारिवि दारिवि अज्जु रणि तोसावमि' सुरवर णर भुवणि । उज्जालिवि" णंदहु तणउ कउं गोमंडलु पालमि गोउ हउं ॥७॥ (10) दुवई-अवरु वि पेक्खु पेक्खु हरिसुजलसिरिथणकुंकुमारुणा । एए बाहुदंड महु केरा वइरिकरिंददारणा ॥छ। एए बाण एउं बाणासणु एहु इंदु करिवरखंधासणु। इहु सो तुहं रिउ एउं रणंगणु ए सक्खि सुरभरिउं णहंगणु। जइ णियकुलपरिहउ' ण गवेसमि जइ पई कंसपहेण ण पेसमि। तो बलएबहु पय ण णमंसमि अरहतहु सासणु ण पसंसमि । हउँ णउ पासमि घाउ पयासमि अज्जु तुज्झु जीविड णिण्णासमि । तुम जलगजों और. मगरों से भयंकर लवणसमुद्र में जाकर छिप गये थे। तुम्हारे बिना गायों और भैंसों से रहित नन्द का गोकुल सूना हो गया है। हे गोपाल ! तुम जाओ-जाओ, यहाँ मत पहुँचो। आज मेरे पैरों की चपेट में आकर तम नहीं बचोगे। अपने जिस पराक्रम से तमने राजकलरूपी कमलों के सरोवर के हंस कंस का पराक्रम भंग किया है, तुम मुझे अपना बाहुबल दिखाओ तो मैं देखूगा। तू कुलकलंक (गोपत्व) प्रक्षालित कर ले (मिटा ले)। इस समय तुम्हारा नाश ठीक नहीं। इस पर नारायण ने कहा पत्ता-तुम्हें आज युद्ध में मारकर और फाड़कर लोक में देववरों और मनुष्यों को सन्तुष्ट करूँगा। नन्द के गोकुल को आलोकित कर मैं गोमण्डल (गायों के मण्डल, पृथ्वी-मण्डल) का पालन करता हूँ, मैं गोप हूँ। (10) और भी देखो देखो, हर्ष से उज्ज्वल लक्ष्मी के स्तन की केशर से अरुण, शत्रुरूपी गजराजों को विदारण करनेवाले ये मेरे बाहुदण्ड। ये बाण, ये धनुष, गजवर के कन्धे पर आरूढ़ वह बलभद्र। यह तुम, ये शत्रु, और यह युद्ध का मैदान। देवताओं से भरा हुआ यह आकाश साक्षी है: यदि मैं अपने कल के पराभव का बदला नहीं लेता, यदि तुम्हें कंस के पथ पर नहीं भेजता, तो बलराम के चरणों में प्रणाम नहीं करता और अर्हन्त के जिनशासन की प्रशंसा नहीं करता। मैं नष्ट नहीं हूँगा, तुम्हें आघात दूँगा, आज तुम्हारे जीवन 12. नवकुल। 19. A तोसाववि: P तोसामि। 14. सुः परधर पर। 15. A रज्जालर 5 उज्जालमि। 16. Pगो ह। (10) 1.5 पेल once 2. 5 वरिददारणा। . " एहुँ। 4. $ "परिव । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 88.11.71 महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [ 147 इय गज्जतहिं भंगुरभावई दोहिं मि अप्फालियई सचावई। उट्टेिउ गुणटंकारणिणायउ वेविउ वाउ वरुणु जडु जायउ। सहभएण व तेण चमक्का सुरकरि दाणु देंतु णउ थक्कइ। ससि तसियट हुउ झीणकलालउ' थिउ जमु णं भयभीएं कालज। जलणिहिजलई चलई परिधुलियई गहणक्खत्तई महिलि लुलियई। पियाई सत्त वि पायालई गिरिसिहरई णिवडियई करालई। पत्ता-अमरासुरविसहरजोइयई तोणीरई खंधारोइवई। उप्पुंखविचित्तई संगयई णं गरुडहं पिछई। णिग्गयई12 ॥७॥ 15 (1) दुवई-'वलइवरयणसार- बहुपहरण चडुलसमीरधुयधया। ता जलधरायदामीयरपथजुषचोइया गया ॥७॥ करडगलियमयमिलियमहुयरा जलहर व्य पविमुक्कसीयरा । सायर व्य गज्जणमहारवा वइवसु' व्य तइलोक्कभइरवा' । मुणिवर च्च कयपाणिभोयणा थीवण व्व लीलावलोयणा । पत्थिव ब्व सोहंतचामरा खलणर' व्य परिचत्तभीयरा । सुपुरिस व्व दढबद्धकच्छया रक्खस व्य मारणविणिच्छया। को नष्ट करूँगा। इस प्रकार क्षणिक आवेग से गरजते हुए दोनों ने अपने-अपने धनुष चढ़ा लिये। डोरियों की टंकार का शब्द उठा। उससे पवन काँप गया और वरुण जड़ हो गया। उस शब्दभव से ऐरावत डर जाता है और मदजल छोड़ता हुआ नहीं थकता है। चन्द्रमा त्रस्त होकर क्षीण कलाओंवाला हो गया। यम मानो भयभीत होकर काला पड़ गया। समुद्र का जल चंचल होकर व्याप्त हो गया। ग्रह-नक्षत्र धरणीतल पर झूल गये। सातों पाताललोक काँप उठे। भयंकर गिरिशिखर गिर पड़े। ___ पत्ता-अमर, असुर और विषधरों के द्वारा देखे गये, कन्धों पर रखे हुए, पुंखों से विचित्र और मिले हुए तरकस ऐसे लगते हैं, मानो गरुड़ों के पंख निकल आये हों। (11) जिनके सोने के पल्याण (जीन) झुके हुए हैं, जो प्रचुर अस्त्रों से युक्त हैं, जिन पर चंचल पवन से ध्वज उड़ रहे हैं तथा जरासन्ध राजा और दामोदर के दोनों पैरों से प्रेरित किये गये, सूड़ों से झरते हुए मद पर मँडराते हुए मधुकरवाले वे गज मेघों की तरह जल-कण छोड़ रहे थे। वे समुद्र के समान महागर्जनवाले थे। यम की तरह त्रिलोक के लिए भयावह थे। मुनिवरों की तरह पाणि (हाथ, सँड़) से भोजन करनेवाले थे। स्वीजन के समान लीलापूर्वक देखनेवाले थे। राजाओं की तरह चामरों से शोभित थे। दुष्टजनों की तरह भय से दूर थे। सत्पुरुष की तरह वस्त्र (ब्रह्मचर्य, रस्सी) जिन्होंने अच्छी तरह धारण कर रखा है, राक्षसों 5. P जाइ31 G. PS चवक्कड़। 7. ABPS ALS. ओणु कला | B. APS भयमीयए। 9. BP "रोहियई। 10. 5 संगई। 11. BP पिच्छई। 12. K गिरगई। (11) I. P बलविया । 2. A"गणसारि। 3. PS जरसेंध-14. ABS बइवप्त च। 5. R तिलुक्क तेलोक्क"। , BAIS. लीलाविलोमणा। 7.5 खलपण च। 8. A1 परचित्त । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1481 [88.11.8 सुररह' व्व घंटालिमुहलिया" वासर व्ब पहरेहिं पयलिया। णवणिहि व रयणेहिं उज्जला कज्जलालिपुंज व्च सामला। चरणचालचालियधरायला खलखलंतसोवण्णसंखला। पुक्खरग्गसंगहियगंधया एक्कमेक्कमारणविलुद्धया। रोसजलणजालोलिछाइया। बिहिं मि कुंजरा सउंह धाइया। घत्ता-कालउ सुरचावालंकरिउ कडिछुरियइ विज्जुइ विप्फुरिउ" । सरधारहि युट्टउ महुमहणु णं णवपाउसि ओत्थरिउ घणु ॥11॥ (12) दुवई-सरणीरंधपसरि' संजायइ खगु वि ण जाइ णहयले। विद्धतेण तेण भड सूडिय पाडिय मेइणीयले ॥छ॥ वरधम्मेण जइ वि परिचत्ता लोहणिबद्धा चित्तविचित्ता। परणरजीवहारि दुद्दसण चंचलयर णावइ कामिणियण । वम्मविहंसण पिसुणसमाणा दूरोसारियअमरविमाणा। धणुहें दिण्णउँ जई वि णवेप्पिणु कोडिउ ताउ* दो वि मेल्लेप्पिणु । की तरह जो मारने का निश्चय किये हुए हैं, जो देवरथों की तरह घण्टावलियों से मुखरित हैं, जो दिनों के समान प्रहरों (प्रहर, प्रहारों) से युक्त हैं, नवनिधि के समान जो रत्नों से उज्ज्वल हैं, जो काजल और अलिसमूह की तरह श्यामल हैं, जो अपनी पद-चाल से धरती को प्रकम्पित करनेवाले हैं, जिनकी स्वर्ण शृंखलाएँ खनखना रही हैं, जिनकी सैंड़ों के अग्रभाग में गन्ध संगृहीत है, जो एक-दूसरे को मारने के लिए उत्सुक हैं, इस प्रकार क्रोधरूपी ज्वालावलि से आच्छादित दोनों ही महागज सामने दौड़े। ____घत्ता-बिजली के समान कमर की धुरी से चमकते हुए कृष्ण सर-धाराओं (तीर, जलकण की धाराओं) से बरस पड़े, मानो श्याम एवं इन्द्रधनुष से अलंकृत नवधन, नवपावस में उमड़ पड़े हों। (12) तीरों के छिद्रहीन प्रसार के कारण आकाशतल में पक्षी नहीं जा पाता। भेदन करते हुए नारायण ने योद्धाओं को नष्ट करके धरती पर लिटा दिया। वे तीर यद्यपि वरधर्म (धनुष, धम) से परित्यक्त, लोह-निबद्ध (लोहा, लोभ से घटित), चित्रविचित्र, दूसरे जीव का हरण करनेवाले, दुर्दर्शनीय और अत्यन्त चंचल थे, मानो कामिनीजन हों। वे दुष्ट के समान वम (मर्म, कवच) का भेदन करनेवाले थे, और देवविमानों को दूर से ही हटानेवाले थे। यद्यपि ये तीर धनुष द्वारा दोनों कोटियाँ झुकाकर छोड़े गये थे, तब भी वे तृष्णाकुल की तरह लाख 9. ABP सुरकर व्य। 10. 85 पंडाहिं मुर। [.. ' णिवणिहि। 12. P पुखर व्य। 13. Sढाइया। 14. S सहुउहुं: । समुहूं। I. R करि। 16. Pारिए। 17. ' विष्फग्घिट। 19. Bथरिका (12) I. APणी प्यारे। 2. 8 विधहण। 3. s कामिणिजण। 4. A तो वि श्रेणिBA]s. ताउ दोषिण। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88.13.8]] महाकपुष्फयंतविरपट महापुराणु [ 149 अनि 10 लक्खहु धावई णं तिहालय अह किं किर करति जड गुणचुय। मग्गणा वि णिय मोक्खहु कण्हें वइरिवीरणिहारणतण्हें। जा माहादिपा सांडे हरिधणुवेयणाण' दूसतें। णियसरेहिं विणिवारिय रिउसर विसहरेहि छिण्णा इव विसहर । पत्ता-ता कण्हें विद्धउ पइसरिवि धयछत्तई चमरई कप्परिवि। णरवइ णारायहिं वणिउ किह धुत्तेहिं विलासिणिलोउ जिह ॥12॥ ( 13 ) दुवई-ता देवइसुवस्स बलसत्ति' पलोइवि णिज्जियावणी । मणि चिंतविय' विज्ज जरसिधै विसरिसविविहरूविणी" ॥छ॥ दंडउ' –णवर पवररायाहिराएण संपेसिया दारणी मारणी मोहणी थंभणी सबविज्जाबलच्छेइणी ||1|| ___ पलयघरवारणी संगया खग्गिणी पासिणी चक्किणी सूलिणी हूलणी" मुंडमालाहरी कालकावालिणी ॥2॥ पयडियमुहदंतपंतीहिं हा हि त्ति हासेहिं पिंगुद्धकेसेहिं मायाविरुद्धेहि भीमेहिं मूएहि रुद्धा रहा ॥3॥ के लिए दौड़ रहे थे (जो करोड़ों को पाकर भी लाख की इच्छ करे।) अथवा गुणों से च्युत जड़ क्या करते हैं। (इधर) शत्रुवीर को नष्ट करने की तृष्णा रखनेवाले कृष्ण ने धनुर्वेद को दूषित करते हुए और क्रुद्ध होते हुए, (उधर) मगधराज ने अपने तीरों से शत्रुतीरों का निवारण किया, जैसे विषधरों से विषधर छिन्न-भिन्न हुए हों। __घत्ता-कृष्ण ने प्रवेश कर ध्वजों, छत्रों और चमरों को काटकर अपने तीरों से बिद्ध राजा को इस प्रकार घायल कर दिया, जैसे धूर्तों के द्वारा विलासिनी घायल कर दी गयी हो। (13) तब धरती को जीतनेवाली कृष्ण की बलशक्ति को देखकर, जरासन्ध ने असामान्य विविध रूप धरण करनेवाली विद्या की अपने मन में चिन्ता की। प्रवरराजाधिराज ने दारणी, मारणी, मोहिनी, स्तम्भिनी सर्पविद्या, बलछेदिनी प्रलवघरवारिणी, खग्गिणी, पासिनी, चक्रिणी, शूलिनी, हूलिनी, मुण्डमालाधरी और काल-कापालिनी रूप (विद्या) प्रेषित की अपने मुखों और दाँतों की पंक्तियों को दिखाते हुए, हा ! हा ! इस प्रकार अट्टहास करते, पीले ऊँचे केशराशिवाले, माया से अवरुद्ध, भयंकर भूतों द्वारा रथ रोक लिये गये। कृष्ण ने युद्ध में 5. PAI. धाइय। G.AP कुप्गोंते। 7..PS णाणु। (13) 1. B बलसत्तिए ली। 2. 5 पलोयथि। 3. S णिजया । 4. A चित्तविय: 5 चितवीय। 5. PS जरसेंधे। 6. । वैविहरूपिणी । 7. A ourits दंडऊ.5 omits मोहणी। 9. Pऐचणी। 10. AP पलबघणधारिणी; B पलयघरवारिणी; As. पलयघरवारणी against Mss. and against gloss in SIE M. 11. A omits लणी; 8 हलिणी। 12. 5हा है ति1 IS AP मायाविरूवेहि। 14. P भूदेहिं । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1501 महाकइपुप्फयंतविण्यउ महापुराणु | 88.13.9 हरिकरिबरे किंकरे छत्तदंडम्मि चावम्मिा चिंधम्मि जाणे विमाणम्मि कण्हेण जुझे रिऊ” दीसए ॥4॥ विहुणइ सयलं बलं जाव "फुटुंतसव्वट्टिअंगेहि ताराले चलंतुग्गपक्खिदकेऊहरो संठिओ ॥5॥ ___ फणिसुरणरसंथुओ सूरसंगामसंघट्टसोढो महामंतवाईसरो तप्पहावेण णिण्णासिया ॥6॥ जलहरसिहरे खलती चलंती घुलती तसंती रसती सुसंती चलायासमग्गे 15 सुदूर गया देवया ॥7॥ पत्ता-हरिदसणि णहयलि दिण्णपय जं बहुरूविणि णासेबि गय। तं परतरुणीगलहारहर पहुणा अवलोइय णिययकर ॥13॥ दुवई-पभणइ कोवजलणजालारुण दिवि घिवंतु माहये। किं कीरइ खलेहिं भूएहि थिएहिं गएहिं आहवे छ। तेण दुछिओ' हरी नृपिंडमुंडखंडणे किं बहूहि किंकरहिं मारिएहिं भंडणे। होइ भू हए णिवे ण बुझसे किमेरिसं एहि कङ्क धिट्ट दुट्ठ पेच्छ मज्झ पोरिसं। घोड़े, हाथी, अनुचर, छत्रदण्ड, चाप, पताकायान और विमान पर शत्रु को देख लिया। और जब तक वह विद्या नष्ट होती हुई हड्डियों और अंगों के साथ समस्त सेना को नष्ट करती है, तब तक चंचल और उग्र गरुड़ को धारण करनेवाले वह (श्रीकृष्ण) वहाँ स्थित हो गये, जहाँ नागों, असुरों और मनुष्यों से संस्तुत, शूरवीरों के संग्राम का संघर्ष करने में समर्थ और महामन्त्र वादीश्वर था। उसके प्रभाव से नष्ट होती हुई वह विद्यादेवी मेघशिखरों पर स्खलित होती हुई, गिरती हुई, त्रस्त होती हुई, चिल्लाती हुई और सिसकती हुई, चलाकाश के मार्ग से कहीं दूर चली गयी। घत्ता-हरि को इसनेवाली वह बहुरूपिणी विद्या जब आकाश में अपने पैर रखती हुई कहीं चली गयी, तब राजा ने शत्रुतरुणियों के गले के हारों का हरण करनेवाले अपने हाथ देखे । क्रोधाग्नि की चालाओं से अरुण अपनी दृष्टि माधव पर डालते हुए जरासन्ध कहता है-युद्ध में स्थित अथवा गये हुए भूतों से क्या किया जाये ? उसने हरि की निन्दा की कि मनुष्यों के धड़ों और सिरों का खण्डन करनेवाले युद्ध में बहुत से अनुचरों को मारने से क्या लाभ। राजा के मारे जाने पर धरती अपने अधीन हो जाएगी, क्या तुम इतना नहीं जानते ? हे कष्ट, ढीठ दुष्ट ! आ, और मेरा पौरुष देख । तब 15. Kunits चावम्मि विधाम। 16. P कण्हेण कुर्तण जुझेवि रिऊ। 17. BK रिठ। 18. BKP विहुणेई। 19. Dपुटुंत; P फुट्ठति। 20. B सयष्टिअंगम्हि। 21. A केऊरहो; P°केकरहे। 22. A फणिणरतुर । 28. APS संगाम'; P संगामि संघाविओ सो महापुण्णणेमीसरी तपशा" in second hand. 24, A वलंतो। 25. B तहु दंमाण in seccand hand; S जिणसणि। (14) I. A टोच्छिओ B दुछिओ; 6 दोरिओ। 2. ABP णिपिड । 3. P होउ। 4. B इण्झले: P जुज्नासे। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88.15.61 महाकइपुष्फयतविरयउ महापुराणु [15] केसरि व्य दुद्धरो करगणक्खराइओ सो वि तस्स संमुहो समच्छरो पधाइओ। ता महीसरेण झत्ति पाणिपल्लवे कयं "लोयमारेणक्कबिंबसंणिह' सचक्कयं। 5 उत्तमेण कुंकुमेण चंदणेण चच्चियं भामियं करेण वीरदेहरत्तसिंचियं। 'गुत्थपंचवपणपुष्फदामएहिं पुज्जियं राहियामणोहरस्स संमुहं विसज्जियं। 'चंडसूररस्सिरासिचिच्चियच्चिसच्छह कालरूवभीमभूयमच्चुदूयदूसहं । वेरितासयारि भूरिभूइभाइ भासुरं भीयजीयभट्टचेद्रुतकिणरासुरं"। 10 घत्ता-णाणामाणिक्कहिं वेयडि! तं रिउरहंगु हरिकरि चडिउं। णियकंकणु तियणसुंदरिए णं पाहुडु पेसिउं जयसिरिए ॥14॥ ( 15 ) दुवई-तं हत्थेण लेवि दुब्बोल्लिउ पुणरवि रिउ णराहिओ' । __ अज्ज वि देहि पहवि मा णासहि अणुणहि सीरि सामिओ' ॥छ॥ तं णिसुणवि वुत्तु' मगहसें आरुष्टुं कयंतभडभीसें। तुहं गोवालु बालु पउ" जाणहि संद होवि कामिणियणु माहि । जड़ किं सिहि सिहाहिं संतावहि महु अग्गइ सुहडत्तणु दावहि । चक्के एण कुलालु व मत्त अज्जु मित्त कहिं जाहि जियंतउ । सिंह के समान दुर्धर कराग्र में स्थित खड्गरूपी नखों से शोभित वह भी ईर्ष्या से भरकर उसके सम्मुख आये। इतने में राजा जरासन्ध ने शीघ्र ही अपने पाणिपल्लव में लोक का नाश करने के लिए प्रलयार्क-बिम्ब के समान अपना चक्र ले लिया जो उत्तम केशर और चन्दन से चर्चित था। वीरों के शरीर के रक्त से सिंचित था, गुंथी हुई पंचरंगी मालाओं से पूजित था, राधा के प्रिय कृष्ण के सम्मुख छोड़ा। वह प्रचण्ड सूर्य-रश्मिराशि की अग्नि की ज्वालाओं के समान था, काल के रूप के समान भयंकर, भूतों और मृत्युदूत की तरह दुःसह्य, शत्रुओं के लिए त्रासदायक, प्रचुर विभूतियों से भास्वर, भीतजीवों की भ्रष्ट चेष्टाओं से किन्नरों और असुरों को डरानेवाला, तथा-- ___ घत्ता-तरह-तरह के माणिक्यों से जड़ा हुआ था। वह चक्र श्रीकृष्ण के हाथ पर ऐसे चढ़ गया, मानो त्रिभुवन की सुन्दरी विजयश्री ने अपना कंगन उपहार में भेजा हो। (15) उस चक्र को हाथ में लेकर उन्होंने फिर से उस शत्रु राजा से कहा--"तुम आज भी धरती दे दो, अपने को नष्ट मत करो, स्वामी बलभद्र से प्रार्थना करो।" यह सुनकर क्रुद्ध और यमभट की तरह भयंकर मागधेश ने कहा- “गोपाल ! तुम नहीं जानते हो, नपुंसक होकर कामिनीजन को मानते हो। हे मूर्ख ! क्या अग्नि अग्नि से शान्त होती है ? तुम मेरे सामने सुभटपन बता रहे हो, इस चक्र से तुम कलाल की तरह मतवाले 5. Als पारणक्क" hexinst Mss. misunderstanding the gloss. . A "विधासणिण पिसक्कयं। 7. A गुत्त: PS गुय । 9. BP "पुष्प'। 9.A चंडसूररासि : । चंडसोयराप्ति"। 10. A सच्छि। 11. A "मकिट्ठणकिणरा। 12. B विडिय। (15) 1. PS गरियो। 2. । पुरुइ। 3. PS पत्थियो। 1. P पउत्तु। 5. Bण हु। 5. AP चक्केणेण1 7. म मित्तु। 8. AP अघित्तर। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 ] महाकइपुण्यवंतविरय महापुराणु जाम ण भिंदमि सत्तिइ तुह उरु । वसुएउ वि पाइक्कु महारउ । विज्जहि ओसरु सरु" पइसरु" मा जमपुरु राउ समुहविजउ कम्मारउ तुहुं घई तासु हरिणु व सीहें हुं रणु इच्छहि खल खज्जिहिसि पाव पावें तुहुं ता हरिणा रहचरणु विमुक्कउं तजहि । भिच्चु होवि" रायत्तहु" बंछहि । णासु णासु मा जोयहि महुं मुहुं । रविबिंबु व अत्थयरिहि ढुक्कउं । घत्ता - णरगाहहु छिण्णउं सिरकमलु णावइ रहंगु " णवकुसुमदलु । थि हरि हरिसें कंटइयभुज पवरच्छरकोडीहिं थु ||15|| ( 16 ) दुवई - हइ जरिसंधराइ' महुमहसिरि रुंजियमहुयरालओ' । सुरवरकरविभुक्कु णिवडिउ णववियसियकुसुममेलओ ॥छ कउ कलयलु पहवई जयसूरई । दहधणुतणुउच्छेहपमाणें । णवघणकुवलयकज्जलवण्णें । रणभरधरणधोरथिरकंधें । अरिणरिंदणारीमणजूरई पायपोमपाडियगिव्वाणें चिरभवचरियपुण्णसं पुण्णें एक्कसहस व रिसाउणिबंधें 88.15.7 10 5 हो रहे हो ? हे मित्र ! आज तुम जीवित कहाँ जा सकते हो ? जब तक मैं शक्ति से तुम्हारे उर का छेदन नहीं करता, तब तक यहाँ से हट जाओ, वमपुर में प्रवेश मत करो। समुद्रविजय मेरा काम करनेवाला (सेवक ) हैं, वसुदेव भी मेरा अनुचर है। तू उसका पुत्र व्यर्थ क्यों गरजता है ? ढीठ ! धरती माँगते हुए तुझे लज्जा नहीं आती ? हरिण की तरह तू सिंह के साथ युद्ध की इच्छा करता है, नौकर होकर राजछत्र की इच्छा करता है ? रे दुष्ट ! पाप पाप के द्वारा तू खाया जाएगा। भाग, भाग, मेरा मुँह मत देख।" इस पर श्रीकृष्ण ने चक्र चला दिया, जैसे सूर्यबिम्ब अस्तगिरि पर पहुँच गया हो । बत्ता - उसने नरनाथ का सिररूपी कमल काट दिया, मानो चक्रवाक ने नवकुसुमदल को छिन्न कर दिया हो । हर्ष से हरि की भुजाएँ पुलकित हो गयीं। करोड़ों श्रेष्ठ अप्सराओं ने उनकी स्तुति की। ( 16 ) जरासन्ध के मारे जाने पर, जिस पर मधुकर समूह गुनगुना रहा है ऐसे श्रीकृष्ण के सिर पर देवों के द्वारा मुक्त नवकुसुम-समूह बरस पड़ा। शत्रु राजाओं की स्त्रियों के मन को सतानेवाले आहत जय -नगाड़ों का कल-कल होने लगा, जिसके चरण-कमलों में देव मस्तक झुकाते हैं, जिसके शरीर की ऊँचाई दस धनुष प्रमाण हैं, जो पूर्वजन्म में आचारित पुण्य से परिपूर्ण है, जो नवघननील कमल और काजल के समान कृष्ण है, जिसकी आयु का बन्ध एक हजार वर्ष है, जिसके स्थूल कन्धे युद्ध का भार उठाने में समर्थ हैं, 9. P ऊस | 10 8 पट्टमर 11 तह पहुं तासुः ॥ घइ घरि 12. BS होइ। 15. AS Als, रायत्तणु। 14, APS अत्यइरिहि । 15. A णाई 16. AP Jet ( 16 ) 1. 13 जनसंधु: P जरनॅथे जरमेध 25 संजिय। 3. [ "विमुक्का । 4. PS खंधें । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88.17.6] महाकइपुष्पयंतविरयउ महापुराणु [ 153 मागहु बरतणु समई पहासें साहिय क्रयदिग्विजयविलासें। सुरसरिसिंधुवकंटणिकेयई मेच्छरायमंडलई अणेयई। सिरिविरइयकइक्खविक्नेवें णिज्जियाइं पारायणदेवें। विप्फुरंत णहयलि पेसिय सर विजाहरदाहिणसेंढीसर। जिणिवि गरुडसोहंतधयग्नें महि तिखंडमंडिय जिय खग्गें। णियपयमुद्विय दप्युल्ललियहं चूडामणि णाणामंडलियाँ' । घत्ता-कोत्थुयमाणिक्कु दंडु अवरु गय संखु चक्कु धणुहु वि पवरु। सिद्धई सहुं सत्तिइ सत्त तहु रयणई मेइणिपरमेसरहु ॥16॥ ( 17 ) दुवई-अट्ठसहास जासु वरदेवह मणहररिद्धिरिद्धहं । सोलह बलणिहित्तदिण्णायहं रायहं मउडबद्धहं ॥छ।। 'कइयवकरणालिंगणणिलयह परि निराई सहादं वितरह। रुप्पिणि सच्चहाम जंबावइ पुणु सुसीम लक्खण मंधरगइ। हावभावविभमपाणियणइ सई गंधारि गोरि पोमावइ। एयउ सा अट्ठमहाएविउ गोविंदहु। जिसने दिव्य विजय-विलास किया है, ऐसे श्रीकृष्ण ने प्रभास के साथ मागध, वरतनु आदि को सिद्ध कर लिया। गंगा और सिन्धु नदियों के उपकण्ठों पर जिनके घर हैं, ऐसे अनेक म्लेच्छराज मण्डलों को, श्री (विजयश्री) द्वारा जिनपर कटाक्ष-विक्षेप किया गया है, ऐसे नारायण देव ने जीत लिया। जिनके द्वारा प्रेषित तीर आकाशतल में चमकते हैं, जिनके ध्वज का अग्रभाग गरुड़ से शोभित है, ऐसे श्रीकृष्ण ने विजयाध पर्वत की दक्षिण श्रेणी के राजाओं को जीतकर, अपनी तलवार से तीन खण्ड धरती जीत ली। दर्प से उद्धत नाना मण्डलीक राजाओं के चूड़ामणि को अपने पद (पैर) से अंकित कर दिया। __घत्ता -कौस्तुभमणि, दण्ड, गदा, शंख, चक्र, प्रवर धनुष और शक्ति-ये सात रत्न धरती के स्वामी को सिद्ध हुए। (17) सुन्दर ऋद्धिनों से सम्पन्न श्रेष्ठ देवों और शक्ति से दिग्गजों को परास्त करनेवाले, मुकुटबद्ध उन राजाओं की (बलभद्र और नारायण की क्रमशः) आठ हजार और सोलह हजार रानियाँ थीं तथा मायाचारपूर्ण आचरण और आलिंगन की वर उन वनिताओं के उत्तने ही घर थे। रुक्मणि, सत्यभामा, जाम्बवती, सुसीमा, मन्थरगति लक्ष्मणा, हावभाव और विभ्रमरूपी पानी की नदी सती गान्धारी, गौरी और पद्मावती ये आठ महादेवियाँ :. A धुकंठ; 15 "सेंधुवकट" | 6. BS "सोहंति 1 7. "मंडलियई। 8. P कोत्युप्त । ५. ' माणिकक। 1. B मि पचरु: । वि अवम् । (17) 1. देवरं । 2. BK कचय" hut glass ink कैतव कइविय। I. A नणलियहं । 4. A तेत्तिया जेहे वरविलय तेत्तिय सहसई वरविलयह। i. 1 मई 1. Road Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1541 महाकइपुष्फर्यतविरयउ महापुराणु [88.17.7 बलएवहु माणवमणहारिहि अट्ठसहासई मंदिरि' णारिहिं। रयणमाल गय मुसलु सलंगलु च स्यणाई तासु बहुभुयबलु । कसण धवल बेण्णि वि णं जलहर पुरि दारावइ गय हरि हलहर। अहिसिंचिउ उविंदु सामंतहिं गिरि व धणेहिं णवंबु सवंतहिं। बद्धउ पट्टु विरेहइ केहउ तडिविलासु वरमेहहु जेहङ। दिव्वकामसोक्खई भुंजतहु णमिकुमारहु तहिं णिवसंतहु। अण्णा दिवसि" कसमहुवइरिउ णियअंतेउरेण परिवारिउ । घत्ता--पप्फुल्लवेल्लिपल्लवियवणि गयपाउसि सरयसमागमणि। गउ जलकेलिहि हरि सीरधरु णामेण मणोहरु कमलसरु ॥17॥ 15 (18) दुवई-सोहइ चिक्कमंति जहिं चारु सलील मरालपतिया। ___णं रुंदारविंदकयणिलयहि' लच्छिहि देहकठिया ॥छ॥ पोमहि णियबहिणियहि गवेसिव णं चदेण जोण्ह संपेसिय। उड्डिय भमरावलि ताहि अंगें अयसकित्ति णं कित्तिहि संगें। बहुगुणवंतु जइ वि कोसिल्ल जइ वि सुपस्तु सुमित्तु संसल्लउँ । 5 तो वि णलिणु" सालूरे चप्पिङ जडपसंगु किं ण करइ विप्पिङ । पृथ्वी के नरेन्द्र गोविन्द को साधकर सिद्ध हुईं। बलदेव के घर में मानव-मन का हरण करनेवाली आठ हजार रानियाँ थीं। उनके रत्नमाला, गदा, मूसल और हल ये चार महारत्न थे। दोनों ही महान् बाहुवाले, मानो काले और गोरे (सफेद) मेघ हों । नारायण और बलभद्र द्वारावती नगरी गये। सामन्तों ने श्रीकृष्ण का अभिषेक उसी प्रकार किया, जिस प्रकार नवजल बरसाते हुए मेघ पहाड़ का करते हैं। बाँधा हुआ राजपट्ट ऐसे शोभित होता है, जैसे मेघों में विद्युविलास हो। दिव्य कामसुखों को भोगते हुए नेमिकुमार वहाँ रहने लगे। किसी दिन कंस और मधु के शत्रु कृष्ण अपने अन्तःपुर के साथ घिरे हुए थे__घत्ता-वर्षा बीतने और शरद् के आने पर खिली हुई लताओं और पल्लवोंवाले वन में श्रीधर नामक सुन्दर कमल सरोवर में वे जलक्रीड़ा के लिए गये। (18) वहाँ पर सुन्दर और लीलापूर्वक चलती हुई हंसों की कतार ऐसी शोभित थी, मानो विशाल कमलों में निवास करनवाली लक्ष्मी के शरीर का कण्ठा हो, मानो अपनी बहिन लक्ष्मी को खोजने के लिए चन्द्रमा ने ज्योत्स्ना को भेजा हो। उनके शरीर से उड़ती हुई भ्रमरावली (ऐसी शोभित थी) मानो कीर्ति के साथ अयश की कीर्ति उड़ रही हो। यद्यपि कमल कर्णिकायुक्त और बहुगुणों से युक्त हैं तथा अच्छे मित्र के समान पत्तों और मकरन्दवाले हैं, तो भी वह मेंढक के द्वारा खा लिये जाते हैं। जड़ प्रसंग (मूर्ख की संगति, जल १.परिणारिहि । *. AP धवल ण वणि चि। 9. Somits "वर'। 10. 2 दियहि । (18) I. B कांगतहि णियलाह hut gloss कृतनिलयायाः । 2. ADS देहतिया। 3. B ता; 5 तहें। 4. B सुमत्तु । 5. Bणलिण। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ f 88.18.2] महाकइपुण्फयंतविरयउ महापुराणु णं सरसिरिथणव तुंगई। अहिसिंचिंतु देउ णारायणु । सबदलदलजलकणसंसय गय । णावर रइरसु रावियगत्तउ । अंगातगबु सलु पायतिरातुं ॥ णं णिग्गय रोमावलिअंकुर" | कण्हजलंजलिहउ विरहाणलु । गेण्हइ णाइ " णयणवइहवहलु" । बलदेवहु" धवलतें दीसइ । णाई अहिंस धम्मवित्थारहु । धत्ता -- तहिं सच्चहामदेवि । सइइ णं विझसिंहरि रेवाणइइ । अइसरसवयणरोमंचियउ णीरें णेमीसरु सिंचियउ || 18 || ( 19 ) जहिं सारसई सुपीयलियंगई हिं जलकील करइ तरुणीयणु काहि वि वियलिय हारावलिलय पवलिउं थणकुंकुम पइ सित्तउ काहि वि सुण्डु' वत्थु गुहिया काहि विसितहि णवविल्लि" व वर काहि वि उल्हह्मणज4 कवलियबलु 5 काहि विदिष्णु" कण्णि णीलुप्पलु का वि कण्हतणुकतिहि णासइ कंठि लग्ग कवि णेमिकुमारहु दुवई - जो देविंदचंदफणिवंदिउ तिहुयणणाहु' बोल्लिओ । सो वि नियंबिणीहिं कीलतिहिं जलकीलाजलोल्लिओ ॥ छ ॥ [ 155 10 15 की संगति) किसका बुरा नहीं करता। जहाँ पीले अंगवाले सारस ऐसे लगते हैं, मानो सरोवररूपी लक्ष्मी के ऊँचे स्तनपृष्ठ हों। देव नारायण कृष्ण के ऊपर जल सींचती हुई युवतियाँ उस सरोवर में जलक्रीड़ा करती हैं। किसी की हारावलि गिर जाती हैं जो कमलों के पत्तों के जलकणों का संशय पैदा कर रही है। पति सेसींचा गया तथा स्तनों से गिरा हुआ केशर-जल ऐसा लगता है, मानो रति का आस्वाद लेनेवाला रति-रस हो। किसी का सूक्ष्म वस्त्र शरीर से चिपक जाता है, उससे समस्त शरीरावयव प्रकट हो जाते हैं। किसी की सींची गयी नवल त्रिबलि ऐसी लगती है, मानो रोमावलि के अंकुर निकल आये हों। शक्ति को कुण्ठित करनेवाला किसी का विरहानल कृष्ण की जलांजलि से आहत होकर शान्त हो गया। किसी ने काम में नीलकमल देख लिया, जैसे उसने नेत्र के वैभव का फल पा लिया हो। कृष्ण की शरीर की कान्ति किसी से छिप जाती हैं और बलराम की धवलता से वह प्रकट होती है। कोई नेमिकुमार के गले लग जाती है, जैसे अहिंसा धर्मविस्तार से लग जाती है। घत्ता - वहाँ सती सत्यभामा देवी के द्वारा, अत्यन्त सरसमुख वाले और पुलकित नेमीश्वर जल से ऐसे सींचे दिये गये, मानो नर्मदा के द्वारा विन्ध्य सींचा गया हो । ( 19 ) जो देवेन्द्ररूपी चन्द्रों और नागराजों से वन्दनीय हैं और त्रिलोकनाथ कहे जाते हैं, उन्हें भी क्रीडा करती 5. BP 7. B का BA पयसित 13 पत्ति K पड़ सिसाज and glass मर्ता K records ap पर पाटे जलसिक्तः 5 पयइसिस T सतर जलसिक्तः । 9 Aug Lu. 13K पायलिउ 11. A नियल्लि वर P णिव: Als. गववेल्लिहे बर। 12. B वरु। 15. R "अंकुरु। 14. AD Als उहाउ ओझाणउ . तु 16. P काए। 17. PS कण्णे दिष्णु 18 13 णामि 19. ABPS बलएवहो। 20. B गामि 21. 5 सव्वभाष" । (19) . face Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 ] महाकइपुप्फयंतविरय महापुराणु 188.19.3 देवें चारुचीरु परिहते तरलतारणयणेहि णियतें। पुणु वि तेण तहि कील करतें उप्परि पोत्ति वित्त विहसतें। गिप्पीलहि कडिल्लु परिबोल्लिय' थिय सुंदरि णं सल्ले सल्लिय। णारिउ णउ मुति पुरसंतर जो देवाहिदेउ सई जिणवरु । जासु पायधूलि वि वंदिज्जइ तहु ओल्लणिय किं ण पीलिज्जइ। ता देवेण भणिउ णउ मण्णिउं पेसणु दिण्णउं किं अवण्णिउं। भणु भणु सच्चभामि' सच्चउं तुहूं किं कालउं किउं जरकमलु व मुहं। ता वीलावसमउलियणयणइ उत्तउं उत्तरु तहु ससिवयणइ। बहुकल्लाणणाणवित्यिण्णई जइ वि तुम्ह पुण्णई संपुण्णइं। तो वि ण एहु' महापहु जुज्जइ एएं महुं सरीरु णिरु झिज्जइ । कि पई संखाऊरणु रइयउं किं सारंगु पणामिवि" लइयउं । किं तुहं फणिसयणयलि पसुत्तउ जें कडिल्लु मज्झुप्परि पित्तउं। होसि होसि भत्तारहु भायरु कि तुहुँ देवदेउ दामोयरु। घत्ता-इय जं खरदुब्बयणेण हउ तं लग्गउ तहु अहिमाणमछ। __णारायणपहरणसाल जहिं परमेसरु पत्तउ झत्ति तहिं ॥19॥ हुई स्त्रियों ने जलक्रीडा के जल से गीला कर दिया। स्वच्छ और चंचल नेत्रों से उन्हें देखते हुए तथा हँसते उन्होंने (नेमि ने) उनके ऊपर अपनी धोती फेंक दी और कहा-मेरा कटिवस्त्र निचोड़ दो। सुन्दरी सत्यभामा वेदना से पीड़ित होकर रह गयी। नारियाँ पुरुषों का अन्तस् (हृदय) नहीं समझती। जो देवाधिदेव स्वयं जिनवर हैं, जिनके चरणों को धूल की भी वन्दना की जाती है, उसकी धोती क्यों नहीं निचोड़ी जाती ?" तब देव ने कहा- "तुमने (मेरी बात) नहीं मानी। मैंने आदेश दिया था, उसकी अवहेलना क्यों की ? हे सत्यभामा ! तुम सच-सच बताओ, तुमने पुराने कमल की तरह अपना मुख पीला क्यों किया ?" तब लज्जा के कारण अपनी आँखें बन्द करती हुई चन्द्रमुखी सत्यभामा ने उन्हें उत्तर दिया___ यद्यपि तुम्हें बहुकल्याण और ज्ञान से विस्तीर्ण पुण्य प्राप्त है, फिर भी यह (आपके) महाप्रभु होने योग्य नहीं है। इससे (तुम्हारी धोती धोने से) मेरे शरीर को तकलीफ होती है। क्या तुमने शंख फूंककर बजाया ? क्या तुमने धनुष झुकाया ? क्या तुम नागशय्या पर सोये ? तो फिर कैसे तुमने अपना कटिवस्त्र मेरे ऊपर फेंका ? होगे होगे, तुम मेरे पति के भाई ? क्या तुम देव दामोदर हो ? __घत्ता-जब उसने (सत्यभामा ने) तीव्र दुष्ट वचनों से नेमिकुमार को आहत किया, तो वह बात उस स्वाभिमानी को लग गयी। और जहाँ पर श्रीकृष्ण की आयुधशाला थी, वह परमेश्वर शीघ्र वहाँ पहुँचे। 2. लाल। 3. BAS. विपीलेहि। 4. AS एल्बोल्लिय; BAIs पोल्लिय; P पच्चेल्लिय। 1. 5 देवु। 6. ABPS उन्लाणय। 7. BP सच्चहामे। K. I" । 9. 13 जिज्जइ। 10. 25 पणायेदि । । 1. AP कि फणीससयणयले पसुत्तउं; 5 किं पई फणि 1 12. 5 देवदेव। . लग्गउ तहो मणे अहिमाणगउ। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88.20.13] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु [ 157 (20) दुबई–चप्पिउं कुप्परेहि फणिसयणु पणाविउं वामपाऍणं। धणु करि णिहिउं संखु आऊरिउ जगु बहिरिउं णिणाऍणं ॥छ॥ महि थरहरिय' डरिय णिग्गय फणि गयणंगणि कपिय ससि दिणमणि। बंधविसट्टइं सरिसरतीरइं पडियई पुरगोउरपायारई। मुडियखंभ' भयवस गय गयवर गलियणिबंधण गट्ठा हयवर । कपणदिण्णकर महिणिवडिय पर पडिय ससिहर सधय णाणाघर । हरिणा रयणकिरणविप्फुरियहि उप्परि हत्थु दिण्णु कडिछुरियहि । हल्लोहलउ णयरि संजायउ । जंपइ जणु भयकंपियकायउ। वट्टइ पलयकालु कहिँ गम्मइ किं हयदइयह पसरइ दुम्मइ। तहिं अवसरि किंकरु गउ तेत्तहि अच्छइ धरि महुसूयणु' जैतहि। तेण तेत्थु पत्याउ लहेप्पिणु दाणवारि विपणविउ णवेप्पिणु। घत्ता-तुह किंकर बलिमड्डइ घरिवि घरि णेमिकुमारें पइसरिवि। धणु णावि जलवरु पूरियउ सयणयलि महोरउ चूरयिउ ॥20॥ 10 (20) उन्होंने हथेलियों से नागशय्या को चाँप दिया, बायें पैर से धनुष को झुका दिया एवं शंख फूंकने से जग बहरा हो गया। धरती काँप उठी, डर कर शेषनाग बाहर निकल आया। आकाश के आँगन में सूर्य और चन्द्रमा काँप गये। नदियों और सरोवरों के बाँध टूट गये। नगर-गोपुर और परकोटे गिर पड़े। भयभीत गज आलानस्तम्भ को मोड़कर भाग गये। खुल गये हैं बन्धन जिनके, ऐसे अश्व भाग गये। कानों पर हाथ देकर लोग धरती पर गिर पड़े। अनेक घर अपने शिखरों और ध्वजों के साथ धराशायी हो गये। तब रत्नकिरणों से चमकती हुई अपनी कमर की छुरी पर श्रीकृष्ण ने अपना हाथ रखा। नगर में कोलाहल मच गया। डर से काँपते हुए शरीरवाले लोगों ने कहा-प्रलय काल आ गया है। अब कहाँ जाया जाये ? हतदैव की यह दुर्मति क्यों हो रही है : उस अवसर पर एक किंकर वहाँ गया, जहाँ श्रीकृष्ण अपने घर में थे। वहाँ पर अवसर पाकर उसने श्रीकृष्ण से प्रणामपूर्वक निवेदन किया पत्ता-तुम्हारे अनुचर को जबर्दस्ती पकड़कर और आयुधशाला में प्रवेश कर कुमार नेमि ने धनुष चढ़ा दिया, शंख फूंक दिया और शय्यातल पर नागराज को कुचल दिया। कर। 5. Simits in रयण | HAPS "दइवहो। 7. B महमूअणु। (20) 1. PS कोप्परहि। 2. Aरहग्यि। 3. Pomits "खंभ। 4. R. Afडाए। 9. APणापित Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 1 महाकइपुष्यंतविरउ महापुराण ( 21 ) दुबई - पई रइयाई जाई परिवाडिइ हयजणसवणधम्मई । एक्कहिं खणि कयाइं बलवंतें तिष्णि मि' तेण कम्मई ॥छ॥ ते असेसु वि जणव भग्गर । णिप्पीलिउ ण चीरु वरि घित्त ं । जणि पयडंति जं पि पच्छष्णउं । वणि तेरचं संखाऊर्णु । किह महुं उपरि घल्लहि णिवसणु । इय एहजं गेमिसें विलसिॐ । उ दाइज्जथोत्ति' कासु वि सुहुं । मच्छरु तेत्यु भाय णउ किज्जइ । पायहिं जासु" पड़ड़ आहंडलु । जो सत्त वि सायर उत्थल्लइ " | कुसुमसयणु तद्दु फणिसयणुल्लउं । किं सुहड़तें नियमहि नियमणु । सिंथसंखसरु जो तहिं णिग्गउ सच्चभाम' पवियंभिय एत्तिउं महिलहं पथि मंतणेउष्णउं चावपणाम विसरजूरणु अवरु भणिउं गउ हरि संकरिसणु तं णिसुणिवि हियउल्लउं कलुसिउं ता कण्हेण कयउं कालं मुहुं बलएवेण भणिउं लइ जुज्जइ जसु ते कंपइ रविमंडलु सगिरि ससायर महि उच्चल्ल जासु गाउँ जगि पुज्जु पहिल्लउं खुम्भ 2 संखु सरासणु पिंजणु [ 88.21.1 5 10 ( 21 ) लोगों के श्रवणधर्म को नष्ट करनेवाले जो कार्य परिपाटी से (क्रम से) तुमने किये थे, उस बलवान ने वे तीनों कार्य एक क्षण में सम्पन्न कर दिये । प्रत्यंचा और शंख का जो शब्द हुआ उससे सम्पूर्ण जनपद नष्ट हो गया । सत्यभामा ने केवल इतना किया था कि उसने उसका वस्त्र धोया नहीं, बल्कि फेंक दिया। स्त्रियों में मन्त्रनिपुणता नहीं होती। जो चीज गुप्त होती है, वे उसे भी प्रकट कर देती हैं। उसने तुम्हारा धनुष का चढ़ाना, नागशय्या का झुकाना और शंख का फूँकना प्रकट कर दिया, और यह भी कहा कि वह (नेमिनाथ) हरि और संकर्षण नहीं है, फिर मेरे ऊपर अपना वस्त्र क्यों फेंका ? यह सुनकर नेमीश्वर का हृदय कलुषित हो गया। वह उनकी चेष्टाएँ हैं ! तब कृष्ण का मुँह काला हो गया। अपने सगोत्री की प्रशंसा में किसी को भी सुख नहीं मिलता। बलदेव ने कहा- यह ठीक है। हे भाई, इसमें मत्सर नहीं करना चाहिए। जिसके तेज से रविमण्डल काँप उठता है, जिसके चरणों में इन्द्र झुकता है। पहाड़ और समुद्र सहित धरती उछल पड़ती हैं, जो सातों समुद्र पार कर सकता है, जिसका नाम विश्व में प्रथमतः पूज्यनीय है, उसके लिए नागशय्या फूलों की सेज है। यदि वह शंख फूँककर क्षुब्ध करता है और धनुष चढ़ाता है, तो तुम अपना मन सुभटव से क्यों नियमित करते हो ? ( 21 ) 1 BSF 2 3 सिन्ध 3 8 सच्चहामः । सच्चिराम । 4 A पिपीलिकण 55 भणावणु। R. AP बसिउ17 13PS दायज । AAPS पडइ जासु 16. PS ओल्ड LL. ABPS णामु। 12. ABS सुरभ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88.22.131 महाकइपुष्फयंतबिरयउ महापुराणु [ 159 घत्ता-हलहर दामोयर बे वि जण ता मतिमंतविहिदिण्णमण"। जिणबलपविलोयणगलियमय ते चित्तकुसुममहिभवणु गय ॥21।। (22) दुवई-मंतिउ मतिमंतु गोविंदें लहु काणि णिहिप्पए । कुलवइ सत्तिवंतु तेयाहिउ जइ दाइउ ण जिप्पए ॥छ॥ पई मि मई मि सो समरि जिणेप्पिणु भुजेसइ महिलच्छि लएप्पिणु । तं णिसुणिवि संकरिसणु घोसइ' णारायण णउ एहउँ होसइ। चरमदेहु भुयणत्तयसामिउ सिवएवीसुउ सिवगइगामिउ। परमेसरू परु णउ संतावइ रज्जु अकज्जु तासु मणि भावइ। रज्जु पंथु दावियभयजरयह धूमप्पहतमतमपहणरयहं। रज्जें जडु माणुसु वेहविय अम्हारिसहं रज्जु गउरवियउं। जिणु पुणु तिणसमाणु मणि मण्णइ रायलच्छि दासि व अवगण्णइ। जई पेच्छइ णिव्वेयह कारणु तो पंचिंदियभइसंघारणु': करइ णाहु तवचरणु णिरुत्ता ता महुमहणे कवडु णिउत्तउं । तणुलायण्णवण्णसंपण्णी "जयवइदेविउयरि उप्पणी' । मग्गिउ उग्गसेणु सुवियक्खण रायमइ त्ति पुत्ति सुहलक्खण। _____घत्ता--मन्त्रियों की मन्त्रणाविधि में अपना मन देनेवाले वे दोनों भाई, नेमीश्वर की शक्ति देखकर, गलितमद होते हुए अपने चित्रकुसुम मन्त्रणागृह में गये। (22) शीघ्र ही कृष्ण ने मन्त्रिमन्त्र का विचार किया कि यदि कुलपति शक्तिशाली और तेजाधिक है और यदि वह स्वगोत्री से नहीं जीता जा सकता, तो शीघ्र ही उसे वन में स्थापित करना चाहिए। वह मुझे और तुम्हें युद्ध में जीतकर, धरती की लक्ष्मी लेकर भोग करेगा। यह सुनकर संकर्षण घोषित करता है-हे नारायण ! ऐसा नहीं होगा। वे चरमशरीरी और भुवनत्रय के स्वामी हैं, शिवादेवी के पुत्र और शिवगति को जानेवाले हैं। परमेश्वर दूसरे को नहीं सता सकते। उनके मन में राज अकार्य लगता है। राज्य-भय और बुढ़ापा धूमप्रभ और तमःप्रभ नरकों का पथ दिखाने वाला है। राज्य से मूर्ख मनुष्य ही अपने को वैभवशाली समझते हैं। उन जैसे लोगों के लिए राज्य क्या गौरवान्वित करनेवाला है? जिन भगवान् तो उसे अपने मन में तृण के समान समझते हैं, राज्यलक्ष्मी को दासी के समान समझते हैं। यदि वह पाँच इन्द्रियरूपी भटों का संहार करनेवाले निर्वेद का कोई कारण देखते हैं, तो निश्चय ही स्वामी तप ग्रहण कर लेंगे। इस पर श्रीकृष्ण ने अपने मन में एक कपटयुक्ति सोची। उन्होंने जयवती देवी के उदर से उत्पन्न, शरीर के लावण्य और वर्ण से पूर्ण, शुभलक्षणा राजमती नाम की कन्या उग्रसेन से माँगी। 13. AP बेणि जण। [4. AP "मंदिण्णमण। 15. A जिणवर । (22) I. APS भासह। 2.। हाचियउ। ३. ते रापाणुः सणसमाणु। 4. पंचेंदिय । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1601 महाकइपुप्फयंतविरयन महापुराणु 188.22.14 घत्ता-णिरु सालंकार सारसरस भुयणयलि पयडसोहग्गजस। परमेसरि मुणिहिं मि हरइ मइ ण वरकइकबहु तणिय गइ ॥22॥ 13 (23) दुवई-पस्थिय माहवेण महुरावधरु गपिणु सराहहो। सुय तेरो मरालगयगाभिणि ढोयहि णमिणाहहो ॥छ॥ तं आयण्णिवि कंसहु ताएं दिण्ण वाय गोविंदहु राएं। जं जं काइं मि णयणाणंदिरु जं जं घरि अम्हारइ सुंदरु। तं तं सव्वु तुहारउ माहव घीयइ कि जियवइरिमहाहव । अवरु वि देवदेउ' जामाइड कहिं लभइ बहुषुण्णविराइट। ता मंडवि चामीयरघडियइ पंचवण्णमाणिक्कहिं जडियइ। कंचणपंकयकेसरवण्णहि अंगुत्थलउ छूट करि कण्हहि। जयजयसवें मंगलघोसें दविणदाणकयविहलिवतोसें। णाहविवाहकालि पर ससि रवि आय सुरासुर विसहर खयर वि। 10 पंडुरदेवंगई वरणियसणु कइयमउडमणिहारविहूसणु। दंडाहयपडुपडहणिणाएं पच्चंतें सुरवरसंघाएं। घत्ता-जिसका भुवनतल में सौभाग्य और यश विख्यात है, जो श्रेष्ठ अलंकारों से सहित और सरस है, ऐसी वह परमेश्वरी मुनियों के भी मन को हरण करती है, मानो श्रेष्ठ कवि के काव्य की गति हो। (23) मथुरा के राजा की धरती पर जाकर माधव ने उग्रसेन से प्रार्थना की-तुम्हारी हंसगति-गामिनी कन्या शोभाशाली नेमिनाथ के लिए दीजिए। यह सुनकर कस के चाचा राजा उग्रसेन ने गोविन्द के लिए वचन दिया-मेरे घर में जो जो नेत्रों को आनन्द देनेवाला है, जो जो सुन्दर है; हे माधव ! वह सब तुम्हारा है। शत्रुओं के महायुद्धों को जीतनेवाले हे कृष्ण ! कन्या से क्या ? और फिर अनेक पुण्यों से शोभित देवदेव जैसा दामाद कहीं मिल सकता है ? तब स्वर्णनिर्मित तथा पंचरंगे मणियों से विजडित मण्डप में स्वर्णकमल और केशर के रंगवाली कन्या के हाथ में, जय जय शब्द मंगल घोष एवं द्रव्यदान द्वारा विकल लोगों को सन्तोष-दान के साथ अँगूठी पहना दी। स्वामी के विवाह के अवसर पर मनुष्य, शशि, सूर्य, सुर-असुर, विषधर और विद्याधर आये। सफेद देवांग उत्तम वस्त्र, कटक, मुकुट और मणिहारों के भूषणों, दण्डों से आहत उत्तम नगाड़ों के शब्दों से नाचते हुए 5. Pजहबई : K जयवयः। 6. AP भि। 7. P संपण्णी। 8. Pराइमइ। 9. P तणि गई। (23) 1. AP पटिज। 2. AHPS मरालगइगामिणि। 3. AP तुम्हारउ14. B"ययरि। 5. 5 देवदेवु। 6. नमूहु किर। 7. A देवंगंबर। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88.24.91 महाकइपुप्फवंतविरयउ महापुराणु [ 161 15 । कामपाससंकासलयाभुय पहु परिणहु चल्लिउ पत्थिवसुय । सुंदरेण सहवत्तणरूढ़े ताम तेण मणिसिबियारूढें। विरसोरसणसमद्रियकलयल वइवेदिउं अवलोडउं मिगउल। पत्ता-अहिसेयधोवसुरमहिहरिण ता सहयरु पुच्छिउ जिणवरिण । भणु भणु कंदंतई भयगयई कि रुद्ध णाणामिगसयई'' ॥23॥ ( 24 ) दुबई-ता भणियं णरेण पारद्धियदंडहयाई काणणे। ___ एयई तुह विवाहकज्जागणिवपारद्धभोयणे' ॥छ॥ इरियइं धरियई- बाहसहासें देवदेव गोविंदाएसें। आणियाइं सालणयणिमित्तें ता चिंतइ जिणु दिव्में चित्तें। जे भक्खंति मासु सारंगहं ते णर कहिं मिलंति सारंगह। खद्धउं जेहिं पिसिउं मोराणउं तेहिं ण कियउं वयणु मोराणउं । जंगलु जेहिं गसि तित्तिरयहु ते पेच्छंति ण मुहं तित्तिरयहु। जेहिं जूह विद्धसिउ रउरउ ते पाविहहिं णरउ णिरु रउरउ । कवलिउ जेण देहिदेहामिसु तह खंति कालदूयाभिसु। देवसमूहों के साथ स्वामी कामपाश के समान लताभुज राजकन्या से विवाह करने के लिए चले। अपने शुभाचरण के लिए प्रसिद्ध, मणिमय पालकी में बैठे हुए सुन्दर कुमारनेमि ने विद्रूप चिल्लाने से जिसमें कोलाहल हो रहा है, ऐसे एक बाड़े में घिरा हुआ पशुसमूह देखा।। धत्ता-जिनके अभिषेक में सुमेर पर्वत धोया गया है, ऐसे जिनवर ने अपने सहचर से पूछा- “बताओ, बताओ; आक्रन्दन करते हुए भयभीत ये सैंकड़ों पशु यहाँ क्यों रोककर रखे गये हैं ?" (24) तब उसने कहा-"आपके विवाह-कार्य में आये हुए राजाओं के मांस भोजन के लिए शिकारियों के दण्डों से आहत ये यहाँ हैं। हे देवदेव ! गोविन्द के आदेश से हजारों व्याधों ने इन्हें डराकर पकड़ा है और साग बनाने के लिए यहाँ रखा गया है।" ___तब जिन भगवान् अपने दिव्य चित्त में विचार करते हैं-जो मनुष्य सारंगों (पशुओं) का मांस खाते हैं, वे सारंग (उत्तम) शरीर कैसे पा सकते हैं ? जिन्होंने मयूरों का मांस खाया है, उन्होंने मेरा वचन नहीं माना। जिन्होंने तीतरों का मांस खाया है, वे तृप्ति बुक्त सुरति का मुँह नहीं देख सकते। जिन्होंने मृगसमूह का ध्वंस किया है, ये निश्चय हो रौरव नरक प्राप्त करेंगे। जिन्होंने शरीरधारियों के मांस का भक्षण किया है, कालदूत उसके मांस का खण्डन करते हैं। जिसने हरिण के उस माँस को खाया, उसका दुःख ऋण की तरह * पत्रिचणहुँ बलिउ। 9. ABP समुट्टिर। 11. S मृगलु। 11. 5 मृगसयई। (24) 1. A 'नृव । 2. AP पिसिर जेहिं: B जेण पिसि । AP असिउं। 1. AP Qजति। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 | महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराण पासिउ कव्यु जेण तं हारिणु होइ अनंतदुक्खचिंतावर सो अविसंबंधु ण पावइ जहिं मिगमारणु' भोज्जु णिउत्तरं तहु दुक्किउ बडुइ" णं हा रिणु । जो पट्टि हुयवहि तावइ । किं किज्जइ रायाणीपावइ । तेण विवाहें महुं पज्जत ं । घत्ता - जइ इच्छह सासयपरमगइ तो खंचह' परहणि" जंत मइ । मह मासु परंगण परिहरहु सिरिपुफ्फयंतु" जिणु संभरहु ||24|| इव महापुराणे तिराष्ट्टिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुप्फयंतविरइए महाभव्यमरहाणुमणिए महाकब्वे जरसिंघणिहणणं" णाम अट्ठासीतिमी" परिछेउ समत्तो ॥ 88 ॥ [ 88.24.10 इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराण के महाकवि पुष्पदन्त द्वारा रचित और महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का जरासन्य के निधनवाला अठासीयाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥४४॥ 10 15 बढ़ता है। जो पशुओं की हड्डियों को आग में तपाता है, वह अनन्त दुःखों और चिन्ताओं का स्वामी होता है अथवा हड्डियों का सम्बन्ध ही नहीं पा पाता (गर्भ में ही विलीन हो जाता है) है। रानी की प्राप्ति से क्या, जहाँ पशुओं का मारण और भोज्य किया जाता है, वह विवाह मेरे लिए पर्याप्त है (व्यर्थ है ) । घत्ता यदि तुम शाश्वत परमगति चाहते हो, तो दूसरे के धन में जाती हुई अपनी गति को रोको, मधु मांस और परस्त्री का त्याग करो और पुष्पदन्त जिनवर का ध्यान करो। त्रिभुवन के स्वामी नेमिनाथ को हरिण देखकर क्लेश हुआ और मन में करुणरस उत्पन्न हो गया । AP कोशांग 6. गिरण ४ BP संचहु 10 A परहण 11. Pजते । 12 फतु 19. A जरसंघणिव्याणं । 11. Seger: Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89.1.14] महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु एक्कूणवदिम संधि जोइवि हरिणइं तिहुयणसामिहि' । मणि करुणारसु जायउ मिहि ॥ ध्रुवकं ॥ (1) संसारु धोरु चिंतंतु संतु गाणें परियाणिउं कज्जु' संचु रोहियसससूयरसंवराई अवियाणियपरमे सरगुणेण णिव्वेयहु कारण दरसिया एवं जीएण असासएण झायंतु एम मउलियकरेहिं जय जीव देव भुयणयलभाणु तुहुं जीवदयालुउ लोयबंधु तुहुं रोसमुसाहिंसाबहित्यु दुबई - एक्कहु तित्ति' णिविसु अक्कु वि जहिं पाणिहिं विमुच्चए। तं भवविरकारि पलभोयणु महु सुंदरु ण रुच्चए ॥ छ ॥ गउ नियणिवासु एवं भणंतु । णारायणकउ मायापवंचु । जिह धरियई णाणावणयराई । कुद्धे रज्जलुद्धेण तेण । रोवंतई वेवंतई थियाई । किं होसइ परदेहें हए । संबोहिउ सारस्सयसुरेहिं । पई दिट्ठउ परु अप्प समाणु । लहुं ढोयहि संजमभरहु" खंधु । जगि पयहि बावीसमउं तित्यु | [ 163 5 10 नवासीai सन्धि तीन लोक के स्वामी नेमिकुमार उन हिरणों को देखकर मन में करुणा रस से पूरित हो गये । (1) जहाँ पलभर के लिए तृप्ति होती है, किन्तु अनेक को प्राणों से मुक्त होना पड़ता है, ऐसा संसार का दुःख देनेवाला मांसभोजन मुझे अच्छा नहीं लगता। इस प्रकार घोर संसार का विचार करते हुए और यह सोचते हुए वे अपने निवास स्थान के लिए गये। ज्ञान से उन्होंने सच्चा कारण जान लिया कि वह सब नारायण के द्वारा किया गया प्रपंच है। मछली, खरगोश, सुअर और साँभर तथा दूसरे नाना वनप्राणियों को, परमेश्वर गुण को नहीं जाननेवाले क्रुद्ध राज्यलोभी उसने किस प्रकार पकड़वाया, और वैराग्य के कारण के लिए उन्हें रोते, काँपते, बैठे हुए दिखाया। इस अशाश्वत जीवन से और दूसरे के शरीर को आहत करने से क्या होगा ? वे जब इस प्रकार ध्यान कर रहे थे, तब हाथ जोड़े हुए लोकान्तिक देवों ने उन्हें सम्बोधित किया- "हे भुवनतल के भानु आपकी जय हो, हे देव आप जिएँ। आपने स्व पर को समान समझा है। आप जीवदयालु और लोकबन्धु हैं। अब शीघ्र ही संयम का भार कन्धे पर उठाएँ। आप क्रोध, झूट, हिंसा से बाहिर स्थित हैं और जग में बाईसवें के तीर्थंकर के रूप में प्रकट हुए हैं। (1) 1 PAP गिमिसतित्तिः । शिविस तित्तिः Als. गिमिसतित्ति 9 AP पाहिं पारिंगहि S प्राणनि । 1 B की। 5. P कारण । G. APS दरिसियाई 2 APS अणवसषणु । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1641 महाकइपुष्फवंतविरयउ महापुराणु [89.1.15 15 घत्ता-अमरबरुत्तई णिज्जियमारहु । वयणई लग्गई णेमिकुमारहु ||1|| दुवई-तहिं अवसर रिपसंदोहें सिंधिउ विलवारिहि .. वीणातंतिसहसंताणे गाइउ' विविहणारिहिं ॥छ। उत्तरकुरुसिबियारूढदेहु णं गिरिसिहरासिउ कालमेहु। सोहइ मोत्तियहारें' सिएण णहभाउ' व ताराविलसिएण। रत्तुप्पलमालइ सोह देंतु णं जउणादहु जणमल हरंतु। ससिसेयसिययसोहासमेउ' णं अंजणमहिहरु तुहिणतेउ। सिरि वलइयवरमउडेण" दित्तु णं सो ज्जि रयणकूडेण जुत्तु। पियवयणाउच्छियमित्तबंधु णिच्छिहु" सिढिलीकयपणयबंधु । पडुपडहसंखकाहलसरेहि। उच्चइड णरखयरामरहिं। तरुसाहासयदंकियपयंगु फलरसणिवडियणाणाविहंगु। मंदारकुसमरयपसरपिंगुर गुमुगुमुगुमंतपरिममियभिंगु। धत्ता-काम को जीतनेवाले नेमिकुमार को देवों द्वारा कहे गये ये वचन लग गये। (2) उस अवसर पर सुरसमूह के द्वारा विमलजलों से वह अभिषिक्त हुए। विविध नारियों द्वारा वीणातन्त्री की स्वर-परम्परा में उनका गान किया गया। उत्तरकत शिविका में आरूढ़ उनका शरीर ऐसा लगता था, मानो गिरिशिखर पर आश्रित कृष्णमेघ हो। वह श्वेत मुक्ताहार से इस प्रकार शोभित थे, मानो तारावलियों से विलसित आकाश-भाग हो । रक्तकमलों की माला से वह ऐसे शोभित थे मानो जनमल को दूर करता हुआ यमना सरोवर हो। शशि के समान श्वेत वस्त्रों की शोभा से सहित वह ऐसे लगते थे, मानो चन्द्रमा से युक्त अंजन पर्वत हो। सिर पर मुड़े हुए श्रेष्ठमुकुट से चमकते हुए ऐसे लगते थे, मानो वही (महीधर) अपने रत्नशिखर से युक्त हो। जिन्होंने प्रियवचनों से अपने बन्धुजनों से पूछ लिया है, ऐसे निःस्पृह तथा प्रणय सम्बन्ध को ढीला करनेवाले उन्हें धौंसा, नगाड़ा, शंख और ढोल के शब्दों के साथ मनुष्यों, विद्याधरों और देवों ने उठा लिया। जिसने वृक्षों की सैंकड़ों शाखाओं से सूर्य को ढक लिया है जहाँ फल के रसों पर नाना पक्षी आकर बैठते हैं, जो मंदार कुसुमों के रज-प्रसार से पीला है, जिसमें गुनगुनाते हुए भ्रमर घूम रहे हैं, जो अशोक वृक्ष के चंचल दलसमूह से आताम्र है और जिसमें कदम्बवृक्ष खिला हुआ है, ऐसे सहस्राम्र वन में जिनवर ४. Bदवानव 4.5 भर। 10.5 अमरु। (2) I. APS "संतगा। 2. BK गायउ। १. हारिए। 4. भावः। 5.5"हु। 6. जणमणुः जणपतु। 7. A सिघर: Bइत्य for सिया: S I R. AR विग्य' ।। S ज्ज for ज्जि । 10. B णिच्छिह। 1. B काहलरहि। 12. "कुंदरय। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89.3.9] महाकइपुष्फबलविस्यउ महापुराण [ 165 कंकेल्लिलुलियदलवलवतंबु सहसंबयवणु फुल्लियकयंबु । गउ सई परिलुचिउ' केसभारु पडिवणउ ददु जिणवइविहारु। तरुणीयणु बोल्लइ रोवमाणु हा हा अत्यमियउ कुसुमबाणु। उप्पण्णहु एयह वक्गयाई हलि माइ तिण्णि बरिसह सयाई। सिवर्णदणु अज्जि' वि सुठ्ठ बालु रिसिधम्मह एहु ण होइ कालु। घत्ता-एण विमुक्किया रायमई सई। महुराहिवसुया' किह जीवेसई ॥2॥ 15 दुवई-चामरधवलछत्तसीहासणधरणिधणाई' पेच्छहे । णिरु' जरतणसमाई मणि मणिवि थिउ मुणिमग्गि दूसहे ॥छ॥ जिणु जम्म सहुं उप्पण्णबोहि हलि वण्णइ को एयहु समाहि । सावणपर्वसि सातकिरणभासि अवरण्हइ छट्टइ दिणि पयासि। चित्ताणक्खत्तइ चित्तु धरिवि छट्टोववासु णिभंतु करिचि। सहं रायसहासें हासहारि जायउ जहुत्तचारित्तधारि। माणवमणमइलणधतभाणु संजमसंपण्णचउत्थणाणु। अच्चंतवीरतवतावतविउ बलएववासुएवेहि णविउ । पिंडहु कारणि णिवाइ णि? अण्णहिं दिणि दारावइ पइर्छ। गये। स्वयं उन्होंने अपना केशभार उखाड़ लिया और दृढ़ता के साथ जिनपति के विहार को स्वीकार कर लिया। रोती हुई तरुणियों कहती हैं-हा हा !! कामदेव का अस्त हो गया है। हे माँ ! अभी इन्हें जन्म लिये हुए कुल तीन सौ वर्ष बीते हैं, शिवा का पुत्र आज भी बालक है, मुनिधर्म स्वीकार करने का उनका यह समय नहीं है। घत्ता-इन्होंने राजमती सखी को छोड़ दिया है। मथुरापति की वह राजपुत्री अब किस प्रकार जीवित रहेगी ? वह चमर, धवल छत्र, सिंहासन, धरती और धनादि को मन में जीर्ण तिनके के समान समझकर दुःसह मुनिमार्ग में स्थित हो गये। जिन को जन्म के समय से ही ज्ञान प्राप्त था। हे सखी ! उनकी समाधि का वर्णन कौन कर सकता है. ? चन्द्रकिरण से प्रकाशित (शुक्लपक्ष में) सावन माह का प्रवेश होने पर छठे दिन अपराह्न में चित्रा नक्षत्र में अपने चित्त को (अपने में) धारण कर निर्धान्त तीन दिन का उपवास (तेला) कर, हास का हरण कर, एक हजार राजाओं के साथ, वह यथोक्त चारित्र को धारण करनेवाले बन गये। (जिन्होंने दीक्षा ग्रहण कर ली) मानव-मन के मैलरूपी ध्वान्त के लिए सूर्य के समान, तथा संयम से सम्पन्न चतुर्थ ज्ञान प्राप्त कर, अत्यन्त वीर तप का तपश्चरण कर, बलभद्र और वासुदेव द्वारा प्रणम्य, शरीर के लिए 13. "वयल | 14.5 "कलंबु। 15. ABPS आलुंचिउ। 16. अथिमियउ। 17. Bअज। 11. B सुद्ध। 19. B उग्मसेगसुज in second hand. (3) 1. B"सिंहासण12.0 पिच्छहो । 3. पिछउ जरतणाई मणि पणिपवि। 4.A संपत": B संपुष्णT.A "धीर धीरु" | P ग्यासुएथाहि । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1661 महाकइपुष्फयंतबिरयउ महापुराणु [89.3.10 वरयत्तणरिंदहु भवणि थक्कु णं अब्भभंतरि' भासुरक्कु । परमेदिहि णवविहपुण्णठाणु । तहु दिण्णउं तेणाहारदाणु। माणिक्कविट्टि' णवकुसुमवासु गंधोअयवरिसणु देवघोसु। दुंदुहिणिणाउ जिणु जिमिउ जेत्थ जायाई पंच चोज्जाई तेत्यु । माहबपुरि" मेल्लिवि जंतु जंतु पासुयपएसि' पय देंतु देंतु । छप्पप्ण दियहो' हयमोहजालु बोलीणहु तहु छम्मत्यकालु। यत्ता-कुसुमिवमहिरुहं हिंडियसाययं । पत्तो जइवई' "रेवयपाक्यं ॥3|| दुबई-पविउलवेणुमूलि आसीणउ जाणियजीवमग्गणो। तवचरणुग्गखग्गधाराहयदुद्धरकुसुममग्गणो' ॥छ। परियाणिचि चलु संसारु विरसु रसगिद्धिलुद्ध णिज्जिणिचि सरसु। परियाणिवि धुउ* परमस्थरूउ आसत्तु वि णिज्जियउं रूउ। परियाणिवि सुहं परियलियसदु जोईसरेण णियमियउ सदु । परियाणिवि मोक्खु विमुक्कगंधु एक्कु वि ण समिच्छिउ तेण गंधु । (आहार लेने निमित्त) निष्ठापन करते हेतु वे (नेमीश्वर) दूसरे दिन द्वारावती में प्रविष्ट हुए। वे राजा वरदत्त के भवन में ठहर गये, मानी बादलों के भीतर चमकता हुआ सूरज छिप गया हो। उस राजा ने नौ प्रकार के पुण्य स्थान परमेष्ठी नेमीश्वर को आहार दिया। वहीं रत्नों की वर्षा, नवकुसुमों की गन्ध, गन्धोदक की वर्षा, देवाघोष और दुंदुभि-निनाद ये पाँच आश्चर्य हुए जहाँ जिननाथ ने आहार किया। द्वारावती को छोड़कर, जाते-जाते और पड़ौसी प्रदेश में पैर रखते हुए, मोहजाल को नष्ट कर, छद्मस्थ काल के छप्पन दिवस बिताकर, घत्ता-जब वह यतिवर, जहाँ खिले हुए वृक्ष हैं और जंगली पशु विचरते हैं, ऐसे रैवत पर्वत पर पहुंचे। जीव की मार्गणाओं को जाननेवाले तथा तपश्चरण की उग्र खड्ग-धार से दुर्धर कामदेव को आहत करनेवाले, विशाल वेणुवृक्ष में मूल में बैठे हुए उन्होंने चंचल संसार को विरस जानकर, रसों के लालच में लुब्ध अपनी रसना इन्द्रिय को जोतकर, शाश्वत परमार्थरूप को जानकर, रूप में आसक्त रूप को जीत लिया (नेत्रेन्द्रिय को जीत लिया), सुख को क्षीण शब्द वाला जानकर ज्योतीश्वर ने शब्द को (कर्णन्द्रिय के विषय को) जीत लिया। मोक्ष को विमुक्तगन्ध जानकर उन्होंने एक भी गन्ध को पसन्द नहीं किया (प्राण को जीत लिया)। T.Aणं अभंतरि भाभासुरक्कु । १. 3 "बुष्टि। 9. B गंधोवर" P गंधोयपवरिसणु। 10. P "पुरे। 11. Bपदेते।।2. B दियह हउ । १. AR जयवई। 11. Bीवर B. P"पवयं। (4) 1. BA3 फरवगा। 2. P परियाणेविण संसारू। . AS णिजियउ णिज्जिउ। 4. S धुवु। 5.5 रुनु । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४9.5.81 महाकइपुप्फर्यतविरयङ पहापुराणु 1 167 परियाणिवि सिद्धहं पत्थि फासु णिज्जिर णेमि वसुविहु' वि फासु । अवइण्णियाहि सिसुचंदसियहि आसोयमासि पाडिवयदियहि । णक्खत्ति' चारुचित्ताहिहाणि पुब्वण्हयालि पयलंतमाणि। गुणभूमिर्तुगि तिहुयणपहाणि चड़ियउ तेरहमइ साहु ठाणि । उप्पण्णउ केवलु दालयदपि । उट्ठिया घंटारच" कप्पि कप्पि। घत्ता-चल्लियं आसणं हरिसुप्पिल्लिओ। जिणसंथुइमणो' इंदो चल्लिओ ॥4॥ दुवई-बहुमुहि बहुयदंति' बहुसयदलपत्तपणच्चियच्छरे। ___आरूढ करिदि अइरावई विलुलियकण्णचामरे ॥छ॥ दंड-विणयपणयसीसो सुरेसो गओ वंदिउँ' देवदेवो अताओं असाओ" महाणीलजीमूयवण्णो पसण्णो ॥१॥ गणहरसुरवंदो अमंदो अणिंदो जिणिंदो मइंदासणत्यो' महत्थो पसत्थो असत्या समस्या ससस्थः जपायो विसत्थो ॥2॥ __ बियलियरयभारो गहीरो सुवीरो' उयारी अमारो" अछेओ अभेओ अमेओ अमाओ अरोओ असोओ अजम्मो ॥५॥ यह जानकर कि सिद्धों में स्पर्श नहीं होता, नेमिनाथ ने आठ प्रकार के स्पर्शों को जीत लिया। शिशुचन्द्र से श्वेत आसोज माह के आने पर कृष्णपक्ष की प्रतिपदा के दिन सुन्दर चित्रा नक्षत्र में पूर्वाह्न काल बीतने पर, गुणस्थानभूमियों में श्रेष्ठ, त्रिभुवन में प्रधान, तेरहवें गुणस्थान में वह महामुनि आरूढ़ हो गये। उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। स्वर्ग में दर्प का दलन करनेवाली घण्टाध्वनि होने लगी। घत्ता-आसन हिलने लगा। हर्ष से प्रेरित हो जिन भगवान् की स्तुति का मन रचनेवाला इन्द्र चल पड़ा। जिसके दन्तरूपी अनेक कमलपत्रों पर अप्सराएँ नाच रही हैं, जिसके कानरूपी चमर हिल रहे हैं, ऐसे अनेक मुखों और दाँतोंवाले ऐरावत महागज पर इन्द्र आरूढ़ हो गया। विनय से प्रणतसिर देवेन्द्र गया और उसने देवदेव की वन्दना की-हे अताप, अशाप, मेघ के समान वर्णवाले, प्रसन्न, गणधरों और देवों के द्वारा वन्दनीय, अमन्द, अनिन्ध, जिनेन्द्र, सिंहासनस्थ, महार्थ, प्रशस्त, अशस्त्र, अवस्त्र और विशस्त्र; रजोभार से रहित, गम्भीर, सुवीर, उदार, कामरहित, अछेद्य और अभेद्य, अमापी, अरोग, अशोक और 6. BP में। 2. A वसुविहि। 8. A पडिवइय। 9. B तिहुवण'। 10. 5 उनिल । 11. BS घटारयु। 12. AS यालयं । 13. A "संधुर पणे। (5)1. P बहुभुयदंते। 2. A आरूढ करिद। 3. अरावण। 4. P यदिओ। 5. PS अलावो। 5. PS असावो।.। मईदासण" | R. A समस्या असत्यो समग्गो समत्यो। 9. ABS सुधीरो। 10. P आयायो। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 168 ] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु [89.5.9 विसहरधरसंरुद्धणाणादुवारंतरो" पंडुडिरपिंडुज्जलुद्दामभाभूरिणा चामरोहेण जक्खेहिं विजिज्जमाणो । 4 । अमरकरविमुच्चंतपुप्फंजलीगंधलुद्धालिसामंगणो देवसानगंगाणच्यणाद्धोयड्पीरितोस।। सयलजणपिओ" धम्मवासो सुभासो हयासो अरोसो अदोसो सुलेसो सुवेसो सुणासीरईसो ससीरीसिरीसंथुओ।6।। सुरवरतरुसाहासुराहासमिल्लो जयंको जणाणं पहाणो जरासंधरायारिभीसावहो भिण्णमायाकयंको।। पविउलपरभामंडलुब्भूयदित्ती' विहिज्जतघोरंधयारो विराओ विरहतछत्तत्तओ पत्तसंसारपारी।। अमरकरणिहम्मतभेरीरवाहूयतेलोक्कलोयाहिरामो सुधामो' सुणामो अधामो अपेम्मो सुसोम्मो।9। कलिमलपरिवज्जिओ पुज्जिओ भावणिंदेहिं चंदेहिं कप्पामरिंदाहमिदेहि णो णिज्जिओ भीमपंचिंदियस्थेहि णिग्गंथपंथस्स यारओ।10। कलसकुलिससंखंकुसंभोयसयलिंदवत्तीधरित्तीधरामहातीरिणीलक्खणालंकिओ७ चंकभावेण मुक्को रिसी अज्जवो उज्जुओ सिद्धतच्चो सुसच्चो।।1। अजन्मा विषधरों के नाना कठोर आक्रमणों को रोकनेवाले सफेद फेन समूह के समान उज्ज्वल और उत्कट क्रान्ति से प्रचुर चमर समूह से यक्षिणियों द्वारा हवा किये जाते हुए, देवों की हस्तमुक्त पुष्पांजलियों की गन्ध पर लुब्ध होनेवाले भ्रमरों के समान श्याम अंगोंवाले, देवों द्वारा श्रीकृष्ण के आँगन में नृत्य के अवसर पर प्रारब्ध गेयध्वनि से सन्तोष देनेवाले, समस्त जनों के लिए प्रिय, धर्म के निवास, सुभाषी, हताश, अरोष, सुलेश्य, सुवेश, इन्द्रेश और बलभद्र सहित श्रीकृष्ण के द्वारा संस्तुत; कल्पवृक्षों की शाखाओं की सुन्दर शोभा से सहित, जय से अंकित, जनों में प्रधान, जरासन्ध रूपी शत्रु के लिए अत्यन्त भीषण, माया को दूर करनेवाले यश से अंकित; विशाल एवं श्रेष्ठ भामण्डलों से उत्पन्न दीप्तिवाले, घोर अन्धकार को नष्ट करनेवाले, विरागी, तीन छत्रों से शोभित और संसार-पार को पा जानेवाले (उसका अन्त करनेवाले); देवों के हाथों से आहत भेरियों के शब्दों से बुलाये गये, त्रिलोक में सुन्दर, सुधाम, सुनाम, अधाम, अप्रेम और सुसौम्य ___ कलिमल से रहित जो कल्पवासी देवों और अहमेन्द्रों द्वारा पूज्य हैं तथा जो भयंकर इन्द्रियों के द्वारा नहीं जीते जा सके, ऐसे निर्ग्रन्थ पथ के नेता हैं; ___ कलश, वज्र, शंख, कुश, कमल मेरुयुक्त धरती, पताका और महानदी के लक्षणों से अंकित, कुटिलता के भाव से मुक्त, ऋषि, वचन और शरीर से सरल; तत्त्वों का कथन करनेवाले और सत्यशील।1।। B. AP वर for धर"| 12. P दिव्य। 19. 5 जणपीओ। 14. पविउलपभामंडल। 15. AB सधम्मो सुपुत्वंतणामो अवामो। 16. AP सुसम्मी। 17.2% पंचेंटिग । 18. Als "सइलिंदवंती: "सइलिंददंती। 19. BS धरती। 20. P अजुवो। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + 89.6.10] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु जणमणगयसंसयाणं कयंतो महंतो अणंतो कणताण ताणेण होणाण दुक्खेण रीणाण बंधू जिणो कम्मवाहीण वेज्जो । 12 । घत्ता - सुरवरवंदिओ महसु महाहियं । सिवएवीओ देवो" माहियं ॥5॥ ( 6 ) दुवइ - णिम्मलणाणवंत' सम्मत्तवियक्खण चरियमणहरा" । वरदत्ताइ तासु एयारह जाया पवर गणहरा ॥ छ ॥ जहिं पुव्यवियहं चउसयाई । एयारहसहस सिक्खुयाहं । अप्पत्थि परत्थि सया हियाई । केवलिहिं मि जाणियसंवराहं । एवारह सय सविउव्वणाहं । एक्कें सएण ऊणउं सहासु । वसुसमई सघाई विवाइयाहं । जहिं एक्कु लक्खु मंदिरजईहिं । साहुहुं सव्वह' संपयरवाई पासुयभिक्खासणभिक्खुयाहं परिगणिय अट्टसयाहियाई पणारह सय अवहीहराह संसोहियवम्महसरवणाहं मणपज्जयणाणिहिं जहिं पयास परवयणविणासविराइयाहं चालीस सहासई संजईहिं [ 169 25 5 10 जनमनों में रहनेवाले, संशयों के निवारक (निकाल देनेवाले), महानू, अनन्त और कृतान्त, उनसे हीन और दुःखों से क्षीण, लोगों के लिए बन्धु और कर्मरूपी व्याधि के लिए जिनदेव वैद्य हैं । धत्ता - जो सुरवरों के द्वारा वन्दित, शिवदेवी के सुत और देव हैं, महाहितकारी उन्हें ज्ञान लक्ष्मी के लिए तुम पूजो । (6) निर्मल ज्ञानवाले सम्यक्त्व से विलक्षण और चारित्र में जो सुन्दर हैं, ऐसे वरदत्त आदि उनके ग्यारह गणधर उत्पन्न हुए । उनके समवसरण में समस्त साधुओं में पूर्णरूप से पण्डित तथा रत्नत्रय सम्पन्न चार सौ साधु थे । प्रासुक भिक्षा का भोजन करनेवाले, आत्महित और परहित में सदा तत्पर रहनेवाले ग्यारह हजार आठ सौ शिक्षक थे। अवधीश्वर मुनि पन्द्रह सौ थे। संबर के जाननेवाले और कामदेव के बाणों का संशोधन करनेवाले केवलज्ञानी भी पन्द्रह सौ थे। विक्रिया ऋद्धि के धारक ग्यारह सौ तथा मन:पर्यय ज्ञान के धारक नौ सौ ( सौ कम एक हजार ) थे। दूसरों के वचनों के खण्डन से शोभित बादी मुनि आठ सौ चालीस हजार आर्यिकाएँ थीं। वहाँ पर मन्दिर जानेवाले श्रावक एक लाख थे। जिनमें व्रत पालन का प्रेम वृद्धिंगत है, ऐसी तीन लाख 21. BP देख ४५ AP लमाहियं । ( 6 ) 1. B णाणवत्स 2. B Als. चरिचधगहरा S चरियधण मणहरां 3. R वरयताई 4. A सव्वहं संजयरयाई । सुव्वयसंजयरयाइ । 5. S सहई । B अवहीसरा R ABKS सहस विउब्वणाई B has ह for य in second hand 6. Pommits this fnot. 7. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1710 ] महाकइपुग्फयंतविरयड महापुराण [89.6.11 परिवडियवयपालणाईहिं लक्खाई लिणि वरसावहिं। संताय तिरिय सुरवर असंख बजति" पडह मद्दल असंख" । हिं पइसइ लोऊ असेसु सरणु तहिं किं वणिजइ समवसरणु। "घत्ता जियकूरारिणा बसुपइहारिणा। भी' सीरिणा णविवि मुरारिणा ॥6॥ दुवई-धम्पधम्मकम्मगइपुग्गलकालावासणामहं । पुच्छित किं पमाणु' परमागमि चउदहभूयगामहं ॥छ॥ कि खणविणासि किं णित्यु एक्कु किं देहत्थु वि कम्मेण मुक्कु। कि णिच्यणु चेयणसरूड किं चउभूयहं संजोयभूउ । कि णिग्गुणु णिक्कलु णिब्बियारि कि कम्महं कारउ कि अकारि । इसरवसेण कि रववसेण संसरइ देव संसारि केण। परमाणुमेतु किं सव्यगामि अप्पउ केहन भणु भुक्णसामि । तं णिमणिवि णेमीसरिण' बुत्तु जइ खणविणासि अप्पड णिरुत्तु। तो कागद णितिय गेरुण परिसह साए विणिहिदव्यठाणु। श्रेष्ठ श्राविकाएँ थीं। संख्यात तिर्वच एवं असंख्य सुरवर थे। असंख्य नगाड़े और मृदंग बज रहे थे। जहाँ सम्पूर्ण लोक आश्रय लेता है, उस समवसरण का क्या वर्णन किया जाए ? __ घत्ता-दुष्ट शत्रु को जीतनेवाले, पृथ्वी का हरण करनेवाले बलभद्र और कृष्ण ने नेमिनाथ को प्रणाम कर पूछा धर्म, अधर्म, कर्म, गति, पुद्गल, काल, आकाश नामक द्रव्यों तथा चौदह भूतग्रामों (लोकों) का परमागम में क्या प्रमाण है ? क्या क्षणभंगुर है ? क्या नित्य है ? कौन देहस्थ होते हुए भी कर्ममुक्त हैं ? अवचेतन क्या है ? या इनका चेतन स्वरूप क्या है ? चार महाभूतों का संयोगरूप क्या है ? निर्गुण, निष्पाप और निर्विकार क्या हैं? क्या वह कर्मों का. कारक है या अकारक है ? ईश्वर के वशीभूत होने से या कर्म के कारण, किस कारण हे देव ! जीव संसार में भ्रमण करता है ? वह क्या परमाणु मात्र है अथवा क्या सर्वगामी है ? हे भुवनस्वामी ! बताइए, आत्मा का स्वरूप क्या है ? यह सुनकर नेपीश्वर ने कहा-यदि निश्चय से आत्मा क्षणभंगुर है, तो वह रखे हुए धन को सौ वर्षों के बाद भी उसके स्थान को कैसे जान लेती है ? यदि वह नित्य है, तो उत्पत्ति और मृत्यु को कैसे जान 9. जंत। 10. Pमला ।।. Somits ना lites. 12. BK मि। (7)| कि पि मण। 2. APS चोदह | K. PS संजोए हुए। 4. APS मीसेण। Aaणि विणासि । 1. APS णियदव्व । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. 89.8.7] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराण गिच्चहु किर' कहिं उप्पत्ति मच्चु जइ एक्कु जि तइ को सग्गि सोक्खु" जइ : रविवारु भति णिक्किरियहु कहिं करणई हवते' जर सिक्वसु हिंss भूयसत्यु जंप जणु रइलंपडु असच्चु । अणुहुंजइ गरइ महंतु दुक्खु । तो: किं लब्भइ मइविहाउ । कहिं पयइबंधु जत्ति विवति । तो कम्मकंडु " सयलु विणिरत्यु | घत्ता - जइ अणुमेत्तउ जीवो एहउ । तो सज्जीवउ किह करिदेहउ ॥ 7 ॥ (8) दुवई - जीवु' अणाइणिहणु गुणवंत सुहुमु सकम्मकारओ । भोत गतमेत्तु रयचत्तउ उडाई भडारओ ॥ छ ॥ आयण्णिवि जिणवरभासियाई । सम्मत्तु' लइउ पारायणेण । अवरेहिं लइय णिग्गंधदिक्ख । णिव्वूढई परिपालियदयाई । वरदत्तु पपुच्छिउ देवईइ । इय वयणई सवणसुहासियाई बलएवें गुणहरिसियमणेण अरहंत केरी परम सिक्ख अवरेहिं चारुसावयवयाई एत्यंतर सुरगयवरगईइ [ 171 10 5 लेती है ? रति के लम्पट लोग असत्य कथन करते हैं। यदि आत्मा एक है, तो स्वर्ग में सुख का अनुभव और नरक में दुःख का अनुभव कौन करता है ? यदि यह कहा जाये कि 'चेतना' भूतों (चार महाभूतों) का विकार है, तो फिर उनमें बुद्धि का विभाजन कैसे होता है ? निष्क्रिय है तो इन्द्रियाँ किस प्रकार होती हैं ? फिर, प्रकृतिबन्ध की युक्ति किस प्रकार सिद्ध होती है ? यदि भूतसमूह शिव के अधीन होकर घूमता है, तो समूचा कर्मकाण्ड व्यर्थ है ? पत्ता -- यदि यह जीव अणुमात्र है, तो हाथी का समूचा शरीर सचेतन कैसे है ? 7. APS कहिँ किर। BS सग्गसोक्खु 9 P सक्नु। 10. APS किर कहिं II. P वहते । 12 A बंधजुत्ति | 13. A कम्मकंदु । । (8) 1. APS जी 2. B समत्तु लयउ। 3. B लयइय। 4. APचि पुच्छिउ । (8) जीव अनादि निधन है, गुणवान है, सूक्ष्म है, अपने कर्म का कारक है । भोक्ता, शरीर परिणामी और कर्मरज से रहित होने पर ऊर्ध्वगतिवाला है। कानों को सुखद लगनेवाले जिनवर के द्वारा कहे गये इन शब्दों को सुनकर गुणों से हर्षितमन बलभद्र और नारायण ने सम्यक्त्व ग्रहण कर लिया तथा दूसरे ( बलभद्र ) ने अरहन्त की परमशिक्षा जिन्नदीक्षा ग्रहण कर ली। दूसरे ने दया का परिपालन करनेवाले सुन्दर श्रावक व्रतों को ग्रहण किया। इसी बीच ऐरावत के समान गति लीलाबाली देवकी ने गणधर वरदत्त से पूछा- संयमशील से सुशोभित तथा चर्यामार्ग से आये Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1721 [89.8.8 10 15 महाकइपुष्फयतविरयउ महापुराणु संजमसीलेण सुहाइयाई चरियामग्नें घरु आइयाइं। जइजुयलई तिण्णि पलोइयाइ । महं णयणई जहं छाइयाई। कि किर कारणु पणथाणुराइ ता भणइ भडारउ णिसुणि माइ। पिहुजंबुदीवि इह भरहखेत्ति महुराउरि जिणवरघरपवित्ति। सफ्यावपरज्जियवइरिसेणु णरवइ तहिं णिवसइ सूरसेणु। तेत्थु जि पुरि वणिवइ भाणुदत्तु । जउणायत्तासइरइहि रत्तु। तह पढमपुत्तु णामें सुभाणु पुणु भाणुकित्ति पुणु अवरु भाणु। पुणु भाणुसेणु पुणु सूरदेउ पुणु सूरदत्तु पुणु सूरकेउ । घत्ता तेत्थु महारिसी समजलसायरो। जियपंचेंदिओ णाणदिवायरो ॥8॥ (9) दुवई-पणविवि अभयणंदि णरणाहें णिसुणिवि धम्मसासणं। मुइवि सियायवत्तचलचामरमेइणिहरिवरासणं' ॥छ। णरवरसाहियसग्गापवग्गि लइयउं मुणित्तु जइणिंदमग्गि। वणिणाहु वि तवसिरिभूसियंगु थिउ तेण समउ णिम्मुक्कसंगु । जउणादत्तइ वणि फुल्लणीवि वउ लइयउं जिणदत्तासमीवि। ते पुत्त सत्त बसणाहिहूय सत्त वि दुद्धर णं कालदूय । 5 हुए तीन यति युगलों को मैंने देखा और मेरे नेत्र स्नेह से छा गये। इस प्रणयानुराग का क्या कारण है ? यह सुनकर आदरणीय गणधर कहते हैं-हे माता ! सुनो। विशाल जम्बूद्वीप के इस भरतक्षेत्र में जिनमन्दिरों से पवित्र मथुरा नगरी में अपने प्रताप से शत्रुसेना को पराजित करनेवाला सूरसेन नाम का राजा निवास करता था। उसी नगरी में भानुदत्त नाम का सेठ था, जो अपनी पत्नी सती यमुनादत्ता के प्रेम में अनुरक्त था। उसके प्रथम पुत्र का नाम सुभानु था, फिर भानुकीर्ति, भानु, फिर भानुसेन, फिर सूरदेव, सूरदत्त, फिर सूरकेतु था। घत्ता-वहाँ समता-जल के समुद्र, जितेन्द्रिय और ज्ञान-दिवाकर महामुनि (9) अभयनन्दी को प्रणाम कर और धर्म का अनुशासन सुन राजा ने सफेद छत्र, चंचल चमर, भूमि और सिंहासन छोड़कर, जो स्वर्ग और मोक्ष को साधनेवाले राजाओं द्वारा साधा गया है, ऐसे जैनमार्ग में दीक्षा ग्रहण कर ली। जिसका शरीर तपश्री से भूषित है, ऐसा परिग्रह से रहित सेठ भी उसके साथ हो लिया। यमुनादत्ता ने भी वन में खिले हुए कदम्ब वृक्ष के नीचे जिनदत्ता आर्या के निकट व्रत ग्रहण कर लिया। वे सातों ही पुत्र व्यसनों के वशीभूत (अभिभूत) हो गये। सातों ही कठोर मानो यमदूत थे। राजा ने उन्हें 5. S तहिं आइयाई। 6. PS माणयत्तु । 7. AP "दत्तासहस्त्तचितु। 8.5 तहे। (9) 1. I समायवत्त । 2. मुणिवर। 3. 2 द । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܀ ? !. 89.10.6] महाकपुप्फयंतविरयज महापुराणु गिद्धाडिय राएं पुरखराउ ते गय अवति णामेण देसु तहिं संपत्ता रवणिहि मसाणु संणिहिउ तेत्धु सो सूरकेज तहिं चोर किं पि चोरंति जाम पुरपहु वसद्धउ तासियारि वप्पसिरि घरिणि सिसुहरिणदिट्ठि घत्ताT- विमलतणूरुहा रइरसवाहिणी । णामें मंगिया तहु पियगेहिणी | 19 |1 ( 10 ) मयपरवस णं करिवर सराउ । उज्जेणिणयरु मणहरपएसु । जुज्झतकुद्धसिवसाणठाणु । अवर वि पट्ट पुरु चवलकेछ" । अक्कु कहंतरु होइ ताम । सहसभडु भिच्चु तहु दढपहारि । तहि तणुरुहु णामें वज्जमुट्ठि । दुबई - तें' सहुं पत्थिवेण महुसमयदिणागमणि वणं गया । जा कौलंति किं पि सव्वाई वि ता पिसुणा सुगिद्दया । छ । । आरुट्ट दुट्ठ चरइत्तमाय सुकुसुममालइ सहुं अइमहंतु ससिमुहि छउओयरि मज्झखाम आलिंगिय कोमलयरभुयाइ मुहि णिग्गय णउ कडुययर वाय । घडि धित्तु सप्पु फुक्कार' देंतु । संपत्त सुण्ह णवपुप्फकाम । म जाणिव बोल्लिउं सासुवाई | [ 173 10 1. APS गय ते। 5. 5 "पवेसु । 6. 13 घवकेट 7. ढुक्कु ताम । (10) 1. ABP ते सह 2 H कडुइयवर P क ुअयर 3. A फुंकारु। 4. B खामोअरिः । तुच्छोयरि । 5. A 'जाणेविणु बोल्लिउं । 5 नगर से निकाल दिया, मानो तालाब से मतवाले हाथी को निकाल दिया हो। वे अवन्ती नाम के देश में चले गये । उत्तम प्रदेश उज्जैन नगरी में पहुँचे। वहाँ वे रात में, जो क्रुद्ध सियारों और कुत्तों के युद्ध का स्थान है, ऐसे मरघट में पहुँचे। सूरकेतु वहीं जाता है। दूसरे भी धवल पताकाओं वाले नगर में प्रवेश करते हैं। जब तक वे वहाँ कुछ चोरी करें, तब तक वहाँ एक और कथा घट जाती है। शत्रुओं को त्रस्त करनेवाला नगरराजा वृषभध्वज था । उसका दृढ़प्रहार नाम का सहस्रभट अनुचर था। उसकी शिशुहरिणी के समान नेत्रवाली वपुश्री नाम की पत्नी थी। उसका पुत्र वज्रमुष्टि था । धत्ता - विमल की पुत्री, रतिरस की नदी मंगिया नाम की उसकी गृहिणी थी । ( 10 ) वसन्त के दिनों के आगमन पर उस राजा के साथ वे लोग वन गये। जब वे वहाँ कीड़ा कर रहे थे, तभी क्रूर, दुष्ट और निर्दय वप्रश्री ( वरदत्त की माँ, मंगिया की सास ) क्रुद्ध हो उठी। उसके मुँह से कड़बी बात भर नहीं निकली, लेकिन पुष्पमाला के साथ उसने अत्यन्त लम्बा फुफकारता हुआ साँप घड़े में रख दिया । चन्द्रमुखी, कृशोदरी, मध्यक्षीण, नवपुष्प की इच्छा रखनेवाली बहू उसके पास आयी। सास ने अपनी Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1741 महाकइपुष्फयंतविरवड महापुराणु [89.10.7 10 तुह जोग्गी चलमहुयररवाल मई णिहिय कलसि वरपुष्फमाल । अमुणतिइ गइ असुहारिणीहि पच्छण्णविरुद्धहि वइरिणीहि ।। बालाई कुभि करवलु णिहित्तु उद्धाइउ फणि चलु रत्तणेत्तु । हा हा करति सा खद्ध तेण णिवडिय महियलि मुच्छिय विसेण। तणवेंढई वेढिवि पिहियणयण गयकायतेय ‘मजलंतवयण। पेसुण्णसलिलसंगहसरीइ घल्लिय पिज्वणि पइमायरीइ। घत्ता-तावाओ पिओ भणइ सुगिया। कहिं सामगिया अब्बो मंगिया ॥10॥ दुबई-कहियं अंबिवाइ विसहरदादागरलेण घाइया। पुत्तय तुज्झ' घरिणि खयकालमुहे विहिणा णिवाइया' ॥छ॥ अम्हेहिं मोहरसपरवसेहिं दड्डी ण जीवियासावसेहिं। घल्लिय कत्थइ दुग्गंतलि | पेयग्गिजालमालाकरालि। ता चल्लिउ सो संगरसमत्यु उक्खायतिक्खकरवालहत्यु। हा' हे सुंदरि परिसोयमाणु । परिभमइ पेयमहि जोवमाणु । कोमल भुजाओं से उसका आलिंगन किया और उसका मन जानकर बोली-चंचल भ्रमरों के शब्दों से युक्त उत्तम पुष्यों की माला मैंने कलश में रख दी है। __ प्राणों का हरण करनेवाली, प्रच्छन्न रूप से विरुद्ध, दुश्मन सास की चाल को न जाननेवाली बाला ने घड़े में हाथ डाला। चंचल और लाल आँखोंवाला साँप दौड़ा और उसे उसने काट खाया। हाहाकार करती हुई वह विष से मूर्छित होकर धरती पर गिर पड़ी। जिसकी शरीर की कान्ति जा चुकी है, मुकुलित मुख और बन्द आँखोंवाली उसे घास के वेष्टन से ढंककर, दूष्टता रूपी जल संग्रह की नदी, पति की यात्रा के द्वारा मरघट में फेंक दिया गया। घत्ता-इतने में पुत्र वज्रमुष्टि आकर पूछता है-हे माँ ! श्यामांगी अच्छी मंगिया कहाँ है ? माता ने कहा विषधर की डाढ़ों के जहर के आघात से, हे पुत्र ! तुम्हारी गृहिणी विधाता ने क्षयकाल के मुख में डाल दी है। मोहरूपी रस के वशीभूत होकर, उसके जीवित होने की आशा के कारण हम लोगों ने जलाया नहीं, बल्कि प्रेतों की ज्वालमाला से कराल किसी दुर्गम वन के भीतर फिकवा दिया है। तब संग्राम में समर्थ वह अपनी तीखी तलवार हाथ में उठाए हुए चला। 'हाय ! हे सुन्दरि', इस प्रकार i. AIPS बालए कुंभे। 7. A चलरतः। ४. भणति। 9. A तणुदिपवेदिए: HAIs तणनिए बेद्विवि: Pणयदिए। 10. A तापापउ; B ताबाद। (11) ], APS तुन्छु। 2. Pघरणि। 3. A गिवेइया। 1. A उक्तव": Pomits this foot. S. ABPS हा हा हे सुंदरि सोयमाणु। 6. As थिया"; । चिहा। 2. APS जोयमाणु। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89.12.41 महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु [ 175 ता तेण दिठु तहिं धम्मणामु रिस दूसहतवसंतावखामु। ओबाइउं भासिङ तासु एम जइ पेच्छमि पिययम कह व देव। चलचंचरीयधुयकेसरेहिं तो पइं पुज्जमि इंदीवरेहिं। इय भणिवि भमंते तहिं मसाणि अणवरयदिण्णणरमासदाणि। 10 दिट्ठी पणइणि णासियगरेण" मुणिवरतणुपवणोसहभरेण। जीवाविय जाव सचेयणगि परिमिट्ठ रहगें णं रहंगि। रमणीदसणपुलइयसरीरु गउ कमलह" कारणि कहिं मि धीरु । गइ पिययमि मंगीहिययथेषु कवडेण पहुक्कउ सूरसेणु। पत्ता-तेण मणीहरं तहिं तिह बोल्लियं । जिह हियउल्लयं तीइ विरोल्लियं ॥11॥ (12) दुवई-परपुरिसंगसंगरइरसिया मयणवसेण णीयओ। महिलउ कस्स होति साहीणउ बहुमायाविणीयओ छ। परिहरिवि चिराउ घारू रमणु . पडियाउने सहुँ तीइ रमणु' तहिं अवसरि आयउ वजमुट्टि कंतहि करि अप्पिय खग्गलहि। 13 शोक प्रकट करता हुआ तथा श्मशानभूमि देखता हुआ वह घूमता है। इतने में वह दुःसह तपसन्ताप से क्षीण, धर्म नामक मुनि को वहाँ देखता है। उनकी सेवा करते हुए उसने इस प्रकार कहा-दे देव । यदि किसी प्रकार मैं अपनी प्रियतमा को देख सकूँ, तो मैं चंचल भ्रमरों से काँपती केशरवाले इन्दीवरों से आपकी पूजा करूँ ? यह कहकर उस मरघट में, जिसमें अनवरत नरमांस का दान दिया जाता है, घूमते हुए, उसने प्रणयिनी को देखा। जहर को नष्ट कर देनेवाली, मुनिवर के शरीर की हवारूपी औषधि को धारण करनेवाले उसने उसे जीवित कर लिया। वह सचेतन अंगोंवाली हो गयी, मानो चकवे ने चकवी को जीवित कर लिया हो। पत्नी के दर्शन से पुलकित-शरीर वह धीर, कमलों के लिए कहीं गया। प्रियतम के चले जाने पर मंगिया के हृदय का चोर सूरसेन कपटपूर्वक वहाँ आ पहुँचा। घत्ता-उसने वहीं इतनी सुन्दर बातें कीं कि जिससे उसका हृदय भग्न हो गया। (12) परपुरुष के संग रति का आस्वाद लेनेवाली, कामदेव के द्वारा ले जायी गयी महिला भला किसी होती है ? वहुमाया से विनीत वे स्वाधीन होती हैं। अपने पुराने सुन्दर पति को छोड़कर, उसने उसके साथ रमण ५ B थि। ५. महंते; but notes ap भयंते चा पाठः। I0. A adds after this : अपलोइवि परबलरिउमरण। 1. AS परिमट्टः । पइमदन। 12. "कमलहो। 19. AP वीरु। (12) I. H गमणु। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 ] महाकाइपुष्फयंतविरवड महापुराणु [89.12.5 इच्छिवि परणररइरसपवाहु सा ताइ जाम किर हणइ णाहु। ता वणिसुएण उड्डिङ सबाहु णित्तिंसु पडिउ णं कालगाहु। अंगुलि खांडेय णं पावबुद्धि कम्मुवसमेण वष्टिय विसुद्धि । चिंतवइ होउ माणिणिरएण दरिसावियधणजीवियखएण। दुग्गंधु' पुरधिहिं तणउ देहु मणु पुणु बहुकवडसहासगेहु। रप्पिज्जइ कि किर कामणिीहिं वइसियमंदिर चूडामणीहि । 10 किं वयणे लालाणिग्गमेण अहरें किं बल्लूरोवमेण। कि गरुयगंइसरिसेण तेण माणिज्जतें घणथणजुएण। परिगलियमुत्तसोणियजलेण किं किज्जइ किर सोणीयलेण। पररत्तिइ गुणविद्दावणी एत्यंतरि दढमायाविणीइ। ... मई खग्गु मुक्कु भीयाइ माड वरइत्तहु उत्तर दिण्णु ताइ। पत्ता-घेत्तु परहणं सुठु अकायरा'। ताम पराइया ते तहिं भायरा ||12|| (13) दुवई-दिगं तेहिं तस्स दविणं तहिं तेण' वि तं ण इच्छियं। हिंसाअलियवणचोरत्तणपरया दुगुछियं ॥छ॥ करना स्वीकार कर लिया। ठीक इसी अवसर पर वज्रमुष्टि आया और उसने कान्ता के हाथ में तलवार की मूठ दे दी। परपुरुष के रति-रसप्रवाह को चाहती हुई वह, उस तलवार से जब तक अपने पति पर वार करती है तब तक वणिक पत्र ने अपना हाथ उठाया, उस पर तलवार इस प्रकार पड़ी जैसे काल का ग्राह हो। उसकी अँगुलियों कट गयीं, मानो पापबुद्धि खण्डित हुई हो। कर्म का उपशम होने से उसकी चित्तशुद्धि हुई। वह सोचता है कि जिसने धन और जीवन का नाश दिखाया है, ऐसे स्त्रीप्रेम से क्या ? शरीर दुर्गन्धयुक्त होता है। फिर मन हजार कपटों का घर होता है। माया-मन्दिर की चूड़ामणि स्त्रियों के द्वारा क्यों आक्रमण किया जाता है ? लार गिरते हुए मुख से क्या ? सूखे हुए माँस के समान अधरों से क्या ? भारी गण्डस्थल के समान सघन स्तन-युगल मानने से क्या ? मूत और रक्तजल झरनेवाले श्रोणीतल से क्या किया जाय ? दूसरे में अनुरक्त, गुणों को नष्ट करनेवाली, दृढ़माया से विनीत उसने अपने पति को उत्तर दिया-भयभीत मुझसे तलवार छूट गयी।" वत्ता-अत्यन्त साहसी उसके भाई परधन को लेने के लिए वहाँ आये। (13) उन्होंने उसका धन उसे दिया, वहाँ उसने भी वह धन नहीं चाहा। उसने हिंसा, झूठ वचन, चोरी और । स्नियों का 2. इंछिय। ।खयेग। 4. 1 दुग्गंध। BAPS मंदिर | BAP पित्तं। 7.8 अकारया। 8. D तहिं ते। (13) 1. B लिण। 2. B परयाई। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89.13.18 ] [ 177 महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु तणमिव मण्णिउं तं चोरदबु मंगीविलसिउं वज्जरिउं सब्बु । खलमहिलउ किं किर णउ कुणंति भत्तारु जारकारणि हणंति । तियचरि' कहतें भायरेण छिण्णंगुलि दाविय ताहं तेण । तं णिसुणिवि मेल्लिवि मोहजालु सरकरिहरि' दयदाढाकरालु । वसिकिय पंचेंदिय णियमणेहिं णिवेइएहिं वणिणंदणेहि। आसंघिउ धम्ममहामुणिंदु तउ लइउ तेहिं पणविधि जिणिंदु । जिणदत्तहि खतिहि पायमूलि उवसाभियभवयरसल्लसूलि। वउ लइयउं लहुं तणुअंगियाइ णियचरियविसण्णा मंगियाइ। हिंतालतालतालीमहंति उज्जेणीबाहिरि काणणति। अच्छति जाम संपुग्णतुट्टि परमेट्टि पणासियमोहपुष्टि 1 अंचिवि णवकमलहिं सच्चदिट्टि संपत्तु ताम सो वज्जमुट्ठि। पुच्छियउं तेण णिवसह वणम्मि पव्वज्जई' किं णवजोव्वणम्मि। मंगीवियांरु तवचरणहेउ वज्जरिउं तेहिं तं मयरकेउ । विद्धसिवि लइयउं रिसिचरित्तु" तहु गुरुहि पासि गुणगणपवित्तु । सोहम्मसग्गि सोहासमेय चारित्तयंत चंदक्कतेय। संणासु. करेप्पिणु लद्धसंस सुर जाया सत्त वि तायतिस। ____15 परस्त्री की निन्दा की। उस चोरी के धन को उसने तृण के समान समझा और उसने मंगिया की सारी करतूत बतायी। दुष्ट महिलाएँ क्या नहीं करती , यार के लिए वे अपने पति की भी हत्या कर देती हैं। स्त्रीचरित कहते हुए उसने अपने भाइयों को कटी हुई अपनी अंगुलियाँ बतायीं। यह सुनकर और मोहजाल छोड़कर नियमशील, वैराग्य को प्राप्त वणिकपुत्रों ने पाँचों इन्द्रियों को वश में किया और कामरूपी गज के लिए सिंह के समान तथा भयंकर दाढ के लिए दया के आश्रय-स्थान धर्म नामक महामुनि की उन्होंने शरण ली। जिनेन्द्र को प्रणाम कर उन्होंने तप ग्रहण कर लिया। आर्या जिनदत्ता के, संसाररूपी कर की फाँस को नष्ट करनेवाले पादमूल में, अपने चरित से दुःखी होकर तन्वंगी मंगिया ने भी व्रत ग्रहण कर लिये। हिन्ताल, ताल और ताड़ी वृक्षों से महान, उज्जैन के बाहर वन के भीतर जब सम्पूर्ण तुष्टिवाले और मोह की पुष्टि को नष्ट करनेवाले सत्यदृष्टि मुनि विराजमान थे, तब वह वजमुष्टि वहाँ पहुँचा। उसने उनकी नवकमलों से पूजा की और पूछा-आप वन में क्यों निवास कर रहे हैं, आपने नवयौवन में वैराग्य क्यों धारण किया ? उन्होंने उत्तर दिया-मंगिया का विकार तपश्चरण का कारण है। फिर उसने भी काम को नष्ट कर, उसके गुरु के पास गुणगण से पवित्र मुनित्त्व स्वीकार कर लिया। चारित्र्य से युक्त, चन्द्रार्क के समान तेजवाले और शोभा से युक्त, प्रशंसा प्राप्त करनेवाले वे सातों भाई संन्यास धारण कर सौधर्म स्वर्ग में देव हुए। 3. Als. तृय: 5 प्रियचरिउं। 4. A सरहरिकरिहयदाहा। 5. K यर। ६. S तणुयोग। 7. A संपण्णबुद्धि; DPS संपण्णतुहि। 8. AP मोहबुद्धि । 9. APS पावज्जए। 10, Als. तें against Mss. II. A तवचरित्तु। 12. B तायतीस । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 | [89.13.19 महाकइपुमायंतविरयउ महापुराणु धत्ता-ताहिंतो चुया धादइसंडए। भरहे" खेत्तए वरतरुसंडए ॥13॥ 20 दुवई-णिच्चालोयणयरि' अरिकरिकुंभुद्दलणकेसरी। ___पत्थिर चित्तबूल तह प्रियपणइणि णामें मणोहरी ॥७॥ चित्तंगउ जायज पढमपुत्तु धर्यवाहणु पंकयपत्तणेत्तु। अण्णेक्कु गरुलवाहणु पसत्थु मणिचूलु पुप्फचूलु वि महत्थु । पुणु णंदणचूलु वि गयणचूल तेत्यु जि दाहिणसेढिहि विसालु । मेहउरें धणंजउ पहु हयारि सच्चसिरि णाम तहु इट्टणारि। कालेण ताइ णं मयणजुत्ति धणसिरि णामें संजणिय पुत्ति। तेत्धु जि णिण्णासियरिउपया आणंदणयरि हरिसेणु राउ। सिरिकंत कंत हरिवाहणक्नु सुउ संजायउ कमलाहचक्छु। साकेयणयरि णं हरि सिरीइ सोहंतु महंतु सुहंकरीइ। तहिं चक्कवट्टि पुरि पुष्पदंतु तह सुठ्ठ दुट्ठ तणुरुहु सुदत्तु । पायेण तेण णववेणुवण्ण हरिवाहणु मारिबि लइय कण्ण। सुविरत्तचित्त संसारवासि भूयाणंदहु जिणवरह पासि। तं पेच्छिवि ते चित्तंगयाइ मुणिवर संजाया जइणवाई। अरिमित्तवग्गि होइयि समाण अणसणतवेणं' पुणु मुइदि पाण। यत्ता-वहाँ से च्युत होकर, धातकीखण्ड द्वीप में सुन्दर वृक्षों के समूहवाले भरतक्षेत्र में 10 15 नित्यालोक नगर है। उसमें शत्रुरूपी गजों के कुम्भों को विदारित करनेवाला राजा चित्रचूल (चन्द्रचूल) था। उसकी मनोहरा नाम की देवी थी। उसका पहिला पुत्र चित्रांगद हुआ। फिर कमल-पत्र के समान ध्वजवाहन। एक और प्रशस्त गरुड़वाहन हुआ। महार्थवाले मणिचूल और पुष्पचूल भी उत्पन्न हुए। फिर नन्दनचूल और गरुड़चूल हुए। वहीं विजयाध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में विशाल मेघपुर में शत्रु का नाश करनेवाला राजा धनंजय था। उसकी सत्यश्री नाम की दृष्ट स्त्री धी। समय बीतने पर उसे कामदेव की युक्ति के समान धनश्री नाम की पुत्री हुई। वहीं शत्रु के प्रताप को नष्ट करनेवाला हरिसेन नाम का राजा आनन्दनगरी में उत्पन्न हुआ। जिस प्रकार इन्द्र लक्ष्मी से शोभित है, उसी प्रकार प्रीतिकरी पत्नी से शोभित महान् चक्रवर्ती पुष्पदन्त अयोध्या नगरी में शोभित था। उसका दुष्टपुत्र सुदत्त था। उस पापी ने नववेणु के समान वर्णवाले हरिवाहन को मारकर उसकी कन्या ले ली। यह देखकर चित्रांगद आदि भाई संसारवास से विरक्तचित्त होकर भूतानन्द जिनवर के पास जैनवादी मुनि हो गये। शत्र और मित्र में समान होकर और अनशन तप के द्वारा उन्होंने अपने प्राण छोड़ दिये। 1. नाईतो। ।।. [ भारहे धिपः। (14) 1.5 णिचानाए । 2. ABP मात ; S"कंभयलदलण् । 3. 5 पत्यिबु । 4. AP तहो पणइणि सई गामें। 5. 5 सरल | 6. F णंदणु 1117A मेह) SHETRA लाडू मटर माण। 4. A ताण। 10. B पाण। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89.15.15] पहाकइपुप्फवंतविरयत महापुराणु [ 179 घत्ता-सग्गि क्उत्थए सामण्णा सुरा। ते सजायया सत्त वि भायरा ॥14॥ ( 15 ) दुवई-सत्तसमुद्दमाणु परमाउसु मुंजिवि पुणु वि णिवडिया। कालें इंद चद धरणिंद वि के के णेय' विहड़िया ॥छ। इह भरहखेत्ति सुपसिद्धणामि कुरुजंगलि देसि विचित्तधामि । गयउरि धणपीणियणिच्यणीसु वणिणाह सेयवाहण णिहीस्। बंधुमइ घरिणि तहि धम्मकंखु हुउ सुउ सुभाणु णामेण संखु । तहिं पुरवरि राणउ गंगदेउ णंदयसपरिणिमणमीणकेउ। उप्पण्णउ णंदणु ताहं गंगु गंगसुरु अवरु णावइ अणंगु। पुणु गंगमित्तु पुणु गंदवाउ पुणरवि सुणंदु संपुण्णकाउ। पुणु णंदसेणु' गिद्धगराय अवरोप्परु णेहणिबद्धछाय। अण्णम्मि गब्भि संभूइ राउ उब्वेइउ वर णंदणु म होउ' । मा एहउ महुं संतावयारि डहु पावयम्मु संतोसहारि। उप्पण्णउ रेवइधाइयाइ रायाएसें संचोइयाइ। बंधुमइहि बालु विइण्णु गंपि रक्खइ माणुसु भवियदु किं पि। णिण्णामउ कोक्किउ ताइ सो वि अण्णहिं दिणि उववणि सह भमेवि। छ वि ते भावर भुंजति जाम णिण्णामु पराइउ" तहिं जि ताम। पत्ता-वे सातों भाई चौथे स्वर्ग में सामानिक जाति के देव हुए। (15) सात सागर प्रमाण आयु भोगकर, वहाँ से वे च्युत हुए। काल के द्वारा इन्द्र, चन्द्र और धरणेन्द्र भी, कौन ऐसा है जो विखण्डित नहीं होता ? इस भरतक्षेत्र में प्रसिद्ध कुरुजांगल नामक देश में विचित्र गृहोंवाला गजपुर है। उसमें धन से दरिद्रों को नित्य प्रसन्न करनेवाला निधीश श्वेतवाहन नाम का सेठ है। उसकी बन्धुमती गृहिणी है। उत्तम सूर्य के समान तथा धर्म की आकांक्षा रखनेवाला उसका शंख नाम का पुत्र हुआ। उसी नगरी में गंगदेव नाम का राजा हुआ, जो अपनी गृहिणी नन्दयशा के मन का कामदेव था। गंग उसका पुत्र हुआ। और दूसरा गंगदेव जो मानो कामदेव था। फिर गंगमित्र और नन्द, फिर पुण्यशरीर सुनन्द एवं स्निग्धराग नन्दसेन । वे आपस में बहुत प्रेम से बँधे हुए थे। नन्दयशा के एक और गर्भ रह जाने पर राजा उद्विग्न हो गया कि अच्छा हो कि पुत्र न हो। यह मुझे सन्तापदायक न हो, सन्तोष हरण करनेवाला पापकर्मा यह मुझे न जलाए। बालक उत्पन्न होने पर राज्यादेश से प्रेरित रेवतीधाय ने जाकर उसे बन्धुमती को दे दिया। कोई-न-कोई भवितव्य मनुष्य की रक्षा करता है। उसने उस शिशु को निर्नाम कहना शुरू कर दिया। एक दिन उपवन में घूमकर जब वे छहों भाई भोजन कर रहे थे, तब निर्नाम वहाँ पहुँचा। 11. B संजाया। (15) 1. A ण य। 2. Pघरगि। 3. p गांदजसः। 4. AS दिसेणु। 5.5"ठाय। 6.5 संभूये। 7. Aadds after this : जड हुबह एहु व लयहो जाउ; K writes it but secores it off... दह: Pइछु। 9.5 मवियत्यु(:)। 10. Pomits छवि। 11. P परायउ। 15 २. शाराज ताम Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1801 पहाकइफुप्फयंतविरयउ महापुराणु [ 89.15.16 घत्ता-संखें बोल्लिउं महु भणु रंजहि । आयहि बंधव तुहं सहुं" भुजहि ॥15॥ (16) दुवई-ता' भुजंतु पुत्तु अवलोइवि सरसं गोडिभोयणं । ___ वयणं रोसएण पंदजसहि जायं तंबलोयण ॥छ॥ पाई चतियाइ चरणयलें हउ असहतियाइ। सोयाउरमणु संखेण दिछु एमेव' को वि जणु कहु वि इछु । तं दुक्खु सदुक्खु व मणि वहंतु। दुत्थियवच्छलु महिमामहंतु। अण्णहिं दिणि बहुकिंकरसएहिं । सहं णरणाहें हयगयरहेहि। गउ सो णिण्णामु वि विस्सरामु । दुमसेणमहारिसिणमणकामु। गुणसभाबडु मंदिर जोईसरु जोयसुद्ध। संखें पुच्छिउ णंदयस देव णिण्णामहु विणु कज्जेण केम। रूसइ परमेसरि' कहउ" तेम हउँ जाणमि पयडपयत्यु जेम। 10 तं णिसुणिवि अवहिविलोयणेण बोल्लिउं तवसंजमभायणेण। सोरठ्ठदेसि गिरिणयरवासि चित्तरहु राउ आसत्तु मासि। तहु केरउ विरइयपावपंकु । सूचारउ अमयरसायणंकु। पहुणा जिभिदियलपडेण12 पलपयणवियक्खणु मुणिवि तेण। यत्ता-शंख ने कहा-मेरे मन का रंजन करो। आओ भाई ! तुम मेरे साथ भोजन करो। (16) पुत्र को सरस गोष्ठीभोजन करते हुए देखकर, नन्दयशा का मुख और नेत्र क्रोध से लाल हो गये। सैंकड़ों दुष्ट शब्द कहती हुई और सहन नहीं करती हुई वह उसे लात से आहत कर देती है। शोकातुर बालक को शंख ने देखा। (वह सोचता है) इस प्रकार किसी भी मनुष्य का इष्ट होना व्यर्थ है। उस दुःख को मन में अपना दुःख समझते हुए, दुःस्थितों के लिए वत्सल और महिमा से महान् वह, एक दिन सैकड़ों अनुचरों, घोड़ों, हाथियों और राजा के साथ विश्व मनोहर द्रुमसेन महामुनि को नमस्कार करने की कामना से गया। निर्नाम भी यहाँ गया। गुणवान् और संगतिभाव से प्रबुद्ध करनेवाले योगशुद्ध योगीश्वर को उन्होंने वन्दना की। शंख ने पूछा-हे देव ! नन्दयशा बिना कारण निर्नाम पर क्रोध क्यों करती है ? बताइए जिससे हम प्रकट पदार्थ की तरह स्पष्ट रूप से जान सकें। यह सुनकर तप और संयम के पात्र, तथा अवधिज्ञानरूपी लोचनवाले मुनि ने कहा- सौराष्ट्र देश के गिरनार नगर का निवासी राजा चित्ररथ मांस में आसक्त था। उसका पापपंक में सना अमृत-रसायन नाम का रसोइया था। जिस्या इन्द्रिय के लोभी उस राजा ने मांस-पाक-विज्ञान में उसे विशेषज्ञ मानकर, उससे :2. 1 स्टं: सह। (16) | BAIR हो; PS तो। 2.5 पत्तु। Aणंदजसहो; 85 गंदयसहे। 4. BS एमेय। 5. AS तदुक्खु against Mss :P सक्नु नाव: ?.AS रहरुमागहें। 6. Pणंदजस। 9.8 परमेसरू। 10. AN कहहिँ: B कहह। ।।, B पईइ'। 12. APS जीहिदिय । G. D वि। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89.17.131 [ 181 15 महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराण घत्ता-तूसिवि राइणा पायबियाणउ। ___बारहगामहो किउ सो राणउ ।।16।। ( 17 ) दुवई–णवर सुधम्मणाममुणिणाहें संबोहिउ महीसरो। थिउ जइणिंददिक्ख पडिवजिवि उज्झियमोहमच्छरो ॥७॥ पुत्तेण तासु सावयवयाई गहियाइं छिण्णबहुभवभयाई। मेहरहें णिदिव मासतित्ति हित्ती सूयारहु तणिय वित्ति। आरुढु सुलु सो मुणिवरासु हा केम महारउ हित्तु गासु । वेहाविय बेण्णि वि बप्पपुत्त सवणेण जिणागमवहि णिउत्त। मारउ' मारिज्जइ णस्थि दोसु मणि एम जाम सो वहइ रोसु। गोयारि पइट्टउ ता सुधम्म सद्धालुउ छड्डियछम्मकम्मु। सूयारें पत्थिउ दिदि देहि परमेट्ठि साहु रिसि ठाहि ठाहि। ता थक्कु सूरि सचियमलेण पच्छण्णेण जि कुटुं खलेण। फरुसाइं विसाई सवक्कलाई करि दिण्णई घोसायइंफलाई। सिद्धई संभारविमीसियाई जइपुंगमेण संपासियाई। मेल्लियि अभक्ख तच्चावलोइ परदिण्णु वि' विसु भुंोत जोइ। " 10 नोट घता-सन्तुष्ट होकर उस पाकविज्ञानी को बारह गाँव का राजा बना दिया। (17) एक दिन सुधर्म नाम के मुनि ने राजा को सम्बोधित किया। मोह-मत्सर छोड़ते हुए उसने जैन दीक्षा स्वीकार कर ली। उसके पुत्र ने भी अनेक जन्मों के दुःखों को दूर करनेवाले श्रावक के व्रत स्वीकार कर लिये। पत्र मेघरध ने मांसतष्णा की निन्दा की और रसोइया की आजीविका छीन ली। वह दुष्ट अमृत-रसायन रसोइया मुनिराज से अप्रसन्न हो गया कि इसने किस प्रकार मेरे मुंह का कौर छीन लिया। इस श्रमण ने जिन धर्मपथ में दीक्षित कर बाप-बेटे को ठग लिया। मारनेवाले को मारना चाहिए, इसमें दोष नहीं है। जब वह अपने में इस प्रकार क्रोध कर रहा था कि इतने में श्रद्धामय और पापकर्मों से रहित सुधर्मा मुनि गोचर्या के लिए निकले। रसोइए ने प्रार्थना की-'दृष्टि दीजिए, परमेष्ठी साधु ऋषि मुनि ठहरिए।' इस पर मुनि टहर गये। तब संचितमलवाले प्रच्छन्न उस दुष्ट क्रोधी ने छिलके से युक्त कठोर विषाक्त तुमड़ी के पके हुए और धनिया (सम्हार) से मिले हुए फल उन्हें दिये। मुनिश्रेष्ठ ने उन्हें खा लिया। तत्त्व का अबलोकन करनेवाले योगी अभक्ष्य को छोड़कर दूसरे का दिया हुआ विष (विषेला भोज्य) भी खा लेते हैं। गिरनार पर्वत 13. बारहं। (17) I. A "यवसयाई भयभवाई। 2. B मारुउ । ४. Bएडिय। 1. 5 सन्वरकताई। 5. A घोसाईफलाई: Als धोसायइफलाई agstrust his Mos. h. AP विसभार। 7. B संपासिथाइ। 8. P चिसु वि। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 महाकपुप्फयंतविरयउ महापुराणु गठ उज्जतहु" संणासु करिवि अहमिंदु इंदु ज्वरिल्लठाणि रसपंडिउ तयइ परइ पडिउ काले "दुक्खणिक्खविउ 12 खामु इह मलयसि वित्थिष्णणीडि तहिं णिवसइ गहवइ जक्खदत्तु जायउ कोक्किउ जक्खाहिहाणु मुणि समभावें जिणु सरिवि मरिबि । संभूयउ अवराइयविमाणि । कम्मेण ण को भीमेण णडिउ । परयाउ विणिग्गउ" अमयणामु । विक्खाया गामि पलासकूडि । पिय जक्खदत्त सो ताहं पुत्तु । -अण्णेकु वि जक्खिलु सउलभाणु । पत्ता - गरुव णिद्दओ दुक्कियमागिओ । [89.17.14 राहु पपाशु तहिं जगि" जाणिओ ॥ 17 ॥ ( 18 ) दुबई - अण्णहिं दिणि दयालुपडिसेह कए वि सधवलु ढोइओ । सयो णिएण पहि जंतहु उदयहु उवरि चोइओ ॥७॥ फणि मुख हुउ सेयवियापुरीहि ' वासवपत्धिवहु वसुंधरीहि । रायाणियाहि गंदयस धूय कड़वणियतणुलायण्णरूम्' । भावरवयणें उवसंतभाऊ णिक्किउ णंदयसहि* पुत्तु जाउ । गिण्णामउ ओहच्छइ ण भति तें वासवतणयहि मणि अखति । 15 20 5 पर जाकर संन्यास ग्रहण कर तथा समभाव से जिन भगवान् का नाम लेकर और मृत्यु को प्राप्त होकर, अपराजित विमान के ऊपरी भाग में वे अहमेन्द्र इन्द्र हुए। वह रसपण्डित ( रसोइया) तीसरे नरक में गया। कर्म के द्वारा कौन नहीं नचाया जाता ? समय पूर्ण होने पर दुःख से पीड़ित और दुबला वह अमृत रसायन रसोइया नरक से निकला। यहाँ मलय देश में विस्तृत घरोंवाले पलाशकूट गाँव में यक्षदत्त नाम का गृहस्थ रहता था। उसकी यज्ञदत्ता नाम की प्रिया थी । वह (अमृत रसायन) उन दोनों का यक्ष नाम का पुत्र हुआ। उनके कुल में सूर्य के समान एक और यक्षिल नाम का पुत्र था। घत्ता - बड़ा भाई निर्दय और पाप को माननेवाला था। जबकि छोटा भाई दुनिया में दयालु समझा जाता था । ( 18 ) एक दिन दयालु लोगों के मना करने पर भी उस निर्दय ने बैल सहित अपनी गाड़ी रास्ते में जाते हुए सांप पर दौड़ा दी। साँप मरकर श्वेताविका नाम की नगरी में वासव नाम के राजा की रानी नन्दयशा की कन्या रूप में उत्पन्न हुआ जिसके शरीर के रूप और सौन्दर्य की कवि प्रशंसा करते हैं। अपने छोटे भाई कं समझाने पर उपशान्त भाव को धारण करनेवाला निरनुकम्प नन्दयशा का पुत्र हुआ। वहाँ निर्नाम बैठा B. P उज्जैऩहो । to, A सभायें । 11. 5 दुक्खु । 12. 13 णिवरवविय। 19. B विणग्गउ। 14 B मलह 15. APS गरुओ। 16. AS जगे; B जण । ( 18 ) 1. A डिसेवले । 2. P संयविमार 13. P धूव । 4. 5. S मिक्किनु । 6. P "जस पुत्तु। 7. B उहइच्छह in first hand and तुह इच्छछह in second hand: 5 ओइ Als. एहु अच्छ against Mss. 8 $ वासतणयहि, umits व Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89.19.51 | 183 10 महाकइपुष्फयंतविग्य पहापुराणु इय णिसुणिवि चल परिचत्त' फारु संसार अगा: सरी भार। छ बि णिवणंदण' पावज्ज लेवि थिय मिच्छासंजमु परिहरेवि । सौ संखु वि सहुं णिण्णामएण पहायउ मुणिवरदिक्खामएण। सुव्वय पणवेप्पिणु संजईउ जायउ णंदयसारेवईउ ए सत्त वि दढपडिबद्धपणय अपणहिं मि जम्मि महुं होंतु तणय। इय णदयसइ बद्ध णियाणु को णासइ विहिलिहियउं विहाणु । कालें जंतें सयलई मुयाई दहमइ दिवि अमरत्तणु गयाई। सोलहसमुद्दभुत्ताउयाई पुणु तहिं होतई सव्वई चुयाई। सो संखणामु बलएउ जाउ रोहिणिहि गभि जायवहं राउ। घत्ता-छुहधवलियधरि धणपरिपुण्णए । मयवइदेसइ णयरि दसण्णए" ॥१४॥ ( 19 ) दुवई-जाया देवसेणराएण सुरा धणएविगब्भए। सा गंदयस' पुत्ति देवइ णामेण पसिद्धिया जए ॥छ!! वरमलयदेसि पुरि भद्दिलंकि पासायतुंगि विलियकलंकि। धणरिद्धिवंतु तहिं वसइ सेष्टि वइसवणसरिसु णामें सुदिटि। रेवइ तहु सेट्ठिणि अलयणाम' हूई पीणत्यणि मज्झखाम। हुआ है, इसलिए वासव की कन्या में अशान्ति का भाव है। ___ यह सुनकर चंचल विशाल संसार असार शरीरभार छोड़कर, छहों ही राजपुत्र संन्यास लेकर, मिथ्या संयम को छोड़कर स्थित हो गये। निर्नाम के साथ शंख ने भी मुनिवर के दीक्षामृत में स्नान किया। सुब्रता नाम की आर्या को प्रणाम कर नन्दयशा और रेवती धाव भी आर्यिका बन गयी। 'दृढ़ प्रतिबद्ध प्रेमवाले ये सातों दूसरे जन्म में भी मेरे पुत्र हो।' नन्दयशा ने यह निदान किया। विधि के लिखित विधान को कौन नष्ट कर सकता है ? समय आने पर सब मृत्यु को प्राप्त हुए वे दसवें स्वर्ग में देव हुए। सोलह सागर आयु भोगने के बाद, फिर वे वहाँ से च्युत हुए। शंख बलदेव हुआ-रोहिणी के गर्भ से यादवों का राजा। पत्ता-सफेद घरों से युक्त धन से परिपूर्ण मृगावती देश के दशार्ण नगर में, (19) वह नन्दयशा देवसेन राजा की धनदेवी के गर्भ से पुत्री हुई, जो जग में देवकी नाम से प्रसिद्ध है। श्रेष्ठ मलय देश में भद्रित नाम की नगरी है, जो प्रासादों से ऊँची और कलंकों से रहित है। उसमें कुबेर के समान धन और ऋद्धि से सम्पन्न सुदृष्टि नाम का सेठ निवास करता है। रेवती उसकी अलका नाम की पीनस्तनी 9. A परिवत्तपारू। 10.5 सरीरु। 1.5 नृयणंदण : 12. A "परिबद्ध । 3. A दसई P दसमए। 14. Pदसण्णवे। (19) I. Pणंदजस । 2. A"पहिलदेसे । ५. Pणा। 4. B"खामु। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 184 ] महाकपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [89.19.6 छह तणुरुह देवइगब्भि जाय लक्खणलक्खिय ते चरमकाय दरिसियसज्जणसुहसंगमेण इंदाएसें णिय णडगमेण। वणिपरिणिहि अप्पिय भद्दणयरि कलहोयसिहरकोलंतनयरि। सिसु देवदत्तु पुणु देवपालु पुणु अणियदत्तु भुयबलविसालु । अण्णेक्कु वि पुत्तु अणीयपालु सत्तुहणु" जित्तसत्तु वि जसालु। जरमरणजम्मविणिवारणेण हूया रिसि केण वि कारणेण। पिंडत्थि' णयरि घरि घरि पइट्ट चिरभवतणुरुह पई माइ दिट्ठ। वियलियथणथपणे सित्त। देहु तें कज्जें तुह उप्पण्णु णेहु। पविल्लि जम्मि चलगरुड़केउ पेच्छवि सयंभु पहु" वासुदेउ । तवचरणजलणहुयकामएण बद्धउं णियाणु णिण्णामएण। 15 एही दावियवसुहद्धसिद्धि आगामि जम्मि महुँ होउ रिद्धि ! घत्ता-कप्पि सुरो हुउ धुउ किसलयभुए। रिसि णिण्णामउ आयण्णहि सुए ॥19॥ (20) दुवई-कंसकढोरकंठमुसुमूरणभुयबलदलियरिउरहो'। णिवजरसिंधगरुयजरतरुवरसरजालोलिहुयवहो' ॥छ॥ और कृशोदरी सेठानी हुई। देवकी के गर्भ से छह पुत्र उत्पन्न हुए। लक्षणों से लक्षित वे छहों चरम शरीरी हैं। सज्जनों के साथ शुभसंगम दिखानेवाले इन्द्र के आदेश से नैगम देवों के द्वारा उनका अपहरण किया गया और उन्हें, जिनके स्वर्णशिखरों पर विद्याधर क्रीड़ा करते हैं, ऐसे भद्रनगर में सेठ की पत्नी को सौंप दिया गया। शिशु देवदत्त फिर देवपाल । फिर विशालभुज अनीकपाल । और यश का आलय शत्रुघ्न और जितशत्रु। जरामरण और जन्म का निवारण करनेवाले वे किसी कारण से मुनि हो गये। आहार के लिए घर-घर में प्रवेश करते हए ये, हे आदरणीया ! तमने अपने पूर्वजन्म के पत्र देखे हैं। इसलिए झिरते स्तन से तम्हारी देह गीली हो गयी। और इसी कारण तुम्हारा स्नेह उत्पन्न हुआ। पूर्वजन्म में चंचल गरुड़ध्वजवाले राजा स्वयम्भू वासुदेव को देखकर, तप को ज्वाला में काम को आहत करनेवाले निर्नाम ने यह निदान बाँधा था कि सुभद्र सिद्धि को दरसानेवाली ऐसी ऋद्धि आगामी जन्म में मेरी हो। __घत्ता-हे किशलय बाहुघाली पुत्री ! सुनो, वह कल्पस्वर्ग में उत्पन्न हुआ, वहाँ से च्युत होकर वह निनामक मुनि हुआ है। (20) जिसने कंस के कठोर कण्ठ को मसलनेवाले भुजबल से शत्रुओं को दलित कर दिया है, तथा राजा जरासन्ध १. ] भागरि। 5. B सहारे। 7. । भुयबलि। 8. P सत्तुहण । 9. B पित्याए पुरि घरि। 10. Pघणयणे। II. ABS सित्तु।।2. ABS पुबिल्ल 1 13. A णिच्छेचि 5 पच्छेचि। 11. A सयपहु: B सरभु S सईयू । 15. P वासुएउ। 16. B Als. कप्पसुरो। (20) 1. PS 'कटोर'। 2. PS जरसेंघ13. Bणरुब'। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 89.20.13 | महाकाइपुप्फयंतबिरयउ महापुराणु [ 185 5 भीसणपूयणघणरत्तलित्तु घरु आय कायवहणेक्कचित्तु । उत्तुंगतुरंगमसिरकयंतु जमलज्जुणभंजणमहिमहंतु। उप्पाडियमायावसहसिंगु णित्तेईकयखयदिणपयंगु'। उड्डावियजउणासरविहंगु करतिक्खणक्खणत्यियभुयंगु। धोरेउ धराधरधरणबाहु कमलावल्लहु सिरिकमलणाहु। तुह जायउ तणुरुहु रिउविरामु पारायणु णवघणभसलसामु । तं णिसुणिवि सीसें देवईइ गुरु वंदिउ सुविसुद्धइ मईई। केहि मि लइयाई महव्ययाइं तहि केहिं मि पंचाणुव्बयाई । भो साहु साहु विच्छिण्णकम्म जिणु णेमि भणिज पच्छष्णधम्म । यत्ता-इय सोउं कहं भरहसुरमणिया" णिसहा पहसिया सुकुसुमदसणिया" ॥20॥ इय महापुराणे तिसद्विमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुष्फयंतविरइए महाभब्दभरहाणुमण्णिए महाकव्वे देवइयलएवसभायरदामोयर भवावलिबष्णणं णाम एक्कूणणवदिमो परिच्छेउ समतो 189॥ के भारी वृद्ध वृक्षरूपी तीर जाल के लिए हुताशन है, ऐसा भयंकर एवं पूतना के स्तनरक्त से लिप्त तथा वध में एकमात्र चित्त रखनेवाला वह घर आया है। उत्तम अश्वों के सिरों के लिए कृतान्त, यमलार्जुन के वध से मही में महान्, मायावी वृषभ के सींग उखाड़नेवाला, प्रलयकाल के सूर्य को निस्तेज कर देनेवाला, यमुना सर के पक्षियों को उड़ानेवाला, अपने पैने नखों से साँप को नाथनेवाला, पर्वत के भार को उटानेवाला, लक्ष्मीपति, पद्मनाभ, शत्रु को विराम देनेवाला, नये मेघ और भ्रमर की तरह श्याम नारायण तुम्हारा पुत्र हआ। यह सनकर देवकी ने सविशद्ध मति से गरु को सिर से प्रणाम किया। किसी ने महाव्रत लिये, किसी ने वहाँ पर पाँच अणुव्रत लिये। स्थित धर्मरूप नेमिराज के द्वारा कथित, काम को नष्ट करनेवाला साक्षात्धर्म ठीक है, ठीक है। धत्ता-इस प्रकार भरत के कुल में तथा कौरव वंश में उत्पन्न देवकी और नृपसभा कया सुनकर फूलों के समान अपने दाँतों से हँस पड़ी। इस तरह त्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त, महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महाभष्य भरत द्वारा अनुमत महाकाष्य का देवकी बलदेव और भाई सहित दामोदर-भवापती-वर्णन नाम का नवासीयों परिच्छेद समाप्त हुआ। 4. A "पहणेक्क'"बहणेक्क" । 5. AS उत्तुंग तुरंगासुरकयंत; P उत्तुंगतुरंगासुरकर्यतु। 6. "वसहिसंगु। 7. णित्तेइयकम"। णित्तेकय । B. A 'वल्लहो। 9. Pघणघणः। 10. S पापणु धम्मु। 11. H भारह 1 12. A णिसह। 13. P कुसुम {omits सु)। 14. A "सभापरवणणं। 15.5 "भवायली। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 ] महाकइपुष्पयंतविरयउ महापुराणु [90.1.1 णवदिमो संधि णिसुणिवि देवइदेविहि भवइं पाय' णवेप्पिणु णेमिहि। हरिकरिसररुहगरुडद्धयहु धम्मचक्कवरणेमिहि ॥ ध्रुवकं ॥ दुवई-तो' सोहग्गरूवसोहावहि गुणमणिमहि महासई। पभणइ सच्चभाम' मुणिपुंगम भणु मह जम्मसंतई ॥छ। भासइ गणहरु बियसियतरुवरि' मालइगधि मलयदेसंतरि। भद्दिलपुरि मेहरहु णरेसरु सूहउ णं पंचमु मणसियसरु। णंदादेवि चंदबिंबाणण णहपहरंजियदिच्चक्काणण। अवरु वि भूइसम्मु तहिं बंभणु कमलाबंभणिथणलोलिरमणु । णंदणु णाम मुंडसालायणु अइकामुय' कामियबालायणु" । जणि जायइ' चुयचारुविवेयइ सीयलणाहतिथि वोच्छेयइ। तेण जिणिंदवयणु विद्धसिवि । गाइभूमिदाणाई पसंसिवि। कव्वु करिवि रायहु वक्खाणिउं मूढे राएं अण्णु ण याणिउँ। नम्वेवीं सन्धि देवकी देवी के भवों को सुनकर तथा मालामृगेन्द्रादि ध्वजाओं से युक्त धर्मचक्र के उत्तम आरा स्वरूप नेमिनाथ के चरणों में प्रणाम कर, सौभाग्यरूपा और शोभा की सीमा, गुणरूपी मणियों की भूमि महासती सत्यभामा कहती है-“हे मुनिश्रेष्ठ ! मेरी जन्मपरम्परा कहिए। गणधर कहते हैं कि विकसित वृक्षवाले और मालती से सुगन्धित मलयदेश में भद्रिलपुर में मेघरथ नाम का राजा था, जो इतना सुन्दर था, मानो पाँचवाँ कामदेव हो। उसकी चन्द्रमुखी पत्नी नन्दादेवी थी, जिसकी नखप्रभा से दिशाओं के मुख आलोकित थे। एक और वहाँ भूतिशर्मा नाम का ब्राह्मण था जो अपनी ब्राह्मणी कमला के स्तनों का लम्पट और रमण करनेवाला था। उनका मुण्डशालायन नाम का, बालाओं को चाहनेवाला अत्यन्त कामुक पुत्र था। तीर्थंकर शीतलनाथ के तीर्थ के उच्छिन्न होने पर लोगों का सुन्दर विवेक नष्ट हो चुका था। उसने भी जिनेन्द्र-वचनों का खण्डन करने तथा गौ और भूमि के दान की प्रशंसा करने के लिए काव्य (शास्त्र) की रचना कर राजा के पास उसकी व्याख्या की। उस मूर्ख राजा ने और किसी (1) 1. ABPS पय पणतेप्पिणु । 2.5"कररूह | 3. A धम्मचक्कु । 4. B ता। 5. AHP सच्चहाय। 6. B"पुंगव in second hand. 7. Pविहसिय। 8. 5 भद्दलपुरे। 9. APS "कामुर। 10. B कमीयालोषणु। 11. S जाए। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 90.2.10] महाकइपुष्फयंतविरया महापुराण [ 187 कि किज्जइ घोरें तवचरणे किं परिंद संणासणमरणें। विप्महं वाहणु णयणाणंदिरु देज्जइ कण्ण सुवष्ण' सुमंदिरु । घत्ता--मंचउ सहुँ महिलइ मणहरइ रयणविहूसणु णिवसणु। ___जो ढोवई धम्में बंभणहं मेइणि मेल्लिवि सासणु ॥ (2) दुवई-वीर वि णर तसति घरदासि व णिवसइ गोमिणी घरे। तस्स परिदचंद किं बहुएं होइ सुहं भवंतरे ॥छ॥ केसालुंचणु णिच्चेलतणु णग्गत्तणु तणुमलमइलत्तणु । माणुसु 'समणधम्म विगुत्त मरइ परत्तपिस अम्हारइ महयालि' महु पिज्जइ सिद्धउं मिट्ठउं मासु गसिज्जइ। अम्हारइ णिव वियलियमइरइ होइ सग्गु सउयामणिमइरई'। अम्हारइ गोसउ विरइज्जइ जणणि वि बहिणि वि तहिं जि रमिज्जइ। धम्मु परिट्विउ वेयपमाणे किं किर खवणएण अण्णाणे कंताणेहणिबंधणबद्धउ जीहोवस्थासत्तिई खद्धउ। जडु धुत्तागमकरणे णडियउ सत्तमणरइ डोड्दु" सो पडियउ। 10 धर्म को जानने का प्रयास नहीं किया। घोर तपश्चरण करने से क्या, हे राजन् ! संन्यास-मरण से क्या ? ब्राह्मणों को नयनाभिराम वाहन, कन्या, स्वर्ण और सुन्दर घर देना चाहिए। पत्ता-सुन्दर महिला के साथ, जो पलंग, रत्नाभूषण और निवास-गृह धर्म (-बुद्धि) से ब्राह्मण को देता है, अपनी भूमि और शासन को छोड़कर, उससे वीर लोग भी त्रस्त होते (डरते) हैं और लक्ष्मी गृहदासी के समान घर में रहती है। हे राजन् ! बहुत कहने से क्या, उसे दूसरे जन्म में भी सुख होता है। केशलोंच करना, निर्वसनता, दिगम्बरत्व और शरीर को मैला रखना-इस प्रकार श्रमणधर्म से फजीते में पड़ा हुआ तथा परलोक के पिशाच से खाया जाकर मनुष्य मरता है। हमारे यज्ञ के समय मधुपान किया जाता है। पका हुआ मीठा मांस खाया जाता है। हे राजन् ! जिसमें बुद्धिरूपी पाप नष्ट हो गया है, ऐसे हमारे सौदामिनी यज्ञ की मदिरा से स्वर्ग मिलता है। हमारा गौयज्ञ करना चाहिए, उसमें माँ और बहिन से भी रमण करना चाहिए; वेद के प्रमाण से ही धर्म प्रतिष्ठित है, अज्ञानी क्षपणकों (श्रमणों) से क्या ? इस प्रकार कान्ता-स्नेह-निबन्ध से बँधा हुआ तथा जीम और उपस्थ (गुप्तांग) की शक्ति से खाया गया तथा धूर्तशास्त्र की रचना से प्रतारित वह वज्रमूर्ख सातवें नरक गया। एक लम्बा समयचक्र बीतने पर वह क्रम से दूसरे छह नरकों (भी) में घूमा। फिर तिर्यंच गति 12. सुयण्णु। 15. P समंदिरु। 14. PS रयणु।।5. 5 ढोयइ। (2)1. B समणु। 2. P धम्मु । 3. "विगुत्तउं। 4. AP महालि; महयाले; AI5. पहयलि । 5. APS मासु वि खजइ। 5.5 नृव । 7. सउपामिणि । #. 5 गोसवु विरज्जह । 9. P पि thr जि। 14. AB डीडु। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1881 [90,2.1] महाकइपुष्फयंतविरयड महापुराणु दीहरकालचक्कि णिद्धाडिइ इयर वि छ बि हिंडिउ परिवाडिइ। पुणु तिरिक्खुि पुणु णरइ णिहम्मई। को दुक्खाई ण पावइ दुम्मइ। विमलगंधमायणगिरिणिग्गय" जलकल्लोलगलत्थियदिग्गय। णीरपूरपूरियमहिहरदरि गंधावइ णामेण महासरि। ताहि तीरि णं दुक्कियवेल्लिहि पसुअसुहरभल्लंकियपल्लिहि । सो सालायणु भवविब्भुल्लउ कालु णाम जायउ सकरुल्लउ। यत्ता-वर धम्मरिसिहि णिसुणेवि गिर मासाहारु मुएप्पिणु' । वेयडि "पवरजलयाउरिहि खेयरु हुयउ मरेप्पिणु" ॥2॥ 15 दुवई-पुरुबलपस्थिवस्स' जुइमालाबालाललियतणुरुहो। ___ सो वि अणंतवीरकहियामलतवणिरओ महाबुहो ॥छ॥ मरिवि दव्वसंजउ रिसि अइबलु सुरु सोहम्मि लहिवि जिणवयहलु। खगमहिहरि रहणेउरपुरवरि पहुहि- सुकेउहि णहयरकुलहरि। पुत्ति सयंपहाहि संभूई सच्चभाम णं कामविहूई। मित्तियणरेहि तुहुं दिट्ठी एही वत्त गरिंदहु सिट्टी। पुत्ति तुहारी सिय माणेसइ अद्धचक्कवट्टिहि पिय होसइ। 5 में और नरक में गया। दुर्मति कौन दुःख प्राप्त नहीं करता है ? विमल गन्धमादन पर्वत से निकली हुई गन्धावती नाम की महानदी है; जिसने जल की लहरों से दिग्गजों को हटा दिया है, जलों के पूर से पर्वतों की घाटियों को भर दिया है। उसके किनारे पर मानो दुष्कृत की बेल के समान पशुओं के प्राणों का हरण करनेवाले भीलों की बस्ती में वह शालायन ब्राह्मण जन्म से विह्वल कालू नाम का भील हुआ। __ घत्ता-श्रेष्ठ धर्ममुनि की वाणी सुनकर तथा मांसाहार छोड़कर और मरकर वह विजयार्ध पर्वत की अलकापुरी नगरी में विद्याधर हुआ। महाबल राजा की पत्नी ज्योतिर्माला नाम की स्त्री का एक अत्यन्त सुन्दर पुत्र था। वह महापण्डित भी अनन्तवीर्य मुनि के द्वारा कहे गये तप में निरत हो गया। वह द्रव्यसंयमी अतिबल मुनि मरकर जिनव्रत का फल पाकर सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। फिर वह विजयार्ध पर्वत के रथनूपुर नगर में राजा सुकेतु के विद्याधरकुल में स्वयंप्रभा से पुत्री उत्पन्न हुआ जो सत्यभामा नाम से मानो काम की विभूति हुई। निमित्तशास्त्र जाननेवालों ने तुझे देखा और राजा से यह बात कही कि तुम्हारी पुत्री लक्ष्मी का भोग करेगी और अर्धचक्रवर्ती की एप्पिणु। 1.A माणि। 12. 5 महिकार।।9. भल्लंकी । 14.5 सा साला ।।5. B मुएविणु। 16. A पउर। 11. (3)1.A पुरबल"। 2. B पुहुहि। 3. ABP मत्त्वहाम। 4. Sणेमिय°। 5. P तुम्हारी। 6.5 सृय। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90.4.6] महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [ 189 10 परिणिय राएं जायवचंदें णायसेज्ज चप्पिवि गोविदें। एवहिं मुक्की बहुभवकम्में महएवित्तणु लद्ध धम्में। महुँ केहाई देव' कयछम्मई पभणई रुप्पिणि भणु भणु जम्मई। कहइ मुणीसह इह दीवंतरि भरहवरिसि मागहदेसंतरि। सामरिगामि विप्पु सोमिल्लउ लच्छीमइहि कंतु रिद्धिल्लउ। तह सा बंमणि दप्पणु जोवइ" घुसिणपंकु मुहि मंडणु ढोबइ। ताम समाहिगुत्तपडिबिंबउं अद्दइ दिट्टउं मुक्कविडंबउँ"। घत्ता-पुव्वक्कयकम्मविहिण्णमइ भणइ लच्छि' उभेवि करु । जिल्लज्जु" अमंगलु विट्टलउ किह आयउ मेरी घरु ॥3॥ दुवइ-खरसूयरसमाणु दुग्गंधु दुरासउ दुक्खभायणो। किह मई देिछु' एहु मलमइलिउ भिक्खाहारभोयणो ॥छ।। दप्पिट्टहि टुट्ठहि णिक्किट्ठहि एम चवंतिहि तहि गुणभट्टहि। मच्छियमिट्ठइ' सुटु अणिहि अंगु विणउ उंबरकुट्टइ। तक्खणि सडियई रोमई णक्खई भग्गइं णासावंसकडक्खई। परिगलियउ बीस वि अंगुलियउ तणुलायण्णवण्णु खणि ढलियउ। प्रिया बनेगी। यादयचन्द्र कृष्ण ने नागशय्या में चौंपकर उससे विवाह कर लिया। इस समय तुम बहुत से कर्मों से मुक्त हुई हो और धर्म से तुमने महादेवी के पद को पा लिया। तब रुक्मणी कहती है-“हे देव ! कपट से भरे मेरे जन्म कैसे हैं ? बताइए, बताइए।" मुनीश्वर कहते हैं-इस द्वीप में भरतवर्ष के मगधदेश में सामर ग्राम में सौमित्र ब्राह्मण है। ऋद्धि से सम्पन्न वह लक्ष्मीमती का पति है। उसकी वह ब्राह्मणी एक दिन दर्पण देख रही थी और केशर का लेप अपने मुख पर लगा रही थी। इतने में काम से रहित समाधिगुप्त मुनि का प्रतिबिम्ब उसे दर्पण में दिखाई दिया। ___घत्ता-पूर्वजन्म में किये गये कर्म से विभिन्नमति वह लक्ष्मी अपने दोनों हाथ उठकर कहती है-"निर्लज्ज अमंगलकारी नीच यह मेरे घर क्यों आया ? गधे और सुअर के समान दुर्गन्धवाला, खोटी नियतवाला, दुःख का पात्र, मति से मैला, भीख का आहार खानेवाला, यह मैंने क्यों देखा ? इस प्रकार कहते हुए दर्प से भरी हुई दुष्ट, नीच, अनिष्ट और गुण-भ्रष्ट उसका शरीर उम्बरकोढ़ से नष्ट हो गया। उसी समय उसके रोम और नख सड़ गये। नाक की हड्डी और कटाक्ष नष्ट हो गये। उसकी बीसों अँगुलियाँ गल गयीं। शरीर का सौन्दर्य और रंग भी ढल गया। शरीर 7. देवि कयकम्पई। ६ पहणइ। 8. B रूपिगि1 ५. मुणीरु। 10. सोमरि । 11. AS जोयाः। 12. AS ढोयई। 19. P"गुत्तु। 11. विदिउ। 15. P बाल । [A. 12 करि। 17.5 णिलज्जु । 18. B मेराए परि। (4)1. AP दुख दिटु मन । 2. B एउ। 3. अति ितिहिं। 1.A मन्उिपसिद्धाहे । 5. P°लाय : Sलायपणु। 6. *वणु। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T 190 ] महाकइपुष्कर्यतविरयउ महापुराणु रुहिरपूयकिमिपुंजकरंडउ पावयम्म पुरिलोए तज्जिय जणि भिक्ख वि मग्गति ण पावइ भरणु भ्रष्णु हि रामि णियवरइत्तहु मंदिर सुंदरि धाइय रमणहु उवरि सणेहें घल्लिय अच्छोडिवि घरपंगणि" मुय तहिं पुणु गद्दहजम्मंतरु पुव्वभासें णयणपियारजं चंडदंडसिलघाएं ताखिउ अवडि पडिउ " मुख सूवरु" जायउ घत्ता -- सो खंडिवि पउलिवि घइ तलिवेि देहु परिट्टिउ मासहु पिंडउ' । बंधवयणभत्तारविवज्जिय" । पाविहं को वण्णs आवइ । मुय सा सुण्णालइ पइसेप्पिणु" । हूई दीहदेह" छुच्छंदरि । तेण वि सभयचमक्कियदेहें " । अंगरुहिरु उच्छलिउं हंगणि भुत ं भीसणु दुक्खु निरंतरु | घरु आवंतु सणाहहु केर ं । गद्दहु बहुवएहिं" विद्धंसिउ । पेक्खिवि थोरमाससंघायउ । 4 संभारंभ सिंचिवि । खद्धउ जीहिंदिवलुद्ध हिं" लोइहिं" लुंचिवि" लुचिवि ॥4॥ (5) दुबई -- मंदिरणामगामि मंडुक्किहि "मच्छधिणिहि हूइया । सूयरु मरिवि पुत्ति दुग्गंध णू णामेण पूइया ॥ छ ॥ [ 90.4.7 10 15 रक्त, पीप और कीड़ों का पिण्ड बनकर मांस का पिण्ड रह गया। उस पापशीला का नगर के लोगों ने तिरस्कार किया। वह भाई, बन्धु और पति के द्वारा छोड़ दी गयी। लोगों से भीख माँगने लगी, लेकिन वह भी उसे नहीं मिलती थी। पापियों की आपत्ति का कौन वर्णन कर सकता है ? अपने हृदय में भोजन और धन का स्मरण करती हुई वह एक सूने घर में घुसकर मर गयी और अपने ही पति के सुन्दर घर में छहूँन्दर हुई । वह स्नेह से अपने पति के ऊपर दौड़ी। भय से चौंकते हुए शरीरवाले उसने भी घायल कर उसे घर के बाहर फेंक दिया। उसके शरीर का खून आकाश में उछल रहा था । वहाँ से मरकर, उसने पुनः गधे के जन्म में निरन्तर भीषण दुःख उठाया। अपने पूर्व अभ्यास से अपने पति के सुन्दर घर आते हुए उस गधे की बहुत से छात्रों ने डण्डे और पत्थरों के प्रचण्ड आघातों से त्रस्त कर दुर्दशा कर डाली। तब कुँए में गिरकर वह मर गया और सुअर हुआ। उस स्थूल मांस का समूह देखकर - घत्ता - उसके टुकड़े-टुकड़े कर पकाकर, घी में तलकर, सम्भार के जल में बघारकर, जीभ के लोभी लोगों ने लोंच-लोंचकर उसे खा लिया। (5) वह सुअर मरकर, मन्दिर नाम के गाँव में मण्डूकी मछियारिन की अत्यन्त दुर्गन्धित शरीरवाली पूतिका TS चंडच । 8. APS पुरलोएं 10. P बंधवजण | 10 APS सुचयरेपिणु। 11. 5 पएसेम्पिष्णु। 12. P देडदेह । 13. P5 चक्किया । 14.3P पंगे। 15. APS 16. AP गय for पुणु। 17. AP बहुयएहिं : IK. P उडिउ 19 APS सूयरु 120. AP तलिय 21 APK "लुद्धएण: B लुद्धयहिं 22. APS लोएड एहिं । 23. P चिनि once. (5) 1.5 गामणा। 2. Somits यधिणिहि । १. H सूअर । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90.6.4 ] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु मायइ मइयइ मायामहियइ बप्पु ताहि कहिं जीवइ पावहि विदिगिच्छासरितीरि" अहिहिहि चिरु दप्पणि' दिट्ठहु तहु संतहु दंसमलय णिवडंत णिवारइ दुरियतिमिरहर णासियबहुभव संजमभाऊ" वहंत संत तासु किलेसु असेसु वि णासइ पालियकरुणाभावें" सहियइ । बहुदालिदुक्खसंतावहि । मुणिहि समाहिगुत्तपरमेडिहि । पडिमाजोवठियहु भयवंतहु । चेलंचलपवणेणोसारइ । मलइ चलण" कोमलकरपल्लव | जेण चाडु विरइउं गुणवंतहं । रविउग्गमणि धम्मु रिसि भासइ । घत्ता - तुहुं "पुत्ति जीवहं करहि दय मज्जु मासु महु वज्जहि । दुज्जयबल" पंचिंदिव जिणिवि जिणु" मणसुद्धि पुज्जहि ॥5॥ (6) दुबई- ई - इव धम्मक्खराई आयण्णिवि मणिवि ताइ कण्णए । अवयगुणव्ययाई 'पडिवण्ण उवसमरसपसण्णए ॥ छ ॥ मुणिपायारविंदु' सेवंतिहि णियजम्मतराई णिसुणंतिहि । 'भोयदेहसंसारविहेयउ हिउल्लइ वडिउ णिब्वेयउ | [ 191 5 10 नाम की पुत्री हुआ। माँ के मर जाने पर, स्नेहमयी आजी न करुणाभाव से उसका पालन-पोषण किया। बहुत दारिद्र्य और दुःख से सन्तप्त उस पापिनी का पिता भी कहाँ जी सकता था ? विदिगिच्छा नदी के किनारे विराजमान ऐश्वर्यसम्पन्न महामुनि परमेष्ठी समाधिगुप्त प्रतिमायोग में स्थित थे, जिनको उसने पहले दर्पण में देखा था। वह उनके शरीर पर आते हुए डॉस-मच्छरों का अपने वस्त्र के अंचल की हवा से निवारण करती है, और उनके पापरूपी अन्धकार को नष्ट करनेवाले चरणों को कोमल हस्त- पल्लव से मलती है। इस प्रकार संयम के भार को वहन करते हुए गुणवान् महामुनि की उसने सेवा की। उनका समस्त क्लेश दूर हो गया। सूर्योदय होने पर महामुनि ने उसे धर्म का उपदेश दिया । जन्म घत्ता - " हे पुत्री ! तू जीवों की दया कर, मद्य, मांस और मधु का त्याग कर अजेयबलवाली पाँचों इन्द्रियों को जीतकर शुद्धमन से जिन की पूजा कर।" (6) इस प्रकार धर्म के अक्षरों को सुनकर और उन्हें मानकर उपशमभाव से प्रसन्न उस कन्या ने अणुव्रत और गुणव्रत स्वीकार कर लिये। मुनि के चरण कमलों की सेवा करते हुए और अपने जन्मान्तरों को सुनते हुए उसके हृदय में भोग, देह और संसार सम्बन्धों से निर्वेद उत्पन्न हो गया। एक गाँव से दूसरे गाँव जाते 1. A मायासहिय। 5. Prभाया। 6. 3 जीवहि 7. A विदिगिंछा B विजिगिछा PS विजिनिका R. P°मरे । 9 A दप्पणु। 10. APS रण ।। 5 संजमसारु महंतु वहतह 11 संजमसारू वहंतु वहंत PAls संजमभार महंतु यहं । 12. 135 पुत्तिय 15. Pomits 'बल" 14. Somits जिणु । (G) 1. Somits मणिवि। 2. Somits परिवण्णई। 3. 11 रससंपुष्णइए 14. विंद। 5. B विदेहर Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1921 पहाकइपष्फयंतविस्यउ महापुराणु [90.6.5 गामा गामंतरु हिंडतिहि अज्जियाहिं सहुँ जिण वंदतिहि । गयइ कालि जरकंथाधारणि पासुयपाणाहारविहारिणि । सिट्टसिझुणिट्ठाइ सुणिट्ठिय व चरति गिरिविवरि परिट्टिय। पब्चि पव्वि उववासु करती दुक्कियाई घोराई हरंती। अण्णइ बालइ वालवयंसिय पुण्णवंत तुहं भणिवि पसंसिय। अणसणु 'करिवि तेत्यु मुणिमंतिणि हूई अच्चुइंदसीमतिणि। पणपण्णासपल्लथिरदेही रूवें जोव्वणेण सा जेही। तिहुयणि अण्ण' ण दीसइ तेही तं वणंती कइमइ केही। घावधि वियरमदास कुंडलपुरि वासवरायहु सइसिरिमइउरि। आसि कालि जा होती" बंभणि सा तुहं एवहुं हूई रुप्पिणि। घत्ता-कोसलपुरि भेसहु पुहइवई म६ि तासु पिव' गेहिणि । सोहग्गभवणचूडामणि व णं सिसिरयरहु रोहिणि ॥6॥ 15 दुवई-जायउ ताहं बिहिं मि सिसुपालु' कयाहियकंदभोयणो। पसरियखरपयाय' मत्तंडु व चंडबहु' तिलोयणो ॥छ।। हुए आर्यिकाओं के साथ जिनदेव की वन्दना करते हुए फटी कन्या (कथरी, गुदड़ी) धारण करनेवाली प्रासुक पान और आहार के साथ विहार करनेवाली, मुनियों द्वारा कथित निष्ठा में लीन वह व्रतों का आचरण करती हुई पर्वत-गुफा में प्रविष्ट हुई। प्रत्येक पर्व पर उपवास करती हुई और घोर पापों को नष्ट करती हुई, दूसरी बाल सखी के द्वारा 'तुम पुण्यवान हो'-यह कहकर प्रशंसित हुई। वहाँ पर उपवास करके एवं पंच णमोकार मन्त्र के साथ मरकर अच्युतेन्द्र स्वर्ग में इन्द्राणी हुई। पचास पल्यों तक स्थिर शरीरवाली वह शरीर और रूप में जैसी थी, वैसी दूसरी त्रिभुवन में भी दिखाई नहीं देती थी। उसका वर्णन करनेवाली कविमति भी वैसी है ? वहाँ से च्युत होकर विदर्भ देश के कुण्डलपुर में वासवराजा की सती श्रीमती के उर से उत्पन्न, पूर्व काल में जो ब्राह्मणी थी, वह इस समय तुम रुक्मणी हुई हो। ___घत्ता-कोशलपुर में राजा भीष्मक है। मी उसकी प्रिय गृहिणी है। सौभाग्यभवन की चूडामणि वह ऐसी जान पड़ती है मानो चन्द्रमा की रोहिणी हो। उन दोनों के शत्रुरूपी कन्द का भोजन करनेवाला, सूर्य के समान प्रखर प्रतापवाला और प्रचण्डों का वध TAII' बउ:7.A तेन्यु करेमि । *. S सा हजी। १. दीसह अण्ण पण। 19. Bहोति। 11. S प्रिय। ()। ।। सिराधालु। 2. "पयाउ: 5 पनाचु । 9. B बंड्ययहः चंड पडू । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90.7.16] महाकइपुण्फयंतविरयज महापुराणु [ 193 - 5 - अपणहिं दिणि' णेमित्तिउ भासइ जे दिवें तइयच्छि पणासई। तहु हत्येण मरण पावेसइ मद्दीसुउ जमपुर जाएसइ। तं सुइविरसु वयणु णिसुणेप्पिणु मायापियरई तणउ लएप्पिणु । सहसा संगयाई दारावइ दिट्ठउ हरि सिरिकयमारावइ। तहसणि भालयलुवरिष्ठ बालहु तइयां णयणु पणट्ठउं। जाणिउं तक्खणि मायाताएं पुत्तु मरेसइ महुमहराएं। भद्दिउ वारवार ओलग्गिवि पत्थिउ "मदिइ पायहिं लग्गिवि। महुं तणुरुहहु रइयसुहिडाहहं पइं खमयव्यङ सऊं अवराहह। तं पडिवण्णउं कण्हें मणहरु ताई गवाई पुणु वि णियपुरकरु। वइरिहि सउं अवराहहं पुण्णउं विसहिउँ" हरिणा मद्दिहि दिण्णउं। सो णिहणियि तुहं परिणिय कण्हें आणिय दारावइ जसतण्हें । तं णिसुणिवि मुणिवरकुल' दिलं अप्पुणु" देविइ पुणु पुणु णिदिउ । घत्ता-ता जंबवइ मंसियउ पुच्छिउ भावें मुणिवरु। आहासइ जलहरगहिरसरु णिसुणहि सुइ” सभवंतरु ॥7॥ 10 - 15 करनेवाला शिव के समान शिशुपाल राजा नाम का पुत्र हुआ। एक दिन निमित्तशास्त्री कहता है-"जिसके देखने से तीसरी आँख मिट जाती है, उसके हाथ से मृत्यु को प्राप्त होगा और यह मद्रीपुत्र शिशुपाल यमपुर को जाएगा।" कानों को अप्रिय लगनेवाले इन शब्दों को सुनकर, माता-पिता पुत्र को लेकर शीघ्र द्वारावती गये और लक्ष्मी से काम को आपत्ति पैदा करनेवाले हरि से भेंट की। उनके देखने से बालक के भालतल पर स्थित तीसरा नेत्र मिट गया। माता-पिता ने उसी समय जान लिया कि कृष्ण के आधात से पुत्र की मृत्यु होगी। कृष्ण की बार-बार सेवा कर माद्री ने पैरों पर पड़कर प्रार्थना की कि सुधियों को ईर्ष्या उत्पन्न करनेवाले मेरे पुत्र के तुम सौ अपराध क्षमा कर देना। यह सुन्दर बात कृष्ण ने स्वीकार कर ली। वे लोग पुनः अपने घर चले गये। शत्रु के सौ अपराध पूरे हो गये; जैसा कि श्रीकृष्ण ने हँसते हुए माद्री से कहा था-उसको मारकर तूने कन्या का पाणिग्रहण किया। यश के लोभी तुम उसे द्वारावती ले आये। यह सुनकर उसने मुनिसंघ की वन्दना की और देवी ने बार-बार अपनी निन्दा की। ___ घत्ता-तब जाम्बवती ने नमस्कार किया और भावपूर्वक मुनिराज से पूछा । मेघ के समान गम्भीर स्वरवाले वे कहते हैं-हे पुत्री ! अपने जन्मान्तर सुनो। 1.8 दिणिहि णिपित्तिः। 5. AP विणासह। 6. AS जमपुरे जमतरु। 7.5 सुप्पिणु। 8. B वरिहि । 9. महए। 10. पणउं। 11. विहिथि । 12. AP कय पहएवि पेम्जललहें। 13. P"कुल। 11.A अप्पउं: P5 अप्पणु। 15. PAIs. जंगबइए। 16. पुणिवरु माये। 17. B सड़। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 | महाकइपुष्फयतविश्वर महापुराणु 190.8.1 दुवई-जंबूणामदीवि 'पुब्बिल्लविदेहइ पुक्खलावई । देसु असेसदेसलच्छीहरु पसमियमाणवावई ॥छ॥ वीयसीयपुरि दमयहु वणियहु देवमई ति घरिणि धणधणियहु। देखिल सुय सहमित्तहु दिण्णी पइमरणेण भोयणिबिण्णी'। मुणि जिणदेउ णाम आसंघिउ वम्महु ताइ तवेणवलंघिउ । गुरुचरणारविंदु "सुमरेप्यिणु कालि पउण्णइ तेत्यु मरेष्यिणु । देवय णवपल्लवपाययणि उप्पण्णी मंदरणंदणवणि। तहि भुजतिहि सोक्खु सहरिसहं चउरासीसहास गय परिसहं। पुणु महुसेणबंधुवइणामह तुहं हूई सि पुत्ति सुहकामहं। बंधुजसंक विहियजिणसेवहु अवर धूय सुंदरि जिणदेवहु। सा जिणयत्त णाम विक्खाई तुज्झु वयंसुल्लिय' पिय' हूई। जिणकमकमलजुयलगयमइयउ बेण्णि वि संणासेण जि मुइयउ । पढमसग्गि तुहं देवि कुबेरहुं चिरसंचियसकम्मसुंदेरहु।। पुणु वि पुंडरिकिणिपुरि तरुणिहि वज्जें वणिएं सुष्पहरिणि । जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में पुष्कलावती देश है। उसमें अशेष (सम्पूर्ण) देश की लक्ष्मी को धारण करनेवाले तथा मानवी आपत्तियों को शान्त करनेवाले वीतशोक नामक नगर में दमनक नामक धन से सम्पन्न वणिक की देवमती नाम की गृहिणी थी। उसकी पुत्री देबिल सौमित्र को दी गयी थी, जो पति की मृत्यु हो जाने से भोगों से विरक्त हो गयी थी। वह मुनि जिनदेव की शरण में गयी। उनके तप के प्रभाव ने कामदेव को भी अतिक्रान्त कर दिया था। गुरु के चरणकमल की चाद कर, समय पूरा होने पर, वहाँ से मरकर वह नव पल्लवोंवाले वृक्षों से सघन सुमेरुपर्वत के नन्दनवन में उत्पन्न हुई। वहाँ सुख भोगते हुए उसके हर्षपूर्वक चौरासी हजार वर्ष बीत गये। फिर तुम शुभकामवाली मधुसेन और बन्धुमती की बन्धुयशा नाम की पुत्री हुई। जिनवर की सेवा करनेवाले जिनदेव की एक और कन्या थी जो जिनदत्ता के नाम से विख्यात थी। वह तुम्हारी प्रिय सखी बन गयी। जिन भगवान के चरणकमलों में अपनी मति को लगानेवाली वे दोनों संन्यासपूर्वक मर गयीं और प्रथम स्वर्ग में चिरसंचित अपने कर्म सौन्दर्यवाले कुबेर की तुम पुत्री हुईं। फिर पुण्डरीकिणी नगरी में वज्रमुष्टि वणि की सुप्रभा नाम की युवती गृहिणी से, हे पुत्री ! तुम सुमति नाम (8) यादिनाव 2. B "विदेहे . असेतु । 1. शोधरि . 5. 3 सह । परिणी । B. PAIs घणणियहो। 7.A सोधित R.ABP कोण मि . मणि U.A ने सोवरन् । निहिं सोक्सः भुजांत सोच सहयरिसह। 11. B विअंसुजय।।2.5 प्रिय ।। ५. A135 मइयज। 11 3 कामसन्नी मुकम्नमांदा।IAN एंडकिणि AIS. पुंडगि guitast Mss , S पुंडरिगिणिपुरि। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90.9.8] महाकइपुष्फयंतत्रिरयत महापुराणु [ 195 तुहं सुय सुमइ णाम संभूई ता” णं धम्में पेसिया दूई। सुव्यय भिक्खामग्गि" पइट्ठी भवणंगणि चडति पई दिट्ठी। सहं पणिवाएं पय धोएप्पिणु दिण्णउं दाणु समाणु करेप्पिणु। अवरु वि तणुसंतवियपयासे रयणावलिणामेणुववासें। मुय संणासें णिरु णिम्मच्छर हूई बंभलोइ तुरुं अच्छर। घत्ता-इह जंबूदीवइ वरभरहि इह खयरंकिइ महिहरि। उत्तरसेढिहि' ससियरभवणि जणसंकुलि जंबूपुरि ॥8॥ 20 दुवई-अरिकरिरत्तलित्तमुत्ताहलमंडियखग्गभासुरो' । ___ खगवइ जंबवंतु तहिं णिवसइ बलणिज्जियसुरासुरो ॥॥ जंबुसेणदेविहि गयवरगइ पुणु हूई सि पुत्ति जंबावइ। पवणवेयखयरहु कोमलियहि तुह मेहुणउ पुत्तु सामलियहि। णमि णामें कामाउरु कंपइ एक्कहिं दिणि सो एम पजपइ। बालकलिकंदलसोमाली माम माम जइ देसि ण साली । तो अवहरमि' मि बलदप्में तं णिसुणेवि तेण तुह बप्पे। मच्छियविज्जइ सो खावाविउ भाइणेउ ससुरें संताविउ। से उत्पन्न हुई। इतने में तुमने धर्म के द्वारा प्रेषित दूती के समान, भिक्षामार्ग में प्रविष्ट, घर के आँगन में चढ़ती हुई (चढ़कर आती हुई) सुव्रता आर्या को देखा। प्रणाम के साथ उनके चरणों को धोकर तुमने सम्मान के साथ दान (आहार-दान) दिया। और भी, शरीर को शान्त करने के प्रयासवाले रत्नावली नाम के उपवास और संन्यास से मरकर तुम ब्रह्मलोक में ईर्ष्या से रहित अप्सरा हुई। __घत्ता-इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में विजयाधपर्वत की उत्तर श्रेणी में जन-संकुल और चन्द्रमा के समान घरोंवाले जम्बूपुर में जाम्बवन्त नाम का विद्याधर राजा निवास करता था जो शत्रुगजों के खून से रंजित मोतियों से मण्डित खड्ग से भास्वर था और जिसने अपने बल से सर-असरों को जीत लिया था। हे पत्री ! तुम फिर उसकी -...- - - - . . Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1961 महाकाइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [90.9.9 किंणरपुरणाहेण संसल्लें आवेप्पिणु ससयणवच्छल्लें। मच्छियाउ' विद्धसिवि घित्तउ जंबुकुमारु' तांब तहिं पत्तउ' । 10 णिरु गज्जंतु णाइ खयसायरु जंबवंतसुउ" तेरउ भायरु। तेण असेसउ विज्जउ छिण्णउ पडिभडणियरु दिसाबलि दिण्णउ। णमिणा'2 सह दिणयरकरपविमलि जक्खमालि गउ णासिविणहयलि। तहिं अवसरि संगामपियारउ जाइवि कण्हहु अक्खइ णारउ । पत्ता-जंबूपुरि जंबवंतखगहु जंबुसेण पणइणि सइ । रूवें सोहग्में णिरुवमिय ताहि! धीय जंबावइ ॥9॥ (10) दुवई-ता 'सरसुच्छुदंडकोवंडविसज्जियसरवियारिओ। रणि मयरद्धएण गरुडद्धउ कह वि हु ण मारिओ ॥छ। हरि असहंतु मयणबाणावलि गउ जिणपयणिहितकुसुमंजलि । खयरगिरिंदणियंबु पराइड जाणिउ जंबवंतु' अवराइट। ‘उववासिउ दब्भासणि सुत्तउ तावायउ सिणेहसंजुत्तउ। जक्खिल चिरभवभाइ सहोयरु भासिवि तासु महासुक्कामरु । ले जाऊँगा।" यह सुनकर तुम्हारे उन पिता ने मक्षिका विद्या से उसे कटवा दिया। इस प्रकार ससुर ने अपने भानजे को कष्ट दिया। तब किन्नर नगर के स्वामी यक्षमाली ने शल्यसहित, अपने स्वजन के वात्सल्य के कारण आकर मक्षिका विद्या को नष्ट करके फेंक दिया। इतने में जम्बुकुमार वहाँ आ पहुँचा-एकदम क्षयसमुद्र के समान गरजता हुआ; जाम्बवन्त का पुत्र और तुम्हार छोटा भाई। उसने समूची विद्या नष्ट कर दी शत्रु योद्धा समूह की दिशाबलि दे दी। यक्षमली नमि के साथ दिनकर-किरणों से निर्मल आकाश में भाग गया। इसी अवसर पर संग्रामप्रिय नारद कृष्ण से कहते हैं___घत्ता-जम्बूपुर में जाम्बवन्त विद्याधर की जम्बूसेना नाम की सती प्रणयिनी है। उसकी कन्या जाम्बवती रूप और सौभाग्य में अद्वितीय है। (10) सरस इक्षुदण्ड के धनुष से विसर्जित तीरों से विदारित करनेवाले गरुड़ध्वजी (कृष्ण) को युद्ध में कामदेव ने किसी प्रकार मारा भर नहीं। कामदेव की बाणावली को सहन नहीं करते हुए तथा जिन के चरणों में कुसमांजलि चढ़ानेवाले कृष्ण वहाँ गये। विद्याधर राजाओं का समूह आ गया। यह जानकर कि जाम्बवन्त FA सभालें। 7.AP पक्खिया। 5. B°कुमार। 9. संपत्तउ। 10. Bणामि। 1. BP "यतु। 12.5 मणिणा। 13 मिडियले 1 14.5 जायवि।। th. AP जाहि: (10)1.5 सुरसुनह". 2. “कोदंड. 3. "णिहितु। 4. जंबुवंतु । 3. AP गसडसीहि (B भोहि) थाहिणियह विजह 16.5 तियसाहिवु । 7. AP विवाणहो Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90.11.6] महाकइपुण्फयंतविरयत महापुराणु [ 197 10 साहणविहि फणिखेयरपुज्जहं खोहणिमोहणिमारणविज्जहाँ। गउ तियसाहिउ' तियसविमाणहु' लग्गु जणद्दणु भणियविहाणहु। मंतें खीरसमुदु रएप्पिणु तहिं अहिसयणहु उवरि चडेप्पिणु। विज्जउ साहियाउ गोविदें पुणु रणि जुज्झिवि समउं खगिंदें। तुहं परिणिय कण्हें बलगावें महएवित्तु दिण्णु सबभावें। ता' जंबबइइ सभषु सुणतिइ मुणिकमकमलजुयलु" पणवतिइ। घत्ता-भत्तिइ पणिवाउ "करंतियइ संचियसुहदुहकम्मई। ता भणिउं सुसीमइ वज्जरहि महुं वि देव गयजम्मई" ॥10॥ दुवई-पभणइ मुणिवरिंदु सुणि सुंदरि धादइसंडदीवए। पुयिल्लम्म भाइ पुबिल्लविदेहि पहुल्लणीवए ॥७॥ मंगलवइजणवइ मंगलहरि रयणंचियइ' रयणसंचयपुरि। वीसदेउ पहु देवि अणुंधरि मुउ पिययमु रणि अरिकरिवरहरि। करि करवालु करालु करेप्पिणु उज्झाणाहें सहुँ जुज्झेप्पिणु। पणइणि समउं पइट्ठी हुयवहि पयडियथावरजंगमजियपहि। अपराजेय है, वह दर्भासन पर बैठ गया। तब स्नेह से युक्त, पूर्वजन्म के भाई सहोदर यक्षिल, महाशुक स्वर्ग का देव वहाँ आया और उसने नागों और विद्याधरों से पूज्य क्षोभिनी, मोहिनी और मारण विद्याओं की साधनविधि बतायी। देव अपने देव विमान में चला गया। कृष्ण बताए हुए (विद्या साधन) विधान में लग गया। मन्त्र के द्वारा क्षीर समुद्र की रचना कर और उसमें नागशय्या पर चढ़कर गोविन्द ने विद्याएँ सिद्ध कर ली और फिर युद्ध में विद्याधरेन्द्र के साथ लड़कर, बलगर्व के साथ तुमसे विवाह किया। सद्भावपूर्वक तुम्हें महादेवी का पद दिया। इतने में जाम्बवती के पूर्वजन्म सुनते हुए, मुनि के चरणकमलों का वन्दन करते हुए पत्ता-भक्ति से प्रणाम करते हुए सुसीमा ने कहा-“हे देव ! सुख-दुःख का संचय करनेवाले मेरे गतजन्मों को बताइए।" (11) मुनिवर कहते हैं- "हे सुन्दरी ! सुनो-धातकीखण्ड दीप के विकसित कदम्ब वृक्ष से युक्त पूर्व विदेह के मंगलावती जनपद में मंगलगृह रत्नसंचयपुर में राजा विश्वदेव और उसकी पत्नी अनुन्धरी देवी है। शत्रुरूपी गजों के लिए सिंह के समान उसका पति अपने हाथ में तलवार लेकर और अयोध्यानाथ के साथ जूझकर युद्ध में मारा गया। प्रकट है स्थावर और जंगम जीवों का वध जिसमें ऐसी आग में प्रणयिनी अनुन्धरी भी {P बिहाग also) | 8. 5 बलगामें। 9. जा। 10. समज; S समबु । 11. ABP मुणि बंदियउ सीसु विहोतए। 12.5 करतिए। (11)1. रयांचए। 2. B“संघियः। 3. A वीसंदन । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 ] महाकइपुष्फयंतविस्यउ महापुराणु 190.11.7 10 वितरसुरि' खयरायलि हुई दससहसदहं भुत्तविहूई। भवविब्ममि भमेवि इह दीवइ भरहखेत्ति पुणु सामरिगामई। यक्खही हलियह रइरसवाहिणि देवसेण णामें तह रोहिणि । तहि उप्पण्णी वरमुहसररुह जक्खदेवि णामें तहु' तणुरुह। धम्मसेण' मुणि महियाणंगउ कयमासोववासु खीणंगउ। पय पक्खालेप्पिणु' विणु गावें ढोइउ तासु गासु पई भावें। घत्ता-अण्णहिं दिणि वणि कोलंति तुहं महिहरविवरि पइट्ठी। तहिं भीमें अजयरेण गिलिय मुय सयणेहि ण दिट्ठी ॥11॥ (12) दुबई-हरिवरिसंतरालि' उप्पण्णी मज्झिमभोयभूमिहे। किह आहारदाणु णउ दिज्जइ जिणवरमग्गगामिहे ॥छ। ताहं मरेवि बहुसोक्खरणिरतार णायकुमारदेवि भवणतरि। पुणु इह पुवविदेहि मणोहरि. देसि पुक्खलावइहि सुहंकरि। पुरिहि पुंडरीकिणिहि असोयहु' सोमसिरिहि भुजियणिवभोयहु । सुय सिरिकंत णाम होएप्पिणु जिणवत्तहि समीवि वउ लेप्पिणु । कणयावलिउववासु करेप्पिणु' सल्लेहणजुत्तीइ मरेप्पिणु। जुइपब्भारपरज्जियचंदइ हूई देवि कप्पि माहिदइ। उसके साथ प्रवेश कर गयी। मरकर वह व्यन्तरलोक में विद्याधरी हुई। दस हजार वर्षों तक भोग भोगने के बाद और भव-विलासों में भ्रमण करने के बाद, इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में सामर गाँव में यक्ष नाम के किसान की, रतिरस की नदी, देवसेना नाम की गृहिणी थी। वह उसकी श्रेष्ठकमलमुखी यक्षदेवी नाम की कन्या हुई। अनंग को नष्ट करनेवाले, एक माह का उपवास करने के कारण क्षीणकाय, धर्मसेन नामक मुनि आये। बिना किसी गर्व के उनके चरणों का प्रक्षालन कर उसने भावपूर्वक उन्हें आहार दिया। वता-दूसरे दिन बन में खेलती हुई तुम पहाड़ के विवर में प्रवेश कर गयीं। वहाँ भयंकर अजगर के निगलने से तुम मर गयीं, स्वजन तुम्हें नहीं देख सके। (12) तुम मध्यमभोगभूमि के हरिवर्ष क्षेत्र में उत्पन्न हुई। अतः जिनवर-मार्ग में चलनेवालों को आहारदान क्यों न दिया जाए ? वहाँ से मरकर प्रचुर सुखों से निरन्तर भरपूर भवनवासी स्वर्ग में वह नागकुमार की देवी हुई। फिर, इस पूर्व विदेह में पुष्कलावती के सुन्दर शुभंकर देश में पुण्डरीकिणी नगरी के राजा के ऐश्वर्य को भोगनेवाले अशोक और सोमश्री की श्रीकान्ता नाम की पुत्री होकर तुमने जिनदत्ता के पास व्रत ग्रहण 4. 6 नेंतरसुर। 5. 8 “गावए। 6. APS जक्खहो । 7. AIs तुहुँ । 8. P धम्मसेण। 9. AP पक्वालेप्पिणु पय विष्णु। 10. As अंजगरेण । (12) 1. H वरसंतरालि। 2. 5 पुंडरिंगिणिहि। 3. A असोयहे। 4. A णिवभोयरे; 5 नृथ". 5. s समीहे। 6. K थउ । घरेप्पिणु; घरेप्पिणु। १.A सुरट्ठपणहो। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90.13.61 महाकइपुष्फयंतविरया महापुराणु [ 199 जणणिहि जेट्टहि णपणरविंदहु पुणु सुरवडणहु णरिंदहु। तुहु सुसीम सुय हरिघरिणित्तणु ___पत्ती माइ" परमगुणकित्तणु। पुणु लक्खणइ" वियक्खणसारउ णियभव पुच्छिउ देउ भडारउ। अखइ गणहरु वरिणी मोहह बूदीबह कुटिरोइ : | पवरपुक्खलावइविसवंतरि सारि अरट्ठिणयरि कुवलयसरि । वासवराएं वसुमइदेविहि सिसु सुसेणु जायउ सियसेविहि । ताएं संजमेण अइसइयउ सयरसेणपासि" तउ लइयउ। घत्ता-अइअट्टझाणवसेण मुय पुत्तसणेहें। वसुमइ। हूई पुलिंदि गिरिवरकुहरि मिच्छत्तें मइलियमइ ॥12॥ दुवई-विट्ठउ ताइ कहिं मि तहिं माणणि सायरणदिवद्धणी। चारणमुणिवरिदु पणवेप्पिणु सिद्धिलियकम्मबंधणो ॥छ। सावयवयइं तेण तहि दिण्णई उज्झियधम्मई कम्मई छिण्णई। भत्तपाणपरिचायपयासें सवरि मरेवि तेल्धु' संणासें । हूई हावभावविभमखणि अट्ठमसग्गसुरिंदहु णच्चणि। पुणु इह भरहखेत्ति खयरायलि दाहिणसेढिहि चंदयरुज्जलि । कर लिये। रत्नावली उपवास कर तथा सल्लेखनाव्रत की विधि से मरकर, अपनी द्युति के प्रभाव से माहेन्द्र स्वर्ग में चन्द्रमा को जीतनेवाली देवी हुई। फिर, नेत्रों के लिए सूर्य के समान सुराष्ट्रवर्धन राजा की जेठी रानी से तुम सुसीमा नाम की कन्या उत्पन्न हुईं और फिर कृष्ण के परम गुण-कीर्तन से युक्त पत्नीत्व को प्राप्त हुई। फिर, लक्ष्मणा ने अपने पूर्वजन्म पूछे। पण्डितश्रेष्ठ आदरणीय देव गणधर कहते हैं कि जम्बूद्वीप में मेघों से बरसते विदेहक्षेत्र में विशाल पुष्कलावती देश के अन्तर्गत कुवलयों की नदी अरिष्टा नाम की नगरी है। उसमें वासवराज की श्री से सेवित वसुमती देवी को सुषेण नाम का पुत्र हुआ। पिता ने सागरसेन मुनि के पास संयम से महान् तप ग्रहण कर लिया। के प्रेम में अत्यन्त आर्तध्यान से मरकर तथा मिथ्यात्व से मलिनमति होकर गिरिवर की गुफा में भीलनी हुई। (13) उसने वन में कहीं सागरनन्दिवर्द्धन मुनि के दर्शन किये। शिथिलित कर्मबन्धवाले चारणमुनि को प्रणाम किया। उन्होंने उसे श्रावकव्रत दिये। उसने धर्म से रहित कर्मों को काट दिया। भक्तप्राणों का त्याग करनेवाले प्रयास से युक्त संन्यास से वहाँ मरकर वह भीलनी आठवें स्वर्ग के इन्द्र की हावभाव और विभ्रम की खदान कत्र 9. नुहं । 10. B मस्य । 11.A लक्खणपविपक्वण . 12. ABS भनुPभउ। 13. ABP सायरीणापासि, सायरेण पासित्तउ । H. Aमिणेहें। 15. पुलिदिए। (13) 1.5 तित्य। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2001 [90.13.7 महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु परि चंदउरि 'महिंदु महापहु तासु अणुंधरि णामें पियवहु। तुहूं तहि कणयमाल देहुभव हूई हंसवंसवीणारव। लइयउ पई रइरमणरसालइ वरु हरिवाहु सयंवरमालइ। अण्णहिं दिणि तिहुयणचूडामणि' वंदिवि सिद्धकूडि जमहरमुणि। बोलीणाई भवाइं सुणेप्पिणु मुत्तावलिउववासु करेप्पिणु। तइयसग्गि देविंद वल्लह हुई पुण्णविहूणह दुल्लह। णवपल्लोवमाई जीचेप्पिणु पुणु सुरबोंदि' अणिंद चएप्पिणु। संवरराएं हिरिमइकंतहि तुहुं संजणिय विविहगुणवंतहि। पउमसेणधुयसेणहु अणुई लक्खण णाम पुत्ति तणुतणुई। धत्ता-पढमेव पसंसिवि गुणसयई णहसायरचलमयरें। तुहं आणिवि अप्पिय महुमहहु पवणवेयवरखयरें ॥13॥ (14) दुवई-तेण वि तुज्झु दिण्णु देवित्तणु पट्टणिबंधभूसियं'। ता तीए वि णमिउ णेमीसरु दुच्चरियं विणासियं ॥छ। पुच्छइ माहवु मवणवियारा महं अक्खहि वरयत्तभडारा। गंधारि वि गोरि वि पोमावई किह पत्ताउ भवेसु भवावइ । ____ 15 नर्तकी हुई। इस भरतक्षेत्र के विजयार्धपर्वत की दक्षिण श्रेणी में चन्द्रकिरणों से उज्ज्वल चन्द्रपुर में महेन्द्र नामक महान् राजा था। उसकी अनुन्धरा नाम की प्रिय वधू हुईं। तुम हंस और वीणा के समान स्वरवाली उसके शरीर से कनकमाला नाम से उत्पन्न हुई। तुमने रतिरस की घर स्वयंवरमाला से हरिवाहन को अपना वर बनाया। दूसरे किसी दिन त्रिभुवनश्रेष्ठ यमधर मुनि की सिद्धकूट पर्वत पर वन्दना कर और अपने बीते हुए पूर्व भव सुनकर तथा मुक्तावलि उपवास कर तीसरे स्वर्ग में देवेन्द्र की पत्नी हुई जो पुण्य से विहीन के लिए दुर्लभ है। नौ पल्य के बराबर आयु जीकर फिर देवशरीर से च्युत होकर, वह तुम संवर राजा की विविध गुणों से युक्त श्रीमती पत्नी के रूप में उत्पन्न हुईं। पद्मसेना और ध्रुवसेना छोटी थीं और लक्ष्मणा सबसे छोटी थी। ___घत्ता-आकाशरूपी समुद्र के मत्स्य पवनवेग विद्याधर ने पहले से ही सैकड़ों गुणों की प्रशंसा कर तुम्हें लाकर श्रीकृष्ण को सौंप दिया। उन्होंने भी तुम्हें पट्टबन्ध से विभूषित देवीपद प्रदान किया। उसने भी नेमीश्वर को नमस्कार कर अपने दुश्चरित का नाश किया। कृष्ण पूछते हैं- "हे कामदेव को नाश करनेवाले परम आदरणीय ! बताइए, गान्धारी, .A महिंद। 3. ABPALS. मणविसालए। 4. Pतियण,5तिहूयण 15. देवेंदहो। 6. A सुरवंदि; BP सुरवोदि । सुरदोदि। 7.AP पणवेयि पौंसवि। R. S पावहो। (14) 1. Bofणबद्ध। 2.5 यि 3. Pमाहउ। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90.15.4] 10 म. सावित्यः मा [ 201 भणइ भडारउ महुमह मण्णहि गंधारिहि भवाइं आयण्णहि।। जंबुदीवि कोसलदेसंतरि पहु सिद्धत्यु अत्यि उज्झाउरि । विणयसिरि त्ति पत्ति पत्तलतणु बुद्धत्थहु करि दिण्णउं सुअसणु। मुणिहि तेण पुण्णेणुत्तरकुरु तहिं मुउ णाहु कहि मि जायउ सुरु । घरिणि मरेप्पिणु जोण्हारुदहु चंदवई' पिय हूई चंदहु। एत्थु दीवि पुणु खयरमहीहरि उत्तरसेढिहि णहवल्लहपुरि। विज्जुवेयकंतहि सद्दित्तिहि पुत्ति पहूई उत्तिमसत्तिहि । णिच्चालोयणयरि रुइरुंदहु णाम सुरूविणि दिण्ण महिंदहु। मुणि विणीयचारणु वैदेप्पिणु अण्णहिं दिवसि धम्मु णिसुणेप्पिणु। यत्ता-तउ लइउ महिदें पत्थिविण पंच वि करणई दंडियई। अट्ठ वि मय धाडिया णिज्जिणिवि तिणि वि सल्लई खोडेयइं ।।14।। (15) दुवई-ताइ सुहद्दियाहि पयमूलइ मूलगुणेहि' जुत्तउं। तउ अच्चंतधोरु मारावहु तणुतावयरु तत्तउं ॥छ।। मुय संणासे पुणु णिरु णिरुवमु पहिलइ सग्गि एक्कु पल्लोवमु। भुत्तउं ताइ चारु देवित्तणु ढुक्कउं तहिं वि कालि परियत्तणु । गोरी और पद्मावती पूर्वजन्मों में किन आपत्तियों को प्राप्त हुईं ?" आदरणीय कहते हैं-हे कृष्ण ! गान्धारी के जन्मान्तरों को सुनो और सत्य मानो। जम्बूद्वीप के कौशल देश में अयोध्यापुरी में राजा सिद्धार्थ था। उसकी विनयश्री पत्नी थी, जो दुबले-पतले शरीर की थी। उसने बुद्धार्थ मुनि के हाथ में आहार-दान दिया। उस पुण्य से मरकर उत्तरकुरु में कहीं पर उसका पति देव हुआ। गृहिणी मरकर ज्योत्स्ना से विशाल चन्द्रमा न चन्द्रावती देवी हुई। इसी द्वीप में फिर से विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणी के गगनबल्लभपुर में उत्तम शक्तिवाले सद्दीप्ति राजा और विद्युवेगा की पुत्री हुई। नित्यालोक नगर में कान्ति से महान् राजा महेन्द्र के लिए वह सुन्दरी दी गयी। वहीं विनीतचारण मुनि की वन्दना कर, दूसरे दिन धर्म को सुनकर__ पत्ता-राजा महेन्द्र ने तप ले लिया, और पाँचों ही इन्द्रियों को दण्डित किया, आठों मदों का नाश किया और तीनों शल्यों को जीतकर उन्हें खण्डित कर दिया। (15) उसने भी सुभद्रा आर्यिका के चरणमूल में मूलगुणों से युक्त होकर अत्यन्त घोर काम का नाश करनेवाला तप किया। संन्यास से मरकर पुनः उसने पहले स्वर्ग में एक पल्य तक अत्यन्त अनुपम सुन्दर देवील्व का भोग किया। समय होने पर, उसकी भी परिसमाप्ति हो गयी। यह गान्धार विषय में कोमल उधानवाले विशाल 4. B मरमह । 5.5 उम्झायरे। 6.5*णुत्तरु कुरु। 7. B चंदपई। B. P विज्जवेय.9.A उत्तम । 10, A सरूविणि। 1.5 दिवसें।।2.A बाहिवि: B धाडिउ । (15) 1. B°गुणाहि। 2. तबु । 3. 9 मुइ। 4. 5 देवत्तणु। 5. APS परिवत्तणु । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2021 महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [90.15.5 इह गंधारिविसइ कोमलवणि सुपसिद्धहु रायहु इंदइरिहि मेरुमईहि गब्भि उप्पण्णी किर मेहुणयहु दिज्जइ लग्गी पई जाइवि तं पडिबलु जित्तउं णिसुणि साम पियराम पयासमि णायणयरि हेमाहु गरेसरु । चारणु जसहरु पियइ णियच्छिउ त संभरिवि पइहि वक्खाणिउं 1वड्डमाणपुरिसिस्थीपंडइ पुवामरगिरिअवरविदेहइ आणंदहु जाया' णियवस ताइ दयालुयाइ गुणवंतइ दिण्णउं अण्णदाणु भयतंदहु। णहि देबई पच्चक्खई आयई "विउलपुक्खलावइवरपट्टणि । असिधारादारियणियवइरिहि। धूय एह गंधारि रवण्णी। अक्खिउं गारएण तुह जोग्गी। कण्णरयणु एउं रणि हित्तउं। गोरीभवसंभवणु समासमि। जससइभज्जथणंतरकयकरु'। वंदिवि णियजम्मतरु पुच्छिउ । जं णियगुरुसमीवि सुवियाणिउं। भणइ महासइ' धादइसंडइ। पवरासोयणयरि वरगेहइ। णंदयसा सयसा कयरइरस । णवविहु' पुण्णवंतु वणिकतइ। अमियाइहि सायरहु मुणिंदहु। पंचच्छरियइं घरि संजायई। 15 पुष्कलावती श्रेष्ठ नगर के सुप्रसिद्ध, असि की धारा से अपने शत्रुओं का अन्त करेनवाले राजा इन्द्रगिरि की मेरुमती के गर्भ से उत्पन्न हुई कन्या सुन्दर गान्धारी है। जब यह मामा के लड़के को दी जाने लगी, तो नारद ने कहा कि यह तुम्हारे योग्य है। तुम वहाँ से चलकर शत्रुसेना को जीतकर इस कन्यारत्न को रण से उठा लाये। हे श्याम ! और प्रिय राम ! (बलराम) सुनो, संक्षेप में गोरी के जन्मान्तरों का कथन करता हूँ। नागपुर में हेमाभ नाम का राजा था जो अपनी यशस्वती भार्या के स्तनों के बीच में हाथ रखनेवाला था। एक दिन प्रिया ने यशोधरा चारण मुनि को देखा। उनकी वन्दना कर उसने अपने जन्मान्तर पूछे। उनसे अपने जन्मान्तर सुनकर उसने अपने पति के लिए बताया जो उसने गुरु के समीप जाना था। वह महासती कहती है कि जिसमें पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसक वृद्धि पर हैं, ऐसे धातकीखण्ड द्वीप में पूर्व विजयार्ध पर्वत के पश्चिम विदेह में उत्तम गृहोंवाला अशोकनगर है। आनन्द की आज्ञाकारिणी, यशवाली, रतिरस माननेवाली नन्दयशा नाम की सेठ की. पली थी। उस गुणवन्ती दयालु सेठानी ने निर्भय अमितसागर मुनीन्द्र को पुण्यवान् नौ प्रकार का आहार दान दिया। आकाश में देव प्रत्यक्षरूप से आये और घर में पाँच आश्चर्य प्रकट हुए। 6. वरपुक्खलावद विषले पोक्खलावद 17.5 करकरू। R.Aomits this line. 9. AS "समीवि खलु जाणिऊB समीवि सुयाणि: समीसुवियाणिउं। 10. H यमाण: P बद्धमाण°111. A पोरिसि थियसक्षए। 12. AP महारिसि। 13. ABPS जाया जाया बस। 14. णवविहपुण्णयंतु:P पुण्णु पत्तु; As. णवविहपुग्णवंतवणि। 13, AP हयर्णिदहो; BALs. भयवंदहो। 16. P अभियायहि। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90.16.12] महाकइपुष्फयतविरयउ महापुराणु [ 203 20 घत्ता-मुय कालें तें मिगणयण" उत्तरकुरुहि हवेप्पिणु। पुणु भावणिंदमहएवि" हुय हउँ उप्पण्ण चएप्पिणु ॥15॥ (16) दुवई-पुणु' केयारणयरि णरवइसुय "संजमदमदयावर। झत्ति समासिऊण सब्भावें 'सायरयत्तमुणिवरं ॥छ॥ किउं तवचरणु परमरिसिआणइ मय गय थिय सोहम्मविमाणइ । सुमइहु समइहि धणजलवाहहु कोसबिहि णयरिहि वणिणाहहु । पुणरावे अमरालावणिसद्दाह' हूई सुय सेविणिहि सुहद्दहि । जणवएण कोक्किय सुहकम्मिणि धम्मसील सा णामें धम्मिणि। आइततिगति समीगि एमभी जिणवरगुणसंपत्ति वउत्थी'। वीवसोयपुरि पुणु कयणिरइहि मेरुचंदरायहु चंदमहि। गोरी एह धीय उप्पण्णी जएं दिण्णी। आणिवि तुज्झु कण्ह कयणेहें पई वि अणंगबाणहयदेहें। परिणिय पीणियरइमयरद्धउ महएवित्तणपटुत णिबद्धउ। पुणु आहासइ देउ दियंबरु णिसुणहि पोमावइजम्मतरु। 10 घत्ता-आयु पूर्ण होने पर वह मृगनयनी मृत्यु को प्राप्त हुई और उत्तरकुरु में होती हुई फिर भवनवासी स्वर्ग में देवी हुई। वहाँ से आकर मैं उत्पन्न हुई हूँ। (16) केदार नगरी में राजा की पुत्री हुई और शीघ्र ही संयम, दम और दया में श्रेष्ठ सागरदत्त मुनिवर के पास सद्भाव से आश्रय लेकर मैंने परम ऋषि की आज्ञा से तपश्चरण किया और मरकर सौधर्म विमान में स्थित हुई। फिर कौशाम्बी नगरी में धन को पानी की तरह बहानेवाले अच्छी मतिवाले सुमति सेठ के यहाँ और फिर देवों के आलाप के समान शब्दोंवाली सुभद्रा सेठानी की पुत्री हुई। शुभ कर्म करनेवाली और धर्मात्मा कहकर उस धर्मशीला को पुकारना आरम्भ कर दिया। फिर अतिशान्ति आर्या के पास प्रशस्त जिनवर गुणों को प्राप्त व्रतों में स्थित वह, वीतशोकनगर के पुण्यरत मेस्चन्द्र राजा और चन्द्रमती की गौरी नाम की यह पुत्री उत्पन्न हुई जो विजयपुर के नरेश विजय ने दी है। हे कृष्ण ! प्रेम करनेवाले और कामदेव के तीरों से आहत शरीर तुमने भी उससे विवाह कर लिया तथा कामदेव को प्रसन्न करनेवाला महादेवी का पट्ट उसे बाँध दिया। दिगम्बर मुनि पुनः कहते हैं-अब पद्मावती के जन्मान्तर सुनो। यहाँ उज्जैन में विजय नाम 17. AP गि: मिगणपणे। 18. B भावणेद | 19. A तहे तं देहु मुएप्पिणुः । तं देहु मुएप्पिणु। (16) 1. पुण। 2. P समसंजमदया। 3. दयाघरं। 4.A सायरपरसमुणिवर; BP सायरदत्त । 5.P मुय । 6. P सुमरहे। 7. A अमलालाविणि PS "लायिणि । ४. BS अइक्वंति। 9, HPS add after this : सा मह (१ महि) सुक्कसग्गे देवी हुप, तेत्यु सोक्खु मुंजेवि पुणरवि चुय। 10. AP तणे; AS"नण। 11.5 णिसुणइ । 12. S सकंसल। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 ] [90.16.13 महाकइपुप्फयंतविरयट महापुराणु एत्थु जि उज्जेणिहि विजयंकर पहु सोमत्तगुणेण ससंकट । तासु देवि अवराइयो णामें गुणमंडिय धणुलट्टि व कामें। घत्ता-तहि पुत्ति सलक्खण विणयसिरि हत्थसीसपुरि रायहु। दिण्णी हरिसेणहु हरिसिएण ताएं लच्छिमहायहु 16|| दुवई-गयपंचेंदियत्यपरमत्थसिरीरयरमणधुत्तहो'। दिण्णउं ताइ भोज्जु घरु आयहु' रिसिहि समाहिगुत्तहो ॥छ॥ तेण फलेण सोक्खसंपत्तिहि हुय हेमवयइ भोयधरित्तिहि। पुणु वि वरामरचित्तणिरोहिणि हूई देवहु' चंदहु रोहिणि। एक्कु पल्लु तहिं सुहं माणेप्पिणु जोइसजम्मसरीरु' मुएप्पिणु। धणकणपउरि मगहदेसंतरि । सामलगामि वेणुविरइयधरि। विजयदेवहलियहु पिय देविल सुमुहि सुभासिणि सुहयलयाइल। पउमदेवि तहु दुहिय घणत्यणि सा चंदाणी गुणचिंतामणि । रिसिणाहहु कर मउलि करेप्पिणु वरधम्महु पयाई पणवेप्पिणु । गहिउं ताइ रसणिंदियणिग्गहु अवियाणियतरुहलहु अवग्गहु। का राजा था जो सौमित्र के गुणों से सशंकित था। उसकी अपराजिता नाम की देवी थी 1 गुणों से मण्डित वह कामदेव की धनुर्लता के समान थी। ___घत्ता-उसकी लक्ष्मीवती पुत्री विजयश्री थी जिसे लक्ष्मी से सम्पन्न हस्तिनापुर के राजा हरिषेण को पिता ने हर्ष के साथ दे दिया। (17) पाँच इन्द्रियों के विषयों से रहित तथा परमार्थ-लक्ष्मी में रमण करने में कुशल घर आये हुए समाधिगुप्त मुनि को उसने आहार-दान दिया। उसके फल से वह सुख-सम्पत्ति से भरपूर भोगभूमि में हेमवती हुई। फिर उत्तम देवों के चित्तों का निरोध करनेवाली वह देव की देवी हुई, उसी प्रकार जिस प्रकार चन्द्रमा की रोहिणी। वहाँ एक पल्य पर्यन्त सुख मानकर ज्योतिर्जन्य शरीर का त्यागकर धान्यकण से प्रचुर मगध देश के, बाँस से निर्मित घरोंवाले शालिग्राम में विजयदेव हलधर की सुमुखी, मीठा बोलनेवाली, और सौन्दर्य लता की भूमि देविल प्रिया थी। उसकी बह पद्मादेवी नाम की सघन स्तनोंवाली कन्या हुई, जो गुणों की चिन्तामणि, रोहिणी का जीव थी। उसने मुनिवर के लिए हाथ जोड़कर और श्रेष्ठ धर्मवाले उनके पैर पड़कर रसना इन्द्रिय के निग्रह का व्रत ग्रहण कर लिया कि-वह नहीं जाने हुए फल को ग्रहण नहीं करेगी। मुख की हवा से विलसित 13. 5 अयराय। 14.5य शिव | 15. P हत्यिसीसे। (17)1. B“रइरमण 12. P आयहि । 3. APS देवय । 4. S"सरीर। 5. A सामरिगामे; BES सामलिगामे। 6. B समुहि। 1. ARS तहि। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90.18.101 महाकपष्फयतविरयड महापुराणु [205 मुहमरुविलसियभिंगयसद्दहि णिहउ' गाउं णाहलहिं रउद्दहिं। भवणदविणणासें विद्दाणउ भइयइ लोउ असेसु पलाणउ। घत्ता-गउ काणणु जणु णिरु दुक्खियउ विसवेल्लिहि फलु भक्खइ। अमुणतणामु सा हलियसुय पर तं किं पि ण चक्खइ ||17 ।। ( 18 ) दुवई-मुउ 'णरणियःः सानु वयभंल. खाद विशाल : जीविय पउमदेवि विहुरे वि मणं गरुयाण' णिच्चलं ॥छ। कालें मय गय सा हिमवयह देसहु कप्परुक्खभोयमयहु। पलिओवमु जि तेत्थु जीवेप्पिणु । भोयभूमिमणुयत्तु मुएप्पिणु । दीवि सयपहि देवि सर्यपह सुरहु सर्यपहणामहु मणमह। हुई पुणु' इह दीवि सुहावहि चंदसूरभावकइ भारहि। चारुजयंतणयरि विक्खायह सिरिमंतहु सिरिसिरिहररायहु । सिरिमइदेविहि विमलसिरी सुय णवमालइमालाकोमलभुय। दिण्णी जणणे पालियणायहु' भद्दिलपुरवरि. मेहणिणायहु। तिविहेण वि णिन्चेएं लइयउ रज्जु मुएवि सो वि पव्वइयउ। 10 भौंरों के शब्दवाले भयंकर भीलों ने उस गाँव को नष्ट कर दिया। घर और धन के नाश से दुःखी सभी लोग वहाँ से भाग खड़े हुए। __घत्ता-लोग जंगल में गये और अत्यन्त दुःखी होकर उन्होंने विषबेल का फल खा लिया। लेकिन उस कृषक कन्या ने फल का नाम न जानने के कारण उसे नहीं खाया। ( 18 ) समस्त जनसमूह मर गया। लेकिन व्रत भंग होने के भय से उसने विषफल नहीं खाया और इस प्रकार पद्मादेवी जीवित रहती है। महान् लोगों का मन संकट में भी निश्चल रहता है। समय के साथ मरकर वह कल्पवृक्ष के भोगवाले हिमवन्त क्षेत्र में उत्पन्न हुई। वहाँ एक पल्य तक जीवित रहकर भोगभूमि के मनुष्यत्व को छोड़कर स्वयंप्रभ द्वीप के स्वयंप्रम देव की स्वयंप्रभा नाम की देवी हुई। फिर, इस जम्बूद्वीप के सुखावह, चन्द्रमा और सूर्य की आभा से अंकित भारत में सुन्दर जयन्तनगर में श्रीमन्त श्री श्रीधर नाम के राजा और श्रीमती देवी की नवमालतीमाला के समान कोमल भुजावाली विमल श्री नाम की पुत्री हुई। पिता ने उसे न्याय का पालन करनेवाले भद्रिलपुर के मेघघोष को दे दिया। तीन प्रकार से निर्वेद लेकर और राज्य छोड़कर वह भी प्रव्रजित हो गया। ५. "मिंग" | 9. AP गहिउ । 10.A भवण दविण। 1. BP भुभिखबर। 1 returds ap जण णिरु दुखिपउ' या पाठः1 12. ABPS अमुणति । (18)1. 5 जणणिया । 2. HAks. लाएचि विलहलं And Als. thinks that यि in his anther Ms is lost : A बिष्णेवि। 4. A गम्याण ; P गरुवाण। 5. APS हेमवरही। 6.5 मुणुि । 7. पुण । M. D देवि। 9. Sणाहहो। 10. AP वरधामहो समीचि पायइयउ। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206] महाकइपुप्फयंताबेरयर महापुरागु [90.18.11 घत्ता-मुउ जइवरु हुउ सहसारवइ मेहराउ" मेहाणिहि। गोवइखंतिहि पासि कय विमलसिरीइ सुतवविहि ॥18॥ (19) दुवई-अच्छच्छंबिलेण' भुंजती अणवरयं सुरीणिया। वास' चेव णियदइयह पवरच्छरपहाणिया छ। पुणु अरिट्टपुरि सुरपुरसिरिहरि रयणसिहरणियरंचियमंदिरि। मरुणच्चवियमंदणंदणवणि हिंडिरकोइलकुलकलणीसणि । राउ हिरण्णवम्मु णिम्मलमइ तासु घरिणि वल्लह सिरिमइ सइ। ताहि गब्भि सहसारेंदाणी" सिरिघणरबहु चिराणी राणी। पोमावइ हुई णियपिउपुरि एयइ तुहुं वरिओ सि सयंवरि। कुसुममाल उरि चित्त गुरुक्की ___णं कामें बाणावलि मुक्की। पई मि कण्ह सुललिय गब्भेसरि कय महएवि देवि परमेसरि । जहिं संसारहु आइ ण दीसइ केत्तिउं तहिं जम्मावलि सीसइ। 10 णिव' अण्णण्णहिं भावहिं वच्चइ जीउ" रंगगउ णडु जिह णच्चह। घत्ता-मेधानिधि मेघघोष मुनिवर मरकर सहस्रार स्वर्ग में इन्द्र हुआ। विमलश्री देवी ने भी गोवई आर्यिका के पास सुतपविधि स्वीकार कर ली। (19) आचाम्लवर्धन व्रत और उपवास करती हुई, अनवरत रूप से श्रान्त, वह भी अपने उसी पति की प्रवर प्रधान अप्सरा के रूप में उत्पन्न हुई। फिर, जो इन्द्रपुर की शोभा का हरण करती है, जिसमें प्रासाद रत्नशिखरों के समूह से ऑचत है, जिसमें हवा से नन्दनवन धीरे-धीरे आन्दोलित है और भ्रमण करती हुई कोयलों का कलकल शब्द हो रहा है, ऐसे अरिष्टपुर नगर में निर्मलमति हिरण्यवर्मा नाम का राजा था। उसकी प्रिय गृहिणी श्रीमती सती थी। उसके गर्भ से सहस्रार इन्द्र की इन्द्राणी, तथा राजा श्री मेघघोष की पुरानी रानी पद्मावती के रूप में उत्पन्न हुई। इस समय इसके द्वारा स्वयंवर में तुम्हारा वरण किया गया है। तुम्हारे उर में विशाल पुष्पमाला डाली है, मानो काम ने बाणावलि छोड़ी हो। हे सुन्दर कृष्ण ! तुमने भी गर्वेश्वरी परमेश्वरी देवी को महादेवी बना दिया है। जहाँ संसार का आदि नहीं दिखाई देता, वहाँ जन्मावलि के बारे में कितना कहा जाये ? हे राजन् ! यह जीव अन्य-अन्य भाव से जीता है और वह रंगमंच पर गये हुए 11. भंडणार। 12. पोमावर" । 13. D विमलसरीर: 5 विपलसिरिए। (19) I. A अचलच्छबिलेण। 2. A तस्स देवि शिय: । 5. B हिंडियः। 4. Sणीसरे। 5. P"वामु। 6. सहतारिदाणी। 7. AP णियपिया। 8. P देवि गभर्सर । 1. 5 नृव । 10. HPS जिस रंगगउ । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90.19.151 [ 207 महाकइपुष्फयंतविरयड महापुराणु णच्चाविज्जइ चित्तायरियएं विविहकसायरायरसभरियएं। इय आयण्णिवि कुवलयणयणहि जय जय जय भणेवि भव्ययणहिं। घत्ता-देवइयइ हरिणा हलहरिण महएविहिं अहिणदिउ । सिरिणेमिभडारउ भरहगुरु पुष्फयंतजिणु वंदिउ ॥19॥ 15 इस महापुराणे तिसद्विमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुष्फपतयिरहए महाभयभरहाणुमणिए महाकव्वे"गोविंदमहादेवीमयावलि यण्णणं णाम णयदिमो' परिच्छेउ समत्तो ॥9॥ - . नट की तरह नृत्य करता रहता है। विचित्र कषायों और राग-रस से भरे हुए चित्तरूपी आचार्य के द्वारा वह नचाया माता है! गह सुरफर मुलाला नेत्रोंबाले भन्यजनों ने जय-जय-जय कहकर घत्ता-देवकी, श्रीकृष्ण, बलराम और महादेवियों ने उनका अभिनन्दन किया और भरत के गुरु पुष्पदन्त जिन के समान श्री आदरणीय नेमि भट्टारक की वन्दना की। . प्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारोंवाले इस महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित वर्णन एवं महाभय्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का गोविन्द-महादेवी-भवावलि नाम का नव्येयाँ परिच्छेद समाप्त हुआ। II.PS चित्ताइरिए। 12.P"स्य" । 1. PSगिएं। 11." पुष्पदंतु। 15. S महाराची | [HAS पथावणणं। 17.5 णउदिमो। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208) महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु एक्णवदिम संधि 'पज्जुणभवाई' पुच्छिउ सीरहरेण मुणि । तं णिसुणिवि तासु वयणविणिग्गॐ दिव्यझुणि ॥ ध्रुक्कं ॥ (1) इह दीवि भरहि वरमगहदेसि दुभिरगोहणमाहिसपगामि सोत्तिउ सुहुँ णिवसइ सोमदेउ तहि पहिलारउ सिसु अग्गिभूइ बिणि वि उवेयसइंगधारि ते अण्णहिं वासरि विहियजण्ण णच्वंतमोरकेक्कारवंति' कुसुमसरसिसिरकरकुइयराहु बिणि वि जण वेयायारणिट्ट आवंत णिहालिय जइवरेण 10 पुरपट्टणणयरायरविसेसि । बहुसालिछेत्ति तहिं सालिगामि । कयसिहिविहि अग्गिलवहुसमेउ । लहुयारउ जावउ 'वाउभूइ । बिणि वि पंडियजणचित्तहारि । पुरु कहिं मि दिवद्धणु पवण्ण । तहिं "दिघोसणंदणवर्णाति । रिस अवलोइउ रिसिसंघणाहु | ते दुट्ठ कट्ठ दपिट्ट धिट्ट 1 जइ बोल्लिय" मउ महुरें सरेण । [91.1.1 इक्यानवेव सन्धि बलभद्र ने मुनि से प्रद्युम्न के जन्मान्तर पूछे। यह सुनकर उनके मख से दिव्यध्वनि निकली । (1) 5 10 इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के पुर, पट्टन और नगर - समूह से विशिष्ट, दुधारू गायों और भैंसों से भरपूर, प्रचुर धान्य क्षेत्रोंवाले मगधदेश में शालिग्राम नाम का गाँव है । उसमें अग्निहोत्र यज्ञ करनेवाला सोमदेव ब्राह्मण अपनी अग्निला देवी के साथ सुख से रहता था । उसका पहला पुत्र अग्निभूति था और छोटा वायुभूति हुआ । दोनों ही चारों वेदों और छह अंगों को धारण करनेवाले थे। दोनों ही पण्डितों के चित्त का हरण करते थे । यज्ञ करनेवाले वे दोनों एक दिन किसी नन्दिवर्द्धन नगर में पहुँचे। यहाँ उन्होंने नाचते हुए मयूरों की केका ध्वनि से सुन्दर नन्दिघोष युक्त नन्दनवन में कामदेव रूपी चन्द्रमा के लिए कुपित राहु के समान, मुनिसंघ के स्वामी मुनिवर को देखा। वे दोनों ही वैदिक आचार में निष्ठ थे। वे दुष्ट, कठोर, दर्पिष्ट और ढीठ थे। मुनिवर ने उन्हें आते हुए देख लिया। मधुर स्वर में उन्होंने धीरे से कहा (1) 1P पहुण्णं । 2.5 °भावहं । 3. P विणिग्गय 4 A दुद्धिर । 5. A सुख सुहे . PS वाहभूड़ 7 AP°किंकार। 8. PS णंदघोस 5 अनंत। 1D A जयवरेण LI A बोलिउ । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 91.2.121 महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [ 209 घत्ता-किज्जइ उपपेक्ख पावि ण लग्गइ धम्ममइ । लोयणपरिहीणु किं जाणइ णडणट्टगइ ||3|| गुरुवयणु सुणिवि खयकामकंद धिय माणु लएप्पिणु मुणिवरिंद। जे खलु जोइवि णियतणु चति उपसमि वि थंति जिणु संभरति । जे जीविउं मरणु वि समु गणति परु पहणंतु वि णउ पडिहणति। जे मिग जिह णिजणि वणि वसंति मुणिणाहहं ताहं मि वइरि होति । आया ते पभणिवि अभणियाई खमदमदिहिवंतहि णिसुणियाई। णिग्गय गय पिसुण पलंबबाहु गामंतरि दिउ अवरु साहु। सो भणिउ तेहि रे मूढ णग्ग मणमलिण मोक्खवाएण भग्ग। पसु मारिवि खद्ध ण जण्णि मासु तुम्हारिसाहं कहिं तियसवासु। ता सच्चयमुणिवरु भणइ एम्ब जइ हिंसायर णरा होंति देव । तो सूणागारहु पढमु' सग्गु जाएसइ को पुणु णरयमगु । 10 जंपिउं जणेण जइ भणइ चारु जायउ विप्पहं माणावहारु। अण्णहिं दिणि जोइयमुयबलेहिं णिवसंतहु संतहु वणि खलेहि । घत्ता-उपेक्षा करनी चाहिए, पापी को धर्म की बुद्धि नहीं लगती। जो नेत्रों से परिहीन है, वह नृत्य की गति क्या जान सकता है ? क्षीण हो गया है कामांकुर जिनका, ऐसे मुनिवरेन्द्र यह सुनकर मौन होकर स्थित हो गये। जो तृण देखकर चलते हैं, उपशम में स्थिर रहते हैं, जिनदेव का स्मरण करते हैं, जो जीवन और मृत्यु को समान गिनते हैं, दूसरे के प्रहार करने पर भी उसके प्रति प्रहार नहीं करते, जो पशुओं की तरह निर्जन वन में निवास करते हैं, ऐसे मुनिनायों के भी शत्रु होते हैं। वे दोनों नहीं कहने योग्य कहने के लिए आये। लेकिन क्षमा, दम और धैर्य से युक्त उन्होंने उसे सह लिया। वे दुष्ट निकलकर चले गये। गाँव के भीतर उन्हें एक और मुनि मिले। उन दोनों ने उनसे कहा-"रे रे मूर्ख ! नंगे ! तुम मन से मैले और मोक्षरूपी वात से भग्न हो। तुमने यज्ञ में पशु मारकर नहीं खाया। तुम जैसे लोगों के लिए देववास कैसा ?" । इस पर सात्यकि मुनि कहते हैं- "यदि हिंसा करनेवाले मनुष्य देव होते हैं, तो कसाई के लिए सबसे पहले स्वर्ग मिलना चाहिए। और फिर तब नरक कौन जाएगा ?" लोगों ने कहा कि मुनि ठीक कहते हैं। ब्राह्मणों का इससे. मानापहार हो गया। एक दिन, वन में निवास कर रहे उन पर अपना बाहुबल दिखाते 32. Aवरितु। . मृग। 1. "विहियंताहि । ..A सुब्बय | G. P ता । 7. BAIS. पदमसगु। ४. यस्मगु19. A दियखलेहि; (2) 1. वियसलाहिं। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210] महाकइपुण्फयंतविरयउ महापुराणु आवाहिउ भीसणु असिपहारु ते विणि वि भिय खग्गहत्य वरदेवपहाव पिपीलियाई अलियउं ण होइ जिणणाहसुत्तु पत्ता - तणुरुहतणुरोहु अवलोइवि कंत्रणजक्खें किज" दिव्वचारु । गं मट्टियमय" थिय किय गिरत्थ । अडुंगोवंगई खीलिवाई। पावेण पाउ खज्जइ णिरत्तु । उव्वेइयई" । मायापियराई जक्खहु सरणु पराइयई । " ||2|| (3) कंपंति णाई खगय भुयग सोवण्णजक्ख जय सामिसाल ता भाइ देउ पसुजीवहारि हिंसाइ विवज्जिउ सच्चगम्पु ता' करमि सुयंगई मोक्कलाई गहियाई तेहिं पालियदयाई विडिय ते कुगइमहंधयारि अणुहविभीमभवस्यरुएहिं जंपति' विप्प महिणिवडियंग | रक्खहि अम्हारा बे वि बाल । जइ ण करह" कम्मु' कुजम्मकारि । जइ पडिवज्जह जइगिंदधम्मु । पेक्खहु अज्जु जि सुक्कियफलाई । माचाभावें सावयवयाई । णीसारसारि तंबारवारि । पुणु पालि व दियवरसुएहिं । 191.2.13 ID APS | 11. BS भायक शिव पर णिरस्थ 12 B उनेइयउ | 19 13 राइड (3)S जप्यंति। 2. AP कर 15 हुए उन दुष्टों ने भीषण असिप्रहार किया। उस अवसर पर कांचन यक्ष ने सुन्दर आचरण किया। हाथ में तलवार लिये यक्ष के द्वारा वे दोनों कोल दिये गये। उन्हें इस प्रकार निष्क्रिय कर देने पर वे ऐसे हो गये जैसे मिट्टी के बने हों। बरदेव के प्रभाव से निष्पीड़ित आठों अंगोपांग कील दिये गये। जिननाथ का कथन झूठा नहीं हो सकता। निश्चय ही पाप के द्वारा पाप खाया जाता | घत्ता - अपने पुत्रों का शरीररोध देखकर माता-पिता बहुत परेशान हुए और वे यक्ष की शरण में पहुँचे । रह । 3. A जणु । 4. P कम्मु : ABPS श्री . ABP वरं । 5 (3) गरुड़ से आहत, साँप की तरह काँपते हुए और धरती पर पड़ते हुए वे कहते हैं-- "हे स्वामिन् । श्रेष्ठ कांचन यक्ष ! तुम्हारी जय हो। तुम हमारे दोनों पुत्रों की रक्षा करो।" तब देव कहता है-"यदि ये पशुओं को मारने और कुजन्म को करनेवाला कर्म नहीं करते और हिंसा से रहित सत्यगम्य जैनधर्म स्वीकार करते हैं, तो मैं पुत्रों के अंगों को मुक्त करता हूँ। आज ही तुम सुकृत का फल देखो।" तब उन्होंने, जिसमें दया का पालन है, ऐसे श्रावक व्रतों को कपटभाव स्वीकार कर लिया। वे भी कुगति के अधिकार से युक्त, निःसारता से युक्त लम्वार नरक में जा पड़े। फिर सैकड़ों भयंकर संसार - रोगों का अनुभव करनेवाले उन द्विजवर पुत्रों ने व्रत का पालन किया। वे सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुए, और उन्होंने पाँच पत्य तक देवक्रीड़ाओं Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 91.4.91 महाकदपुष्फयंतावरयउ महापुराणु [ 211 ___ 10 "गय साहमहु कयतुरंभाई नुसाई पंच पलिओवमाई। पुणु सिहरासियकीलंतखयरि इह दीचि भरहि साकेयणयरि। गारणाहु अरिंजउ वइरितासु" वणि वणिउलपुंगमु अरुहदासु । चप्पसिरि घरिणि सुउ पुण्णभदु अण्णेक्कु वि जायउ माणिभदु । घत्ता-सिद्धस्थवणंतु" सहुँ राए जाइवि वरई। गुरु णविवि महिंदु आचण्णिवि धम्मक्खरई ॥3॥ णियलच्छि विइण्ण' अरिंदमासु सिरसिहरचाचियणियभुएहि चिरभवमावापियराइं जाई रिसि भणइ बद्धमिच्छत्तराउ रयणप्पहसप्पावत्तविवरि अणुहजिवि तह- बहुदुक्खसंधु कुलग, पडियउ पावयम्मु तहु मंदिरि तुम्हहुँ विहिं मि माय अग्गिलबंभणि तं सुणिवि तेहिं पावइयउ जावउ अरुहदासु। पुणु मुणि पुच्छिउ वणिवरसुएहिं। जायाई भडारा केत्यु ताई। जिणधम्मविरोहउ तुज्झु ताउ। हुउ णरइ णारयाढत्तसमरि। मायंगु पहूयउ कायजघु। सो सोमदेउ संपुण्णछम्मु। सा सारमेय' हूई बराय। तहिं जाइवि' मउवयणामएहिं। का यहाँ उपभोग किया। अनन्तर, इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में, जिसके शिखरों पर पक्षी क्रीड़ा करते हैं ऐसे साकेत नगर में, शत्रुओं को सन्ताप देनेवाला अरिंजय नाम का राजा तथा वणिक कुल में श्रेष्ठ अरुहदास नाम का वणिक् था। उसकी पत्नी वप्रश्री थी। उसका एक पूर्णभद्र पुत्र हुआ और दूसरा मणिभद्र हुआ। पत्ता-सिद्धार्थ वन में राजा के साथ जाकर, महेन्द्र गुरु को नमस्कार कर तथा उत्तम धर्माक्षर (प्रवचन) सुनकर -- ( 4) ___ अरिंजय और अरुहदास अपनी लक्ष्मी वितरित कर प्रद्रजित हो गये। सिर रूपी शिखर पर अपने दोनों हाथ चढ़ाते हुए दोनों वणिपुत्रों ने मुनि से पूछा- “जो हमारे पूर्वभव के माता-पिता थे, आदरणीय वे कहाँ जन्मे ?'' मुनि कहते हैं- "मिथ्यात्व के राग को बाँधनेवाले और जिनधर्म के विरोधी तुम्हारे पिता रत्नप्रभा नरक के सावर्त बिल में उत्पन्न हुए हैं, जहाँ नारकियों के द्वारा युद्ध प्रारम्भ किया जाता है। वहाँ प्रचुर दःख समूह को सहन करने के बाद कागजंघा नामक चाण्डाल हआ। कलगर्व से प्रतारित पापकर्मा वह पूरा पाखण्डी सोमदेव (तुम्हारा पिता), उसी के घर में तुम दोनों की वह माँ बेचारी कुतिया हुई जी अग्निला नाम की ब्राह्मणी थी।" यह सुनकर उन दोनों ने वहीं जाकर अपने मृदु वचनामृत से उन दोनों को सम्बोधित 7. A "सुहरमाई P सुररसाई। 8. 4 बपरि 19. A वणिवरगम । 10. P"वर्णते। 11. आइ विरह। ' (4) 1. B-विदिण्ण12.5 तेहिं । 3. A संपत्तहम्म। 4.AP सारमेह । 5. B जायवि। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2121 महाकइपुष्फयंतावेरवळ महापुराणु बोहियाई बिणि वि जणाई मुउ कायजंघु काववयविहीसु परिपालियणिय कुलहरकमेण अग्गलसुणी व सिरिमइहि धीय पत्ता- आसीणणिवासु अग्घोसियमंगलवहु ।। णवजोव्वणि जंति बाल सयंवरमंडबहु" । 14 ।। (5) पइणाम पडिवज्जिबि पारिदेह सुणहत्तणु तं वज्जरि ताहि तं णिसुणिवि सा संजयमणाहि ' त करिवि मरिवि सोहम्मि जाय ते भायर सावयवय' धरेवि तत्थेव य वियलियमलविलेव वोली देह समुहकालि गयउरि णिउ गायें अरुहदासु महु कीडय णामें ताहि" लणय उवसंत जिणपयगयमणाई | संजायउ गंदीसरि णिहीसु । संजणिय णिवेणारिंदमेण । सुइ सुप्पबद्ध णामें विणीय । मायंगजम्मु बहुपावबेहु । हलि अग्गिलि किं रइ तुह विवाहि । पावइय पासि पियदरिसणाहि । मणिचूल णाम सुरवइहि जाय । ते पुण्णमाणिभद्दक बे वि जाया मणहर सावण्णदेव' | हुय" कुरुजंगलरेताल कासव पिययम वल्लहिय तासु । ते जाया गुणगणजाणिवपणय । [91.4.10 10 15 5 किया। उनका मन शान्त होकर जिनचरणों में लग गया। व्रत की विधि का पालन करनेवाला कागजंघा मर कर नन्दीश्वर में यक्ष हो गया। अपने कुलगृह कर्म का पालन करनेवाले राजा अरिदमन ने भी अग्निला कुतिया को श्रीमती की पुत्री के रूप में, पवित्र सुप्रबुद्धा विनीता नाम से उत्पन्न किया। धत्ता - जिसमें मंगल बर बुलाये गये हैं, ऐसे विवाह के मण्डप में जिसमें राजा लोग बैठे हैं, उस नवयौवना बाला के जाने पर, (5) पति ( पूर्वभव का सोमदेव, अब यक्ष) ने मना करने के लिए वह नारी शरीर, अनेक पापों का घर चाण्डाल जन्म, वह कुतियापन, उसे बताया और बोला- “हला अग्निले क्या फिर से तुम्हारी विवाह में रति है ?" यह सुनकर वह संयम मनवाली प्रियदर्शना आर्थिका के पास प्रव्रजित हो गयी। तप कर और मरकर वह सीधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुई और मणिचूल नामक देव का देवी हो गयी। वे दोनों भाई पूर्णभद्र और मणिभद्र मी श्रावक व्रत ग्रहण कर वहीं पर मलविलेप से रहित होकर सुन्दर सामानिक देव हुए। एक सागर पर्यन्त समय बीतने पर और शरीर के च्युत होने पर कुरुजांगल देश के गजपुर में अरुहदास नाम का राजा था। उसकी प्रियतम पत्नी काश्यपी थी। वे दोनों उसके मधु और क्रोइक नाम के पुत्र हुए जो अपने गुणगण से नम्रता प्रकट करनेवाल थे। b. A मंदीरार | 7. B कूलरणिय H. A आसीणवरामु । 9 [ "मंडहो । ( 5 ) 1. P संयम' 2. AP सावयव चरेवि 3. R जे 4. P साम 5. A बोलीणदेहि दुतमुद्द° 6. P ग्रुप 1 7 AB जंगलि | 8 A गयउरि णामे गिन अरुहासु 9 A तारे। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 91.6.12 ) महाकपुष्यंतविरयल महापुराणु घत्ता - आयणिवि धम्मु भवसंसरणहु " संकियउ । विमलप्पहपासि अरुहदासु दिक्खकिय || 5 || (6) महु कीडय बद्धसणेहभाव' ता अवरकंपपुरवई पसण्णु आयउ किर किंकरु महुहि पासु पीपत्थणि णामें कणयमाल असतें पहुणा सरपिसक्कु जडु दुजङतवसिपयमूलि थक्कु कणबरहें सोसिउ निययकार वंदेवि भंडारण विमलबाहु परियाणिवि तच्चु तवेण तेहिं चिरु दहमइ सग्गि महापसत्यु हरिमहाएविहि रुप्पिणिहि गमि महु संभूयउ पज्जुष्णु गामु गयउरि संजाया" बे वि राय । करहु णाम' कणयारवण्णुः । ता तेण वि इच्छिय घरिणि तासु । पहुमणि उग्गय मयणग्गिजाल | उद्दालय बहु वियलियविवक्कु" । तियसोएं" कउ तउ" "भेसियक्कु । विसहिउ दूसह पंचग्गिताउ । दुद्धरवव संजनवारिवाहु | इंदत्तु पत्तु महुकीडवेहिं" । मणु रंजिवि भुंजिवि इंदियत्थु । चंदु व संचरियउ" पविमलब्धि | पसरियपयाउ रामाहिरामु । | 213 यत्ता -- भवभ्रमण से शंकित अरुहदास ने धर्म सुनकर विमलप्रभ के पास दीक्षा ग्रहण कर ली । (6) 10 5 10 स्नेहभाव से बँधे हुए मधु और क्रीड़क दोनों गजपुर के राजा हो गये। इसी समय अमरकम्पपुर का राजा कनकरथ अत्यन्त प्रसन्न और कनेर के पुष्प के रंग का था। मधु के पास उसका अनुचर आया। उसने भी उसकी गृहिणी पीनस्तनवाली कनकमाला को पसन्द कर लिया। राजा मधु के मन में काम की ज्वाला भड़क उटी । कामदेव के तीर सहन न कर सकने के कारण राजा ने उस वधू को उड़ा लिया। विवेकशून्य होकर मूर्ख कनकरथ जटावाले तपस्वी के चरणों में बैठ गया और पत्नी के वियोग से दुःखी होकर उसने पंचाग्नि तप तपा । कनकरथ ने अपना शरीर सुखा डाला। उसने असह्य पंचाग्निताप सहा दुर्धरव्रत और संयम के मेघ, विमलबाहु मुनि की वन्दना कर, तत्त्व को जानकर उन दोनों मधु और क्रीड़क ने तप से इन्द्रपद प्राप्त किया। बहुत समय तक दसवें स्वर्ग में महाप्रशस्त मन का रंजन कर तथा इन्द्रियार्थ भोगकर कृष्ण की महादेवी रुक्मणी के गर्भ से मधु स्त्रियों के लिए रमणीय, प्रसरित प्रतापवाला प्रद्युम्न वैसे ही उत्पन्न हुआ, जैसे स्वच्छमेघों में से चन्द्रमा । 10. AP संसारहो। ( 6 ) 1. PS भाय । 2. AS जाया ते बे वि; P ते जाया बे वि3. AB अमरकम्प: P अवरकंक 14. Pामु। 5. A कण्णयार: 5 कणियार । 6. AP पली 7 मही मणि; P मधुमणि । 8. B वित्तक्कु । 9. 13 दुजड़ 10 5 तृय ।।1.5 तबु। 12. नियइ 13. P कीडएहिं । 11. AP चरियउ विमल अब्धि । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214] [91.6.13 महाकहपुष्फयंतविरयउ महापुराणु घत्ता-कणवरहु मरिवि जायउ भीसणवइरवसु । पहि जंतु विमाणु खलिउं कुइउस जोइसतियसु ॥6॥ थक्कइ बिमाणि सो' भिण्णकेउ आरूढई गज्जई धूमकेउ। चिरु जम्मतरि सिसुहरिणणेत्तु अवहरिउ जेण मेरउं कलत्तु । सो जायउ अज्जु जि एत्यु वेरि मरु मारमि खलु णिज्बूढखेरि। घल्लमि काणणि अविवेयभाउ' दुई अणुहंजिवि जिह मरइ पाउ। गयणयललग्गतालीतमालि इय मंतिवि खयरवणंतरालि। परियणु मोहेप्पिणु सयलणयरि सिसु घल्लिज तपखयसिलहि उरि'। पुरि बहिउ' सोउ महायणाहं हलहररुप्पिणिणारायणाह। ता विउलि सेलि वेयडणामि अमयवइदेसि विस्थिण्णगामि। दाहिणसेढिहि घणकूडणयरि णहसायरि" विलसियचिंधमयरि । तहि कालि कालसंवरु'' खगिंदु गणियारिविहूसिउ णं गइंदु। धत्ता-सविमाणारूद कंचणमालइ समउं तहिं। संपत्तउ राउ अच्छइ महुमहडिंभु जहि ॥7॥ 10 पत्ता-भीषण बैर के वशीभूत होकर कनकरथ ज्योतिष देव हुआ और आकाश में जाते हुए उसका विमान रुक गया। वह कुपित हो उठा। विमान रुक जाने पर, उस पर आरूढ़ विद्धध्वज धूमकेतु गरजता है-“पिछले जन्म में जिसने मृगशावक के नेत्रोंवाली मेरी स्त्री का अपहरण किया था, वह शत्रु आज यहाँ उत्पन्न हुआ है। बढ़ते हुए द्वेषवाले उसको, लो, मैं मारता हूँ। उस विवेकशून्य को जंगल में फेंक देता हूँ, जिससे वह पापी दुःख का अनुभव करके मर जाए।" ऐसा विचार कर उस खेचर (विद्याधर) ने वन के अन्तराल में सम्पूर्ण नगरी और परिजनों को सम्मोहित कर उस शिशु को, आकाशतल से जा लगे हैं ताड़ और तमाल वृक्ष जिसमें ऐसी तक्षशिला पर पटक दिया। नगर में बलभद्र, नारायण और रुक्मणी आदि महाजनों में शोक छा (बढ़) गया। इसी समय विजयार्घ नगर के उस विशाल पर्वत पर विस्तीर्ण गाँवोंवाले अमृतवती देश में दक्षिण श्रेणी के मेघकूट नगर में, जो ऐसा लगता था कि शोभित चिह्न रूपी नगरोंवाला नभसागर हो, उसमें कालसंवर नरेश था। वह ऐसा था जैसे हथिनी से विभूषित हाथी हो। घत्ता-कंचनमाला सहित अपने विमान में आरूढ़ वह देव वहाँ आया, जहाँ कृष्ण का पुत्र प्रद्युम्न था। [5. ABPS भीसा । 16. A कुयत्र । (7) 1. A सीहिसकेउ। 2. AP आरुहर। १. 5 मारेमि। 1. भावु। .. 5 मरण पावु। . $ घतिय। 7. B उअरि; Pउपरि। 8. B बति।। 9.8"रूपिणि । 10. । विजल TIH. APS णहसायर । 12. D कालसंभत्। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 91.9.2] महाकइपुष्फयंतविरयर महापुराणु [215 अवलोइउ बालउ कर घिवंतु छुडु छुडु उग्गउ णं रवि तवंतु। बोल्लिउ पहुणा लायण्णजुत्तु | लइ लइ सुंदरि तुह होउ पुत्तु । बालउ लक्खणलखंकियंगु रूवें णिच्छउ होसइ अणंगु। ता ताई लइउ सुउ ललियबाहु णं णियदेहह मयणग्गिडाह। वरतणयलंभहरिसियमणाइ पुणु पत्थिउ णियपिययमु अणाइ। परमेसर जइ मई करहि कज्जु तो तुह परोक्खि एयहु जि रज्जु । जिह होइ देव तिह देहि वाय रक्खिज्जउ महु सोहग्गछाय। तं णिसुणिवि पहुणा विप्फुरंतु उव्वेल्लिवि कंतहि कणयवत्तु। बद्धउ पुत्तहु जुवरायपटु पुलएं जणणिहि कंचुउ विसटु। पत्ता-णिवणयरु गयाई पुण्णपहावपहारियई। शंदणलाहेण बिणि वि हरिसाऊरियइं ॥8॥ मंदिरि मिलियई सजणसयाइं काणीणहुँ दीगहुं दिण्णु दाणु णाणामंगलतुरई हयाई। पूरियदिहि' अइइच्छापमाणु। अपने हाथों को बढ़ाते हुए उसने बालक को देखा, मानो अभी-अभी ऊगा हुआ सूर्य आलोकित हो। राजा ने कहा- "हे सुन्दरी ! लावण्य से युक्त इसे ले लो। यह तुम्हारा पुत्र होगा। यह बालक लाखों लक्षणों से सहित है। रूप में निश्चित ही यह कामदेव होगा।" तब उसने सुन्दर बाँहोंवाले उस पुत्र को ले लिया, मानो बह जैसे अपने शरीर की मदनाग्नि की जलन हो। उत्तम पुत्र को पाने के कारण हर्षितमन उस रानी ने फिर अपने स्वामी से प्रार्थना की-“हे स्वामी ! यदि आप मेरी बात मानें तो आपके परोक्ष में राज्य जिस प्रकार इसका हो सके, उस प्रकार का वचन मुझे दीजिए और मेरी सौभाग्य छाया की रक्षा कीजिए।" यह सुनकर राजा ने चमकता हुआ कनकपत्र निकालकर पुत्र को युवराजपट्ट बाँध दिया। रोमांच से माता का कंचुक वस्त्र फट गया। पत्ता-पुण्य प्रभाव की प्रभा से परिपूर्ण और पुत्र मिल जाने के कारण हर्ष से भरे हुए वे दोनों अपने नगर चले गये। (9) महल में पहुंचने पर सैकड़ों सज्जन उससे मिले। नाना मंगल तूर्य बजाये गये। व्यासों और दीनों को (8) 1. 5 देवि याच। (9)1. PS दिपण। 2. AP पूरिथदिहियई। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 216] महाकइपुष्फवंतविरयउ महापुराणु [91.9.3 बंदियई अणेयई पुज्जियाई कारागाराउ विसज्जियाई। विरइउ तणयह उच्छवपयत्तु तहु णामु' पइट्ठिउ देवयत्तु। आणंदु पणच्चिउ सज्जणेहि उच्छाहु विमुक्कउ दुज्जणेहि। णं कित्तिवेल्लिवित्यरिउ कंदु परिवुटु' बालु णं बालयंदु । संजाउ णिहिलविण्णाणकुसलु जिणणाहपायराईवभसलु। मंडलिवणियरकलियारएण एत्तहि हिंडतें पारएण। रुप्पिणिहि महंतंगयविओउ कण्हहु जाइवि अवहरिउ सोउ। णिवमउडरयणकतिल्लपाय गोविंद णिसुणि' रायाहिराय। पत्ता-मेइणि विहरंतु पुचविदेहि पसण्णसरि । हउँ गउ णरणाह चारु "पुंडरीकिणिणयरि० ॥५॥ ( 10 ) तहिं महुँ विद्धसियमयगहेण अक्खि अरुहेण सयंपहेण। जिह णिउ देवें वइरायरेण जिह चित्तु रण्णि परमारएण। जिह पालिउ अबरें खेयरेण सुउ पडिवजिवि पणयंकरेण'। जिह जायउ सुंदरु णवजुवाणु सोलहसंवच्छरपरिपमाणु । दान दिया गया, जो भाग्य की पूर्ति करनेवाला और अति इच्छाओं के प्रभाव के अनुरूप था। अनेक वन्दियों का सम्मान किया गया और कारागार से उन्हें विसर्जित कर दिया गया। पुत्र का उत्सव प्रयत्न से किया गया और उसका नाम देवदत्त रखा गया। सज्जनों ने आनन्द मनाया और दुर्जनों का उत्साह चला गया। बालक बढ़ने लगा मानो कीर्तिरूपी लता का विस्तृत अंकुर हो, मानो बालचन्द्र हो। वह अखिल विज्ञानों में कुशल और जिननाथ के चरणकमलों की पंक्ति का भ्रमर हो गया। माण्डलीक राजाओं के समूह में कलह करानेवाले, भ्रमण करते हुए नारद ने जाकर यहाँ रुक्मणी और कृष्ण का महान् पुत्रवियोग और शोक दूर किया। राजाओं के मुकुटरलों से कान्तिमय-चरण, हे राजाधिराज गोविन्द ! सुनिए घत्ता-धरती पर विहार करते हुए पूर्व विदेह में लक्ष्मी से प्रसन्न सुन्दर पुण्डरीकिणी नगरी में, हे नरनाथ ! मैं गया था। (10) वहाँ मुझे कामदेव रूपी ग्रह को ध्वस्त करनेवाले अरहन्त स्वयंप्रभ ने बताया कि किस प्रकार शत्रुता रखनेवाला देव बालक को ले गया, और किस प्रकार दूसरों को मारनेवाले उसने उसे वन में फेंक दिया। किस प्रकार दूसरे प्रियंकर विद्याधर ने उसका पालन-पोषण किया, और किस प्रकार उसे अपना पुत्र माना। वह सुन्दर नवयुवक किस प्रकार सोलह वर्ष का हो गया। यह सुनकर रुक्मणी और कृष्ण का हर्ष आँसुओं 5. B उच्छउ । 1. B पाड; 5 पाई। 1. A परिशुद्ध । 5. B रूपिणिहि । 6. 5 नृव । 7. 5 णिसुणेयि । 8. B “सिरेि । 9. AS पुंडरिंगिणि"; " पुंडरिकिणि: 18.5 प्रणयरहिं। (10) 1. मुह। 2. A अरहेण । 3. AP वित्त वणि । 4. पणयंधरेण । 5. D संवत्सरपरियमाणु। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! 91.11.8] महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु तं णिसुणिवि 'रूपिणिहरिहि हरिसु एतहि वि कुमारें हयमलेण अपि णियतायहु णीससंतु कंचणमालहि कामगिजाल संजायत हरिसंसुयई' वरिसु । रणि अग्गिराउ संधिवि बलेण । अवलोइवि णंदणु गुणमहंतु । उडिय हियउल्लइ णिरु कराल । मायइ विरहविसंकुलई । की कि गरिथ मेइणियलइ ॥ 10 ॥ ( 11 ) पत्ता - अहिलसिउ सपुत्तु काडु चल पंगणि' रंगंतु विसालणेत्तु जं थणचूवई' लाइउ रुवतु जं जोइउ णयहिं वियसिएहिं तं एवहि पेमुग्गयरसेण पुत्तु जि पइभावें लइउ ताइ हक्कारिवि दरिसिउ पेम्मभाउ मई इच्छहि लइ पण्णत्त विज्ज तं णिसुणिवि भासिउं तेण सामु जं उच्चाइउ धूलीविलित्तु । जं कलखु परियंदिउ सुयंतु' । जं बोल्लविउ पियजपिएहिं । वीसरिय सव् वम्महवसेण । संताविय मणरुहसिडिसिहाइ । तुहुं होहि देव खयराहिराउ । णिव्यूढमाण माणवमणोज्ज । करपल्लव ढोइउं पाणिपोमु । [ 217 5 5 के रूप में बरस गया । यहाँ पर पवित्र कुमार ने अग्निराज को युद्ध में बलपूर्वक बाँधकर और सिसकते हुए उसे अपने पिता के लिए सौंप दिया। गुणों से महान् अपने पुत्र को देखकर कंचनमाला के हृदय में भयंकर कामज्वाला उठी । घत्ता - विरह से अस्त-व्यस्त माँ अपने ही पुत्र को चाहने लगी। इस धरतीतल पर कामदेव से बलवान् दूसरा कोई नहीं है । ( 11 ) आँगन में चलते हुए जिस विशालनेत्र धूलधूसरित बालक को गोद में उठाया, रोते हुए जिसे अपने स्तन के अग्रभाग से लगाया, खिली हुईं आँखों से जिसे देखा गया, सोते हुए जिसे सुन्दर लोरियाँ सुनायीं, इस समय वह प्रेम के उद्भव रस और कामदेव के वशीभूत होकर सब कुछ भूल गयी। उसने पुत्र को भी पतिभाव से लिया । वह कामदेव की अग्नि की ज्वाला से सन्तप्त हो उठी। बुलाकर उसने कुमार को प्रेमभाव दिखाया और कहा - "हे देव! तुम विद्याधर राजा बन जाओ। मान का निर्वाह करनेवाले हे मानव सुन्दर ! मुझसे प्रेम करो और यह प्रज्ञप्ति विद्या लो।" यह सुनकर उसने श्यामा से बात की और उसके करतल में अपना करकमल दे दिया, तथा हृदय के ऊपर के वस्त्र से अपने स्तन को प्रकट करनेवाली उसके द्वारा दी गयी h, ABPS] रूपिणि । A सुययरिसुः Als. "सुयपयरितु against Mss. 8. S सुपुत्तु । 9 APS मयणविसकुलए: B records Ap: मण इति वा पाठः । ( 11 ) 1. AP अंगणं । 2 A वणजुयहे R वणजुवल PS यणचूयहे। 3. APIS रुयंतु 1. P कलर 5. B अयंतु। 6. P जीयउ 7. B जं पिबबएहिं । A AP वीसरिज 5 विसरिय। 9. S हक्कारवि दरसि । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 ] महाकइपुष्फयंतविरक्त महापुराणु [91.11.9 गलिउत्तरिज्जपयडियथणाइ संगहिय विज दिण्णी अणाइ। गयणंगणलग्गविचित्तचूदु गउ सुंदरु जिणहरु" सिद्धकूड। 10 अवलोइवि चारण बिग्णि तेत्यु मुणिकर जयकारिवि जगपयत्यु। आयण्णियि बहुरसभावभरि सिरिसंजयंतरिसिणाहचरिउं। तप्यायमूलि संसारसारु विरइउ विज्जासाहणपयारु। घत्ता-पुणु आयउ गेहु सुउ जोयंति विरुद्धएण। उरि विद्धी झत्ति कणयमाल मयरद्धएण ॥11॥ (12) णिरत्था सरेणं उरगं करेणं। हणंती कणती ससंती धुणंती। कओले विचित्तं विसाएण पत्तं। विइण्णं पसंती अलं णीससंती। रसेणं विसट्ट ण पेच्छेइ ण । णिसामेइ गेयं ण कव्यंगभेयं। पढतं ण कीरं पदावेइ सारं। घणं दंसिऊणं कलं पिऊणं। वरं चित्तचोरं ण णाडेइ मोरं। पहाए फुरंत सलीलं चरंत। ण मण्णेई हंसं ण वीर्ण ण वंसं विद्या स्वीकार कर ली। वह सुन्दर बालक “आकाशरूपी आँगन के लगे हुए हैं विचित्र शिखर जिसके ऐसे सिद्धकूट जिनमन्दिर गया। वहाँ दो चारण मुनियों को देखकर, उनकी जय-जयकार कर, उनसे विश्व के तत्त्वों तथा बहुत रसभाव से भरे हुए श्री जयन्त ऋषिनाथ का चरित सुनकर, उन्हीं के चरणों के मूल में संसार के श्रेष्ठ विद्यासाधन-प्रकार को उसने साधा। ___घत्ता-पुनः घर आये हुए पुत्र को देखकर विरुद्ध कामदेव ने कनकमाला के हृदय को शीघ्र विद्ध कर दिया। (12) कामदेव से वह व्यर्थ हो गयी। हाथ से अपने हृदय को पीटती हुई, चिल्लाती, सिसकती, धुनती हुई, विषाद से गालों पर विचित्र फैली हुई पत्ररचना को पोंछती हुई, अत्यन्त निःश्वास लेती हुई वह रस से भी विशिष्ट नाट्य को नहीं देखती, न गीत को सुनती और न काव्यांग भेद को। न पढ़ते हुए तोते को सुनती है और न मैना को पढ़ाती है। बादलों को देखकर, सुन्दर बोलकर, श्रेष्ठ चित्त को चुरानेवाले मयूर को भी to. ABP "कुहु । 11. PS जिणधस। 12.5 अवलोहएयि। 15. PS आइज। (12) 1. पोट। 2. APण कब्बगभेयं, णिसामेल गेयं । 3. B पुरंत । 1. 8 चलतं । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 91.12.30] महाकइपुष्फयंतविरवर महापुराणु [ 219 20 ण पहाणं ण खाणं पाणं दाणं। ण भूसाविहाणं ण एयत्यठाणं। ण कीलाविणोयं ण भुजेइ भोयं। सरीरे घुलती जलद्दा जलती। णवंभोयमाला सिहिस्सेय जाला। ण तीए सुहिल्ली मणे कामभल्ली। णिरुत्तण्णमण्णा जरालुत्तसण्णा। विमोत्तूण संके सगोत्तस्स पंक। पकाउं पउत्ता सरुत्तत्तगत्ता'। सपेम्म थवंती पएK णमंती। पहासेइ एवं सुयं कामएवं । अहो सच्छभावा मई इच्छा देवा। तओ तेण उत्तं अहो हो अजुत्तं। विइण्णगछाया तुम मज्झु माया। थणंगाउ धणं गलतं पसण्णं। मए तुज्झ पीयं म जंपेहि बीयं। असुद्धं अबुद्धं बुहाणं विरुद्धं। घता-ता ससिवयणइ" जंपिउं जंपहि गेहचुउ । तुहं काणणि लद्ध णंदणु णउ मह देहहुउ" ॥12॥ नहीं नचाती है। प्रभा से भास्वर लीलापूर्वक विचरण करते हुए हंस को भी वह नहीं मानती, न वीणा को और न बाँसुरी को। न स्नान, न भोजन, और दान-पान, न वेशभूषा का विधान और इसके लिए स्थान चाहती है। न क्रीडा-विनोद करती, और न मोगों को भोगती। शरीर में घुलती हुई, जल से आर्द्र होने पर भी जलती हुई, आग से झुलसी हुई उसे नव मेघमाला अच्छी नहीं लगती। उसके मन में काम की मल्लिका (छोटी माला) है। निश्चय से वह अन्यमनस्क एवं विरहज्वर से लुप्त चेतनावाली है। अपने गोत्र की शंका और कलंक को छोड़कर, पकी हुई आयु को प्राप्त, कामदेव से संतप्त शरीर, प्रेमपूर्वक स्तुति करती हुई, पैरों में पड़ती हुई वह कामदेवपुत्र से इस प्रकार कहती है-“हे स्वच्छभाववाले देव ! मुझे चाहो।" तब उसने कहा- "अहो यह अयुक्त है। शरीर को कान्ति देनेवाली तुम मेरी माँ हो। तुम्हारे स्तनांग से झरते हुए दूध को मैंने पिया है, तुम अन्यथा बात मत करो जो अशुद्ध, मूर्ख तथा पण्डितों के लिए विरुद्ध हो।" ___घत्ता-इस पर वह चन्द्रमुखी कहती है-“तुम स्नेहहीन बात करते हो, तुम जंगल में मिले हुए मेरे पुत्र हो, तुम मेरे शरीर से उत्पन्न नहीं हुए। 5. 5 पाणेइ । 6. A लिहिस्सेबजाला, णबंधोयमाला। 7. P मरुत्तत्त । 8. AP सुपेम्म। 9. BS णवंती। 10.8 इच्छि। 11.Aणगाण यण: As थणग्गाउ धणं अwainst Mss. 12. PS ससिबचणाए। 13. 5 देहे हुओ। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 ] महाकइपुष्फयतविरयड महापुराणु [91.13.1 5 (13) तक्खयसिल णामें तुज्झु माय महुं कामसत्तहि देहि वाय। तं वयणु सुणिवि मउलंतणयणु अवहेर' करेप्पिणु गयउ मयणु। 'ला चिट्ठ पु दुभारंगे णियणहहिं वियारिवि णिययदेहु। आरुट्ठ सुठु' णिछर हयास | अक्खइ णियइयह जायरोस । तुहुं देव डिंभकरुणाइ भुत्तु परजणिउ होइ किं कहिं मि पुत्तु। कामंधु पाणिपल्लवि विलग्गु जोयहि णहदारिउ महुँ थणग्गु । तं णिसुणिवि राएं कुद्धएण जलणेण व जालारिद्धएण'। भीसणपिसुणहं मारणमणाहं आएसु दिण्णु णियणंदणाह। णिल्लज्ज अज्जु दायज्ज' महहु' पच्छण्णउं एसु वहाइ बहु । तणयहं जयगहणुक्कठियाइं ता पंच सयाई समुट्लियाई। घत्ता-प्रियवयणु" भणेवि सिरिरमणंगउ साहसिउ। णिउ रण्णहु तेहिं सो कुमार' कीलारसिउ ।।।3।। 10 णं पलयकालजमदूयतुडु' णियजणणसुपेसणपेरिएहिं तहिं हुयवहजालाजलियकुंडु । दक्खालिवि बोल्लिउं वइरिएहि । नाम से तक्षशिला तुम्हारी माँ है। मुझ कामपीड़ित से तुम बात करो।" यह सुनकर अपनी आँखें बन्द कर, उपेक्षा कर कामदेव प्रद्युम्न चला गया। तब दुर्भावों की घर, ढीठ, दुष्ट वह अपने नखों से अपने शरीर को विदारित कर, रुष्ट, हताश, निष्ठुर एवं क्रुद्ध होकर अपने पति से कहती है- "हे देव ! बालक की करुणा तुम्हें खा गयी। दूसरे के द्वारा उत्पन्न हुआ क्या कभी पुत्र हो सकता है ? वह कामान्ध पाणिपल्लव से आ लगा, देखो वह नख से विदारित मेरा स्तनाग्र भाग।" यह सुनकर ज्वालाओं से समृद्ध आग के समान, क्रुद्ध राजा ने अत्यन्त भीषण, कठोर, मारने की इच्छा रखनेवाले अपने पुत्रों को आदेश दिया कि आज निर्लज्ज इस सौतपुत्र को मथ डालो। प्रच्छन्न इसका वध कर डालो। जय पाने की इच्छा रखनेवाले उसके पाँच सौ पुत्र उठे। धत्ता-वे लोग प्रिय वचन कहकर, साहसी और क्रीड़ा-रसिक पुत्र को जंगल में ले गये। वहाँ अग्निज्वालाओं से प्रज्वलित कुण्ड था जो मानो प्रलयकाल के यमदूत का मुख हो। अपने पिता (13) I. AP कामाउरोह पदेहि ।। कामाऊरहि। 2. ARS अवहेरि। 3. सुट्ट14. Bपनाय । S.APरुद्धएण। .PS दाइला .AP पहह । B.A पमुबहाइ। 9. AP यहा! 10. BP णिय | 11. B कुमार। (14)1. PS तोंड़। 2. PS जलिल । 2. P"कुंछ: 5 कोड। 3. APS बेरिहें। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 91.15.41 महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [221 भो देवयत्त दुक्करु विसति । एयहु दंसणि' कायर मरति । तं णिसुणिवि विहसिवि तेत्यु तेण महुमहणरायरुप्पिणिसुएण। अप्पउ घल्लिज' सहस त्ति केम सीयलचंदणचिक्खिल्लि जेम। पुजिउ देवीइ महामाउं . आगाह शिव पुणु सोमकाउ' । सोमेसमहीहरमझि' णिहिट कूरेहिं तेहिं चउदिसहि पिहिउ। वीरेण तेण संमुह भिडत थहरूब" धरिय गिरिवर पडत। पुणु जक्खिणीइ जगसारएहिं पुजिउ वत्थालंकारएहि। साहसियह तिहुयणु होइ सम्झ दुग्गु वि अदुग्गु दुग्गेज्झु" गेज्झु। घत्ता-सयलेहिं मिलेवि वइरिहिं करिकरदीहरभुज । सूयरगिरिरंधि पुणु पइसारिउ कण्हसुउ ॥14॥ (15) तहि महिहरु धाइउ' होवि कोलु धुरुधुरणरावकयघोररालु। दाढाकरालु देहणिविलित्तु णीलालिकसणु रत्तंतणेत्तु । अरिदंतिदंतणिहसणसहेहि भुयदंडहि चूरियरिउरहेहिं। मोडिउ रहसुब्भडु खरु अमठु वइकंठहु पुत्तें कंठकंछु। 10 को आज्ञा से प्रेरित शत्रुओं ने उसे दिखाते हुए कहा-“हे देवदत्त ! इसमें प्रवेश करना कठिन है। इसके दर्शन मात्र से कायर नष्ट हो जाते हैं।" यह सुनकर राजा कृष्ण और रुक्मणी के पुत्र ने हँसकर अपने को उस अग्निकुण्ड में इस प्रकार डाल दिया, जैसे वह शीतल चन्दन की कीचड़ हो। देवी ने उस महानुभाव की पूजा की। दूसरों ने पुनः जाकर सौम्यशरीर उसे सोमेश महीधर के भीतर रख दिया और उन दुष्टों ने चारों ओर से उसे ढक दिया। उस वीर ने सामने भिड़ते हुए छाग (मेष) के आकारवाले गिरते हुए पहाड़ों को रोक लिया। फिर यक्षिणी ने विश्व में श्रेष्ठ वस्त्रालंकारों से कुमार की पूजा की। साहसी व्यक्तियों के लिए त्रिभुवन साध्य होता है। उन्हें अदुर्ग भी दुर्ग, दुर्ग्राह्य भी ग्राह्य हो जाता है। पत्ता-समस्त शत्रुओं से मिलकर हाथी की सूड के समान भुजाओंवाले कृष्णपुत्र कुमार को वराह पर्वत की गुफा में फिर से घुसा दिया। (13) यहाँ घुर-घुर शब्द से भयंकर आवाज करता हुआ महीधर वराह बनकर दौड़ा जो दाढ़ों से भयंकर कीचड़ से सनी देहवाला, भौंरों के समान काला और लाल-लाल आँखोंवाला था। तब शत्रुगजों के दाँतों के संघर्षण 4.P दरिसगे। 5. A वित्त । 6. H"चिक्खिल्लु : चिक्खेल्नु। 7. APN सोम्मकाउ। 8. S"महीहरे। 9, P"दिसिहि। 10.A बहस्य। ।। Pसुदगेग्छ । 12. APS दीरभुउ। (15) 1.A याविड। 2. P होह। 3. B'योरु। 4. A देहिणि": । देहिण। 5. B रत्तत्त । 6. A"सएटिं। 7. B "इंडिहिं। 8. ABPS रोसुम्भड़। 9. ABPS बडकुंडो। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 ] [ 91.15.5 महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु सुथिरतें णिज्जियमंदरासु तं विलसिउं पेच्छिवि सुंदरासु। देवयइ विइण्णउ13 विजयघोसु जलयस परवाहिणिहिययसोसु' । अण्णेक्कु पिसुणपाढीणजालु। ढोइयउ महाजालु वि बिसालु। सज्जणहु वि दुजणु कुडिलचित्तु । पुणु कालणामगुहमुहि णिहित्तु । रयणीयरेण सूहउ. पसत्थ. . . . . पणदेवि महाकालेण तेत्यु। विससंदणु भडकडमद्दणासु तहु दिण्णाजु केसवणंदणासु। पुणु वम्महेण दिट्ठङ खयालि पन्भट्ठचे? रुक्खंतरालि। विज्जाहरू विज्जाबलहरेण कीलिउ केण वि विज्जाहरेण। तहु वसुणदइ अवलोइयाइ णियकरयलसयदलढोइयाइ। णरदेहसोक्खसंजोयणीइ गुलियाई। णिबंधणमोयणीइ । मेल्लाविउ भाविउ भाउ ताउ उप्पण्णउ तासु सणेहभाउ। हरितणयह दरपहसियमुहेण23 दिण्णाउ तिण्णि विज्जाउ तेण। उवयारहु पडिउबयारु रइज भणु को ण सुयणसंगेण लइछ। घत्ता--दुज्जणबयणेण परिववियअहिमाणमउ । सहसाणणसप्पविवरि पइट्सउ जयविजउ ॥15॥ को सहन करनेवाले तथा शत्रुओं के रथों को चूर-चूर करनेवाले भुजदण्डों से वेग से उद्भट, तीव्र, असुन्दर सूकर के कण्ठ को श्रीकृष्ण के पुत्र (प्रद्युम्न) ने मोड़ दिया। अपने शौर्य से मन्दराचल को जीतनेवाले कुमार की उस चेष्टा को देखकर देवी ने शत्रु-सेना के हृदय का शोषण करनेवाला विजयघोष नाम का शंख दिया, तथा अन्य एक दुष्ट मत्स्यों के लिए जाल के समान विशाल महाजाल दिया। सज्जन के लिए भी दुर्जन कुटिलचित्त होता है। फिर उसे 'काल' नामक गुहा के मुख में डाल दिया। वहाँ महाकाल नामक रजनीचर ने उस सन्दर प्रशस्त को प्रणाम कर, योद्धाओं की सेना को चकनाचर कर देनेवाले केशवपुत्र को वषम नाम का स्य दिया। फिर उस कामदेव ने आकाश में, दो वृक्षों के अन्तराल में प्रभ्रष्ट चेष हरण करनेवाले किसी विद्याधर के द्वारा कीलित किये गये विद्याधर को देखा। कृष्णपुत्र के द्वारा देखी गयी, अपने करतलरूपी शतदल से उठायी गयी, मनुष्य-देह में सुख का संयोजन करनेवाली, बन्धन से मुक्त करनेवाली विद्याधर की दी हुई गुटिका से (कृष्ण-पुत्र ने) उसे उन्मुक्त कर दिया। वह उसे पिता और माता के समान नगा। उसका स्नेह भाव हो गया। किंचित् स्मित मुख से उसने कृष्ण के पुत्र के लिए तीन विद्याएँ दीं। इस प्रकार उपकार करनेवाले का प्रत्युकार किया। बताओ ! सुजन को संगति से क्या नहीं मिलता ? ___ घत्ता-तव दुर्जन के बचनों से बढ़ रहा है अभिमान जिसका, ऐसा जयों का भी विजेता वह कुमार सहस्रानन सर्पगुफा में प्रवेश कर गया। 10. BP "मंदिरासु। 11.5 पेच्छिउ ।।2.5 देवए। 13. B विदिष्णउ । 14. B°हिपह। 15. B गुहमुह | 16. 5 विसदसणु। 17.AP"फडवणासु । 18. दिष्णिउ। 19. APS "सोक्खु । १७.४ अंगुलिए। 21. A लाविउ भाउभाउ। 22. A सिणेह। 29. A दरिसिमसियमुहेण दरवियसियमुझेण। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 91.16.151 महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [ 223 (16) सहि संखाऊरणणिग्गएण णाएण सणाइणिसंगएण। पव्यालंकिउ जवलच्छिवण्णु धणु दिण्णउं कामहु चित्तवण्णु। बहुरूवजोणि णरवरविमद्द अण्णेक्क कामरूविणिय मुद्द' । जोएवि दुवालिई लोयणे? थामें कंपाविउ तरुकविछ। तहिं गयणंगणगमणउ चुयाउ लइयाउ कुमार पाउयाउ। सुविसिष्ठुइट्ठपावियसिवेण' पुणु तूसिवि पंचफणाहिवेण । ढोइय हरिपुत्तहु पंच बाण णंदयधणुजोग्गा उहयमाण। तप्पणु पुणु तावणु मोहणक्खु विलवणु मग्गणु हयवइरिपक्छु। पंचमु सरु मारणु चित्तविउडु ओसहिमालइ सहुं दिण्णु मउडु। चलचमरजुयलु सेयायवत्तु णं सिरिणवभिसिणिहि सहसवत्तु । गुणरंजिएण जसलपडेण खीरवणणिवासें मक्कडेण । कद्दवमुहिवाविहि' णायवासु दिण्णउ एयह रिउदिण्णतासु । तहु संपय पेच्छिवि भायरेहि तिलु तिलु झिज्जतकलेवरेहि। "पच्छण्णजणियकोबाणलेहि।। पुणरवि पडिचोइउ हयखलेहिं"। जइ पइसहि तुहं पायालवावि तो तुह सिरि होइ. अउव्य का वि। 10 15 ( 16 ) वहाँ शंख बजाने से अपनी नागिन के साथ निकले हुए नाग ने पर्यों से अलंकृत, विजयलक्ष्मी से परिपूर्ण चित्रवर्ण नामक धनुष कामदेव (प्रद्युम्न) के लिए प्रदान किया तथा एक और अनेक रूपों की योनि, श्रेष्ठनरों का मर्दन करनेवाली कामरूपिणी मुद्रिका दी। नेत्रों के लिए प्यारा कवीट (कैंथ) का वृक्ष देखकर दुःसाहस करनेवाले उसने अपनी शक्ति से हिला दिया। वहाँ आकाश के आँगन में चलनेवालीं गिरी हुई दो पादुकाएँ कुमार ने ग्रहण कर लीं। फिर सुविशिष्ट इष्ट को सुख देनेवाले पाँच फनवाले नागराज ने सन्तुष्ट । कृष्णपुत्र के लिए पाँच बाण दिये, जो फल और मान के विचार से नन्द्यावर्त धनुष के योग्य थे। तपन, फिर फिर मोहनाक्ष, फिर विलपन, जो शत्रुपक्ष का संहारक था। पाँचवाँ बाण मारण बाण था जो चित्त की तरह “विपुल था। फिर, क्षीरवन में रहनेवाले यश के लम्पट और गुणी व्यक्ति से प्रसन्न होनेवाले वानर ने औषधिमाला के साथ मुकुट दिया। चंचल दो चमर तथा श्वेत चँदोवा दिया जो मानो श्रीरूपी नवकमलिनी का सहस्रदल हो। उसके बाद उसे कदम्बमुखी बावड़ी के द्वारा शत्रु को त्रास देनेवाला नागपाश दिया गया। उसकी सम्पत्ति देखकर तिल-तिल जलते हुए शरीरवाले तथा प्रच्छन्न रूप से भड़क रही है कोपरूपी ज्वाला जिनमें ऐसे दुष्ट भाइयों ने पुनः उसे प्रतिप्रेरित किया-"यदि तुम पाताल बावड़ी में प्रवेश करोगे, तो तुम्हें कोई अपूर्व श्री प्राप्त होगी।" (16) I.P मुद्दे । 2. P दुआलिए 5 दुचालिए। 3. APS लोयणि? । 1. APS "इसियसिवेण। 5. ABP जोग्गाउहपहाण | 6. B मोहसक्नु।।, "जुवल। ४. BPS मंकहेण । .A कद्दममहि । 10. ADPS जलिय | 11.Aणलेण। 12.A खलेण। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! 224 | महाकइपुण्फ यंतविरयउ महापुराणु पत्ता- पितुरिनि एक जवि सुंदर बोसरइ । वाविहि पण्णत्ति तहु रूवें सई पसरइ ||16|| ( 17 ) पणुण दि तेहिं बालु सिलवीदें छाइय वावि जाम ते तेण गायपासेण बद्ध णिक्खित्त अहोमुह सलिलरंधि शिवरायणविहरविणिवारएण जोइप्पण सा धरिय केम तहिं अवसरि परबलदुम्मण आसण्णु पत्तु तें भणिउ कामु तुझप्परि आयउ तुज्झ ताउ ता सिवि पटिभ मद्दणेण हव राय हय गय चूरिय रहोह [ 91.16.16 अप्पाणडु कोक्किउ पलयकालु । रुप्पिणितणुरुहु मणि कुइउ ताम | सुहिअवयारों के के ण खद्ध । सिल' उवरि मिहिय जाय तमधि | खगवइतणाएं लहुयारएण' । उप्पर णिवडंती मारि जेप। हि एंतु पलोइउ वम्महेण । भो दिट्ठु जम्मणेहहु विरामु । 'भो मयरद्धय लइ ससरु" चाउ । देवें दामोयरणंदणेण । विच्छित्त महिधित्त जोह । 5 10 बत्ता - इस प्रकार दुष्टों की चेष्टा जानकर सुन्दर (कुमार स्वयं) हट जाता है और प्रज्ञप्ति-विद्या स्वयं उसके रूप में बावड़ी में प्रवेश करती है। ( 17 ) उन्होंने छिपे हुए वालक को नहीं देखा। उन्होंने अपने लिए प्रलयकाल बुला लिया। जब वे शिलापीठों से बावड़ी को आच्छादित कर रहे थे, तब प्रद्युम्न अपने मन-ही-मन में कुपित हो उठा। उसने नागपाश से उन लोगों को बाँध लिया। सज्जन के साथ अपकार करने से कौन-कीन नहीं नष्ट हुए ? उसने मुख नीचा करके पानी के छेद में डाल दिया और ऊपर से चट्टान रख दी । तमान्धकार होने पर अपने स्वजनों के संकट का निवारण करनेवाले छोटे विद्याधरपुत्र ज्योतिप्रभ ने उस चट्टान को इस प्रकार धारण किया, जैसे आती हुई बीमारी ( महामारी) हो उस अवसर पर शत्रुबल का नाश करनेवाले कामदेव ने आकाश में आते हुए (कालसंवर विद्याधर ) को देखा। वह पास आया। उसने कामदेव से कहा- "अरे ! जन्मस्नेह का अन्त देख लिया। तुम्हारे ऊपर तुम्हारे तात आये हैं । हे कामदेव तीरों सहित अपना धनुष लो।" तब शत्रुवोद्धा का नाश करनेवाले देव दामोदर पुत्र ने क्रुद्ध होकर अश्व और गजों को जाहत कर नष्ट कर दिया । रथसमूह चूर-चूर हो गया। छत्र नष्ट हो गये और योद्धा धरती पर जा गिरे। 13. A पिसुगिउ K पिसुणिगउ । 11. S जाणवि । ( 17 ) 1. B तणरुहु: S तरुछु। 2. P कुबिच 3. S वासेण 4. Pomits this fool. 5. A विहिब। B. P "तपुएं। 7. B सहुवारएण 8. PS है। 9. B इंतु 10. B समरु 11 A हय हय गय गय । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 91.18.121 महाकइपुष्फतविरयउ महापुराणु [ 225 घत्ता-पेच्छिवि दुव्वार कामएचसरणियरगइ। णं कुमुणिकुबुद्धि भग्गउ समरि खगाहिवइ ॥17॥ ( 18 ) पवणुद्धयचिंधपसाहणेण णासेवि जणणु सहुँ साहणेण। पायालवावि संपत्तु जाम बोल्लिङ लहुएं तणुएण' ताम। जोइप्पहेण सिलरोहणेण तुहं मोहिउ दइवें मोहणेण। जहिं जहिं अम्हहिं कचड़ें णिहित्तु पप्फुल्लकमलदलविमलणेत्तु। तहि तहिं णीसरइ महाणुभाउ देविहिं पुजिज्जइ दिब्बकाउ। कि कहिं मि पुत्तु अहिलसइ माय को पावइ कामहु तणिय छाय। को' अण्णु सुसच्चसउच्चवंतु गंभीरु वीरू' गुणगणमहंतु। को' जाणइ किं अंबाइ वुत्तु मारावहुं पारद्धउ सुपुत्तु। महिलार होति मायाविणीउ ण मुणहिं पुरिसंतरु दुयिणीउ । कि ताय णियबिणिछंदु चरहि लहुं गपि कुमारहु विणउ करहि। 10 पडिवण्णउं पालहि चवहि सामु अणुणहि णियणंदणु देउ कामु। इय णिसुणिवि चारुपबोल्लियाई ... पहुणयणई अंसुजलोल्लियाई। पत्ता -कापदेव के वाण-समूह की गति दुर देखकर विद्याधर राजा युद्ध के मैदान से इस प्रकार भाग गया, मानो खोटे साधु की कुबुद्धि हो। हवा में उड़ती हुई पताका, प्रसाधन और सेना के साथ जब तक पिता पाताल-बावड़ी पर पहुँचता है, तब तक शिला पर आरोहण करनेवाले छोटे पुत्र ज्योतिष्प्रभ ने कहा-“हे पिता ! तुम दैवयोग से मोहन (शक्ति) से मोहित हो। जहाँ-जहाँ हम लोगों ने कपटपूर्ण ढंग से उसे रखा, खिले हुए कमलदल के समान विशालनेत्र वह महानुभाव बचकर निकल आया और देवियों ने उसके दिव्य शरीर की पूजा की। क्या कहीं पुत्र भो माता की इच्छा करता है ? काम के तन की छाया को कौन पा सकता है ? दूसरा कौन सत्य और शोचव्रत वाला है, जो गम्भीर, वीर और गुणगण से महान् हो ? कौन जानता है कि माता ने क्या कहा ? उसने पुत्र को परवाना शुरू करवा दिया। स्त्रियाँ माया से विनीत होती हैं, दुर्विनीत वे परपुरुष का भी विचार नहीं करतीं। हे पिता ! स्त्री के कपट पर क्यों विश्वास करते हो ? शीघ्र जाकर कुमार के प्रति विनय कीजिए। जो स्वीकार किया है उसका पालन करो, श्याम से कहो अपने पुत्र कामदेव से अननुय करो।" इन सुन्दर वचनों को सुनकर राजा की आँखें आँसुओं से गीली हो गयीं। वह वहाँ गया जहाँ श्रीकृष्ण का पुत्र था। (18) 1. ABPS तणएण। 2. APS देवहिं। 3. AP को पहियलि अण्णु सुप्सच्चवतु । 4. ABPS धीरू । 5. AP को (p किं) जाणइ कि मायए (p माए) पवृत्त ( पन्तु)। 6. ABPS सपुत्तु । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 महाकइपुष्फयंतविरवर महापुराण [91.18.13 गउ तहिं जहिं थिउ सिरिरमणतणउ बोल्लाविउ तें किउ' तासु पण। णीसल्लु पोसिउं णियडु ढुक्कु आलिंगिउं दोहिं मि एक्कमेक्कु । उच्चाइवि सिल केसवसुएण अण्णस्थ घित्त कक्कसभुएण। घत्ता-कय वियलियपास ते खेचररायंगरूह। णिग्गय सलिलाउ दुज्जसमसिमलमलिणमुह" ॥18॥ (19) मयणहु सुमणोरहसारएण' तहिं अवसरि अक्खिउं णारएण। भो णिसुणि णिसुणि रिउदुब्बिजेय दारावइपुरवरि' पवरतेय' । "जरसिंधकसकरपाणहारित तुह जणणु जणदणु चक्कधारि । तहु पणइणि रुप्पिणि तुज्झु माय पत्तियहि महारी सच्च वाय। भो आउ जाहुं किं वयणएहिं णियगोत्तु णियहि णियणयणएहि । पणमियसिरेण" मउलियकरण ता भणिउ कालसंभवु सरेण । तुहुं ताउ महारउ गयविलेव ... वटवारिता" हा पई कम्म जेत. पयलंतखीरधारापणाल बीसरमि ण जाणे वि कणयमान। जं "दुभणिओ सि दुणियच्छिओ मि तं खमहि जामि आउच्छिओ सि। ता तेण विसज्जिउ गुणविसालु अणडुहसंदणि आरूटु बालु । कलहयरें सहुं चल्लिउ तुरंतु गयपुरु संपत्तउ संचरंतु। उसने उसे बुलाया और उसे प्रणाम किया। निःशल्य होकर पास पहुँचा, और दोनों ने एक-दूसरे का आलिंगन किया। कठोर बाहुवाले कुमार ने शिला उठाकर दूसरी जगह रख दी। घत्ता-बन्धन छूट जाने से, अपयश रूपी स्याही के मल से मलिन मुखबाले वे विद्याधर-पुत्र पानी से निकल आये। ( 19 ) सुन्दर कामनाओं की पूर्ति करनेवाले नारद ने उस अवसर पर कहा-"ओ शत्रुओं के लिए अजेय, प्रवरतेज तुम सुनो, द्वारिकापुरी में जरासन्ध और कंस के प्राणों का अपहरण करनेवाले चक्रधारी श्रीकृष्ण तुम्हारा पिता हैं। उनकी प्रणयिनी रूक्मणो तुम्हारी माँ है। तुम मेरी बात को सच मानो। शब्दों से क्या ? आओ चलें। अपने कुल को अपनी आँखों से देख लो।" तब हाथ जोड़कर और सिर से प्रणाम करते हुए कुमार कामं ने कालसम्भव विद्याधर से कहा- "हे देव ! तुम मेरे अहंकार रहित पिता हो। तुमने वृक्ष की तरह मुझे बड़ा किया है। दूध की धारा की प्रणाली बहानेवाली माँ कनकमाला को मैं नहीं भूल सकता। जो मैंने बुरा-भला कहा और देखा उसे क्षमा कर दें। तुमसे पूछकर मैं जाता हूँ।" तब, उनसे विप्तर्जित हो गुणों से विशाल कुमार वृषभरथ में जाकर बैठ गया। कलह करनेवाले नारद के साथ वह तुरन्त चला और विचरण करता हुआ गजपुर पहुंचा। 7. AIMS कर । 8. Bणि हक्क ।। ।। एक्कुपेक्छु । D. I. A खचतिवारूर: बपहिवामह। 12. AIPS मइलमुह । (19)। A "रहगाराएण। 2. AP विनेट । 3. 12 परि । 4. AP दिव्यतेत 5 परतेय । .. IP जरसिंधु': जन्तेंध। . खयप्राणहाणि: "करपाणहाणि 7. APS चक्रपाणि । 8. Pणनिया। 9.AP काललवरु। 10. B यदायित। ।।. 5 पई हऊ। 12. Aधाराथणाल : 13. DK दुणिओसि दुर्णिए । ---- --- . ---.. Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 91.20.121 [ 227 महाकइपृष्फयंतविग्यउ महापुराणु यत्ता-संगरकंखेण कामहु केरउ णउ रहिउ। प्तिहिभूइपहूइ भवसंबंधु सब्बु कहिउ ॥१५॥ (20) ता भणइ मयणु भई माणियाइं चिरजम्मई' किह पई जाणियाई। ता भासइ णारउ मयमहेण अक्खिउं अरुहें विमलप्पहेण। ता बिपिण वि जण उवसमपसण एवं चवंत गयउरु पवण्ण। तहिं कुंदकुसुमसमदंतियाउ जाणिवि भाणुहि दिज्जतियाउ। कंकेल्लिपत्तकोमलभुयाउ दुजोहणपहुजलणिहिसुथाउ । वेहविवउ दमियउ तावियाउ मायारवेण हसावियाउ। जणु सबलु वि बिदभमरसविस?' गउ मयणु महुरमग्गें पयतु। कारावियमणिमयमंडवेहि महुराउर पंचहिं पंडवेहि। पारद्धी भाणुहि देहुं पुत्ति णं कामकइयवायारजुत्ति। तहिं धारय संरण पुलिदवसु आलकज्जलसामलकबिलकेसु। णीसेसकलाविष्णाणधुत्त खेल्लिवि' "खरियालिवि पंडुपुत्त । दारावइणयरि पराइएण कुसुमसरें कतिविराइएण। 10 वत्ता-संग्राम की इच्छा रखनेवाले नारद ने कामदेव के अग्निभूति प्रभृति समस्त पूर्वभव बता दिये, कुछ भी नहीं छिपाया। (20) तब कुमार कामदेव पूछता है-“मेरे द्वारा भोगे गये पूर्वजन्मों को आपने कैसे जान लिया ?" काम का नाश करनेवाले नारद ने कहा कि अरहन्त विमलप्रभ ने मुझे बताया था। शान्ति से प्रसन्न वे दोनों इस प्रकार वातचीत करते हुए गजपुर पहुँच गये। वहीं पर यह जानकर कि कुन्दकुसुम के समान दाँतोंवाली और अशोकपत्र के समान कोमल बाहुबालो दुर्योधन की पुत्री उदधिकुमारी भानुकुमार को दी जा रही है। उसने मायावी रूप बनाकर लोगों को खूब छकाया, सन्तप्त किया और हँसाया। समस्त लोग आश्चर्य-रस में डूब गये। कामदेव चला और मथुरा के मार्ग से जा लगा। मथुरा नगरी में मणिमय मण्डप बनानेवाले पाँचों पाण्डवों ने कुमार भान को पुत्री देना प्रारम्भ कर दिया, जो मानो काम के कैतव की मूर्तिमती युक्ति थी। वहाँ, भ्रमर और काजल के समान हैं काले बाल जिसके ऐसे उस कामदेव प्रद्युम्न ने भील का रूप धारण कर समस्त कलाविज्ञान की धूर्तताएं खेलकर तथा पाण्डु-पुत्रों को खिन्न कर, द्वारावती नगरी में पहुंचकर, कान्ति से शोभित, (20) I.A कर जम्मई। 2. P"पण . A "पहुजाणिति। 4.AP विभयरम.135 चिम्हयरस 15. खेलेथि। 6.A खलिपानियि। .A विबाइन रक। ४. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2281 [91.20.13 महाकइपुष्फयंतविरपर महापुराणु पत्ता-विज्जइ 'छाइवि णारउ गणि ससंदणउ । वाणरवेसेण आहिंडई मनहतण 2011 (21) दक्खालियसुरकामिणिविलासु सिरिसच्चहामकीलाणिवासु' । दिसविदिसचित्तणाणाहलेण उजाणु भग्गु मारुयचलेण। सोसेवि वावि झसमाणिएण सकमंडलु पूरिउ पाणिएण। थिरथोरकंधघोलंतकेस रहवरि जोत्तिय गद्दह समेस। जणु पहसाचिउ मणहरपएसि कामेण 'णयरगोउरपवेसि। पुरणारिहिं हियउ हरंतु रमइ पुणु वेज्जवेसु घोसंतु भमइ। हउँ छिण्णकण्णसंधाणु करमि वाहियउ तिव्ववेयाउ हरमि। भाणुहि णिमित्तु उवणियउ जाउ । विहसाविउ 'णिवकुवरीउ ताउ। पुणु सभाणुमायदेवीणिकेउ गउ बंभणवेसें मयरकेउ। घरि वइसारिउ सहुं बंमणेहिं "घियऊरिहिं लड्डुयलावणेहि। भुंजइ भोयणु केमा वि प धाइ आवग्गी जाम रसोइ खाइ। 10 घत्ता--विद्या के द्वारा रथ-सहित नारद मुनि को आकाश में आच्छादित कर दिया और वह कृष्णपुत्र स्वयं बन्दर के वेश में घूमने लगा। (21) सुर-बालाओं के विलास को दिखानेवाले तथा सत्यभामा के क्रीड़ानिवास स्वरूप उद्यान को दिशा-विदिशा में नाना फलों को फेंकती हुई चंचल हवा से उजाड़ दिया। बावड़ी को सोखकर, मत्स्यों के द्वारा मान्य जल को कमण्डलु में रख लिया। और अपने श्रेष्ठ रथ में स्थिर स्थूल कन्धों पर जिनके बाल फैल रहे हैं, ऐसे मेष सहित गधे को रथ में जीत लिया। नगर के गोपुर प्रवेश और उस सुन्दर प्रदेश में उसने लोगों का खूब मनोरंजन किया। वह नगर-स्त्रियों के हृदय का हरण करता हुआ रमण करता है, फिर अपने को वैध कहता हुआ घूमता है कि मैं कटे हुए कान-नाक जोड़ देता हूँ, तीव्र वेगवाली व्याधियों को नष्ट कर सकता हूँ। और जो कुमारी भानु के लिए ले जाई जा रही थी, कुमार ने उसे भी हँसा दिया। फिर कामदेव ब्राह्मण का रूप बनाकर भानु की माता सत्यभामा के भवन में गया। उसे घर में ब्राह्मणों के साथ बैठाया गया। घी से भरे लड्डू आदि व्यंजनों का वह भोजन करता है, परन्तु किसी प्रकार उसकी तृप्ति नहीं होती। जितनी (21) I. AP"सच्चथाम । 2. APS दिसिविटिसि" 13. APS बाबिउ। 4. Bणवरे।: Pपएसे। 6. AS बाहिउ; 7.5 नृव: B.AP सच्चा 5 सञ्चभाप 19.5 बम्हण । 10. APS पियऊर्गहें। 11. लठ्य'; लटु' सइइव | 12. A कैग । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 91.22.11] महाकइपुष्फयतविरयउ महापुराणु [ 229 अप ता सच्चहाम" पभणइ सुदुछ बंभणु होइवि4 रक्खसु पइछु । घत्ता-ता भासइ भटु देण' ण सक्कइ भोयणहु। किह" दइवें जाय एह भज्ज णारायणहु ॥21॥ ( 22 ) पुणु गयउ झसद्धउ बद्धणेहु खुल्लयवेसें णियजणणिगेह । हउं भुक्खिउ रुप्पिणि गुणमहंति दे देहि भोज्जु सम्मत्तवंति। ता सरसभक्खु उक्खित्तगासु णाणातिम्मणकयसुरहिवासु । जेमाविउ तो वि ण तित्ति जाइ हियउल्लइ देविहि गुणु जि थाइ। कह कह व ताइ पीणिउ विहासि विरएवि पुरउ लड्डुयह रासि। . विणु का कोडलगवाटल अवयारिउ महुरसमत्तभसलु । तक्खणि वसंतु अंकुरियकुरुहु कयपणयकलहु जणणियबिरहु । णारउ पुच्छिउ पीणत्थणीइ कोऊहलभरियइ रुप्पिणीइ। महं घरु को आयउ खयरु- देउ ता तेण कहिउं सिसु मयरकेउ। अवयरिउ माइ दे देहि खेळ ता कामें णिसुणिवि वयणु एउ। 10 दंसिउं सरूउ' णियमाउयाहि पण्हयपयपयलियथणजुयाहि। रसोई बनती जाती है, वह उसे चट करता जाता है। इस पर सत्यभामा कहती है-'यह दुष्ट राक्षस ब्राह्मण होकर घुस आया है।" घत्ता-तब वह ब्राह्मण कहता है कि भोजन तक नही दे सकती ! भाग्य से यह नारायण की पत्नी कैसे बन गयी ? (22) फिर प्रेम से बँधा हुआ वह कामदेव क्षुल्लक के रूप में अपनी माँ के घर गया (और बोला)-“हे गुणों से महान् ! सम्यग्दर्शन से युक्त रुक्मणि ! तुम मुझे भोजन दो, मैं भूखा हूँ।" तब परोसे गये हैं कौर जिसमें ऐसे नाना व्यंजनों की सुगन्धि से सुवासित सरस भोजन उसे खिलाया गया, तब भी उसकी तृप्ति नहीं हुई। वह देवी के गुणों की अपने मन में थाह लेना चाहता था। किसी प्रकार उसने लड्डुओं की राशि और सुन्दर पूरी बनाकर खिलायी जिससे उसे तृप्ति हुई। इतने में असमय में कोयल का मधुर कलरव होने लगा। मधुरस से मत्त भ्रमर गूंजने लगे और प्रणय-कलह करनेवाला, लोगों में विरह पैदा करनेवाला वसन्त तत्क्षण आ गया। तब पीन स्तनोंवाली कुतूहल से भरी हुई रुक्मणी ने नारद से पूछा-"मेरे घर कौन विद्याधर देव आया है ?" तो उसने कहा-"कामदेव-पुत्र अवतरित हुआ है। हे आदरणीया ! उसे आलिंगन दो।" जब कुमार ने यह सुना तो उसने पन्हाते हुए दूध से प्रगलित स्तनोंवाली अपनी माँ को अपना स्वरूप प्रकट कर दिया। 13. सच्चभाम। 14. Pण होई for होइवि। 15. AP दीण। 18. 5 किल। (22) 1. APS "रोन": Bए । 2. BP वयस्टेउ। 5. 5 सरूदु। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 | [91.22.12 महाकष्टपुष्फयंतविरयर महापुराणु घत्ता-जणणीथपणेण सुर मिलंतु' अहिसित्तु किह । गंगातोएण पुष्फयंतु पह भरहु जिह ॥22॥ इय महापुराणे तिसद्विमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुष्फयंतबिरइए महाभध्वभरहाणुमण्णिए महाकच्चे रुप्पिणिकापरावसंजोउ णाम "एक्कणयदिमो परिष्ठेउ समत्तो ॥1॥ घत्ता-माँ के स्तन्य से मिलता हुआ पुत्र इस प्रकार अभिषिक्त हो गया, जिस प्रकार गंगाजल से पुष्पदन्त प्रभु भरत को (कर देते है)। त्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारोंवाले इस महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित तथा महाभष्य भरत द्वारा अनुमत इस काय्य का रुक्मणी-कामदेव-संयोग नाम का इक्यानवेवा परिच्छेद समाप्त हुआ। 1. ता हि ॥ मिलन in second haired. 5. Syषदंत-11. स्वपिणि'17.AN एकागवदिमो; B एकणयदिपो; एकाणउदिमो। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . : ५.० : 92.L.12| महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराण [ 231 [231 दुणउदिमो संधि पसरतणेहरोमचिएण' देवें रइभत्तारें। कमकमलई जणणिहि णवियाई सिरिपज्जुण्णकुमारें ॥ ध्रुवकं ॥ चारादि जहिं अच्छिउ तं पुरु घरु देसु वि मुहकहरुग्गयसुमहुरवायहि पुत्तसणेहु जणिउ णिरु णिभरु दुज्जणु हरिसें कहिं मि ण माइउ तेण समीहतें दूसह कलि भाणुकुमारहु पहाणिमित्तें पुच्छिय णियमारि कंदप्ये णील णिद्ध" भंगुर सुहकारा' तं णिसुणिवि देवीइ पवुत्तउं "दिव्यपुरिसलक्खणसंपण्ण' पुणु वित्तंतु कहिउ णीसेसु वि। बालकील दक्खालिय मायहि । तहिं कालइ परियाणिवि अवसरु। छुरविहत्यु चंडिलउ पराइट। मग्गिय मयणजणणिअलयावलि। तं णिसुणिवि णिरु विभियचित्तें'। कि पवुत्तु एएण सद। कि मग्गिय धम्मिल्ल तुहारा। पव्वकम्मु परिणवइ णिरुत्तउं। जइयतुं तुहं महुं सुउ उप्पण्णउ। 10 बानवेवी सन्धि फैलते हुए स्नेह से रोमांचित, रति के स्वामी देव श्रीप्रद्युम्नकुमार ने माता के चरणकमलों में प्रणाम किया। __वह कुमार जहाँ-जहाँ रहा, उस घर, देश और नगर का कुल वृत्तान्त उसने सुनाया। अपने मुखरूपी कुहर से मधुर वाणी चोलनेवाली माता के लिए उसने बाल-क्रीड़ाएँ दिखायीं। उसे पूर्ण पुत्रस्नेह हो गया। उसी समय अवसर जानकर, एक दुर्जन चण्डाल हर्ष से फूला न समाता हुआ, हाथ में छुरा लेकर वहाँ पहुँचा । दुःसह कलह की इच्छा रखनेवाले उसने कामदेव (प्रद्युम्न) की माता की अलकावलि माँगी, भानुकुमार के स्नान के लिए। सुनकर, अत्यन्त आश्चर्यचकित चित्त होकर कामदेव ने अपनी माता से पूछा कि दर्प के साथ इसने क्या कहा ? इसने स्निग्ध घुघराली शुभ करनेवाली तुम्हारी अलकावली क्यों माँगी ? यह सुनकर देवी ने कहा कि पूर्वजन्म का कम निश्चित रूप से परिणमित होता है। दिव्य पुरुष के लक्षणों से युक्त जब तू (1) I. Aदेहरोमायाला, इज्जण। 1. Somis this lionm..विडिय"। . 1 पत्त गईएण सदप्पे : i. B पिटु । TAPS सुहगारा। पिम् । .Aसगणर। K. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 ] महाकहपुष्फयंतषिरया महापुराणु [92.1.13 तइयह सच्चभामणामकइ भाणु जणिउ महजित्तससंकइ। बिहि मि सहीउ गयाउ उविंदहु पासि पायपाडियरिउवंदहु' । धत्ता-ता तहिं हरिणा सुत्तुट्ठिएण पियपायंति बइठ्ठी। अम्हारी सिसुमिगलोयणिय" सहयरि सहसा दिट्ठी ॥1॥ (2) देवदेव रुप्पिणिहि' सुछायउ लखणवंजणच्चियकायउ। ताइ पवुत्तु पुत्तु संजायउ सं णिसुणिवि हरिसिउ महिरायउ। पढमपुत्तु तुहं चेय पोसिउ पडिवक्खहु मुहभंगु पदेसि । वइरिएण बड्डियअवलेवें णवर णिओ सि कहिं मि तुहं देवें। विमलसरलसयदलदलणेत्तहु जेट्ठउ' कमु जायउ सावत्तहु। 5 कलहंतिहिं वड्डियपिसुणत्तणि चिरु बोल्लिउं दोहि मि तरुणत्तणि। बिहिं मि पुत्तु जा पढमु जणेसई सा अवरहि धम्मिल्ल' लुणेसइ । मंगलधवलथोत्तहयसोत्तइ । पुत्तविवाहकालि' संपत्तइ। हरिसें अज्जु सवत्ति विसट्टइ सुयकल्लाणण्हाणु घरि वट्टइ। एहु ताहि आएसें वग्गइ णाविउ मज्झ सिरोरुह मग्गइ। 10 मेरा पुत्र उत्पन्न हुआ था, तभी अपने मुँह से चन्द्रमा को जीतनेवाली सत्यभामा ने भानुकुमार को जन्म दिवा था। हम दोनों सखियाँ शत्रुओं को अपने पैरों पर गिरानेवाले श्रीकृष्ण के पास गयीं। घत्ता-तब उस अवसर पर प्रिय के पैरों के अन्त में बैठी हुई, हमारी शिशु मृगनयनी सखी को सोकर आते हुए कृष्ण ने सहसा देखा। उसने (सत्यभामा ने) कहा-'हे देवदेव ! रुक्मिणी के लक्षणों और सूक्ष्म चिह्नों से अंकित शरीर और सुन्दर कान्तिवाला पुत्र उत्पन्न हुआ है।" यह सुनकर महाराज प्रसन्न हुए और उन्होंने तुम्हीं को पहला पुत्र घोषित किया। इससे प्रतिपक्ष का मुख फीका पड़ गया। बढ़ रहा है गर्व जिसका ऐसा पूर्वजन्म का वैरी देव तुम्हें कहीं ले गया। तब विमल और सरल कमल के समान नेत्रोंवाली सपत्नी सत्यभामा के पुत्र का क्रम जेठा हो गया। जिसमें दुष्टता बढ़ रही है ऐसे तारुण्य में एक बार झगड़ते हुए हम दोनों ने बहुत पहले यह तय किया था कि हम दोनों में से जिसके पहले पुत्र होगा, वह दूसरे की चोटी काटेगी। मंगल और धवल स्तोत्र-गीतों से कानों को आहत कर देनेवाले पुत्र का विवाह-काल आने पर सौत हर्ष से विशिष्ट हो रही है। आज घर में उसके पुत्र का स्नान-कल्याण है। उसी के आदेश से यह इतरा रहा है और मेरे 10. A सच्चहाम" | 11. B विहं। 12. S पापपडिय। 19.8°मृग । (2)1.A रुप्पिणिसुच्चायउ।2. विजण 19. A पदरसिङ । 4. A जेट्टकम्मु पालिउ सानत्तहो; BSAID. जेट्टाकम्मु जाउ सायत्तहो; जेवकमु पालिउ सावत्तहो; Als. suggests toread जेहामु गायउ सावत्तहो। 5. वहिए। 6.5 पढम।7. Bघमिल्लु: P धम्मेलूलु, धम्मेल्ल 18. RS "गित्त 19.AP णियत्तणुरुहवियाहे आढत्तए। 10. D सयित्ति। 1.5 पहाविउ । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92.3.03 [233 महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु तं णिसुणिवि विज्जासामत्थे देवें उच्छुसरासणहत्यें। वम्महेण जणकोंतलहारिहि __ अवरु सहाउ विहिउ छुरधारिहि। एंत अणंत वि णं जमदूएं तज्जिय भिच्च जणदणलए। धत्ता-पसरतें गयणालग्गएण रूसिवि एंतु दुरंतउ। अइदीहें पाएं ताडियउ जरु णामेण महंतउ ॥2॥ 15 मेसें होइवि' हउ सपियामहु हलिहि भिडिउ होएप्पिणु महमहु । रुप्पिणिरूउ अण्णु किंउ तणि णिहिय विमाणि' णीय गयणंगणि । दामोयरु ससेण्णु कुढि लग्गउ णिवजालेण सो वि णिवु भग्गउ । जयसिरिलीलालोयपसण्णहं को पडिमल्लु एत्यु कयपुण्णहं। दर हसंतु सुरणरकलियारउ तहिं अवसरि आहासइ णारउ। कामएउ गरणयणपियारउ एम्ब वियंभिउ पुत्तु तुहारउ । जं कल्लोलहु' उत्तंगतणु तं महुमह सायरहु पहुत्तणु जं तणयह पयाउ खलदूसणु तं माहव कुलहरहु विहूसणु। हरि हरिवंससरोरुहणेसरु तं णिसुणिवि हरिसिउ परमेसरु। केश माँग रहा है। यह सुनकर इक्षुदण्ड का धनुष जिसके हाथ में है, ऐसे विद्या की सामर्थ्यवाले कामदेव कुमार ने लोगों के केश काटनेवाले नाई का एक और सहायक नियुक्त कर दिया। कृष्ण के रूप में कुमार ने आते हुए मृत्यों को डाँट दिया, मानो यमदूत ने डाँट दिया हो। घत्ता-फैलकर आकाश से लगते हुए अत्यन्त लम्बे पैर से जर नाम के महान् व्यक्ति को ताडित किया। मेष बनकर, उसने अपने पितामह वसुदेव को आहत किया और कृष्ण बनकर बलराम से भिड़ गया। उसने रुक्मिणी का एक और रूप बनाया और उसे विमान में बैठाकर आकाश में ले गया। दामोदर सेना के साथ उसके पीछे लगा, परन्तु प्रद्युम्न ने नरेन्द्रजाल विद्या से उस नृप को भग्न कर दिया। विजयश्री के लीलालोक से प्रसन्न रहनेवाले पुण्य करनेवाले लोगों का प्रतिमल्ल इस संसार में कौन हो सकता है ? मनुष्यों और देवों में कलह करानेवाले नारद, उस अवसर पर घोड़ा मुसकाते हुए बोले-कि लोगों के नेत्रों के लिए प्रिय और कामदेव यह तुम्हारा पुत्र ही बड़ा हो गया है जो लहरों की ऊँचाई है। हे कृष्ण ! वही सागर का प्रभुत्व है। दुष्टों को दूषित करनेवाला पुत्र का जो प्रताप है, वही कुलधर का विभूषण है। हरिवंशरूपी कमल के लिए सूर्य परमेश्वर कृष्ण हर्षित हो उठे। प्रेम करनेवाले प्रत्येक पिता को पुत्र की साहसिक चेष्टाएँ 12. Pउचा13. P"सूये; 5 रूवें। (3) 1.5 होयदि। 2:5 होएवि तहिं। 3. 2 मुहमहुँP संमुहु। 4. AP विमाणमझे। 5. AP णिवबालेण: 5 नृवजालेण! 6, APS रणि। 6. B एव 5 एउं। 7. A कल्लोलु होउ तुंपत्तणु। BPS उतुंग 1 B. A हसिउ। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 ] मलाकइपुप्फयंतविरघउ महापुराणु [92.3.10 10 सिसुदुब्बिलसियाई कयरायहु हरिसु जणति अवस' णियतायहु। एत्यंतरि अणंगु पयडंगउ होइवि गुरुयणि" विणयवसं गउ। पडिक चरणजुबलइ नहुनहण करकेसिपायवदबदहणहु । तेण वि सो भुयदंडहिं!' मोडेउ आसीवाउ देवि अवडेिउ। घत्ता-कंदप्पु कणयणिहु केसबहु अंगालीणउ मणहरु। __णं अंजणमहिहरमेहलहि दीसइ संझाजलहरु ॥3॥ हरिणा मयणु चडाविउ मयगलि णं दियहेण भाणु उययाचलि। उवसमेण परमत्थविमाणइ णं अरहंतु देउ गुणठाणइ। बंदिविंदउग्योसियभद्दे पुरि पइसारिउ जयजयसदें। किउ अहिसेउ सरह सुरमहियहु भाणुवइकुमारिहि सहियहु। सो ज्जि कुलक्कमि' जेठु पयासिउ पडिवक्खहु उव्वेउ पविलसिउ। लुय रुप्पिणीइ गपि णीलुज्जल सच्चहामदेविहि सिरि कोंतल । भवियबाउं पच्छण्णु "पदरिसिउं अण्णहि वासरि केण वि भासिउँ। गोविंदह करिकरदीहरकत होही को वि पुत्तु कप्पामरु। अवश्य हर्ष उत्पन्न करती हैं। इस बीच कामदेव प्रद्युम्न प्रकटशरीर होकर गुरुजनों के सम्मुख विनीत हो गया। वह कंस और केशीरूपी वृक्षों के लिए दावानल के समान श्रीकृष्ण के चरणों में गिर पड़ा। उन्होंने भी उसे अपने बाहुदण्डों से अलंकृत किया और आशीर्वाद देकर उसका आलिंगन किया। पत्ता-केशव (श्रीकृष्ण) के शरीर में लीन, स्वर्ण के समान सुन्दर कामदेव ऐसा लग रहा था, मानो अंजन महीधर की मेखला पर सान्ध्यमेघ दिखाई दे रहा हो। श्रीकृष्ण ने कामदेव (प्रद्युम्न) को, जिसका मद झर रहा है ऐसे महागज पर बैठाया, मानो दिन ने सूर्य को उदयाचल पर चढ़ाया हो। मानो उपशम भाव से अरहन्त देव मोक्ष या गुणस्थान में चढ़ गये हों। वन्दीजनों के द्वारा उद्घोषित मंगल और जय-जय शब्द के साथ उसे नगर में प्रवेश दिया गया तथा भानुकुमार के लिए उपदिष्ट कमारी के साथ, देवों द्वारा पूज्य कामदेव का अभिषेक किया गया। उसी (प्रद्युम्न) को कुलपरम्परा में बड़ा घोषित किया गया। इससे प्रतिपक्ष का उद्वेग बढ़ गया। रुक्मिणी ने जाकर सत्यभामा देवी के सिर के काले उजले केश काट लिये। दूसरे दिन प्रच्छन्न होनहार को प्रदर्शित करते हुए किसी नैमित्तिक ने कहा-कोई देव गोविन्द का हाथी की सैंड़ के समान दीर्घ हाथोंवाला पुत्र होगा। यह सुनकर भानुकुमार की माँ सत्यभामा - - - 9.P अवसु। 10. गुरुपण' S भुवटामि। (4) 1. B उवयाचलि। 2. 5 जरहंतदेर। 3. B "वंद । 4. Smits this fnot. 5. A पयसारिख । 6.5 भाणु वि दृष्ट: । भाणुया कुमारिहि । 7. कुलकम । R. APणीलुप्पल । 9. APS सच्चभाम" | 10. BS वि दरिसिहं । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92.5.71 महाकइपुष्फयंतविरवर महापुराणु 1235 तं आवण्णिवि भाणुहि मार गय तहिं जहिं अत्थाणइ थिउ हरि। पत्थिउ पिययमु ताइ णवेप्पिणु अण्ण म सेवहि मई मेल्लेप्पिणु। 10 ताब जाव तणुरुहु उगाद परिगल कि एं" तिला तं णिसुणिवि रुप्पिणिइ सणंदणु भणिउ सयणमणणयणाणंदणु। पुत्त पुत्त पिसुणहि पाविट्ठहि मज्झु सवत्तिहि दुट्ठहि धिट्टहि । घत्ता-खयरिइ" महुसूयणवल्लहइ' जइ वि णाहु ओलग्गिउ । __ तो वि तिह करिण" होइ सुउ एत्तिउं तुहं मई मग्गिउं।।। ।। 15 ताहि म होउ होउ वर एयहि जंबावइहि पुण्णससितेयहि। वच्छल पियसहि गंदउ रिज्झउ इयर विसमसंता- इज्झउ। तं णिसुणिवि विहसिवि' कंदण्ये णिविज्ञासामत्थवियप्पें। पइरइकामहि घड्डियछायाह रयसलिदियहि चउत्थइ ण्हायहि । जंबावइहि रूउ' किट केहउँ सच्चहामदेविहि जं जेहउं। कामरूयमुद्दिय' 'पहिरेप्पिणु गय हरिणा वि पवर 'मण्णेप्पिणु। रमिय गब्भु तक्खणि संजायउ कीडवसुरु सग्गग्गहु आयउ। वहाँ गयी जहाँ दरबार में श्रीकृष्ण बैठे हुए थे। उसने प्रणाम कर प्रियतम से प्रार्थना की कि आप मुझे छोड़कर किसी दूसरे के पास तब तक न जाएँ, जब तक पुत्र उत्पन्न न हो जाए। उसने जो माँगा प्रिय ने वह दे दिया। यह सुनकर रुक्मिणी ने स्वजनों के मन और नेत्रों को आनन्द देनेवाले अपने पुत्र से कहा-“हे देव ! हे पुत्र ! पिशुन-पापिष्ठ-दुष्ट-टीठ मेरी सौत सत्यभामा___ पत्ता-यद्यपि कृष्ण की उस प्रिया ने अपने स्वामी से बचन ले लिया है। पुत्र न हो, तुम ऐसा कुछ करो, मैं तुमसे इतना माँगती हूँ। उसके न हो, अच्छा है कि पुण्यरूपी शशि से तेजवाली जाम्बवती के वह पुत्र हो। हे पुत्र ! प्रिय सखी आनन्दित हो और प्रसन्न हो। दूसरी विषग सन्ताप-ज्वाला में जले।" यह सुनकर कामदेव ने अपनी विद्या की समार्थ्य के विकल्प से, रजस्वला होने के दिन से चौथे दिन नहाई हुई, बढ़ रही है कान्ति जिसकी ऐसी तथा पति से रमण की इच्छा रखनेवाली जाम्बवती का रूप, ऐसा बना दिया जैसे वह सत्यभामा देवी का रूप हो। कामरूप मुद्रा पहिनकर वह गयी और कृष्ण ने भी उसे बड़ी रानी (सत्यभामा) मानकर उससे रमण किया। तत्क्षण उसके गर्भ रह गया। क्रीडवदेव स्वर्ग के अग्रभाग से तत्क्षण उसके गर्भ में आकर स्थित हो II. 11 तगरुहु। 12. तहि दइयें तं दइएं। 13. सवित्तिहे। 14.39 खेपरिए। 15.P महसूपण। 16.5 करे। 17. RPS ,उ.होई। (1.P सेचि । 2.8 "कामहो । 3. APS स्वसल।। रूजु । 5. APS सच्चमाम | 6. 5 "रूय17.5 परिहेप्पिणु । 8. BAL5. वियवर (वि अयर)। 9 पिणु। 10. AP कीडयसरु लो सागहो आइट। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 ] महाकइपुप्फयंतबिरयउ महापुराणु णवभासहिं लायण्णरवण्णउ जंबावइहि" पउण्ण मणोरह जणणिजणियपिसुत्तें दारुणु संभवेण अवमाणिवि वित्तउ पुष्पविते सुमहचार सच्चहामदेचिइ " गुणकित्तणु संभव 2 णाम पुत्तु उप्पण्णउ । सुय वडति महंत महारह । अवरहिं दिवसि जाय कोवारुणु । भाणु भणियसरजाइहि" जित्तउ । मुक्कउ झत्ति रोसपब्भारउ । पडिवण्णउं रुप्पिणिसयणत्तणु । धत्ता - इय णिसुणिवि मुणिगणहरकहिउं सीरपाणि पुणु भासइ । अज्ज वि कइ वरिसई महुमहणु देव रज्जु भुंजेसइ ॥5॥ (6) दसदिसिवहपविदिण्णहुयासें मज्जणिमित्रों दारावर पुरि एवं भविस्सु देउ उग्घोसइ पढमणरs सिरिहरु णिवडेसइ पच्छइ पुणु तित्थयरु हवेसइ तुहुं छम्मास जाम सोआयरु ' णासेसइ दीवायणरोसें । जरणामें वणि णिहणेवउ' हरि । बारहमइ संवच्छर होस । एक्कु समुद्दोवमु जीवेसइ । एत्थ खेत्ति कम्पाइं डसइ । हिंडेसहि सोयंत भायरु । [ 92.5.8 10 15 5 गया। नौ माह में लावण्ययुक्त सुन्दर शम्भव नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ । जाम्बवती की कामना पूरी हुई । दोनों (जाम्बवती का शम्भव और सत्यभामा का सुभानु) महान् महारथी पुत्र बढ़ने लगते हैं। माँ के द्वारा की गयी दुष्टता के कारण दूसरे दिन वह क्रोध से लाल हो गया । शम्भव ने उसे अपमानित करके छोड़ दिया । भानु भणित स्वर जाति विवादों में जीत लिया गया। फिर उसे (शम्भव को ) पुण्यविशेषवाला और महान् सुनकर उसने क्रोध के प्रभार को छोड़ दिया । सत्यभामा देवी ने गुणकीर्तन और रुक्मिणी का स्वजनत्व स्वीकार कर लिया । पत्ता - गणधर मुनि के इस कथन को सुनकर बलभद्र पुनः कहते हैं- "हे देव ! श्रीकृष्ण अभी कुछ वर्ष और राज्य का उपभोग करेंगे। (6) जिससे दसों दिशाओं आग फैल गयी है, ऐसे द्वीपायन मुनि के क्रोध से शराब के कारण द्वारिका नगरी नष्ट होगी और वन जरतकुमार के द्वारा कृष्ण मारे जाएँगे ।" देव घोषणा करते हैं कि यह वारहवें साल में होगा । श्रीकृष्ण पहले नरक में जाएँगे और एक सागरपर्यन्त न जीवित रहेंगे। बाद में फिर तीर्थकर होंगे। और इस क्षेत्र (भरतक्षेत्र) में कर्मों का नाश करेंगे। तुम छह माह तक, भाई का शोक करते हुए, शोकातुर IL.P लावण् । 12. B संभयणाम: P जंनावइहे पुत्तु उप्पण्णउ 13. AP ते वेण्णि विपदण्णमणोरह। 14. BK "जायहिं । 5. AP पुणेयि । 16. APS सख्यभाम" । 17. P अज्जु । (6) 1 P हिन्चर 12. ABPS शिवसेसह । 3. AP एकु छेति । 4. AS सोयाउरु P सोयायरू। 5. B सोएत। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92.761 महाकइपुष्फयंतविण्यउ महापुराणु [ 237 विमलिं' देवि उम्मोहेव वणि सिद्धत्थे संबोहेवउ। दइगंबरिय दिक्ख पालेप्पिणु कुच्छिउ गरसरीरु मेल्लेप्पिणु। माहिंदइ अमरतु लहेसहि पुणरवि एवं खेत्तु आवेसहि। होसहि सिरिअरहंतु भडारउ दुम्महबम्महवम्मवियारउ। इय णिसुणिवि दीवाय उगवरु . हु उ १५ 145 महुमहमरणायण्णणसंकिङ थिउ जाइवि णियदइवें ढकिउ । जरकुमारु" विलसियपंचाणणि कोसंबीपुरिणियडइ काणणि। भूसिउ गुंजाहरणविसेसें संठिउ सुंदरु णाहलवेसें। घत्ता-मिच्छत्तें "मलिणीहूयएण दढणरयाउसु बद्धउं। महुमहणे पुणु संसारहरु जिणवरदसणु लद्धां।।16।। पसरियसमयभत्तिगुणरुंदै वेज्जबच्चु कयउं गोविंदें। सत्तुय काराविय णियपुरवरि' ओसह तें दिण्णउँ मुणिवरकरि । तित्थयरतु णामु तेणज्जिउं जं अमरिंदरिंदहिं पुज्जिउं। इय णिसुणिवि 'माहउ आउच्छिवि णासणसीलु सबु जगु पेच्छिवि । पज्जुण्णाइ पुत्त वउ लेप्पिणु थिय णिग्गंध कलुसु मेल्लोप्पिणु। रुप्पिणि आइ करिवि महएविउ अट्ठ वि दिक्खियाउ 'सियसेविउ । धूमोगे। विमलादेवी के द्वारा तुम मोह छोड़ोगे और वन में सिद्धार्थ देव तुम्हें सम्बोधित करेगा। तुम दिगम्बर दीक्षा का परिपालन कर तथा कुत्सित मानव-शरीर छोड़कर, माहेन्द्र स्वर्ग में देवत्व प्राप्त करोगे। फिर इसी क्षेत्र में आओगे। तुम दुर्दमनीय काम के मर्म का नाश करनेवाले भट्टारक श्री अरहन्त बनोगे।" यह सुनकर द्वीपाचन मुनिवर अन्य उत्तम देशान्तर चले गये। कृष्ण के मरण के श्रवण से आशंकित, अपने भाग्य से आच्छादित जरत्कुमार जाकर कौशाम्बीपुर के निकट सिंहों से विलसित वन में स्थित हो गया। धुंधचियों के आभूषणों से भूषित वह सुन्दर भीलरूप में निवास करने लगा। पत्ता-मिथ्यात्व से मलिनीभूत कृष्ण ने नरकायु का दृढ़ बन्ध कर लिया। फिर उन्होंने संसार का नाश करनेवाले जिनवर का दर्शन प्राप्त किया। जिनमत में प्रसारित भक्ति गुण से विशाल गोविन्द ने वैयावृत्ति की। श्रीकृष्ण ने अपने नगर में चूर्ण बनवाया और उन्होंने मुनिवरों के हाथ में औषधि दी। उन्होंने तीर्थंकरत्व का अर्जन किया जो देवेन्द्रों और मानवेन्द्रों के द्वारा पूज्य है। यह सुनकर तथा श्रीकृष्ण से पूछकर समस्त संसार को क्षणभंगुर समझकर, प्रद्युम्न आदि पुत्र व्रत लेकर, क्लेशभाव छोड़कर, निर्ग्रन्थ हो गये। रुक्मिणी आदि सहित, लक्ष्मी से सेवित आठों 6. APS चिपलें देखें। 7. A सम्मोएवर; P उम्मोहेयर। 8. दीपायणु। ५. 5 जायवि। 10. B कुमार। 11. B मिलिणीहुयएण। 12. P°दसण । ___(7)1. D णियपुरि । 2. 5 दिपणा । 3. 5 पाहतु। 4. B सूप। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 । महाकइपुष्फयंतविरयऊ महापुराणु [92.7.7 वम्महु संभउ' रिसि अणुरुद्धउ तवजलणे दंडेिवि' मयरद्धउ । तिण्णि वि उज्जयंतगिरिवरसिरि महुरमहरणिग्गयमहुयरगिरि। केवलणाणु विमलु उप्पाइवि किरियाछिण्णु झाणु णिज्झाइवि। घत्ता-गय मोक्खहु णेमि सुरिंदथुउ णिम्मलणाणविराइउ । विहरेप्पिणु बहुदेसंतरई पल्लवविसयह आइउ ॥7॥ 10 (8) बलएवं पुच्छिउ सुरसारउ कपिल्लिहि परिहि णरपुंगमु । दढरह घरिणि पुत्ति तह दोवइ । सा दिज्जइ कहु मंतु पमंतिउ देविल घरिणि पुत्तु जाणिज्जइ अबरें भणिउं भीमु भडकेसरि । दिज्जइ तासु धूय परमत्थे तो एयहि तियपटु' णिबन्झइ । सुयहि सयंवरविहि मंडिज्जइ जो रुच्चइ सो माणउ इच्छइ पंडवकह वज्जरइ भडारउ । दुमउ' णाम महिवइ सुहसंगमु । जा सोहग्गें कामु वि गोवइ । चंदु णाम पायणधुरि खत्तिउ। इंदवम्मु तहु सुंदरि दिज्जइ। जो आहवि घल्लइ णहयलि करि। अवरु भणइ जइ परिणिय पत्थे। अपणु भगइ महुं हियवइ सुज्झइ। केत्तिउं हियउल्लउँ खंडिज्जइ। दुज्जण कि करति किर पच्छा। महादेवियाँ भी दीक्षित हो गयीं। प्रद्युम्न, शम्भव और मुनि अनिरुद्ध तप की ज्वाला में कामदेव को दण्डित कर, तीनों ही गिरनार पर्वत के शिखरों पर, जिनमें मधुकरों की मधुर-मधुर ध्वनि हो रही थी, घातिया कर्मों का नाश करनेवाला ध्यान करके, विमल केवलज्ञान को उत्पन्न कर, छत्ता-मोक्ष गये। देवेन्द्रों से संस्तुत तथा पवित्रज्ञान से विराजित नेमिनाथ अनेक देशान्तरों में भ्रमण करते हुए पल्लवदेश में आये। तब बलराम के द्वारा पूछे जाने पर सुरश्रेष्ठ आदरणीय पाण्डवकथा कहते हैं-कम्पित्ला नगरी में नरश्रेष्ठ शुभसंगम द्रुपद नाम का राजा था। उसकी गृहिणी दृढ़रथ थी और पुत्री द्रौपदी जो सौभाग्य में काम को भी क्रुद्ध कर देती थी। वह किसे दी जाये-इस पर मन्त्री ने परामर्श दिया कि पोदनपुर में चन्द्र (चन्द्रदत्त) नाम का क्षत्रिय है। उसकी गृहिणी देवला है। उसका पुत्र इन्द्रवर्मा जाना जाता है, उसे सुन्दरी दी जाये। किसी दूसरे ने कहा- योद्धाओं में श्रेष्ठ भीम है, जो युद्ध में हाथी को आकाश में उछाल देता है। वास्तव में कन्या उसे देना चाहिए। दूसरा कहता है यदि अर्जुन से विवाहित हो तो इसे पट्टानी का पट्ट बाँधा जाएगा। एक और कहता है-मेरे मन में तो यह सूझ पड़ता है कि कन्या की स्वयंवर विधि की जाये। हृदय को कितना खण्डित किया जाए ? जो अच्छा लगता है, मनुष्य उसकी इच्छा करता है, बाद में दुर्जन कुछ भी करते रहें। 5. AB संयूरिसि। 5. APS अणिरुद्धछ। 7. ABPS डहेवि। 8.5 "ठिण्ण। (8) 1. AP दुयउ णाम: 5 गुमर। 2. BS अवरि । 3. AB भीममडु । 4. B तृयपटु । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92.9.1।। [ 239 महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु धत्ता-तहिं अवसरि खलदुज्जोहणेण कवडे जूइ जिणेप्पिणु। णिद्धाडिय पंडव पुरवरहु सई थिउ पुहइ लएप्पिणु ॥8॥ (9) पुचपुण्णपदभारपसंगें जउहरि' घल्लिय णट्ट सुरंगें। गय तहिं जहिं आढन्तु सयंवरु विविहकुसुमरयरंजियमहुयरु'। मिलिय अणेय राय मउडुज्जल' चमरधारिचालियचामरचल।। पहपंसुल पंथिय छुडु आइय ते पंच वि कण्णाइ पलोइय। दइवें लोयवाला णं ढोइय णं वम्महसरगुण संजोइय। सिद्धत्थाइ राय अवण्णिवि कामु व दिव्यधणुद्धरु' मण्णिवि। पत्थु सलोणु विसेसें जोइउ तहि इइवें भत्तारु णिओइउ। पित्त सदिट्टि माल तहु उरवलि लच्छीकीलापंगणि पविउलि। ता हरिसिय णीसेस णरेसर पहिय पणच्चिय उब्भिवि णियकर। जयजयसदें 'णरि पइट्ठहिं जिणअहिसेयपणामपहिहिं । कालु जंतु बहुरायविणोयहिं णउ" जाणइ भुंजेवि य भोयहिं। 10 पत्ता--उस अवसर पर दुष्ट दुर्योधन ने जुए में कपट से जीतकर पाण्डवों को नगर से बाहर निकाल दिया और पृथ्वी पर अधिकार कर स्वयं स्थित हो गया। पूर्वपुण्य के प्रभार से लाक्षागृह में डाले गये, वे सुरंग से भाग निकले। वे वहाँ पहुँचे जहाँ विविध कुसुमरज से शोभित हैं मधुकर जिसमें, ऐसा स्वयंवर हो रहा था। मुकुटों से उज्ज्वल चमर धारण करनेवाले के द्वारा संचालित चामरों से चंचल अनेक राजा आकर मिले। पथ की धूल से धूसरित, शीघ्र आये हुए वे पाँचों पथिक भी कन्या ने देखे, मानो दैव ने लोकपाल दिये हों। मानो कामदेव के बाण चढ़ा दिये गये हों। सिद्धार्थ आदि राजाओं की उपेक्षा कर, दिव्यधनुर्धारी (अर्जन) को कामदेव के समान समझकर, (कन्या ने) सुन्दर अर्जुन को विशेष रूप से देखा। दैव ने ही उसका पति नियोजित कर दिया था। उसके लक्ष्मी की लीला के प्रांगण और विशाल उरतल पर, उसने अपनी माला और दृष्टि डाल दी। इससे समस्त राजा प्रसन्न हो उठे। वे पथिक दोनों हाथ उठाकर नाचने लगे। जय-जय शब्द के साथ नगर में प्रवेश करते हुए तथा जिनेन्द्र भगवान् के अभिषेक और प्रणाम से प्रसन्न होते हुए, बहुराग विनोदों और भोगों के कारण भोगकर भी उन्होंने जाते हुए समय को नहीं जाना। 5. Bखा । 6. BP जूएं। (9) 1.A जऊहरे: UPS जहरे। 2. सुतुंगें। 3. Rs कुसुमरसरोजय" । 1. UPजलु। 5.B'चलु । 6. P लोइयथाल17.P दिब्बु । 8. AB "पंगणि; अंग" | 9. A "पणामअद्विहिं। 10. HAS पट आणिज्जइ भुजियभोयहिं। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2401 महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराण E92.9.12 पत्ता-कालें जंतें थिरथोरकर" रणि पल्हत्थियगयघडु । पत्येण सुहद्दहि संजणिउ सिसु अहिअण्णु महाभडु ॥9॥ (10) अवरु' वि मुहमरुथियमत्तालिहि सुय पंचाल' जाय पंचालिहि। पुणु वि भुयंगसेणपुरि पविसणु' कियउं तेहिं कीअयणिण्णासणु। मायावियरूयाई धरेप्पिणु पुणु' विराडमंदिरि णिवसेप्पिणु। अरिणरवई गाय सर घालधि कु लगिदि गांउलाई णियत्तिवि। पुणु कुरुखेत्ति पवडिवगोरव पंडुसुएहि परज्जिय कोरच। अखलियपरिपालियहरियाणउ जाउ जुहिट्ठिलु देसहु राणउ। थिउ रायाणुवट्टि" गुणवंतउ भायरेहिं सुहु' सिरि भुंजतउ । बारहवरिसई णवर पउण्णई गलियई पंकयणाहहु पुण्णई। वणघल्लियमइराइ2 पमत्तहिं! मयपरवसहिं पघुम्मिरणेत्तहिं। सिसुकीलारएहिं संताविउ रायकुमारहिं रिसि रोसाविउ।। सो दीवायणु छुडु छुडु आयउ मुउ भावणसुरु" तक्खणि जायउ । 5 10 घत्ता-समय बीतने पर, अर्जुन ने सुभद्रा से स्थिर स्थूल हाथवाला, गजघटा का संहार करनेवाला महान् योद्धा शिशु अभिमन्यु को उत्पन्न किया। (10) और भी, जिसके मुख-पवन में मतवाले भ्रमर स्थित हैं, ऐसी द्रौपदी से पांचाल नामक पाँच पुत्र हुए। फिर उन्होंने भुजंगशैलपुर में प्रवेश कर कीचक का वध किया। फिर मावावी रूप धारण कर तथा विराट के भवन में निवास कर, फिर शत्र राजा को तीर मारकर, तथा जीतकर, पीछे लगकर, लौटकर और गोकल को लेकर, फिर कुरुक्षेत्र में बढ़ा हुआ है गौरव जिनका ऐसे कौरवों को पाण्डुपुत्रों ने पराजित किया। अस्खलित रूप से परिपालन किया है 'हरियाणा' का राज्य जिसने, ऐसा युधिष्ठिर देश का राजा हो गया। राज्य का अनुगामी, गुणवान्, भाइयों के साथ सुख और ऐश्वर्य का भोग करता हुआ वह रहने लगा। पूरे बारह वर्ष बीत गये और श्रीकृष्ण का पुण्य नष्ट हो गया। वन में बनायी गयी मदिरा से प्रमत्त, मद से परवश घूमती हुई आँखोंवाले, शिशुक्रीड़ा में रत राजकुमारों के द्वारा मुनि सताये गये और झुद्ध किये गये वही द्वीपायन जो अभी-अभी आये हुए थे, मरकर उसी समय भवनवासी देव हुए। ]]. A थिरयोगकरू । 12. APS अहिवण्ण। (10)1.5 अवर। 2. BS पंचालु । ३. भुयंगसेल" मुयंगसल 14. P पइसणु। 5. क्यउं। 6. रुवाई। 7.Somits this foot. s. BAIS "गारवः PS "गउरय। 9. PS कउरख। 10. AP णायाणुयहिः B रायाणुवाई। 11. सउं। 12. ABPS वर्ण। 13. B पत्तहिं। 14. B भावणिःS भावणु। 15. P संजापर। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92.11.11] महायइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [241 घत्ता-आरूसिवि पिसुणे मुक्क सिहि 'पावेप्पिणु सुरदुग्गइ। धवलहरधवलधयमणहरिया खणि दट्टी" दारावइ ॥10॥ सयणमरणरुहसोएं' भरियउ सहुँ बलएवं लहुं णीसरियउ। होउ होउ दिव्याउहसिक्खड। पोरिसु काई करइ भग्गक्खइ। ण' धय ण छत्त ण रह णउ गयवर उ किंकर 'चलंति णउ चामर । देहमेत सावयभीसावणु बे ण्णि वि भाय पइट्ठ महावणु' । चक्कि बिडवितलि सुत्तु तिसायउ सीरि सलिलु पक्लिोयहुं धाइउ । तहि अबसार हयदइवें" रुद्धउ जरकुमारभिल्लें। हरि विद्धउ । जइ वि जीउ दुग्गई आसंघइ तो वि ण णियइ को वि जगि लंधइ । मुउ गउ पढमणरयविवरतरु सोक्खु णकासु वि मुयणि णिरंतरु। जलु लएबि तक्खणि पडियाएं पसरियमोहतिमिरसंघाएं। घत्ता-खयकालफणिदें कवलियउ महि णिवडिउ णिच्चेयणु। बोल्लाविउ मायरु हलहरिण माहउ6 मउलियलोयणु ||1|| 10 पत्ता-देवों की दुर्गति पाकर, उस दुष्ट ने क्रुद्ध होकर आग फेंकी। और, धवल गृहों तथा धवल ध्वजों से सुन्दर द्वारावती एक क्षण में जलकर खाक हो गयी। स्वजनों के मरने से उत्पन्न शोक से भरे हुए श्रीकृष्ण, बलदेव के साथ शीघ्र निकल गये। दिव्यायुधों से शिक्षित रहे, भाग्य के क्षय होने पर पौरुष क्या कर सकता है ? न ध्वज, न छत्र, न रथ, न गजवर, न किंकर, और न ही चमर चलते हैं। शरीरमात्र वे दोनों भाई श्वापदों से भयंकर महावन में प्रविष्ट हुए। चक्रवर्ती प्यास से व्याकुल होकर वृक्ष के नीचे सो गये। बलभद्र पानी देखने के लिए दौड़े। उस अवसर पर हतदैव से रुद्ध, जरतकुमार भील के तीर से हरि घायल हो गये। यदि जीव दुर्ग में भी आश्रय ले ले, तब भी विश्व में नियति का उल्लंघन कोई नहीं कर सकता। मरकर वह, प्रथम नरक के बिल में गये। इस संसार में निरन्तर सुख किसी को नहीं मिलता। बलभद्र जल लेकर तत्काल वापस आये। बढ़ रहा है मोहान्धकार का समूह जिनमें, ऐसे यत्ता-बलराम ने क्षयकालरूपी नाग से कवलित धरती पर अचेतन पड़े हुए, मुकुलित-नयन भाई माधव को बुलाया। lti. P•अइयणोहरिय। 17 दिए। (11)। AP 'मराभवसोएं। 2. धण यण ठत्त ण रह गउ गयबर: पं धय ण छत्त ण गयबर । 3. B किंकिर । 4. AP चलाते चापरधर । 5. 5 "मेत्तु । । । भाइ।7.11वणे। B. APS तिसा। 9. सीरि वि सलिलु पलोया धाइओ। मित्तु: Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 | महाकपुप्फयंतविरय महापुराणु ( 12 ) [92.12.1 लइ जलु महुमह मुहुं' पक्खालहि । उ उट्टि किं भूमिहि सुत्तउ | णिरु तिसिओ सि पियहि तुहुं पाणिउं । मई णिज्जणि वणि किं अवहेरहि । चिंता केहि सोहि । उडि उडि अप्पाणु गिहालिहि दामोयर धूलीइ विलित्तउ उडि उडि केसव मई आणिउं उट्टि उट्टि सिरिहर साहारहि उडि उडि हरि पोलावहि पूयणमंथण' सयडविमद्दण विमणु म थक्कहि देव जगण | इंदु वि बुड्ढ तुह असिवरजलि अज्ज' वि तुहुं जि राउ धरणीयलि । इज्झउ पुरि विहडउ तं परियणु अंतरु णास वियलउ धणु । भाइ धरत्तिदित्ति उप्पायन खुड्डु तुहुं एक्कु होहि नारायण । जहिं तुहुं तहिं सिरि अवसें णिवसइ जहिं ससि तहिं किं जोह ण विलसइ । उडि उट्टि भद्दिय जाइज्जइ किं किर गिरिकंदरि णिवसिज्जइ । किं ण मज्झु करयलि करु ढोयहि किं रुट्टो सि बप्प णउ जोवहि । घत्ता - उट्ठाविवि सुइरु सबंधवेण हरिहि अंगु परिमट्टउं । aणविवर होंत रुहिरजलु ताम गलंतउं दिट्ठउं ||12|| 5 ( 12 ) उठो, उठो, अपने को देखो। हे माधव ! पानी लो और अपना मुँह धो लो । हे दामोदर ! तुम धूल-धूसरित हो रहे हो । उठो, उठो, तुम भूमि पर क्यों सो रहे हो ? उठो ओ, केशव मैं ले आया हूँ। तुम अत्यन्त प्यासे हो, लो यह पानी पिओ । हे श्रीधर (कृष्ण) उठी, उठी, मुझे सहारा दो। इस निर्जन वन में मेरी उपेक्षा क्यों कर रहे हो ? हे हरि ! उठो, उठो, मुझसे बात करो । चिन्ता से व्याकुल होकर तुम कितना सो रहे हो ? पूतना का नाश करनेवाले, शकटासुर के नाशक, हे देव जनार्दन ! तुम उन्मन मत रहो। तुम्हारी तलवार के जल में इन्द्र भी डूब जाता है। आज भी तुम धरती के राजा हो । नगरी जल जाये, परिजन नष्ट हो जाये, अन्तपुर मिट जाये, धन नष्ट हो जाये, परन्तु धरती की दीप्ति को उत्पन्न करनेवाले हे भाई नारायण ! तुम अकेले बने रहो । जहाँ तुम हो, वहाँ लक्ष्मी अवश्य निवास करेगी । जहाँ चन्द्रमा है, वहाँ क्या ज्योत्स्ना नहीं शोभित होगी ? हे भद्र ! उठो, उठो, चला जाये, पहाड़ की गुफा में कैसे रहा जाएगा ? मेरे हाथ में हाथ क्यों नहीं देते ? तुम क्यों रूठ गये हो ? हे सुभट ! मुझे नहीं देखते ?" घत्ता - बहुत समय तक उठाकर भाई ( बलभद्र ) ने कृष्ण के शरीर को छुआ तो उसे घाव के छेद से बहता हुआ खून दिखाई दिया। 10. BIAP भलें 12. S जी 13. P णरए 14. P भुषणे। 15. APS पडिआएं। 16. 5 माहषु । (12) 15 भुरु 2. P3. Ale. अज्जेवि BS अणि थि। 4. APS "परिभि 3. A सिथिति। 6. उपाय। 7. P नारायणु । M. APS जोमा। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • I 92.13.14 महाकइपुप्फयंतविरयत महापुराणु ( 13 ) तं अवलोइचि सीरिहि रुण्णउं गरुडाहु' किं इसियउ सप मं छुडु जरकुमारु एत्थाइउ घाइ" ण मरइ कण्हु भडारउ एउ भगतु' पेउ सो पहाण देवंग वत्थई परिहावइ मुयउ तो वि जीवंतु व मण्णइ कुंकुमचंद के मंड देवें सिद्धत्यें संबोहिउ छम्मासहिं महियलि ओयारिउ सुहिविओयणिव्वेएं लइयउ अच्छरकरचालियचलचामरु तुज्झु वि तणु किं सत्यें भिण्णउं । अहवा किं फिर एन वियये। तेण महारउ बंधवु घाइउ | दुद्दमदाणबिंदसंघारउ ! सोयाउरु उ काई मि जाणइ । भूसणेहिं भूसइ भुंजावइ । जणभासिउं ण किं पि आयण्णा । खंधि चडाविवि महि आहिंडइ । थिउ बलएउ समाहिपसाहिउ । विटु सइ तेण सक्कारिउ । मिणा पणविचि पावइयउ । सो संजायउ माहिंदामरु । घत्ता - आयणिवि महुसूयणमरणु जसधवलियजयमंडव । गय पंच विसिरिणेमीसरहु सरणु पट्टा' पंडव || 13 || | 243 5 10 ( 13 ) यह देखकर बलराम रो पड़े- "क्या तुम्हारा भी शरीर शस्त्र से आहत हो गया ? क्या गरुडराज को साँप ने काट खाया ? अथवा इस विकल्प से क्या, शायद जरत्कुमार यहाँ आया है और उसने मेरे भाई को आहत किया है। दुर्दम दानवेन्द्र का संहार करनेवाला मेरा भाई आदरणीय कृष्ण आहत होने से नहीं मर सकता।" यह कहते हुए वह उस प्रेत को स्नान कराते हैं। शोक से व्याकुल वह कुछ भी नहीं जानते । वह उसे देवांग वस्त्र पहिनाते हैं। आभूषणों से भूषित करते हैं, भोजन कराते हैं, वह मर चुके हैं तो भी जीवित के समान मानते हैं। लोगों के कहे हुए को बिल्कुल भी नहीं सुनते। केशर चन्दन के लेप से लेप करते हैं, कन्धों पर चढ़ाकर धरती पर घूमते हैं। तब सिद्धार्थदेव के द्वारा सम्बोधित होने पर बलभद्र समाधि से शोभित हुए (समाधि ग्रहण की ) । छह माह होने पर उन्होंने देव को कन्धे से उतारा और तब अपने इष्ट विष्णु का ( कृष्ण का ) उन्होंने दाह संस्कार किया। सुधीजन के वियोग से विरक्त उन्होंने श्री नेमिनाथ को प्रणाम कर दीक्षा ग्रहण कर ली । अप्सराओं से चालित है चंचल चामर जिसके लिए ऐसे वह माहेन्द्रस्वर्ग के देव हो गये। धत्ता - श्रीकृष्ण की मृत्यु सुनकर अपने यश से जगरूपी मण्डप को धवलित करनेवाले पाँचों पाण्डव भी गये और श्री नेमिनाथ की शरण में जा पहुँचे । (19) 1. AS सौरि, P सीरें। 2. B गुरु & B सिउ APS बंधु वि पाइ5. APS चाय। B. P एम १ घणंतु कण्डु तौ ॥ B महुसवण महसूप पड़ा। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244] महाकइपुष्फर्यतविरयउ महापुराणु [92.14.1 दि जिणु णीसत्त्नु णिरंतरू' पणवेप्पिणु पुच्छिउ सभवंतरु। अखइ मिणाहु इह भारहि चंपाणयरिहि महियलि' सारहि। मेहबाहु कुरुवंसपहाणउ होतउ इंदसमाणउ राणउ। सोमदेउ बंभणु सोमाणणु सोमिल्लाबंभणियणमाणणु। सोमयत्तु सोमिल्लउ भाणिउ णंदण सोमभूइ जणि जाणिउ। ताह अणेयधण्णधणरिद्धिउ' अग्गिभूइ माउलउ पसिद्धउ । अग्गिलगभवाससंभूयउ एयउ तिण्णि तासु पियधूयउ। धणसिरि मित्तसिरी वि मणोहर णायसिरी वि सुतुंगपओहर। दिण्णउ ताहें ताउ धवलच्छिउ कुलभवणारविंदणवलच्छिउ। जिणपयपंकयाइं पणवेप्पिणु सोमदेउ गउ दिक्ख लएप्पिणु। अण्णहिं दिणि धम्मरुइ भडारउ दूसहतवसंतत्तसरीरउ। णवकंदोट्टदलुज्जलणेत्ते सोमदत्तणामें दियपुत्ते। परमइ अणुकंपाइ णियच्छिउ घरपंगणु पावंतु पडिच्छिवि। धणसिरिणि तेण दमोह देखि रिमिति णिण्णेहहु । घत्ता-ता रूसिवि ताइ अलक्खणइ साहहि विसु करि दिण्णउं। तं भक्खिवि तेण समंजसेण संणासणु पडिवण्णउं ।।4।। 10 15 उन्होंने निरन्तर निःशल्य जिन के दर्शन किये और प्रणाम कर अपने जन्मान्तर पूछे । नेमिनाथ कहते हैं- "इस भरतक्षेत्र की चम्पानगरी में धरती पर श्रेष्ठ कुरुवंश का प्रधान राजा मेघवाहन था जो इन्द्र के समान था । चन्द्रमा के समान मुखवाला तथा अपनी सोमिला नाम की ब्राह्मणी के स्तनों का माननेवाला सोमदेव ब्राह्मण था। उसके सोमदत्त, सोमिल और सोमभूति पुत्र लोगों में जाने जाते थे। उनका अनेक धन-धान्य से समृद्ध अग्निभूति मामा प्रसिद्ध था। पत्नी अग्निला के गर्भ से उत्पन्न उसकी ये तीन पुत्रियाँ थी-धनश्री, मित्रश्री और नागश्री, सुन्दर और अत्यन्त ऊँचे स्तनोंवाली। धवल आँखोंवाली तथा कुलभवन रूपी अरविन्द की नवलक्ष्मियाँ वे कन्याएँ उनको (मानजों को) दे दी गयीं। सोमदेव जिनवर के चरणकमलों में प्रणाम कर दीक्षा लेकर चला गया। दूसरे दिन असह्य तप से संतप्त-शरीर भट्टारक धर्मरुचि मुनि को नवकमल-दल के समान नेत्रयाले सोमदत्त नामक ब्राह्मणपुत्र ने अत्यन्त अनुकम्पा से देखा तथा घर के आँगन में पाकर पड़गाहा और उसने धनीश्री से कहा कि व्रतों को ग्रहण करनेवाले वीतराग मुनि को आहार दो। ___घत्ता-तब क्रुद्ध होकर उस लक्षणहीना ने साधु के कर में विष दे दिया। उसे खाकर सामंजस्यशील मुनि ने संन्यास स्वीकार कर लिया। (14) 1. D णिरंबरु । 2. APS महियल । 3. A मेहवाउ। 4. APS धरिदउ । 3. AIs "बासे; "वासि। ६. p“पयोहर। 7. A ताउ ताहं । 8.P सोपभूइ' 19.A धणिसिरिता फणिसिरि। 10. वयगेहहो। 11.5दिष्णु। यहाँ पर 'संन्यास का अर्थ सल्लेखना या समाधि है।-सम्पादक Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 92.15.15] महाकइपुष्फयंतविरयउ पहापुराणु [245 (15) देउ भडारउ हुयउ अणुतरि दुक्खविवज्जिइ सोक्खणिरंतरि । तं' तेहउं दुक्किउं अवलोइवि मइ अरहतधाम्म संजोइवि । वरुणारियहु पासि अमाया तिण्णि वि भायर मुणिवर जाया। गुणवइखंतिहि पयई णवेप्पिणु कामु कोहु मोहु वि मेल्लेप्पिणु। तरुणिहिं संजमगुणवित्थिण्णउं* मित्तणायसिरिहि' मि व चिण्णउं। सल्लेहणविहिलिहियई गत्तई अच्चुयकप्पि सुरत्तणु पत्तई। पंच वि ताई पहाइ महंतई थियई दिव्वसोक्खई भुंजतई। ताम जाम बावीससमुद्दई धम्म' कासु ण जायई भद्दई। रिसि मारिवि दुक्कियसंछण्णी पंचमियहि पुहइहि उप्पण्णी। पुणु वि 'सयपहदीवि दुदरिसणु फणि हूई दिट्ठीविसु भीसणु। पुणु वि "णरइ तसथावरजोणिहि हिंडिवि दुक्खसमुभवखाणिहि । पुणु मार्यगि जाय चंपापुरि गोउरतोरणमालाबंधुरि। साहु समाहिगुत्तु मण्णेप्पिणु" धम्मु जिणिदसिठ्ठ जाणेप्पिणु। पत्ता-तेत्थु जि पुरि पुणरवि सा मरिवि दुग्गंधेण विरूई। मायंगि "सुयंधहु वणिवरहु सुय धणएविहि" हूई ॥15॥ (15) (वह मरकर) दुःखों से रहित और सुखों से भरपूर अनुत्तर स्वर्ग में देव हुआ। उसके वैसे दुष्कृत्य को देखकर, अपनी बुद्धि अरहन्त धर्म में नियोजित कर निष्कपट भाव से आचार्य वरुण के पास आकर तीनों ही भाई मुनिवर हो गये। गुणवती आर्या के पैरों को प्रणाम कर, काम, क्रोध और मोह को छोड़कर, तरुणियों-- मित्रश्री और नागश्री ने भी संयमगुण से विस्तीर्ण व्रत ग्रहण कर लिया। उन्होंने सल्लेखना विधि से शरीर सुखा लिया और वे अच्युत स्वर्ग में देवत्व को प्राप्त हुई। प्रभा से महान्, वे पाँचों ही दिव्य सुखों का भोग करते हुए तब तक स्थित रहे, जब तक बाइंस सागरपर्यन्त समय नहीं बीत गया। धर्म से किसका कल्याण नहीं बता ? पाप से आच्छन्न धनश्री मुनिश्री का वध कर पाँचवें नरक में उत्पन्न हुई। फिर स्वयंप्रभा द्वीप में दुर्दशनीय भीषण दृष्टिविष साँप हुई। फिर दुःखों की उत्पत्ति की खान त्रस-स्थावर योनियों और नरक में घूमकर, फिर गोपुर एवं तोरणमाला से सुन्दर चम्पापुर में चाण्डाली हुई। वहाँ मुनि समाधिगुप्त को मानकर और जिनेन्द्र द्वारा कथित धर्म को जानकर, ____घत्ता-उसी नगरी में फिर से मरकर वह चाण्डाली, सुबन्धु सेठ और धनदेवी दुर्गन्धा से अत्यन्त विरूप कन्या उत्पन्न हुई। 15 (15) AS ते ते3 BF ते तहत। 2. PS वरुणारियहो। 3. गुणु । 4. Pायधसिरिहि । 5. SB | 6. A सोक्ख दिव्यई। 7.5omits this foot. HAPS पुटविहे। 9. PS सयंपहे दीवे। 10. णग्य। ।।. P"खोणिहे। 12. AP पाणप्पिणु । II. ABAIs. सुबंधुहे। 14. A अ वहे। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 । महाकइपुष्फयंसबिरयउ महापुराणु [92.16.1 (16) ने नागडे वणिउत्तउ । घरिणि 'जसोयदत्त धणवंतहु । सुउ जिणदेउ अवरु जिणयत्तउ जिणवरपयपंकयजुयमत्तउ। पूइगंध किर दिज्जइ इवें एउं वयणु आयण्णिवि जेहें। बालहि कुणिमसरीरु 'दुगुंछिवि सुब्बयमुणि गुरु हियइ समिच्छिवि। तउ लेप्पिणु थिउ सो परमट्टहु । पायहिं णिवडिय' परु पाणिहु। उवरोहें कुमारि परिणाविउ दुग्गंधेण सुछ संताविउ। ण हसइ ण रमइ णउ बोल्लावइ दुहवत्तणु किं कासु वि भावइ । जिंदंती णियकुणिमकलेवरु जिंदइ णियसहं धणी परियण घरु सुव्वयखंतिय झत्ति णियत्तिइ पुच्छिय" चरणकमलु पणतिइ। बिपिण' वि देविउ गुणगणरइयउ । एयउ किं कारणु पावइयउ। भणइ भडारी वरमुहयंदहु वल्लहाउ चिरसोहम्मिदहु । बेण्णि वि जिणपुज्जारयमइयउ णंदीसरदीवंतरु गइयउ। तहिं संदिग्गमणे संजाएं अवरोप्परु बोल्लिउं अणुराएं। जइ माणुसभउ पुणु पावेसहुं तो बेण्णि वि तवचरणु चरेसहुं। इय णिबंधु बद्धउ विहसंतिहिं दोहि मि करु करपंकइ दितिहिं । 10 ___15 (16) वहीं पर धनदेव नाम का धनवान् वणिपुत्र था। उसकी गृहिणी अशोकदत्ता थी। जिनदेव और जिनदत्त नामक पुत्र जिनवर के चरणकमलों के भक्त थे। 'दुर्गन्धयुक्त कन्या (जेठ भाई को) दी जाती है-यह वचन सुनकर बड़ा भाई बाला के सड़े-गले शरीर से घृणा कर, सुव्रत मुनि को अपने मन में धारण कर और तप लेकर परमार्थ में स्थित हो गया। दूसरा अर्थात् छोटा भाई, अपने प्राणों के लिए इष्ट (बन्धुजन या माता-पिता) के चरणों में जा गिरा और उनके अनुरोध से उस कन्या से विवाह कर लिया। परन्तु उसकी दुर्गन्ध से अत्यन्त सन्तप्त हुआ। वह न हैंसता, न रमण करता और न बुलाता। दुर्गन्धित शरीर क्या किसी को अच्छा लगता है ? अपने सड़े हुए शरीर की निन्दा करती हुई वह अपने सुख, धन और घर की निन्दा करती है। घर से निकलकर वह शीघ्र ही चरणकमलों में प्रणाम करती हुई सुव्रता और क्षान्ति नामक आर्यिकाओं से पूछती है- "गुणों के समूह से शोभित आप दोनों देवियाँ प्रतित हैं। इसका क्या कारण है ?" आदरणीया कहती है-हे देवी, पूर्वजन्म में हम दोनों सौधर्म स्वर्ग के इन्द्रों की देवियों थीं। हम दोनों जिनपूजा में लीनबुद्धि होने के कारण नन्दीश्वर द्वीप के लिए गयीं। वहाँ मन के विरक्त हो जाने से अनुरागपूर्वक एक-दूसरे ने आपस में कहा कि हम पुनः मनुष्यजन्म प्राप्त करेंगी, तो हम दोनों तपश्चरण करेंगी। दोनों ने हाथ में हाथ (16) 1. AP असोयदत्त; BS यसोयदत्त। 2. 5 घणवत्तही। 5. AP "पंकयकयमत्तउ। 4. B दुछिबि । 5. APS लएवि। 6. Als. परमेट्ठहो against Mss. 7. AP णिवडिउ बंधु कणिग्रहो; Als. पिबडिउ परू। 1. A परिमगु घणु । 9. APLE. "खसिय। 10. AP णियतिए। 11. B पुत्रिय दुग्गंधा पणवतिए in second hand. 12. B मिष्णि विखुलियाउ गुणनणकड। 13. APS विरु। 14.5"भ। 15. A जिबद्ध। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92.17.8] महाकपुप्फयंतविरयउ महापुराणु उज्झहि" सिरिसेणहु णरणाहहु जायउ पुत्तिउ" कुवलयणायणउ सिरिकंतहि जयलच्छिसणाहहु । "मुहससंककरधवलियगयणउ " । पत्ता - हरिसेण णाम तहिं पढम सुय हरिसपसाहियदेही । सिरिसेण अवर वम्महसिरि व रूवें सुरबहु जेही | |16|| ( 17 ) वरणरणारीविरइयतंडवि बद्धसंघ जाणिवि ससितेयउ खतिवयणु आयणिवि तुट्टी एक्कु दिवसु झायंतिउ जिणु मणि झत्ति वसंतसेणणामालइ चिंतिउं जिह एयहं सिवगामिउ जिह एयहुं णिब्बूढपरीसहु एव सलाहणिज्जु सलहंतिइ सरिवि 'सजम्मु सयंवरमंडवि । हलि बिणि वि पावइयउ एयउ । सुकुमार वि तवयम्मि णिविट्ठी । जोइयाउ' सव्वउ णंदणवणि । वेसर कुसुमसरावलिमालइ । तिह मज्झ वि होज्जर तबु दूसहु । तिह मज्झ वि होज्जउ तबु दूसहु । गणिय पावें सहुं कलर्हति । [247 5 लेते हुए और हँसते हुए यह निदान किया। अयोध्या में विजयलक्ष्मी से युक्त श्रीषेण राजा की श्रीकान्ता की हम दोनों कुवलय नेत्रोंवाली और मुखचन्द्र की किरणों से आकाश को धवल कर देनेवाली पुत्रियाँ हुईं। घत्ता - उनमें पहली का नाम हरिषेणा थी, जिसका शरीर प्रसन्नता से प्रसाधित था। दूसरी श्रीषेणा कामलक्ष्मी के समान और रूप में सुरबधू जैसी थी । ( 17 ) नर-नारियों द्वारा किया जा रहा है नृत्य जिसमें ऐसे स्वयंवर मण्डप में अपने पूर्वजन्म को याद कर तथा ली हुई प्रतिज्ञा को जानकर, चन्द्रमा के समान कान्तिवाली हम दोनों ने यह संन्यास ले लिया ।” क्षान्ति आर्यिका के वचन सुनकर सुकुमारी सन्तुष्ट होकर तपकर्म में लग गयी। एक दिन नन्दमवन में जिनवर का मन में ध्यान करती हुई सबकी सब देखी गयीं। कामदेव के तीरों की माला वसन्तसेना वेश्या ने सोचा- जिस प्रकार इनका ( तप है) हे शिवगामी जिनस्वामी ! वैसा मेरा भी हो, जिस प्रकार इनका परीषह सहन करनेवाला तप है, उसी प्रकार मेरा भी दुःसह तप हो। इस प्रकार प्रशंसनीय की प्रशंसा करती हुई तथा पाप के साथ संघर्ष करती हुई उस गणिका ने जिस पुण्य का अर्जन किया, उसका क्या वर्णन किया जाये ? जिनेन्द्र का स्मरण करनेवालों 16. P | 17.S पुतिं कु8. AP णयणिउ 19. ABPS मुहससहरकर | 20. A गयणिउ; P गयणओ। ( 17 ) LAS omits] स in सजम्मु: B सुजम्मु । 2. P सुकुमारे। 3. From this line to 18.2, P has the following version :-" एक्कु दिवस आयंतिउ जिणु मणे, संठियाउ सम्बद्ध गंदणवणे तेत्यु वसंतसेणाभालिय, वेसय कुसुमसरायलिमालिय । बहुविदेहि परिमंडी जंती, लोलए वयणहो वयणु भगती चिक करवलेतु लायंती, जयणसरावलीए पहणंती नियवि णियाणु कयज सुकुमारिए, चहुदोरुग्णभारणिरुमारिए। जिह एयहे एए सुकरायर, तिह मज्जु दि जम्मंतरे परवर । जिह एयले सोहग्गमहाभरू, तिह मज्जु वि होज्ज सुणिरंतर एम नियाणु करवि अण्णाणिणि, हुय अभ्माणहो जिस सा बद्दरिणि । कार्ले कहिं मि मरेवि संणाओं, दंसणणाणधरित्तपया अंतस जाइय सियसेविय, चिरभवसोमभूइ सुरदेविय। यत्ता- तर्हि होतउ कालें ओबरेयि हुए सोमयतु जुहिट्ठिलु । सोमेलु भीम श्री पारिभद मुचबलमलणु महामडु ॥17॥ 4. A संठियाउ । 5. A तेत्यु for झति । 6. A सारए 1 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 ] महाकपुस्फयंतविरय महापुराणु पुण्णु निबद्ध ं किं वणिज्जइ मरिवि तेत्यु बिणि वि संणासें अग्गसगिरी जायउ "सियसेविउ जिणु सुमरंत दुक्किउ छिज्जइ । दंसणणाणचरित्तपयासें । चिरभवसोमभूइ सुरु" सेविउ । पत्ता - तहिं होंती कालें ओयरिचि हुय" हरिसेण जुहिट्ठिलु । सिरिसेण 14 भीम भीमारिभडु भुयबलमलणु महाबलु ॥ 17 ॥ ( 18 ) 'बालमराललीलगइगामिणि होइवि उप सा वि मित्तसिरि वि सहएउ ण चुक्कड़ दुवयहु सुय पेम्भमहाणइ es जुहिलि हयवम्मीसर कहर भडाउ भक्खियतरुहलु रिसि विद्धंतु सधरिणिइ वारिउ विय भडारा वियलियगावें अवर वसंतसेण जा कामिणि । फणहरि गन्तु भ्रमवित्यिण्णी । कम्मु णिबद्ध अवसें दुक्कइ । जा दुग्गंध कण्ण सा दोम " । भणु भणु जियभवाई णेमीसर । होंतउ पढमजम्मि हउं जाहलु । पाणि सबाणु धरिउ ओसारिउ । महुमासहं णिवित्ति कय भावें । [ 92.17.9 10 5 का पाप नष्ट हो जाता है । वहाँ पर वे दोनों दर्शन, ज्ञान और चरित्र का है प्रकाश जिसमें ऐसे संन्यास के साथ मरकर सोलहवें स्वर्ग में श्री से सेवित देवियाँ हुई; पूर्वजन्म के सोमभूतिचर देव के द्वारा लेि बत्ता - वहाँ से होकर, समय के अनन्तर हरिषेणा युधिष्ठिर हुई । श्रीषेणा शत्रुओं से लड़नेवाला, भुजबल से चूर-चूर कर देनेवाला महाबल भीम हुई । ( 18 ) बालहंस की लीलागति के समान गमन करनेवाली जो दूसरी वसन्तसेना थी, वह अर्जुन के रूप में उत्पन्न हुई है। धर्म से विच्छिन्न नागश्री नकुल के रूप में जन्मी है, मित्र श्री सहदेव हुई। बाँधा हुआ कर्म कभी नहीं चूकता। वह अवश्य होकर रहता है। और जो दुर्गन्धयुक्त कन्या थी, वह प्रेमरूपी जल की महानदी, राजा द्रुपद की कन्या द्रौपदी है।" युधिष्ठिर पूछते हैं- "हे कामदेव का नाश करनेवाले नेमीश्वर ! आप अपने जन्मान्तर बतायें।" आदरणीय नेमीश्वर कहते हैं कि प्रथम जन्म में मैं वृक्षों के फल खानेवाला भील था । एक मुनि को विद्ध करते हुए अपनी पत्नी के द्वारा मना किया गया और मैंने हाथ पर रखे हुए बाण को उठा लिया। गर्वरहित होकर मैंने आदरणीय मुनि को प्रणाम किया और भावपूर्वक मधु, मांस से मैंने निवृत्ति ले ली। साँप के काटने पर बेचारा भील मर गया, और वणिग्वर कुल में इब्भकेतु हुआ। फिर समय आने पर जिनवर के लिए सिर से प्रणाम करनेवाला मैं व्रत के फल से कल्पवासी देव हुआ। फिर कान्ति से भास्वर 7. A सुअरत: S सुपरत | 8 A तिष्णि यि 9. AS अंतसग्गि । 10. A सियसेविय 11. A सुरदेवियः 5 सुरदेविउ 12. A होस 15. A हुए सोमयत्तु जुडिष्ट्ठिल । 14. A सोमिल्लु भीषु। (tt appears that P contains art altogether new version from बहुविदेहि down to बङ्गरिणि, while A seems to agree with P in lines which are common to all versions. ( 18 ) 1. A agrees with P in the text of the first two lines for which sce under 17 2 5 धप्पु 9 A दीयइ। 1. AP घरेषि । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92.19.81 महाकइपुष्फयंतविरयत महापुराणु [249 फणि इंकि मुउ भिल्लु वरायउ इब्भकेउ वणिवरकुलि जायउ। पुणु हउँ कालें जिणपणवियसि वयहलेण हुयउ कप्पामरु । पुणु सुरु 'धरिवि देवभाभासुरु हुउ चिंतागइ खयरणरेसरु । पुणु तउ' चरियि समाहि लहेप्पिणु उप्पण्णउ माहिंदि मरेप्पिणु। पुणु अवराइउ परवइ हूयउ मुणि होइवि अच्चुइ" संभूयउ। पुणु संजायउ दव्वणिहीसरु'५ सुप्पइ?' णामें पुहईसरु। पत्ता-हउँ हुरािस सोलहकारणई णियहियउल्लइ भावियई। जिणजम्मकम्मु मई संचियउं बहुदुरियई उड्डावियई ॥18॥ (19) पुणरवि मुउ 'रयणावलियंतइ अहमिंदत्तणु पत्तु जयंतइ। तहिं होतउ आयउ मलचत्तउ अरहंतत्तणु इह संपत्तउ। ता पंचमगइसामि णवेप्पिणु पंचासवदाराई 'वहेप्पिणु। पंचिंदियई दिहीइ णियत्तिवि पंच वि संणाणई सचिंतिवि। पंचमहव्ववपरियरु रइयउ पंचहिं पंडवेहिं तउ लइयउ। कोंति सुहद्द दुवई' "सुयसत्तउ' रायमईहि पासि णिक्खंतउ । तिव्वतवेण पुण्णसंपुण्णउ' अच्चुयकप्पि ताउ उप्पण्णउ । तिण्णि वि पुणु मणुयत्तु लहेप्पिणु सिज्झिहिंति कम्माई महेप्पिणु। देह धारण कर देव हुआ। फिर चिन्तागति विद्याधर राजा हुआ। फिर तपकर और समाधि प्राप्त कर माहेन्द्र स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। फिर, अपराजित राजा हुआ। फिर, अच्युत स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। फिर, मैं द्रव्यनिधीश्वर सुप्रतिष्ठ नाम का राजा हुआ। ____घत्ता-मैं फिर मुनि हुआ, और मैंने अपने हृदय में सोलहकारण भावनाओं की भावना की। मैंने पुण्य का बन्ध किया और अनेक पापों को उड़ा दिया। (19) फिर मरकर रत्नमालाओं से सुन्दर जयन्त स्वर्ग में अहमेन्द्रत्व को प्राप्त किया। वहाँ से आकर मल से त्यक्त यह अरहन्तपद यहाँ पाया।" तब पाँचवीं गति (मोक्ष) के स्वामी को प्रणाम कर, पाँच आश्रव के द्वारों को बन्द कर, सन्तोष से पाँच इन्द्रियों को निवृत्त कर, पाँच सत् ज्ञानों की चिन्ता कर, पाण्डवों ने पाँच महाव्रतों का समूह रचा और तप ग्रहण कर लिया। शास्त्रों में आसक्त कुन्ती, सुभद्रा और द्रौपदी ने राजमती के पास दीक्षा ले ली। पुण्य से सम्पूर्ण वे तीव्र तप के कारण अच्यत स्वर्ग में उत्पन्न हुई। तीनों फिर मनुष्यत्व को प्राप्त कर कर्मों का नाश कर सिद्धि को प्राप्त करेंगी। 5. APS इक्विज । 6. S"पणभिय । 7.ABPK मरेवि । B.A देहभालासुरु19.5 तवु। 10. B लएप्पिणु। 11. B अस्थुउ । 12. A देउणिहीसरु; BPS दिव्वणिहीसरु। 13. P सुपझ्छु । 11. BKS omit हुआ। (19)1.P°वलिअंतए12.5°दारावई । 3. AP पिहेप्पिणु; AI5. बहेप्पिणु। 4. B दिहिए। 5. AP णियतिवि। 6. A बड। 7. PAIS. दुपय"18. A तु:P सुव 19. APAI5. संतउ। 10. Aणिक्खित्तर Bणिक्वंतर। 11.A पुन्नतवेण। 12. P संपण्णउ। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 1 महाकपुप्फयंतविरयत महापुराणु घत्ता - पंच विलवतावसुतत्ततणु" चिरु जिणेण सहुं हिंडिवि । गय ते सत्तुंजयगिरिवरहु पंडव जणवउ छडिचि ॥७॥ ( 20 ) तहिं आयावणजोयपरिट्ठिय" । कइयमउडकुंडलई सुरत्तइं' तणुपलरसवस लोहियहरणइं खमभावेण विवज्जियदुक्खहु णियसरीरु जरतणु व गणेपिणु उलु महामुणि सह उ" वि मुउ धत्ता-मिच्छतु जडत्तणु णिद्दलवि देंतु बोहि दिहिगारा । पंडवमुणि 'जणमणतिमिरहर महुं पक्षियंतु भडारा | 20 | ( 21 ) पावयम्मु दुज्जणु विवरेरउ । चउदिसु साहणेण संदाणिय | कडिसुत्ताई हुयासणतत्तई । रिसि परिहाविय लोहाहरणइं । तव सुय भीमज्जुण गव मोक्खहु । अरिविरइ उवसग्गु सहेप्पिणु । पंचाणुत्तरि अहमीसरु हुछ । सिङ्कवरिट्ठसणिट्टाणिट्टिय' भाणे कुरुणा उ तेण दिट्ठ ते तहिं अवमाणिय छहसयाई णवणवइ य वरिसई महि बिहरेष्पिणु मयणवियारउ णवमासाई अवरु चउदिवसई । गउ उज्जतहु णेमि भडारउ । [ 92.19.9 10 5 10 घत्ता - तप के ताप से सन्तप्त-शरीर वे पाँचों पाण्डव भी बहुत समय तक जिनवर के साथ परिभ्रमण कर, जनपद छोड़कर शत्रुंजय गिरिवर के ऊपर गये । ( 20 ) श्रेष्ठ वरिष्ठ अपनी निष्ठा में निष्ठ वे आतापनयोग में स्थित हो गये। तब कुरुनाथ (दुर्योधन), पापकर्मा दुर्जन और विरोधी भानजा वहीं पर रहता था। उसने उन्हें देखा और वहीं उनकी अवमानना की। चारों ओर से सेना ने घेर लिया। कड़ा, मुकुट, कुण्डल, कटिसूत्र आग में तपाये तथा शरीर के मांस, रस, चर्बी और रक्त का अपहरण करनेवाले लोहे के आभरण मुनि को पहिनाये। लेकिन क्षमाभाव से युधिष्ठिर (तपःसुत) भीम और अर्जुन, दुःख से रहित मोक्ष चले गये। अपने शरीर को जीर्ण तिनके की तरह समझते हुए शत्रुकृत उपसर्गों को सहन करते हुए नकुल और सहदेव महामुनि भी मृत्यु को प्राप्त हुए और सर्वार्थसिद्धि में अहमेन्द्र हुए। घत्ता - मिथ्यात्व और जड़त्व का निर्दलन कर, बोधि देते हुए, धैर्य धारण करनेवाले, जनमन का अन्धकार दूर करनेवाले आदरणीय पाण्डव मुनि मुझ पर प्रसन्न हों। ( 21 ) छह सौ निन्यानवे वर्ष, नौ माह और चार दिन तक धरती पर बिहार करने के बाद, कामदेव के नाशक 13. BS सुतत्तणु । ( 20 ) 1. PAIS. "सुणिट्ठा 2. A आवणजोएण S आधाबणजोएं। 3. P भाइणेज 4 B सुतत्तद्दं । 5. B भीमञ्जण । 6. S सहए। 7. Sommits मण ( 21 ) 1. AP "सयाई वरिसहं णवणउय जयजयई यरि: AJs. णवणउयई यरिस 2. APS उज्र्ज्जतहो । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92.21.151 महाकइपुण्फयंतविरवउ महापुराणु [ 251 पंडियपंडेिवमरणपयासे मासमेत्तु थिउ जोयम्भासें। तवतावोहामियमयरद्धउ पंचसएहिं रिसिहि सह सिद्धउ । आसदहु मासह सियपक्खइ सत्तमिवासरि चित्तारिक्खइ। पुब्बरत्ति' भत्तामरपुज्जिउ णेमि सुहाई देउ मलवज्जिउ । एयहु धम्मतिथि पवहंतइ णिसुणहि सेणिय कालि गलतइ । बंभमहामहिणाहहु णंदणु चूलादेविहि णयणाणंदणु। शान णामें नक्कम संजायउ जगजलरुहणेसरु। वण्णे तत्तकणयवण्णुज्जलु सत्तचावपरिमाणु महाबलु। सत्तसयाई समाह जिएप्पिणु' छक्खंड वि मेइणि मुंजेप्पिणु। गउ मुउ कालहु को वि ण चुक्का सक्कु वि खयकालहु णउ सक्कई । इय जाणिवि चारित्तपवित्तहु संतहु "सत्तुमित्तसमचित्तहु । घत्ता-सुविहिहि अरुहहु तित्थंकरहु धम्मचक्कणेमिहि वरई। संभरह" पुष्पदंतहु पयई विविहजम्मतमसमहरई ॥21॥ 10 15 इय महापुराणे तिसद्विमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुष्फयंतविरइए महाभब्वभरहाणुमपिणए महाकव्वे णेमिणाहणियाणगमण" णाम "दुणउदिमो परिच्छेउ समतो 192॥ आदरणीय नेमि ऊर्जयन्त पर्वत पर गये और संलेखनाव्रत के प्रयास में एक माह तक योगाभ्यास में स्थित रहे। तप के ताप से कामदेव को नष्ट करनेवाले वे पाँच सौ मुनियों के साथ सिद्ध हो गये। आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष में चित्रा नक्षत्र में सप्तमी के दिन, पूर्वरात्रि में, भक्तामरों के द्वारा पूजित और मल से वर्जित होकर शोभित थे। हे श्रेणिक ! सुनो इनके धर्मतीर्थ के प्रवाहित होने पर और समय बीतने पर, ब्रह्म महामहीश्वर और चूलादेवी के नेत्रों को आनन्द देनेवाला पुत्र, ब्रह्मदत्त नाम का चक्रवर्ती हुआ, जो विश्वरूपी कमल के लिए सूर्य था। वर्ण में तपे हुए सोने के रंग का, सातधनुष ऊँचे शरीरवाला महाबली, सात सौ वर्ष जीवित रहकर छह खण्ड धरती का उपभोग कर, वह भी मर गया। काल से कोई नहीं बचता। इन्द्र भी काल के आगे कुछ नहीं कर सकता। यह जानकर चारित्र से पवित्र, शत्रु-मित्र में समचित्त रखनेवाले सन्त, घत्ता-सुविधि अरहन्त धर्मचक्र नेमि तीर्थकर और पुष्पदन्त के श्रेष्ठ विविध जन्मों का अन्धकार दूर करनेवाले चरणों को याद करो। त्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से पुक्त इस महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का नेमिनिर्वाण-गमन नाम का बानवेवौँ परिच्छेद समाप्त हुआ। 3. सहुं। 4. Areads basaandaash. 2.AP जीवेप्पिणु। B.A चुपच । 9. सत्त। 10. RP°क्तुि । 11. संभरह। 12.4"जम्मभवसमहर: BSAIS. जम्मममसमहर, जम्मसमहरई। 13. A adds : बंभदसयक्वट्टिकहतरं। 14. AS दुणददिमो। 15. Aomits this पुष्पिका। 16. 8 अरासेंधु। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 J मुक्का जेण खमावई रइया जो विमहाबई ₹1 महाकइपुष्यंतविरयउ महापुराणु तिणवदिम संधि पणवेपि पासु णियसुकइतु' पयासमि। गासियपसुपासु तासु जि चरिचं समासमि ॥ ध्रुवकं ॥ (1) सुरहियदिचक्काणणं सोढुं खरकिरणावयं मोत्तुं जो गिरिधीरओ जस्स रिऊ असुरो अही जो दोहं पि समंजसो गाणं जस्सुप्पण्णयं गाविसहया जस्स गया पोमावई एक्कवायचप्पियरसा तवसासस्स खमावई । संजाओ पमहावई । जो संपतो कापणं । "सवउं पि हु किर णायवं । थि उवसमधीरओ । उववारी सुयणो अही । "बुढो जेण समं जसी । खुहियणरामरपण्यं । पाइंदाणी विसहिया । भुवणत्तयपोमावई । 'अमुणियं परमागमरसा । | 93.1.1 5 10 तिरानवेवीं सन्धि पार्श्व जिन को प्रणाम कर, मैं अपना सुकवित्व प्रकाशित करता हूँ और उन्हीं का चरित प्रकाशित करता I (1) जिन्होंने पृथ्वीपतियों को छोड़ दिया है, जो तपरूपी धान्य के लिए बाड़ लगानेवाले हैं, जो महापद से रहित होकर महाव्रती हुए हैं, जिनका दिक्चक्ररूपी आनन सुरभित है, ऐसे कानून में वे पहुँचे। प्रखर सूर्य की भी आपदा को सहन करने के लिए उनका अपना शरीर भी व्रत अनुष्ठानादि न्याय का पालन करनेवाला था। गिरि के समान धीर जो मुक्ति के लिए उपशम से धीर होकर बैठ गये। अहो ! असुर (बुद्धिहीन कमठ) जिनका शत्रु है और अहि (नागराज) मित्र हैं, जो दोनों में ही सामंजस्य रखते हैं, जिनका यश और समता भाव समान रूप से बढ़ा हुआ है, जिनको नरों, अमरों और नागों को क्षुब्ध करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ हैं, जिन्होंने उपसर्गों को सहन किया है, नागेन्द्राणी भी ( जिनसे ) धर्मरत हुई, भुवनत्रय में प्रशंसनीय पद्मावती जिनके लिए नत है, (तथा) जिन्होंने एक पैर से धरती को चाँप रखा है और जो परमागमशास्त्र के रस (1) 1. गियसुक । णिययकइतु। 2. गासियनसु 3. APT किरणाथ 4 A सवओ P सुबउं 5. APP . A बूढो P रूढो बूढो । 7. A एकपाय" । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 ३ 93.2.8 महाकइपुष्फलक्रियउ महापुराण सिवदिक्खाकंताबसा " जस्स धम्ममगं गया मणिमो तस्स विचित्तयं दिव्यं दुक्कियरितयं जं दट्ठूणं तावसा । उज्झियमिच्छासंगया। काउं सुद्धं चित्त । पासजिणस्स चरितयं । घत्ता - इह " जंबूदीबि भरहि सुरम्मउ " सुहयरु 1 जगवउ दाणालु करिव रायढोइयकरु ॥॥॥ (2) कणभरियकणिसकरिसण पगाम जहिं जणु असुर संपण्णकामु जर्हि ठेक्करंत पवहंत धवल जहिं गोउलाई मणरंजणाई जहिं दुद्धई घणसाहालयाई जहिंकणचकंजकिंजक्करेणु जहिं गामासष्णहिं संचरति सलिलेण" काई पिज्जइ पवासु सुहभूयगाम जहिं विउलराम' । सोहग्गे रूवें जित्तकामु । घरकामिणीहिं गिज्जत धवल । भरिय बहुरंजणाई' । दवाई वि साहालयाई । विसिति धिवंति मत्ता करेणु । कलपिंक कलगछेसहिं चरति । पंडच्छहिं रसु पसमियपवासु । | 253 15 5 को भी नहीं मानते, जो शिव दीक्षारूपी कान्ता के वशीभूत हैं, ऐसे तपस्वी जिन (पार्श्वनाथ) को देखकर, मिथ्या संगति को छोड़कर धर्ममार्ग में लगते हैं, ऐसे उन पार्श्वनाथ के चरित को, जो दिव्य और दुष्कृतों से रहित है, विचित्र चित्त की शुद्धि के लिए कहता हूँ । घत्ता - इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में शुभंकर सुरम्य जनपद है, जो दानयुक्त हाथी के समान राजा के लिए ढोइयकर (कर देनेवाला, सूँड देनेवाला) है, (2) जहाँ कणों से भरे हुए धान्य से युक्त प्रचुर क्षेत्र हैं, शुभ प्राणिसमूह है और बड़े-बड़े उद्यान हैं; जहाँ मनुष्य क्रोधरहित और पूर्णकाम हैं तथा सौभाग्य और रूप में कामदेव को जीतनेवाले हैं, जहाँ देक्कार ध्वनि करते ( ढँकारते हुए धवल (बैल) घूमते हैं और गृहस्त्रियों द्वारा धवल गीत गाये जाते हैं; जहाँ मनोरंजन करनेवाले गोकुल तथा नवनीत से भरे हुए, प्रचुर जलपात्र हैं, जहाँ दूध अत्यन्त प्रशंसा से युक्त है, जहाँ नन्दनवन भी अनेक शाखाओं से युक्त हैं; जहाँ स्वर्णकमल की परागधूल मतवाले हाथी अपने सिर के ऊपर डालते हैं। जहाँ ग्रामों के निकट के धान्य खेतों में चटक पक्षी विचरण करते हैं; प्याऊ पानी से क्या, जहाँ मार्ग की थकान को मिटानेवाला रस ईखवृक्षों से पिया जाता है; गोपों की वेणु (बाँसुरी) में दिये हैं कान KA तिवकताविसावया । प्र. A इन III A सुरम्मल ह । ( 2 ) 13 लिगामा । 2. AP अग्रेड 3. 11. हो संगे जिकण्ण Punts this fomt. 5. AJ ढेकरांते | 6. गिति 7. महुराई। A कलव ंतहिं | A reads chs line as: सलिलेण काई गिज्न भवासु, पंच्छुहि र थए यए समियपचासुः Preads it as सलिलेश कार्ड छिन् सुपसण्या । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 | महाकइपुष्कयंतविरया पहापुराणु 193.2.9 माहिसियवंसरवदिण्णकण्ण जहिं मृगई" ण वारइ हलियकण्ण । मिगई वि भक्खंति ण कणविसेसु" जहिं सच्चु सुसुत्थित णिलइ सेसु। 10 घत्ता-तहिं पोयणणामु णवरु अस्थि विस्थिण्णउँ । सुरलोएं णाइ "धरिणिहि पाहुडु दिण्णउं ॥2॥ कारंडहंसकयीसणाई जहिं सरि सरि णिरु मिट्टई पयाई जहिं 'सकुसुमदुमजणियाहिलास भक्खंतह रससोक्खुज्जलाई वेल्लीहराई जहिंसुरहियाई णिच्च चिय लक्खणमाणियाउ विमलाउ सपोमउ सोहियाउ | परिहाउ तिण्णि पाणिउं वहंति जहिं विविहरयणदित्तीविचित्तु जहिं सुरतरुछण्णई उववणाई। ण कइकयाई सरसई पयाई। णं मयरद्धयपहरणणिवास। जहिं. फलई गाइं सुक्कियफलाई। कीलासयवहुवरसुरहियाई । गहिराउ ससीयउ माणियाउ । णं रहुवइवित्तिउ' दीहियाउ। जहिं णं णिवदासित्तणु कहति। पायारु दुग्गु णं सदहि' चित्तु। जिन्होंने ऐसी कृषक कन्याएँ जहाँ मृगों को नहीं भगाती और हरिण भी कण विशेष नहीं खाते; जहाँ घरों में सब लोग सुस्थित हैं, धत्ता-वहाँ फैला हुआ पोदनपुर नाम का नगर है, जो मानो स्वर्गलोक ने धरती के लिए उपहार में दिया हो। जिनमें चातक और हंस पक्षी शब्द कर रहे हैं, ऐसे कल्पवृक्षों से आच्छन्न उपवन जहाँ हैं; जहाँ नदी-नदी में मीठा (पय) पानी है, मानो कवि के द्वारा रचित पद्य (पद) हों; जहाँ पुष्यों सहित वृक्षों के द्वारा अभिलाषा उत्पन्न करनेवाले वृक्ष ऐसे मालूम होते हैं मानो कामदेव के प्रहरणों के निवास हों। रससुख से उज्ज्वल फलों को खानेवालों के लिए ये ऐसे लगते हैं, जैसे उनके सुकृतों के फल हों; जहाँ लतान सुरभित हैं, जो क्रीड़ा की इच्छा रखनेवाले सैकड़ों वधूवरों को प्रच्छन्न किये हुए हैं; जहाँ बावड़ियाँ रघुपति (राम) के चरित की तरह नित्य ही लक्खणमाणियाउ (सारस, लक्ष्मण से सहित), गम्भीर, ससीय (शीतलता, सीता से सहित), मान्य और विमलाउ (विमल अप (जल) वाली, निर्मल), सपोम (कमल, राम से सहित), जहाँ पानी को धारण करनेवाली तीन-तीन परिखाएँ हैं, जैसे वे राजा की दासता को बता रही हों; जहाँ विविध रत्नों की दीप्तियों से विचित्र प्राकार और दुर्ग ऐसे प्रतीत होते हैं, जैसे सती के चित्त हों। 10. AP मिगई। 11. A तिमविसेसु। 12. जणवत असेतु। 18. AP पोपणु णाम । 19. AP घरपिहे। (5) AP सुखसुमन। 2. A फीजातुरवस्याबरहियाई कौलारममाया' | S.A पहचताबीहिपाठ Pावितोउ । 1.A जहिं गं गयवासितणु कहांत जात विवातिलगुण करीत। 3. A पहि। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 93.4.12] महाकइपुष्फयतविरया महापुराणु [ 255 10 पत्ता-जहिं घरसिरचिंधु सिहरकलसि परिघोलइ। सिंचहुं णियवंसु णावइ सलिलु णिहालइ ॥3 जहिं इंदणीलकंतीविहिण्णु जहिं पोमरायमाणिक्कदित्ति सम सोहइ महिय थणत्थलीहि । जहिं णिवडियभूसणफुरियमग्गु जहिं लोयधित्ततंबोलराउ जहिं बहलघवलकप्पूर धूलि सामंत मंति भड भुत्तभोय जहिं चंदकंतणिज्झरजलाई सोहग्गरूवलायण्णवंत जहिं खत्तिय थिय' णं खत्तधम्म जहिं वइस पवर वइसवणसरिस सुद्द वि विसुद्धमग्गाणुगामि णउ णज्जइ कज्जलु णयणि दिण्णु। उच्छलइ ण दीसइ घुसिणलित्ति। जहिं रंगावलि हारावलीहिं। हरिलालाकरिमयपंकदुग्गु। बुड्डइ' कुंकुमचिक्खल्लि पाउ। कुसुमावलिपरिमलविलुलियालि। जहिं एंति जति णायरिय लोय। पवहति सुसीयई णिम्मलाई। जहिं णर सयल विणं रइहि कत। जहिं बंभण विरइयबंभयम्म। वण्णत्तयपेसणजणियहरिस। तहिं राउ वसई चउवण्णसामि। 10 पत्ता-जहाँ घरों के अग्रभाग पर स्थित पताकाएं शिखर-कलशी पर हिलती है, मानी अपने वश को सींचने के लिए जल को देख रही हों; जहाँ आँखों में लगाया गया काजल इन्द्रनीलमणि की कान्ति से प्रभावित होकर दिखाई नहीं देता; जहाँ पद्मराग माणिक्यों की दीप्ति चमकती है, केशर का लेप दिखाई नहीं देता; जहाँ स्तनरूपी स्थलियों (थालियों) से सम्मानीय महिला और हारावलियों से रंगावली समान रूप से शोभित है; जहाँ के मार्ग गिरे हुए आभूषणों से स्फुरित हैं; घोड़ों की लार एवं हाथियों के मद-पंक से दुर्गम हैं; जहाँ लोगों के द्वारा छोड़ा गया ताम्बूल सग और पाँव केशर की कीचड़ में डूब जाता है; जहाँ कपूर की प्रचुर सफेद धूल है; जहाँ कुसुमावलियों के पराग पर भ्रमर मँडरा रहे हैं; जहाँ चन्द्रकान्त मणियों के पवित्र और शीतल निर्झर-जल प्रवाहित हैं; जहाँ सौभाग्य, रूप और लावण्य से युक्त सभी मनुष्य ऐसे मालूम पड़ते हैं, जैसे रति के कान्त (प्रिय) हों; जहाँ क्षत्रिय ऐसे हैं, जैसे क्षात्र-धर्म स्थित हों; जहाँ ब्राह्मण ऐसे हैं जो ब्राह्मधर्म का आचरण करनेवाले हैं; जहाँ वैश्य कुबेर के समान हैं, जिन्होंने वर्णत्रय की सेवा में हर्ष माना है, ऐसे शूद्र भी विशुद्ध मार्ग के अनुगामी हैं; वहाँ चारों वर्गों का स्वामी राजा निवास करता है। (4)I.ASHA भुसियभाय। .A यति । 4. Aण पिप | B.A Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 ] [93.4.13 महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु घत्ता--अरिविंदकयंतु परवहुविंदहं दुल्लहु। णामें अरविंदु' अरविंदालयवल्लहु ॥4॥ दाणेण जासु ण णीस संति रिउ जासु भएण जि णीससंति। भुंजति फलई काणणि वसति सिहिपिंछई तरुपल्लव वसंति। पुण्णेण जासु महि पिक्कसास कुसधाविर' अवित्तियकसास । भिच्चयणहं पूरिय जेण सास वीहंति जासु विसहर विसास । तमजालकाल पायालवास रणि संक वहति सुहालवास। बझंति धरिवि परिचत्तमाण मंडलिय जासु मंडलसमाण। जयसिरि णिवसइ जसु दीहदोसु दंडेण जेण उपसमिउ दोसु। सिरिपरगमणोत्तिउ जेण कोसु णायज्जियदब्हें भरिउ कोसु। मायंग जासु घरि बद्धरयण णाणारयणायरदिण्णरयण। तहु मंति विष्णु माणियविहूइ णामेण पसिद्धउ विस्सभूइ। घत्ता-पिय बंभणि तासु गुणतरुधरणि अणुंधरि। पइबय पइभत्त पइरइरसिय जुयंधरि ॥5॥ कोस 10 घत्ता-शत्रुसमूह के लिए यम के समान तथा परस्त्रियों के लिए दुर्लभ तथा लक्ष्मी का सखा अरविन्द नाम का राजा था। जिसके दान से दरिद्र लोग लम्बी साँसें नहीं लेते, किन्तु जिसके भय से शत्रु लम्बी साँसें लेते हैं, फल खाते हैं और जंगल में निवास करते हैं, मयूर पंख और वृक्षों के पत्ते पहिनते हैं, जिसके पुण्य से धरती पके हुए धान्यवाली है; लगाम से दौड़नेवाले जिसके अश्व चमड़े के चाबुक से आहत नहीं होते; जिसने अपने भृत्यजन की सदैव आशा पूरी की है, जिससे विषमुख विषधर डरते हैं; जहाँ पातालयास तमसमूह के समान काला है; अमृतकण का भोजन करनेवाले जिससे युद्ध में आशंका करते हैं; बन्दी बनाकर छोड़े गये माण्डलिक राजा जिसके लिए कुत्तों के समान हैं। जिसके लम्बे हाथों में लक्ष्मी निवास करती है; जिसने दण्ड से दोषों का शमन कर दिया है, जिसने लक्ष्मी के लिए दूसरे के पास जाने के लिए कोशपान दे दिया है (क्षमा कर दिया है); जिसने न्याय के द्वारा अर्जित द्रव्य से अपना कोश भरा है, उसकी विभूति को माननेवाला विश्वभूति नाम का प्रसिद्ध ब्राह्मण मन्त्री था। ____घत्ता-उसकी गुणरूपी वृक्ष की भूमि अनुन्धरा प्रिय ब्राह्मणी थी जो पतिव्रता, पतिभक्ता और पतिप्रेम की रसिका प्रधान पत्नी थी। (5) 1. A लिरिपिछई। 2. A कुसयारि रयवि। . P"कुसास। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 93.7.4] पहाकइपुष्फयंतविरयर महापुराणु [257 (6) तहि पढमपुत्तु णामेण कमदु' झववेयघोसु णं विउलु कमदु'। वंकगइ कुमइ ] भीमु सप्पु छिद्दण्णेसिउ उब्बूढदप्पु। बीयउ मरुभूइ महाणुभाउ णं सुरगुरु गुरुबुद्धीणिहाउ। अक्खरचंतउ' णं परममोक्खु सुरघरकुड्डु व चित्तेण चोक्खु । जेट्ठहु वरुणारुणकमलपाणि अणुयहु वि वसुंधरि सोक्खखाणि। जायउ दोहिं मि दो गेहिणीउ णं कामरसायणवाहिणीउ । कालें जंतें रइरत्तएण दुस्सीलें पेम्मुम्मत्तएण'। मत्तेण व करिणा विंझकरिणि अवलोइय लहुमायरहु घरिणि। कमरेण सढेण' गणिवि सुहिणि बहुदुक्खजोणि" ण णरयकुहिणि। घत्ता--ढोयवि तंबोलु णहमणिकिरणहिं फुरियउ । करपल्लवु ताहि तेण हसतें धरियउ ||6|| 10 आलग्गउ खणि खणि णिरु पयंडु दरिसाविय कामें' रायकेलि तह मणु झिंद व परिघुलिउ ताम सो कीलइ रीणउ केव जियइ चलु कुसुमबाणचोवाणदंडु। लंधिवि ऊरूजुयवाहियालि । उत्तंगपीणथणलाणि जाम। णं बिंबाहररसपाणु पियइ। उसका प्रथम पुत्र कमठ नाम का था, मानो वेदों का घोष करनेवाला बड़ा भारी ब्राह्मणमठ हो। कुबुद्धि और वक्रगतिवाला जो मानो सौंप हो, छिन्द्रान्वेषी और दर्प धारण करनेवाला । दूसरा पुत्र था-मरुभूति महानुभाव, जो मानो विशाल बुद्धि का खजानेवाला बृहस्पति हो, जो मानो अक्खरवंत (अक्षरों, सिद्धों से युक्त) मोक्ष था, देवगृह की भित्ति की तरह जो चित्त (चित्र, चित) से उत्तम (चोक्खु) था। बड़े की पत्नी रक्तकमल के हाथोंवाली वरुणा थी और छोटे की पत्नी सुख की खान वसुन्धरा थी। इस प्रकार दोनों की दो पलियाँ थीं जो मानो कामरूपी रसायन की नदियौं थीं। समय बीतने पर रति में रक्त एवं दुःशील तथा प्रेम से उन्मत्त उसने, जिस प्रकार मत्त गज विन्ध्याचल की हथिनी को देखता है, अपने छोटे भाई की पत्नी को देखा। धूर्त कमट ने उसे सुहृदया समझा, जबकि वह अनेक दुःखों की योनि नरक की गली थी। क्षण-क्षण अत्यन्त उत्तेजित होता हुआ वह चंचल कामदेव के चौगान का चंचल प्रचण्ड दण्ड उससे आ लगा। काम के द्वारा वह राजक्रीड़ा दिखाता है। दोनों उरुरूपी मैदान को लाँधकर उसका मन गेंद के समान वहाँ तक पहुँचता है, जहाँ तक ऊँचे और पीनस्तनों की मर्यादा थी। वह क्रीड़ा करता है। श्रान्त आदमी (6) I. A कमढः ' कमछु । 2. P कमठु । 3. A सुरगुरु बुद्धीए जसणिहाउP सुरवरगुरु बुद्धीणिहाउ । 4. A अक्खरपत्तउ।5. A असुरघरकुटोंय: P सुरघरकुल ali.A कामसरायणमोचणीउ । 7.A पेमुपमत्तएण | 8. किमटेण मठेण । 9. A संढेण। 10. बहुदुयखणिरंतर गरयकुहिणि। II.AP विष्फरिय। (7)1,A कालें। 2. AP मणझेंदुओ। 8.4 घरपलिउ। 4. Apणिलाणि। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 ] पाणकइपुष्फयंतविरयर महापुराणु [93.7.5 10 वीसमइ णियंबत्थलि णिसण्णु दरमम्मणमणियह देइ कण्णु। कंठग्गहकेसग्गहणिरुद्ध कहिं जियइ पाउ पावेण खद्ध। मरुभूएं महभूपांड सई दिवाउ" सुरयगइंदि चडिउ। विषणविउ गरिंदहु भायरेण जिह लइवउँ कलत्तु सहोयरेण। राएं पंसिव बइरावहारि किंकर करालकरवालधारि । निग्गुणु णिग्घिणु परिगलियमाणु सो परवहुए सहुं कीलमाणु। ___ घत्ता-मंदिरु जाएवि णिब्भररमणरसंतरियउ' | __जमदूयसमेहिं "पक्कलपाइक्कहिं धरियउ ॥7॥ (8) आणेप्पिणु' दाविर पत्थिवासु तें णिदिउ खल तुहं मंति कासु। छुरयम्में मुंडिउं सीसु तासु गहिमाणु व फेडिउ केसवासु । कउ बिल्लबंधु' सिरि सहइ मुक्खु णं दीसइ फलियउ पावरुक्खु । आरोहिउ गद्दहि खुद्दभाउ पुरि भामिउ णं णारयहु' राउ। कैसे जीवित रहता है : मानो वह बिम्बाधरों का रसपान करता है। उसके नितम्बस्थलों पर बैठकर विश्राम करता है। थोड़ी-थोड़ी काम की उक्तियों पर ध्यान देता है। कण्ठग्रह और केशग्रह से वह विरुद्ध हो गया। पाप से खाया हुआ पापी कहाँ तक जीवित रहता है ? कामदेवरूपी भूत से प्रवंचित तथा सुर-गजेन्द्र पर आरूढ़ उसे स्वयं मरुभूति ने देख लिया। भाई ने जाकर राजा से निवेदन किया कि किस प्रकार सगे भाई ने उसकी स्त्री को ले लिया। राजा ने शत्रुता का अपहरण करनेवाले भयंकर तलवार धारण करनेवाले अनुचर भेजे। निर्गुण, निर्दय, स्खलितमान तथा दूसरे की वधू के साथ क्रीड़ा करते हुए, पत्ता-घर में जाकर, परिपूर्ण रमण रस में डूबे हुए, यमदूत के समान प्रगल्भ अनुचरों ने उसे पकड़ लिया। (8) उसे लाकर राजा को दिखाया गया। उसने उसकी निन्दा की कि तुम किसके मन्त्री हो ? छुराकर्म से उसका सिर मुंडवा दिया गया। अभिमान के समान उसका केशपाश काट दिया गया। सिर पर विल्वबन्ध कर दिया गया। वह मूर्ख ऐसा दिखाई देता है, मानो पापरूपी वृक्ष फलित हो गया हो। क्षुद्रभाव उसे गधे पर बैठाया गया, मानो नरक के राजा को नगर में धुमाया गया हो। उसका गायक कौन ? उसके माथे पर 5. APadd aler this the following four lines : विरुअर देक्खेवि आयरणु तासु, वरुणाइ कहिउ णियदेवरासु । तउ मायरु तुह परिणीइ रत्तु, पत्तिज्जइ मह फुट बचणु बुलु। णिसुणेवि देवरु सच्चसंधु (A सच्चबंधु), कि एहज जं आपरइ (A एहउ किं आयरइ) बंधु। महिलाउ सुछ यिरएति एउ, बंधुहि मि परोप्यरु करहि भेउ (A हिउ भेउ)। 6. A दिट्टा देबिहे देहचडिउ; P दिउ सुरयगई चडिउ । 7.AP सइ । B. A कटोरकरवालधारि, करवालकरालधारि। 9. P परबहुपए। 10. AP संसरिज । HA फलपाइकेहि पक्खलपायकटिं। 12. AP परिउ। (8) 1. A आणेविणु। 2. A बेलुबंधु: । विल्लिबंधु। 3.AP णारयह। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 93.9.10] महाकइपुष्फयंतविश्वर महापुराण । 259 को गायउ तहु किर ढक्कराउ' मत्थइ पडियउ जणटक्कराई। पड़हें चज्जते विगयधम्म णीसारिवि घल्तिउ पावयम्मु । घत्ता-णासइ कुलु सीलु परमधम्मु जसकित्तणु । इज्झउ परयारु दुग्गइगमणपवत्तणु ॥8॥ उब्बेइउ गर काणणहु जारु तं दिठ्ठ तेण साहारसारु। गिरिकंदरि' णिज्झरसलिलहारु तं दिछ तेण णवतिलयचारु। तं दिछु तेण सरकमलबयणु लीलालोइर. मिगणयणणयणु। तं दिछु तेण मुयवत्तचेलु धरणीहरकडयावलिकरालु। तं दिछु तेण मघुसिणगिल्लु करिकुंभत्थलथणमणहरिल्लु। तं दिछु लेण थियरसविसेसु सोहिल्लमोरपिंछोहकेसु। तं दि? तेण महिधाउरत्तु तं दिठ्ठ तेण णं परकलत्तु । तहिं तावसकुलु' हरचरणभत्तु । दिउ दूसहतवतावतत्तु । धत्ता-वज्जरियसडंगु चविहवेयवियारणु। रुईकुसचिंधु वारियवम्महवारणु ॥9॥ 10 टंकार करनेवाला कौन : बजते हुए नगाड़े के साथ धर्महीन और पापकर्मा उसे निकालकर बाहर किया गया। धत्ता-परस्त्री कुल, शील, परमधर्म और यशकीर्तन का नाश करती है। दुर्गति के गमन में प्रवर्तन करानेवाली परस्त्री में आग लगे। वह जार (कमठ) उद्विग्न होकर कानन में चला गया। वहाँ उसने उत्तम आम्रवृक्ष को स्त्री के रूप में देखा। पहाड़ की गुफा से झरती हुई जलधारा को उसने सुन्दर नवतिलक के रूप में देखा। उसने सरोवर के कमलरूपी मुख को इस प्रकार देखा, जैसे लीला से हिलते हुए मृगनयनी के नेत्र हों। पहाड़ की कटकावलि (गिरिनितम्ब, कंकणों की पंक्ति) से भयंकर, भूर्जपत्ररूपी वस्त्र को देखा। उसने मधु और केशर से गीले, हाथी के कुम्भस्थल के समान मनोहर स्तन को देखा। उसने शोभायुक्त मदूर के पुच्छभार को स्त्री के रसविशेष (शृंगारादि रस) के रूप में देखा। उसने धरती पर धातु की जो रक्तिमा देखी, मानो वह उसने परकलत्र को देखा। वहाँ पर शिवचरणों का भक्त दुःसह तप-ताप से सन्तप्त एक तापस-कुल उसे दिखाई दिया। यत्ता-छहों अंगों को कहता हुआ, चारों वेदों का विचार करता हुआ, रुद्रांकुश के चिह्नवाला और कामदेव का निवारण करनेवाला। ( 10 ) 4. A टक्कराउ। 5. Pढराच । 6. A पावकम्मु। 7. A जगे किप्तणु। (9) 1. AP"कंदर'। 2. A"लोलिर; P"लोइय । 3. A धारउत्तु । 4. A वासवकुलहर':P तायसकुल हर। 3. A धममहं वारणु। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2600 माहाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु [93.10.1 (10) अण्णस्थ अहोमुहपीयधूम अण्णत्थ होमधूमोहसामु। अण्णात्य णिहियकुसपूलणीलु अण्णत्थ सुपोसियबालपीलु । अण्णस्थ वलियमेहलगुणाल अण्णत्य गुत्थवक्कलविसालु। अण्णत्व पभक्खियतोयवाउ अण्णस्थ सहियपंचग्गिताउ। अण्णत्थ परिट्ठियएक्कपाउ अण्णत्थुववासहिं खीणकाउ। अण्णत्य पुसियपालियकुरंगु अण्णत्थ चिपणचंदायणुग्गु। अण्णात्य तवइ कपउद्धहत्यु अण्णस्य सतिघोसणसमत्धु । अण्णत्थालाविणिसद्दमंजु अण्णस्थ पजियछारपुंजु। अण्णत्थ पत्तसंचयसमेउ अण्णत्व गीयगंधारगेउ। अण्णस्य विचिंतियरुद्दजाउ गायंति जांच संणिहियभाउ। अण्णस्य धूलियउद्धूलिएण करि मणिमयवलए चालिएण। अण्णत्व पहंतु चंदतु संझ सोहइ भरंतु मंत वि दुसज्झ। पत्ता-तहिं तावसणाहु दिउ तेण दुरासें। पणमिउ सीसेण मुक्कदीहणीसासें ॥10॥ किसी दूसरी जगह, कोई अधोमुख होकर धुआँ पी रहा था। एक और जगह कोई होम के धूम-समूह से श्यामवर्ण हो रहा था। एक और जगह, कोई रखे हुए दर्भ के पूलों से नीला था। एक और जगह किसी ने हाथी के बच्चे को पाल रखा था। एक और जगह, किसी ने मेखला और योगपट्ट बाँध रखा था। एक और जगह किसी ने विशाल वल्कल पहिन रखा था। एक और जगह पानी और हवा खानेवाला एक जगह पंचाग्नि तप सहनेवाला, एक और जगह एक पैर से स्थित रहनेवाला, एक और जगह उपवासों से क्षीणशरीर, एक और जगह पालित हरिण को खिलाता हुआ, एक और जगह उग्र चान्द्रायण तप करनेवाला, एक और जगह कोई ऊँचा हाथ करके तप करनेवाला, एक और जगह शान्ति की घोषणा करने में समर्थ, एक और जगह वीणा के आलाप शब्द से सुन्दर, एक और जगह भस्मसमूह का प्रयोग करनेवाला, एक और जगह पत्रों के समूह का संचय करनेवाला था। एक और जगह गान्धार गीत गानेवाला, एक और जगह रुद्रजप का विचार करते हुए सन्निहित भाव से गाते हुए, एक और जगह हाथ में धूल से धूसरित चलते हुए मणिमय वलय से तथा एक और जगह स्नान करते और सन्ध्या-वन्दना करते हुए और असाध्यमन्त्र का ध्यान करते हुए शोभित था। घत्ता-खोटी आशा से उसने तापसनाथ को देखा और लम्बी साँस खींचते हुए सिर से प्रणाम किया। (10)1.A होममुह । 2. AP'चंदायगंगु 12.A वयवकल' | 3. AP'घोसणपसत्यु । 4. AP"लानणि 15.A करमणिययबलसंचालिएण: करमपिरमययतए चालिारण: Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 93.11.14] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु | 261 सिवमत्यु' भणिवि सिवतावसेण ता सो परिपुच्छिउ तावसेण। दीसहि बहुपुण्णाहिउ महंतु भणु भणु किं आयउ णीससंतु। भणु भणु किं दुक्खें दुत्थिओ सि तुह केण हओ सि गलत्थिओ सि। दप्पिछ दुठ्ठ खलु पावरासि तं णिसुणियि भासइ अलियभासि। पोयणपुरवरि अरविंदु राउ हउँ तासु मति ववगयविसाउ। खुड़े दाइज्ड भायरेण मरुभूएं गुरुवइरायणेण। महं सिरि ण' सहतें करिवि रोसु अलियर्ड जि देवि' परयारदोसु। णीसारहु मारहु एहु' वज्झु रोसाविउ लाविउ राउ मज्झु । राएण वि तेण वि पेरिएण हर्ड किंकरलोएं वडरिएण। धम्मिल्लि धरिवि अच्छोडिओ मि करमाटेहिं लट्ठिहिं ताडिओ' मि। विडमाहिर धाडिर पट्टणार अमा व वरभमरु व सुरवणाउ ! एवहिं लग्गउ परलोयसिक्ख दे देहि भडारा सइवदिक्ख । घत्ता-चप्पिवि जडभारु हरतवलच्छिइ मंडिउ" । सो गुरुणा सीसु भूईरयभुरुकुंडिउ'' |11॥ 10 'कल्याण हो' (शिवमस्तु) कहकर, शिवतापस तपस्वी ने उससे पूछा-“तुम अत्यधिक पुण्य से महान् दिखाई देते हो ! बताओ, बताओ, लम्बी साँस लेते हुए क्यों आये ? बताओ, बताओ, तुम किस दुःख से दुःखी हो ? तुम्हें किसी ने मारा या किसी ने निकाल दिया ? दर्पिष्ठ, दुष्ट, खल, पापराशि और झूठ बोलनेवाला वह कहता है-पोदनपुर में राजा अरविन्द है। मैं विषाद को प्राप्त उसका मन्त्री हूँ। क्षुद्र सौतेले भाई मरुभूति ने, मेरी लक्ष्मी सहन न कर सकने के कारण, क्रोध कर और झूठा परदार-दोष लगाकर, 'यह वध्य है, इसे निकालो, मारो', इस प्रकार मेरे विरुद्ध राजा को क्रोध दिलाकर मुझे निकलवा दिया। उस सजा के द्वारा प्रेरित अनुचर समूह बैरी के द्वारा चोटी पकड़कर घसाटा गया, हाथ को मुट्टियों और लाठियों से प्रताड़ित किया गया और घुमाकर नगर से निकाल दिया गया, जैसे अमर या श्रेष्ठ भ्रमर को नन्दनवन से निकाल दिया जाये। अब मैं परलोक-शिक्षा में लग गया हूँ। हे आदरणीय ! मुझे शैव दीक्षा दीजिए। __घत्ता-जटाभार बाँधकर, उसे शिव की तपलक्ष्मी से मण्डिन कर दिया गया। वह शिष्य गुरु के द्वारा भूतिरज से अलंकृत कर दिया गया। (1) I.AP सिबसयु। 2. A गहसंगें" असहनें। 5. A देव14. A एउ व एहु विवश्बु । 5. A रायज्यु (1); P रायपक्छु । 6. A अत्योडिओ सि। . A ताजिओ मि। B.AB सुवरणात। 9. A सेयदिक्त। 10. AP मॉडेयर । II. ABP मूईरयतुर कांडघट। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2621 [93.12.1 पहाइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु (12) जिह सिरि सजडु तिह हियइ जडु। जिह सरइ हरु तिह विरइहरु। जिह संभरइ तिह संभरइ। जिह गत्तरयं तिह चित्तरयं। णिच्च धरइ पावंधरई। जिह कोवणिओ तिह को वणिओ। कड्डई छुरियं जुइविच्छुरिय। धियमेहलओ सुसमेहलओ। सो तावसओ दुक्कियवसओ। जा तहिं वसइ वक्कल' वसइ। पत्तं असई बुद्धी असद्द। बुढ़ेिं विगया बहुभावगया। वसुमाणमया किं हा समया। काणणवसही' जइ पत्थि सही। करुणा परमा ता किं परमा। लभइ जइणा एवं जइणा। भासंति वह जगसंतिवह। . 15 (12) जिस प्रकार उसका सिर सजड (जटायुक्त) था, उसी प्रकार वह हृदय में भी जड़ था। जिस प्रकार वह शिव को याद करता है, उसी प्रकार विशिष्ट रतिगृह को याद करता है। जिस प्रकार उसकी शम्भु में रति थी, उसी प्रकार स्वयं में रति थी। जिस प्रकार शरीर में धूल थी, उसी प्रकार उसके चित्त में भी धूल थी। पापान्ध वह पापरूपी धूल नित्य धारण करता है। जिस प्रकार कौपीन धारण करता है, उसी प्रकार वह कोपनशील भी है। द्युति से चमकती हुई छुरी निकालता है। योगपट्ट को धारण करता है। जिसकी इच्छा का विनाश हो गया है, वह तपस्वी पापों के वशीभूत था। वह वहाँ रहता है और वल्कल धारण करता है, पत्ते खाता है। उसकी बुद्धि असती है। वृद्धि को प्राप्त और नाना चित्त परिणामों से युक्त है। धन और मानवाली है, पशु सहित है, और वन में निवास करनेवाली है, लेकिन यदि उसकी सखी में परम करुणा नहीं है, तो यति के द्वारा, क्या परम लक्ष्मी पायी जा सकती है ? इस प्रकार जैन जग में शान्ति स्थापित करनेवाले पथ का कथन करते हैं। (12) 1.A सज्जडु। 2. A संचरइ। 3. A पावे घरइ । 4. A या। 5. P पहयिछुरियं । 6. A वर्क। 7.A को ण यणमही। 8. Aomits जगतिवह। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 93.13.13] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु घत्ता - तावेत्तहि तेण कंचणणिम्मियगोउरि । मरुभूएं राउ परिपुच्छिउ पोयणपुरि ॥12॥ ( 13 ) सो' भाइ णिसुणहि देवदेव खलमहिलहि कारणि णिग्विणेण भायरु गरुयारउ पिउसमाणु तं गंपि खमावमि करमि खंति ता चवइ णाहु भो सच्छभाव' किं पिसुणयणेण खमाचिएण इय वारिज्जंतु वि अणकहंतु ' ससहोयरु दिउ तव करंतु तुहुं खमहि खमहि बंधव भणंंतु हउ मत्थइ बिउलसिलायलेण पाविज्जइ" लच्छि अलच्छि जेण रायाहिरा कयमणुयसेव । मई हविहीणें दुज्जणेण । णीसारिउ गउ वणु भग्गमाणु' । खतिइ चंडाल वि देव होंति । किं भणिउं बप्प परं गलियगाव । किं किर विसेण 'गुडभाविएण । गउ सो" तं काणणु गुणगणमहंतु । पंचग्गिताव दूसह सहंतु । पायें " पायहं उप्पर पड़ंतु । गउ जीउ ण को मारिउ खलेण 1 दइवें णिज्जइ " णिरु तेत्थु तेण । घता - उवयइरि मुवि भापब्भारविणासहु । जाणंतु वि जाइ रवि अत्थवणपएसहु " || 13 || [263 5 10 पत्ता - तभी यहाँ, स्वर्णनिर्मित गोपुरवाले पोदनपुर नगर में मरुभूति ने राजा से पूछा । ( 13 ) वह कहता है - "हे देवदेव ! मनुष्यों की सेवा करनेवाले राजाधिराज सुनिए। दुष्ट महिला के कारण, स्नेहहीन मुझ दुर्जन और निर्दय ने पिता के समान अपने बड़े भाई को निकलवा दिया। अपमानित होकर वह बन चला गया। मैं उसके पास जाकर क्षमा माँगूँगा । क्षमा से चाण्डाल भी देव होते हैं।" तब राजा कहता है- "हे स्वच्छभाव और गलितगर्व ! तुम क्या कहते हो ? दुष्ट आदमी से क्षमा माँगने से क्या ? गुड़ से मिले हुए विष से क्या ?" इस प्रकार मना करने पर भी, बिना कहे हुए ही गुणगण से महान् वह उस जंगल में गया। उसने अपने भाई को दुःसह पंचाग्नि तप करते हुए देखा। "हे भाई ! तुम मुझे क्षमा करो, क्षमा करो" यह कहते हुए, और पैरों पर पड़ते हुए उसे पापी ने एक बड़े शिलातल से सिर में आहत कर दिया। जीव चला गया। दुष्ट के द्वारा कौन नहीं मारा जाता ? जिस होनहार से लक्ष्मी और अलक्ष्मी पाई जाती हैं, मनुष्य दैव से उसके द्वारा ले जाया जाता है। घत्ता - सूर्य उदयगिरि को छोड़कर प्रकाशसमूह का नाश करनेवाले अस्तप्रदेश को जानते हुए भी वहाँ जाता है । ( 13 ) 1 A ता. 2 AP हूिणें 9. A विग्गमाणु। 4 A चत्तभाव 5AP किं तें पिसुषेण खमाविएण 6. AP गुल' 2 P अणुकहंतु । 8 A तं सो गुणमतुः सतं काणणु गुणमहंतु । 3. A खमहि मज्नु बंधव भणंतु। 10. A भायें। 11. AP add after this the following three lines : लोलाइ महिर्यालि महिरावलित. पुणे पुणु पहणइ सो कुद्धचित्तु । दय णत्थि अजहणाहं तावसाहं, सकसायहं जडकंतायसाहं । बंधु वि वहाँते पार्थधबुद्धि कह होइ ताहं परलोयसुद्धि । 12. P reads or as h and has a. 19. A गरु णिज्जइ । निरु णिज्जइ । 14. P अत्यइरिपएसहो । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 ] महाकइपुप्फयतविरवड महापुराणु [93.14.1 अल्लल्लपहुल्लियवेल्लिजालि' तणजाललग्गदावग्गिजालि। महिरुहछाइयदिच्चक्कवालि सूयरहयवणयरचक्कवालि। गिरिसिहरकुहरकक्करकरालि पविमलमाणिक्कसिलाकरालि । पविउलखुज्जयमलयंतरालि सल्लइवणि तुंगतमालतालि। मरुभूइ मरिवि कयझाणदोसु हुउ कुंजरु णामें वज्जघोसु । जा का नामें कात्यक्षिणे साहूई सहि हु इट्टकरिणि । करु करहु देइ सरु सरह घिवइ' हत्थेण कुक्खिकक्खंतु छिचइ । संघट्टइ अंगें अंगु तेव मयगलहु पवनइ पेम्मु जेव। घत्ता-वड्डियणेहाइं मयणणिमीलियणेत्तई। बिपिण वि कीलति मेहुणकील' करतई ॥14॥ ( 15 ) घणज्जियसह णहु णियंतु गिरिवरभित्तिउ दंतहिं हणतु । पवलबल चवल पडिगय खलंतु सरवरि तरंतु कमलई दलंतु । घल्लंतु देहि दवपंकपंसु उड्डावियतीरिणितीरहंसु। (14) जिसमें गीले-गीले और पुष्पित लता-जाल हैं, तृणसमूह में दावाग्नि लगी हुई है, जिसका दिग्मण्डल वृक्षों से आच्छादित है, जिसमें वन्यप्राणियों का समूह सुअरों से आहत है, जो गिरि-शिखरों और गुफाओं से कठोर और भयंकर है, स्वच्छ माणिक्य की किरणों से जो युक्त है, जो विशाल ऊबड़-खाबड़ प्रदेश वाला है, और जिसमें ऊँचे-ऊँचे तमाल और ताल वृक्ष हैं, ऐसे सल्लकीवन में, मरुभूति आर्तध्यान से मरकर वज्रघोष नाम का हाथी हुआ। और जो वरुणा नाम की कमठ की पत्नी थी, वह मरकर उसकी इष्ट करनेवाली हधिनी हुई। वह सूंड में सूंड देती है, सरोवर से पानी डालती है। सूंड से कुक्षीकक्ष के अन्त को छूती है और शरीर को शरीर से इस प्रकार रगड़ती है, जिससे उस मैगल हाथी में प्रेम उत्पन्न हो जाये। घत्ता-बढ़ रहा है स्नेह जिनमें, ऐसे वे दोनों काम-भाव से अपनी आँखें बन्द किये हुए रतिक्रीड़ा करते हैं। (15) मेघों के गर्जन शब्द से वह गज आकाश को देखता हुआ, गिरिवर की दीवारों का दाँतों से भेदन करता हुआ, प्रबल बलवाले प्रतिगजों को स्खलित करता हुआ, सरोवर में तैरता हुआ, कमलों को दलता हुआ, जल, कीचड़ और धूल को शरीर पर डालता हुआ, नदियों में किनारों के हंसों को उड़ाता हुआ, तोड़-मरोड़कर (14) 1. A अण्णण | 2. AP पविउल 1 3. AP कमठ । 4. A दे।। 5. A कुक्खिकरकरु । 6. P पवष्टा । 7. AP मेहुणकीलाइ रक्तई। (15) 1. AP दहपंकु । 2. A सुरकरिहे बेतु। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 93.15.10] [ 265 महाकइपुप्फयंतबिरयउ महापुराणु उल्लूरिवि किसलयकवलु लेंतु पियगणिवारिहिं भिसु करिहिं देंतु। अणवरयगलियकरड़यलदाणु काणणि णाणादुम भंजमाणु। हिमागीमनारसीयर मुगंटु . पं अद्विगन्धाराहरु सरंतु। दददंतमुसलखयखोणिभाउ कंपवियविवरु *रूसवियणाउ। गुमुगुमुगुमंतभमियालिबिंदु णं जंगमु अंजणमहिहरिंदु। पत्ता-रणभरहु समत्थु दसणदित्तिधवलास। सो विझगइंदु पुप्फयंतसंकासउ ॥15॥ 10 इप महापुराणे तिसद्विमहापुरिसगुणालंकारे महाभव्यभरहाणुमण्णिए महाकइपुष्फयंतविरइए महाकब्बे मरुभूइकरिंदजम्माषयारो __णाम तिणबदिमो परिच्छेउ समत्तो ॥9॥ किसलयों के कौर खाता हुआ, प्रिय हथिनियों को कमलिनी-कन्द देता हुआ, गण्डस्थल से अनवरत मदजल गिराता हुआ, वन में नाना वृक्षों को नष्ट करता हुआ, चन्द्रमा के समान शीतलजल कण छोड़ता हुआ मानो अभिनव जल-धारा बरसाता हुआ, अपने दृढ़ दाँतोंरूपी मूसल से धरती को खोदता हुआ, पक्षिवरों को कँपाता हुआ, और साँप को क्रुद्ध करता हुआ, जिसके चारों ओर गुनगुन करते हुए भ्रमर घूम रहे हैं, वह गज ऐसा लगता था, मानो चलता-फिरता अंजनपर्वत हो। ____घत्ता-रणभार में समर्थ, दाँतों की टीप्ति से आशाओं (दिशाओं) को धवलित करनेवाला वह विन्ध्यगज दिग्गज के समान था। वेसट महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त इस महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित तथा महाभष्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य में मरुभूति का करीन्द्र-जम्मावतार नाम का तेरानबेचौं परिच्छेद समाप्त हुआ। 3. रूसपिङ गाउ; P तूसवियगाल । 1. AP तिणउदिमो। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 | महाकइपुष्फयंतावरकर महापुराणु [94.1.1 चउणउदिमो संधि मयमत्तउ मारणसीलु चतु मारइ जं जं पेच्छइ। सहुं वरुणाकरिणिपरत्तमणु' सो करिंदु तहिं अच्छइ ॥ ध्रुवकं ।। जा "तावेत्तहि पोयणपुरवरि तेणरविंदरिंदें णियपरि। अच्छतेण दिटु सियजलहरु तुंगसिहरु सोहइ णं जिणहरु । एणायारे णयणाणंदिरु किज्जइ जयवइपडिमहं' मंदिरु। एव भणेप्पिणु कागणि लेप्पिणु जा किर लिहइ राउ विहसेप्पिणु। ता तहिं तं सरूउ खणि गट्ठ अण्णु जि काई वि पहुणा दिट्ठउँ। अद्भुवु धुवु ण किं पि संसारइ कि कीरइ किर भई रामारई। एव विचिंतिवि तणु व वियप्पिवि महिमंडलु णियसुयह समप्पिवि। णरवइ विरइयदुक्कियसंवरु जायउ तक्खणि देउ दियंबरु । ___घत्ता-संमेयहु जंतु सो संपत्तउ भीसणु। अण्णेक्कु समत्थु सत्थवाहु सल्लइवणु in 10 चौरानवेवी सन्धि मतवाला, मारणशील और चंचल वह गज जिस-जिसको देखता उसे मारता। वरुणा हथिनी में अत्यन्त अनुरक्त-मन वह करीन्द्र वहीं रहने लगा। इसी बीच यहाँ पोदनपुर नगर में, अपने घर में रहते हुए उस अरविन्द राजा ने एक श्वेत मेघ देखा जो मानो ऊँचे शिखरवाले मन्दिर के समान शोभित था। इसी आकार का, नेत्रों के लिए आनन्ददायक जगत्पति जिनदेव की प्रतिमाओं का मन्दिर बनाया जाए, यह विचार कर जैसे ही वह राजा हाथ में कागज लेकर, हँसते ह खता (चित्रित करता है वैसे ही उस मेघ का स्वरूप तत्काल नष्ट हो गया। राजा ने दूसरा ही कोई रूप देखा। 'संसार में सब-कुछ अनित्य है, नित्य कुछ भी नहीं है, फिर मैं स्त्रीरति में बुद्धि क्यों करता हूँ ?' यह विचार कर और महीमण्डल को तृण के समान समझकर उसे अपने पुत्र को सौंपकर, राजा पापों का संवरण कर उसी क्षण दिगम्बर मुनि हो गया। घत्ता-सम्मेदशिखर जाते हुए, यह और उसके साथ ही एक समर्थ सार्थवाह सल्लकीवन में पहुंचे। (i) 1. A कारगियरत्त । 2. A ता एत्तहे। 3. A त्रिणवर। 1. AP जइबइ। 5. A तहो । . A पवियांपनि। 7. सुमत्यु। 8. A सत्यवादि । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94.2.13] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु 1267 (2) छुड़ छुडु उन्मियाइं वणि दूसइं हरियई पीयई चिंधविहूसइं। छुडु छुडु दीहरपंथें भग्गा हय गय वसह चरेव्यइ लग्गा। छुडु करहावलि चरहुं विमुक्किय छुडु खयचुल्लिहिं सिहि संधुक्किय। छुडु गारसभूम गति हिउ कुछ जो सा जोर परिट्टिउ। ता करडयलगलियबहुमयजलु मयजललुलियचलियमहुयरउलु । तेण गइर्दै मारणसीलें कलिकयंतकालाणलणीलें । हरि वंकमुह दिसाबलि दिण्णउ खरु 'खरबुक्किरु दंतहिं भिण्णउ । करहु उद्धमुहु फाडिवि छंडिउ मुक्कु बलदु झ त्ति पविहंडिउ । णासमाण बहुमाणव मारिवि एव सत्थु सयलु वि संघारिवि। दिवउ विरइयधम्मणिओएं रिसि सठिउ आयावणजोएं। धायउ "जूरियकरकयंतहिं जा वच्छत्थलु पेल्लइ दौतेहिं। घत्ता ता दिट्टउ तेण तह उरयलि सिरिलछणु । सुयरिवि चिरजम्मु "पयहिं पडिउ उवसममणु ॥2॥ शीघ्रातिशीघ्र वन में हरे-पीले और चिह्नों से विभूषित तम्बू उठा दिये गये। शीघ्र ही लम्बे रास्ते के कारण थके हुए घोड़े, हाथी और बैल चरने लगे। शीघ्र ही ऊँटों का समूह चरने के लिए भेज दिया गया। शीघ्र ही खोदे गये चूल्हों में आगी चेता दी गयी। शीघ्र ही वन में लोक (लोग, जनता) धूम-सहित उठ गये। शीघ्र ही योगीश्वर योग में स्थित हो गये। इतने में, जिसके गण्डस्थल से बहुत अधिक मदजल गिर रहा है, जिसके मदजल के कारण भ्रमरकुल आन्दोलित और चंचल है, ऐसे प्रलयाग्नि के समान श्याम उस हिंसक गज ने वक्रमुख घोड़े की दिशाबलि दे दी। कठोर बोलनेवाले गधे को दाँतों से फाड़ डाला। ऊँचे मुखवाले ऊँट को फाड़कर छोड़ दिया। बैल को प्रखण्डित कर शीघ्र छोड़ दिया। भागते हुए बहुत-से लोगों को मारकर तथा समूचे सार्थवाह का संहार कर, उसने धर्म-नियोग विहित आतापनयोग में स्थित मुनि को देखा। वह हाथी दौड़ा 1 क्रूर यम को भी पीड़ित करनेवाले अपने दाँतों से जब तक वह उनके वक्षःस्थल को धक्का घत्ता-उसने उनके उरतल पर श्री का चिह्न देखा। अपने पूर्वजन्म की याद कर वह उपशान्त होकर मुनि के पैरों में पड़ गया। (2) 1. A जाणवमधूम P जणरओ सधूम। 2. उद्विय 1 3. A कालाणलकीलें। 4. AP खरभुकिरु। 5. AP हिउ। 6. AP चिउ। 7. AP "वमविनोएं। ४. चूरिष" | 9. AP सिरिमंहगुर। 10.A पाएटिं। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 ] महाकइपुप्फयंतविरया महापुराण [94.3.1 मुणिणा धम्मबुद्धि पभणतें संभासिउ गउ महरु चवतें। पई पावहु वि पाबु णउ' संकिउ । भो मरुभूइ काई किउ दुक्किउ । हिंसइ बप्प दुक्खु पाविज्जइ चिरु संसारसमुद्दि ममिज्जइ । हिंसइ होइ कुरूल दुगंधउ कुंटु' मंटु पंगुलु बहिरंधउ। हिंसइ होइ जीउ दुईसणु परहरवासिउ परपिंडासणु। भो भो गयवर हिंस पमेल्लहि । अप्पुणु अप्पउ परइ म घल्लहि । लइ सावयवयाई परमत्थे पेक्खु पेक्खु दुक्कियसामत्थे। बंभणु होतउ जायउ कुंजरु . एत्थच्छहि गिरिगेरुयपिंजरु। जम्मंतरि तहं मंति महारउ एवहिं जायउ करि विवरेरउ । हउं अरविंदु किं ण परियाणहि करि जिणधम्मु म दुक्खई माणहि। पत्ता-तं णिसुणेवि' गइंदु दुच्चरियाई दुगुंछिवि। थिउ गुरुपय पणदेवि सावयवयई पडिच्छिवि ॥3॥ 10 गइ मुणिवरु जगपंकयणेसरु रण्णि चरइ वउ' रण्णगएसरु । मुनि ने 'धर्मबुद्धि हो' यह कहते हुए मधुर शब्दों में हाथी को सम्बोधित किया-“तुम पापी के पाप से भी शंकित नहीं हुए। हे मरुभूति ! तुमने पाप क्यों किया ? हे सुभट ! तुम हिंसा से दुःख पाओगे और चिरकाल तक संसाररूपी समुद्र में भ्रमण करोगे । हिंसा से व्यक्ति कुरूप और दुर्गन्धयुक्त होता है, कुण्ट (सुस्त, आलसी), निरुद्यमी, लँगड़ा, बहरा और अन्धा होता है। हिंसा से जीव दुदर्शनीय होता है, दूसरे के घर में रहनेवाला और दूसरे का भोजन करनेवाला। हे हे गजवर ! हिंसा छोड़ दो। अपने को अपने से नरक में मत डालो। परमार्थभाव से तुम श्रावकव्रतों को ग्रहण करो। देखो, देखो, पाप की सामर्थ्य से, तुम ब्राह्मण होकर भी हाथी हुए और पहाड़ के गेरु से लाल यहाँ स्थित हो। जन्मान्तर के तुम मेरे मन्त्री हो, इस समय हाथी होकर तुम मेरे विरुद्ध हो। मैं (राजा) अरविन्द हूँ, क्या तुम नहीं जानते ? तुम दुःख मत मनाओ, जिनधर्म धारण करो।" घता-यह सू यह सुनकर, गजेन्द्र दुश्चरित छोड़कर, गुरुचरणों में प्रणाम कर तथा श्रावक व्रत स्वीकार कर स्थित हो गया। विश्वरूपी कमल के सूर्य मुनिवर चले गये। वह जंगली हाथी जंगल में व्रतों का आचरण करता है। (3)1. A पक्ष्यारहो। 2. APण विसाकेउ | SA हिंसह जुअउ दुख दुग्गंधउ; P हिंसक होइ कूस वि दुगंघउ।। कुंटु मंटु। 5. A अप्पर । 6. A ओ अहि: । तुहुं अचाहि। 7. P तं सुणेवि । (4) 1. AP वयवंतु गाएतरु। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94.5.3] महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [ 269 अप्पर खमदमभावें रंजड़ अवरुल्लूरिउ पल्लवु भुंजइ। पियइ सलिलु परकरिसंखोहिउं ण हणइ हरिणु वि जंतउ रोहिउ। किमिपिपील' लहुजीव णियच्छइ परपयमलिए 'मग् गच्छइ। कम्भुब्भडु सयियारु ण जोयइ गणियारिहिं करु कहिं मि ण ढोयइ। अंगें अंगु' समाणु ण पेल्लइ पाणिउं पंकु सरीरि ण पल्लइ। अट्टरउद्दझाणु विणिवायइ . जिणचरणारविंदु णिज्झायइ। रत्तिदियह उब्भुन्भउ अच्छा दसणणाणचरित्तई इच्छइ। पोसहविहिसंखीणसरीरउ सहइ परीसह सुरगिरिधीरउ। दूसहतण्हातावें लइयउ एक्कदिवसु" सो गउ अणुवइयऊ। वेयवइ त्ति जाम सरि पत्तउ ता तहिं दुइमि कद्दमि खुत्तउ । धत्ता-मई धिवहि सरीरि हउं तुह णेहणिबद्धउ। इय चिंतिवि णाइ मयगलु पंके रुद्धउ |4|| (5) सो खलु तावसु मरिवि वरावउ तेत्यु जि फणिकुक्कुडु संजायउ। जहिं गयवरगइ तहिं जि पराइउ काले कालवासु णं ढोइउ । दिवउ तेण हस्थि सो केहउ बयभरधरणु महामुणि जेहउ। 10 स्वयं को क्षमा और संयम से रंजित करता है। पत्ते तोड़कर खाता है। सैंड से संशोधित (प्रासुक) पानी पीता है। जाते हुए रोहित हरिण को नहीं मारता। कृमि, चिंटी आदि जीवों को देखकर चलता है। दसरों के पैरों से मलिन मार्ग को देखकर चलता है। विचारपूर्वक वह उद्भट कर्म नहीं करता। हथिनियों पर अपनी सैंड कभी भी नहीं ले जाता। एक अंग से दूसरे अंग को नहीं खुजलाता। पानी और कीचड़ शरीर पर नहीं डालता। वह आतं, रौद्र ध्यानों का नाश कर देता है और जिनवर के चरणकमलों का ध्यान करता है। रात-दिन अपनी सूंड़ ऊपर किये रहता है। वह दर्शन, ज्ञान और चारित्र की इच्छा करता है। प्रोषधोपवास की विधि से क्षीणशरीर, सुमेरु पर्वत की तरह धीर वह परीषह सहन करता है। एक बार असह्य प्यास से संतप्त होकर वह अणुव्रती गज ज्योंहि बेतवा नदी के भीतर पहुंचा त्योंहि उस दुर्दम कीचड़ में फँस गया। पत्ता-'तुम मुझे शरीर पर डालते हो, मैं तुम्हारे स्नेह से बँधी हुई हूँ'-यह विचार कर ही मानो कीचड़ ने उस मदमाते हाथी को रोक लिया था। ___ वह बेचारा दुष्ट तापस (कमठ) मरकर वहीं पर कुक्कुड साँप हुआ। और जहाँ गजवर की गति थी, वह वहाँ पहुँचा मानो काल अपना कालपाश ले आया हो। उसने उस हाथी को इस प्रकार देखा जैसे व्रत अंगु समय। 2. AP उल्लूरिय पजउ । 3. AP हरिण ण जंतु यि रोहिर। 4. AP पिप्पीलि। .. " पंथें। 6. A पेमु भेदु।. A अंगुलसमवणु, 8. A जिणवरचरणा' । 9. AP सहियपरीसहु। 10. A "दिवसे सो गय पाइय3 दिवसे गपदक पावइयर। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 270 । पहाकइपुष्फयंतविस्यउ महापुराणु [94.5.4 पुव्यवइरसंबंधवियारहिं तिक्खणक्खखरचंचुपहारहि । तेण विहउ' करि बिलिउं सोणि णं गेरुयगिरिवरणइवाणिउँ । मुउ सुहझाणे सुरवरसारइ उप्पण्णउ सुकप्पि सहसारइ। अमरकोडिसेविउ' पवरामरु पविमलकडयमउडकुंडलधरु । सोलहजलहिपमाणचिराउसु माणिवि दिवणारिकीलारसु। जंवूदीवि' पवियलियतममलि पुवविदेहि विउलि खयरायलि। लोउत्तमु पुरु किं वर्णिणजइ सुरपुरेण जहिं हासउ दिज्जई। पत्ता-तहिं खयररिंदु इंदसमाणउ विज्जुगइ। ___ गेहिणि तडिमाल णाई अणंगहु मिलिय रइ ॥5॥ (6) एयहं बिहिं मि जणहे कीलतह लीलइ सुरयसोक्खु मुंजतह। चुउ सहसारदेउ सुउ जायउ रस्सिवेउ णामें विक्खायउ। सिरि अणुहुँजिवि कालें जंतें उप्पल पर जाणतें संतें। सूरि समाहिगुत्तु आसंघिउ । अइदुत्तरु भवसायरु घिउ'। वउ लइयां णिवसिरि परिसेसिवि थिज अप्पउं सीलेण विहूसिवि। के भार को धारण करनेवाला महामुनि हो ! लेकिन पूर्वजन्म के वैर सम्बन्ध के विकारोंवाले तीखे नखों और तीव्र चंचु-(दन्त-) प्रहार से उसने हाथी को काट खाया, उससे रक्त यह निकला। मानो गैरिक पर्वत की नदी का पानी हो। शुभध्यान से मरकर वह गज सुरवरश्रेष्ट सहस्रार स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। करोड़ों देवों से शोभित तथा कटक, मुकुट और कुण्डलों को धारण करनेवाला वह दिव्यांगनाओं के साथ क्रीड़ा-रस मानकर, सोलह सागर प्रमाण की चिर आयुवाला महान् देव हुआ। जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में, नष्ट हो गया है तम-मल जिसमें, ऐसे विशाल विद्याधर-लोक में त्रिलोकोत्तम नगर है। उसका क्या वर्णन किया जाय, सुर-पुर के द्वारा जिसका मनोरंजन किया जाता है ! . घत्ता-वहाँ इन्द्र के समान विद्युतगति नाम का विद्याधर राजा है। उसकी तडिन्माला नाम की गृहिणी है मानो कामदेव के लिए रति मिल गयी हो। क्रीड़ा करते और लीलापूर्वक सुरति सुख भोगते हुए, इन दोनों के, वह सहस्रार देव च्युत होकर पुत्र उत्पन्न हुआ, जो रश्मियेग के नाम से विख्यात था। समय बीतने पर, श्री का भोग करने के अनन्तर, स्व-पर को जानते हुए, उसने समाधिगुप्त मुनि की शरण ली और अत्यन्त दुस्तर संसार-समुद्र लाँघा। राज्यश्री को छोड़कर उसने व्रत ग्रहण कर लिया, और स्वयं को शील से विभूषित कर स्थित हो गया। दीर्घ समय तक (5) 1. A णिहर। .Affगरिणिज्रपाणि: Pगिरिणिज्झरवाणिउं। 5A पर देउ तहिं पुणु सहसारए। 4. A विभियपरामरु। 5. A°दीवए विद्यालयतपायले। (6) 1. A लिंघिट । 2. D उ। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94.7.8] [271 पहिणार महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु दीहु कालु मयमोहु हरेप्पिणु घोरवीरतवचरणु' चरेप्पिणु। जोउ लएप्पिणु सुयवणयरसरि थिरु थिउ हिमगिरिवरकुहरंतरि। कुक्कुडाहि धूमप्पहि णारउ पुणु पुणु हुउ बहुदुक्खह' भारउ । अजयरु तेण गिलिउ' सो जइवरु मुउ परमेसरु संजमभरधरु । अच्चुयकप्पि गुणोहरवण्णउ जाबउ देउ णिच्चु तारुण्णउ । यत्ता-तहिं तेण सुरेण दिव्यभोयसंजुत्तउं । बावीससमुद्दसमु परमाउसु भुतउं।।6। 10 गयणविलंबियमणहरमेहइ पुणु इह दीवइ अवरविदेहइ। पउम्देसि आपरगी' पुस्कार टुग्गति रिउणयरखयंकरि'। वजवीरु णामें तहिं राणउ आहेडलससिसूरसमाण। विजयारावि तासु सीमंतिणि हावभावविब्भमजलवाहिणि। णिवसुहकम्मवसे सुच्छायउ तहि अच्चुयसुरु तणुरुहु जायउ। लक्खणवंजणचच्चियकायउ णामें वज्जणाहु' महिरायउ। असिवरधारइ सयल वि जित्ती छक्खंड वि तें मेइणि भुत्ती। खेमकरु जिणणाहु णवेप्पिणु धम्मु अहिंसापरमु सुणेप्पिणु। मदमोह का हरण कर, घोर बीर तप का आचरण कर, योग लेकर वह, जिसमें वनचरों के शब्द सुनाई देते हैं ऐसी श्रेष्ठ हिमगिरि की एक गुफा में स्थित हो गया। कुक्कुड नाम का वह सर्प धूमप्रभा नरक में नारकी हुआ। फिर बहुत दुःखों को धारण करनेवाला अजगर हुआ और उसने संयम के भार को धारण करनेवाले उन परमेश्वर यतिवर को इस लिया। वह मृत्यु को प्राप्त हुए और अच्युत स्वर्ग में गुणसमूह से सुन्दर नित्य युवा देव हुए। पत्ता-वहाँ उस देव ने दिव्यभोगों से संयुक्त बाईस समुद्रपर्यन्त परम आयु का भोग किया। इसी जम्बूद्वीप में, जहाँ सुन्दर मेघ आकाश पर अवलम्बित रहते हैं, ऐसे अपरविदेह के पद्मदेश में शुभ करनेवाली अश्वपुरी है, दुर्गों से युक्त और शत्रुनगर का नाश करनेवाली। उसमें वज्रवीर्य नाम का राजा है---इन्द्र, सूर्य और शशि के समान । उसकी पत्नी विजयादेवी हावभाव और विभ्रमरूपी जल की नदी है। अपने शुभ कर्म के वश से सुन्दर कान्तिवाला वह अच्युत देव उन दोनों का पुत्र हुआ। लक्षणों और सूक्ष्म चिरनों से शोभित-शरीर वह वज्रनाभ नाम से महापति (राजा) हुआ। अपनी तलवार की धार से उसने समस्त धरती जीत ली और छह खण्ड धरती का उपभोग किया। फिर, क्षेमंकर नाम के जिन तीर्थंकर को नमस्कार कर, &A हणेप्पिण। 1.AP घोस वसतव। 3.A पुरु पुण टुट; मुउ पुणु हु। . पूल दुक्खह। 7.A गि लि उ सो जयबम: P गिलिउ जोईसरु। (7)1.A आउसरे। 2. P रिउणियर । . AP विजयादेवि। 4. AP वजणाहि। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 ] [94.7.9 __ 10 महाकइपुप्फवंतविरयड महापुराणु चक्कट्टि संसारहु सकिउ । सहुं णरणाहहिं रिसिदिक्खंकिउ । जावच्छइ बंणि रवियरतत्तउ लंबियकरु उज्झियणियगत्तउ। अजयरु तमपहबिलि' उप्पज्जिवि तहिं बावीसजलहि दुई अँजिवि। सबरिहि सबरें वणि जणियउ सुउ सो कुरंगु णामें वणयरु हुउ। आयउ तहिं जहिं मुणिवंदियजणि' सत्तुमित्तसमचित्तु महामुणि। सुरिवि वइरु दंतदट्ठोढ़ें विद्धउ साह तेण पाविढें। धम्मगुणुज्झिएण पवियारउ अप्पसमाणे बाणे मारिउ। संभूयउ मज्झिमगेवज्जहि तहिं मज्झिमविमाणि णिरवज्जहि। सत्तावीससमुद्दई जीविउ कासु. ण कासु देउ मणि भाविछ । घत्ता-इह जुबूदीवि लवणजलहिजलणिवसणि । पुणु कोसलदेसि उज्झाउरि" णवपल्लववणि ॥7॥ 15 कासवगोतु राउ जियमहियलु दुक्खलक्खदोहग्गनयंकरि चूउ अहमिदु ताहि सो हूयउ मंडलेसु कयमंडलसूरर वज्जबाहु' पहु वज्जि व बहुबलु । देवहु दुल्लह देवि पहंकरि । सिसु आणंदु णाम वररूयउ। सूरह उग्गउ णं पडिसूरउ। अहिंसा रूप परम धर्म सुनकर, वह चक्रवर्ती संसार से शकित हो उठा और राजाओं के साथ उसने दीक्षा ले ली। जब वह वन में सूर्य की किरणों से संतप्त, अपने शरीर की सुधबुध खोकर हाथ लम्बे किये हुए बैठे थे, कि तभी वह अजगर तमःप्रभा नरक में उत्पन्न होकर तथा बाईस सागर प्रमाण दुःख भोगकर, भील के द्वारा एक भीलनी से पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। वह कुरंग नाम का भील हुआ। वह वहाँ आया, जहाँ मुनियों के द्वारा वन्दनीय एवं शत्रु-मित्र में समता भाव रखनेवाले महामुनि विराजमान थे। पुराने बैर की याद कर दाँतों से ओठ चबाते हुए उस पापी ने मुनि को वेध दिया। अपने ही समान धम्म गुण (धर्मरूपी गुण, धनुष की डोरी) से मुक्त बाण के द्वारा उसने उन्हें मार दिया। वे मध्यम त्रैवेयक में निरवद्य मध्यम विमान में उत्पन्न हुए। वहाँ सत्ताईस सागरपर्यन्त जीवित रहकर वह देव किस-किस के मन को अच्छा नहीं लगा ! घत्ता-लवणसमुद्र के जल से निवसित इस जम्बूद्वीप में, नवपल्लवों से युक्त कोशलदेश में अयोध्या नगरी है। उसमें कश्यपगोत्रीय, धरती को जीतनेवाला, वज्र के समान शक्तिशाली बज्रबाहु नाम का राजा था। उसकी लाखों दःखों और दुर्भाग्यों का नाश करनेवाली, देवों के लिए भी दुर्लभ प्रमंकरी नाम की देवी थी। वह अहमेन्द्र से च्युत होकर, सुन्दर रूपवाला उसका आनन्द नाम का पुत्र हुआ। वह मण्डलेश्वर शत्रुराजाओं के लिए शूर 5. A तमहविलइ । ६. A दियगुणि; " गुणवंदियमुणि। 7. A दवदंतोड़ें। 8. Pण साह। 9. AP सप्पसमायणे। 10, A उज्झाणयरे उबवणे: Pउन्माउरे का उपवणे। (8) 1. A 'बाहु बाहुबलि व बाहु पठु बनि व। 2. AP देवहं । ५. A नाहं संभूयउ: P ताहि सुर हूयट । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94.9.7] प्रहाकइपुष्फवंतविरय महापुराणु [ 273 पइहियमंतें विणिग्गयजडिमनु णंदीसरि णाणाजिणपडिमउ। सिंचियाउ घियदहिएं खीरें चंदणघुसिणकरंबियणीरें। अंधियाउ चंपयमंदारहि अलिङलरुणुसैटिवसिंदूरहि। तहिं णरणाहु पलोयहं आयउ सहु हिवउल्लइ संसर जायउ। विषुलमई त्ति णाम तहिं अच्छिउ गणहरू तें पणवेप्पिणु पुच्छिउ । कि णिच्चेवणेण पत्रों जिण किं एगह पहाणे ! घत्ता-अक्खइ मुणिणाहु जिणु भा भाविज्जइ। तहु बिंबहु तेण जलकुसुमंजलि दिज्जइ ॥8॥ 10 णउ 'तरुवरि ण पकि ण सिलायलि वसइ देउ हिबउल्लइ णिम्मलि। देववाणई पुणपवित्तई सुद्धई दसणणाणचरित्तई। ताहं बुद्धिसंदेहविरामें जाणियभुवणत्तयपरिणामें। मिच्छत्तासंजमपरिचाएं ताह बुद्धि कय णवर बिराएं। णिहयावरणु छिण्णसंसारउ विगयराउ अरहंतु भडारउ । कम्मकलंकपडलु ओसारइ जो णिययाई ताई वित्थारइ। सो अवसें जिणवरु जयकारइ भावसुद्धि छंडइ' महिमारइ। था, सूर्य के लिए जैसे प्रतिसूर्य उत्पन्न हुआ हो। स्वामी के हितैषी मन्त्री ने नष्ट हो गयी है जड़ता जिनकी, ऐसी नाना जिन-प्रतिमाओं का नन्दीश्वर में घी, दूध और दही से अभिषेक किया। चम्पक और मन्दार कुसुमों तथा जिनमें भ्रमरकुल गुनगुना रहा है ऐसे सिन्दूर पुष्पों से पूजा की। वहाँ दर्शन के लिए राजा भी आया। उसके हृदय में सन्देह उत्पन्न हो गया। वहाँ विपुलमति नाम के गणधर थे। उन्हें प्रणाम कर उसने पूछा-'अचेतन पत्थरों को पूजने और इनका स्नान करने से क्या ?" . धत्ता-तब मुनिनाथ कहते हैं-"जिन को जिस भाव से ध्यान करना चाहिए, उसी भाव से उनके बिम्ब को जल कुसुमांजलि देनी चाहिए। देव न तो तरुवर में रहता है-न पंक में और न शिलातल में। वह तो पवित्र हृदय में रहता है। विशुद्ध, पुण्यपवित्र सम्यक्दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही देवस्थान हैं। बुद्धि के सन्देह के विराम, तीनों लोकों को जाननेवाले, परिणाम और मिथ्या संयम के परित्याग से जिन की बुद्धि विराग से युक्त हो जाती है, जिन्होंने आवरण को नष्ट कर दिया है तथा संसार को छिन्न कर दिया है, ऐसे आदरणीय अरहन्त विगतराग होते हैं। वे कर्मरूपी कलंक के पटल को हटा देते हैं। जो अपने दर्शन, ज्ञान और चारित्र का विस्तार करना चाहता है, वह अवश्य जिनवर की जयकार करता है। भाव-विशुद्धि चित्त की शल्य को दूर कर देती है। भाव से 4. AP विणिहब । 5. AP RA" BA चंपयमातूरहि। 7. A विमलमइ। (9) 1. A तस्यले। 2. AP देवहो ठाणहं। 3. AP भावसुद्ध। 4. A छड्इ। - Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 ] महाकपुष्फरतविरयउ महापुराणु [94.9.8 भावसुद्धि फेडइ मणसल्लई भावसुद्ध णरु आणइ फुल्लई। जिणपडिबिंबई पहाणइ पुज्जइ अप्पाणहु सुविसोहि समज्जइ। चित्तविसुद्धिहि अणुदिणु सुज्झइ सच्चई सत्त वि तच्चई बुज्झइ। घत्ता-जिणु जिणपडिबिंबु गउ तूसइ णउ कुप्पइ। इह एण मिसेण जीवें सुद्धि विढप्पई ॥9॥ (10) जइ वि बप्प जिणपडिम अचेयण जाणइ पुज्ज ण खंडण वेयण। तो वि अंतरंगह सुहकम्मह होइ हेउ परमागमधम्महु। मुइय विलासिणि कालें छित्ती विडु चिंतइ मई केव ण भुत्ती। सुणहु भरइ' मई केव ण खद्धी जालावलिजलणेणाउद्धी । झावइ मुणि अवियाणियणेयई किह तवचरणु ण चिण्णउं एयइ। जइ वि अजीयउ कामिणिकायउ तो वि भाउ अण्णण्णु जि जायउ । गउ दुग्गइ बहुकामगहिल्लउ जीहिंदिवसु मुउ सुणहुल्लउ। रिसि संसारु घोरु णिज्झाइवि गउ सम्महु दुक्किय विणिवाइवि। अण्णते' बहिरंगें घिप्पड़ भाउ दुभएं कम्में छिप्पड़। एहऊ जाणिवि भाउ विसिट्ठहिं परिपालियजिणवरचयणिट्ठहिं' । 10 विशुद्ध मनुष्य पुष्प लाता है (चढ़ाता है), जिन प्रतिमा का अभिषेक और पूजन करता है और अपने लिए सुविशुद्धि अर्जित करता है। चित्त की विशद्धि से प्रतिदिन शद्धि मिलती है, और सातों सच्चे तत्त्वों का भी ज्ञान हो जाता है। __घत्ता-जिन भगवान् अथवा उनकी प्रतिमा न तो सन्तुष्ट होती है और न क्रुद्ध होती है। लेकिन इस प्रकार से इसके द्वारा जीव चित्त की शुद्धि का उपार्जन करता है। (10) हे सुभट । यद्यपि .जिन-प्रतिमा अचेतन है, वह पूजा और खण्डन की वेदना को नहीं जानती, तो भी वह अन्तरंग शुभ कर्म और परमागम तथा धर्म का कारण होती है। काल से स्पृष्ट होने पर बेचारी वेश्या मर जाती है। विट (विलासी) सोचता है-मैं उसका किसी प्रकार भोग न कर सका। कुत्ता सोचता है-मैं किसी प्रकार उसे खा नहीं सका, वह आग की ज्वालाओं में जलकर खाक हो गयी। मुनि सोचते हैं कि इस अज्ञानी ने तपश्चरण क्यों नहीं किया ? यद्यपि वेश्या के लिए शरीर जड़ है, तब भी, उससे भिन्न-भिन्न भाव उत्पन्न होते हैं। अत्यन्त काम से पागल कामी दुर्गति में गया। जिला-इन्द्रिय के वशीभूत कुत्ता मर गया। मुनि घोर संसार को छोड़कर और पाप का नाश कर स्वर्ग गये। नानात्व और बहिरंग कर्म से भाव ग्रहण किया जाता है और वह शुभ, अशुभ दो प्रकार के कर्म से स्पृष्ट होता है। 'भाव' को इस प्रकार का जानकर, जिनवर के वचनों में निष्ठा का परिपालन करनेवाले विशिष्ट लोगों के द्वारा उन-उन वस्तुओं से भावना करनी 5. A सर मा णियमणसुद्धि विढप्पड। (10) I.A भगइ। 2.AP जालाचवलें जलणें रुद्धी। SA वेयए। 4.A अजीविउ। 3. AP यि काम । B. AP अण्णणे। 1. A *पय । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94.11.11] [ 275 महाकइपुष्फयंतविश्वर महापुराण तेहिं तेहिं वत्थुहिं भाविज्जइ जेहिं जेहिं सुहमइ उप्पज्जइ। चित्ताचेयई ताई अणेयइं जिणपडिबिंबमहारिसिभेयई। घत्ता-सुहकम्मरयाही "पावविविहवित्थारणु। असुहम्मिहिं' होउ दब्बु णिबिणिकारणु ॥10॥ कारणाहु' जगु भरियउ अच्छइ झसरूवह सालूरसरुवह जिह विविहहं पाहाण्ह छित्तई संदपंचमंदरहं णियंबई भावणभवणई कप्पविमाणई जो वंदइ तहु पाउ पणासइ ता राएं णियहियवई भाविउं णाणाविहमाणिक्कहिं जडियउं छत्तत्तयसुरविडविपलंबहिं जोएप्पिणु गयणयलि दिगे। एहु जि मग्गु जगि जायउ रूढउ णाणघंतु णाणेण णियच्छइ। उंदररूवह अस्थि बहूयह।। तिह अरइयजिणबिंबई चित्तई। ससिरविबिंबई करणिउलंबई। अकयजिणाहिवपडिमाठाणई। . एव भडारउ गणहरु भासइ। भाणुबिंबु पुरवरि काराविउ । णं गवणाउ तं जि सई पडियउं । सहियउं मणिमयजिणपडिबिंबहि। मयुधाइ साझ परेसका पत्धिवचरियाणुउ जणु मूढउ। 10 चाहिए जिनसे शुभबुद्धि पैदा होती हो। जिनप्रतिबिम्ब और महामुनियों के भेद से चेतन-अचेतन बहुत-से कारण हैं। ____घत्ता-शुभ कर्म करनेवालों के लिए इस प्रकार द्रव्य का बहुविध विस्तार होता है। अशुभ कर्म करनेवालों के लिए द्रव्य (रूप) स्त्रीबन्ध का कारण होता है। कारणों से यह संसार भरा हुआ है। झानी ज्ञान से उसे देख लेता है। मत्स्यरूप, मेंढकरूप, चूहारूप, आदि बहुरूपों के पत्थर, क्षेत्र आदि कारण है, उसी प्रकार अरहन्त जिन की विचित्र मूर्तियाँ कारण हैं। पाँच सुमेरु पर्वतों के नितम्ब, किरणों से सहित सूर्य-चन्द्र के बिम्ब भवनवासियों के विमान, कल्पविमान अकृत्रिम जिनवरों की प्रतिमा के स्थान हैं; इनकी जो वन्दना करता है उसका पाप नष्ट हो जाता है-ऐसा आदरणीय गणधर कहते हैं।" वह सुनकर राजा ने अपने मन में विचार किया कि मैं एक सूर्यबिम्ब का अपने नगर में निर्माण कराऊँगा। नाना प्रकार के मणियों से विजड़ित, जैसे सूर्य ही आकाश से स्वयं गिर पड़ा हो। तीन छत्रों, कल्पवृक्ष के पत्तों, मणिमय जिन प्रतिमाओं से सहित दिनेश्वर को आकाशतल में देखकर राजा ने उनका अर्ध उतारा। फिर, यह मार्ग जग में रूद हो गया। मूर्ख जन राजा के चरित्र का अनुगमन करते रहते हैं। 8. A चितियवेपई चिातेयचेयई। 9. A सुहकप्मारयाह । 10. A एवं बहुवित्धार एम विहवित्थागणु। 11. AP असुहाह कि होइ दनु । (11) I. A कारणाई। 2. AP उंदुर । 1. A पभूयह। 1. A उत्तहं । 5. A धुतह) i. A जियाहियएं। 7.A कराविउ। 6. 1. AP जाउ जगे Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 1 महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु यत्ता - संसार असारु काले जंतें भाविउ । रिस सायरदत्तु" गुरु परमेट्टि णिसेविज" ॥11॥ ( 12 ) चिंतामणि व विविहफलदाइणि तवियई तिव्वतवेण णियंगई सोलह कारणाई भावेष्पिणु पंचेंदियकसायबलु पेल्लिवि मुउ पाओवगमणमरणें मुणि पवरच्छरकरचालियचामरु जा पंचममहि तावहि घल्लइ वरिसंहं बीससहासहिं भुंजइ रयणिउ तिष्णि सरीरें तुंगउ पुणु कालावसाणि संपत्तइ कासीदेसि णयरि याणारसि मुणिवरु जायउ छडिवि मेइणि । अब्भसियां एयारह अंगई । तिणि वि सल्लई उम्मूलेप्पिणु । खीरवणंतरालि तणु घल्लिवि । पाणयकप्पि हूउ मणहरझुणि । वीससमुद्दमिया महामरु । णीसासु वि दसमासहिं मेल्लइ । णियते अच्छरमणु रंजइ' । जासु ण रूवसमाणु अणंगउ 1 एत्थु दीवि इह भारहखेत्तइ' । जहिं धवलहरहिं पह मेल्लइ ससि । धत्ता- तहिं अस्थि गरिंदु विस्ससेणु गुणमंडिउ | बंभादेवीए भुयलयाहिं अवरुंडिउ ॥12॥ [94.11.14 5 10 यत्ता - समय बीतने पर उसे संसार अंसार लगा। उसने परमेष्ठी मुनि गुरु सागरदत्त की सेवा की। ( 12 ) वह चिन्तामणि के समान विविध फलों को देनेवाली धरती को छोड़कर मुनि हो गया। उन्होंने तीव्रतप से अपने शरीर की सन्तप्त किया, ग्वारह अंगों का अभ्यास किया। सोलहकारण भावनाओं की भावना कर, तीन शल्यों का उन्मूलन कर, पाँच इन्द्रियों और कषाय बल का दमन कर, क्षीर वन के भीतर शरीर का त्याग कर मृत्यु को प्राप्त हुए। प्रायोपगमन विधि से भरकर वह मुनि प्राणत स्वर्ग में देव हुए। सुन्दर ध्वनि से युक्त, जिस पर महान् अप्सराएँ अपने हाथ से चमर ढोरती हैं, वह बीस सागर की आयुवाला महान् अमर हुआ। जहाँ तक पाँचवीं भूमि ( नरकभूमि) है, वहाँ तक का अवधिज्ञान होता है, निश्वास भी वह दस माह में लेता है। वीस हजार वर्ष में भोजन करता है। अपने तेज से अप्सराओं के मन का रंजन करता है। जिसका शरीर ऊँचाई में तीन हाथ है, जिसके रूप के समान कामदेव भी नहीं है। फिर, समय का अवसान आने पर इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के काशीदेश में वाराणसी नगरी है, जहाँ के धवलगृहों के कारण चन्द्रमा अपनी प्रभा छोड़ देता है, पत्ता - वहाँ गुणों से मण्डित राजा विश्वसेन है जो ब्रह्मादेवी की बाहुलताओं से आलिंगित है । रूढ ! AB सायर ( A पसेविउ 1 (12) खीण गलि 2. AP दह 3. AD सुण्णचउअदुअद्दहिं जुजइ । 4. AP read after this पइचारू वि मणेण श्राणंग। 5. AP sumits this line. 6. AP add after this दरिसियाणरमणे पवहंतए, अमर महासरे णीरे बतए । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94.13.18] महाकइपुप्फयंतावेरवउ महापुराणु [277 ता 'वषिणयं तेण पुण्ण बुवाहेण सग्गाउ 'एहिति रूवेण रंभाइ भो पोमपत्तक्ख लद्धावलोयस्स एवं अवेरस्स चित्तम्मि मंतूण मंदाणिलालाई सग्गग्गलीलाई रयणंसुजालाई तोरणदलालाई पिहुपंगणालाई मणिमयकवाडाई पायडियकम्माई णयरांम्म काऊण बुट्टो सुवण्णेहि जक्खाहिवो ताम ( 13 ) पम्म णियंतेण। सोहम्मणाहेण। गब्भम्मि थाहिति। देवीइ बंभाई। तेवीसमो जक्ख। सामी तिलोयस्स। सिटुं' कुबेरस्स। ता तेण गंतूण। उज्जाणलीलाई। सालाविसालाई। हिंडियमरालाई। महुयररवालाई। सगवक्खजालाई। णहलग्गकूडाई। रम्माई हम्माई। पुण्णाई 'पाऊण। कणियारवण्णेहि। छम्मास गय जाम। (13) पुण्यरूपी जल के वाहक, उस सौधर्म्य स्वर्ग के इन्द्र ने अच्छी तरह देखते हुए जान लिया और अजातशत्रु कुबेर से कहा- "हे कमलपत्रनेत्र यक्ष ! प्राप्त किया है अवलोकन जिसने ऐसे त्रिलोक के स्वामी तेईसवें तीर्थंकर स्वर्ग से आएँगे और रूप में रम्भा के समान ब्रह्मादेवी के गर्भ में स्थित होंगे।" तब उसने अपने मन में विचारकर और जाकर नगर में वास्तुकर्म को प्रकट करनेवाले सुन्दर प्रासाद बनाये, जिनमें मन्दपवन के झोकोंवाली उद्यान क्रीड़ाएँ थीं, स्वर्ग की अग्रलीलाओं को धारण करनेवाली विशाल शालाएँ थीं, रत्नकिरणों की तरह उज्ज्वल घूमते हंस थे, तोरणदलों का समूह, मधुकरों के शब्दों का आलाप, विशाल प्रांगण, गवाक्षजालों से युक्त, मणिमय किवाड़ोंवाले और उनके शिखर आकाश को छूनेवाले थे। इस प्रकार प्रासाद बनाकर एवं पुण्य जानकर उसने कनेर के रंग के स्वर्णों की वर्षा की; तब तक कि जब तक छह माह बीत गये। (13)I.AP जाणियं। 2. A पुण्ण विवाहेण । 3. AP पेहिति । 4. Pomits this tootB.A पहु। 6.A रम्माई 17.P लाऊण। ५.P कणयार । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278] महाकपुण्फयंतविरयउ महापुराणु यत्ता - णिसि सुहुं सुत्ताइ परिवयितछाव | सिविणावलि दिव्य दीसइ जिणवरमावइ || 13 || ( 14 ) अनिंदो गइंदो महासीक्खखाणी भमंतालिसामं हवंधारपंको तमंवित्तछेओ! झमाणं सुरम्मं कुलज्जणाल जलुल्लोलवंती मही अत्ततीरो पसत्थं परूढं सुहाणं णिणं घरं सारसाणं गुणसामऊहो वगंत डहंती घत्ता - पुणु पडिबुद्धाइ जाइवि विसिंदो महंदो । सई माहवाणी । णवं पुप्फदामं । पउण्णो ससंको। रवी तिव्वतेओ । घडाणं च जुम्मं । सरं सारणालं । महंतो रसंतो । पओही गहीरो । कुरंगारिवी । सुराणं विमानं । कुंभीणसाणं । मणी समूहो । किसाणू जलतो । वइरिकतहु । इय सिविषय ताइ पेक्खिवि अक्खिय कंतहु ||14|| [ 94.13.19 5 10 9. AP सुत। 10. 4 दिव्वा । ( 14 ) 1 A तमीरंतछेओ P तभीयंताओ। 2. A omits this font; P समुद्दो गहीरो 3 पीढं। 4. A वणतो । 15 घत्ता - रात्रि में सुखपूर्वक सोते हुए, बढ़ रही है शरीर की कान्ति जिनकी, ऐसी जिनवर की माँ ने स्वप्नावली देखी । ( 14 ) अनिन्द्य गजराज, श्रेष्ठ वृषभ, सिंह, अत्यन्त सुख की खान सती लक्ष्मी, मँडराते हुए भ्रमरों से युक्त पुष्पमाला, अन्धकार की कीचड़ को साफ करनेवाला पूर्ण चन्द्र, अन्धकार का नाशक दिव्य तेजवाला सूर्य, मत्स्यों और कलशों के सुन्दर जोड़े। जल के भीतर रहनेवाले नालों से युक्त कमलों का सरोवर, जल से चंचल और खूब गरजनेवाला तथा तटों से धरती को छूनेवाला गम्भीर समुद्र, प्रशस्त और उन्नत सिंहासन पीठ, सुहावना कोश, देवताओं की विमान लक्ष्मी से युक्त नागों का लोक, दिशाओं में व्याप्त किरणोंवाला, मणियों का समूह, वन को जलाती हुई और जलती हुई आग। घत्ता - प्रातःकाल जागने पर शत्रु के लिए यम के समान अपने पति से भेंट कर उसने यह स्वप्नावली उन्हें बतायी। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94.15.14] महाकइपुप्फयंतविरपर महापुराणु ( 15 ) तओ तेण उत्तं सुबत्ते पवित् आ तुज्झ होहो गियंदों जिणंदो मए भासिय लोयसारं विसुद्धे तओ तम्मि वइसाहमासम्मि आए विसाक्खरिक्खे तमिल्लीविरामे मउम्मत्तमायंगलीलागईए अलं कतिकित्तीहिं संसोहियंगे इंदस्स रूवेण देवाहिदेवो सुरिंदेहिं चदेहिं संधुव्यमाणो दहव पक्खा मही दिण्णदिट्ठी' पुणो कालपक्खे पतम्मि सीए थिए दिम्मु णीरए णिवियारे हले वच्छले बालसारंगणेत्ते । खगाहिंदभूमिंददेविंदवंदो । इमं दंसणाणं फलं जाण मुद्धे । दुइज्जे दिणे कण्हपक्खस्स जाए। पियालावलीलारसुप्पण्णकामे । सिरीए हिरीए दिहीए मईए । थिओ गब्भवासे महापुण्णसंगे । अतावी असावी अगाओ अलेवो । तिलोयं तिणाणेहिं संजाणमाणो । कया जक्खराएण माणिक्कविट्ठी । हुआ पूसमासम्मि एयारसीए । बरे वाउजोए जणानंदसारे" । सुरवरपायव । धत्ता- उप्पण्णइ णाहि कंपिय णाणाकप्पे संजाया घंटारव ॥15॥ [ 279 5 10 ( 15 ) यह सुनकर वह बोले - हे सुन्दर वृत्तान्तवाली, पवित्र वत्सले ! बाल हरिण के समान आँखोंवाली ! तुम्हारा पुत्र नरश्रेष्ठ जिनेन्द्र विद्याधरों, नागेन्द्रों, मनुष्येन्द्रों और देवेन्द्रों के द्वारा वन्द्य होगा। हे विशुद्ध मुग्धे ! मेरे द्वारा कहा गया स्वप्नदर्शनों का यह लोक श्रेष्ठ फल जानो। उसी समय वैशाख माह के आने पर कृष्णपक्ष की द्वितीया के दिन विशाखा नक्षत्र में, प्रियालाप और लीला रस से जिसमें काम उत्पन्न हो रहा है, रात्रि के ऐसे अन्तिम प्रहर में कोमल लेकिन मतवाले गज की लीला गतिवाली, श्री, ह्री, धृति, मति, समर्थ कान्ति और कीर्ति देवियों के द्वारा संशोधित अंगवाले, महापुण्य से युक्त, गर्भवास में गजेन्द्र के रूप में स्थित हो गये। वे देवाधिदेव जो ताप, शाप और रोग रहित, निर्मल, सुरेन्द्र और चन्द्र के द्वारा स्तूयमान, तीन ज्ञानों से त्रिलोक के मान को जाननेवाले हैं। अठारह पक्ष तक धरती भाग्यशाली थी, (क्योंकि) यक्षराज ने माणिक्यों की वृष्टि की थी। फिर, पूस माह आने पर कृष्णपक्ष की एकादशी के दिन जब दिशामुख निर्मल था, ऐसे निर्विकार जनानन्ददायक श्रेष्ठ विशाखा नक्षत्र में वह उत्पन्न हुए । धत्ता - स्वामी के उत्पन्न होने पर देवों के कल्पवृक्ष काँप उठे। नाना कल्पों में घण्टानाद होने लगा । ( 15 ) 1K तिमलीविरामे but gloss रात्रिः । 2. A हिरीए मईबुद्धिईए P हिरीए विहीए मईए 3. A संजायमाणो 4. P दिज्जतुडी। 5. P छुट्टी 6. P णिब्वयारे। 7 AP जणादवारे 8. P सई जाया । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280] महाकइपुष्फयंतविण्यउ महापुराणु [94.16.1 ( 16 ) आसणं कंपियं सग्गिणा' जंपियं। देवदेवो हुओ बंभदेवीसुओ। चारुसंचियसमो अज्जु तेवीसमो। इय चवंतेण से झाइय माणसे। अमरवरवारणो झत्ति अइरावणो। पत्तओ पोढओ तम्मि आरूढओ। बहुमुहो' सयमहो सुरबुहो' बहुमुहो। अवि य देवी मई वारुणामी सई। हसिणी' सारसी उव्वसी माणसी। गोमिणी पोमिणी रामिणी सामिणी। भामिणी कामिणी धारिणी हारिणी। वामहायारिणी गेहिणी खोहणी'! माणणी मोहणी। पेसला पल्लवी चंदिणी12 माहवी। णंदिणी णाइणी मेत्ति इंदाइणी। उज्जला पत्तला कोमला सामला। विज्जुला वच्छला मंगला पिंगला। सतिलया सविलया सपुलया सकिलया। सरलिया तरलिया सुललिया लवालिया। कति कित्ती रसा लच्छि णीरंजसा। 20 (16) आसन काँप उठा, इन्द्र उचक पड़ा। ब्रह्मादेवी के पुत्र देवाधिदेव सुन्दर, संचित उपशम भाव के समान तेईसवें तीर्थंकर आज हुए हैं, इस प्रकार कहते हुए देवताओं ने मन में उनका ध्यान किया। अमरों का श्रेष्ठ गज प्रौढ़ ऐरावत शीघ्र आ गया। बहुमुखी इन्द्र उस पर शीघ्र आरूढ़ हो गया और आदरणीय बृहस्पति भी। देवी सरस्वती, वारुणी नाम की इन्द्राणी और सरस हंसिनी, उर्वशी, मानसी, गोमिनी, पधिनी, रामिणी, स्वामिनी, भामिनी, कामिनी, धारिणी, हारिणी, मन्मथकारिणी, रोहिणी, क्षोभिणी, मानिनी, मोहिनी, पेशला, पल्लवी, चाँदनी, माधवी, नन्दिनी, नागिनी, मित्रा, इन्द्रायणी, उज्ज्वला, पत्रला, कोमला, श्यामला, विद्युत्-वत्सला, मंगला और पिंगला। तिलक, पुलक, वलय और क्रीड़ा के साथ सरला, तरला, सुललिता और लवलिका, कान्ति, कीर्ति, रसा, लक्ष्मी जौर नीलंजसा (16) 1. " सकिणा। 2. AP शाहओ। 3. A महरहो सयमहो। 4. AP सुविबुहो बहुमूहो। 5. AP सई। 6. AP वारुणी पीणई। 7. K हिसिणी। h. AP भगिणी। 9. A खोहिणी। 10. A माणिणी। 11. A पोसला। 12.A चंदणी। 13. A पित्ति पदाइणी; मत्ति मंदाहणी; 14. P सबलया। 15. AP किसलया। [G. A कित्ति संती रसा; कित्ति संती रिसा। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94.17.13] [281 महाकइपुष्कयंतविरयउ महापुराणु घत्ता-इय बहुणामाहिँ सुरवरणारिहिं सेविउ। संचल्लिउ इंदु भणु किर केण ण भाविउ ॥16॥ (17) पवणुद्धयाणेयविहवण्णचिंधेहि उद्धरियउन्लोवसेयायवत्तेहिं गंधव्वगिजंतमंगलणिणाएहिं कारंडभेरंडमणहरमऊरेहि संचलिवचलधवलचामरविलासेहि गंतूण वाणारसिं ते पुरं तेण मायाइ मायासिसु झत्ति दाऊण चंदक्कधामाहिं उद्धं चरंतेण सक्केण अहिसेयजोगम्मि दिव्वम्मि सियसलिलधाराहि गुरुमंतगुरुएण पत्ताई भरिऊण भणियं 'चउद्दिसह हे इंद सिहि काल हे णेरिदीराय हे हे कुबेरंक ईसाण धरणिंद महिपित्तकुसुमंजलीसुरहिगंधेहिं। अच्छरकरुक्खित्तकल्लाणवत्तेहिं । दिसिविदिसिदीसंतचउसुरणिकाएहिं। णाणाविमाणेहिं विरसंततूरेहि। बंदारयाणंदकयमंदघोसेहि। गयवाह जय णाह जय जिण भणतेण। देवो जिणिंदो णियंकम्मि काऊण। सिग्घं णिओ मंदरं पुण्णवंतेण। णिहिओ सिलावीढसीहासणग्गम्मि। गंधेण पुप्फेण दिव्येण चरुएण। जिणण्हवणकालम्मि एत्थेत्य उवविसह। हे वरुण "हयमरण 'चलगवण हे वाय। रुइसेंद हे चंद हे सूर साणंद। 10 घत्ता-इस प्रकार अनेक नामवाली देवांगनाओं द्वारा सेवित वह (इन्द्र) चला। बताओ चन्द्रमा किसे अच्छा नहीं लगता ? ( 17 ) हवा में उड़ते हुए अनेक प्रकार के रंगों के ध्वजों, धरती पर गिरी हुई कुसमाजलियों की सुरभिगन्धों, धारण किये हुए चन्दतुल्य श्वेत आतपत्रों, अप्सराओं के हाथों से छोड़े गये मंगलद्रव्यों, गन्धर्वो के द्वारा गाये मंगलनिनादों, दिशा-विदिशा में दिखाई देते हुए चार प्रकार के देव-निकायों, चक्रवाक-भेरुण्ड-सुन्दर मयूरों, अनेक विमानों, बजते हुए तूर्यो, चलते हुए चंचल धवल चमरों के विलासों और देवों के द्वारा आनन्द में किये गये उद्घोषों के साथ वाराणसी नगरी में जाकर बाधा रहित 'हे नाथ ! जय हो हे जिन ! जय हो' कहते हुए, उसने माता के लिए माया शिशु शीघ्र देकर, जिनेन्द्रदेव को अपनी गोद में रखकर, चन्द्र और सूर्य के स्थानों से ऊपर जाता हुआ पुण्यवन्त इन्द्र उन्हें शीघ्र सुमेरु पर्वत पर ले गया। इन्द्र ने उन्हें अभिषेक के योग्य दिव्य शिलापीठ के सिंहासन के अग्रभाग पर विराजमान कर दिया। उसने कहा-श्वेतसलिल धारा, गुरुमन्त्र से गुरु, गन्ध, पुष्प, दिव्य और नैवेद्य से पात्रों को भरकर, जिनवर के अभिषेक के समय, हे कुबेरांक ! ईशान, धरणेन्द्र, कान्ति से सुन्दर चन्द्र, हे सानन्दं सूर्य ! आप लोग चारों दिशाओं में यहाँ. यहाँ बैठ जाएँ। (17) 1. APणेयबहुप | 2. A मडुपित्त' । 3. AP कलाणवत्तेहिं । 4. AP "भेरुंड15. A *कययंद" । 6. A गंतूण तं वाणरासिं पुरं तेण: गंतूण तं वाणरसि ते पुरि तेण। 7. AP मायासिसू। .A णिय कम्म काउण। 9. A यंदमयम्मेहि। 10. AP "जोगम्मि लग्गम्मि। II. AP °गरुराण। 12. P भणिऊण। 19. A भमिय। 14. AP च दिहि दिसह। 15. AP हयणयालमि।.1. हयमरुण। 17. AP चलगमण। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 282 ] महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [94.17.14 छत्ता-अहवा" सयल थुणंत पणवह पय जिणरायहु" । गिण्हह जण्णविहाउ पुण्णकलस उच्चायहु ॥17॥ (18 सव्वदोसवज्जिओ सब्बदेयपुज्जिओ। सव्ववाइदूसणो सव्वलोयभूसणो। सव्वकम्मणासणो सव्यदिविसासणो। भव्यपोमणेसरो ण्हाणिओ जिणेसरो। तावभावहारिणा सीयखीरवारिणा। कुंकुमेण पिंजर सित्तसाणुकुंजरं। वितरेहिं सेवियं भावणेहिं भावियं। जोइसेहिं दियं कप्पवासिबंदियं। खेयरेहिं इच्छियं सीसए पडिच्छियं। चारणेहिं मणियं जक्खिणीहिं वणियं। पक्खिणीहिं माणियं जाव पहाणवाणियं। देवदारुवासियं चंदवंतभासियं। मंदरस्स कंदरे दुच्चरम्मि कक्करे। किंणरीण संतिय धोयवत्तपत्तिय । पत्ता-सिंचिवि अचिवि थुइवयणहिं संभासिउ। पहु पासविणासु पासु भणेवि पयासिउ ॥18॥ घत्ता-अथवा आप सब लोग स्तुति करते हुए, जिनराज के चरणों में प्रणाम करें। यज्ञ-विभाग (पूजा-सामग्री) को ग्रहण करें और पुण्य-कलश उठा लें। ( Is ) सभी दोषों से रहित, सब देवों से पूजित, सभी मिथ्यावादियों के दूषण, सर्वलोकभूषण, समस्त कर्मों को नाश करनेवाले, सभी दृष्टियों का शासन करनेवाले, भव्यरूपी कमलों के लिए सूर्य के समान और सन्तापभाव का हरण करनेवाले जिनेश्वर का शीतल क्षीरजल से अभिषेक किया गया। इस बीच, स्नान का जल, जो कि केशर से पीला था, जिसने तटस्थ गजों को अभिषिक्त किया था, व्यंतरों से सेवित, भवनवासियों से भावित, ज्योतिषदेवों से नन्दित, कल्पवासियों से वन्दित, विद्याधरों से अभिलषित शिष्यों से इच्छित चारणों के द्वारा मान्य, यक्षिणियों के द्वारा वर्णनीय, पक्षिणियों के द्वारा मान्य, देवदारु वृक्षों से सुवासित और चन्द्रमा की कान्ति के समान भास्वर था, वह मन्दराचल की अगम्य कठोर गुफा में किन्नरियों के मुखों की पत्ररचना को धोनेवाला था। __ पत्ता-इस प्रकार अभिषेक कर, पूजा कर, स्तुतिवचनों से सम्भाषण किया और प्रभु को 'पाप का नाश करनेवाला पार्श्व' कहकर प्रकाशित किया (उनका नाम पार्श्व रखा)। 18. AP आवह। 19. AP "रायहो। 20. AP उच्चायहो। (18) A सब्बपोम-12-AP हाइओ। 9. AP डाइ। 4. A केयपत्तचिव धोयपत्नपतियं । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94.19.14] महाकइपुप्फयंतचिरपउ महापुराणु [ 283 10 ( 19 ) घरचूडामणिविलिहियगयणं माणिणिघणधणविलसियमयणं । विहलियणरदुहहरधणपवर अइऊणं हरिणा तं णयरं। बंभादेविइ दिण्णो ईसो देवो पासो सो णिद्दोसो। अहिणवणवरसभावविसट्ट सुरवरणाहो काउं पढें। संतं दंतं भुवणमहतं पुणु णमिऊण दुरियकयंत। मधओ समरो सरासिरामग सगओ विगओ सक्को सग्गं | सुण्णपंचभयगुत्तिवसूर्ण वासाणं माणेण गुरूणं। पत्ताणं परमं णिव्वाणं वोलीणाणं णेमिजिणाणं। तक्कालासियवरिससयाऊ रूवरिद्धिणिज्जियझसकेऊ। वणेणुज्जलमरगयसामो विलियराओ उज्झियवामो'। देहेणुण्णवणवकरमाणो वइरिणि मित्ते णिच्चसमाणो। सपसमपसरणुपसमियमारो' पुटैि पत्तो पासकुमारो। पायपोमपाडियसुरराओ सोलहवारिसिओ सिंजाओ। तिवसवरेहिं सम' कीलतो __एक्कस्सि दिवसे विहरतो। (19) जिनके गृहशिखरों से आकाश स्पृष्ट है, जिनमें मानिनी स्त्रियों के सघन स्तनों से कामदेव विलसित हैं और जो निर्धन मनुष्यों के दुःखों को हरण करनेवाले धन से प्रचुर है, ऐसे उस नगर (वाराणसी) में आकर, इन्द्र ने उन निर्दोष देव पार्श्व को ब्रह्मादेवी के लिए दे दिया। सुरवरनाथ (इन्द्र) अभिनव नवरस और भाव से परिपूर्ण नृत्य कर और शान्त-दान्त मुवन में महान् पापों के लिए कृतान्त उन्हें पुनः नमस्कार कर, अपने ध्वजों और देवों के साथ जिसका मार्ग श्रुत के आश्रित है, ऐसे स्वर्ग के लिए स्वयं चला गया। नेमिनाथ के निर्वाण प्राप्त कर लेने पर, तेरासी हजार सात सौ पचास वर्षों के मान का समय बीतने पर पार्श्वनाथ हुए थे। इसी काल में सन्निहित उनकी आयु सौ साल की थी। वह अपनी रूप-ऋद्धि से कामदेव को जीतनेवाले थे। रंग में वह उज्ज्वल मरकत की तरह श्याम थे-विगलित राग और काम से शून्य । नौ हाथ ऊँचा उनका शरीर था। शत्रु और मित्र में नित्य समानभाव रखते थे। अपने प्रशमभाव के प्रसार से उन्होंने कामदेव को शान्त कर दिया था। पार्श्व कुमार वृद्धि को प्राप्त हुए। इन्द्र को अपने चरणों में झुकानेवाले वे सोलह वर्ष के हो गये। एक दिन वे देवों के साथ खेलते हुए विहार कर रहे थे। 5. AP पासू जि भणेधि। (19) 1. AP जणदुह । 2. AP सुमरियमगं। RAP मुनु। 4. AP उझियकापी। 5. A उबसमपसरण। B. AP डिं। 7. AP सम। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 ] महाकाइपुष्फयतविश्यउ महापुराणु [94,19.15 पत्ता-पुचिल्लउ वइरि पुणरवि विहिसंजोइउ। णियजणणीताउ तावसु तेण पलोइउ ||19 || (20) महिपालपुरणाहु महिपालु थिरबाहु। महिपालु णामेण परिचत्तकामेण। उप्पण्णसाश कि कपिओ एण: दिव्यं तवं चरइ गोरीपियं भरइ। पंचाणलं सहइ वरगारवं वहइ। णाओ' कुमारेण तेल्लोक्कसारेण। कयचारुकम्मेण गयजम्मजम्मेण। सत्थेण' दारियउ हउँ एण मारियउ। इय सरिवि मज्झत्यु थिउ मुणिवि परमत्यु। परमेट्टि समचित्तु जिह सत्तु तिह मित्तु। सिसु णियइ तणु वित्तु पालतु 'सवसित्तु। ता तवसि तह कुद्ध ण वि णवइ मई मुद्ध। कुलवुड्ढु" भयवंतु दोहिंति मयवंतु। घत्ता-इंधणह" णिमित्तु तरु फोडतु' कुढारें। हियमियवयणेण तावसु भणिउ कुमारें ॥20॥ घत्ता-विधाता ने पहले के वैरी को फिर मिला दिया। अपनी माता के निकट तापस को उन्होंने देखा। ( 20 ) स्थिरभुज वह महीपाल नाम का राजा महीपालपुर का था। काम का त्याग करनेवाले, शोक से संतप्त (पत्नी मर जाने के कारण) इसने क्या तप किया ? यह दिव्य तप करता है, गौरीप्रिय (शिव) की याद करता है, पंचाग्नि सहता है, श्रेष्ठ गौरव को धारण करता है। त्रिलोक में श्रेष्ठ सुन्दरकर्म करनेवाले कुमार ने जान लिया कि गतजन्म में जनमे इसने शस्त्र से विदीर्ण कर मुझे मार दिया था। -यह स्मरण कर वह मध्यस्थ हो गये और परमार्थ जानकर, परमेष्ठी समचित्त, जिस प्रकार शत्रु, उसी प्रकार मित्र । बालक शरीर और धन को देखता है और स्ववशित्व का पालन करता है। तपस्वी उस पर क्रुद्ध होता है कि यह मूर्ख मुझे नमस्कार नहीं करता। मैं कुलवृद्ध और ऐश्वर्यसम्पन्न हूँ। इस प्रकार अहंकार से युक्त वह खेद करता है। घत्ता-ईंधन के लिए कुठार से वृक्ष को फाड़ रहे तापस से हितमित वचनवाले कुमार ने कहा 8. AP वहरि इह पुणरवि संजोइट। (20) 1. AP कंताबिओएण। 2. AP तिच्वं । 3. A महुगार; P वयगारवं। 4. A णायो गाउ। 5. AP 'कम्मेसु । 6. AP "जम्मेसु। 7. AP सत्येहि। 8. AP समु। 9. A समचित्तु। 10. A तउ तथइ तर सुद्धा गउ गवह महमुद्ध। 1. A कुलदुद्छु। 12. AP दोहिति। 1. P इंधणही सित्तु। 14. AP फाडतु। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 04.21.151 [285 महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु (21) भो भो ताबस तरु म हणु म हणु एत्थच्छइ कोडरि णायमिहुणु। ता भणई तवसि किं तुज्झ णाणु किं तुहुं हरि हरु चउवयणु भाणु। इय भणिवि तेण तहिं दिण्णु घाउ संछिण्णउ सहुं णाइणिइ गाउ । जिणवयणे बिहिं मि समाहि जाय को पावइ धम्महु तणिय छाय। जायाई बे वि भवणंतवासि माणिक्ककिरणकब्बुरदिसासि । धरणिंदु देउ पोमावइ ति देवय णामें पच्चक्खकित्ति। जाणियबहुसमयवियारसारु पभणइ सुभउमु गामें कुमारु। भो पासणाह सुरविहियसेव अण्णाणिय तावस होति देव। तुह पडिकूलहं णिप्फलु किलेसु । तु णिसुणिवि गउ णरवइणिवासु। अण्णाणभाउ गाढयरु धरिवि कुच्छियमुणि तेत्यु ससल्लु मरिवि । जायउ जोइससुरु संवरक्खु कमलाणणु वरणवकमलचक्खु । कुंअरसें जायउ' हयमयासु वरिसाई तीस विगयाई तासु। उज्झाणाहें भत्तिल्लएण जयसेणें गुणगणणिल्लएण। घत्ता-तहिं अवसरि तेत्थु सुरगुरुमंतिसरूवउ। पाहुडई लहिवि पेसिउ देवहु दूवउ' ॥21॥ 10 (21) हे हे तापस ! वृक्ष को मत काटो, मत काटो। इसके कोटर में यहाँ नाग का जोड़ा है।" तब वह तापस कहता है-"तुम्हारा क्या ज्ञान ? क्या तू हरि, हर, ब्रह्मा या सूर्य है ?" यह कहकर उसने लकड़ी पर आघात किया। उसके साथ नाग और नागिन कट गये। जिनवर के वचनों से दोनों ने समाधिमरण किया। धर्म की छाया कौन पा सकता है ? वे दोनों, जिसमें माणिक्यों की किरणों से दिशामुख चित्रविचित्र हैं ऐसे, भवनवासी स्वर्ग में उत्पन्न हुए, धरणेन्द्र देव और पद्मावती देवी, जिनके नाम की कीर्ति प्रख्यात है। ज्ञात किया है बहुत से शास्त्रों के विचारसार को जिसने, ऐसा सुभौम नाम का कुमार कहता है-"देवों के द्वारा सेवित हे पार्श्वकुमार देव ! लोग अज्ञान से (बिना जाने-समझे) तापस हो जाते हैं। प्रतिकूल लोगों में तुम्हारा क्लेश व्यर्थ है।" यह सुनकर कुमार नरपति-निवास चले गये। अपने प्रगाढ़तर अज्ञान भाय को धारण करता हुआ वह (तापस) खोटा मुनि हुआ। वहाँ शल्यसहित मरकर, संवर नाम का ज्योतिषदेव हुआ, कमल के समान मुखवाला और श्रेष्ठ नवकमल के समान आँखोंवाला । अहंकार का नाश करनेवाले उन पार्श्वकुमार की कुमारावस्था के तीस वर्ष बीत गये। उस अवसर पर अयोध्या के राजा, गुणगण के घर जयसेन ने भक्तिभाव से घत्ता–बृहस्पति मन्त्री के स्वरूपवाला दूत, उपहार लेकर देव के पास भेजा। (21) I. A'कबरदसासे। 2. AP गावद। 3. AP सुभग 1. A संयतयखु। 5. AP जड़यहूं। 6. AP लएदि। 7. AP दूयऊ। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286] [94.22.1 महाकइपुप्फयंतविरयऊ महापुराणु (22) दूएण भणिउं जय तित्थणाह जय सामिसाल 'वयसलिलवाह। तुह पय पणवइ जयसेणराउ पई जेहउ होतउ भरहताउ। चिरु एवहिं तु जय उग्गवंस धयवडभडवंदियरायहंस। ता पुज्जिवि मंतिवि मुक्कु तुरिउ देवें णियहियवइ चरिउं सरिउं। हउं आसि कालि गयवरू अणज्ज एवहिं जायउ पुज्जहं मि पूज्ज। जिणतवसामत्थें दूसहेण दुज्जयपंचिंदियणिम्महेण। किज्जई तउ सिज्झइ जंण मोक्नु । ससारे ण दीसइ कि पि सोक्खु। इय चिंतवंतु कयभत्तिएहि पडिसंबोहिउ लोयंतिएहिं। पुणु पहाणिउ' पुज्जिउ सयमहेण । धरणें वरुणे ससिणा गहेण । विमलहि सिवियहि आख्दु देउ आसंकिउ हिववइ भयरकेउ। सियपक्खि पूसि एयारसीहि पुबण्हइ पवरुत्तरदिसीहि । थाएप्पिणु णामें10 समुहेण छणयंदरुंदमंडलमुहेण। आसस्थवर्णतरि लइय दिक्ख अट्ठमउववासें परम सिक्ख। पत्ता-ओलवियपाणि जोयायारें तिक्खहि। पइसइ परमेट्ठि गुम्मखेडु पुरु भिक्खहि ॥22॥ ( 22 ) दूत ने कहा- "हे तीर्थनाथ ! आपकी जय हो, व्रतरूपी जल के प्रवाह हे स्वामिश्रेष्ठ ! आपकी जय हो। राजा जयसेन आपके चरणों में प्रणाम करता है। तम्हारे जैसे पहले भरत चाचा थे। इस समय तम हो। हे उग्रवंश ! ध्वजपटों और भटों के द्वारा वन्दित राजश्रेष्ठ आपकी जय हो।" सत्कार कर और मन्त्रणा कर, उन्होंने दूत को तुरन्त मुक्त कर दिया। देव को अपने मन में अपना पूर्वचरित्र स्मरण हो आया। मैं पूर्वभव में एक भयंकर हाथी था। इस समय पूज्यों में पूज्य हो गया हूँ। दुर्जय पाँच इन्द्रियों का नाश करनेवाली असह्य जिनतप की सामर्थ्य से तप किया जाए, जिससे मोक्ष सिद्ध हो। संसार में कोई सुख दिखाई नहीं देता। यह विचार करते हुए भक्ति करनेवाले लौकांतिक देवों ने आकर उन्हें प्रतिसम्बोधित किया। फिर इन्द्र, धरणेन्द्र, वरुण और चन्द्रग्रह ने उनका अभिषेक और पूजा की। देव पवित्र शिविका (पालकी) में बैठ गये। कामदेव अपने मन में आशंकित हो उठा। पूस माह के कृष्णपक्ष की एकादशी के पूर्वार्द्ध में प्रवर उत्तरानक्षत्र में, पूर्णचन्द्र के समान सुन्दरमुखवाले उन्होंने सम्मुख स्थित होकर, अश्ववन के भीतर दीक्षा ग्रहण कर ली और आठ उपवासवाली परम शिक्षा ली। ___घत्ता–योगाकार मुद्रा में हाथ ऊपर किये हुए तीव्र भूख के कारण परमेष्ठी गुल्मखेड़ नगर में प्रवेश करते हैं-भिक्षा के लिए। जय तुएं। 4. A अपुज्जु। 1. A विज्जा तर सिजह । 6. A कयसतिएहि। 7. P हाइउ। 8. (22) 1. AP दयतालल'। 2. A भरहरा। 3. AP अंधारे पूले। 9. A अवरुत्तर। 10. AP णा। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94.23.14] महाकपुप्फयंतविरयउ महापुराणु ( 23 ) कयपंचचोज्जाइ सुद्धाइ 'चज्जाइ छम्मत्थकालेण चत्तारि मासाई दिक्खावणे पावरासीविणासेण' दित्संगसत्तम्मि सत्ताहमेरम्मि जोईसरो सुक्कझाणासिओ जत्थ ता तस्स मरुमग्गमग्गम्भि दुरियल्लि ता तेण रूसेवि सहसा भयंधेण तडिबडणरवफुडियमहिदसदिसासेहिं " णीलेहिं हरगलतमालाहदेहेहिं गयणयलु धरणियलु जलु धलु वि जलभरिउ तहिं बंभराएण' दिण्णाइ भिक्खाइ । गलियाई चित्तंतरुत्तिष्णदोसाई* । जाइवि थिओ सामि अट्ठोववासेण । णवदेवदारुयलि गुरुयरवियारम्मि' । गयागंगणे संवरें जोइयं तत्थ । संचलइ ण विमाणु जिणणाहउवरिल्लि । संभरि चिरजम्मु बइरानुबंचेण" । आहंडलुद्दंडकोदंडभूसेहिं | गज्जतवरिसंतभी मेहिं मेहेहिं । विहडिउ ण पासस्स पिसुणेण थिरु चडिउ | "भंगुरियभालेहिं दाढाकरालेहिं । किलिकिलिकिलतेहिं खयकालवेसेहिं । रिछेहि सरहेहिं सीहेहिं वग्घेहिं । कणएहिं कुतेहिं करवालसूलेहिं" । पुणरवि रिसी रुद्ध मुहघित्तजाले हिं पिंगुद्धकेसेहिं मुक्कट्टहासेहिं” ण णु भणतेहिं वेयाल संघेहिं वावल्लभल्लेहिं झसभिंडिमालेहिं [ 287 5 10 ( 23 ) वहाँ पर ब्रह्मराजा के द्वारा दी गयी भिक्षा से पाँच आश्चर्य प्रकट हुए। फिर, छद्मस्थकाल में उनके चार माह बीत गये और वे अपने मन के दोषों को पार कर गये। फिर, स्वामी दीक्षावन में जाकर पापों का नाश करनेवाले आठ उपवास ग्रहण कर स्थित हो गये। दीप्त अंगोंवाले प्राणियों से युक्त उस वन में सात दिन की मर्यादा लेकर नव देवदार वृक्ष के नीचे, जहाँ वह योगीश्वर गुरुतर विचारवाले शुक्लध्यान में लीन थे, आकाशमार्ग से संवरदेव ने वहीं देखा। तब कठिन आकाशमार्ग में जिननाथ के ऊपर उसका विमान नहीं चला। उस मदान्ध ने सहसा क्रुद्ध होकर पैर के अनुबन्ध से अपने पूर्वजन्म की याद की। उसने, बिजली के गिरने के शब्द से मही तथा दसों दिशाओं को विदीर्ण करनेवाले, इन्द्र के उद्दण्ड धनुषों से भूषित, काले हरकल और तमाल के समान शरीरवाले, गरजने और बरसने के कारण भयंकर मेघों से आकाशतल, धरतीतल सब कुछ जल से भर दिया। लेकिन वह दुष्ट, पार्श्वनाथ का चढ़ा हुआ स्थिर ध्यान खण्डित नहीं कर सका। फिर भी, उसने मुँह से छोड़ी गयी ज्वालाओं तथा दृढ़ कराल भंगुरित भालों, पीले उड़ते हुए केशों, मुक्त अट्टहासों, किलकिल करते हुए क्षयकाल के रूपों, मारो मारो कह रहे बेताल-समूहों, रीछों, शरभों, सिंहों, बाघों, बाबल्ल भालों, झस, भिन्दिमालों, कनकों, कुन्तों, तलवारों, सूलों से मुनि का अवरोध किया। उस दीन-हीन (23) 1. AP सत्याए । 2. AP धण्णरागुण। 9 A "तरुणिगण्णदोसाई 4 A पायरासी । 5. AP जोए थिओ। . A "देवदारुवणे । 7. AP अयरवरम्भिB AP संवरो जाड़ जा तत्य प्र. १ वइराणबंधेण 10. AP कुरिच । Lt. A 'तमालालिदेहेहिं । 12. AP चरित्र 13. AP पुणुरधि । 14. A भंगरच" 15. Pट्टहासह 16. Padds णिम्मंसजंचेहिं after मणतेहिं । 17. AP add after this दिन सप्त उवसग्गु किउ कूरकम्मेण (A कूरकम्पेहिं) । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288] महाकइपुप्फयंतविरपर महापुराणु हीणेण दीणेण विद्धत्यधम्मेण सढकमढदढकढिणभुयदंडतुलिएण 18 थरहरिय महि सयल धरणिंदु णीसरिउ धत्ता - पोमावइयाइ देविइ मणिविष्फुरियउं । ससिबिंबसमाणु कुलिसछत्तु तहु धरियउं ॥23॥ ( 24 ) आऊरिउ देवें सुक्कझाणु संदरिसिउ रिउ सामत्यु भग्गु पढमिल्लमासतमकरणपक्खि' केवलि पुज्जित सुरपुंगमेहिं सम्मन्तु लइउ खलसंवरेण तव्वणवासिहिं संपत्त वत्त दह गणहर सवणसयंभुआइ सिक्खुबह "ससिक्ख णवसयाई घत्ता - केवलिहिं सहासु तेत्तिय देवस्स किं कीरए पाववम्मेण । पुणरवि सिलालेण सेलेण बलिएण " । फणिफणकडप्पेण परमेट्ठि परिवरिउ । उप्पा केवल दिवाणु । दुम्मोहें सहुं णिज्जिउ अणंगु । पडिवयदिणि पवरविसाहरिक्खि । इच्छियमोक्खालय संगमेहिं" । उवसंतें ववगयमच्छरेण । इसि जायडं तवसिहिं सयई सत्त । तिसवई पण्णस जि पुव्ववाइ' । साबहिहिं ताइं चउदह गयाई । विक्किरियायर । [ 94.23.15 भयस्य पण्णास मुणिवर मणपज्जवधर ॥24॥ 15 20 5 HP सटकमठ | 19. AP चलिएण । ( 24 ) 1. AP पढमिले मासे 2. AP चउत्पए दिणे 3. 4 सीखालय 4. P पुव्यह। 5. AP दससहसई जवसयाई। 6. 4 सवाई। 10 विध्वस्तधर्म, पापकर्मी के द्वारा देव का क्या बिगाड़ किया जा सकता है ? फिर भी, धूर्त कमठ के दृढ़ और कठोर भुजदण्ड के द्वारा उठाये गये शिलातल और झुके हुए सैल (पर्वत) से सारी धरती काँप उठी । धरणेन्द्र बाहर निकल आया। उसने फनों के समूह से परमेष्ठी को आच्छादित कर लिया। घत्ता और पद्मावती देवी ने मणियों से चमकता हुआ चन्द्रबिम्ब के समान वज्रछत्र उनके ऊपर रख दिया । ( 24 ) देव ने शुक्ल ध्यान पूरा किया। उन्हें दिव्यज्ञान केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । शत्रु दिखाई दे गया, उसकी सामर्थ्य नष्ट हो गयी । दुर्मोह के साथ कामदेव जीत लिया गया । चैत्र माह के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा के दिन प्रवर विशाखा नक्षत्र में, मोक्षालय के संगम की इच्छा रखनेवाले सुरश्रेष्ठों ने केवली की पूजा की। दुष्ट संबर ने भी सम्यक्त्व ग्रहण किया-उपशान्त और ईर्ष्या से रहित होकर उस वन में निवास करनेवाले सात सौ मुनियों तक यह वार्ता पहुँची। वे भी जैन मुनि हो गये । श्रमण स्वयम्भू आदि उनके दस गणधर थे। पूर्ववादी मुनि साढ़े तीन सौ थे। शशि आदि शिक्षक मुनि नौ सौ अवधिज्ञानी चौदह सौ थे । घत्ता - केवलज्ञानी एक हजार, और एक हजार ही विक्रिया ऋद्धि के धारक तथा साढ़े सात सौ मन:पर्ययज्ञान के धारी मुनि थे । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94.25.10] महाकइपुष्फयतविरवड महापुरागु [289 (25) वसुसयई' विविहवाईसराहं छत्तीससहास अज्जियवराह । सावयह एक्कु लक्खु जि भणंति सावइयह तिणि ति परिगति। कयणिच्चमेव जिणरायसेंर्व ___ संखापरिवज्जिय विविह देव।। संखेज्ज तिरिक्ख ण का बि 'मंति परमेटिहि अणुदिणु पय णवति। वयमासविमुक्कई भूयथत्ति बिहरिवि सत्तरि वरिसई धरित्ति। संमेयसिहरि पडिमाइ थक्कु णं उययइरिहि उग्गमिउ अक्कु । पहु एक्कु" मासु विण्णायणेउ छत्तीसहिं जोईसहिं समेछ। 'सावणसत्तमिदिणिकालवक्खि गउ मोक्खहु पासु बिसाहरिक्खि । अग्गिदहिं बंदिउ यंदणिज्जु देविंदहिं पुज्जिउ पुज्जणिज्जु। घत्ता-महुँ देउ समाहि भरहलोयसंबोहण । जोइससुरणाहपुप्फयंतदिउ" जिणु ॥25॥ 10 श्य महापुराणे तिसद्विमहापुरिसगुणालंकारे महाभय्यभरहाणुमण्णिए महाकहपुष्पयंसविराए महाकण्ये पासणाहणिबाणगमणं णाम चउणउविमो" परिच्छेउ समती 19411 (25) विविध वागीश्वर आठ सौ, श्रेष्ठ आर्यिकाएँ छसीस हजार और श्रावक एक लाख कहे जाते हैं, श्राविकाएँ तीन लाख गिनी जाती हैं। जिन्होंने नित्य जिनराज की सेवा की है, ऐसे विविध देव संख्याविहीन हैं। तिर्यंच संख्यात हैं, इसमें कोई भ्रान्ति नहीं है, जो प्रतिदिन भगवान् के चरणों में प्रणाम करते हैं। वय और मास से रहित सत्तर वर्ष तक प्राणियों को स्थिरता से युक्त धरती पर विहार कर वह सम्मेद शिखर पर प्रतिमायोग में स्थित हो गये, मानो उदयाचल पर सूर्य उग आया हो। एक माह में जिन्होंने ज्ञेच ज्ञात कर लिया है, ऐसे प्रभु छत्तीस मुनियों के साथ, श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन विशाखा नक्षत्र में मोक्ष चले गये। अग्नीन्द्रों ने बन्दनीय की वन्दना की और देवेन्द्रों ने पूज्यनीय की पूजी की। घता-भरतलोक को सम्बोधन करनेवाले हे देव ! मुझे समाधि दो। ज्योतिषेन्द्रों और नक्षत्रों के द्वारा (महाकवि) पुष्पदन्त से वन्दित है-जिनदेव । त्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त इस महापुराण में महाभव्य भरत द्वारा अनुमत एवं महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित महाकाव्य का पार्श्वनाथ निर्वाणगमन माम का चौरानयेवा परिच्छेद समाप्त हुआ। (25) I. A सघई, 2. AP सोलह सहास इय जयवराह। ३. P add after this : छत्तीस सहासई अग्जियाहं. वयसीलजुत्तजयघुजियाह। 4. A साथिबह 7 सावहिं । 5. AP वरिसह। 6. AP एक्कु जि मासु चि गांधणेउ । 7. AP साथणे सत्तमंदिणे। 8. A सेपपिक्खि । 9. Pudis arter this : दवा पजग्गहि कायपुंजु, मुणिणाहई सुमरिंउ सुमरणिज्जु। 10. A “बदिय । 11. AP चउणयदिपो। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 J महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु पंचणवदिम संधि विद्धसियरइवइ सुरवइणरवइफणिवइपयडियसासणु' । पणवेष्पिणु सम्म जिंदिवदुम्मई' णिम्मलमग्गययासणु ॥ ध्रुवकं ॥ ( 1 ) विणासो भवाणं दिणेसो तमाणं खयग्गीणिहाणं थिरो मुक्कमाण अणं ही समेणं वरायं चलं दुब्विणीयं मियं णाणमगं सया णिक्कसाओ मणे संभवाणं । पहू उत्तमाणं । तवाणं णिहाणं । वसी जो समाणो । सुरणं सुहीणं । पमत्त सरायं । जयं जेण णीयं । कयं सासमग्गं । सवा गिव्विसाओ । [95.1.1 (1) 1. पडे। 2. AP दिणिहददुष्मद् । सतं । 10 पंचानवेव सन्धि जिन्होंने कामदेव को ध्वस्त कर दिया है, सुरपतियों, नरपतियों और नागपतियों द्वारा जिनका शासन मान्य हैं, ऐसे दुर्मति की निन्दा करनेवाले और निर्मल मार्ग का प्रकाशन करनेवाले सन्मति (वर्द्धमान) स्वामी को प्रणाम कर, ( 1 ) जो जन्मों का नाश करनेवाले हैं, जो मन में उत्पन्न होनेवाले अन्धकार के लिए सूर्य हैं, जो उत्तम लोगों के स्वामी हैं, जो कालाग्नि के समान तपों की निधि हैं, जो स्थिर, मान से रहित, स्वाधीन और समदृष्टि हैं, जिन्होंने शत्रुओं, सुहृदों (मित्रों) तथा अत्यन्त सम्पन्नों और अत्यन्त हीनों के श्रम से दीन, प्रमत्त, सरागी, चंचल और उद्दण्ड जग का नेतृत्व किया है, जिन्होंने अपने ज्ञान-मार्ग को समृद्ध बनाया है, जो सदा कषाय 5 All Mss have at the beginning of this Samdhi, the following starizu : लागोस् करोति याचक्रपन्नस्तृष्ण एकुरोच्छेदनं कीर्तिर्यस्य मनीषिणां वितनुते रोमाचचचं वपुः । सौजन्यं सुजनेषु यस्य कुरुते प्रेोत्तरां निर्वृति भरतप्रभुर्वत भवेत्कामिनियं सूक्तिभिः ॥ Protus] नसृष्टाः रुच्छेदनं in the dinst fine, A reads चयें lor in the secund line: A reads प्रेम्णान्तरं in the third line, A reals क्याभिर्निरां सूक्तिभि and Preads कामां दिशं सूक्तिभिः in the last line K has gloss on काभिः as अपि तु न कार्यिः श्लाघ्यः । For details see Introduction Dr Vol Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 95.2.4 J | महाकइपुप्फयंतविरवर महापुराणु सया णिप्पसाओ सया संपसण्णो पहाणी गणाणं पण पेम्मे सिणो तमीसं जईणं दमाणं जाणं उहाणं रमाणं 4. A नियमाओ। 5. A पहाणं दयावहुमाणं सिरेण णमामो पुणो तस्स दिव्वं गणेसेहिं दिट्ठ वियसियसरसकुसुमरयधूसरि णिज्झरजलवहपूरियकंदरि केसरिकररुहदारियमयगलि हिंडिरकत्थूरियमयपरिमलि ( 2 ) 1. AP परिमुक्कमलकमल सया चत्तमाओ । सया जो विसण्णो । सुदिव्वंगणाणं । महवीरसण्णो । जए संजईणं । खमासंजमाणं । पबुद्धत्थमाणं । जिणं वडमाणं । चरितं भणामो । णिसामेह कव्वं । मए किंपि सिद्धं । धत्ता - पायडरविदीवर जंबूदीवइ पुव्वविदेहइ मणहरि । सीवहि उत्तरयति पविमलसरजलि' युक्ख़लवइदेसंतरि ॥1॥ (2) 'पविमलमुक्ककमलछाइयसरि । किंणरकरवीणारवसुंदरि । गिरिगुहणिहिणिहित्तमुत्ताहलि । 'कुररकीरकलयंठीकलयति । [ 291 और सदा विषाद से रहित हैं, सदा प्रसाद से रहित हैं, सदा माया का त्याग करनेवाले हैं, सदा प्रसन्न हैं और संज्ञाओं से शून्य हैं; जो गणधरों के प्रधान हैं, जो दिव्यांगनाओं के प्रेम में अनासक्त हैं, जिनका नाम महावीर है, जो जग में सम्यक् विजेता, यति, दम संयम और क्षमाशील, अभ्युदय, निःश्रेयसरूपी लक्ष्मी के i स्वामी हैं, जो जीवादि पदार्थों के ज्ञाता हैं, जिनमें दया बढ़ रही है, ऐसे वर्धमान जिनेन्द्र को मैं सिर से प्रणाम करता हूँ और फिर उनका दिव्य चरित कहता हूँ। इस काव्य को सुनो, जिसे गणधर ने देखा है और जिसका कुछ कथन मैंने किया है। घत्ता - जिसमें सूर्यरूपी दीप प्रकट है, ऐसे जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में सीता नदी के उत्तर तट पर स्वच्छ सरोवरों के जलवाले पुष्कलावती देश में 15 20 2) जी विकसित सरसकुसुमों की रज से धूसरित है, जहाँ सरोबर विमल और विकसित कमलों से आच्छादित हैं, कन्दराएँ झरनों के जल-प्रवाह से भरी हुई हैं, जो किन्नरों के वीणारव से सुन्दर हैं, जिसमें सिंहों के नखों गज फाड़ डाले गये हैं, जिनमें गिरिगुफा रूपी निधि में मोती रखे हुए हैं, जहाँ घूमते हुए कस्तूरीमृगों पुबुद्ध ं । 7 A दरजति । । 2. AP "गुहमुहणिहित्त । 3. A कत्थूरीमय 14. A कीरकुरर Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292 | महाकइयुप्फयंतविरयउ महापुराणु महुयरपियमणहरि महुयरवणि । होत आति पूरउ णामें । कालिसवरिआलिंगियविग्गहु | सावरसेणु णामु जइपुंगमु । जाव ण मग्गणु कह' व ण वित्तउ । सिसुकरिदंतखंडकयकण्ण 1 गयमयणीलइ" तरुपत्ताई णियत्थइ । पंकयणेत्तर पलफलपिढरविहत्थइ" ॥2॥ (3) परिओसियविलसियवणयरगणि सवरु सुदूसिउ दुष्परिणामें चंडकंडकोबंडपरिग्गहु" अइपरिरक्खिवथावरजंगमु विधहुं तेण तेत्थु आदत्तउ ताम तमालणीलमणिवण्णइ पत्ता- तणविरइयकीत वेल्ली डित्तइ भणिउ पुलिंदियाह मा घायहि मिगु ण होइ बुहु देवु भडारउ तं णिसुणिवि भुयदंडविहूसणु पणचि मुणिवरिंदु समावें भो भो धम्मबुद्धि तुह होज्जउ हा हे मूढ ण किंपि विवेयहि । इहु पणविज्जs लोयपियारउ । मुक्कु पुलिदें महिहि सरासणु । तेणाभासिउं णासियपावें । बोहि समाहि सुद्धि संपज्जउ । [ 95.2.5 5 10 5 का परिमल है, जिसमें क्रौंच पक्षी, तोतों और कोयलों का कलकल शब्द हो रहा है, जिसमें वनचर समूह परितोषित और विलसित है, जो भ्रमरों के लिए प्रिय और मनोहर है, ऐसे मधुकर वन में पुरुरवा नाम का दुष्परिणाम से दूषित एक भील था। उसके पास प्रचण्ड तीर और धनुष का परिग्रह था । उसका शरीर काली नाम की भीलनी से आलिंगित रहता था। स्थावर और जंगम जीवों की अत्यन्त सावधानी से रक्षा करनेवाले सागरसेन नाम के मुनिश्रेष्ठ को जैसे ही उसने वेधना शुरू किया, और जब तक उसने किसी प्रकार तीर छोड़ा भर नहीं था तब तक तमाल और नीलमणि के समान रंगवाली, शिशुगजों के दन्तखण्डों को अपने कानों में पहिने हुए, पत्ता - तिनकों से खेलनेवाली, गजमद के समान श्यामदेह, तरुपत्रों को धारण किये हुए, लता के कटिसूत्रों वाली, कमलनयनी, मांस और फलों का पात्र हाथ में लिये हुए, ( 3 ) उस भीलनी ने कहा- "मत मारो, हाय हे मुर्ख ! तुझे कुछ भी विवेक नहीं है। वह मृग नहीं, आदरणीय विज्ञानमुनि हैं। लोक के लिए प्यारे इन्हें प्रणाम करना चाहिए ।" यह सुनकर भील ने अपने भुजदण्ड का विभूषण वह धनुष धरती पर फेंक दिया। सद्भाव से मुनि को प्रणाम किया। नाश कर दिया है पाप को जिन्होंने ऐसे उन सुनि ने कहा- "अरे अरे ! तुम्हारी धर्मबुद्धि हो। तुम्हें बोधि, समाधि और सिद्धि प्राप्त 17. APP [क9ि. AP APP नवलयए 11 नवलपिडर' । (3) APF 5.3. AP 13. A Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 95.4.7] महाकइपुप्फयंतविरवउ मरम्परा [ 293 जीव म हिंसहि अलिउ म बोल्लहि करयलु परहणि कहिँ मि म घल्लाह। पररमणिहि मुहकमलु म जोयहि थणमंडलि करपत्तु म ढोयहि । को वि म जिंदहि दूसिउ दोसें संगपमाणु करहि संतोसें। पंचुंबरमहुपाणणिवायणु' रयणीभोयणु दुक्खहं भायणु। वाह विवज्जहि मणि पडिवज्जहि णिच्चमेव जिणु भत्तिइ पुज्जहि । तं णिसुणेवि मणुयगुणणासहं लइय णिवित्ति तेण महुमासहं । घत्ता-हुल जीवदयावरु सवरु णिरक्खरु लग्गउ जिणवरधम्मइ। मुउ कालें जंतें गिलिउ कयंतें उप्पण्णउ सोहम्मइ |3| तेत्थु सु दिव्य भोय भुजेप्पिणु एत्थु विजलि भारहवरिसंतरि णंदणवणवरहीरवरम्महि कणयविणिम्मियमणिमयहम्महि सुरतरुपल्लवतोरणदारहि धूवधूमकजलियगवक्खहि उज्झाणयारहि पर्यायसुरवा एक्कु समुद्दोवमु जीवेप्पिण। कोसलविसइ सुसासणिरतरि। 'परिहासलिलवलयअविगम्महि । णायरणरविरइयसुहकम्महि । वण्णविचित्तसत्तपायारहि। 'भूमिभायरंजियसहसक्खहि। · होतउ रिसहणाहु चिरु गरवइ । हो । जीव की हिंसा मत करो, झूठ मत बोलो, दूसरे के धन पर कभी भी अपनी हथेली मत लगाओ, परस्त्री का मुखकमल कभी मत देखो और न ही स्तनमण्डल पर हाथ ले जाओ। दोष से दूषित किसी की भी निन्दा मत करो। सन्तोष से संग्रह का परिमाण करो। पाँच उदुम्बर फल और मधुपान का त्याग करो। रात्रि-भोजन दुःख का भाजन है। हे व्याध ! उसे छोड़ो, मन में यह स्वीकार करो। तुम नित्य जिन (भगवान्) की भक्ति से पूजा करो।" यह सुनकर उस भील ने मनुष्य के गुणों का नाश करनेवाले मधु-मांस से निवृत्ति ले ली। घत्ता-वह भील जीवदयावर हो गया। वह निरक्षर भील जिनधर्म में लग गया। समय आने पर यम के दारा निगला गया, मर गया और सीधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। वहाँ दिव्य भोग भोगकर, एक सागर प्रमाण जीवित रहकर, विशाल भारतवर्ष के भीतर निरन्तर सुशासनवाले कोशल देश में, अयोध्या नगरी में, जो नन्दनवन और कोयल के शब्दों से सुरम्य, परिखा के सलिलवलय से अगम्य, स्वर्णनिर्मित एवं मणिमय प्रासादों और शुभकर्म करनेवाले नागरनरों से युक्त, कल्पवृक्ष के पल्लव तोरण-द्धारों और रंगों से विचित्र सात प्राकारोंवाली, धूप के धुएँ से हुए काले गवाक्षों से युक्त और भूमिभागों से इन्द्र को रंजित करनेवाली है, प्रथम इन्द्र के द्वारा प्रवर्तित उस नगरी में ऋषभनाथ राजा हुए थे, जो प्रबिमल 1. A "पाणपलासणु। (4) 1. AP "वरिहीरव। 2. AP-वलयसलिल । 3. AP घणयः। 4. AP भोभोवांजिय। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294 | महाकाइपुष्फयतविरयत महापुराणु [95.4.8 पविमलणाणधारि ममकरु .. पढमारिदु गदगतिशंकर ! आइबंभु महएषु महामहु भुवणत्तयगुरु पुण्णमणोरहु। तहु पहिलारउ सुउ भरहेसरु जो छक्खंडधरणि 10 मागहु वरतणु जेण पहासु वि जित्तउ सुरु वेयडणिवासु वि। विज्जाहरवइ भयकंपाविय णमि विणभीस वि सेव कराविय। घत्ता--जो सिसुहरिणच्छिइ सेविउ लच्छिइ गंगइ सिंधुइ सिंचिउ । णवकमलदलक्खहिं उबवणजक्खहिं णाणाकुसुमहिं अंचिउ ॥4॥ ता' कंकेल्लीदलकोमलकर वीणाहसवंसकोइलसर। तासु देवि उत्तुंगपयोहर णाम अणंतमइ ति मणोहर। सो सुरसुंदरिचालियचामरु ताहि गभि जायउ सबरामरु। सुउ णामें मरीइ विक्खायउ बहुलक्खणसमलंकियकायउ। देवदेउ अच्वंतविवेइउ णीलंजसमरणे उव्येइउ। चरणकमलजुयणमियाहंडलु दिक्खंकिङ मेल्लिवि महिमंडलु । हरिकुरुकुलकच्छाइणरिंदहिं समउं णमंसिउ इंदपडिदहिं। झाणालीणु पियामहु जइयहुं त्तिउ जई' पावइयउ तइयहुं। ज्ञानधारी, पुण्य और सुख के विधाता प्रथम नरेन्द्र, प्रथम तीर्थंकर, आदि ब्रह्मा, महादेव, महामह, भुवनत्रय के गुरु और पूर्ण मनोरथ थे। भरतेश्वर उनका पहला पुत्र था जो छहखण्ड धरती का परमेश्वर था, जिसने मागध, वरतनु और प्रभास को जीता था और विजया निवासी देव को भी। विद्याधर राजा नमि और विनमि भी जिसके भय से काँप उठे थे और जिसने उनसे सेवा करवायी थी। धत्ता--जो मृगशायक की आँखोंवाली लक्ष्मी के द्वारा सेवित एवं गंगा और सिन्धु नदियों द्वारा सिंचित तथा नवकमल दल की आँखोवाले उपवन-यक्षों और नाना कुसुमों से अंचित था। अशोक वृक्ष के पत्तों के समान कोमल हाथों तथा वीणा, हंस, वंश और कोयल के समान स्वरवाली, उसकी तुंगपयोधरोंवाली अनन्तमती नाम की सुन्दर देवी थी। जिसे सुर-सुन्दरियों द्वारा चमर दुराया जा रहा था, ऐसा वह शबरामर उसके गर्भ से मारीच नाम का विख्यात पुत्र हुआ। उसका शरीर अनेक लक्षणों से समलंकृत था। अत्यन्त विवेकशील देवदेव ऋषभ नीलंजसा की मृत्यु से विरक्त हो गये। जिनके दोनों चरणकमलों को इन्द्र प्रणाम करता है, उन्होंने महीमण्डल को छोड़कर दीक्षा ले ली। हरिकुल, कुरुकुल और कच्छ आदि प्रान्तों के नरेन्द्रों के साथ इन्द्र-प्रतीन्द्रों के द्वारा प्रणम्य पितामह (ऋषभ) जब ध्यानलीन थे, तब नाती मारीच 5. AP सहकरु । 6. A सुरवेयड्छ । . A विणमास रोय काराविय। (5) 1. AP थरकंकमी । 2. AP णिब्बेइट। 3. AP जडु। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 95.6.6] महाकरपुप्फवंतविस्यउ महापुराणु [ 295 'सुधारिसम-हासवसागर भग्ग णराहिव राहु वि भग्गउ । सरवरसलिलु पिएव्वइ लग्गउ भुक्खइ भज्जइ लज्जइ णग्गउ । वक्कलु पहिरइ तरुहल भक्खइ । मिच्छाइट्टि असच्चु णिरिक्खइ। अण्णाणिउ णउ काई मि जाणइ पंचवीस तच्चई वक्खाणइ। कव्यु संखसासणु तें दिट्ठ कविलाइहिं सीसह उवइट्ठउं। परिवाइयतावसह पहिल्लउ मुउ तिदंडि मिच्छामणसल्लउ। पत्ता-कयतियसवियप्पइ पंचमकप्पइ कुडिलधम्मु णं पाउसु । उप्पण्णउ बंभइ दुक्खणिसुभइ दहसमुद्ददीहाउसु ॥5॥ कविलहु विप्पहु कोसलपुरवरि जण्णसेणबंभणिज्यरंतरि। बंभामरु णरजम्महु आयउ जडिलु णाम दियवरु संजायउ । तिव्वे पुवब्मासे भाविउ कम्में भयवदिक्ख पुणु पाविउ। धरइ तिदंड तिदंड ण पहणइ परमागमविहि कि पि वि ण गणइ। अंगई धुवइ धुयई णउ दुग्गइ सोत्तई छिवइ छिवइ णउ सुहमइ। मिच्छारसचिक्खिल्लें चिड्डइ हरि हरि' घोसइ जड्ड जलि बुड्डइ । यति के रूप में प्रद्रजित हो गया। ऋषभ के समान कठोर महातप में लगे हुए दूसरे राजा विचलित हो गये, यह भी विचलित हो गया। सरोवर का पानी पीने लगता है, भूख से भग्न होता है और नग्न रहने में लजाने लगता है। वह वल्कल पहिनता है, तरुफल खाता है। मिथ्यादृष्टि वह असत्य को देखता है। अज्ञानी वह कुछ भी नहीं जानता। फिर, पच्चीस तत्त्वों की व्याख्या करता है। कपिल आदि के द्वारा शिष्यों के लिए उपदिष्ट सांख्यदर्शन के शास्त्र को देख लेता है। परिव्राजक तपस्वियों में पहला, मन की मिथ्याशल्यवाला वह त्रिदण्डी मर गया। घत्ता–किया गया है देव होने का विकल्प जिसमें, ऐसे पाँचवें स्वर्ग में वह उत्पन्न हुआ, मानो कुटिलधर्म (वक्रधर्म, वक्रधनुष) वर्षाकाल हो। कोशलपुरवर में कपिल ब्राह्मण की यज्ञसेना ब्राह्मणी के उदर के भीतर ब्राह्मण-अमर मनुष्य जन्म के लिए आया और जटिल नाम का द्विजवर हुआ। अपने तीव्र पूर्वाभ्यास और कर्म से उसने भागवत दीक्षा पुनः ले ली। वह त्रिदण्ड धारण करता है, परन्तु तीन शल्यों (त्रिदण्ड) को नहीं मारता। परमागम विधि को वह कुछ भी नहीं गिनता। वह अंगों को धोता है, परन्तु दुर्गति को नहीं धोता। कानों को छूता है, परन्तु शुभमति को नहीं छूता। वह मिथ्यात्य के रस की कीचड़ मलता है, हरि-हरि घोषित करता है और मूर्ख वह पानी 4. A उद्धररिसह" | 5. AP सरवरे सलिलु । 5. AP सिवा । 7. A सीसः P सीसहि। 8. AP परिवाअयतययरह। 9. P तिडि। 10. A दह । (6) 1, तित्य वि पुवाम्भासें तिव्य पुष्वाभासें । 2. P omits धुयइ। 3. AP चिक्खालें। 4. A बुझाइ। 5. A हरु। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296 1 महाकपुष्पमंतविरयउ महापुराणुं हिंगणा विउ । पुणरवि खक्कालेण नियच्छिउ । थूणायार' गामि पसिद्धइ । पुष्पदंतकंत पइभत्तइ । समाउ भणियउ । लग्ग पुणरवि चिरभवचरियहु । गणउ ण होइ सुतच्चविही " णउ | बंभणु अक्खसुत्तणा' गाणविहीणउ घत्ता - जीवदयाहीणहं भक्खियमीणहं जइ सिहाइ सुज्झइ त । तो 12 किं मंडियसर जुइजियससहर 3 बय पाति मा कित्तणु ॥७॥ (7) मुउ सोहम्मि देउ संभूय सायरसरिसु एक्कु तहिं अच्छिउ इह भारहवरिसंतरि गिद्ध भारद्दायदियाहियरत्तइ पूसमित्तु णामें सुउ जणियउ "मिलियालीपभसणवित्थरियहु दब्भु देइ जइ गइ' परमत्यें कण्हाइणु हरिणेण वि धरियउं तंबयभाव अंबे सुझाइ डज्झउ जणु विणडिउ अण्णाणें पढमसग्गि सुरवरु होएप्पिणु पुणु पसरियससिसूरपहावहि तो सिउ पावेव पसुत्थें । तं तहु किं ण हरइ दुच्चरियउं । अं पविण भइ समुज्झइ । तउ घरंतु सो मुक्कउ पाणें । एक्कु ओहिमाणु विसेष्पिणु ! णयरिहि सेइयाहि इह भारहि । | 95.6.7 10 15 5 है में डूबता । मरकर वह सौधर्म्य स्वर्ग में देव हुआ। उसके अनुपम रूप का क्या वर्णन किया जाये ? एक सागरपर्यन्त बराबर वह वहाँ रहा, फिर वह क्षयकाल के द्वारा देखा गया अर्थात् मर गया। इस भारतवर्ष में स्थूणागार नाम का सरस और प्रसिद्ध गाँव है। उसमें भारद्वाज ब्राह्मण में अत्यन्त अनुरक्त और पतिभक्त पुष्पदन्त कान्ता ने पुष्यमित्र नाम के पुत्र को जन्म दिया। उस ब्राह्मण को ब्रह्मा के समान कहा गया। जिसमें असत्य भाषणों का विस्तार है, ऐसे अपने पूर्वभव के चरित्रों में वह फिर से लग गया। वह ज्ञान से रहित है। घत्ता - जीव दया से रहित, मछली खानेवालों का यदि जल शरीर शुद्ध होता है, तो सरोवर की शोभा बढ़ानेवाले और अपनी कान्ति से चन्द्रमा को जीतनेवाले बगुले मुक्ति क्यों नहीं पाते ? (7) दूब यदि वास्तव में मुक्ति देती है, तो पशुसमूह को मुक्ति मिलनी चाहिए। कृष्णाजिन (मृगचम) मृग भी धारण करता है, वह उसके दुश्चरित को दूर कयों नहीं करता ? अम्ल से ताम्रपात्र शुद्ध होता है, लेकिन अम्ल पवित्र नहीं होता, इसलिए उसे छोड़ देते हैं। अज्ञान से प्रतारित और दग्ध उसने तप करते हुए प्राण छोड़ दिये और प्रथम स्वर्ग में देव होकर एक सागरपर्यन्त वहाँ रहकर, फिर जिसमें चन्द्रमा और सूर्य के प्रभाव हैं, ऐसे भारत की श्वेताविका नगरी में अग्निभूत ब्राह्मण की भार्या गौतमी से, जो मध्यभाग में दुबली-पतली h. AP सो हूयउ। 7. A धूगायर 8 मिलियालिचयसेण दित्थरियहो; P मिलियालियवसाणवित्यरियहो । 9. AP चिरु भव' | 10.4 अक्खसुत्तकर गाणविणः ।" अक्खतु णाणेण विहीर 11 A सुतच्चपवीण सुतष्यपयाग। 12 [ ता 13. A जहजिय । (7) 1. AP सुहुं। 2. AP जडु। 5. A विणडइ । 4. 4 सेरियाहि । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 95.8.11] महाकमुप्फयंतविरयउ महापुराणु अग्भूिइमहिदेव रामहि तु "अग्गसहु देउ' विsविवि घत्ता - हिमकंपियकाय पहाउ वरायउ म्हंतु वि सासयठाणहु । हिंसाविहि मण्णs जिणु अवगण्णइ जाइ केव णिव्वाणहु ॥ 7 ॥ ( 8 ) मुउ भाभारजित्तससिमालइ सत्तसमुद्दई तहिं णंदेष्पिणु उत्थाउ पुणु वि मंदरपुरि गोत्तमभट्ट कोसिया गेहिणि अग्निमित्तु मित्त व तेइल्लउ कुमइ कुबुद्धिवंत उप्पायइ अंबरु दइवणिओएं आइउ जीव भाव दुक्क झीण दूसहेण तवचरणें सुरहरघरकीलियतियसिंद" पुणु वि पुव्यपुरवरि सुहभायणु गोत्तमणामहि मज्झे खामहि । थिउ परिवायवित्ति अवलंबवि । 5. A एवडे । 6. AP अग्गितिहु 1 A देहु । B ( 8 ) 1. A हूयउ। 2. AP "समूहसमहं गदिष्पिणु * सहभायण हुयउ' सणक्कुमारसग्गालइ । मिच्छाइडिउ हरि वंदेप्पिणु । गणगणविलग्गपंडुरधरि * 1 मंथरगइ णं सुरजलवाहिणि । तहि सुउ हुउ सो सोत्तिउ भल्लउ । जलु थलु सव्यु णिच्चु णिज्झायइ । किं कासायउ हणइ कसायउ । मणमलु जलु किं धोयहुं सक्कइ । मुयउ बालु पुणु बालयमरणें । उप्पण्णउ जाइवि माहिंद' | सुत्तकंठु सिरिसालंकायणु । 1 297 10 5 10 थी, अग्निसह नाम का पुत्र हुआ। वहाँ भी शरीर को मण्डित कर परिव्राजक वृत्ति धारण कर रहने लगा । यत्ता - वह हिंसा विधि को मानता है, जिन ( जिनेन्द्र देव ) की अवगणना (निरादर ) करता कम्पित-शरीर वह बेचारा नहाते हुए शाश्वत स्थान मोक्ष को कैसे पा सकता है ? | हिम से मरकर वह जिसने अपनी प्रभा भार से चन्द्रमाला को जीत लिया है, ऐसे सनत्कुमार स्वर्ग में देव उत्पन्न हुआ। वहाँ सात सागरपर्यन्त आनन्द कर, मिथ्यादृष्टि बह, हरि की चन्दना कर, वहाँ से च्युत होकर पुनः आकाश के आँगन को छूनेवाले धवल गृहों से युक्त मन्दरपुर में गौतम ब्राह्मण की कौशिकी ब्राह्मणी से, मन्थरगामिनी जो मानो गंगा नदी थी, अग्निमित्र नाम से पुत्र उत्पन्न हुआ-सूर्य के समान तेजस्वी और एक भले ब्राह्मण रूप में। लेकिन कुबुद्धि कुपण्डितों को जन्म देती है। वह जल-थल सबको नित्य समझता है । वस्त्र कर्मविशेष से उत्पन्न होता है, क्या गेरुआ होने से वह (काषाय वस्त्र ) कषाय नष्ट कर देता है ? भावों से युक्त जीव को मनोमल लगता है, क्या उसे जल धो सकता है ? दुस्सह तप से अत्यन्त क्षीण वह मूर्ख फिर मर गया और बालमरण से जहाँ देवविमानों में देवेन्द्र क्रीड़ा करते हैं, ऐसे माहेन्द्र स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। फिर, अपने उसी पुराने मन्दर नगर में शालंकायन नामक ब्राह्मण की मन्दगामिनी पत्नी से, A णवरु वि सासव' १५. A केम जाइ। AP गणविलग्ग" । 4. AP विठु । 5. A मणमलु किं जडु G. A वकीलय" । 7. ए महिंदए । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298 ] महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [95.8.12 मंदर घरिणि मंदगइगामिणि रूवें णाइ पुरंदरकामिणि। ताहि सणउ हुउ भारद्दायउ णामें पुणु जायउ परिवायउ। पुणु वि सग्गि पुणु णयरतिरिक्वहिं हुउ चउरासीजोणीलक्खहिं। घत्ता-बहुदुरियमहल्लें मिच्छासल्लें विविहदेहसंघारइ। भरहेसरणदणु संसयहयमणु चिरु हिंडिवि संसारइ ॥8॥ 15 5 मगहएसि रायालइ पुरवरि पारासरहि पुत्तु हुउ थावरु अमरणमंसियइंदपडिदइ पुणु पुव्वुत्तदेसि तहिं पट्टणि विस्सविसाहभूइ सुसहोयर जइणीलक्सपार घरपरिगिर दोहिं मि जाया णवपंकयमुह जो जेटूह जायउ सो थावरु ता सो विस्सभूइदिहि इच्छिवि सिरिहरगुरुहि पासि गइ सिक्खिउ पुणु संडिल्ल विप्पहु घरि। परिसेसेप्पिणु णियसणु थावरु । जाउ तिदंडि मरिवि माहिंदइ । णाणाविहववहारपट्टणि। चिण्णि विणं हलहर दामोयर। वोह मि लाइ कारदहं करिणिउ। विस्सविसाहणंदि वर तणुरुह। माहिदहु आयउ पवरामरु। सारयघणु णासंतउ पेच्छिवि। रायहं तिहिं सरहिं सहुँ दिक्खिउ। 10 जो मानो इन्द्र की इन्द्राणी थी, भारद्वाज नाम के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। वह पुनः परिव्राजक हो गया। फिर स्वर्ग गया। इस प्रकार नरक, तिर्यंच आदि चौरासी लाख योनियों में उत्पन्न हुआ। पत्ता-संशय से आहत-मन, भरतेश्वर का पुत्र मारीच, अनेक पापों से भारी मिथ्यात्व शल्य से, विविध रूपों को धारण करनेवाले संसार में भटकता रहता है। (9) फिर मगध देश की राजगृह नामक महानगरी में शाण्डिल्य नामक ब्राह्मण के घर में पाराशरी ब्राह्मणी का स्थावर नाम का पुत्र हुआ। वस्त्र और गृहादि का त्यागकर वह त्रिदण्डी मरकर, देवों के द्वारा प्रणम्य इन्द्र-प्रतीन्द्रों से युक्त माहेन्द्र स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। फिर, उसी मगध देश के नाना व्यवहारों के प्रवर्तनवाले राजगृह नगर में विश्वभूति और विशाखभूति दो सगे भाई हुए। दोनों ही मानो दामोदर और हलधर (नारायण और बलभद्र) थे। दोनों की गृहिणियाँ जैनी लक्षणों से युक्त थीं, जो मानो दो गजेन्द्रों की दो हथिनियाँ हों। दोनों से नवकमल के समान मुखवाले विशाखनन्दी और विशाखभूति पुत्र हुए। उनमें जो जेठा था, वह स्थावर था, जो माहेन्द्र स्वर्ग से आया हुआ देवप्रवर था। एक दिन विश्वभूति शरदकाल के मेघ को नष्ट होते हुए देखकर, अपने भाग्य को चाहकर श्रीधर गुरु के पास गति (मोक्ष, संन्यास गति) की शिक्षा लेकर उन सैकड़ों Y.AP नहे तणुहु। (७) 1. A आयरु। 2. AP वरधरिणिउ । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 95.10.91 महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु विस्सदि पुणु जुवरायत्तणि । उवरि देंतु करु सघरिणिघणथणि । त विसादितहिउ । धक्कु विसाहभूइ सुहुत्तणि एक्कहिं दिणि सो णियणंदणवणि जा कीलइ सर पट्ट यत्ता - आवेष्पिणु मंदिरु णयणादिरु अइभावें ओलग्गिउ । अइकोइलकलयलु चलकोमलदलु ताउ तेण बणु मग्गउ ||9|| (10 ताव' ताय जुवरायहु केरउं जइ ण देसि तो जामिविएस हु दाइउ वचवि कुडिलें भावें अवरहिं दिणि वड्डियउच्छाहें पच्चंतई बलवंतई जायई तुहुं णिवरज्जु पुत्त पालेज्जसु जर तुम्हहिं करवालु धरिज्जइ एव भणेपिणु गउ रिउसेण्णई पित्तिएण उज्जाणु सजायहु महु उज्जाणु देहि "सुहगारउं । ता णिग्गय मुहि बाय गरेसहु । मि पुत किं सुष्णपलावें । भाइतणउ बोल्लिउ महिणाहें । जामि ताई हिणमि कयघाय । ता पभणइ णंदणु पसरियजसु । तो मई किंकरेण किं किज्जइ । तेण णिहित्तई छिण्णइं भिण्णई। ढोइउ रइकीलाकयरायहु । [ 299 15 3. AP लयमवणि 1. AP ताम 5. AP अलिकोइल | ( 10 ) 1. AP ताय । 2. AP दिहिगार5 3. AP विदेसको 4 A देवि । 5. P कपकायां । 5 राजाओं के साथ दीक्षित हो गया। विशाखभूति राजगद्दी पर बैठा और विश्वनन्दी युवराज पद पर प्रतिष्ठित हुआ। एक दिन वह अपने नन्दनवन में जब अपनी पत्नी के सघन स्तन पर हाथ डालता हुआ सरोवर में प्रवेश कर क्रीड़ा कर रहा था, तो वहाँ उसे विशाखनन्द ने देख लिया । धत्ता- वह अपने नेत्रों के लिए आनन्ददायक अपने घर आकर अत्यन्त आग्रह से पिता की सेवा में लग गया। कोयलों के कलकल से युक्त, चलकोमल दलवाले उस नन्दनवन को उसने पिता से माँगा । ( 10 ) वह बोला - "हे पिता ! मुझ युवराज के लिए शुभकारक उपवन दो । यदि नहीं देते हो तो मैं विदेश चला जाऊँगा ।" तब राजा के मुख से यह बात निकली - "हे पुत्र ! मैं दायी (भतीजा, विश्वनन्दी) को कपटभाव से धोखा देकर तुम्हें दूँगा । हे पुत्र ! शून्य प्रलाप से क्या ?" दूसरे दिन बढ़ रहा है उत्साह जिसे, ऐसे राजा विशाखभूति ने अपने भाई के पुत्र कहा - "सीमान्त प्रदेश बहुत शक्तिशाली हो गये हैं, मैं जाता हूँ और आक्रमण करनेवाले उनको मारता हूँ। हे पुत्र ! तुम अपने राज्य का परिपालन करना।" यह सुनकर, प्रसरितयश पुत्र ने कहा - "यदि आपको तलवार उठानी पड़ी, तो फिर मैं आपका सेवक क्या करने के लिए हूँ।” यह कहकर वह गया और शत्रुसेना को उसने छिन्न-भिन्न कर नष्ट कर दिया। चाचा ने रतिक्रीड़ा का राग करनेवाले अपने पुत्र के लिए उद्यान दे दिया। आकर युवराज विश्वनन्दी ने यह सुना । उसने सोचा कि मेरी सेवा को Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 | मत्राकइपुप्फयंतविरय महापुराणु 195.10.10 10 सिसुपहुणा आएणावण्णि पेसणु मेरउ कि पि ण मण्णि। उववणु ससुयह दिण्णु पिउन्- को णउ खद्ध पहुत्तणगव्यें। गउ वणु रणसएहि णिवूढउ दिउ दुठ्ठ कविट्ठारूढउ। रिजणा सहुं धरणीरुहु पेल्लिउ तेण जाम उम्मूलिवि घल्लिङ। पुणु खुद्देण माणवहु लंघिउ पत्थरखंभु' झत्ति आसंघिउ। पत्ता-ता जइणीणंदणु रणजुज्झणमणु तहिं मि पवणचलु पत्तउ । पहणेवि सदप्पइ पाणितलप्पइ खंभु चि फोडिवि पित्तउ |॥10॥ 15 पुणु णासंतु जंतु रिउ जोइवि हा हा महुं भुयबलु किं किजइ हुन्झउ किं उबवणु कि जोजारा. सहुँ सयणहिं णीसल्लू करेप्पिणु विस्सोंदे दिक्खाइ अलंकिउ भिक्खहि मुणिवरु महुर पइट्टल वेसापासावत्य जाणित तेण पउत्तउं अप्पङ सोयवि । जेण बंधुसंतावउ दिज्जइ। उति दे गई थणु परियार, संभूयहु कमजयलु णवेप्पिणु। गउ विसाहभूइ वि' भवसंकिउ । रज्जपह₹ रिउणा दिछ। आसि एण हउं वणि अवमाणिउ। ऋछ भी नहीं माना गया। चाचा ने नन्दनवन अपने पत्र के लिए दे दिया ! प्रभता के गर्व से कौन नहीं भ्रष्ट होता है ? सैकड़ों युद्धों का निर्वाह करनेवाला वह वन में गया। उसने उस दुष्ट (विशाखनन्दी) को कैथ के पेड़ पर चढ़ा हुआ देखा। उसने शत्रु के साथ वृक्ष को घात कर, जब तक उखाड़कर फेंका, तब तक बह क्षुद्र मानपथ का उल्लंघन कर शीघ्र ही पत्थर के खम्भे के पीछे छिप गया। पत्ता-तब युद्ध में लड़ने की इच्छा रखनेवाला पवन के समान चंचल वह जैनी पुत्र वहाँ पहुँचा। दर्पसहित एक चाँटा मारकर उसने खम्भे को भी फोड़कर (तोड़कर) गिरा दिया। फिर भागते हुए शत्रु को देखकर उसने शोक करते हुए स्वयं से कहा- हा हा ! मेरे बाहुवल ने यह क्या किया कि जिसने अपने भाई को सन्ताप दिवा। आग लगे इस उपवन और यौवन से क्या ? अपना शरीर, घर, धन और परिजन अस्थिर हैं। स्वजनों के साथ, अपने को शल्यरहित कर, सम्भूत मुनि के चरणकमलों को प्रणाम कर विश्वनन्दी ने स्वयं को दीक्षा से अलंकृत कर लिया। संसार से आशंकित होकर विशाखभूति भी चला गया । भिक्षा के लिए मुनिवर विश्वनन्दी ने मथुरा नगरी में प्रवेश किया। राज्य से भ्रष्ट शत्रु (विशाखनन्दी) ने उन्हें देखा। एक वेश्या के प्रासाद पर बैठे हुए उसने जान लिया कि इसने (विश्वनन्दी ने) वन में मेरा अपमान किया था। उस अवसर पर एक सनःप्रसूता गाय से आहत होकर दैव से आक्रान्त वह मुनि गिर b. Pा । 7.AP वरसिलखंभ। ४.APो जुझण' | 9. AP पबलबल । (11) I. A विण धि सकिन । 2. AP नभ। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 95.12.7] महाकइपुष्फयंतविरपर महापुराणु [301 10 तहिं अवसरि गाईइ निसुधिर . ... ..विश्वविउ सिरिक हट पारभित! .. दुक्करकायकिलेसें दुब्बलु भणइ पिसुणु तं कहिं तुह भुयबलु । जेण कविहरुक्खु संचूरित जेण बलेण खंभु मुसुमूरिउ। सो एवहिं खलसमण विण पडियउ 'दुट्ठगिट्टिपरिहट्ठउ । इय णिसुणिवि मुणिवि अयाणउ रिउणा णियमणि बद्ध णियाणउं। घत्ता-जइ जिणवरतवहलु अस्थि सुणिम्मल तो रणरंगि भिडेसमि। इहु वइरि महारउ विप्पियगारउ हउँ परभवि' मारेसमि ॥11॥ (12) मुउ ससल्तु सो साहु गयासणु देउ महासुक्कम्मि सुभूसणु। तेत्यु जि सो वि साहु भूमीसरु जायउ सुरवरु णं 'रूवी सरू। सोलहसायरसमय सहच्छिय । मित्त सणेहवंत अदुगुछिय। पुणु तित्थाड गलियसुहयम्मई कालें पुण्णे देसि सुरम्मइ। पोयणपुरवरि राउ पयावइ । रइ विव मयणहु देवि जयावइ। अबर मयच्छि पुरंधि मिगावइ जाहि रूवु पउलोमि ण पावइ। दोहिं मि ता ते णंदण जाया विजय तिविट्ठ णाम विक्खाया। पड़े। वह कठोर कायक्लेश से अत्यन्त दुर्बल हो चुके थे। वह दुष्ट (विशाखनन्दी) कहता है-वह तुम्हारा बाहबल कहाँ गया जिससे तमने कपित्थ वक्ष को चर-चर किया था जिस बल से खम्भे को तोड डाला था, वह तुम्हारा वल, हे दुष्ट श्रमण, नष्ट हो गया है और एक दुष्ट सद्यःप्रसववाली गाय से भ्रष्ट होकर पड़े हुए हो।" शत्रु से यह सुनकर, और विचार कर, उन्होंने अपने मन में अज्ञानता से यह निदान किया कि___घत्ता--यदि जिगवर के तप का कोई सुनिर्मल फल है, तो मैं युद्ध के रंगमंच पर इससे भिडूंगा। यह मेस अशुभ करनेवाला शत्रु है। मैं अगले जन्म में इसका हनन करूँगा। (12) ___ वह साधु बिना भोजन के ही सशल्य मर गया और महाशुक्र स्वर्ग में भूषणों से अलंकृत देव हुआ। वहीं पर वह राजा साधु (विशाखमूत्ति) सुरवर हुआ, रूप में मानो जैसे कामदेव हो। वे दोनों सोलह सागर पर्यन्त साध रहे, अत्यन्त स्नेहवाले मित्रों की तरह, एक-दूसरे की निन्दा से दूर। फिर, सुन्दर पुण्य कर्म तथा समय (आयुकम) पूर्ण होने पर। पोदनपुर में राजा प्रजापति और कामदेव की रति के समान उसकी पत्नी जयावती थी। एक और मृगनयनी पत्नी मृगावती थी, रूप में इन्द्राणी भी उसे नहीं पा सकती थी। वहाँ से च्युत होकर वे दोनों उनके पुत्र हुए-विजय और त्रिपृष्ठ के नाम से विख्यात । जो पहले का चाचा (विशाखभूति) था, वह बलभद्र हुआ। और विश्वनन्दी शत्रु के बल का अपहरण करनेवाला नारायण (केशव) हुआ। उसने, 3. AP जा सिलान । मुसुभारत। 1. A दुहांगावपारेभPainfरा परिघट्टर। 5. Al' इस पिसणउंगिसुधि जयाणः। 6. AP रिउणा। 7 A पर। (12) 1. सने लरु। 2. AP सुबहम्मए। 3. मयणहे। 4. A पृगाया। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 ] महाकहपुष्फयंतविरयन महापुराणु [95.12.8 10 चिरपित्तिउ जो सो हुउ हलहरु विस्सदि केसउ परबलहरु। तेण गहीरवीरहक्कारणि जलणजडीतणयाकारणि रणि। गिरिवइ खगवइ भुत्तवसुंधरु । सयडावत्ति णिहउ हयकंधरु'। हरि तिखंडमडिय महि भुजिवि इंदिय रंजिवि दुक्किउ भुंजिवि" । डप्पण्णउ तमतमपहि मीसणि णाणादुकखलक्खदुद्धरिसणि । पुणु इह भारहि गंगाणइतडि सीहवणंतरि तरुवरसंकड़ि। पत्ता-ससहावें दारुणु "हरिरुहिरारुणु तिक्खणक्खभामासुरु। ट कुरिमापन हुआ पंयाण पंधरघोलिरकेसरु |॥12॥ ( 13 ) वणयरविंदह णं जमदूयउ मुउ पढमावणिबिलि संभूयउ। एक्कु समुदु तेत्थु जीवेप्पिणु पंचपयारु दुक्खु वि सहेप्पिणु। पुणु इह वरिसि जणिउ इह मावइ सिंधुकूडपुबिल्लइ भायइ। फारतुसारहारपंडुरतणु जलणफुलिंगपिंगचललोयणु। कुंजररुहिरसित्तकेसरसडु तरुणमयंकवंकदादब्भड़। कररुहरंधलग्गमुत्ताहलु पल्लवलोललंबजीहादलु। जिसमें गम्भीर वीरों का हुंकार हो रहा है, ऐसे ज्वलनजटी (विद्याधर) की कन्या के कारण हुए युद्ध में विजयापति, धरती का भोग करनेवाले विद्याधर राजा अश्वग्रीव को शकटावर्ती वन में मार डाला। तीन खण्ड धरती का उपभोग कर, इन्द्रियों का रंजन कर वह नारायण (विश्वनन्दी) पाप भोगने के लिए नाना दुःखों से दुर्धर्ष भीषण तमतमःप्रभा नामक नरकभूमि में उत्पन्न हुआ। फिर, इस भारत में गंगा नदी के तट पर तरुवरों से संकुल सिंहवन में___ यत्ता-अपने स्वभाव से भयंकर, गजरक्त से लाल तीखे नखों से भास्वर, दाढ़ों से स्फुरितमुख और कन्धों पर आन्दोलित अयालवाला सिंह हुआ। (13) वन्यपशु समूह के लिए जो मानो यमदूत था। वह मरकर प्रथम नरक में फिर उत्पन्न हुआ। वहाँ एक सागर-पर्यन्त जीवित रहकर और पाँच प्रकार के दुःखों को सहन कर वह फिर इस भारत वर्ष में, सिन्धुकूट के पूर्वोभाग में गजों को मारनेवाली (सिंहनी) से उत्पन्न (सिंह) हुआ, जो स्फीत तुषार-हार के समान सफेद शरीर का था। अग्निकणों के समान उसके नेत्र चंचल और भास्वर थे। उसकी अयाल जटा गजरक्त से सिंचित थी। वह तरुणचन्द्र के समान दाढ़ों से उद्भट था। उसके नाखूनों के छेदों में मोती लगे हुए थे। उसकी जीभ पल्लवदल के समान चंचल और लम्बी थी। उसकी लम्बी पूँछ सिर तक मुड़ जाती थी। वह श्रेष्ठ S.AP दो ते। 5. AP गिरिवरे। 7.AP हरिकंधरु। 8. AP पुंजिदि। 9. AP करि । (13) 1. A वणयरचंदहो; P वणयरवेदहूं। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 95.14.8] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु [ 303 10 सिरका इसांगूलपहन. परकुंजरगणियारिरईहरु। चारणमुणिजुयलें णहि जंतें णियमणम्मि जिणभाउ भरतें। भणइ जेठु जमदमसंजमधरु भो अमियमई साहु महिमयरु। जिणविउ कइदुछ अहे रउ एहु सु अच्छइ सीहकिसोरउ । इय जपतें उबसमधामें बोल्लाविउ अजियंजयणामें। यत्ता-भो भो कंठीरव कयदारुणरव महुवणि तुहं खयकंदउ । कालीसबरीवरु बाणासणधरु होतउ आसि पुलिंदउ।।।3।। (14) तुहं होतउ मरीइ जिणणत्तिउ भरहेसरसुउ' खत्तिउ सोत्तिउ। तुहं संभाविउ मिच्छावायउ बहुभवाइं होंतर परिवायउ। बहुभवाई होतउ कप्पामरु संसरंतु संसारि असूहरु। बहुभवाई होतउ तसथावरु बहुभवाई पत्तउ परयंतरु। तुहुं दुईतें दइवें दंडिउ हूलिउ पउलिउ तिलु तिलु खंडिउ। अण्णण्णई अंगाई लएप्पिणु अण्णणाई वण्ण' मेल्लेप्पिणु। विस्सणंदि णामें जयराणउ' तुहं होतउं जइवरु सणियाणउ । दहमइ सग्गि देउ णच्चियसुरि तुहं होतउ तिविठ्ठ पोयणपुरि। हाथी-हथिनियों की रति का हरण करनेवाला था। एक चारणमुनि युगल, आकाश से जाते हुए अपने मन में जिनदेव के भावों की याद करते हुए (जा रहा था)। उनमें से यम, दम और संयम को धारण करनेवाले ज्येष्ठ मुनि कहते हैं- "हे महिमाकर साधु अमितगति ! जिन भगवान् के द्वारा कहे गये अत्यन्त दुष्ट पाप में रत यह किशोरसिंह यहाँ पर है।" यह कहते हुए उपशमभाव के घर अजितंजय नामक मुनि उससे बोले____घत्ता-“हे कठोर शब्द करनेवाले सिंह ! मधुवन में तुम कन्दमूल खोदनेवाले एवं काली भीलनी के पति, तीर-कमान को धारण करनेवाले भील थे। ___ तुम तीर्थंकर ऋषभ जिनेन्द्र के नाती, भरतेश्वर के पुत्र, क्षत्रिय और ब्राह्मण तुमने मिथ्यावाद स्वीकार किया; और अनेक जन्मों में परिव्राजक होते रहे। अनेक जन्मों में देव होते हुए, प्राणों को धारण कर संसार में घूमते रहे। अनेक जन्मों में त्रस स्थावर हुए, अनेक जन्मों में नरकों में जनमे। तुम दुर्दान्त दैव के द्वारा दण्डित हो, शूली पर शरीरों को धारण कर, अन्य-अन्य वर्गों को छोड़कर, तुम विश्वनन्दी नाम से जग के राजा हुए, तुम निदानवाले मुनि बने। फिर जिसमें देव नृत्य करते हैं, ऐसे दसवें स्वर्ग में उत्पन्न हुए। वहाँ गइ साहु महिसायक। 6. A कयरुंजणरत्र । 2. AP सिरियलइय। 3. AP णियपणे जिपमासिउ सुसरते। 4. AP°धर। 5. 'मद साहु मह सहयर; 7. AP खदकंदउ। 6. AP बाणासणकरू। (14) 1. AP परहेसहो सुऊ। ४. AP बप्प। 3. AP जुवराणउ । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3041 महाकइगुप्फवंतविरयड महापुराणु [95.14.9 10 विसहिवघोरदक्खपब्भारउ तुहं होतउ तमतमपहि णारउ । तुहं होतउ खरणहरुक्केरळ सुरसरितीरि सिहरिसेहीरउ। तुहं होतउ पढमावणिदुक्खिर सिरिहरअरहतें महुँ अक्खिउं। इह पुणरवि हूयउ पंचाणणु पीलुपेयपलदूसियकाणणु'। भो भो मयवइ विद्धंसियमयगय लोहियजलयाराधुयपय । धत्ता-परिहरि दुच्चरियइं दुण्णयभरियई संबोहियभरहेसरु। पणवहि परमेसरु जियवम्मीसरु पुष्फदंतजोईसरु ॥14॥ 15 इय महापगणे जिसहिपहारियणालंकारे मागदारहाणमणिए महाकड्पुर्फयतविरहए महाकव्ये बीरसामियोहिलाभो णाम पंचणवदिमों परिच्छेउ सम्पत्तो 1951 से चय कर पोदनपुर में त्रिपृष्ठ हुए। तुम तमतमःप्रभा नरक में असह्य घोर दुःख प्रभार सहन करनेवाले नारकी हए। तुम गंगा के तीर के निकट पर्वत पर तीव्रनख समूहवाले सिंह हुए। फिर तुम प्रथम नरक भूमि में अत्यन्त दुःखी हुए -श्री अरहन्त ने मुझसे यह कहा है। और अब यहाँ पुनः सिंह हुए हो। मत्तगजों के मांस से इस वन को दूषित करनेवाले ! हे हे मृग गजों को ध्वस्त करनेवाले ! रक्तरूपी जलधारा से पैर धोनेवाले हे सिंह ! पत्ता-तुम दुर्नयों से भरे हुए अपने दुश्चरितों को छोड़ो और जिन्होंने भरतेश्वर को सम्बोधित किया है, ऐसे कामदेव को जीतनेवाले पुष्पदन्त ज्योतीश्वर परमेश्वर को प्रणाम करो।" वेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त इस महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभय भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का वीर-स्यामी-बोधिलाभ नाम का पंचानवेवा परिच्छेद समाप्त हुआ। 1.AP पोजुदेडपला । 5. AP परिहरू । 6. AP पुष्फदंतरिक्षहसरु। 7. AP पंधणरदिमो। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i 96.1.13 | महाकइपुप्फयतविरयल महापुराणु छण्णउदिम संधि गुरुवणु सुणेवि बहुदुहसोक्खणिरंतरु। उवसंतु मयारि तुमरिवि चिरु जम्मंतरु ॥ ध्रुवके ॥ ( 1 ) परिघोलिरेण रतें णवेण दुबई - उट्टिउ णीससंतु भवसंभरणुग्गयदुक्खहुयमणो' । विडिउ मुणिवरिंदचरणोवरि' बाहभरंतलोयणी ॥छ॥ सो हरिवरु बंदइ रिसिपयाई णीसेसजीवपबडियदयाई । णं पुज्जइ जीहापल्लवेण । पणं विज्जइ पुंछें चामरेण । णं अच्चण करइ समुज्जलेहिं । सावयवइ सावउ किं ण होइ । ण खणइ 'हेण वि सो धरिति । जी मासाहारें भरइ पेट्टु । हियमियसुमहुरमणहरझुणीहिं । संणासि परिहित साहु सीहु । सिरकमले मणहरकेसरेण णहरंधगलियमुत्ताहलेहिं सामीउ जासु आवेंति जोइ कवसव्वजीवमारणणिवित्ति अहिलसइ गसइ दुग्घोथटु' उवसामि सो वि महापुणीहिं महियलणिहित्ततणु जित्तजीहु [305 5 10 छियानवेवीं सन्धि गुरु के वचन सुनकर अनेक सुख-दुःखों से निरन्तर भरपूर अपने पूर्व जन्मान्तरों का स्मरण कर वह सिंह शान्त हो गया। ( 1 ) पूर्वजन्मों के स्मरण से उत्पन्न दुःख से जिसका मन दग्ध हो गया है, ऐसा वह निःश्वास लेता हुआ उठा और बाष्पभरित लोचन से मुनिवर के चरणों में गिर पड़ा। वह महान् सिंह समस्त जीवों के प्रति दया प्रकट करनेवाले मुनिचरणों की बन्दना करता है, मानो आन्दोलित रक्त और नये जीभरूपी पल्लव एवं सिररूपी कमल और सुन्दर केशर ( असाल, केशर) से पूजा करता है, मानो पूँछरूपी चामर से पंखा हिलाता है, मानो नखरन्धों से गिरते हुए समुज्ज्वल मोतियों से अर्चन करता है; जिनके समीप योगी आते हैं वहाँ श्वापदपति वह श्रावक क्यों नहीं हो ? सब प्रकार के जीवों की हिंसा से निवृत्ति लेकर वह अपने नखों से धरती तक नहीं खोदता । जो बलवान् गजघटा की इच्छा करता है, उसे खाता है, मांसाहार से पेट भरता है, वही (सिंह) हितमित सुमधुर सुन्दर ध्वनिवाले महामुनियों से भी उपशान्त हो गया। वह साधु सिंह धरतीत्तल पर अपना शरीर डालकर, जिल्हा को जीतकर संन्यास प्रतिष्ठित हो गया। वह सोचता है मुझे बोधि- समाधि हो, मेरा (1) 1. AP बहुसुहदुक्तणिरंतरु। 2. AP सुबरि 3 AP दुक्खत्यमणो 4 A चलणोवरि । 5. P णक्खण। . AP क्खे। 7. A दुग्घोड़घट्टु । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 ] 15 महाकइपुष्फयंतविरयड महापुराणु [96.1.14 चिंतइ महुँ बोहि समाहि होउ महुँ मिच्छादुक्किउ खयह जाउ। मई आसि कुसिद्धतई कयाई परिपालियाई तावसवयाई। मई जीहोवत्थविलुद्धएण णिहणवि' णरिंद रणकुद्धएण। बहुवारउ" मुत्ती एह भूमि भो पसु तित्तिं णउ तो वि जामि। हउं मुउ उप्पण्णउ णरयविवरि बहुवारउ हुउ मिगु" सेलकुहरि। जलयरू थलयरू णहयरु चिलाउ हउं जायउ भवि भवि मंदभाउ। यत्ता-जिणधम्मु मुएवि सयलु वि मई अणुहुतउं। संसारिउ दुक्नु भणु किर कवणु ण पत्तउ ॥1॥ दुवई--इय उवसंतु संतु मुउ केसरि घिउ रिसिसमवियप्पए। णामें सीहकेउ हुए सुरवरु पढमसुरिदकप्पए ॥छ। सो दोसमुद्दथिरपरिमियाउ दिव्वंबरभूसणु दिव्यकाउ। दीवंतरि जणसंपण्णकामि विक्खायइ धादइसंडणामि। पुच्चासामवरपुष्यभाई' मणहरवैदेहि वर्णादण्णछाइ। मंगलवइदेसि सुमंगलालि उत्तसेटिहि वेयडसेलि। कणयप्पहपुरवरि विजयकखु विज्जाहरु णाामें कणयपुंखु। मिथ्यापाप क्षय को प्राप्त हो। मैंने बहुत से कुसिद्धान्तों का आचरण किया है, मैंने तापसव्रतों का परिपालन किया है; जीभ और उपस्थ के लोभी और युद्ध में क्रुद्ध मैंने राजाओं को मारकर कई बार इस धरती का उपभोग किया है। हे प्रभु ! तब भी मैं तृप्ति को प्राप्त नहीं हुआ। मैं मरकर नरक में उत्पन्न हुआ, जड़भाव मूर्ख मैं कई बार पर्वत-गुफा में पशु हुआ, भव-भवान्तर में जलचर-थलचर-नभचर और भील हुआ। बत्ता-जिनधर्म को छोड़कर, मैंने सब-कुछ का अनुभव कर लिया। बताओ मैं कौन-से सांसारिक दुःखों को प्राप्त नहीं हुआ ? (2) इस प्रकार उपशान्त होता हुआ, मुनि के समान परिणाम में स्थित, वह सिंह मर गया और प्रथम स्वर्ग में सिंहकेतु नाम का सुरवर हुआ। दिव्यवस्वों से भूषित दिव्यकाय उसकी दो सागर प्रमाण आयु थी। जनों की कामनाओं को परिपूर्ण करनेवाले विख्यात धातकीखण्ड द्वीप की पूर्वदिशा में सुमेर पर्वत के पूर्वभाग में वनों से छाया प्रदान करनेवाले सुन्दर विदेह में, विजयार्ध पर्वत की उत्तरश्रेणि में सुमंगलों का घर मंगलावती देश है। उसके कनकप्रभ नामक श्रेष्ठ नगर में विषय का आकांक्षी कनकपुख नाम का विद्याधर था। अपनी बहुबार 'भुतः । बहुयारउ भुत्तीए एह। 12. AP भोएसु तित्ति । 1. A पिउ हुउ सेलसिहरे; H. A .A हिणिय। III. A fण कुद्धरण। 11. 'हुर ग सेलकटरे। H. विर विराज। (2) 1.AL मंदरे। वदित्तठाए। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96.3.5] महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु 1 307 10 गइलीलाणिज्जियहंसलील तहु गेहिणि सूहब कणयमाल । सो सीहकेउ सुरु ताहि पुत्तु संजायउ लक्खणलक्खजुत्तु। कणउज्जलु णामें कणयवण्णु कंचणकुडलचेंचइयकण्णु। णियघरिणिइ सहुँ उग्गयणमेरु गर वंदणहत्तिइ कहिं मि मेरु। तेणावहिलोयण गुणविसिट्ठ ... . पियमित्त महामणि तेत्यु दिट्ट। वंदिउ वंदारयवंदबंदु णिसुणेवि धम्मु हयमोहतंदु। संजमधरु जायउ खयरु साहु मयरद्धयचंचलहरिणवाहु। मुर संगासें पुणु लंतवक्खि संभूयउ सुरवरु जणियसोक्खि । अणुहुंजियपवरामररमाइं जीविउ तेरह सायरसमाई। घत्ता-पुणु कोसलदेसि पुरि साकेइ स्वण्णइ। दियणिववणिसुद्दचाउवण्णकिण्णइ' |2|| 15 दुवई--णामें' वज्जसेणु णरपुंगमु सीलबइ त्ति गेहिणी। ___ बालकुरंगणवण- पीणत्थणि सीलगुणंभवाहिणी ॥छ॥ सो सत्तमसग्गामरु मरेवि एयहि गड्भासइ अवयरेवि । दालिद्ददमणु जणकामधेणु हरिसेणु णामु उप्पण्णसेणु' । महि भुजिवि णिरु णिव्वेइएण सम्मत्तरयणसुविराइएण। गतिलीला से हंस की लीला को जीतनेवाली कनकमाला उसकी सुन्दर गृहिणी थी। वह सिंहकेतु देव उसका लाखों लक्षणों से युक्त स्वर्ण के समान उज्ज्वल कनकवर्ण नाम से पुत्र उत्पन्न हुआ। स्वर्णकुण्डलों से जिसके कान अलंकृत हैं, ऐसा वह अपनी पत्नी के साथ, जिसमें कल्पवृक्ष उगे हुए हैं ऐसे सुमेरु पर्वत की वन्दना भक्ति करने के लिए गया। उसने वहाँ अवधिज्ञान रूपी लोचनवाले, गुणों से विशिष्ट प्रिय मित्र महामुनि को देखा । देवों के द्वारा वन्दनीय उनकी उसने वन्दना की, और मोहरूपी तन्द्रा को नष्ट करनेवाला धर्म सुनकर वह विद्याधर संयमधारी साधु बन गया जो कामदेवरूपी चंचल हरिण के लिए व्याध (शिकारी) के समान था। फिर संन्यास से भरकर, सुख को उत्पन्न करनेवाला लान्तव नाम का श्रेष्ठ देव उत्पन्न हुआ। जिनमें प्रवर अमरों की लक्ष्मी का अनुभव किया गया है, ऐसे तेरह सागर वर्षों तक जीवित रहकर घत्ता-कोशलदेश के द्विज, क्षत्रिय (नृप), वणिक और शूद्र-चारों वर्गों से संकीर्ण सुन्दर साकेत नगर में वज्रसेन नाम का राजा था। शीलवती उसकी गृहिणी थी। बालमृगनयनी पीनस्तनोंवाली वह शीलगुणों रूपी जल की वाहिनी (नदी) थी। सातवें स्वर्ग का वह अमर मरकर इसके गर्भ में अवतरित होकर, दारिद्रय का दमन करनेवाला तथा लोगों के लिए कामधेनु, हरिषेण नाम का पुत्र हुआ। धरती का उपभोग कर, तथा 8. A वियिंदुः "चिंटचंडु। 4. A दियवणिणियसुद्द। (8) 1. Fromits 'गा। 2.Aणयणि। 3. AP दालिदिलणु। 4. AP उप्पण्णु सूगु । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 1 गहाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराण सुबसायरसूरिहि पासि दिक्ख मुउ सुरु संजाउ महंतसुक्कि तणुतेयविहिणदिवायराई पुणु धादsiss भमियमेहि पुक्खलवइविसइ मणोहिरामि गंदतणिउणणायर महत्व तहि गरबइ अरिवरतिमिरमित्तु तहु दूरुज्झियदुद्दतगाव भव्यामरु विहवो इव रमाइ अवलंबिय लहुं परलोयसिक्ख । बहुदुक्ख दोहग्गमुक्कि । तहिं जीविवि सोलह सायराई । पुव्विल्लइ "सुरगिरिवरविदेहि । पिच्चंतछेत्तउद्दामगामि' । पुरि अस्थि पुंडरिंगिणि पसत्य । णायें सुमित्तु "सुविसिट्ठमित्तु । सुव्वय महएवि महाणुभाव । सो ताहि गब्धि घिउ जणिउ ताइ । घता - णामें पियमित्तु चक्कवट्टि होएप्पिणु । णव विहि रयणाई महि असेस भुंजेपिणु ॥३॥ (4) दुबई - णिसुणिवि परमधम्मु खेमंकरजिणवरणाहभासिओ । णंदणु सच्चमित्तु' अहिसिंचिवि अप्पणु तउ समासिओ ॥ छ ॥ राएं दूसहरिसिणिट्ट सहिवि दम्पिट्ट दुट्ट खल तिट्ठ महिवि । किउ संणासणु हुउ सग्गलोइ सहसारणामि संपण्णभोइ । [96.3.6 5. AP सेवि! 6. AP सुरवरगिरिविदेहे। 7. AP AP पुरे । D. A पुंडरिकणि। 10. AP सुविसुद्धचित्तु । 11. AP सुक्कामरु । (4) 1. A f 2. AP for 10 विरक्त होकर सम्यक्त्वरूपी दर्शन से शोभित उसने श्रुतसागर सूरि के पास परलोक की शिक्षा देनेवाली जिनदीक्षा ले ली। वह मरकर अनेक दुःखवर्ग और दुर्भाग्यों से मुक्त महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ। शरीर के तेज से दिवाकर को पराजित करनेवाले सोलह सागर वर्ष पर्यन्त वहाँ जीवित रहकर, पुनः घातकीखण्ड द्वीप में, जिसमें मेघ भ्रमण करते हैं, ऐसे सुमेरु पर्वत के पूर्वविदेह में, सुन्दर पुष्कलावती देश है, जिसमें पके हुए खेतों से परिपूर्ण ग्राम हैं। उसमें पुण्डरीकिणी नाम की प्रशस्त पुरी है जो महार्थवतीं है और जिसके नागरिक प्रसन्न तथा चतुर हैं। उसमें सुमित्र नाम का राजा था जो अत्यन्त विशिष्ट मित्र तथा शत्रुवररूपी तिमिर के लिए सूर्य था। उसकी दुर्दान्त गर्व से दूर रहनेवाली, महान् आशयवाली सुव्रता नाम की महादेवी थी । लक्ष्मी के अमर वैभव के समान वह उसके गर्भ में अवतरित हुआ। उसने उसे जन्म दिया यत्ता -प्रियमित्र नाम से चक्रवर्ती होकर उसने नवनिधियों, रत्नों और अशेष धरती का उपभोग किया। (4) क्षेमंकर नामक तीर्थंकर प्रभु के द्वारा भाषित धर्म को सुनकर अपने पुत्र सत्यमित्र का राज्याभिषेक कर उसने अपने को तप के आश्रित कर दिया । दुःसह ऋषि-निष्ठा सहन कर, दर्पिष्ठ दुष्ट खल तृष्णा को मारकर राजा ने संन्यास ले लिया और सम्पूर्ण भोगवाले सहस्रार नामक स्वर्गलोक में वह उत्पन्न हुआ । अठारह सागर Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96.5.7] महाकइपुष्फयंतविरपज महापुराणु [ 309 5 10 आउसु अट्ठारहजलहिमाणु माणेप्पिणु पुणु चुउ भव्यभाणु। घरसिहरारूढणडतखयरु' इह भारहि छत्तायारणयरु' । सुपसिद्ध णदिवद्धणु णरिंदु वीरवइ देवि तहि पुत्तु पंदु। हुउ पत्तवंतु पत्ताहिसेउ महि भुजिवि णिोदेवि मयरकेउ । पोट्टिलहु पासि पावइउ केव रिसहहु णवंतु बाहुबलि जेव। घत्ता-हुउ रिसि समचित्तु अप्पउं खतिइ भूसइ। थुउ हरिसु ण लेइ णिदिउ 'णउ सो रूसइ ॥4॥ (5) दुवई-इय' णीसंगु सल्लपरिवज्जिउ दूरविमुक्कण्हाणओ । लाहालाहहगणवहबंधणसुहदुक्खे समाणओ ॥४॥ तवि' तेत्थु ताच तें मुणिवरेण . जमसंजमभारधुरंधरेण। अट्र वि अंगई अवहेरियाई एयारह अंगई धारियाई। जिह चित्तसद्धि तिह पिंडसुद्धि तह पवियंभइ थिर धम्मबुद्धि। णउ सोबइ जग्गइ दियहु रत्ति सो करइ सव्वभूएसु मेत्ति। णिज्जणि वणि गिरिवरकुहरि वसई विकहाउ' ण जंपइ णेय हसइ। 5 पर्यन्त आयु मानकर, भव्यों के लिए सूर्य वह फिर च्युत हुआ। इस भारतवर्ष में, जहाँ गृहशिखरों पर आरूढ़ होकर विद्याधर नृत्य करते हैं, ऐसा छत्रपुर नगर है। उसका सुप्रसिद्ध राजा नन्दीवर्धन था और उसकी देवी वीरवती। वह उसका पुत्र नन्द हुआ। वाहनों से युक्त वह अभिषेक को प्राप्त हुआ। वह कामदेव धरती का भोग कर और उसकी निन्दा कर प्रोष्ठिल मुनि के पास उसी प्रकार प्रव्रजित हो गया, जिस प्रकार ऋषभ को प्रणाम करते हुए बाहुबली प्रव्रजित हो गये थे। घत्ता-वह मुनि हो गया। समचित्त अपने को वह क्षमा से भूषित करते हैं। स्तुति करने पर वह हर्ष नहीं करते और निन्दा करने पर क्रोध नहीं करते। (5) इस प्रकार अनासक्त, शल्यों से रहित, स्नान को दूर से छोड़नेवाले वह लाभ-अलाभ, हनन-वध-बन्धन और सुख-दुःख में समान थे। वहाँ तप कर, यम और संयम के भार में धुरन्धर उन मुनिवर ने आठों अंगों का पालन कर ग्यारह अंगों को धारण किया। जैसे-जैसे चित्तशुद्धि होती है, वैसे-वैसे शरीरशुद्धि होती है, और वैसे-वैसे ही स्थिर धर्मबुद्धि बढ़ने लगती है। दिन-रात, वह नहीं सोते हैं, जागते रहते हैं। वे सब प्राणियों के प्रति मित्रता रखते हैं। निर्जन वन और गिरिवर की गुफा में निवास करते हैं। विकथाएँ न कहते हैं और 3. पुणु चउमव्वमाणु। 4. A परे। 5..A भारहारोत्तापरण। 6. APणपरे। 7. पुण्णवंतु पुण्णा" | 8. A पोढिलहो। 9. AP सो गाउ। (5) I. AP अइणीसंगु। 2. AP विमुकमाणओ। 3. A तदु तिब्बु तवंत; सधु तिब्बु ताव ते। 1. A सय भूएसु। 5. A विकहा गउ जपई। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 । महाकइपुप्फवंतविरयड महापुराणु 196.5.8 उवसग्ग परीसह सयल सहइ परमत्थसत्थवयणाई कहइ। णिच्चं पि पउंजइ णाणजोउ सईसणु पोसइ 'सहइ सोउ। रिसिसंघहु वेज्जावच्यु करइ मिच्छामूढहं मिच्छत्तु हरइ। जे मग्गभट्ट ते मग्गि ठवइ विणएण पंचपरमेट्टि णवइ। आहारु देहु मेल्लिवि मुणिंदु मुउ अंतरालि" सुमरिवि जिणिंदु । णियकायकतिणिज्जियारुणिंदु अच्चुइ संजायउ सुरवरिंदु। बावीससमुद्दोवमचिराउ पंडुरु रयणित्तयतुंगकाउ । यत्ता-अइसुहमु मणेणd चोलीणहिं बावीसहिं। भुंजइ आहारु सुरहिउ वरिससहासहिं ॥5॥ दुवई-धुवणीसासु' मुयइ सो तेत्तिवपक्खहिं दुहविहंजणो । जाणइ ताम जाम छट्ठावणि वड्डियओहिंदसणो ॥छ॥ परमागमसाहियदिव्यमाणि णिवसंतह पुप्फुत्तरविमाणि। जइयई वट्टइ' छम्मासु तासु परमाउमाउ परमेसरासु। तइयर्ड सोहम्मसुराहियेण पणिउ कुबेरु इच्छियसिवेण।। इह जंबुदीवि भरहंतरालि रवणीयविसई सोहाविसालि। हंसते हैं। समस्त उपसर्ग और परीषह सहन करते हैं। परमार्थ और सत्य वचन कहते हैं। नित्य ज्ञानयोग का प्रयोग करते हैं। सदर्शन का पोषण करते हैं, शोक को सहते हैं। मुनिसंघ की वैयावृत्य करते हैं। मिथ्यात्व में मोहित मूटों का मिथ्यात्व दूर करते हैं। जो मार्ग से भ्रष्ट हैं, उन्हें मार्ग पर लाते हैं। पंचपरमेष्ठी को विनय के साथ प्रणाम करते हैं। वह मुनीन्द्र आहार और देह को छोड़कर तथा मन में जिनेन्द्र का स्मरण कर मृत्यु को प्राप्त हुए और अच्युत स्वर्ग में अपने शरीर की कान्ति से पूर्ण चन्द्र को जीतनेवाले सुरेन्द्र हुए। उनकी आयु बाईस सागर प्रमाण थी। तीन हाथ ऊँची सफेद काया थी। ___घत्ता-बाईस हजार वर्ष बीत जाने पर (एक बार) मन से अत्यन्त सूक्ष्म सुरभित आहार ग्रहण करते हैं। (6) दुःख का नाश करनेवाले वह, उतने ही पक्षों में अर्थात् बाईसपक्ष में साँस लेते हैं। अपनी बढ़ी हुई अवधिज्ञानरूपी आँख से वहाँ तक जानते है जहाँ तक छठे नरक की भूमि है। परमशास्त्रों में कहे गये दिव्यमानवाले पुष्योत्तर विमान में रहते हुए जब उन परमेश्वर की परमआयु के मात्र छह माह शेष रहे, तब कल्याण चाहनेवाले सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने कुबेर से कहा-"इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में धूल से रहित, शोभा से विशाल कुण्डपुर में कल्याणकारी राजा सिद्धार्थ है, जो श्रीधर (विष्णु) होते हुए, याचक के वामनरूप से रहित है (मग्गणवेसरहिउ); 6. Anadsaas hind Aasa.T.AP समद। 4. AP जंतयालि। 9.A रयणितिय":K स्यणत्तय। 10. AP खणेण। (6) 1. A धुर । 2. A"विहंसणीः विहसंणे। 3. सणे। 4. P बहुद्द। 5. AP "माणु। 6. A रमणीय। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96.7.2] | 311 महाकइपुष्पयंतविरयउ महापुराण कुंडरि' राउ सिद्धत्थु सहिउ जो सिरिहरु मग्गणवेसरहिउ । अकवालचोज्जु जो देउ रुद्दु अमहिउ सुरेहिं जो गुणसमुद्दु। ण गिलिउ गहेण जो समरसूरु जो धम्माणंदु ण सघरदूरु। जो णरु अविहंदलि दलियमल्लु। जो परणरणाहहु जणइ सल्लु । "अणिवेसियणियमंडलकुरंगु जो भुवणइंदु" अविहंडियंगु। जो कामधेणु पसुभाषचुक्कु जो चिंतामणि चिंताविमुक्कु। अणवरयचाइ चाएण धण्णु असहोयररिउ सयमेव कण्णु। दोबाहु वि जो रणि सहसबाहु सुहिदिण्णजीउ4 जीमूयवाहु। दालिबहारि रायाहिराउ जो कप्पलक्खु णउ कट्टभाउ । चता-पियकारिण वे तुगकुमकुंभत्वणिं । ___ तहु रायहु इट्ट णारीयणचूडामणि ॥6॥ दुवई-एयहं विहिं मि जक्ख कमलक्ख सलक्खणु रक्खियासवो। चउबीसमु जिणिंदु सुउ होही पयजुवणवियवासवो ॥छ। जो रुद्र (प्रचण्ड, शिव) होते हुए भी 'अकपाल चोज्ज' (दुःखी व्यक्तियों के लिए आश्चर्यकर, कपाल रहित होने पर भी शिव, इस आश्चर्य से युक्त) है, गुणों के समुद्र होते हुए भी, जो देवों के द्वारा अमथित है (मथा नहीं गया); जो समरशूर होते हुए भी ग्रह (राहु, दुराग्रह) से कभी पीड़ित नहीं हुआ, जो धम्मनन्द (धनुष से आनन्द करनेवाला, युधिष्ठिर) होते हुए अपने घर से दूर नहीं था। जो मरुलों को दलित करनेवाला णरु (पार्थ अर्थात् अर्जुन) होकर भी विहन्दल (विहन्दल नाम का नर्तक) नहीं था। (पक्ष में) जिसकी सेना पाप से रहित थी। जो शत्रु-राजाओं के लिए शल्यकारक था; जो अपने मण्डल में निरन्तर बस्तियाँ स्थापित करनेवाल था, जो अविघटितांग भुवनेन्द्र था, जो पशुभाव से रहित कामधेनु था, जो चिन्ता से रहित चिन्तामणि था, जो अनवरत त्याग और चाप से धन्य था। दुष्टों के लिए शत्रु जो स्वयं कर्ण था। दो बाँहोंवाला होते हुए भी जो युद्ध में सहस्रबाहु था, जो सुधीजनों को जीवनदान देनेवाला सुबाहु था, जो दारिद्र्य का हरण करनेवाला राजाधिराज था, जो कल्पवृक्ष होते हुए भी काष्ठभाव से रहित था। घत्ता-विशालगज के कुम्भस्थल की तरह स्तनोंवाली उसकी प्रियकारिणी देवी थी, जो नारीजनों में श्रेष्ठ और राजा के लिए अत्यन्त प्रिय थी। हे कमलाक्ष यक्ष : आश्रितों की रक्षा करनेवाले लक्षणों से युक्त चौबीसवें तीर्थंकर, इन दोनों के ही पुत्र 1.कुंडलार।8. A माहेउ। 9. AP अकवालभौजु । 10.AP रिउ भीम वि ण पर पहाणप्तिाल। 11. AP सुणिवेसिय; Krecardsap' सुणियसिति वा पाउः । सुनियेशितो निजमण्डले कुरं गु पृथ्वीरमणीयता येन। 12.AP भुवणयंदु। 13. A घण्णु। 14. AP विष्णु जीप। 15. हयकटुभाउ । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 | महाकइपुष्पवतविरयउ महापुराणु [96.7.3 एयहं दोहिं मि 'सुरसिरिविलासु करि घणय कणयभासुरु णिवासु। ता कबउ कुंडपुरु तेण चारु सव्वत्थ रयणपावारभारु । सव्वत्थ रइयणाणादुवारु सब्वत्थ परिहपरिरुद्धचारु। सव्वत्थ फलियणंदणवणालु सब्यत्य तरुणिणच्चणवमालु । सव्वत्थ धवलपासायवंतु सम्वत्थ सिहरचुंबियणहंतुं। सव्वत्थ फलिहबद्धावणिल्तु सव्वत्थ घुसिणरसण्डयगिल्लु । सच्चस्थ णिहित्तविचित्तफुल्लु सव्वस्थ 'सुफुल्लंघयपियस्तु । सम्वत्य वि दिव्यपसंडिपिंगु सव्वत्थ चि मोत्तियरइयरंगु। मस्वत्थ.वि वेमलिएहि फुरई सब्वत्थ वि ससिकतेहिं झरइ। सव्यस्थ वि रविकंतेहिं जलइ सम्बत्य चलियचिंधेहिं चला। सव्वत्थ पडहमद्दलरवालु सव्वत्थ पडियणडणमुसालु । सव्वस्थ णारिणेउरणिघोस सव्वत्य सोम्मु परिगलियदोसु। घत्ता-पहुपंगणि तेत्यु बंदियचरमजिणिदें। छम्मास विरइय रवणचिट्ठि जाखदें ॥7॥ दुवई ...ठियसहयलणिहियसयणयलइ' सयलदुहोहहारिणी। णिसि णिवंगयाइ सिविणावलि दीसइ सोक्खकारिणी ॥छ॥ होंगे। हे धनद ! तुम इन दोनों के लिए देवश्री के बिलास से युक्त स्वर्ण की तरह चमकते हुए निवास की रचना करो।" तब उस यक्ष ने सुन्दर कुण्डपुर की रचना की। सर्वत्र रत्नमय प्राकारों का समूह था। सर्वत्र नाना द्वार रचित थे। सर्वत्र सुन्दर परिखाओं से वेष्ठित था। सर्वत्र नन्दनवन फलित थे। सर्वत्र युवतियों के नृत्य का कोलाहल था। सर्वत्र धवल-प्रासादोंवाला था। सर्वत्र शिखरों से आकाश को चूम रहा था। सर्वत्र स्फटिक मणियों से विजड़ित धरतीवाला था। सर्वत्र केशर के छिड़काव से गीला (आद) था। सर्वत्र विचित्र फूल लगे हुए थे। सर्वत्र भ्रमरों से प्रिय था। सर्वत्र दिव्य स्वर्ण से पीतिमा थी। सर्वत्र मोतियों से रचित रंगोली थी। सर्वत्र वैदूर्य मणियों की चमक थी। सर्वत्र चन्द्रकान्त मणियों से वह झर रहा था। सर्वत्र सूर्यकान्त मणियों से प्रज्वलित था। वहाँ सर्वत्र चंचल पताकाएँ फहरा रही थीं। वह सर्वत्र पटह और मृदंग के कोलाहल से पूर्ण था। सर्वत्र नाट्य शालाओं में नटों का नृत्य हो रहा था। सर्वत्र नारियों के नूपुरों की झंकार थी। सर्वत्र सौम्य तथा दोष से रहित था। घत्ता-राजा के प्रांगण में, अन्तिम जिनेन्द्र की वन्दना करनेवाले कुबेर ने छह माह तक रत्नों की वर्षा की। श्रीसौध-तल पर निहित शयनतल पर नींद में सोई हुई, सकल दुःख-समूह का हरण करनेवाली प्रियकारिणी (7) 1. AP सुरसरि । 2. A पायारसारु। 3. A सुफुलिलघुप" । 4. AP "मंदल"। 5. P सोमु । 6. AP "चरिम । (8) 1. AP सिय। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96.8.18] महाकइगुप्फयंतविरयउ महापुराणु [313 सुरिंदच्छराथोत्तसमाणियाए सुसिद्धत्थसिद्धत्थरावाणियाए। सलीलं चरंतो चलो णं गिरिंदो जिणंबाइ दिट्ठो पमत्तो करिंदो। विसेसो विलंबंतसाहासमेको रीगो विवाहितो। वरं दामजुम्म बिहू वीअधंतो' रवी रस्सिजालावलीविष्फुरंतो। सरते सरंत विसारीण दंदं घडाणं जुयं लोयकल्लाणवंदं । पहुल्लतराईवराईणिधासो पववतवेलाविसासो' सरीसो। पहाउज्जलं हेमसेहीरपीट महाहिंदहम्म विलासेहिं रूढं । मरुद्ध्यचिंधं सुभित्तीविचित्तं घरं चारु 'आहंडलीयं पवित्तं । 10 मणीणं समूह पहाविष्फुरतं परं सोहमाणं तमोहं हरंत। जलतो हुयासो धरायासधामे णियच्छेवि दीहच्छि सामाविरामे। विउद्धा गया जत्थ रायाहिराओ। धरित्तीसचूडामणीघिठ्ठपाओ"। पियाए सुहं दसणाणं वरिट्ठ फलं पुच्छियं तेण सिटू विसिट्टा। सुओ तुज्झ होही महादेवदेवो महावीयराओ विमुक्कावलेवो। 15 महावीरबीरो महामोक्खगामी तिलोयडउ चंदो तिलोयस्स सामी। घत्ता-घरपंगणि4 तासु रायहु सुहपब्भारहिं । बुट्टउ धणणाहु अबिहंडियधणधारहिं ॥8॥ ने रात्रि में सुखद स्वप्नावलि देखी। सुरेन्द्र की अप्सराओं के स्तोत्रों से सम्मानित, परिपूर्णार्थ, सिद्धार्थ की रानी, जिनदेव की माता प्रियकारिणी ने देखा-लीलापूर्वक चलता हुआ चंचल एवं गिरीन्द्र की भाँति प्रमत्त गजेन्द्र, लटकते हुए गलकम्बलों वाला वृषभेन्द्र, भयंकर सिंह, दिव्य लक्ष्मी का अभिषेक, श्रेष्ठ मालायुग्म, अन्धकार को नष्ट करनेवाला चन्द्रमा, किरणावलि से चमकता हुआ सूर्य, सरोवर में चलता हुआ मत्स्यों का जोड़ा, लोककल्याण का समूह कलशों का युगल, खिले हुए कमलों की पंक्तियों का निवास सरोवर, अपनी मर्यादा का विस्तार करता हुआ समुद्र, प्रभा से उज्ज्वल स्वर्ण सिंहासन, विलासों से प्रसिद्ध नागलोक। हवा से उड़ते ध्वजों से युक्त, सुन्दर भित्तियों से विचित्र, सुन्दर और पवित्र इन्द्र का विमान। प्रभा से भास्वर, अत्यन्त शोभित और अन्धकार का हरण करता हुआ मणियों का समूह । आकाश और धरती के बीच प्रज्वलित अग्नि। रात्रि के अन्तिम प्रहर में इन स्वप्नों को देखकर, सबेरे जागकर वह वहाँ गयी जहाँ धरती के नरेशों के चूड़ामणियों से जिसके पैर घर्षित होते हैं, ऐसा राजाधिराज सिद्धार्थ का कक्ष था। प्रिया ने स्वप्नों का शुभ फल पूछा। उसने भी विशेषरूप से कहा कि महादेव- देव तुम्हारा पुत्र होगा-महावीतराग और अहंकार से शून्य। महावीर, वीर, मोक्षगामी, त्रिलोक के द्वारा वन्दनीय और त्रिलोक का स्वामी। पत्ता-उस राजा के आँगन में सुख के प्रभारों से युक्त अखण्डित धन-धाराओं के द्वारा कुबेर स्वयं बरस गया। 2. A दीयवंतो। 9. A तरंत। 4. A"विसालो। 5. A"सेहीरवींद। 6. A पडा । 7. AP कुपीणसीयं । 8. AP read this line as : महग्यो अलंघो फुरतो असोहो (A ससोहो), पहाकतिमुसो मणीणं समूहो। 9. A णियचोड़। 10. A अचूलापणी। 11. AP घर। 12. A दसिहं। 15. P विदो। 14. घरप्रंगणि। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 | महाकइपुष्फयंतविण्यउ महापुराणु [96.9.1 (9) दुवई-कयविभमविलास परमेसरि बालमरालचारिणी' । केकणहारदोरकड़िसुत्तयकुंडलमउडधारिणी ॥छ। चंदक्ककति संपण्णकित्ति। सिर हिर संलछि . दिहि पंकयच्छि। सई कित्ति बुद्धि कयगब्भसुद्धि। आसाढमासि ससियरपयासि। पक्खंतरालि हयतिमिरिजालि। दिसणिम्मलम्मि छट्टीदिणम्मि। संसारसेउ थिउ गटिभ देउ। संपण्णहिट्टि कय कणयविट्टि। जक्खेण ताम णवमास जाम। मासम्मि पत्ति चित्ताणिउत्ति। सियतेरसीइ जणिओ सईई। जिणु "भुवणणाहु भम्पाहदेहु। मुणिभासियाइ पण्यासियाइ। सह दोसवाई जइयहुं गयाइं। णिबुइ जिणिदि अहतिमिरयंदि। सिरिपासणाहि लच्छीसणाहि। तणुकतिकंतु तइयहं तियतु"। किया है विभ्रम विलास जिन्होंने ऐसी, तथा बालहंस के समान चलनेवाली, कंकण, हार, डोर, कटिसूत्र, कुण्डल और मुकुट धारण करनेवाली परमेश्वरी, चन्द्र और सूर्य के समान कान्तिवाली, सम्पूर्ण कीर्ति से युक्त श्री, लक्ष्मीसहित ह्री, कमलनयनी धृति, शची, कीर्ति और बुद्धि देवियों ने गर्भशुद्धि की। असाढ़ माह की चन्द्रकिरणों से प्रकाशित तथा तिमिरजाल को नष्ट करनेवाले शुक्तपक्ष में दिशाओं से निर्मल छठी के दिन, संसारसेतु वह गर्भ में स्थित हुए। यक्ष ने हर्ष उत्पन्न करनेवाली कनकवृष्टि तब तक की, जब तक नौ मास नहीं हुए। नौवाँ मास पूर्ण होने पर, चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन, देवी ने स्वर्णप्रभ भुवनस्वामी जिन (जिनदेव) को जन्म दिया। पायरूपी अन्धकार के लिए चन्द्रमा और लक्ष्मी के स्वामी पार्श्वनाथ के निर्वाण प्राप्त कर लेने पर, मुनियों के द्वारा 'भाषित जब दो सौ पचास वर्ष बीत गये, तब शरीर की कान्ति से कान्त, जन्म-जरा-मृत्यु (9) I. A *गापिणी । 2. A "मटल"। 3. AP घंटादिति। 4. AP संपत्तकित्ति। 5. " सई कति। 6. Komits this line. 7. A संपत्तहिट्टि, P संपणहिदि। . A पवण'। ५. तिमिरइंदे। 10. A तक्तु; ' तयंतु । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 1 96.10.9] महाकइपुप्फयंतविरच महापुराणु बद्धाउमाणु जइबहु" पहूउ घत्ता - पयणिहिखीरेहिं कलसहिं जियछणवंदहिं । सिरिवडुमाणु । जयतिलयभूउ । + असितु जिणिदु मंदरासहारे सुरिदहिं ॥१॥ ( 10 ) दुवई - पुज्जिउ पुज्जणिज्जु मणिदामहिं भूसिउ भुवणभूसणो । संधु चित्तवित्तवावारिहिं' कुसमयरइवदू ॥७॥ आघोसिउ णामें चडुमाणु जो पेक्खिवि णउ गंभीरु उयहि जो पेक्खिवि चंदु ण कंतिकंतु ' मज्झत्यभाउ सुहसुक्कलेसु बुज्झियपरमक्खरकारणेहिं अवलोइउ सेसवि देवदेउ सम्म कोक्किउ संजमधणेहिं जगि भणमि भडारउ कहु समाणु । जो पेक्खिवि ण थिरु गिरिंदु समहि । जो पेक्खिवि सूरु ण तेयवंतु। णं धम्मु परिट्टिउ पुरिसवेसु । जो संजयविजयहिं चारणेहिं । उ भीसणु संदेहहेउ । विरइयगुरुविषयपयाहिणेहिं । [ 315 20 5 का अन्त करनेवाले, निश्चित आयु प्रमाणवाले, यतियों के प्रभु विश्व के विजयतिलकस्वरूप श्रीवर्धमान उत्पन्न हुए । घत्ता -- पूर्णचन्द्र को जीतनेवाले, सुरेन्द्रों द्वारा क्षीरसागर के जल से भरे कलशों से जिनेन्द्र का अभिषेक किया गया। ( 10 ) पूज्यनीय भी पूजित हुए । भुवनभूषण भी मणिमालाओं से भूषित हुए । खोटे शास्त्रों को दूषित करनेवाले उनकी नाना प्रकार के वृत्त - व्यापारों द्वारा संस्तुति की गयी। नाम से उन्हें बर्धमान घोषित किया गया। विश्व में आदरणीय को किसके समान बताऊँ ? उन्हें देखकर समुद्र गम्भीर नहीं रहता, उन्हें देखकर धरती सहित गिरीन्द्र स्थिर नहीं रहता, उन्हें देखकर चन्द्रमा कान्ति से कान्त नहीं रहता, उन्हें देखकर सूर्य तेजस्वी नहीं रहता । शुभ शुक्ल लेश्यावाले मध्यस्थभावी वह ऐसे लगते थे, मानो पुरुष वेश में धर्म प्रतिष्ठित हो । जान लिया है परमाक्षरों को तथा उनके कारण को जिन्होंने ऐसे संजय और विजय नाम के चारण मुनियों ने बचपन में देवदेव को देखा और उनके सन्देह का कारण दूर हो गया। जिन्होंने महान् विनयवाली प्रदक्षिणा की है, ऐसे उन संयमधन मुनियों ने उन्हें सन्मति कहकर पुकारा। अभिषेक जल से मन्दराचल को धोनेवाले इन्द्र 11.AP जइबड़। 12. A असित्तु । ( 10 ) 1. AP "वित्तवरवागिति । 2 A बहु समाणु 9 AP read a as band basa 4. AP कतिवंतु। 5. AP सुसुक्क । 6. A धम्पि 1 5. पयासहिं । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316] महाकइपुष्फयंतविरयड महापुराणु [96.10.10 अहिसेयसलिलधुयमंदरेण जो णिब्भउ भणिउ पुरंदरेण। तं णिसुणिवि देवें संगमेण होइवि भीमें उरजंगमेण। णंदणवणि कीलातरु णिरुद्ध गय सहयर सिसु थिउ तिजगबंधु। तहु फणिमाणिक्कई फसमाणु अविउलु अचलु' वि सिरिवड्माणु। घत्ता-फणमुहदाढाउ' कर फुसंतु णउ संकिउ। पुज्जिवि देवेण वीरणाहु तहिं" कोक्किउ ||100 15 कोटिं दुबई-जं सिसुदंसणेण' रिउणो वि हु होति विमुक्कमच्छरा। जस्स' कुमारकालपरिवट्टणववगय तीस वच्छरा । छ।। जो सत्तहत्थ सुपमाणियंगु में विद्धसिउ दूसहु अणंगु। णिबेइर मो मालिकोहि संजोहिः लोयंतियसुरेहि। अहिसिंचिउ पुणु सयलामरेहिं विज्जिज्जतउ चामरवरेहि। चंदप्पहसिवियहि पहु चहिष्णु तहिं णाहु' संडवणि णवर' दिण्णु। मग्गसिरकसणदसमीदिणंति संजायइ तियसुच्छवि महंति। वोलीणइ चरियावरणपंकि हत्युत्तरमज्झासिइ ससकि। 5 ने जो उन्हें निर्भय कहा, उसे सुनकर संगमदेव ने भीषण साँप बनकर नन्दनवन में क्रीड़ातरु को अवरुद्ध कर लिया। सब सहचर भाग गये, लेकिन त्रिजगबन्धु शिशु वहाँ रह गया। उसके फन के माणिक्यों को छूते हुए श्रीवर्धमान अक्षुब्ध और अचल थे। ___ घत्ता-साँप के मुख की दाढ़ों में हाथ डालते हुए भी वह शंकित नहीं हुए। देव ने पूजाकर उनका नाम वीरनाथ कहा। जिस शिशु के दर्शन से शत्रु भी मत्सर से रहित हो जाते हैं, ऐसे उनके कुमार-काल के प्रवर्तन में तीस साल समाप्त हो गये। जो सात हाथ के प्रमाणित शरीरवाले थे, जिन्होंने असह्य कामदेव को ध्वस्त कर दिया था, ऐसे उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया। लौकान्तिक देवों ने हाथ जोड़कर उन्हें सम्बोधित किया। श्रेष्ठ चामरों द्वारा हवा किये जाते हुए, उनका समस्त देवों द्वारा पुनः अभिषेक किया गया। चन्द्रप्रभ शिविका पर आरूढ़ होकर प्रभु ने खण्डवन में गमन किया। मार्गशीर्ष के कृष्णपक्ष में दशमी के दिन, देवों के द्वारा किये गये उत्सव में, चारित्रावरण कर्म के नष्ट होने पर, चन्द्रमा के हस्त और उत्तराफाल्गुन नक्षत्रों के मध्य में स्थित H. Pomits this timi. H. AP अविचलु। 10. AP फॉणमुह"। 11. A तहो। (11) I. A जस्स सुदंसणेण। 2. " तस्स। S.AP सो। 5. A चामरघरेहि; P चलचामरेटिं। 5. P चडिल्लु। 6. AP णाह। 7. A णायसंडु। ४. भञ्झासिय। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96.11.12] महाकइपुष्फवंतविरयउ महापुराणु [317 10 छट्टोववासु किउ मलहरेण तवचरणु लइउ परमेसरेण। मणिमयपडलें लेप्पिणु ससेस इंदें खीरण्णवि घित्त केस। घत्ता-परमेट्ठि रिसिंदु थिउ पडिवज्जिवि संजमु। थुउ भरहणरेहिं पुप्फयंतर्वादेयकमु ॥11॥ इय महापुराणे तिसद्विमहापुरिसगुणालंकारे महाभयभरहाणुमण्णिए महाकइपुष्फयंतविरइए महाकव्ये वीरणाहणिवखवणवण्णणो णाम उण्णउदिमो परिच्छेउ समत्तो ॥6॥ होने पर, मल का हरण करनेवाले परमेश्वर ने तीन दिन का उपवास (छह समय का भक्तप्रत्याख्यान कर तेला अर्थात् सी दिन का पचास) कर चाय ले लिया। इन्द्र ने उनके समस्त केश मणिमय पटल में रखकर क्षीरसमुद्र में विसर्जित कर दिये। ___घत्ता-इस प्रकार परमेष्ठी मुनीन्द्र संयम लेकर स्थित हो गये। पुष्पदन्त के द्वारा वन्दितचरण उनकी भरत के जनों ने स्तुति की। प्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारोंवाले इस महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित तथा महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का तीर्थकर महावीर का निष्क्रमण-वर्णन (दीक्षा-धारण) नाम का छियानवौं परिच्छेद समाप्त हुआ। 9. AP "णिवलवणं। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3]8 | महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराण [97.1.1 सत्तणउदिमो संधि मणपज्जयसंजुत्तउ देवदेउ थिरचित्तउ । तारहारपंरपरि कूलगामणामइ' पुरि ॥ ध्रुवकं ।। भिक्खहि परमेसरु पइसरइ मणपज्जयणयणे परियरिउ रायहु पियंगुवण्णुज्जलहु थिन भुयणणाहु दिण्णउ असणु तं लेप्पिणु किर जा णीसरिउ देवहिं जयतूरई ताडियई भो चारु दाणु उग्धोसियउं मंदाणिलु बूढर सीयलउ एत्तहि दुक्कम्मई गिट्ठवई जिण जिणकप्पेण जि चक्कमई घरि घरि सुसमंजसु संचरई। कूलहु घरपंगणि' अवयरिउ। पणवंतहु मालियकरयलहु। णवकोडिसुद्ध मुणि दिव्यसणु । ता भूमिभाउ रयणहिँ भरिउ। गयणयलहु फुल्लई पाडियई। अइसुरहिउं पाणिउं वरसियउ । णिउ परवंदिउ बहुगुणणिलउ। भीसणि णिज्जणि वणि दिण गमड। जो पाणहारि तास वि खमइ। 10 सत्तानवेवी सन्धि मनःपर्ययज्ञान से युक्त और स्थिरचित्त देवदेव परमेश्वर निर्मलहार के समान धवलगृहोंवाले कूलग्राम नगर में परमेश्वर भिक्षा के लिए प्रवेश करते हैं। न्यायवान् वह घर-घर जाते हैं। मनःपर्ययज्ञान से सहित वह कूल (राजा) के गृह-आँगन में आये। प्रियंगुलता के वर्ण के समान उज्ज्वल हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए राजा के यहाँ भुवननाथ ठहर गये। नौ प्रकार से शुद्ध दिये गये उस आहार को ग्रहण कर वह दिगम्बर मुनि जैसे ही बाहर निकले, वैसे ही भूमिभाग रत्नों से भर गया। देवों ने जयतूर्य बजाये। आकाशतल से फूलों की वर्षा हुई। 'अहो ! बहुत सुन्दर आहार' यह उद्घोष किया गया। अत्यन्त सुगन्धित जल की वर्षा हुई। शीतल मन्द पवन बहा। अनेक गुणों का घर राजा मनुष्यों के द्वारा वन्दित हुआ। यहाँ महावीर दुष्कर्मों का नाश करते हैं, भीषण निर्जन वन में दिन बिताते हैं। जिनवर जिन के आचरण से परिभ्रमण करते हैं। जो प्राणों का अपहरणकर्ता है उसे भी क्षमा कर देते हैं। (1) APणामे। 2.AP संसरत। 3. AP "पज्जयणाणें। 4.8 प्रगणि। 5. Pदिव्यवसण। 6. AP परिसियङ। 7. AP चिक्षामह। H. AP तासु नि। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 97.2.13] महाकइपुष्फयंतविश्यछ महापुराणु [319 घत्ता-सुणहसीहसीयालह ओरसियहं सकूलहं। वणि अच्छइ उब्भुब्भउ रणिहि णं थिरु" खंभउ || (2) ण करइ सरीरसंठप्पविहि सुपरीसह सहइ । मुयइ दिहि। वटुतकेसजडमालियउ णं चंदणु फणिउलमालियउ । उज्जेणिहि पिउवणि भययरिहि तमकसणहि भीमविहावरिहि। अण्णहिं दिणि सिद्धिपुरधिपिउ पिउवणि पडिमाजोएण थिउ । जोईसरु जणजणणत्तिहरु अवलोइउ रुहें परमपरु। मई कयउवसग्गहु किं तसइ णियचरियगिरिंदहु किं ल्हसइ । कि ण णंदणु पियकारिणिहि जोयउ जिणु सम्मइधारिणिहि । इय चिंतिवि जेहातणुरुहिण पिंगच्छिभिउडिभीसणमुहिण। बेयाल कालकंकालधर करवालसूलझसपरसुकर। पिंगुद्धकेस दीहरणहर किलिकिलिरवबहिरियभुवणहर । 10 चोइय धाइय हरि दिण्णकम फुप्फुप्फुयंत विसि विसविसम । घत्ता-कयभुवणयलविमझें पुणु वि हरेण रउद्दे।। णियविज्जहिं दरिसाविउ गुरु पाउसु बरिसायिउ ॥१॥ पत्ता-कुत्तों, सिंहों, शृगालों और दहाड़ते हुए शार्दूलों के उस वन में रात्रि में दोनों हाथ ऊपर कर इस प्रकार रहते हैं, मानो स्थिर खम्भा हों। वह शरीर की संस्कार-विधि नहीं करते। बड़े-बड़े परीषह सहन करते हैं, परन्तु धैर्य नहीं छोड़ते। बढ़े हुए केशों की जटाओं से घिरे हुए ऐसे प्रतीत होते हैं, मानो नागकुल से घिरा हुआ चन्दन वृक्ष हो। वह उज्जयिनी के मरघट में, अन्धकार से काली भयंकर रात्रि में स्थित थे। दूसरे दिन, सिद्धि रूपी इन्द्राणी के प्रिव वह मरघट में प्रतिमायोग में स्थित हो गये। रुद्र ने लोगों की जन्मपीड़ा का हरण करनेवाले परमश्रेष्ठ योगीश्वर को देखा। क्या यह मेरे द्वारा किये गये उपसर्ग से त्रस्त होते हैं और अपने चर्यारूपी पर्वत से गिरते हैं ? सम्यक्त्व धारण करनेवाली प्रियकारिणी का वह पुत्र ! यह विचार कर, पीली आँखों और भौंहों से भीषण मुखवाले बड़े लड़के ने काल-कंकाल धारण करनेवाले, जिनके हाथों में तलवार, शूल, झस और फरसे हैं, ऐसे पीले और खड़े केशोंवाले, लम्बे नाखूनोंवाले, अपने किलि किलि शब्द से भुवनगृह को बहरा बना देनेवाले वेताल प्रेरित किये। पैर बढ़ाते हुए सिंह, तथा विष से विषम फुफाकारते से हुए साँप दौड़े। पत्ता-जिसने विश्वतत्त्व का विमर्दन किया है, ऐसे रौद्र हर ने अपनी विद्या से प्रदर्शन किया और भयंकर पावस की वर्षा की। 9. सुणय; Pimits सीह। 10. थिरखंभउ। (2) 1. AP"सकस्यविष्टि, 2. AP फणिओमालियउ। S.AP जिगु जाणण' | 4. AP जोपहुं। 5. AP सुप्मा । 6. AP फणि पुष्कुपंत बहु विसि दिसम । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3201 महाकइपुष्फयंतविरयर पहापुराणु [97.3.1 पुणु वणयरगणु' कयपडिखलणु पुणु धगधगंतु जालिउ जलणु । देविंदचंददप्पहरण पुणु मुक्कई गांचापहरणई। सञ्चई गयाई विहलाई किह किविणह मंदिरि दीणाई जिह । सच्चइतणएण पवुत्तु हलि गिरिवरसुइ वियसियमुहकमलि। वीरहु वीरत्तु ण संचलइ कि मेरुसिहरि कत्थइ ढलइ । इय भणिवि बे वि दिवि गवई वसहारूढई 'रइरसरयई। चेडयरायहु लयललियभुव णियपुरबरि चंदण णाम सुय । णंदणवणि कीलइ कमलमुहि जिह जणिजणणु ण वि मुणइ सुहि। घता-तिह विलसियवम्मीसें णिय केण वि खयरीसें। पुणु णियपरिणिहि भीएं वणि घल्लिय "सुविणीएं ॥५॥ णियबंधुविओयविसण्णमइ घणयत्तें वसहयत्तवणिहि वणिणा णियमंदिरि णिहिव सइ तहिं दिट्टी चाहें हंसगइ। ते दिण्णी वणिचूडामणिहि। रूबेण णाई पच्चक्ख रइ। फिर उसने प्रतिस्खलन करनेवाला वनचरगण भेजा। फिर धकधक कर जलती हुई आग। फिर देवेन्द्र चन्द्र के दर्प का हरण करनेवाले नाना प्रकार के अस्त्र छोड़े। वे सब वैसे ही विफल चले गये, जैसे कंजूस के घर से दीन लोग चले जाते हैं। फिर एक दिन, जिसका मुखरूपी कमल विकसित है, ऐसी गिरिवर-सुता शिवा ने कहा-“वीर अपनी वीरता से च्युत नहीं हो रहे हैं, क्या सुमेरु पर्वत कभी ढलता है ?" यह कहकर रतिरस में लीन, बैल पर सवार वे दोनों (शिव और पार्वती) उनकी वन्दना करके चले गये। चेटक राजा की लता के समान कोमल हाथोंवाली, चन्दना नाम की कन्या अपने नगर में श्रेष्ठ थी। वह कमलमखी नन्दनवन में खेल रही थी। किसी प्रकार माता-पिता और सधीजन नहीं जान सके। ___घत्ता-कामदेव से विलसित विद्याधर उसे उठा ले गया और फिर अपनी पत्नी के डर से उस विनीत ने वन में डाल दिया। अपने बन्धुजनों के वियोग से दुःखी मन से उसे वहाँ भील ने देखा। उसने उसे वणिकों में श्रेष्ठ सेठ वृषभदत्त को धन की आशा में दे दिया। सेठ ने उसे अपने घर रख लिया। रूप में वह साक्षात् रति थी। णयरगुणु। 2. A onits पुणु। 3. A 'धगंत। 4. A 'चंद5. AP विगयई। R. AP धीरनु। 7. AP रयरस । (3) I. A वणयरमण; P 8. चेल'19.A दुविणीएं। (4)1. A HहI Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 97.5.61 महाकइपुष्फयंतविरयत महापुराणु [ 321 पडिवक्खगुणेहिं विमद्दियइ चिंतिउ तहु पियइ सुहद्दियइ। एही कुमारि जइ रमइ बरु तो पुणु महुं दुक्करु होइ घरु। एयहि केरलं सहुं जोव्यणेण णासमि वररूउ कुभोयणेण। इय भणिवि णियंबिणि रोसवस घल्लंति भीमदुव्ययणकस। कोद्दवकूरहु सराउ भरिउ सहुं कजिएण रसपरिहरिउ। सा णिच्च देइ तहि णवणवउं एतहि परमेट्ठि सुभइरवर्ड। गुरुपावभावभरववसियउं विसहेप्पिणु हरदुबिलसियां। समसत्तुमित्तुजीवियमरणु अण्णहिं दिणि भव्वसमुद्धरणु । पिंडस्थिङ जाणिवजीवगइ कोसंबीपुरवरि पइसरइ। घत्ता-णियलणिरुद्धपयाई चेडयणिवदुहियाइ' । आविधि संमुहियाइ पणवेप्पिणु दुहियाई ॥4॥ 10 कोद्दवसित्थई सरावि कयई सउवीरविमीसई हयमयइं। मुणिणाहहु करयलि ढोइयई तेण वि णियदिट्टिई जोइयई। जावाई भोज्जु रसदिण्णदिहि अट्ठारहखंडपयारविहि। जिणदाणपहावें दुद्दमई आयसघडियई रोहियकमई। सज्जणमणणयणाणंदणहि परिगलियई णियलई चंदणहि। अमरहिं महुयरमुहपेल्लियई कुंदई मंदारई घल्लियइं। उसकी सौतपक्ष के गुणों से विमर्दित प्रिया सुभद्रा ने सोचा कि यदि यह कुमारी वर से रमण करती है, तो मेरे लिए यह घर कठिन हो जाएगा। इसके यौवन के साथ सुन्दर रूप को खराब भोजन के द्वारा नष्ट करती हूँ यह विचार कर तथा क्रोध से अभिभूत होकर वह भीषण दुर्वचन रूपी कोड़ों से मारने लगी। वह कोदों की चूरी से भरा हुआ तथा नीरस काँजी के साथ प्रतिदिन नया-नया सकोरा देने लगी। उसी समय परमेष्ठी. अत्यन्त भयंकर भारी पाप-भाव के भार से व्यवसित हर के दर्विलास को सहक | को सहकर, शत्रु-मित्र व जीवन-मरण में समचित्त, तथा भव्यों का उद्धार करनेवाले, जीवगति को जाननेवाले महावीर ने आहार के लिए कौशाम्बी नगरी में प्रवेश किया। घत्ता-जिसके पैर बेड़ियों से जकड़े हुए हैं, ऐसी सामने आयी हुई, दुःखिनी, चेटक राजा की कन्या ने सकोरे में रखे हुए, कॉजी से मिले हुए, मद का नाश करनेवाले कोंदों के कण मुनिनाथ महावीर के करतल पर रख दिये। उन्होंने भी, अपनी दृष्टि से उन्हें देखा। जिसमें रस की दृष्टि दी गयी है, ऐसा वह अठारह प्रकार का भोजन बन गया। जिनवर के दान के प्रभाव से, सज्जनों के मन एवं नेत्रों को आनन्द देनेवाली चन्दना की पैरों को जकड़नेवाली लोहे से निर्मित बेड़ियाँ टूट गयीं। देवों ने मधुकरों के मुखों से प्रेरित जुही 2. Pएयहो। 3-AP टिg34.A नृव । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322 ] [97.5.7 महाकइपुप्फयंतविरयत महापुराणु रयणाई वणकबुरियाई 'पसरंतकिरणविष्फुरियाई। हव दुंदुहि साहुकारु कर गुणिसंगें कासु ण जाउ जउ। कण्णहि गुणोहु विउसेहिं घुउ । सहुं बंधवेहिं संजोउ हुआ। चारहसंवच्छरतवचरणु किउ सम्मइणा दुक्कियहरणु। पोसंतु अहिंस खति ससहि भयवंतु संतु विहरंतु महि। गउ जिम्हियगामहु' अइणियडि सुविउलि रिजुकूलाणइहि तडि। घत्ता-मोरकीरसारससरि उज्जाणम्मि मणोहरि । मालमूलि रिसिराणउ रयणसिलहि आसीणउ ॥5॥ 10 छद्रेणुचवासें हयदुरिएं वइसाहमासि सियदसमिदिणि. हत्थुत्तरमज्झसमासियइ' घणघण घाइकम्मई हयई घंटारव हरिरव पडहरव वंदयिउ तेहिं वीराहिवइ किट समवसरणु गयसरसरणु परिपालियतेरहविहचरिएं। अवरोहइ जायइ हिमकिरणि । पहु पडिवण्णउ केवलसियइ। खुहियाई झत्ति तिण्णि वि जयई। आया असंख सुर संखरव। सुत्तामउ चरणजुयलु णवइ। उपइउ तिहुवणजणसरणु। और मन्दार के पुष्प फेंके और रंगों से चित्र-विचित्र तथा फैलती हुई किरणों से चमकते हुए रन । दुन्दुभियाँ बज उठीं, साधुवाद दिया गया। गुणी व्यक्ति के साथ रहने से किसकी जय नहीं होती ? विद्वानों ने कन्या के गुणों की प्रशंसा की। बन्धुओं के साथ उसका संयोग हो गया। महावीर ने पापों का हरण करनेवाला बारह वर्ष का तपश्चरण किया। शान्तिपूर्वक क्षमा और अहिंसा का पोषण करते हुए भगवन्त सन्त धरती पर विहार करते हुए जिम्भिय गाँव के अत्यन्त निकट ऋजुकूला नदी के विशाल तट पर पहुंचे। ___घत्ता-जिसमें मोर, तोते और सारसों का स्वर है, ऐसे मनोहर उद्यान में शालवृक्ष के नीचे रत्नशिला पर मुनिनाथ महावीर विराजमान हो गये। तेरह प्रकार के चारित्र का पालन करनेवाले, पाप के नाशक, तेला उपवास द्वारा, वैशाख शुक्ला दशमी के दिन, सायंकाल में हस्त और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के बीच में चन्द्रमा के आने पर प्रभु केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी से सम्पन्न हो गये। उन्होंने लोहधन के समान घातिया कर्मों का नाश कर दिया। शीघ्र ही तीनों लोक विक्षुब्ध हो उठे। घण्टों, सिंघों, नगाड़ों और शंखों के शब्द करते हुए असंख्य देव आये और उन्होंने वीराधिपति को सेवा को। इन्द्र ने चरणों की वन्दना की। कामदेव की शरण से रहित एवं तीनों लोकों को शरण देनेवाले (5) 1. पसति किरण A हट। 3. A सुमहि । 1. AP अभिय' . (6) । मजारमा'। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 97.7.10] महाकइपुष्फवंतविरयड महापुराणु [ 323 आहंडलेण पप्फुल्लमुह सेणिय हउं आणिउ दियपमुहु। महुं संसएण संभिण्ण मइ जिणु पुच्छिउ जीवहु तणिय गइ । गाहें महुँ संसउ णासियउ __ मई अप्पड दिक्खइ भूसियउ। मई समउं समणभावहु गवई पावइयई दियहं पंचसयई। पत्ता-पत्ते मासे सावणि बहुले" पाडिवए दिणि। उप्पण्णउ चउबुद्धिउ मह सत्त वि रिसिरिद्धिज' ॥6॥ म 10 महंतो महाणाणवंतो सभूई गणी वाउभूई पुणो अग्गिभूई। सुधम्मो मुणिंदो कुलायासचंदो। अणिदो णिवंदो' चरित्ते अमंदो। इसी मोरि मुंडी सुओ चत्तगायो । समुप्पण्णवीरंघिराईवभावो। सया सोहमाणो तवेणं खगामो पवित्तो सचित्तेण मित्तेयणामो। सयाकंपणो णिच्चलंघो पहासो विमुक्कंगराओ रइंणाहणासो। इमे एवमाई गणेसा मुणिल्ला' जिणिंदस्स जाया असल्ला महल्ला। सपुव्वंगधारीण' मुक्कावईणं __ पसिद्धाइं गुत्तीसयाई जईणं। दहेक्कूणयाई तहिं सिक्खुयाणं समुम्मिल्लसव्वावहीचक्खुयाणं। घत्ता-मोहें लोहें चत्तउ तिहिं सएहिं संजुत्तउ। एक्कु सहसु संभयउ खमदमभूसियरूवउ ॥7॥ ___10 महावीर उस समवसरण (धर्म-सभा) में विराजमान हुए। "हे श्रेणिक ! द्विजप्रमुख मैं (इन्द्रभूति गौतम गणधर) इन्द्र के द्वारा यहाँ लाया गया। मेरी बुद्धि संशय से नष्ट हो चुकी थी। मैंने जिन भगवान से जीव की गति पूछी। उन्होंने मेरा संशय दूर कर दिया। मैंने स्वयं को दीक्षा से विभूषित कर लिया। मेरे साथ पाँच सौ ब्राह्मणों ने भी श्रमणधर्म स्वीकार कर लिया। घत्ता-फिर श्रावण मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा के दिन मुझे चार ज्ञान और सात ऋद्धियाँ हुईं।" महाज्ञानी सम्भूति (गौतम) गणधर, वायुभूति, अग्निभूति, मुनीन्द्र सुधर्मा कुलरूपी आकाश के चन्द्रमा, अनिन्द्य मनुष्यों के द्वारा वन्दनीय और चारित्र में अनिन्ध थे। इनमें थे-श्रीजिनेन्द्र के चरणकमलों की भक्ति उत्पन्न हुई है जिन्हें, ऐसे मुनि मौर्या और मौन्द्रय (मुण्ड), सदैव शोभायमान, तप से शुक्ल ध्यान को धारण करनेवाले, अपने चित्त से पवित्र मैत्रेय नाम के गणधर, नित्य अलंघनीय अकम्पन, अंगराग से रहित और कामदेव का नाश करनेवाले प्रभास । इस प्रकार ये शल्य से रहित महान् गणधर हुए। इसी प्रकार ग्यारह अंगों और चौदह पूर्षों के धारी, आपत्ति से रहित तीन सौ मुनि उनके समवसरण में थे। नौ हजार नौ सौ शिक्षक थे। घत्ता-मोह और लोभ से रहित तथा क्षमा और दम से जिनका शरीर भूषित है, जिन्हें सर्वावधिज्ञान उत्पन्न हो गया है, ऐसे एक हजार तीन सौ अवधिज्ञानी थे। सिरिसक। 2.4 गय सुर सरणु। 9. P गयाई: 1. P"सयाई। 5. १ मासे पुणु सावणे। 5. AP बहुलपक्खे पडिदए दिणे। 7. (7) 1. A नृवंदो। 2. A णिच्चलको। 9. A गणिवा 1 1.P सुपुव्वंग । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 ] महाकइपुष्फयतविरयन महापुराणु [97.8.1 पंचेव चउत्थणाणधरहं सत्तेव सुकेवलिजइवरह। चत्तारि सवई वाईवरह दियसुगयकविलहरणयहरह। छत्तीस सहासई संजईहिं भणु एक्कु लक्खु मंदिरजईहिं । लक्खाई तिण्णि जहिं साबहि सुरदेविहिं मुक्कसंखगइहिं। संखेज्जएहिं तिरिएहिं सहुँ परमेट्टि देउ सोक्खाइ महुं। णाणाविहोय विहरेप्पिणु देउ* गामपुरई। सम्मत्तयोयमिच्छामलई संबोहिवि भव्यजीवकुलई। विहरंतु वसुह विद्धत्थरइ विउलइरि पराइउ भुवणवइ । आवेप्पिणु दुहणिण्णासवरु सेणिय पई वंदिउ तित्थयरु। पुच्छियउ पुराणु महंतु पई भासियउं असेसु वि तुज्झु मई। यत्ता-णिसुणिवि गोत्तमभासिय भरहाणंदविहूसियं । संबुद्धा विसहरणरा पुप्फयंतजोईसरा' ॥8॥ इय महापुराणे तिसहिमहापुरसिगुणालंकारे महाभब्वभरहाणुमष्णिए महाकहपुष्फयंतविरइए महाकवे बहुमाणसामिकेवलणाणुप्पत्ती णाम सत्तणउदिमो परिच्छेउ समतो 1970 पाँच सौ मनःपर्यय ज्ञानी थे। केवलज्ञान को धारण करनेवाले सात सौ थे। द्विज सुगत कपिल के नय का हरण करनेवाले चार सौ वादीश्वर मुनि थे। आर्यिकाएँ छत्तीस हजार थीं। एक लाख मन्दिरगामी श्रावक थे। तीन लाख श्राविकाएँ थीं। देव और देवियाँ असंख्यात थे। संख्यात तिर्यंचों सहित जिनवरदेव मुझे सुख प्रदान करें। अनेक प्रकार के देवों का अनुरंजन करनेवाले ग्रामों व नगरों में विहार कर, जिन्होंने सम्यक्त्वरूपी जल से मिथ्यारूपी मल धो दिया है, ऐसे भव्य जीव-समूह को सम्बोधित कर धरती पर विहार करते हुए वीतराग भगवान् भुवनपति महावीर घिपुलाचल पर पहुँचे। हे श्रेणिक ! तुमने आकर दुःख का नाश करनेशले तीर्थंकर की वन्दना की। तुमने महापुराण पूछा और मैंने उसका पूरा-पूरा तुमसे कथन किया। ___घत्ता-भरत के आनन्द से विभूषित गौतम गणधर के कथन को सुनकर विषधरों, मनुष्यों को तथा पुष्पदन्त और ज्योतीश्वरों को ज्ञान प्राप्त हुआ। इस प्रकार त्रेसट महापुरुषों के गुणलंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा घिरचित और महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का वर्द्धमान-स्यामी केवलज्ञान-उत्पत्ति नाम सत्तानयेवों परिच्छेद समाप्त हुआ। (8) I. AP add aner this *पाina | R. AP निहसिउ। 7. संज्य, संत भगवंतहं गवसयह। 2. AP बाईसरह। 3. AP देसगामपुरई। 4. AP सवणवई 5. AP जोइसरा। ४. AP सत्ताणउदिमो। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98.1.141 महाकइपुष्फयंतविस्यउ महापुराणु [ 325 अट्टणउदिमो संधि पभणइ मगहणरिंदु भो भो तिहुवणसारा। अक्खहि मज्झु भवाइं गोत्तमसामि भडारा ॥ ध्रुक्कं ॥ भासइ इंदभूइ' भूईसर भो दसारकुलकाणणकेसरि खयरसारु णामें तहि वणयरु साहु समाहिगुत्तु पई दिउ वदिउ करयल मउलिवि भावें संजमभारु गरुउ" परियड्वउ भिल्ले भणिउ धम्मु किं वुच्चइ । धम्मु बप्प जं जीउ ण हम्मद जं अदिण्णु परदविणु ण धिप्पइ । जं णउ रणियालि भुजिज्जइ पंचुंबरपरिहारु रइज्जइ सो ज्जि धम्मु जं बयई अहंगई भो भो णिसुणि भविस्सजिणेसर । अस्थि एत्थु वरबिंझमहागिरि। तुहं होतउ बाणासणसरकरु। पिट्ठाणिहिउ सुटु' विसिट्ठउ। उझियपावें वज्जियगावें। रिसिणा बोल्लिउ धम्मु पवड्ढउ। पुणरवि तासु भडारउ सुच्चइ। अलिउं ण भासिज्जइ णउ सुम्मइ। जं मणु परपरिणिहि पाउ रप्पइ। मासु मन्जु जं महु वज्जिज्जई । परपेसुण्णउं जं ण कहिन्जइ। अण्णु किं धम्महु मत्थइ सिंगई। 10 अट्ठानवेवी सन्धि मगधराज कहता है-हे भुवनश्रेष्ठ ! आदरणीय गौतम स्वामी ! आप मेरे पूर्वजन्मों को बताइये। गौतम गा गधर कहते हैं-"हे भावी जिनेश्वर ! हे हरिवंशरूपी कानन के सिंह श्रेणिक ! सुनिए। इस भारतवर्ष में श्रेष्ठ विन्ध्याचल है। तम उसमें खदिरसार नाम के भील थे-अपने हाथों में ग धारण करनेवाले। तमने निष्ठा (ध्यान) में लीन और अत्यन्त विशिष्ट समाधिगप्त मुनि को देखा। तमने भावपूर्वक हाथ जोड़कर उनकी वन्दना की। पाप से रहित और गर्व से दूर मुनिराज बोले-"तुम महान् संयमभार धारण करो, तुम्हारा धर्मभाव बढ़े।" भील ने कहा-"धर्म क्या कहा जाता है ?" तब फिर मुनिराज उसे समझाते हैं- "हे सुभट ! धर्म वह है जिसमें जीव का वध नहीं किया जाता; झूठ नहीं कहा जाता, झूठ नहीं सुना जाता; जो नहीं दिया हुआ परधन है-उसे नहीं लिया जाता और मन दूसरे की स्त्री में नहीं लगाया जाता; जिसमें रात्रि के समय भोजन नहीं किया जाता: मांस, मदिरा और मधु का त्याग किया जाता है; पाँच उदुम्बर फलों का परित्याग किया जाता है; दूसरों की चुगली नहीं की जाती; जो अभंगव्रत है, यही धर्म है; और क्या धर्म के मस्तक पर सींग होते हैं ?" (1) 1. AP इंदभूमि भूमीतर। 2. A खइरसास। 3. A तह। 4. A सुद्ध। 5. A मउलिय। 6. A गरुय आयउ। 7. AP वंचिज्जइ। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 1 महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु घत्ता - तं णिसुणिवि सवरेण उच्चाइउ वयभारु । मुक्कउ जीविउ जाव वायसमासाहारु ॥1॥ (2) आयडियबहुघडियामालें तहु सरीरु रोएं आसोसिउ कायमासु भक्खिउं ण चिलाएं आहूय तहु केरउ सालउ सूरवीरणायें आवंतें' णिसुय तेण कामिणि शेवंती ग पुच्छ्रिय सा झत्ति विलासिणि कहइ नियंबिणि इह हउं जक्खिणि जासु "मुदिहिं संबोहिय मइ रिट्झ्यपलणिवित्तिफलसारें पई जाइवि वयभंगु करेव्वउ तं णिसुणिवि गउ तुरिउ वणेयरु पत्थिउ मेहुणेण णिरु णेहें केव वि गहियउं वउ ण वि भग्गजं [ 98.1.15 15 F परिवह्नतें दी। कालें । भेस भिसयवरेहिं समासिउं । ता घरिणिइ सज्जणसंघाएं। सारसपुरवराउ वेयालउ । णिसि वणि वियss पयई घिवतें । हा हा पाह णाह पभणंती । धरिणिरोहणग्गोहणिवासिणि । लीलालोयणधवलकंडक्खिणि' । जो तुहुं जाणहि तुह बहिणीवर | तें होएव्वर महु भत्तारें । सो महुं सामिल होंतु धरेव्बउ | खणि संपत्तउ सतहोयरिधरु । इबरें वाहिवि लुंचियदेहें । ता तं सुहिहियउल्लइ लग्गउं । 5 ( 2 ) 1. AP दिग्धें । 2. AP भक्खिकण 3. P सूरवीरु णायें। 4. AP आयेंतें। 5. AP लीलालोइणि 6 A मुणिदें। 7 A रिड्डिय 8. A गायरु; P बणय 9 A पछि " पुच्छिए । 10 घत्ता - यह सुनकर उस भील ने व्रतभार ग्रहण कर लिया। उसने जीवन-भर के लिए कौए के मांस का आहार छोड़ दिया। 2) घूमते हुए रहट की तरह लम्बा समय बीतने पर उसका शरीर रोग से सूखकर काँटा हो गया। वैद्यवरों ने उसे संक्षेप में दवा बतायी। परन्तु भील ने कौए का मांस नहीं खाया। तब स्त्री ने सज्जनों के समूह के द्वारा उसके वेगवान साले को सारसपुर ( सारसौख्य नगर ) से बुलवाया। रात्रि के समय भयंकर वन में पैदल आते हुए उस शूरवीर साले ने सुना कि एक स्त्री ' हा स्वामी ! हा स्वामी ' कहकर हो रही है। वह गया और शीघ्र उसने धरती पर उगे हुए वटवृक्ष में निवास करनेवाली उस स्त्री से पूछा। अपनी चंचल आँखों के धवल कटाक्षोंवाली उसने कहा- "मैं एक यक्षिणी हूँ। जिसको मुनीन्द्रों ने सम्बोधित किया है, ऐसे अपने बहनोई को तुम जानते हो, कौए के मांस को छोड़ने के फल के प्रभाव से वह मेरा पति होगा । परन्तु तुम जाकर उसका व्रतभंग करोगे और उसे मेरा पति होने से रोक लोगे ।" यह सुनकर वह भील तुरन्त गया और शीघ्र अपनी बहिन के घर पहुँचा। साले ने सम्बोधन करते हुए प्रेम से प्रार्थना की कि किसी लुंजपुंज शरीरवाले व्यक्ति ने ग्रहण किया हुआ व्रत नहीं तोड़ा। तब यह बात उस सुधी के मन को लग गयी। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98.3.12) महाकइपष्फयंतांवरया महापुराणु [ 327 घत्ता--ता तें जक्खिपवंचु तहु भासिउ णीसेसु। तं णिसुणिवि णियचित्ते आणदिउ सवरेसु ॥2॥ (3) सव्वमासपरिचाउ करेप्पिणु ___मुउ मुणिवयणु सइति' धरेप्पिणु। हुउ सोहम्मि देउ 'रुणिम्मलु किं वणिज्जइ जिणधम्महु फलु। दुक्खिउ सूरवोरु संजायउ भीसणु तं काणणु पडिआयउ । पुच्छ्यि जक्खि तेण सयणुल्लउ सो अम्हारउ वयविहि भल्लउ । मुउ तुह पिउ' किं हुयउ ण हूयउ भणु परमेसरि णिरुवमरूयउ। अक्खइ 'जक्खिणि किं अखिज्जइ मझु कलेवरु विरहें झिज्जई। बुक्कणपलपरिहरणु सुहावउ किर होसइ महुं पीणियभावउ। णवर मई वि तुह मंत् पयासिउ अपण अप्पउं झत्ति विणासिउ। सव्वीवजंगलपरिचाएं समकिउ गुरुपुण्णणिहाएं। सो सोहम्मि वाहु उप्पण्णउ अणिमाइहिं गुणेहिं संपण्ण। घत्ता-ता समाहिगुत्तस्स पासि गपि भिल्लेण।। सयल' वि मासणिवित्ति गहिय सुणीसल्लेण ॥७॥ घता-और तब उसने उस यक्षिणी के प्रपंच को उससे कहा। यह सुनकर भीलराज अपने मन में प्रसन्न हुआ। (3) सब प्रकार के मांस का परित्याग कर, वह अपने मन में मुनि के वचनों को धारण कर मर गया। सौधर्म स्वर्ग में कान्ति से निर्मल देव हुआ। जिनधर्म के फल का क्या कथन किया जाये, शूरवीर साला बहुत दुःखी हुआ। वह उस भीषण वन में लौटा। उसने यक्षिणी से पूछा- "व्रत करनेवाला हमारा वह भला सम्बन्धी मर गया है, सुन्दर रूपवाला वह तुम्हारा पति हुआ या नहीं, हे परमेश्वरी ! बताइए।" वह यक्षिणी कहती है-"क्या कहा जाए ? मेरा शरीर विरह में जल रहा है। कौए के मांस का त्याग करनेवाला, सुखदायक वह मेरा प्रीतिजनक कैसे होगा ? और उल्टे मैंने तुमसे यह रहस्य प्रकट कर स्वयं अपना शीघ्र नाश कर लिया। जिसमें समस्त जीवों के मांस का परित्याग कर दिया गया है, ऐसे महान् पुण्य के समूह से अलंकृत वह भील सौधर्म स्वर्ग में अणिमादि ऋद्धियों से सम्पन्न देव उत्पन्न हुआ है।" पत्ता-तब वह भील समाधिगुप्त मुनि के पास गया और निःशल्य होकर उसने सब प्रकार से मांस-निवृत्ति का व्रत ग्रहण कर लिया। (3) 1. AP सुइत्ति। 2. Aणिरु णिमलु। ::. A ग्रिड । 4. A? जक्खि काई अक्खिज्जइ। 5. AP खिलइ । क. PENSITA सयलपासणिवित्ति। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 ) महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [98.4.1 सूरवीरु सावउ संजायउ जाणवि' अरुहधम्मु णिम्मायउ। दोसायरई भुत्तसुहसायउ खयरसारु' सो' सग्गहु आयउ । एव बप्प सो पुण्णु चिरायउ इह पुणु मगहदेसि संजायउ। पुरि रायह' हरि लच्छिसहायहु सिरिमइदेविहि कूणियरायहु। उप्पण्णउ सुउ सेणिय णा रूवें तुहं जि कामु कि कामें। ताएं कुलसिरिजोग्गउ जाणिउ मायाकलहें णिलयहु णीणिउ। जिह पायडणरु" तिह अवगणिउ णंदिगामलोएं णउ मण्णिउ । विप्में सहुँ गओ सि देसंतरु जाइदेवपासंडकहतरु। णिसुणमाणु" मिच्छत्तमलीमसु तुहं जाओ सि सकम्मपरब्बसु। बंभणेण तुह बहुसुहभायण णियसुय दिण्णी सिसुमिगलोयण' । ताहि पुत्तु पइ जायउ केहउ बुद्धिइ सुंदरु सुरगुरु जेहउ। पुणु णरणाहें णेहु वहतें कोक्किउ तुहं णियरज्जु मुयंतें। घत्ता–पुरु सीहासणु छत्तु दिण्णई15 अइअणुराएं। जयजयसदें तुन्झु पटु णिबद्धउ ताएं ॥4॥ 10 वह शूरवीर अहंन्तधर्म को माया रहित समझकर श्रावक हो गया। दो सागर पर्यन्त सुखों का आस्वादन कर वह खदिरसागर भील स्वर्ग से आ गया। हे सभट । वह पण्यात्मा भील फिर यहाँ मगधदेश में उत्पन्न हुआ। राजगृह में जिसकी लक्ष्मी सहायक है, ऐसे राजा कुणिक और श्रीमती देवी से उत्पन्न श्रेणिक नाम के पुत्र तुम हो। रूप में तुम काम (देव जैसे) हो। कामदेव से क्या ? पिता ने तुम्हें कुललक्ष्मी के योग्य समझा, इसलिए झूठ-मूठ की लड़ाई करके तुम्हें घर से निकाल दिया। एक सामान्य मनुष्य की तरह तुम्हारा अपमान किया। नन्दीग्राम के लोगों ने तुम्हें नहीं माना। एक ब्राह्मण के साथ तुम देशान्तर चले गये। वहाँ जाति और देव सम्बन्धी पाखण्डपूर्ण कथाओं को सुनते हुए, अपने कर्म के वशीभूत तुम मिथ्यात्व से मलिन हो गये। ब्राह्मण ने तुम्हें, अनेक सुखों की भाजन शिशुमृगनयनी कन्या दे दी। हे पुत्र ! तुम उसके पति उस प्रकार हो गये, जिस प्रकार बुद्धि से बृहस्पति सुन्दर हो जाता है। फिर, स्नेह धारण करते हुए राजा .. ने राज्य का परित्याग करते हुए तुम्हें बुलाया। पत्ता-फिर अत्यन्त अनुराग से सिंहासन और छत्र दिया। और पिता ने जय-जय शब्द के साथ तुम्हें राजपट्ट बाँध दिया। (4) 1. AP जाणेवि। 2. Padds after this एत्तहि सुरु पुणणावसु जायउ। 3. खइरसारु। 4. AP सोहम्महो। 5. AF omits this foot. 7. A omits this foot ४. A रायहरे। 9. A सुरु। 10. A पाइयणरु। 11. P पासंडिकाँतरू। 12. AP णिसुणि माणु। IS AP भावणि। 14. AP सिसुपिगलोचणि। AP दिग्णउं। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ' 98.5.15 ] महाकपुप्फयंतविरय महापुराणु (5) करभरसंदोहउ मिसु मंडिउ तुह मुहदंसणसिरि मतें जणु कंदंतु कणंतु णिरिक्खिउ पुणु सुएण सहुं एत्थु पराइउ गरुयारंभपरिग्गहजुत्तें' परं परयाउसु बप्प णिउत्तउं ता उप्पण्ण गुणिकहबुद्धिइ खाइउं सेणिएण उप्पाइउं पुणु वि भडारउ पुच्छिउ भावें भणु आगामि जम्मि किं होसमि तं आणिवि जइबs घोसइ रयावणिहि दुकम्मविरम्महि पंचविहाई विहत्तसरीरई होसहि भरहि पढमतित्थकरु तं निशुलिगु कुचिपकाएं रोसें गंदिगाउं परं दंडिउ । जणि सहुं आवंतें संतें । तुह पुत्तें सो अभएं रक्खिउ । कहसंबंध असेसु णिवेइउ । तिब्वकसाएं घणमिच्छत्तें । एवहिं तं कहि जाइ अभुत्तरं । संजाय णिरुवममणसुद्धिइ । दंसणु णिस्संदेहविराइउं । हउं पाबिट्टु अलंकिउ पावें । असुहसुहाई केत्यु भुंजेसमि । णिसुणहि मागस जं होसइ । तुहु होसहि णिव णारउ धम्महि । अणुहुजिवि तहु दुक्ख घोरई । सम्मइ जिह तिह परमसुहंकरु' । विषि धोति लेणियराएं। [ 329 (5) 1. AP गुरुआरंभ | 2. AP दुष्कम्मा" । 3. AP तुहुं होएसहि णारउ धम्महि । 4. AP पर सुहरु । 5 10 15 तुमने क्रोध में आकर करभार के समूह का बहाना बनाया और नन्दीग्राम को दण्डित किया । तुम्हारे मुखदर्शन की शोभा की चाह करते हुए और अपनी माता के साथ आते हुए तुम्हारे पुत्र अभयकुमार ने लोगों को रोते और चिल्लाते हुए देखा। उसने उनकी रक्षा की। फिर, पुत्र के साथ तुम यहाँ आये और मैंने अशेष कथा-सम्बन्ध निवेदित किया। भारी आरम्भ और परिग्रह से युक्त घने मिथ्यात्व और तीव्रकषाय के कारण, हे सुभट ! तुमने नरक आयु का बन्ध कर लिया है। अब वह बिना भोगे हुए कैसे जा सकता है ?" उत्पन्न हुई गुणीजन की कथा बुद्धि और अत्यन्त निर्मल चित्तशुद्धि होने से राजा श्रेणिक ने असंशय से शोभित क्षायिक सम्यग्दर्शन अर्जित कर लिया। फिर भी श्रद्धापूर्वक उसने आदरणीय से पूछा - "पाप से अलंकृत में, आगामी जन्म में कहाँ होऊँगा ? यह बताइए । कहाँ मैं अशुभ सुखों का भोग करूँगा ?" यह सुनकर यतिवर कहते हैं- "हे मगधेश ! तुम जो होगे, वह सुनो। दुष्कर्मों की आश्रय धर्मा नाम की पहली नरकभूमि में, हे राजन् ! तुम नारकी होगे। पाँच प्रकार के खण्डित शरीरों और घोर दुःखों को भोगकर तुम भरत क्षेत्र में प्रथम तीर्थंकर होगे-सन्मतिनाथ के समान परम कल्याणकारक।" यह सुनकर, अपने शरीर को संकुचित करते हुए राजा श्रेणिक प्रणाम करके बोला- "इस नगर में ऐसा कोई दूसरा भी राजा है, जो Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 ] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु एत्थु णयरि णरयहु जाएसइ चिरु गरु होतउ पुणु परु जायउ घत्ता - सो सुमरवि चिरजम्मु चिंतामणि पाविट्टु पुण्णु पाउ कहिं जीवहं ॥5॥ ( 6 ) सालि ण होइ कंगु महिववियउ गद्दहु गहु माणुसु माणुसु एव जाइवाएं सो पडियउ सत्तमयहु दूरीकचविरयहु रायरोसदोसोहपवत्तणु पियइ मज्जु परजीविउ हिंसइ सेणियणिवइकुलालंकारें हउं किं होंत चिरजम्मंतरि होतउ आसि विप्पु तुहुं सुंदरु सो साबउ बिण्णि व ते सहयर अवरु को वि किं णउ जइ भासइ । पायें अवरहि जोणिहि पायउ । उज्झियणाणपईवहं । किं जिणेण जणवउ संतवियउ । होइ ण अवरु को' वि दुक्कियवसु । अइदुद्दते कम्मे घडियउ । जाएसइ तमतमपहणरयहु । असहावत्तु पत्तु महिलत्तणु । छट्टी महि णिग्धिणु पइसेसइ । रिसि परिपुच्छिउ अभयकुमारें । भाइ भडारउ इह चरिसंतरि । अवरु वि लंघियगिरिदरिकंदरु । जरकंथाकरंककड्डियकर । [ 98.5.16 5 5. AP सुअरेवि । 6. AP चिंताइ मणे पाविउ पुष्णु पाउ कह जीवहं । ( 6 ) 1.AP किं पिं। 2. P जामुवाएं। 3. P दोसाह" A "नृबई'। 5. A परिउच्छिउ 6. AP वि जण सहचर 10 नरक में जाएगा ?" मुनि कहते हैं-"जो काल सौकरिक (दूसरा नाम चिन्तामणि) पहले मनुष्य था, वह फिर मनुष्य हुआ। पाप से भी वह दूसरी योनि में नहीं गया। घत्ता - अपने चिरजन्म की याद कर वह पापिष्ठ ( चिन्तामणि ) ( सोचता है ) – ज्ञानरूपी प्रदीप से रहित जीवों के लिए पुण्य-पाप कैसा ? ( अर्थात् पुण्य-पाप का विचार ज्ञानियों के लिए है) । (6) धरती में बोया गया उत्तम धान्य कंगु ( कोदो) नहीं हो सकता। फिर, जिन भगवान् के द्वारा जनपद के सन्तप्त होने का क्या प्रश्न है ? गधा गधा है, मनुष्य मनुष्य है। पाप के वंश से जीव कुछ और नहीं होता। इस प्रकार जातिवाद से प्रतारित और अत्यन्त दुर्दान्त कर्म से घटित वह पुण्यों से अत्यन्त दूर तमतमः प्रभा नामक सातवें नरक में जाएगा। राग, क्रोध और दोषों के समूह का प्रवर्तन करनेवाली अशुभ पात्र स्त्रीत्व को वह प्राप्त हुआ। वह मद्य पीती है, दूसरे जीवों की हिंसा करती है, वह छठे नरक में प्रवेश करेगी।" तब राजा श्रेणिक के कुलालंकार अभयकुमार ने मुनि से पूछा कि पूर्वजन्म में मैं क्या था ? आदरणीय बताते हैं कि तुम इस भारतवर्ष में सुन्दर ब्राह्मण थे; और एक और दूसरा, जिसने पहाड़ों की घाटियों और गुफाओं को पार किया वह श्रावक था। तुम दोनों मित्र थे। जीर्ण-वस्त्र और भिक्षापात्र हाथ में लिये हुए, दुःसह Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98.7.11] [ 331 महाकइपुप्फयंतावरयउ महापुराणु दसहदीहपवासें मंथिय जपमाण ससणेहा पंथिय । वीसमंत काणणि सद्दलदलि' जा हिंडहिं बेण्णि वि धरणयलि। घत्ता-ता पई पत्थरपुंजु दिट्टउ चारु समुण्णउ। अण्णु वि पक्खिवमालु भूरुक्नु वि वित्थिण्णउ ॥6॥ सो पई दिउ देवि पयाहिण पभणइ' तुम्हारइ संथुय जिण। अम्हारइ पुणु पिप्पलफासें मुच्चइ माणुसु गुरुदुरियंसें। तं णिसुणिवि ते तरुवरपत्तई पाय पुसेप्पिणु दसदिसि धित्तई। भासिउ तरु ण देउ परमत्य तुई वेयारिउ 'सोत्तियसत्यें। पुरउ चरंतु जइणु सहुं मित्तें कइकच्छुहि पणमिउ धुत्तत्तें। सा तेणुप्पाडिवि मयतें बंभणेण उववासु करतें। घट्टई अट्ट वि अंगोवंगई कइणीरोमई' भग्गइं तुंगई। दिट्टई रुहिरगठिचक्कलियई अरुहदासु पभणइ लइ फलियई। दुक्कियाई तुह अज्जु जि रुट्ठर देउ महारउ किं पई घट्ठउ । जोयहि सुरसाणिझु विसिउ पई अप्पणु णयणेहि जि दिउं । 10 पुणु सच्चर सच्चिल्लउ सुच्चइ पिंपलु देउ ण 10 अग्गिउ बुच्चइ। दीर्घ प्रवास से थके हुए वे दोनों पथिक आपस में स्नेहपूर्वक बातें करते हुए, पत्तों से सघन वन में विश्राम करते हुए धरणीतल पर जब घूम रहे थे, पत्ता-तब तुमने समुन्नत सुन्दर पत्थरों का ढेर देखा। एक और पक्षियों के कोलाहल से युक्त तथा विशाल वृक्ष देखा। __ तुमने प्रदक्षिणा देकर उसकी वन्दना की और कहा-"तुम्हारे वहाँ जिनवर की स्तुति की जाती है, हमारे यहाँ तो पीपल के स्पर्शमात्र से मनुष्य भारी दोषों से बच जाता है।" यह सुनकर उस श्रावक ने उस वृक्ष के पत्तों को तोड़कर दसों दिशाओं में बिखेर दिया और कहा कि वास्तव में वृक्ष देव नहीं होता। तुम ब्राह्मणशास्त्रों के द्वारा ठगे गये हो। जैनी मित्र के साथ आगे जाते हुए उस धूर्त ने करेंचवृक्ष को प्रणाम किया। उपवास करते हुए उस घमण्डी ब्राह्मण ने उस लता को अंगोपांगों पर रगड़ लिया। रोम उखड़ जाने से वे नष्ट हो गये। उसके रोम की गाँठे और चकत्ते दिखाई दिये। अरुहदास (श्रावक) बोला-“लो, दुष्कृत का फल पा गये। तुम आज भी रुष्ट हो, तुमने हमारे देव को स्पर्श क्यों किया ? तुम विशिष्ट देवसान्निध्य देखो। तुमने खुद अपनी आँखों से देख लिया है। फिर सत्य को सत्य ही कहा जाता है। पीपल और अग्नि 7. सदल । ४. A "वमारू। (7) I. AP पणिछ। 2. A पिंपलफंस; P पिप्पलफंसें। 5. AP दहदिसि । 4. " सो तियसत्यें। 5. AP पुणु वि चरंतु। 6. AP मा पुणु उप्पाडेवि मयमलें। 7. APोपहिं भिण्णई तुंगई। R. AP सुरसामत्थु । 9. AP पिपलु। 10. P अम्गि सु बुच्चइ। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 1 महाकइपुष्फर्यतविरयर महापुराणु [98.7.12 15 देउ ण हुयवहु ण जलु ण वणसइ चच्चरि चच्चरि केसवु णिवसइ। मुइ मुड़ मित्तदेव मूढत्तणु दहि जिणवरु तित्थपवत्तणु। पुणु गय विण्णि वि भाति वितं हि लागि दिन गंमहि । पउं" पवित्तु पउं मलणिण्णासणु __पई धरिवर्ड ण वि दियवरसासणु। ता' जिणभत्तएण तहिं लद्ध पवरोयणु गंगाजलसिद्धउं। उच्छिट्टर्ड करेवि तहु ढोइउं लइ लइ लइ पवित्तु पोमाइउं। गंगाजलु दोसेण ण छिप्पइ भो भो भरहि गासु दिय जडमइ । पुणु तायसु पंचग्गि "पजोइउ दियपहिएं मणु संसइ ढोइउं। परजइणा सो बोल्लिवि छिद्दिउ कउलसुत्तु दरिसंतें मद्दिउ। भक्खइ मासु पियइ महु गुलियउ तावसु भइरवणाहहु मिलियउ । यत्ता-बंभणु वण्णहं सारु देउ भणंतु सणाणें। सावएण सो वुत्तु हो किं कुलअहिमाणे ॥7॥ ( 8 ) तं कुलु जहिं कम्मक्खउ किज्जइ तं कुलु जहिं जिणधम्म मुणिज्जइ । तु कुलु जहिं कुसीलु वज्जिज्जइ तं कुलु जहिं सुणाणु अजिज्जड़। 20 को देव नहीं कहा जाता। देव न तो अग्नि है, न जल है, न वनस्पति है, न चबूतरे-चबूतरे पर केशव रहता है। हे मित्रदेव ! तुम देवमूढ़ता छोड़ो। तीर्थ का प्रवर्तन करनेवाले जिनवर की तुम वन्दना करो।" फिर, जिसमें लहरें घूम रही हैं, ऐसी गंगा नदी पर वे दोनों पहुँचे। ब्राह्मण ने गंगाजल की बन्दना की-हे गंगे ! तुम्हारा पानी पवित्र है, पापों का नाश करनेवाला है, तब भी तुमने द्विजवर आसन को धारण नहीं किया। जिनवर के भक्त ने गंगाजल से बने हुए अच्छे भात को लिया और जूठा करके उसके पास ले गया। उसकी प्रशंसा कर वह बोला, लीजिए, लीजिए, पवित्र है। गंगाजल को कोई दोष स्पर्श नहीं करता। हे जड़मति विप्र ! तुम कौर लो। फिर, उन्होंने पंचाग्नि तपते हुए साधु को देखा। द्विजपथिक के मन में सन्देह हो गया, परन्तु श्रेष्ठ जैनी ने बोलकर उसका खण्डन किवा और चार्वाक-सूत्र दिखाते हुए उसका मर्दन कर दिया। कौलिकनाथ से मिलकर (उसके मत में दीक्षित होकर) तपस्वी मांस खाता है और गुड़ की शराब पीता है। पत्ता-श्रावक ने उससे कहा-"ज्ञान के कारण, ब्राह्मण को वर्गों में श्रेष्ठ देव कहा जाता है। कुल के अभिमान से क्या ?" कुल वह है जिसमें कर्मों का क्षय किया जाता है, कुल वह है जिसमें जिनधर्म का विचार किया जाता 11. A वणासहपणासइ। 12. AP किसिउ। 13. AP एजें। 14. AP एवं धरिय दियवरसासणु। 15. Pomits ता। [G. AP पई। 17. A पलोइट। 18. A धरजाणा। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98.9.2] महाकपुप्फयंतविरयउ महापुराणु बंभु मोक्खु तयु' लोयपसिद्धउ बंभें बंभु ण वुच्चइ सुत्तें बंभे बंभचेरु विद्धंसिउ मच्छधिणिहि वासु' उप्पण्णउ मूलु असुद्ध वप्प किं साहहि कुलु उत्तमु पत्थिवकुलु भण्णइ ता कुलगव्वु तेण परिहरियज काणणि जंत जंत दुसणि पंथुम ि संणासें गय ते सोहम्महु जो बंभणु सो तुहुं संजायउ अभयकुमारु णामु हयदुक्खहु घता - पभणइ महिवलणाहु' बंभसदु मुणिवरपडिबद्धउ । आसि तिलोत्तमरमणासत्तें । भट्ठु कुलु काई पसंसिउ । तुहुं पुणु कुलवाएं अद्दण्णउ' । मारिज्जइ पसु बंभणवाहहिं । जहिं तित्ययर जति परमुण्णइ । णिच्छएण जिणधम्मु जि धरियउ । वग्घसीहगयगंडयभीसणि । आडिट एलई तिणि वि । सग्गहु सुरवररमणीरम्महु । सेणियरायपुत्तु विक्खायउ । चरमदेहु जाएसहि मोक्खहु । 'गयमिच्छत्ततमंधहि । भणु चंदहि भवाई सुरहियचंदणगंधहि ॥४॥ (9) तं णिसुविणु' भासइ मुणिवरु सुणि' सेणिय अक्खमि तुह वइयरु । सिंधुविसइ बसालीपुरवरि धरसिरिओहामियसुरवरघरि । [ 333 5 10 15 है, कुल वह है जहाँ सुज्ञान अर्जित किया जाता है। वह धर्म हैं, जहाँ कुशील से बचा जाता है। ब्रह्म मोक्ष और तप लोकप्रसिद्ध हैं। ब्रह्म शब्द मुनिवरों के लिए प्रतिबद्ध है। यज्ञोपवीत या ब्रह्म ब्रह्म नहीं कहा जाता । तिलोत्तमा से रमण करने में आसक्त ब्रह्मा ने ब्रह्मचर्य को नष्ट कर दिया, ऐसे नष्ट और भ्रष्ट कुल की प्रशंसा करने से क्या ? मधुर की पत्नी से व्यास उत्पन्न हुए और तुम कुलवाद से पीड़ित हो । हे सुभट ! जिसका मूल अशुद्ध है, उसकी शाखा का क्या ? ब्राह्मण रूपी व्याधों से पशु मारे जाते हैं । उत्तमकुल तो राजकुल (क्षत्रियकुल ) है जहाँ तीर्थंकर परम उन्नति को प्राप्त करते हैं। तब उसने कुलगर्व छोड़ दिया और निश्चित रूप से जिनधर्म धारण कर लिया। बाघ, सिंह, गज और गेंडों से भयंकर दुर्दर्शनीय जंगल में जाते-जाते रास्ता नहीं पाते हुए वे दोनों मन की शल्यों को नष्ट कर संन्यास से मरकर देवांगनाओं से सुन्दर सौधर्म स्वर्ग में गये। जो ब्राह्मण था, वह तुम विख्यात श्रेणिकपुत्र अभयकुमार नाम से हुए चरमदेही तुम दुःख को आहत करनेवाले मोक्ष जाओगे ।" पत्ता- तब राजा कहता है- "मिथ्यात्व के अन्धकार से रहित और सुरभित चन्दन के समान गन्धवाली जन्मान्तरों को बताइए।" चन्दना ( 9 ) यह सुनकर मुनिवर ने कहा- ' "हे श्रेणिक ! सुनो। तुमसे पूर्वजन्म का वृत्तान्त कहता हूँ । सिन्धुदेश में ( 8 ) | AP लोपसिद्ध 2. AP तिलोत्तम' 3. B द्रासु । 4. A आदण 5. AP उत्तिषु। 6. P मशियलु णाहु7. AP राय मिच्छत् । (9)1. AP णिगुणेपिणु। 2. A युणि। 3. AP तुह अक्खमि । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3341 महाकपुप्फयंतविरयउ महापुराणु [98.9.3 देवि 'अखुद्द सुहृद्द महासइ। सुहयत्तउ हरियत्तु णियंगउ अवरु पहंजणु पुत्तु पहासउ। चेडल णाम णरेसरु णिवसइ धणयत्तत्र धणभदु उविंदउ कभोयउ कंपणउ पयंग' धीयउ सत्त रूविण्णासउ। सेयंसिणि सूहव पियकारिणि सुप्पह देवि पहावइ चेलिणि जे विसिट्ठ भडारी चंदण पियकारिणि वरणाहकुलेसहु" दिपण सयाणीयस्स मिगावइ सूरवंसजायहु ससियरणह उद्दायणहु पहावइ राणी महिउरि कामबाणपरिहट्ठउ जेट्टहि कारणि सच्चइ णामें गट्ठउ आहवि चेडयरायहु अइदूसहणिब्वेएं लइयउ अण्णहिं दिणि चित्तयरें लिहियई अवर मिगावई जणमणहारिणि । बालमराललीलगइगामिणि । रूवरिद्धिरंजियसंकंदण"। सिद्धत्वहु कुंडउरणरेसहु। सोमवंसरायहु मंथरगइ। दसरहरायहु दिण्णी सुप्पह। दिपणी उज्यामागी"। अलहमाणु अवरु वि आरुट्ठउ। आयउ जुज्झहुँ दुप्परिणामें। को सक्कइ करवालणिहायहु। दमयरमुणिहि' पासि पव्वइयउ । रूवई "बहुपट्टतरणिहियई। 15 अपनी गृहश्री से इन्द्र के भवनों को पराजित करनेवाले वैशाली पुरवर में चेटक नाम का नरेश्वर निवास करता था। उसकी उदार सुभद्रा नाम की महासती देवी थी। उसके धनदत्त, धनभद्र, उपेन्द्र, शुभदत्त, हरिदत्तं (सिंहभद्र), कामदेव, कम्भोज, कम्पन, पतंग, प्रभंजन और प्रभास पुत्र थे। रूप की रचना सात कन्याएँ थीं। कल्याण करनेवाली प्रियकारिणी, जन-मन का हरण करनेवाली एक अन्य मृगावती, सुप्रभा, प्रभावती और बाल मराल लीला की गति से चलनेवाली चेलना। ज्येष्ठा और अपनी रूपऋद्धि से इन्द्र को रंजित करनेवाली विशिष्ट आदरणीया चन्दना थी। इनमें प्रियकारिणी श्रेष्ठ नाथकुल के ईश कुण्डलपुर के राजा सिद्धार्थ को दी गयी थी। सोमवंश के राजा शतानीक को मन्थरगामिनी मृगावती दी गयी थी। चन्द्रमा के समान नखवाली सुप्रभा सूर्यवंश में उत्पन्न दशरथ राजा को दी गयी थी। उर्वशी और रम्भा के समान प्रभावती रानी उदयन को दी गयी थी। कामबाणों से भ्रष्ट होकर ज्येष्ठा को न पाकर एक और राजा क्रुद्ध हो उठा। ज्येष्ठा के लिए दष्परिणामवाला सत्यक नाम का राजा युद्ध करने के लिए आया। युद्ध में वह चेटक राजा से नष्ट हो गया। तलवारों के आघात को कौन सहन कर सकता है ? उसे दुस्सह वैराग्य उत्पन्न हो गया। उसने दमवर मुनि के पास जाकर वैराग्य ग्रहण कर लिया। एक दिन चित्रकार के द्वारा लिखित अनेक पक्षकों में निहित, जिनसे I. A खुद्द व सुद्ध।. धणहन्दु AP गियंदउ । H. AP कुंभवत्तु। 7.APuld after this : जाय तहे कम्मेण ( कमेण) ललियंग। ४. मृगाथइ । 9. • जिद्ध। 1. AP "सकंदण। 10. वरणायकुलेसहो। 11. A मृगावद। 12. A ससहरहा है ससहरणह। 18. AP "उबसि । 4. AP दमवर । 15. AP पानइयउ।।6. AP बरपट्टतरे। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98.10.7] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु कामविलासविसेसुप्पात्तहि पडिउ बिंदु चेलिणिऊरूयति ताएं तोंडु कय ं विवरेरडं एएं विणु पडिबिंबु ण सोहइ ता दिट्ठउ तहि लंछणु एयइ पत्ता - ता संरुडु णरिंदु गउ जिणपडिबिंबहं पासि पडु संणिहिउ श्रवणालइ ॥ 9 ॥ ( 10 ) दिउ पडु' पई पुच्छ्रिय किंकर एयई लिहियां विणयविणीयइं चहुं विवाह हुयउ विहुरंतउ अज्ज बि पि दिति ण का तें वयणेण मयणसरवणियउ हा हा हे कुमार तुह तायहु चेडयधीयहि अइआसत्तउ जोइयाई राएं णियपुत्तिहि । दिउ कयलीकंदलकोमलि । चित्तयरें बोल्लिउ सुइसारउ । धाइ जाम ऊरुत्यलु चाहइ । अक्खउ राहु जायविवेयइ । रायहरहु लीलइ । 17. A संतु । 18. P उबगालए (10) 1 AP प पडु 2. जोन तेहिं पवृत्तउं वइरिभयंकर । बिंबई चेडयमहिवइधीयहं । तीहिं मज्झि दो जोव्वणवंतउ । एक काम लहुई अलकनरवि । तुहुं तुह मंतिहिं तुह सुउ भणियउ । वड कामावत्य सरायहु । सूरु व दिडिगम्मु अइरतउ । [ 335 20 25 5 कामविलास विशेष की उत्पत्ति है, ऐसी अपनी पुत्रियों के रूपों को राजा देखने लगा । केले के कंदल के समान कोमल चेलना के जाँघतल पर पड़ा हुआ बिन्दु उसे दिखाई दिया। पिता ने अपना मुँह टेढ़ा कर लिया । चित्रकार ने श्रुतिश्रेष्ठ यह बात कही कि इस (बिन्दु) के बिना प्रतिबिम्ब शोभा नहीं देता। जब धाय उस कन्या की जाँघ को देखती है, तो उसने वहाँ चिह्न देखा - विवेकशील उसने राजा से यह कहा । पत्ता- तब राजा क्रुद्ध हो गया। चित्रकार राजगृह से चला गया । वनालय में उसने जिन - प्रतिबिम्बों के पास चित्रपट को रख दिया। ( 10 ) तुमने पट देखा और अनुचरों से पूछा। उन्होंने बताया कि वे शत्रुओं के लिए भयंकर, हे राजन् ! चेटक राजा की कन्याओं के विनयविनीत चित्र लिखे गये हैं। इनमें चार का दुःख का नाश करनेवाला विवाह हो गया। (शेष) तोन में दो यौवनवती हैं। हे राजन् ! जो आज भी किसी को नहीं दी गयीं। हे शत्रुरूपी अन्धकार के लिए सूर्य, एक कन्या छोटी है। इन शब्दों से तुम कामदेव के तीरों से घायल हो गये। तब तुम्हारे मन्त्रियों ने तुम्हारे पुत्र से कहा कि हे कुमार! तुम्हारे सरागी पिता की कामावस्था बढ़ रही है। वह चेटक की कन्या में अत्यन्त आसक्त हैं। प्रभात के सूर्य के समान वे उसमें अत्यन्त अनुरक्त हैं, परन्तु वृद्धावस्था होने के Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336 ] महाकपुष्यंतविरयउ महापुराणु ससुरु ण देइ जुण्णवयवंतहु ता कुमारु तु रूपें किउ पडु पंडिउ वोद्दवणियकववेसउ पुच्छिउ ताहिं लिहिउं तें भाणिउ" ता दोह मि कण्णहं मयमत्तइं कुडिलइ चेलिणीइ सररुद्धइ भणिय जाहि आहरण लएप्पिणु तदति मगफेल अवसरु मइदिहिवंतहु । तं णिवासु लेविणु गउ भडु पडु । आयउ कण्णउ णववयवेसउ । किं ण मुह मगहाहिउ सेणिउ । कुसुंभ" रत्त णेत्तरं । कवडें इट्टु जेट्ठ "रइरुद्धइ । आवहि लहुं वच्चहुं हिक्केप्पिणु । अलिउलणीलणिद्धमउकेसहु । घत्ता - आहरणाई लएवि जा पडिआवइ बाली । ता तहिं ताएण दिट्ठ चेलिणि" "मयणमयाली ॥ 10 ॥ ( 11 ) बहिणिविओयसोयसंतती' पायमूलि तवचरणु लएप्पिणु चेलिणि पुणु तुह पुत्तें ढोइय परिणिय सुंदरि जयजयसछें तहि महएवीपट्टू णिबद्धउ खंतिहि जससईहि उवसंती । थक्क जेट्ठ इंदियई जिणेष्पिणु । परं ससणेहें णिरु अवलोइय । घरु आणिय दइवेण सुहदें । सा रइ तुहुं णावइ मयरद्धउ । [ 98.10.8 10 15 5 कारण ससुर उसे देना नहीं चाहता है। बुद्धि और भाग्यवाले आपके लिए यह अवसर है। तब अभयकुमार ने तुम्हारे रूप का चित्र बनाया। और वह सुभट उस पद को लेकर उसके निवास पर गया। वह पण्डित उत्तम वणिक् का रूप धारण कर वहाँ गया। वे नव वय और वेशवाली कन्याएँ आयीं। उन्होंने लिखित (चित्र) के बारे में पूछा। उसने कहा कि क्या आप लोग नहीं जानतीं कि यह मगध राजा श्रेणिक हैं ? तब मदमत्त दोनों कन्याओं के मतवाले नेत्र प्रेमरूपी कुसुम्भ रंग से लाल हो गये। रति से अवरुद्ध और काम से आहत कुटिल चेलना ने कपट से प्रिय ज्येष्ठा से कहा- "तुम शीघ्र आभरण लेकर आ जाओ, हम छिपकर भाग चलें और अलिकुल के समान नीले स्निग्ध कोमल केशवाले मगधेश के गले जा लगें।" घत्ता- जब तक ज्येष्ठा बाला आभूषण लेकर आती है, तब तक काम से मत्त सखी उसे दिखाई नहीं दी । (IL) अपनी बहिन के वियोग से सन्तप्त ज्येष्ठा उपशम भाव को धारण कर, आर्यिका यशोवती के चरणों में तपश्चरण लेकर, इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के लिए स्थित हो गयी। चेलना को फिर तुम्हारा पुत्र ले आया । तुमने अत्यन्त स्नेहभाव से उसे देखा । जय जय शब्द के साथ तुमने उससे विवाह किया। इस प्रकार सुभद्र ( अभयकुमार ) दैव वश उसे घर ले आया। उसे तुमने महादेवी का पट्ट बाँध दिया। वह रति 3. ख्यॉक 4 A वोणिय वोणिय 3. A तेहि 6. P भणि 7. AP मुर्गाहिं। 8. AP दोहिं . A कृष्णउ मयमत्तउ to AP नेत्तरं पेम्यकुसंभार रत्तई (A रतउ) 11 AP रइलद्धए 12. AF मिथकेसहो। 13. AP चेल्लिणि। 14. मयरामवाली। ( 11 ). A विहिणि । 2. AP जसमइहे । 3 A चेतिणि । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98.12.4 | | महाकइपुप्फवंतविरयउ महापुराणु ताहि सुखंतिहि पासि' णिहालिउ सहु सम्मत्तें चारुगुणडुइ सोवण्णाess पुरि मणवेयउ आयउ उववणि णिच्चवसंत पिययघरिणि णियदेह थवेष्पिणु सो जा गच्छइ पुणु' णियभवणहु अवयरति आहासइ वइयरु तुज्यु विज्ज कयरोसणिहाएं एवहिं किं कुमारि पई- चालिय णिच्चमेव हियवइ संकंतहि चंदग्गाइ सावयवउ पालिउं । दाहिणसेढिहि गिरिवेयडुइ । विहरमाणु हि घरिणिसमेयउ । दिट्ठी चंदण चंदणवंत | आपणुक एप्पिणु । आलोयणिय दिट्ठ ता गयणहु । देवि तुहुं जाणिउ मायायरु । ताडिय देवय वामें पाएं। अच्छइ कोवजलणपज्जालिय" । तं णिसुणिवि सो भीयउ " कंतहि । धत्ता - भूयरमणवणमज्झि पवरइरावइतीरइ | साहिय तेण खगेण विज्ज फणीसरकेरइ ||11| ( 12 ) पत्तलहुय' णामेण णिहित्ती पंचक्खर चित्ति णिज्झाय वियलिय णिसि उग्गमिउ पयंगज णा कालु तासु जिणवयणई ताइ पुत्ति संपत्त धरिती । धम्मझाणु निम्मलु उप्पायर 1 वय एक्कु पत्तु सामंगल | साहियाई मुद्धइ जगसयणई । [ 337 10 उपवन है और तुम कामदेव हो । चन्दना ने भी उन्हीं यशोवती आर्यिका के पास सम्यक्त्व के साथ सुन्दर श्रावक व्रत ग्रहण कर लिये । गुणाढ्य विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी के स्वर्णाभ नगर का विद्याधर राजा मदनवेग अपनी पत्नी सहित आकाश में भ्रमण करता हुआ नित्यवसन्त नाम 'आया। अपनी स्त्री को स्थापित कर तथा कन्या को लेकर और वापस आकर, जैसे ही अपने घर के लिए जाता है, तब आकाश से विद्याधरी ने उसे देख लिया । आकाश से नीचे उतरते हुए वह पति से कहती है कि विद्या से मैंने मायावी तुम्हें और तुम्हारी विद्या को जान लिया है। उसने क्रोध से आघात करनेवाले पैर से देवी को प्रताड़ित किया। इस समय कुमारी को तुमने क्यों चलाया ? वह क्रोधाग्नि से प्रज्वलित है।" यह सुनकर प्रतिदिन अपने मन में शंका करनेवाली पत्नी से वह विद्याधर डर गया । | घत्ता - विशाल ऐरावती नदी के किनारे, भूतरमण वन के भीतर, धरणेन्द्र की आज्ञा से उस विद्याधर ने 4. AP || 5 A सोचण्णए पुरि सुरमणयंवर। 6 A णियगेहि 7. AP कर । B. P देखिए। 9. P पज्जलिय । 10. AP भीयउ सो । ( 12 ) | AP पण्णलहु K पत्तलक्ष्य and gloss साहिय विज्ज पर्णलघुनामेति पूर्वेण सम्बन्धः । 15 ( 12 ) पर्णलघ्वी विद्या के सहारे उसे फेंक दिया। उस विद्या से वह ( चन्दना ) धरती पर आ गयी। यह पंच-नमस्कार मन्त्र का ध्यान करती है और निर्मल धर्मध्यान को उत्पन्न करती हैं। रात बीतती है और सूर्य निकलता है । वहाँ एक श्यामशरीर भील आया। उसका नाम कालू था । उस मुग्धा ने उसे जग के स्वजन जिनवचन Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338 ] [98.12.5 10 महाकइपुप्फयंतविरय महापुराणु अण्णु वि तह दिण्णइं आहरणई पहवंतइं णं दिणयरकिरणइं। तें तुढें णिय सुंदरि तेत्तहिं भीमसिहरगिरिणियडइ जेत्तहिं। भिल्लु भयंकरिपल्लिहि राणउ णामें सीहु सीहुरसजाणउ। तासु बाल कालेण समप्पिय तेण वि कामालेण विलुपिय। कालोसपणे थिय एग्मेसरि जा लग्गइ वणयरु वणकेसरि। ता सो रुक्खु जेंव उम्मूलिउ सासणदेवयाहिं पडिकूलिउ। रे चिलाय करु सुयहि म ढोयहि । अप्पउं कालवयणि म णिवायहि । ता सो तसिउ थक्कु तुहिक्कउ पयजुयवडिउ' वियारविमुक्कउ । कंदमूलफलदावियसायइ पोसिय देवि णिसायहु मायइ। थिय कइवय दिणाई तहिं जइयहुं वच्छदेसि कोसंबिहि तइयहुं। वसहसेणु वणिवइ धणइत्तउ मित्तवीरु तहु किंकरु भत्तउ। मित्तु सो ज्जि सीहहु वणणाहहु घरु आयउ सुक्कियजलवाहहु । अप्पिय तासु तेण पत्थिवसुय बालमुणालवलयकोमलमुय। ढोइय वणि कुलगयणससंकहु भिच्चे वसहसेणणामकहु। वत्ता-एक्कहि वासरि जांब जोइवि सेहि तिसाइट। बंधिवि कोंतल ताइ जलभिंगारुच्चाइउ ||12|| 15 20 बताये और उसे प्रभा से युक्त आभूषण दिये, मानो वे सूर्य की किरणें हों। सन्तुष्ट होकर वह सुन्दरी को वहाँ ले गया जहाँ भीमशिखर गिरि के निकट, भयंकरी नामक गाँव था, जहाँ मदिरा का स्वाद जाननेवाला, सिंह नाम का भील राजा रहता था। कालू ने उसे बाला सौंप दी। काम से व्याकुल उसने भी उसके साथ कुचेष्टा करनी चाही। वह परमेश्वरी कायोत्सर्ग में स्थित हो गयी। जब तक वनसिंह वह भीलराज उससे लगता है, तब तक शासन देवियों ने उसे प्रतिकूलित कर दिया और वृक्ष की तरह उखाड़ दिया (और कहा)"हे भील ! तू कुमारी पर हाथ मत डाल। अपने को काल के मुख में मत फेंक।" तब वह डरकर चुप हो गया और विकारमुक्त होकर उन दोनों के पैरों में पड़ गया। कन्दमूल और फलों का स्वाद दिलाती उस भील की माँ ने उसका पालन-पोषण किया। वह कुछ दिन वहाँ रहती है कि इतने में वत्सदेश की (नगरी) कौशाम्बी का धनाध्य सेट वृषभसेन और उसका मित्रवीर एक भक्त अनुचर जो वनराज सिंह का भी मित्र था, उस भील के घर आया। उसने बालमृणालिनी की तरह कोमल बाहुवाली वह राजकन्या उसे सौंप दी। उस अनुचर ने वह कन्या अपने कुलरूपी आकाश के चन्द्र वृषभ नाम के सेठ को दे दी। घत्ता-एक दिन जब सेट को प्यासा देखकर, अपने बाल बाँधकर उसने जलभिंगार (जलपात्र) ऊँचा किया, 2. A अयर। 3. A सौहासजाणार; सीहरसु जाणउ । 1. AP"जुबपडिउ। 5. AP चिलायहो। 6. AP तेण तासु । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98.13.15] महाकइपुष्फतविरयउ महापुराणु [339 (13) धिदुट्टकट्ठाइ रउद्दइ ता दिली सेहिणिइ सुहद्दइ। मुंडिउ सिरु पावइइ पल्लहि आयसणियलु घित्तु णीसल्लाह। कोद्दवकूरु सकंजिउ दिज्जइ णिच्चमेव जा एव दमिज्जइ। ता परमेट्टि छिण्णसंसारउ आयज भिक्खहि वीरु भडारउ । पडिलाहिवि विहीइ किउ भोयणु दिण्णऊं तं तहु सउवीरोयणु। पत्तदाणतरु तक्खणि फलियउ गयणहु कुसुमणियरु परिघुलिया । गज्जिय दुंदुहि बहुमाणिक्कई पडियई भाभारें पइरिक्कई। रयणविचित्तदिण्णविविहंगय देवेहि मि देविहि बंदिय पय। तियसघोसकोलाहलसदें जयजयजयसंजायणिणदें। णमिय मिगावइए लहुयारी बहिणि' सपुत्तई गुणगरुवारी। वणिसुथाइ पाविठ्ठइ जं किउ तो वि ण साहइ विलसिउं विप्पिर । सेट्टिणि सेट्टि बे वि कमणमियड अम्हइं पावई पावें खवियई। परमेसरि तुह सरणु पइट्टई एवहिं परितायहि पाविट्ठई। ता" चंदणए भणिउ को दुजणु को संसारि एत्यु किर सज्जणु। धम्में सब्बु होइ भल्लारउं पावें पुणु जणविप्पियगारउं। 10 15 (13) ढीठ, दुष्ट, कठोर और भयंकर सेठानी सुभद्रा ने उसे देख लिया। उस दुष्टा ने, पाप से रहित और निःशल्य उसका सिर मुड़वा दिया तथा लोहे की बेड़ी डाल दी। काँजी से मिश्रित कोदों का भात उसे दिया जाता था। इस प्रकार नित्य उसका दमन किया जाता था। इसी बीच संसार का नाश करनेवाले आदरणीय वीर भगवान् आहार के लिए आये। उसने (चन्दना ने) पड़गाह कर विधिपूर्वक भोजन बनाया और उसने वह कोदों का भात उन्हें दिया। उसका पात्रदान रूपी वृक्ष तत्काल फल गया। आकाश से पुष्पवृष्टि होने लगी। दुन्दुभि बज उठी। प्रभा के भार से प्रचर माणिक्य रत्न बरसे। देवों ने भी, रत्नों से विचित्र विविधतावाले उसके चरणों की वन्दना की। देवों के कोलाहल के शब्द, तथा जय-जय-जय से उत्पन्न निनाद के साथ मृगावती ने गुणों से महान अपनी छोटी बहिन चन्दना को पुत्र के साथ नमस्कार किया। पापिन सेठानी ने जो कुछ बुरा किया वह उसे भी नहीं कहती। सेठ और सेठानी दोनों उसके पैरों पर गिर पड़े और बोले-'हे देवी ! हम पाप से नष्ट हो गये थे। हे परमेश्वरी ! हम तुम्हारी शरण में हैं। हम पापियों को सन्ताप दीजिए।" तब चन्दना बोली--“कौन इस जग में दुर्जन कहा जाता है और कौन सज्जन ? धर्म से सब कोई भले होते हैं और पाप से सब बुरा करनेवाले होते हैं। दसों दिशाओं में यह बात फैल गयी। विजयलक्ष्मी के पति, उसके भाई . (18) 1. A पावद्दए समिल्लए; P पावइ पम्मिन्नहे। 2. AP पांडेगाहेवि। . A मृगाबह । 4. A विहिणि। 5. A सपुण्णएण गरुयारी; सपुत्तएण गरुपारी। 6. AP तो। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3401 [98.13.16 महाकइपुष्फयंतविरपर महापुराणु दसदिसु पत्त वत्त जयसिरिधव आइय परमाणर्दै बंधव । वंदिउ वीरसामि परमम्मत एयाणेयवियप्पसमप्पउ। घत्ता-जिणपयपंकयमूलि बारहविहु विस्थिण्णउं। चंदणाइ तउ घोरु तहिं तक्खणि पडिवण्णउं ॥1॥ (14) पुणु पुच्छिउ राएं परमेसरु कहइ भडारउ णचजलहरसरू। चंदणगयभवाई' ह्यदुरियई जिणवरधम्ममग्गसंचरियई। मगहरेमि परिहि पिटुणामहि. जासंकिपणादि णीलारामहि। राउ “पयारपुबु तहिं सेणिउ अग्गिभूइ बंभणु परियाणिउ। तासु इट्ट वणिवरसुय बंभणि थणजुएण पियदेहणिसुंभणि ताहि पुत्तु सिवभूट् मणोहर चित्तसेण सुय तुंगपयोहर। सिवभूइहि पिय सोमिल हुई णं रइए संपेसिय दुई। सोमसम्मतणयह सा सुंदर णं मयरद्धयवरमहिहरदरि। दिपणी देवसम्मणामकहु दियवरकुलगयणयलससंकहु । मयइ णाहि सयदलदलणेत्ती चित्तसेण विहवत्तणु पत्ती। पइमरणेण समउं सा डिंभहिं पोसिय भाएं थणयणिसुभहि। सोमिल्लइ पेसण्णउ बोल्लिउं हियवउं पइससाहि संसल्लिउँ । 10 परम आनन्द के साथ आये। उन्होंने एकानेक विकल्पों को परिसमाप्त करनेवाले वीर स्वामी परमात्मा की वन्दना की। पत्ता-तब जिनवर महावीर के चरणमूल में चन्दना ने बारह प्रकार का विस्तृत घोर तप तत्काल स्वीकार कर लिया।" फिर राजा ने पूछा और नव जलधर के समान स्वरवाले आदरणीय जिन पापों को नष्ट करनेवाले और जिनवर के धर्ममार्ग में संचरण करनेवाले चन्दना के जन्मान्तरों का कथन करते हैं मगधदेश में नीले उद्यानोंवाली जनसंकुल पृथु नाम ('वत्सा'-उ. प्र.) की नगरी में, प्रकार जिसके पूर्व में है ऐसा श्रेणिक (प्रश्रेणिक) नाम का राजा था। और अग्निभूति नाम का ब्राह्मण जानो। उसकी दो प्रिय पत्नियाँ थों-एक ब्राह्मणी और दूसरी सेट पुत्री। अपने स्तनयुगल से प्रिय की देह का मर्दन करनेवाली उनके क्रमशः सुन्दर शिवभूति पुत्र, और ऊँचे स्तनोंवाली चित्रसेना नाम की पुत्री थी। शिवभूति की पत्नी सोमिला थी, जो मानो रति के द्वारा भेजी गयी दूती हो। वह सोमशर्मा नामक ब्राह्मण की पुत्री थी, जो मानो कामदेव रूपी पहाड़ की घाटी थी। ऐसी (14) I.AP चंदणमयगया। ५. पवावपत्त। 9 AP सयदलणेती। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98.15.8] महाकाइपुष्फयंतविरयज महापुराणु 341 15 चित्तसेण भाएं सहं अच्छा रत्त रमणि किं काई मि पेच्छइ। एह खुद्द रोसेण महेसमि आगामिणि भवि दंडु करेसमि। एपहि पिसुणहि पसरियमायहि वयणविणिग्गयसुयलियवायहि । एव णियाणु णिबद्धउ सेणइ अण्णहिं दिणि गुरुविणयपवीणइ । पत्ता-विप्पामंतणि जाए मुणिवरू भावें भाविउ। सोमिलाइ सिवगुत्तु पढममेव भुंजाविउ ॥14॥ ( 15) कुद्धउ पइ दइयइ संबोहिउ रिसिगुणगणसंकहणुम्मोहिउ । मुउ सिवभूई वंगदेसंतरि कंतणामि रमणीयइ पुरवरि। तहिं सुवण्णवम्महु' तडिलेहहि तणउ महाबलु हुउ वरदेहहि। अंगदेसि चंपापुरवासिहि सिरिसेणहु पत्थिवगुणरासिहि। धणसिरि गेहिणि तहि सोमिल्लय सुय उप्पणी मालाभुयलय'। कणयलया पामें सुहृदाइणि सच्छसहाव णाई मंदाइणि। कंतरराउ सणेहपगामें भाइणेज्जु आवाहिउ मामें। दोहिं मि सहु कीलइ गय वासर ता जपति भवणि णिवणरवर । 5 चित्रसेना द्विजवररूपी आकाश के चन्द्र देवशर्मा नाम के ब्राह्मण को दी गयी। पति के मरने पर कमलदल के समान नेत्रोंवाली वह वैधव्य को प्राप्त हुई। पति के मरने के कारण दूधपीते बच्चों के साथ, उसका पालन भाई ने किया। लेकिन सोमिला ने उससे दुष्ट बात कह दी कि चित्रसेना भाई के साथ रहती है। इससे पति की बहिन का (चित्रसेना का) हृदय छलनी हो गया। प्रेम की अन्धी स्त्री क्या कुछ भी देख पाती है ? 'इस क्षुद्र से मैं प्रतिशोध लूँगी, आगामी भव में कपट करनेवाली और अपने मुख से झूठे शब्द निकालनेवाली इस 'दुष्टा को दण्ड दूंगी।' चित्रसेना ने यह निदान बाँध लिया। दूसरे दिन गुरुओं की विनय में प्रवीण उसने, ___ पत्ता-ब्राह्मणी का आमन्त्रण होने पर, सोमिला ने भावपूर्वक मुनि शिवगुप्त की वन्दना की और उन्हें पहले ही आहार दे दिया। (15) इस पर पति शिवभूति क्रुद्ध हुआ। परन्तु पत्नी ने उसे समझा लिया। ऋषि के गुणसमूह के कथन से उसका मोह दूर कर दिया। शिवभूति मरकर, बंगदेश के अत्यन्त सुन्दर कान्त नामक नगर में उत्पन्न हुआ। वहाँ सुवर्णवर्मा एवं उत्तम देहवाली विद्युल्लेखा का महाबल नाम का पुत्र रहता था। अंगदेश की चम्पापुरी के राजा के गुणों के समूहवाले राजा श्रीषेण की धनश्री गृहिणी थी। सोमिला उसकी माला भुजलतावाली कन्या हुई। शुभ करनेवाली कनकलता के नाम से, स्वच्छ स्वभाववाली जैसे वह मन्दाकिनी नदी हो। अत्यन्त 1. AP "सुललिय'। 5. A सोमिलए। (15) 1. A सुवण्णधम्महो । 2. A' चंपयपुरवासिडि। 8. AP सोमिल सुय । 4. AP उप्पवणी मालइपालाभुय; K मालाभुयलय and gkass मालतीपालायन् मुजलता यस्याः । 5. A अप्पाहिट। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342 | महाकइपुष्फयंतबिरयड महापुराणु 198.15.9 10 15 एयह एह कण्ण दिज्जेसइ बेण्णि वि णवजोवणसंपुण्णई जाम विवाहु होइ णिक्खुत्तर असहियविरहहयासझलक्कई जसहतेण' दुक्खु कयसोएं गउ णियकुलहरु सवहु मयालउ पड़ सावज्जकज्जु किं रइयां णायरणरपरिहासाणासई सहं कताइ तेत्धु णिवसंतें मुणिपुंगमहु सुभोज्जु पयच्छिउँ महुसमयागमि सुठु सदप्पें । कंतइ पइवउ पडिउं पलोइड उयरु बियारिवि मुय पियपेम्में पवरामंतिविसई" उज्जेणिहि । वणि धणाएउ कंतु धणमित्तहि तावरणहिं दिणि ससुरउ भासइ। संजायाई पउरलायण्णई। ता एयह सहवासु ण जुत्तउ। बेण्णि वि विहडियाई णं चक्कई । कहिय मामपुत्ति कयराएं। पायापियरहिं गरहिउ बालउ। कण्णारयणु अदिण्णु जि लइयउं । ता सो थिउ पच्चंतणिवासइ। अज्जबसीले अइउवसंतें। घरिणिइ हियउल्लइ सुसमिच्छिउँ । खद्धउ सो कुमारु वणसप्पें । असिधेणुयहि पाणि परिढोइउ । सयलु वि जीउ णडिज्जइ कम्मे। णयरिहि सोक्खणिवासणिसेणिहि । मरिवि महाबलु कुवलयणेत्तहि। 20 रनेवाले मामा धोषेण ने कान्तपर से अपने भानजे (महाबल) को बलवा लिया। उन दोनों के खेलते हुए बहुत दिन बीत गये, तो राजा के श्रेष्ठ लोगों ने कहा कि इसके लिए यह कन्या दे देनी चाहिए। तब एक दिन मामा कहता है कि दोनों ही नवयौवन से परिपूर्ण और प्रचुर लावण्य से युक्त हो गये हैं। इसलिए जव तक निश्चित रूप से विवाह नहीं हो जाता, तब तक इनका साथ-साथ रहना उचित नहीं है। इस प्रकार विरहरूपी आग की ज्वालाओं को नहीं सह सकनेवाले दोनों को अलग-अलग कर दिया गया, मानो चक्रवाक हों। (वियोग) का दुःख नहीं सहते हुए शोकाकुल प्रेमी महाबल मामा की पुत्री को भगा ले गया। मदयुक्त वह अपनी वधू के साथ अपने कुलगृह गया। माता-पिता ने पुत्र की निन्दा की कि तुमने यह पापकर्म क्यों क्रिया ? तुमने नहीं दी गयी कन्या को क्यों ग्रहण कर लिया ? तब वे नगर के मनुष्यों के परिहास के कारण प्रत्यन्तपर नगर में रहने लगे। अपनी कान्ता के साथ रहते हए अत्यन्त आर्जवशील एवं शान्त स्वभाववाले उसने मुनिश्रेष्ठ को सुन्दर आहार दिया। पत्नी को वह बहुत अच्छा लगा। वसन्त समय आने पर एक सदर्प वनसर्प ने उस कुमार को काट खाया। कान्ता ने पति के शरीर को पड़ा हुआ देखा। उसने छुरी पर अपना हाथ रखा और प्रिय-प्रेम के कारण उससे पेट फाड़कर मर गयी। कर्म के द्वारा सभी जीव नचाये जाते हैं। विशाल अवन्तिदेश की सुखनिवास की नसेनी उज्जयिनी नगरी में धनदेव वणिक् था। महाबल मरकर, कमल के समान नेत्रयानी (पत्नी) धनमित्रा का नागदत्त नाम का पुत्र हुआ। वह अपने सुकवित्व से अत्यन्त विख्यात i. A पगढ़। .AP चिसहियावरहयासमुनुकाई। 7. AP असहतेण तेण जामाएं। 9. P"परिहासोणासए। 10. AP पइ मुओ। 11. AP अवरायांत। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98.16.10] महाकवि राजे मलपु णायदत्तु णामें सुउ जायउ कणयलया पोमलयाणिवघर 13 सुकइत्तेण सुठु विक्खायउ । हूई अवर" कहिं मि दीवंतरि । धत्ता - वणिवइणा वणिकण्ण परिणिवि अवर पयासहु । सहुं पुत्ते धणमित्त संपेसिय परदेसहु ॥15॥ ( 16 ) सीलदत्तरिति । बुद्धि मंडिउ अवरु मित्तु संजायउ तलवरु अणुवय गुणवय चउसिक्खावय माउलाणितणवहु धणधणियहु दिणी ससस' सुठु साणंदें उवसिलोउ कउ कइरसजुत्तउ पडिआयउ कुद्धंतुज्जेणिहि उलें 'सहएवें गोलग्गिउ जणणें बोल्लिउं सोक्खजणेरडं सहुं णवलें सहएवें गच्छहि तणुरुहु तहि संजायत पंडिउ । थिउ पुरि सत्थदाणतोसियपरु । परिपालिय णिम्मल गलियावय । दिगामवासहु कुलवणियहु । तेण गहिय णं रोहिणि चंदें । दिउ राउ रिद्धिसंपत्तउ । रयणसिलायलविरइयछोणिहि । दिउ' पिउ धणभाउ पमग्गिउ । णिहिउं पलासणयरि वसु मेरउं । धणु लइ तुहुं एयहं मि पयच्छति । [343 25 5 10 था । वधू भी कनकलता ( कांचनलता ) नामक रानी से पद्मलता के नाम से किसी द्वीपान्तर में राजा के घर उत्पन्न हुई। धत्ता - सेठ धनदेव ने एक दूसरी सेठ-कन्या से विवाह कर पुत्र के साथ धनमित्रा को परदेश ( पलाश नगर ) भेज दिया। ( 16 ) वहाँ शीलदत्त मुनि की बुद्धि से मण्डित वह पुत्र पण्डित हो गया। उसका एक और तलवर मित्र हो गया। अपने शास्त्रदान से दूसरों को सन्तुष्ट करता हुआ वह वहाँ रहने लगा। उसने अणुव्रत, गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का विशुद्ध पालन किया। उसकी आपत्तियाँ नष्ट हो गयीं । नन्दीग्राम के रहनेवाले वणिक् कुल के धन से सम्पन्न मामी के पुत्र को उसने आनन्द के साथ अपनी बहिन दे दी। उसने भी उसे ग्रहण कर लिया मानो चन्द्रमा ने रोहिणी को ग्रहण किया हो। उसने एक कविरस से युक्त उपश्लोक ( छोटा छन्द) बनाया जो राजा को दिखाया और ऋद्धि से सम्पन्न हो गया। वह क्रोध करता हुआ, रत्नशिलाओं से विजड़ित भूमिवाली उज्जयिनी नगरी वापस आया। तथा नकुल और सहदेव से सेवित पिता से भेंट की और अपना धन-भाग माँगा । पिता ने कहा - "सुख को उत्पन्न करनेवाला मेरा धन पलाशनगरी में रखा हुआ है। तुम नकुल, सहदेव के साथ जाओ । धन ले लो और तुम इनको भी देना ।" 12. A सुद्ध P सुख। 13. A नृयघरि । 11. AP कहिं मि अंबर 15. A दीवघरतरि । ( 16 ) 1 A सीलदत्तरसबुद्धिए 2 A सस सा सुर 3. AP चसिकउ लोउ कईरस 14. A राणउ सिरिसंपस्छ। 5. A सकुटुंबुज्जेणिहे। 6. AP सहदेवें। 7. Pamits दिउ। 8. AP णटलें । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3441 [98.16.11 महाकइपुष्फयंतविरय महापुराणु घत्ता-ते तिणि वि दायज उल्लंघेप्पिणु सायरु । गय बोहित्यि चडेवि अवलोइउ तं पुरवरु ॥16॥ योहित्यु ५ि ण वहइ थोवंतरि रज्जु विलंबमाणु पइसिवि पुरि। दिट्ठी एक्क कण्ण गुणवंतें पुच्छिय वणिवइतणयमहतें। किं पुरु का तुहं सुहई जणेरी दीसहि भल्लि व कामहु केरी। कहइ किसोयरि रोमंचिज्जा दीवु पलासु एउ जाणिज्जइ। थरु पलासु- महाबलु राणउ कंचणलयवइ इंदसमाणउ। हउं सुय तासु पोमलय वुच्चमि । के दिवसु वि विहवेण ण मुच्चमि । केण वि खबरें मणुयपससिउ रक्खसविज्जइ पुरु विद्धसिङ। अम्हारइ संताणइ जाएं असिमंतेण पासहिउ राएं। चिस केण वि तहु णिसियरविजय णिष्णट्ठाउ खगेसरपुज्जत। तं खंडळ अरिवरसिरखंडउ ण धरिउ जणणे विरहतरंडउ'। मारिउ रक्खसविज्जइ खयरें णावइ मच्छउ गिलियउ मयरें। सुण्ण पट्टणु हउँ थिय सुण्णी अच्छमि तायसोयदुहभिण्णी। ता तं" खग्गु लेवि फणियत्तें हउ रयणीयरु झाइयमतें। धत्ता-वे तीनों भागीदार जहाज में चढ़कर गये और समुद्र पार कर उन्होंने उस नगरवर को देखा। थोड़ी दूरी रह जाने पर उनका जहाज नहीं चला। तब रस्सी डालकर और नगर में प्रवेश कर उन्होंने एक गुणवती कन्या देखी। वणिक्पति के सबसे बड़े लड़के ने पूछा-“यह कौन-सा नगर है, और सुख को उत्पन्न करनेवाली तुम कौन हो ? तुम कामदेव की बरछी के समान दिखाई देती हो।" रोमांचित होती हुई वह कृशोदरी कहती है-'इसे आप पलाशद्वीप जानें। यह पलाशनगर है। इसका राजा महाबल है। कांचनलता का पति जो इन्द्र के समान है, मैं उसकी कन्या पदमलता बोल रही हूँ। मैं किसी भी दिन वैभव से रिक्त नहीं रहती। किसी विद्याधर ने मनुष्यों के द्वारा प्रशंसित इस नगर को राक्षस विद्या से ध्वस्त कर दिया। फिर हमारी ही कुलपरम्परा में उत्पन्न हुए किसी राजा ने मन्त्र के द्वारा एक तलवार सिद्ध की। फिर किसी ने विद्याधरों के द्वारा पूज्य राक्षसी विद्या को (उस तलवार से) नष्ट कर दिया। शत्रु के सिर को काटनेवाली तथा बिरह को तरने के लिए नौका के समान उस तलवार को पिता ने अपने पास नहीं रखा। विद्याधर ने राक्षस विद्या से उसे मार दिया मानो मगर ने मछली को निगल लिया हो। नगर सूना हो गया और मैं भी शून्य रह गयी। अब पिता के शोक से दुःखी मैं यहाँ रहती हूँ।" तब नागदत्त ने वह तलवार ले ली और मन्त्र का ध्यान करते हुए उसने राक्षस को मार दी। घायल शरीरवाला वह उसके वश में हो गया। H.AP द्वाएन। (17) I. ATय महतें। 2. पनासु। 3. P"निखिंडज . AP विहरतरङड। 6. AP थिय हउं। 6. A तें। Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98.18.61 महाकइपुष्फयंतविरवर महापुराणु [345 सो वणियंगु तासु वसु जायउ पयलियरोसु सुठु सुच्छायउ' । धम्मु पवण्णउ भूसिउ खंतिइ वइरु मुएप्पिणु मुउ* उवसंतिइ। कट्टियकेयइ णयरि पइट्टा दविणु ण देंत भाय ते णट्ठा। कण्ण लएप्पिणु अवरु वि पिउधणु कासु होइ किर दाइउ सज्जणु। उज्जेणिहि आउच्छिउ' राएं अण्णु वि आएं सुहिसंधाएं। णायदत्तु तुम्हहि सहुँ गायउ अम्हहुं सो णउ मिलइ वरायउ। तेहिं उत्तु ता तहिं धणमित्तइ सीलदत्तु पुच्छिउ सुहवत्तइ । पत्ता-रिसिणा वत्त पिएण तज्झ तणउ आवेसह। तोमणिगतमांगु पयपणिवाउ करेसइ ॥17॥ (18) इयरु वि तहिं जिणभवणि पइट्टा बाँदेवि जिणवरु थिउ परिउट्ठउ। ता विज्जाहरु एक्कु पराइउ तेण कुमारु 'सणेहें जोइउ। पियहिवमउवयणे संभासिङ । उववणि लयभवणति णिवेसिउ। किउ धमें वच्छल्लु वणीसह जिणपयपंकयपणमियसीसह। णियडगामि णियभवणणिवासिणि ता तहु बहिणि आय पियभासिणि। पभणइ बंधव तुह दायज्जहु दविणसमजणणिम्मलविज्जहु। उसका क्रोध चला गया और वह कान्ति से सम्पन्न हो गया। क्षमा से भूषित उसका धर्म पूरा हो गया। वह शत्रुता छोड़कर शान्तभाव से मृत्यु को प्राप्त हुआ। वे नगर में प्रविष्ट हुए। वे भाई रस्सी खींचकर, धन नहीं देते हुए कन्या और पिता का धन लेकर भाग गये। धन किसका होता है ? इसलिए सज्जन दान में उसे देते हैं। उज्जयिनी में राजा तथा दूसरे सुधीसमूह ने पूछा-नागदत्त तुम लोगों के साथ नहीं आया ? उन्होंने कहा-वह बेचारा हम लोगों से नहीं मिला। शुभवचनवाली धनमित्रा ने शीलगुप्त मुनि से पूछा धत्ता-ऋषि ने प्रिय शब्दों में कहा-तुम्हारा पुत्र आयेगा और जिसका सारा शरीर रोमांचित है, ऐसा वह चरणों में प्रणाम करेगा।" (18) वहाँ दूसरा (नागदत्त) जिनभवन में जिनवर की वन्दना कर सन्तुष्ट बैठ गया। इतने में एक विद्याधर वहाँ आया । उसने कुमार को स्नेहभाव से देखा। प्रिय, हितकारी और कोमल शब्दों में उससे सम्भाषण किया। वह उसे उपवन में एक लताभवन के भीतर ले गया। जिनवर के चरणकमलों में सिर झुकानेवाले उस बनीश नागदत्त के साथ उसने धर्म से वात्सल्यभाव किया। पास ही गाँव में अपने भवन में रहनेवाली प्रियभाषिणी उसकी बहिन आयी। वह बोली-धन कमाने की निर्मल विद्या में कुशल तुम्हारे भागीदार नकुल के लिए कोई 7. AP संजायर। ४. APaप्म. AP घिउ । 10. AP शान्छिय । 11. Jउ सो। 12. AP सुहदंतह । (18) I. AP सिणहें। 2. P कियधमें। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3461 महाकहपुष्फयंतविरपर महापुराणु [98.18.7 10 णउलहु कण्ण का वि जयसुंदरि दिज्जइ लग्गी खलमिगकेसरि । ताएं महु हक्कारखं पेसिउ महं मि देहु दालिदें सोसिउ। ता तें दिण्णु ताहि चामीयरु छिदिवि घल्लिउ दालिइंकुरु। मुद्द सससहि हत्थें पट्टाविय दिण्णी करि कुमरिई मणि भाविय। अप्पणु पुणु गल तं पुरु सुहयरु जहिं गफ लहिं सो तन्नवरसहयरु। सहुँ जणणिइ णरवरसुहखाणिहि आया झत्ति वे वि उज्जेणिहि। - घत्ता-दिवउ तेण गरिंदु भासिउ देव पयावइ। महुँ पिउदविणु ण देइ अवरु' कण्ण पाडलगइ ॥18॥ (19) मई अहिलसिय कण्ण हयमग्गउ ससुयह करयलि लावइ लग्गउ। ता आरुठु राउ कोक्किउ वणि देवाविउ धणु 'तियचूडामणि। णिम्मुक्की' णिवकुमार' वणिदें। कउ विवाहु रिद्धीइ गरिदै। जणणहु केरउं तहु सेट्टित्तणु दिण्णउं 'पायडपवरपहुत्तणु। रायरोसु पेच्छवि दुविणीएं ताएं तणउ खमाविउ भीएं। तासु विरुज्झमाणु सुहियत्तें महिवइ तोसिउ विसहरदत्ते । सिरिअरहतहु कलिमलहारी विरइय पुज्ज मणोरहगारी। जयसुन्दरी नाम की कन्या प्रदान की जा रही है। हे खलमृगों के लिए सिंह ! पिता ने मेरे लिए बुलावा भेजा है। मेरा शरीर दारिद्र्य से सूख रहा है। तब उसने उसे सोना देकर उल्टे दारिद्र्य को जड़ से उखाड़कर फेंक दिया। अपनी बहिन के हाथ से भेजी गयी उस अंगूठी को कुमारी ने अपने हाथ में पहिन ली। उसे वह मन में अच्छी लगी। शुभ करनेवाला कुमार (नागदत्त) स्वयं उस नगर के लिए गया जहाँ उसके गुरु और मित्र तलवर थे। अपनी माँ के साथ, शीघ्र ही वे दोनों मनुष्यों के सुख की खान उज्जयिनी में आये। ___घत्ता-उसने राजा से भेंट की और कहा-“हे देव प्रजापति ! वह मेरा प्रिय धन नहीं देता, और हंसगामिनी मेरी पत्नी भी। (19) __ मेरे द्वारा चाही गयी, मार्ग में अपहृत कन्या यह अपने पुत्र के हाथ में देने लगा है।" इस पर राजा क्रुद्ध हो उठा। उसने सेठ को बुलाया और उससे धन और उस स्त्रीश्रेठ को दिलवाया। सेठ ने राजकुमारी को मुक्त कर दिया। राजा ने ऋद्धि के साथ उसका विवाह कर दिया। पिता का श्रेष्ठीपद और जो प्रकट विशाल प्रभुता थी, वह भी उसे दे दी। राजा का प्रकोप देखकर डरे हुए दुर्विनीत पिता ने पुत्र से क्षमा माँगी। उससे (पिता से) विरुद्ध होते हुए, राजा को सुधी नागदत्त ने सन्तुष्ट किया। उसने श्री अरहन्त भगवान 3. " "मृग 1 1. AP निमिणवि। 5. AP मुद्द ससाहे हत्थे पठाविय। 6. A बे यि शत्ति। 1. AP अबरु वि कप्तत्तु । (19) I. P तृय'। 2. P णिमुक। 3. 1 नव" । 4. AP पायदु पउर" | S. AP विसहरयतें। 6. AP मोहरगारी। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I 98.20.8] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु सुइरु कालु सो तहिं शिवसेम्पिणु' मुउ सोहम्मसग्गि संभूयउ जंबूदीवि भरत जगपति पवणवेयखयरहु हुउ णंदणु चंदण तेण हरिय णियणेहें धत्ता-गय सग्गहु धम्मेण वयहलेण" ससितेया । नागदत्तसस जा सि सा हूई मणवेया ||19 ॥ ( 20 ) जो तेण जि मारिउं खयरेसरु जायउ चेsयणरवइ जाहि जाय सुहद्द विमाणहु चुक्की वणि धणदेउ हववि गय सग्गहु वणिय वसहसेणु पुणु हूई सा णिग्गहिय तेण सणियाणें भवि भवि संसरंतु भवु आयउ इय संसारियाई संसार अंतयालि संणासु करेष्पिणु । पुणु तेत्थाउ पडिउ पवणूयउ । सिवंकरि उववणचंचति । सइहि "सुवेयहि णयणाणंदणु । सो सिज्झेसइ एण जि देहें । सो सुरसुहुं भुंजिवि पुहईसरु । फणिदत्तहु जणणि वि अहिणामहि । चित्तसेण णरजम्मु पढुक्की । धमित्तावरु भुजियभोग्गहु । सररुहलय चंदण संभूई । को उ दुहुं पाविउ अण्णाणें । उलु सीहु सवरुल्लउ जायउ । परिभ्रमति चुयगहियसरीरइ । 7. AP देष्पिणु 8 AP मणवेयहि: 9 AP हरिवि। 10. B प्रयहलेण । ( 20 ) 1. AP संचरंतु 12. AP 31 | 347 10 5 की, कलिमल का हरण करनेवाली सुन्दर पूजा की। वहाँ बहुत समय तक निवास कर, अन्त समय संन्यास धारण कर और मस्कर, सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न हुआ। प्रजा के द्वारा संस्तुत वह वहाँ से च्युत होकर जम्बूद्वीप में विजयार्ध पर्वत के उपवनों से चंचल शिवशंकर नगर में पवनवेग विद्याधर के पुत्र एवं सती सुवेगा के नेत्रों के लिए आनन्ददायक हुआ। अपने स्नेह के कारण उसने चन्दना का अपहरण किया। वह इसी शरीर से मुक्ति को प्राप्त होगा । धत्ता - चन्द्रमा के समान तेजवाली, जो नागदत्त की बहिन थी, वह धर्म और व्रतों के फलों के कारण स्वर्ग गयी एवं वहीं मनोवेगा हुई । ( 20 ) और जो उसने विद्याधर का वध किया था, वह पृथ्वीश्वर स्वर्ग-सुख भोगकर चेटक राजा हुआ है, यह जानो। तुम नागदत्त की माँ को भी पहिचान लो। विमान से चूकी, जो सुभद्रा थी, वही इस मनुष्य जन्म में चित्रसेना हुई । धनदेव वणिक् भी, और दूसरा धनमित्र भी, जिसमें भोग भोगे जाते हैं ऐसे स्वर्ग में गया। वणिकपुत्री वृषभसेना भी कमललता के समान चन्दना हुई। उसने अपने ही निदान से स्वयं को दण्डित किया । अज्ञान से कौन नहीं दुःख पाता ? जन्म-जन्म में संसरण करता हुआ नकुल सिंह नाम का भील हुआ। इस प्रकार संसार में शरीरों को छोड़ने और ग्रहण करनेवाले संसारी जीव परिभ्रमण करते रहते हैं । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 | महाकइपुष्फयंतविरयत महापुराणु [98.20.9 घत्ता-इय आयणिवि धम्म भव्यलोउ आणंदिउ। भरहतेउ भयवंतु पुष्पदंतु जिणवंदिउ' ॥20॥ इय महापुराणे तिसद्विमहापुरिसगुणालंकारे महाभध्वमरहाणुमण्णिए महाकइपुष्फयंतविरइए महाकचे चंदणभवावण्णणं णाम अहणउदिमो परिच्छेउ समतो ॥४॥ पत्ता-इस प्रकार धर्म सुनकर भव्यलोक आनन्दित हुआ। नक्षत्रों को आच्छादित करनेवाले तेज से युक्त पुष्पदन्त ने जिनवर की वन्दना की। इस प्रकार वेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत्त महाकाय्य का चन्दनामव-वर्णन नाम का अद्वानवौं परिच्छेद समाप्त हुआ। 3. AP जिणु देउ। Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 99.1.12] महाकइपुष्फरतविरयउ महापुराणु [ 349 णवणवदिमो संधि उववणि कयरायहिं सहुँ ससहायहि लीलाइ जि पउ ढोयइ। अण्णहिं दिणि सेणिउ णरसमाणिउ समवसरणि जइ जोयइ ।। ध्रुवकं ॥ पिंडीतरुवरतलि देहझीणु अवलोयवि पुच्छिउ तें सुधम्मु पभणइ मुणिवरु इह जंबुदीवि हेमंगह विसड़ मणोहिरामि सच्चंधरु णरवइ विजय घरिणि कटुंगारउ णामेण मंति सुपुरोहिउ सुविमलु रुद्दयत्तु पेच्छइ मणिमउडु परिप्फुरंतु आशिनगलोर तर हिजमाणु विजयाइ णिहालिउ सिविणु एव जीवंधरु णामें झाणलीणु। को एहु भडारा खवइ कम्मु । सुणि सेणिय चंदाइच्चदीवि । तहिं रायणवरि संपत्तकामि। लीलागइ णं वरविंझकरिणि। मंतेहिं विहियउवसग्गसंति। तं णारिरयणु' सुहं सयणि सुत्तु । वसुसमचलघंटारणझणंतु। अण्णेक्कु णवल्लु वि णिग्गमाणु। सुविहाणइ पुच्छिउ दइउ देव। IO निन्यानवेवी सन्धि एक दिन राग करनेवाले अपने सहायकों के साथ राजा श्रेणिक लीलापूर्वक जब अपने उपवन में पैर रख रहा था, तो उसने समवसरण में मनुष्यों से सम्मानित एक मुनि को देखा। ___ अशोकवृक्ष के नीचे देह से क्षीण जीवन्धर नाम के (मुनि) ध्यान में लीन थे। उन्हें देखकर उसने सुधर्माचार्य से पूछा कि हे आदरणीय ! यह कौन कर्म का क्षय कर रहे हैं ? मुनिवर कहते हैं-हे श्रेणिक ! सुनो, बताता हूँ। चन्द्रमा और सूर्य से आलोकित जम्बूद्वीप के सुन्दर हेमांगद देश में मनारथों को प्राप्त करनेवाला राजनगर है। उसमें सत्यन्धर राजा था और उसकी गृहिणी विजया थी, लीलापूर्वक चलनेवाली जो मानो विन्ध्याचल की हथिनी है। उसका काष्ठांगारिक नाम का मन्त्री था, जो मन्त्रों से उपसर्गों की शान्ति कर देता था। रुद्रदत्त नाम का पवित्र पुरोहित था। किसी दिन विजया रानी बिस्तर पर सुख से सो रही थी। वह मणियों से भास्वर मुकुट देखती है, जो आठ स्वर्ण घण्टों से रुनझुन ध्वनि कर रहा था। जिस अशोक वृक्ष के नीचे वह बैठी हुई है, वह क्षीण हो रहा है और एक दूसरा अशोक वृक्ष निकल रहा है। विजया ने इस प्रकार का स्वप्न देखा और दूसरे दिन उसने अपने पति से पूछा-'हे देव ! (1) 1. पारिरवासु। 2. A °समदलघंटा; P°समवलधंदा । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350] महाकद्दपुप्फयंतबिरयउ महापुराणु [99.1.13 यत्ता-सयणयलि पसुत्तइ मउलियणेत्तइ सिविणइ तेयविराइउ । ___ मई दिहउ घंटउ राबविसट्टउ अवरु मउडु अवलोइउ | दिहें' एएं सिविणयफलेण कि होही भणु महुं णिम्मलेण । पई भणइ णिसुणि हलि कमलणणि महुँ मरणु तुज्झु सुउ चंदवयणि। मुहसत पाविवि अभु भुजेसइ महि परबलणिसुभु। तं णिसुणिवि' देवि वि भायरेण काइय दूरहि ण विसायएण। अण्णहिं दिणि मणहरचणि वसंतु रिसि सीलगुत्तु वरणाणयंतु। पणवेप्पिणु कुलसिरिलंपडेण पुच्छिउ वणिणा गंधुक्कडेण । महुं तणुरुह होति मरंति सव्व दीहाउ पुत्तु होही विगव्व। कि णर भणु भणइ मुणिंदु तासु तुह होही सुउ तिहुवणपवासु। ससियरसियकित्ति धरित्तिसामि दढचरमदेहु धिरु' मोक्खगामि । अहिणाणु णिसुणि मयतणयचाइ पिउवणि णच्चियडाइणिणिहाइ। तुहुं पुत्तु लहेसहि बलपयंडु दीहाउसु पडिभइसमरसोंडु। . तं वयणु सुणेप्पिणु जक्खिणीइ सिसुससहरधवलकडक्खिणीइ । भविवब्बरायरक्खणणिमित्तु रायालउं जाइवि गरुडजंतु। 10 घत्ता-शयनतल पर सोते हुए और आँखें बन्द किये हुए मैंने स्वप्न में तेज से शोभित घण्टा देखा और शब्द से विशिष्ट मुकुट देखा। (2) इस निर्मल स्वप्न के देखने से क्या होगा ? मुझे बताइए। राजा कहता है-“हे कमलनयने ! सुनो, हे चन्द्रमुखी, मेरी मृत्यु होगी और तुम्हारा पुत्र होगा। वह राजा (पुत्र) आठ लाभ प्राप्त करेगा और शत्रुबल का नाश करनेवाला धरती का भोग करेगा।" यह सुनकर देवी कान्ति या विषाद से अधिक प्रभावित नहीं हुई। एक दूसरे दिन, मनोहर उद्यान में उत्तम ज्ञानवान शीलगुप्त नाम के मुनि रह रहे थे। उन्हें प्रणाम कर कुलश्री के लम्पट गन्धोत्कट नामक सेठ ने मुनि से पूछा- "मेरे पुत्र होते हैं और मर जाते हैं। हे गवरहित, क्या मुझे दीर्घायु पुत्र होगा या नहीं, बताइए।" तब मुनि कहते हैं कि "तुम्हारा त्रिभुवन को प्रकाशित करनेवाला पुत्र होगा-चन्द्रमा के समान श्वेत कीर्तिवाला, धरती का स्वामी, दृढ़ चरमशरीरी, स्थिर और मोक्षगामी। उसकी पहचान सुनो। जिसमें मृतपुत्रों को छोड़ा जाता है और जिसमें डायनों का समूह नृत्य करता है, ऐसे मरघट में तू प्रचण्ड बल-दीर्घायुवाला प्रतियोद्धाओं से युद्ध में समर्थ पुत्र प्राप्त करेगा।" यह वचन सुनकर, शिशुचन्द्र के समान धवल कटाक्षोंवाली यक्षिणी ने होनेवाले राजा की रक्षा करने के बहाने, राज्यालय में जाकर और (2) I. AP have before this line : गरूपउ असोउ जिंतु दिट्टु, अण्णेक्कु लहुउ वदतु इछु। 2. AP पिउ। 3. AP पाविय अहलंभु । 4. AP तं सुवि देवि भावायाण। S. AP छाइय हरिसेण विसायएग। G. AP दिद। 7. A घिरमोक्न । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 99.3.81 महाकइपुप्फयंतविरयन महापुराणु [ 351 सुपसाहिउ सोहिउ ताइ केम गयणयलु चंदरेहाइ जेम। अण्णहिं दिणि पच्चूसागएण विष्येण रुद्ददत्तेण तेण। 15 णिरलंकारी कयसुहविरोह महएवि णिरिक्खिवि विगयसोह। णावइ बिहवत्तणु पत्त देवि जाणियउ दइउ गाणेण भावि। कहिं पुहइणाहु सहस ति वुत्तु देवीइ पबोल्लिउं राउ सुत्त। घत्ता अइपसरियगत्तउ मउलियणेत्तर हियवइ असुह वियक्किउं । महुं पाणहं वल्लहु परवहुदुल्लहु पहु जोयहुं जि ण सक्किउ ॥2॥ 20 (3) तं जाणिवि दुठ्ठ अरिठ्ठ विप्पु गउ मंतिपिहेलणु दुब्बियप्पु। अक्खिउ मंतिहिं लइ' तुहुं जि रज्जु पहु होसइ कालकयंतभोज्जु । पहुदोहउ जाणियि दीहदोसि तह पुत्ते तुहं मारेव्वओ सि। इय भासिवि मरबहु सुचितु ति यदि पुर पवन। मंतिं मेलाविवि भडणिहाउ उप्परि जाइवि रणि बहिउ राउ। संणिहियगरुजतंतरंगि जक्खिइ रक्खिय तहिं विहुरसंगि तं वइणतेयरूवंकु ठाणु गरुहार देवि पुणु णिय मसाणु। तहिं पुत्तु पसूई सुद्धसील उरयलु हणंति परिमुक्कलील। एक गरुड़ यन्त्र के रूप में सजधज कर स्थित हो गयी। सुप्रसाधित वह ऐसी शोभित है, मानो आकाशतल में चन्द्रमा शोभित हो। एक दिन सवेरे आए हुए उस रुद्रदत्त ब्राह्मण ने रानी को अलंकरणों से रहित, शोभाहीन और सुख का विरोध करनेवाली देखकर, जैसे कि वह वैधव्य को प्राप्त हो गयी हो, ज्ञान से होनहार को जानकर सहसा पूछा कि पृथ्वीनाथ कहाँ है ? देवी ने कहा कि वह सोए हुए हैं। ___घत्ता--जिन का शरीर अत्यन्त फैला हुआ है, नेत्र बन्द हैं, हृदय में अशुभ सोच रहे हैं, ऐसे परस्त्रियों के लिए दुर्लभ, मेरे प्राणों के प्रिय राजा को तुम देख नहीं सकते। (2) समय का ज्ञान कर, वह पुष्ट खोट विकल्पवाला विप्र मन्त्री के घर गया और उससे बोला कि तुम राज्य ले लो। अब तो राजा कालरूपी यम का भोज्य हो जाएगा। प्रभुद्रोह को बड़ा दोष जानते हुए तुम उसके पुत्र के द्वारा मार दिये जाओगे। यह कहकर, कठोरचित्त रुद्रदत्त तीसरे दिन मरकर नरक चला गया। मन्त्री ने योद्धा समूह को इकट्ठा कर और राजा पर आक्रमण कर उसे मार डाला। उस संकट के समय, यक्षिणी ने उसे गरुड़ यन्त्र के भीतर रखा और वहाँ उसकी रक्षा की। फिर उस वैनतेय रूप नामक स्थानवाले मरघट में गर्भवती रानी को ले गयी। वहाँ उसने पुत्र को जन्म दिया। छोड़ दी है लीला जिसने, ऐसी बह शुद्ध आचरणवाली देवी अपना उरतल पीटती है। प्रिय के शोक में अपने जीवन का त्याग करती और रोती हुई . AP अनुहुँ। (3) 1. AP तुहं लइ जे रज्जु । 2. AP पददीहउ । 5. AP यत्तु। 4. A जाएप्पिणु बहिउ। 5. AP वहिउ 1 6. A तेयरू कुटाणु। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । 3521 महाकइपुष्फवंतविस्यउ महापुराणु [99.3.9 10 पियसोएं' णियजीविउ मर्यति आसासिय सड़ जम्खिड् यति ! तहिं आणिउ दइवें पायडेण मुउ पुत्तु चित्तु गंधुक्कडेण। देविइ बोल्लिउं लइ एहु बालु होसइ परमेसरु पुहइपालु । ता गहिउ तेण णियपियहि दिण्णु पणिणाहें कहिं मि ण मंतु भिण्णु। गारुडजंतें सहुं धीमहंत दंडववणि णिहिय गरिंदकंत। घत्ता-सच्चंधरदेवहु' रहस्यभावहु महुरु णाम सुउ जायउ। अइकोमलवायहि मयणपडायहि अवरु बउलु विक्खायउ।।3।। 15 Or णामेण विजउ सेणाहिणाहु सायरु वि 'पुरोहिउ दीहबाहु। धणपालु सेट्ठि मइसायरक्खु णिवति' मंतविण्णाणचक्खु । पढमहु तणुरुहु हुउ देवसेणु बीयहु संजायउ 'बुद्धिसेणु। तइयहु वरयत्तु' महुमुहक्खु उप्पण्णु चउत्थहु कमलचक्खु । सहं रायसुएण मणोहरेण एए परिपालिय वणिवरेण। जीवंधरु कोक्किर रायउत्तु गंभीरघोसु गंभीरसुत्तु। वणि दिवउ मायातावसेण भोयणु मग्गिउ भुक्खावसेण। आणिउ तावसु भवणहु समीवि भुंजाविउ घरि कयरयणदीवि । पुणु घोसइ सो सिववेसधारि हे वणिवइ तुह सुउ चित्तहारि। उसे स्वयं यक्षिणी ने समझाया। वहाँ पर मूर्तरूप पुण्य गन्धोत्कट ने अपना मरा हुआ पुत्र लाकर फेंका। तब देवी ने कहा-"यह बालक लो, वह पृथ्वीपाल परमेश्वर होगा।" उसने उसे ग्रहण कर लिया और ले जाकर अपनी पत्नी को दिया। सेठ ने इस रहस्य को कहीं भी प्रकट नहीं किया। गारुडयन्त्र के साथ बुद्धि से महान् उस नरेन्द्रकान्ता (रानी) को उसने दण्डकवन में रख दिया। ___घत्ता-इधर राजा सत्यन्धरदेव की पत्नी भामारति ने मधुर नाम के पुत्र को जन्म दिया और दूसरी अत्यन्त कोमल वाणीवाली मदनपताका के विख्यात बकुल नाम का पुत्र हुआ। विजयमति नाम का सेनापति, दीर्घबाहुवाला सागर नाम का पुरोहित, धनपाल सेठ, मतिसागर नाम का मन्त्रविज्ञानरूपी आँख से युक्त राजमन्त्री था। पहले का पुत्र देवसेन, दूसरे का पुत्र हुआ बुद्धिसेन, तीसरे का वरदत्त, और चौथे का कमलनयन मधुमुख नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। उस सेठ (गन्धोत्कट) ने इस मनोहर राजपुत्र के साथ ही इनका पालन किया। राजपुत्र को जीवन्धर कहा गया। वह गम्भीर घोष और गम्भीर उक्तिवाला था। वन में एक मायावी तपस्वी ने कुमार को देखा और भूख के कारण उससे भोजन माँगा। वह तपस्वी को अपने घर ले आया, और रत्नद्वीपों से आलोकित घर में उसे भोजन कराया। शिव के रूप को धारण करनेवाले उस तपस्वी ने कहा कि "हे सेठ ! तुम्हारा पुत्र चित्त का हरण करनेवाला है। अत्यन्त 7. A पिउसोएं। 8. Fता दंडयवणि। ५. 4 देविहे। 10. A रइरसमाविह: । रइरसभावहो। (4) 1. AP परोहिउ। 2. A नृव । 9. AP बुद्धसेणु। 5. AP वरइत्तउ । 5. AP गंमीरसत्तु । 6. A आणि उ भवणहु ताय समीवे17. P कयरमण" । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | 99.5.5 ] महाकइपुष्यंतविरय महापुराणु बहुबुद्धिवंतु महुं होउ चट्टु ता चवइ सेट्ठि तुहुं कुमइयंतु णंदणु ण समप्पमि तुज्झ तेण सीहउरि राउ हउं अज्जवम्मु णिसुणिवि जायउ मुणिदूसहाह सम्माइट्ठिउ मिच्छत्तहारि ता ताएं अप्पिउ तासु बालु उज्झाएं किउ तत्थेय कालु घत्ता - आरूढउ जीव्वणि पावेसइ एहु गरिदपट्टु । उ होसि बप्प " पणिवायहंतु । तं आयण्णिवि पड़िलविउं तेण । सिरिवोरणंदिपयमूर्ति धम्मु । उ सक्किउ घेरपरीसहाहं । ओहच्छमि तावसर्वसधारि । सिक्खिउ सत्यत्थई गुणगणालु | सुहजीएं छिंदिवि मोहजालु । पम्फुल्लियवणि सहइ वसंतु व सुंदरु । ता गयरब्धंतरि अक्खड़ घरि घरि पड़हु महुरमंथरसरु ॥4॥ (5) पाचहु केरउ परमकूड तें गोलु लाइव वेंकरंतु राहु जेज्जीय तं तेव कराउं जीवंधरेग आणिउ गोउलु जयकारएण X. P परमारुहंतु । 9 AP मरु पंधर सवराहिउ णामें कालकूडु । जो 'आणइ भडथडमहिमहंतु । सुरूवें बीसीय । संगरि हय भिल्ल धणुद्धरेण । लहुं ढोइय करूंगारएण | 1 353 10 (5) 1. AP आणइ भड भडथडमहंतु । 2. AP जयगारएण । 15 बुद्धिवान यह मेरा शिष्य हो जाए। यह राजपट्ट प्राप्त करेगा ।" तब सेठ कहता है कि "तुम खोटी बुद्धिवाले हो, हे सुभट ! तुम प्रणाम करने योग्य नहीं हो। इसलिए मैं अपना पुत्र तुम्हें नहीं सौंप सकता।" यह सुनकर उस साधु ने प्रत्युत्तर दिया- "मैं सिंहपुर का राजा अजयवर्मा हूँ। श्री वीरनन्दी के चरणमूल में धर्म सुनकर मैं मुनि हो गया, परन्तु मैं असह्य घोर परीषह सहन नहीं कर सका। इसलिए तापसवेश धारण करनेवाला मिथ्यात्व का हरण करनेवाला सम्यकदृष्टि हूँ।" तब पिता ने उसके लिए बालक सौंप दिया। शास्त्रार्थ से उसने गुणगणालय उसे सिखा दिया । उपाध्याय ने भी शुभ योग से मोहजाल को नष्ट कर वहीं पर अपना काल किया (निर्वाण किया) । 5 बत्ता - यौवन पर आरूढ़ कुमार खिले हुए वन में वसन्त के समान सुन्दर लगता था। इतने में नगर के भीतर घर-घर में मधुर मन्धर स्वरवाला नगाड़ा यह कहता है (5) कि कालकूट नाम का जो भील राजा है यह मानो पाप का ही परमकूट है। उसने चिंघाड़ते हुए गोकुल का अपहरण कर लिया है। सैनिकसमूह और धरती से महानू जो उसे ला देगा, उसे सुन्दर देहवाली गोविन्द की कन्या दी जाएगी, जो रूप में मानो दूसरी सीता है। कुमार जीवन्धर ने वैसा ही किया। उस धनुर्धारी युद्ध में भीलराज को मार दिया और गोकुल को लाकर दे दिया। जयकार करते हुए काष्ठांगार ने शीघ्र ने Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 ] महाकमुष्फयतविरकट महापुरागु 199.5.6 गोवालपुत्ति बालें विवर्ल्ड परिणाविउ वणिसुउ दियड्दु । इह भरहखेति खयरायलिदि णहवल्लहपुरि फुल्लारविंदि। णवराहिउ णामें गरुलवेउ सो दाइज्जेहिं णिरत्यतेउ। थिउ रयणदीवि रमणीयणयरु अप्प करेवि संपण्णखयरु। पिय धारिणि तहु संपुषणगत्त मुर पकनोलण गंधदत्त ! एक्काहिं दिणि पोसहखीणदेह पडिवयदिवहे णं चंदरेह। दिट्ठी ताएं जिणसेस देंति थणभारें णं भज्जिवि णवंति। भासइ पिउ सुंदरि देमि कासु ता भणइ मंति लद्धावयासु। मई मंदरि दिट्ठउ अरुहगेहि चारणमुणि णिण्णेहउ सदेहि। सो पुच्छिउ पुत्तिहि वर्स' वि कवणु जइ भासइ जो मायंगगमणु। जीवंधरु सच्चंधरहु सूणु रायउरणाहु बुद्धिइ अणूणु। सो होसइ वरु धारिणिसुयाहि । वेल्लहलवेल्लिसुललियभुयाहि। ता पुच्छइ पहु संजोउ केव वज्जरइ मंति भो णिसुणि देव । रायउरइ वणिवइ बसहदत्तु पोमावई णामें तहु कलत्तु। णंदणु जिणदत्तु महाणुभाउ सो कन्जु करेसइ तुह सराउ । घत्ता-उज्जाणसमिद्धई महिरुहरिद्धइ णियतणएण विराइउ ।। उप्पाइयणाणहु सायरसेणहु वंदणहत्तिइ आइउ' ॥5॥ 20 गोपालपुत्री उसे दे दी। उस बालक ने वणिकपुत्र विदग्ध नन्दाय का उससे विवाह करवा दिया। इस भरतक्षेत्र के विजया पर्वत में खिले हुए कमलों से युक्त नववल्लभपुरी है। उसमें राजा गरुड़-वेग नाम का विद्याधर था। उसके भागीदारों ने उसके तेज को व्यर्थ कर दिया था। रत्नद्वीप में खुद सुन्दर नगर बनाकर वह सम्पन्न विद्याधर वहाँ रहने लगा। उसकी पत्नी प्रियधारिणी थी। उसकी सम्पूर्ण शरीरवाली नवयुवती गन्धर्वदत्ता नाम की कन्या थी। एक दिन उपवास से क्षीणदेह उसे जिनपूजा की शेषमाला देते हुए पिता ने देखा मानो प्रतिपदा की चन्द्ररेखा हो। स्तनभार से मानो वह भग्न होकर झुक गयी थी। पिता कहता है कि मैं यह सुन्दरी किसे दूँ ? तब अवसर पाकर मन्त्री कहता है कि मैंने भगवान अर्हन्त के मन्दिर में एक चारण मुनि को देखा था जो मूर्तमान वीतराग थे। उनसे मैंने पूछा था कि कुमारी के लिए कौन वर होगा ? यति ने बताया कि गजगामी सत्यन्धर का पुत्र राजनगर का स्वामी, अन्यून (बहुत) बुद्धिवाला जो जीवन्धर स्वामी है, वह बेल फल की लता के समान सुन्दर भुजावाली धारिणी की पुत्री का वर होगा। राजा पूछता है कि संयोग किस प्रकार होगा ? मन्त्री कहता है-“हे देव ! सनिए। राजपुर में वृषभदत्त नाम का सेठ है। उसकी पदमावती नाम की पत्नी है। उसका महानभाव पत्र जिनदत्त है। स्नेही वह तुम्हारा काम करेगा।" । घत्ता-उद्यान की समृद्धि, वृक्षों की ऋद्धि एवं अपने पुत्र से शोभित वह (वृषभदत्त) जिन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया है, ऐसे सागरसेन महामुनि की वन्दनाभक्ति करने के लिए आया । 3. AP गरुहोउ। 1. AP दायजेहिं । 5. AP अप्पण। 6. A एय। 7. AP कमणु रमणु। B. AP उज्जाणि। 9. AP आयउ। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 99.6.14] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु (6) पई दिउ सेट्ठि 'सकंतु संतु जिणदिक्ख लइय वणिणा सुधामि आगमणु पहोसइ तासु एत्पु उ लज्जइ सो तुह पेसणेण तावायउ चणिसुउ तहिं तुरंतु पत्थिउ णरणा सो सराहु महुं तणयहि मित्त सयंवरेण गणियपुरु णंदणवणि विचित्तु उच्छलिय वत्त मयणग्गिजलिय आइउ खगवइ लेविणु' कुमारि वीणावज्जें लायण्णपुण्ण परिणिय जयजयदुंदुहिरवेण पडवण्णु हु गुणगणमहंतु । दणु णिहियउ संपण्णकामि । तुप विसूरहि मा णिरत्यु | णियगोत्तसणेहविहूसणेण । अब्भागयविहि किउ पाहुणन्तु । तुम्हारइ पुरि कीरउ विवाहु । ता तं पडिवण्णउं वणिवरेण । विरइउ मंडल माणिक्कदित्तु । गाणाविह तहिं मंडलिय मिलिय । बहुमणयजुवाणहुं गाई मारि । जीवंधरेण णिज्जिणिवि कण्ण । सज्जणविरइयपउरुच्छवेण । घत्ता -- ता रइरसलुद्धे सुछु विरुद्धे कगारयपुङ्क्ते॑ । मायंगतुरंगहिं रहहिं रहंगहिं आढत्तउं रणु धुसें ॥6॥ [355 (6) AP सुकम्बु । 2. A कीर। 7. AP गियपुरे। 4. AP लेखिणु । 5 10 ( 6 ) तुमने कान्ता सहित सेठ को देखा । तुम्हारा गुणगण से महान् प्रेम उत्पन्न हो गया। सेठ ने जिनदीक्षा ले अपने घर में सम्पूर्ण मनोरथों हेतु पुत्र ( जिनदत्त) को स्थापित कर दिया। उसका यहाँ आगमन होगा, तुम व्यर्थ चिन्ता मत करो। अपने गोत्र के स्नेह से विभूषित तुम्हारी आज्ञा से वह संकोच नहीं करेगा। इतने में शीघ्र ही वणिकपुत्र वहाँ आ गया। उसके आने की विधि और पहुनायी की गयी। शोभावान उससे राजा ने प्रार्थना की- "तुम्हारे नगर में मेरी कन्या का स्वयंवर से विवाह किया जाये।" सेठपुत्र ने इस बात को स्वीकार कर लिया। वह अपने नगर गया और नन्दनवन में माणिक्यों से आलोकित एक विचित्र मण्डप बनवाया । कामदेव की आग से प्रज्वलित यह बात दूर-दूर तक फैल गयी और अनेक माण्डलीक राजा वहाँ आकर मिले। विद्याधर राजा अपनी कन्या लेकर आया जो कि बहुत से युवकजनों के लिए रति ( के समान ) थी। कुमार जीवन्धर ने वीणावादन द्वारा लावण्य से परिपूर्ण उंस कुमारी को जीतकर, जय-जय तथा नगाड़ों की ध्वनि एवं सज्जनों के द्वारा किये गये विशाल उत्सव के साथ उससे विवाह कर लिया । घत्ता - तब रतिरस के लोभी काष्ठांगारिक के धूर्त पुत्र ने विरुद्ध होकर हाथियों, घोड़ों, रथों और चक्रों से युद्ध प्रारम्भ कर दिया। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 356] महाकइपुष्फयंतबिरयउ महापुराणु [99.7.1 णरघइहिं णारिरयणाई होति उवसामिउ सो विज्जाहरेण अण्णहिं दिणि पउरें सहुँ अणिंदु वइसवणदत्तु तहिं वणि सुकंत सुरमंजरि णामें कायजाय चंदोयउ णामें चुण्णवासु हिंडेप्पिणु मंदिरु चेडियाइ अण्णेक्कु वि वणिउ कुमारदत्तु गुणमालइ बालइ रइउ चुण्णु वपिणउं लजियाई जायउ विवाउ दोहिं मि जणीहिं हिणी परिणत जीलंधरेण चंदोयउ भल्लउ दिव्यवासु जायज तरुणिउ णिम्मच्छराउ गउ णंदणवणु तहिं एक्कु कबिलु किं कहिं' मि किराडई भवणि जति । विज्ञासामत्थें सुंदरेण। थिउ उववणि वणकीलद परिंदु। साहारमंजरी णाम कंत। को पावइ किर तहि तणिय छाय। सामलियइ तहिं किउ जणपयासु । अहिमाणभमेण भमाडियाइ। विमला णामें तहु घरि 'कलत्तु । सूरोबउ पाम मयालिछण्णु । घरि घरि सुयंधगुणरंजियाइ । वणिधीयहं घणपीत्यणीहिं। परियाणियणिच्यलमहुयरेण। पायडिङ तेण तक्खणि जणासु । अण्णहिं वासरि घणिवरु णवाउ । ताडिउ डिंभहिं रइरमणचवलु। 10 ओर बोला-“स्त्रीरल राजाओं के लिए होते हैं। क्या कहीं भी वे भीलों के घर जाते हैं ?" लेकिन उस सुन्दर नामक विद्याधर ने अपनी विद्या के सामर्थ्य से उसे शान्त कर दिया। दूसरे दिन पौरजनों के साथ वनक्रीड़ा के लिए वह अनिन्द्य राजा उपवन में ठहर गया। उस नगर में वैश्रवणदत्त एक सुन्दर सेठ था। आम्रमंजरी उसकी पत्नी थी। सुरमंजरी नाम की उसकी कन्या थी। उसकी कान्ति को कौन पा सकता था ? उसकी दासी श्यामलता ने उसके चन्द्रोदय नामक चूर्ण की गन्ध का प्रचार अभिमान के भ्रम से भ्रमित होकर घर-घर जाकर लोगों में किया। उसी नगर में एक और सेठ कुमारदत्त था। उसके घर में विमला नाम की पत्नी थी। उसकी कन्या गुणमाला ने भी चूर्ण बनाया। भ्रमरों से आच्छादित उसका नाम सूर्योदय था। उसके सुगन्धगुण से मुग्ध होकर दासी विद्युल्लता ने घर-घर जाकर उसकी प्रशंसा की। सघन स्तनोंचाली उन दोनों सेठ-कन्याओं में विवाद हो गया। परीक्षा में निश्चल भ्रमरों से जिसने ज्ञात कर लिया है, ऐसे उस जीवन्धर ने उसी समय लोगों में यह प्रकट किया कि चन्द्रोदच चूर्ण अच्छा और दिव्यगन्धवाला है। दोनों युवतियों की ईष्या समाप्त हो गयी। दूसरे दिन एक नया आया हुआ सेठ नन्दनवन में वहाँ गया, जहाँ रतिक्रीड़ा करने में चंचल गम्भीर धीर एक कुत्ता लड़कों के द्वारा प्रताड़ित होकर नदी के भैंबर में पड़ गया था। भय से (7)। A काँम। 2. A . A भया । I. AP भगंध। 5. A बाणे नाणगः । चरतर गावाः । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 99.8.10] महाकपुष्यंतविरयउ महापुराणु गंभीरु" धीरु सरिदहि णिमण्णु दिणाई पंचवरगुरुपबाई घत्ता - णियभवु अहिणागिवि मणि परियाणिवि कलिमलदोसविषज्जिउ । आवेष्पिणु जक्खें कमलदलक्खें जीवंधरु गुरु पुज्जिउ ॥7 ॥ (8) अविसहियभीमदिणयरगभत्यि णर भागाणंटप्पातु विजयासुएण अलिकालकंति सा दिणी तहु अवियारएण परवइकील कीलइ किराडु इय भणिवि चंडु पुरदंडवासि सच्चधरतणयहु सो पणट्टु उप्पण्णगरुयकरुणारसेण पहएण भिच्चणियरें गिराउ इय भणिवि तेण संभरिउ जक्खु कड्डाविउ कुमरें भयविसष्णु' । प्राणाई" दह वि भलुहहु गयाई । अण्णहिं वासरि णिवगंधहत्थि । थाह सुजरिमंदणासु । रक्खय सुंदरि पडिखलिउ दंति । भाविउ मच्छरु अंगारएण । लइ एयहु किज्जइ दप्पसाडु तें तहु पेसिउ करयलकयासि । रणि णं तवचरणहु कुमुणि भट्ट । मणि चितिउं किं कि परवसेण । खुद्दह किज्जइ उवसमउवाउ । सो आयउ परबलदुण्णिरिक्खु । [357 20 6. A गंभीरधीर सरिदरिणिमण्णु 1 7 P भयणिसज्जु 8. AP पहनाई। 9. । कविलाही । (8) 1.4 गहथि। 2 AP क्रीडड़ 3. AP किंकरपरवसेन । 5 10 दुःखी उसे कुमार ने बाहर निकलवाया। उसे पंच नमस्कार मन्त्र दिया। उस कुत्ते के प्राण निकल गये। मरकर वह धातुओं से लाल चन्द्रोदय पहाड़ के तट पर यक्षदेव हुआ । घत्ता - मन में अपने पूर्वभव को जानकर कमलदल के समान आँखोंवाले उस यक्ष ने आकर कलिमल के दोषों से दूर, अपने गुरु जीवन्धर की पूजा की 1 ( 8 ) एक दिन, सूर्य की गम्भीर किरणों को सहन नहीं करता हुआ राजा का गन्धहस्ती मनुष्यों के कोलाहल से नेत्रों के लिए आनन्ददायक, सुरमंजरी के रथ की ओर दौड़ा। विजयादेवी के पुत्र जीवन्धर ने भ्रमर और काल की कान्ति के समान उस गज को वश में कर लिया और सुरमंजरी की रक्षा की। वह उसे दे दी गयी। अविवेकशील अंगारक ईर्ष्या से भर गया कि एक भील राजा की क्रीड़ा से खेलता है। लो, इसका दर्पनाश किया जाये। यह कहकर उसने हाथ में तलवार लिये नगर कोतवाल को उसके पास भेजा। लेकिन सत्यन्धर के पुत्र से युद्ध में वह उसी प्रकार नष्ट हो गया, जिस प्रकार खोटा मुनि तपश्चरण से नष्ट हो जाता है। जिन्हें भारी करुणारस उत्पन्न हुआ है, ऐसे कुमार ने सोचा कि पराधीन अनुचर समूह को मारने से क्या ? क्षुद्र के प्रति उपशमभाव धारण करना चाहिए। यह विचार कर उसने यक्ष को याद किया। शत्रुबल के लिए दुर्दर्शनीय वह आया। उसने उसे काष्टांगारिक के पास भेजा, मानो स्फुरित अंगारोंवाली आग के पास नवमेघ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- 358 । महाकाइपुष्फयंतविण्यउ महापुराणु [99.8.11 तें पेसिउ कट्टुंगारयासु णवमेहु व फुरियंगारयासु । उवसामिउ देवें रिउ ण भंति पियवयणे के के णउ समंति। यत्ता-रणविजयमहाकरि चडियउ णरहरि पुरवरणारिहिं दिलउ। जयमंगलसदें तूरणिणदें जणणणिवासि पइट्ठउ ॥8॥ वसु जायउ सयलु वि मणुयसत्धु णिउ जक्खें णिययमहीहरासु तहिं अच्छिउ सो कइवयदिणाई पुणु आयउ पहु चंदाहणयरु तहु अस्थि तिलोत्तिम तिलणिबद्ध तारावलिणिहकरकमणहाहि सा दट्ठी दुहें विसहरेण जीवावइ जो परणाहपुत्ति सो पड़ह धरिउ जीबंधरेण धणवइणा दिण्णउं अद्धरज्जु बहुभायर वर अच्चतसमुह सो णस्थि जो' ण तहु तसिउ तेत्यु। बहुरूविणि अंगुत्थलिय तासु। माणंतु चारु सुरतरुवणाई। तहिं धणवइ णामें राउ पवरु। महएवि रूवसोहग्गणिद्ध । पोमावइ णामें धीय ताहि। डिडिमु देवाविउ णिववरेण । तह दिज्जइ सा अण्ण वि धरत्ति। जीवाविय सा मंतखेरण। अण्णु वि तं कण्णारयणु पुज्जु । जाया किंकर धणवालपमुह। 10 भेजा हो। यक्ष ने शत्रु को शान्त कर दिया। इसमें सन्देह नहीं कि प्रियवचन से कौन-कौन शान्ति को प्राप्त नहीं होते ? पत्ता-युद्ध-विजय के महागज पर आरूढ़ उस नरश्रेष्ठ को नगरनारियों ने देखा। जयमंगल शब्द और तूर्य के निनाद के साथ उसने अपने पिता के घर प्रवेश किया। समस्त नरसमूह उसके अधीन हो गया। वहाँ ऐसा. एक भी व्यक्ति नहीं था, जो उससे तुष्ट न हुआ हो। यक्ष उसे अपने पर्वत पर ले गया और उसे बहुरूपिणी अंगूठी प्रदान की। वह वहाँ पर सुन्दर वनवृक्षों का आनन्द उठाता हुआ कुछ दिनों तक रहा। फिर वह चन्द्राभ नगर में आया। उसमें धनपति नाम का एक महान् राजा था। उसकी तिलोत्तमा नाम की स्नेहमयी महादेवी थी, जो रूप और सौभाग्य से समृद्ध थी। उसकी तारावली के समान हाथों और पैरों के नखवाली पदमावती नाम की कन्या थी। उसे एक दुष्ट विषधर ने काट खाया। राजा ने नगर में यह मुनादी करवा दी कि जो राजा की पुत्री को जीवित कर देगा, उसे वह और साथ ही धरती दी जाएगी। जीवन्धर ने यह मुनादी सुनी। उसने मन्त्राक्षरों से उसे जीवित कर दिया। राजा धनपति ने उसे आधा राज्य दे दिया और साथ ही पूज्य कन्यारत्न । कन्या के अत्यन्त सन्दर 4.A' तं पेसिज । 5. A वयणे के णउ ज्वसमाते। 6. AP रणे विजय । (9) I. AP ण त जो। ५. AP ख्यतोहग्ग" | S. A चिंडिमु; । डिम् । 4. AP रित्ति। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I 99.10.2 | महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु हिरामु दूरुज्झियरइसिंगारभारु । गउ रयणिहि पट्टणु खेमदेसि दिउ free सुंदरपवेसि बहुमहमहंतु विडियs कवाडई दढई केम खकिरणकलावुग्धाडियाई पुजिउ परमप्पर णिव्वियारु णियणाहरु परिमउलियकरेहिं वियसिउ चंपउ अक्खिउ परेहिं । आसपुर जाणिव पयासु वणिवइणा दिण्णी कृष्ण तासु । णामेण खेमसुंदरि ससोह धणुमग्गण अरिणरणियररोह । दिण्णउ विणएं अहिणववरासु चिरु होतउ तं विषयंधरासु । यत्ता - णाहहु सुअरेपिणु तणु विहुणेपिणु नियभिच्चयणविराइय । णियविज्जापाणें रयणविमाणें खेबरधीय पराइय ॥9॥ ( 10 ) पियंदंसणवियसियकमलणेत्त' रायरहुं पुणु चावधारि खेमउरु णाम बाहिरपवेसि । जिगु दिउ किकामु । फुल्लिउ चंपउ अलिगुमुगुमंतु अम्मि पावाई जेम । सरवरणवणलिणई' तोडियाइं । सहुं मिलिय पियहि" गंधच्वदत्त । एक्कु जि णिग्गउ बलणिज्जियारि । [ 359 15 20 धनपाल प्रमुख बहुतेरे श्रेष्ठ भाई उसके सेवक हो गये। एक रात वह क्षेमदेश के क्षेमपुर नगर चला गया। बाहर प्रदेश में उसने एक सुन्दर जिनमन्दिर देखा। उसने काम से मुक्त ( वीतराग ) जिन- भगवान की वन्दना की। उसके सुन्दर प्रवेश से महकता हुआ और भौंरों से गूँजता हुआ चम्पक वृक्ष खिल उठा। मन्दिर के दृढ़ किवाड़ उसी प्रकार खुल गये, जिस प्रकार अत्यन्त धर्मात्मा व्यक्ति के पाप नष्ट हो जाते हैं। सूर्य की प्रखर-किरण-समूह से खिले हुए कमलों को उसने तोड़ा और रति के श्रृंगारभार की दूर से छोड़नेवाले निर्विकार परमात्मा की पूजा की। दोनों हाथ जोड़े हुए अनुचर-नरों ने जाकर अपने स्वामी से चम्पा के खिलने की बात कही। उसे आदेश - पुरुष जानकर सेठ ने उसके चरणों में क्षेमसुन्दरी नाम की कन्या दे दी और साथ ही शत्रुजनों के समूह का निरोध करनेवाले शोभायुक्त धनुषबाण, विनयपूर्वक नये वर को दे दिये जो पहले विनयन्धर के थे । 5. AP सुमुह 6. A. महमरुमहंतु; P महुमतमहंतु । 7. AP सरबरे शय। 8. B प्राणें । (10) 1. AP पियदंसणे 2. AP पियहो 3. AP गउ । धत्ता - तब अपने स्वामी की याद कर अपने शरीर को पीटती हुई, अपने भृत्यजन से विरक्त, विद्याधरी ( गन्धर्व - दत्ता) अपनी विद्या के सामर्थ्य से रत्नविमान से वहाँ पहुँची । ( 10 ) प्रिय के दर्शन जिसके कमलरूपी नेत्र खिल गये हैं, ऐसी गन्धर्वदत्ता प्रिय से मिली। वह पुनः राजपुर Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3601 199.10.3 महाकइपृष्फयतविरयउ महापुराणु पुणु विजयविसइ भुयबलविसटु हेमाहउ पट्टणु बद्धपदु। विस्तार राइ लमित्तु णाम णलिणा मइएवि विइण्णकाम । हेमाह पुत्ति जणदिण्णमयणु इय बोल्लिउं जोइसिएहि वयणु। मुक्कउ धाणुक्कें चवलु बाणु जा पावइ झत्ति ण लस्खठाणु । ता पावइ गंपिणु जो तुरंतु सो एयहि कुमरिहि होई कंतु । ता लेल्थु मिलिय णर णरहं सामि बाणासणविज्जापारगामि। गउ जीवंधरु जा सरु ण जाइ ता लक्खु छिवेप्पिणु चलु विहाइ। पडियागउ णं णरवेसपवणु भूवइ भाणु व भाभारभवणु। दवमित्तें तहु दिण्णी कुमारि चउभायरकिंकरचित्तहारि। गंदड्डे पुच्छिय भाउजाय कहिं जासि णिच्चु तुहं लद्धछाय। ता विहसिवि अक्खइ चारुगत्त णियदेवरासु' गंधव्वदत्त । हउं जामि बप्प तुह भायपासु ता सो पभणइ पप्फुल्लियासु। मई णेहि माइ जहिं वसइ बंधु पेच्छमि परमेसरु सच्चसंधु। तं णिसुणिवि परणरदुल्लहाइ बोल्लिउ जीवंधरवल्लहाइ। पुज्जाविहि गुरुभत्तिइ करेवि णियभायरु णियहियइ धरेवि। 10 15 वापस चली गयी। अपने बल से शत्रुओं को जीतनेवाला वह धनुर्धारी अकेला ही वहाँ से निकल पड़ा। फिर, विजयदेश में हेमाम नाम का नगर है। उसमें बाहुबल से विशिष्ट और राजपट्ट बाँधे हुए दृढ़मित्र नाम का विख्यात राजा था। पूर्ण काम को वितीर्ण करनेवाली, उसकी नलिना नाम की महादेवी थी। उसकी हेमामा नाम की पुत्री थी। ज्योतिषियों ने उसके सम्बन्ध में लोगों में काम की उत्सुकता उत्पन्न करनेवाले ये शब्द कहे थे कि धनुष से छोड़ा गया बाण जब तक अपने लक्ष्यस्थान को शीघ्र नहीं पाता, तब तक जो तुरन्त जाकर उसको पा लेगा, वह इस कुमारी का पति होगा। तब धनुर्बाणविद्या के पारगामी विद्याधरों और मनुष्यों के स्वामी वहाँ आये। जब तक तीर नहीं पहुँचा, तब तक लक्ष्य छूने के लिए कुमार जीवन्धर चंचल दिखाई देता है मानो मनुष्य के रूप में पवन ही लौटकर आ गया हो। भूपति (जीवन्धर) भा (कान्ति) के भार का भवन भानु के समान था। राजा दृढ़रथ ने चारों भाइयों और अनुचरों में सुन्दर लगनेवाली कन्या उसे दे दी। नन्दाढ्य ने अपनी भ्रातृजाया (भौजाई गन्धर्वदत्ता) से पूछा-"छायारूप में तुम प्रतिदिन कहाँ जाती हो ?" तब सुन्दरदेहवाली वह अपने देवर से कहती है-“हे सुभट ! मैं तुम्हारे भाई के पास जाती हूँ।" खिले हुए मुखवाला वह कहता है- "हे आदरणीया ! मुझे भी वहाँ ले चलो जहाँ भाई रहता है। मैं सत्यसिन्धु परमेश्वर के दर्शन करूँगा।" यह सुनकर, दूसरे मनुष्यों के लिए दुर्लभ जीवन्धर की प्रियतमा ने कहा-"भारी भक्ति से पूजाविधि कर अपने भाई को अपने हृदय में धारण कर, रात्रि का समय आने पर जनसुन्दर तरंगिणी 4. AP जोइसिएण। 5. A होउ। 5. A णरयेतु पवणु। 7. Pणियदेवराट। 8. A adds ufter this line : छपाछुद्धहीरमंडल सुवत्त, सा अणुदिणु सेवइ विसय मृत्त। . P चेलिर। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 99.1L10] महाकइपुप्फयंतविरया महापुराणु [ 361 आरुहहि तरंगिणि णाम सेज जामिणिसमयागमि जणमणोज । तं तेंव करिवि गउ सो वि तेत्यु साहसरयणायरु वसइ जेत्थु । घत्ता-ता दोहिं मि भायहिं क्यपियवायहि मुहं महं महं जि पलोइउं। 20 अवऊदु परोप्परु'' णेहें णिभरु रोमंचुयपविराइउँ५ ॥10॥ पुणु सोहापुरि णवकमलवत्तु' तहु घरिणि वसुंधरि चंदमुहिय पारावयजुवलु पलोयमाण सिंचिय सीयलचंदणजलेण आयालयसुंदरि कामकुहिणि सा पुच्छिय दोहिं मि भणु णयोग तं वयणु सुणिवि कुंअरीउ' ताई आयण्णिवि तं दोण्णि वि गयाउ हेमंगई पुरि घणि रयणतेउ अणुवम सुय अणुवम कइ कहति दढमित्तभाइ णामें सुमित्तु। कलहंसगमणि सिरिचंद दुहिय। पंगणि' मुच्छिय णं मुक्कपाण' । आसासिय चलचमराणिलेण। तहि तिलयचंदिया णाम बहिणि। किं णिवडिय णं सरहय कुरंगि। संबोहियाउ भवसंकहाइ । पियरहं कहति पणमियसिराउ । पिय रयणमाल तह सोक्खहेउ। तत्थेव णयरि अवर वि वसंति। __10 नाम की सेज पर सो जाओ।" वैसा करके वह भी वहाँ गया, जहाँ साहसों के समुद्र कुमार जीवन्धर थे। घत्ता-प्रिय बातें करते हुए दोनों भाइयों ने बार-बार एक-दूसरे को देखा। परस्पर एक-दूसरे का आलिंगन किया, स्नेह से पूर्ण रोमांच हो आया। फिर, शोभापुरी (शोभानगर) में नवकमल के समान मुखवाला दृढ़मित्र का भाई सुमित्र था। उसकी वसुन्धरा नाम की चन्द्रमुखी गृहिणी और कलहंसगामिनी श्रीचन्द्रा नाम की कन्या थी। एक कबूतर के जोड़े को देखकर वह घर के आँगन में मूर्छित हो गयी, मानो प्राण ही निकल गये हों। ठण्डे चन्दनजल से सींचने तथा चल-चामरों की हवा से वह आश्वस्त हुई। काम की गली, सखी अलकासुन्दरी एवं उसकी बहिन तिलकचन्द्रिका आयीं। उन दोनों ने उससे पछा-“हे नतांगी बताओ, बाणों से आहत हिरणी की तरह तुम क्यों गिर पड़ीं ?" यह वचन सुनकर उसने उन दोनों को अपनी पूर्वजन्म की कथा से सम्बोधित किया। उसे सुनकर वे दोनों भी वहाँ से चली गयीं और प्रणाम कर पिता से कहा-"हेमांगद नगर में रत्नतेज नाम का सेठ था। रत्नमाला उसकी सुखदेनेवाली प्रिया थी। ये (चन्द्रिका) उन दोनों की अनुपमा नाम की कन्या थीं। कवि भी उसे अनुपम कहते थे। उसी नगर में एक और कनकतेज सेठ रहता था। उसकी पत्नी चन्द्रमाला थी, मानो अभिनव सुगन्धवाली 10. मुहु गुहु मुई जि पलोरया । मुहूं मुहुँ जि। 11. AP पसेप्पर । 12. AP रोमविया । (11) 1. APकमलणेत्तु। 2. पारावहजयलु । 3. B अंगाण। 4. B मुक्कप्राण। 5. A "चंदिया। 6. A लोंगे। 7. AP कुअरीए। 7.A अयाह Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362 । पडाकइपुष्फयंतविरयक महापुराण [99.11.]] वणि कणवतेउ पिय चंदमाल अहिणवसुयंध णं कुसुममाल। सुउ जायउ ताहं सुवण्णतेउ दुस्सीलु दुटु कुलधूमकेउ। पुवुत्त तासु अणुवम सुहीहिं दिण्णी ण मुणियवरपुग्विणीहि । गुणमित्त होता हरिणलपण व पालर सोपवें "तुट्ठमयण । जलजत्तहि" जाइवि जलहितीरि सरिमुहि मुउ वरु गंभीरणीरि। 15 वहुयइ तहिं गपि विमुक्कु जीउ पारावयजुयलुल्लउं विणीउं। रायउरि दो वि जायई सणेहि गंधुक्कडवणियह तणइ गेहि। घत्ता--तहिं बिहिं मि णिवसंतहि समउ मंतहि सिसुसंसग्गें गुणियई। अक्खराई मत्तालई मलपक्खालई मुणिवरवयणई सुणियई ॥1॥ (12) वरु पवणवेउ णामेण पक्खि रइवेय णाम पक्खिणि चलक्खि । बेण्णि वि पालियसावयवयाइं उज्झियरयाइं पालियदयाई । पाविठ्ठ मरिवि कुच्छ्यिविवेउ पुरुदंसउ हुयउ सुवण्णतेउ । तें पक्खिणि कणभोयणविलुद्ध खरकरचवेडदंतेहिं रुद्ध । पक्खि मुहयल्लिय घणघणाइ मेल्लाविय पक्खझडप्पणाइ। अण्णहिं दिणि पुरवरणियडसेलि कीलंतई णवतरुवेल्लिजालि। कुसुममाला हो। उसका स्वर्णतेज नाम का पुत्र हुआ जो दुःशील, दुष्ट और अपने कुल के लिए पुच्छलतारा था। पूर्वोक्त अनुपमा कन्या, भवितव्य जाननेवाले सुधीजनों ने उसे (कनकतेज को) नहीं दी। मृगनयनी वह गुणमित्र के लिए दी गयी। उनके काम को सन्तुष्ट करनेवाले दिन सुख से बीते। एक बार जलयात्रा के लिए जाकर, समुद्र के किनारे नदी के मुहाने पर गम्भीर जल में वह मर गया। वधू ने भी वहीं जाकर अपने प्राणों का त्याग कर दिया। वे दोनों राजपुर में सेठ गन्धोत्कट के स्नेहपूर्ण घर में विनीत कबूतर-कबूतरी का जोड़ा हुए। धत्ता-वहाँ रहते हुए और समय बिताते हुए उन दोनों बच्चों के संसर्ग से उन्होंने मात्रायुक्त अक्षर सीख लिये। और पाप का प्रक्षालन करनेवाले मुनिवरों के वचनों को सुना। (12) वर पवनवेग नाम का कबूतर हुआ और चंचल आँखोंवाली वधू रतिवेगा नाम की पक्षिणी। दोनों ही श्रावक व्रतों का पालन करते थे। वे रति से रहित दया का पालन करनेवाले थे। कुत्सित विवेकवाला वह (कनक तेज) बिलाव हुआ। उसने कणों के भोजन की लोभिन कबूतरो को तीव्र हाथों की चपेट और दाँतों से अवरुद्ध कर लिया। कबूतर ने मुँह में पड़ी हुई उसे अपने पंखों की सघन झड़पों से छुड़ाया। एक दूसरे दिन, नगर के निकट के पर्वत के नश्वृक्षों के लताजाल में क्रीड़ा करते हुए, पापियों के द्वारा पहले से बिछाए गये जाल * A होहि । ५.AP बराबहीटिं। 10. AP तुटु भयण। 1. AP जलजंतह। 12. A रवंतहिं । (12) 1. A पथणयेगु । 2. A पंखि। 3. P कोडतइ । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 99.13.7] महाकइपुष्फयतविस्यउ महापुराणु [363 10 पाविटुहिं पासई 'घल्लियग्गि । मय पक्खिणि दइयहु विविहभंगि। आवेप्पिणु मंदिरु अक्खरेहि चंचूलिहिएहिं मणोहरेहि। अक्खिा पखि गइवेय मुड़य सा एह ताय तुह दुहिय हुइय । सिरिचंद णाम सुय' सुंदरीहिं भासिउ पियरह बिबाहरीहिं। पारावयमिहुणालोयणेण मुच्छिय णियजम्मणजाणणेण। यत्ता-तं णिसुणिवि वइयरु पक्खिभवंतरु लिहियउ तेहि पडतरि । अप्पिङ ससुहेल्लिहि वप्महवेल्लिहि रंगतेयणडणडिकरि ॥12॥ ( 13 ) पडु उववणि णिहियउ रसविसर्दु दोहिं मि णडेहिं पारद्ध णटु । जणणु वि गउ तेत्थु जि णिहियचित्तु रिसि दिवउ तेण समाहिगुत्तु । वंदेप्पिणु पुच्छिउ सुयहि कंतु को होसइ जइवर गुणमहंतु । मुणि पभणइ वरु हेमाहणयरि ता जायवि ताएं सोक्खसयरि। पडु पसरिउ णदलण दिछु भवु सुमरिवि सो मुच्छइ णिविछु। उम्मुच्छिउ साहइ णिययजम्मु किर तहु परद्ध विवाहकम्म। जा संजायउ रोमंचु' उंचु ता अण्णु जि संपण्णउ पवंचु । में देव की विचित्रता के कारण वह कबूतरी मर गयी। घर आकर अपनी चोंच के द्वारा लिखित सुन्दर अक्षरों से कबूतर ने बता दिया कि रतिवेगा मर गयी। हे तात ! इस समय वही तुम्हारी चोंच के द्वारा लिखित सुन्दर अक्षरों से कबूतर ने बता दिया कि रतिवेगा मर गयी। हे तात ! इस समय वही तुम्हारी पुत्री हुई है-श्रीचन्द्रा नाम से। ऐसा माता-पिता से बिम्बफल के समान अधरोंवाली उन सुन्दरियों ने कहा। इस कबूतर के जोड़े को देखकर अपने पूर्वजन्म के ज्ञान से वह मूर्छित हो गयी।" ___ पत्ता-यह सुनकर, उन लोगों ने पक्षी के जन्मान्तर का वृत्तान्त पट पर अंकित किया और उसे सुखद क्रीडावाली मदनलता नटी और रंगतेज नामक नट के हाथ में सौंप दिया। (13) उन्होंने रस से विशिष्ट पट को उपवन में रख दिया और दोनों ने नाचना प्रारम्भ कर दिया। गम्भीर चित्त पिता भी वहाँ से गया और उसने समाधिगुप्त मुनि के दर्शन किये। वन्दना करके उसने पूछा-"हे मुनिवर ! गुणों से महान् कन्या का पिता कौन है ? मुनि कहते हैं वे उत्तम सैकड़ों सुख देनेवाली हेमाभनगरी में उत्पन्न हैं। पिता ने जाकर वह चित्रपट फैलाया। नन्दाढ्य ने उसे देखा। पूर्वजन्मों को याद कर वह बैठा-बैठा मूर्छित हो गया। मूर्छा दूर होने पर वह अपने पूर्व भव का कथन करता है। फिर उसका विवाह-कर्म प्रारम्भ 1. AP लियागे। 5. AP पय। 6. दइवहो। 7. AP इय। 8. AP तहिं। 9. A परंतरु। 10. A "गाउडियकरे। Pणणारिकरे। (13) 1. A तेत्यु वि। 2. A हेमाहे णयरि। 3. AP भउ। 4. AP रोमचुचु । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364 1 महाकपुष्पवंतविरय महापुराणु गणमा सुवरिङकविट्टवणंतरालि' । दिसिगिरि पुरि हरिबिक्कमु चिलाउ वणगिरि सुंदरि सवरीसहाउ | तहिं संभूयउ वणराउ पुत्तु सहयरकिंकर भडबलणिउत्तु । अवरु वि तहु सहयरु लोहजंघु सिरिसेहु पुरि हिंडइ दुधु । ता दिट्ठ कण्ण तें उववर्णति सिरिचंद मंदमायंदवति । अवरु वि तुरंगु णइ गच्छमाणु किंकरणरेहिं रक्खिज्जमाणु । हित्तउ चोरेहिं पुलिंदए हिं भडलोहजधपमुहेहिं तेहिं । धत्ता-सु तुरंगु मणोहरु कलहिलिहिलिसरु आणिवि दिष्णु णिरिक्खिउ । वणलच्छिसहायहु हु वणरायहु कण्णारयणु वि अक्खितं ॥13॥ ( 14 ) ता तेण तेत्थु णिरु बद्धगाहु कुंयरीमंदिर पाडिउ' सुरंगु गीसारिय सुय तहिं चित्तु पत्तु जिह पिय गमेसरि वणयरेहिं ढोइय हरिविक्कमणंदणासु उत्तरु दिण्णउं कण्णाइ तासु पेसिय किंकर थिरथोरबाहु । चउहत्थरुंद चउहत्यतुंगु । आलिहियजं विविक्खरविचित्तु । 'कोबंडकंडमंडियकरेहिं । करकमलंगुलिलालियथणासु । किं दावहिं दुज्जण थोरु मासु । [ 99.13.8 10 5. AP वर GA सुंदर सबरी । ( 14 ) 1. AP कुमरी । 2. P पाडिय सुरंग । 3. A इत्यतुंगु । 4. A "हत्यसंदु। 5. AP कोयंड" । 15 5 किया जाता है। जब यहाँ हर्षपुलक हो रहा था, तभी एक दूसरा प्रपंच हुआ। जिसमें तमाल और ताल के वृक्ष आकाश को छू रहे हैं, जो अच्छे कैंथ के वनों से आच्छन्न है, ऐसे दिशागिरि पर्वत के वनगिरि नगर में सुन्दरी शबरी के साथ हरिविक्रम नाम का भील रहता था । उसका सहचर किंकर और भटबल से परिपूर्ण वनराज नाम का पुत्र हुआ। और भी उसके लोहजंध तथा श्रीषेण मित्र थे । दुर्लब वह नगर में घूमता रहा । उसने उपवन में मन्दमन्द गजगतिवाली श्रीचन्द्रा की कन्या देखी । और भी अनुचरों से रक्षित, नदी की ओर जाता हुआ घोड़ा देखा। उन चोर, भीलों ने उसका (घोड़े का ) हरण कर लिया । भट लोहजंघप्रमुख ने पत्ता - हिनहिनाते हुए स्वरवाला वह सुन्दर घोड़ा लाकर उसे (हरिविक्रम को) दिया। उसने उसका निरीक्षण किया । वनलक्ष्मी से युक्त उस बनराज से उन्होंने कन्यारत्न के विषय में भी कहा। ( 14 ) तब उसने वहाँ अत्यन्त मजबूत पकड़वाले और स्थिरस्थूल बाहुवाले अनुचर भेजे। उन्होंने कुमारी चन्द्रा के कमरे में सुरंग लगायी, चार हाथ की चौड़ी और चार हाथ की ऊँची । सुन्दरी को उन्होंने निकाल लिया, और अनेक अक्षरों से विचित्र एक पत्र लिखकर रख दिया कि किस प्रकार धनुषतीरों से मण्डित हाथवाले भीलों के द्वारा गर्वेश्वरी ले जांयी गयी है। कररूपी कमलों की अंगुलियों से स्तनों को सहलानेवाले हरिविक्रमपुत्र Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 99.15.2] महाकइपुष्फयंतविस्यउ महापुराणु [365 तुहं महुँ सिरिसेणसमाणु बप्पु __ मा वहहि बप्प सोहग्गदप्यु। तं आयण्णिवि हरिविक्कमेण आगयसमेण पालियकमेण। णिभच्छिवि तणुरुहु सामवण्ण णियपुत्तिहिं सहु संणिहिय कण्ण। वणराएं दिण्णउ दूइयाउ बोल्लति विलासविहूइयाउ । केव वि णउ इच्छइ सा रुयंति अच्छइ पारावयपिउ' सरंति। ता तेत्थु चिलाय विइण्णघाय दमित्ताइव संपत्त राय। संपेसिय सयल सबंधु पक्खु जीवंधरेण संभरिक जक्खु । णिज्जिणिवि भीमसेण सवर तें हित्त कण्ण महस त्ति अवर" पण भीसभिल्लविहंदाणेण . . धरियात वणराज सुदंसणेण। अप्पिउ देखें जीबंघरासु "विण्णाणणायपालियधरासु। तें सो कारागारइ णिहित्तु दप्पंधु णिवंधणु झत्ति पत्तु । धत्ता-अण्णहिं दिणि सरवरि रंजियमहुयरि' पंकवाई जिणि ढोयइ । कंपवियवसुंधरु मत्तउ सिंधुरु जीवंधरु अवलोयइ ॥14|| (15) सरतीरु धरिवि णिव्यूढगव्यु आवासिउ खंधावारु सच्चु । तहिं णिवसंतें णरपुंगमेण 'परियाणियमुणिपरमागमेण । के लिए वह कन्या दे दी गयी। उस कन्या ने उसे उत्तर दिया- हे दुष्ट ! तू मुझे अपना स्थूल मांस क्या दिखाता है ? तू मेरे लिए श्रीषेण के समान मेरा पिता है। हे सुभट ! तू मेरा सौभाग्यदर्प नष्ट मत कर।" यह सुनकर जिसे उपशम भाव प्राप्त है और परम्परा का जो पालक है, ऐसे हरिविक्रम भीलराजा ने श्यामवर्ण अपने पुत्र को डाँटा और कन्या को अपनी पुत्रियों के साथ रख दिया। वनराज ने उसके पास विलासविभूति दूती भेजी। लेकिन वह किसी भी प्रकार नहीं चाहती हुई, रोती हुई अपने पारावतप्रिय (नन्दाद्य) की याद करती हुई स्थित है। उसी समय वहाँ भीलों पर आघात करनेवाले दृढ़मित्र आदि राजा इकट्ठे हुए। भील ने भी अपने बन्धुओं और पक्ष को भेजा। जीवन्धर ने यक्ष को याद किया। उसने भी भीम के वेश में भीलों को जीतकर शीघ्र ही एक और कन्या का अपहरण कर लिया। फिर भीषण भील-संहार के बाद सुदर्शन यक्ष ने वनराज को पकड़ लिया। और उसे विज्ञान तथा न्याय से धरती का पालन करनेवाले कुमार जीवन्धर को सौंप दिया। उसने उसे कारागार में डाल दिया। वह दन्धि शीघ्र ही बन्धन में पड़ गया। __घत्ता-एक दूसरे दिन, मधुकरों से रंजित सरोवर से जिन के लिए जीवन्धर कमल ले जाते हैं, और धरती को कैंपानेवाले एक मतवाले हाथी को देखते हैं। (15) उसे सरोवर के किनारे पकड़कर, गर्व का निर्वाह करनेवाले समस्त सैन्य को ठहरा दिया। वहाँ निवास 5. AP सहुं सुहं णिहिम कपण। 7. A "पिउ | ३. A सुबंधु। ५. AP णवर। 10. AP विण्णायः। 1. AP रुजिय। 12. A जिणदीयई। (15) I. A परियाणिव। 2. AP मुणिचरियागमेण । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3661 महाकपुष्फयंतविण्यउ महापुराणु [99.15.3 दिण्णउ भोवणु परमेसरासु रिसिणाहहु विद्धसियसरासु। अच्छेरयाई जायाई पंच को पावइ पुण्णपवंचसंच। तं चोज्जु णिएवि पलंबबाहु वणवइणा पुच्छिउ दिव्यु साहु। जोईसरदाणे अस्थि भोउ सुक्कियफलु भुंजइ सब्बु लोउ। किह दइवें जुजिउ मेच्छकम्मि हउँ किर को होतउ आसि जम्मि । जइ भासइ तुई बालक्कतेउ यणिसुउ होतउ सिसुवण्णतेउ । मुउ तहिं पुणु हुउ मंजारु घोस सद्देण पणासियकीरमोरु। एह वि णिवसुय' होती कवोइ संसारसरणु जाणंति जोइ। पई लुक्की पविरइयावएण' रक्खिय णाहें पारावएण। पुणरवि तुहं जायउ विंझराउ एयहि उप्परि अइबद्धराउ। णेवाविय णेहें णउ मएण भणु को णउ जूरिय "भवकएण। घत्ता-एत्तहि "सपरक्कम पिउ हरिविश्कमु वणयरु दरिसियघायउ। णियसज्जणणिग्गहि सुयबंदिग्गहि आहवि जुन्झुई आयउ ॥15॥ 15 (16) जक्खेण सो वि भडमद्दणासु रणि बंधिवि गंदाणंदणासु। ढोइउ बहुदुग्गइकारणाई णिसणिवि चिरजम्मवियारणाइं। करते हुए, मुनियों के परमागम को जाननेवाले उस नरश्रेष्ठ ने कामदेव को ध्वस्त करनेवाले परमेश्वर मुनीश्वर को आहर-दान दिया। वहाँ पाँच आश्चर्य उत्पन्न हुए। पुण्य-विस्तार की शोभा को कौन पा सकता है ? वह आश्चर्य देखकर, वनराज ने प्रलम्ब बाहुवाले दिव्य महामुनि से पूछा--"मुनीश्वर को दान से ही सुख-भोग की प्राप्ति होती है। सब लोग अपने सुकृत का फल भोगते हैं। मैं किस दैव से म्लेच्छ कर्म से युक्त हुआ, पूर्वजन्म में मैं क्या था ?'' मुनि कहते हैं-"तू सूर्य के समान तेजवाला स्वर्णतेज नाम का वैश्यपुत्र था। वहाँ से मरकर वह एक भीषण विलाव हुआ जो अपने शब्द से कीट और मयूर को नष्ट कर देता था। वह राजकन्या भी कबूतरी हुई। योगी संसार की गति को जानते हैं। आपत्ति की रचना करनेवाले तुमने उसे पकड़ लिया, परन्तु स्वामी कबूतर ने उसे बचा लिया। तुम फिर वनराज हुए और इसीलिए इसके ऊपर तुम्हारा इतना दृढ़ राग है। तुम इसे अहंकार के कारण नहीं, स्नेह के कारण उड़ा ले गये। बताओ, संसार के कर्म से कौन नहीं पीड़ित होता है ? ___घत्ता–यहाँ सबल, आघात करनेवाला पिता हरिविक्रम भील, सज्जनों का निग्रह करनेवाले अपने पुत्र के जेल में होने के कारण युद्ध में लड़ने के लिए आया। (16) योद्धाओं का नाश करनेवाले जीवन्धर कुमार का यक्ष उसे भी युद्ध में बन्दी बनाकर ले आया। अनेक दुःखों के कारण अपने पूर्वजन्मों का कथन सुनकर सब शान्त और निःशल्य हो गये। दूर भवों का संचित 3. A घणवणा। 4. AP हठ किं कहिं होता । 5. AP हुआ पुण। 6. AP मज्जारु। 7. Pomits धोक। 8. B नृवसुय। 9.A पविरुइ। 10. AP व्यक्यि पई हें मएण। 11. AP प्रवकमेण। 12.A सपरिक्कम। 13. A वणियरू। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 99.16.191 महाकइपुष्यंतविरयन महापुराणु [ 367 - ------ - ____10 उबसंतसव्वणीसल्तु कयउं भवसंचिउं दूरहु वइरु गयउं। गुंजाहलभूसियकसणकाय' णिम्मुक्क बे वि राएं चिलाय। सोहाउरि बहुलायण्णपुण्ण णंदवहु सा सिरिचंद दिण्ण। दिग्णउं पयाणु पुणु हिमसमीरि घिउ सेण्णु अवरसरवरहु तीरि। परिवारु सब्बु चउदिसिहि रुद्ध तहिं तिव्वगंधमक्खियहिं खड़। झाइउ वणसुरवरु सुंदरेण सो आयउ तें पसरियकरण। कय रणविहि पडु परिरक्खणेण विज्जाहरु धरियउ तक्खणेण । आणि पुच्छिउ सएं खगिदु किं पई सरु रक्खिउ सारविंदु। भिंगारकराह मनु - रेसि पहु किंकराह। किं दंसमसय रइयप्पमेय ता भणइ खयरु सुणि सुहविवेय। रायउरि सुहासियघरपवित्ति विक्खायइ मालायारगोति। जाईभडकुसुमसिरीहिं' पुत्तु तुहं होतउ णामें पुष्पदंतु। तेत्धु जि पुरि गुणसंजणियराउ धणयत्तणंदिणीदेहजाउ। 15 चंदाहु णाम ह' मझु मित्तु अवरेक्कु कहिउ तें धम्मचित्तु । दोह' मि अम्हहं दोहि मि जणेहिं गहियई वयाई णिच्चलमणेहिं। .. पत्ता-सो चंदाहु मरेप्पिणु सग्गि वसेप्पिणु मुणिवरेहिं विण्णायउ। एत्यु विदेहधरायलि वरखवरायलि विज्जहरु हउँ जायउ ॥16॥ बैर चला गया। मुंजाफलों से भूषित काले शरीरवाले उन दोनों भीलों (पिता-पुत्र) को मुक्त कर दिया गया। इधर शोभापुरी में प्रचुर लावण्य से परिपूर्ण श्रीचन्द्रा नन्दाढ्य के लिए दे दी गयी। फिर उन्होंने प्रस्थान किया और सेना एक दूसरे सरोवर के हिम के समान शीतल किनारे पर ठहरी । वहाँ चारों ओर से परिवार को धेर लिया गया और तीव्रगन्धवाली मक्खियों ने उसे नष्ट करना शुरू कर दिया। सुन्दर जीवन्धर ने यक्ष का ध्यान किया। वह आया। अपने हाथ फैलाकर रक्षा करनेवाले उसने शीघ्र युद्ध किया और तत्काल उस विद्याधर को पकड़ लिया। पास में लाये जाने पर राजा ने उस विद्याधर राजा से पूछा--"लक्ष्मीपद से युक्त इस सरोवर की तुम रक्षा क्यों कर रहे हो ? भिंगारक और घड़ों को हाथों में थामे हुए हमारे अनुचरों को तुम पानी क्यों नहीं देते ? तुमने अनगिनत डाँस-मच्छरों की रचना क्यों की ?" तब वह विद्याधर कहता है-"हे शुभ विवेकशाली ! सुनो, चूने से सफेद गृहवाले राजपुर के विख्यात मालाकार गोत्र में तू जातिभट और कुसुमश्री का पुष्पदन्त नाम का पुत्र हुआ था। उसी नगरी में धनदत्त और नन्दिनी से उत्पन्न तथा अपने गुणों से स्नेह पैदा करनेवाला चन्द्राम नाम का मैं पुत्र था। एक और मित्र था, उसने विचित्रधर्म का कथन हम दोनों के लिये किया था। हम दोनों ने निश्चलमन होकर श्रावकव्रत ग्रहण कर लिये। __ पत्ता-वह चन्द्राभ मरकर स्वर्ग में निवास कर, मुनिवरों के द्वारा ज्ञात मैं इस विदेह क्षेत्र के विद्याधर लोक में विद्याधर उत्पन्न हुआ हूँ। (16) 1. A गुंजाइलभूसणकसणकाय; P गुंजाहलभूसणकाय) 2. AP चदिसि णिरुद्ध। . A स्य अप्पमेय; P रश्यप्पमेय। 4. A जोउ मडु कुसुम । 5. A हुउ। 6. AP धम्मयितु। 7. P तातहिं अहं । 8.AP खयरघरायलि। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368 ] पहाकइपुष्फवंतविरयड महापुराणु [99.17.1 ( 17 ) सुरगिरिसुरदिसियहि णिसुणि भाय जावच्छमि सुहं भुजंतु राय। ता दिलर मई मुणि दिव्यणाणि सो पुच्छिउ इच्छियसोक्खखाणि । तें कहिउ सव्वु' महुं भवविहारु तेरउ णिसुणहि अच्चंतसारु। सो पुप्फदंतु मुड जंति कालि हुउ पुक्खलवइदेसंतरालि। घरपंड्पुंडरिंकिणिपुरंति विजयधरु पहु जयलच्छिवंति। विजयावइदेविहि दिहिअणूणु जयरहु णामें तुहं पढमसूणु। अण्णहि दिणि वणकीलइ गओ सि सकमलसरवरतडि संठिओ सि। तहि बालहसु दिट्ठउ चरंतु आणाविउ भयरसधरहरंतु । पियराई तासु णहयलि भमंति णियभासइ हा हा सुय भणति । दीहरसंसारभमाइएण तावेक्कं रूसिवि चेडएण। विधिवि' मारिउ सो हंसताउ तुह जणणिहि हुउ कारुण्णभाउ। सा भणइ पुत्त हम्मइ ण जीउ दुग्गइ पइसइ जणु दुव्विणीउ। तं जणणिवयणु णिसुणेवि तेण पडिवण्णउ धम्मु महायरेण। सोलहमइ दिणि मुक्कउ मरालु जाइवि णियमायहि मिलिउ बालु । चिरु णिवसिरि भुजिवि जयरहेण तवचरणु लइ5 दिणयरमहेण। 10 15 (17) हे भाई ! सुनो, सुमेरु पर्वत की पूर्वदिशा में जब मैं सुख का उपभोग करते हुए रह रहा था, तो मैंने सख की खान चाहनेवाले किसी दिव्यज्ञानी मनि से पछा और उन्होंने मझे समस्त जन्मान्तरों का भ्रमण बता दिया। तुम अपना (तुम्हारा) वृत्तान्त अत्यन्त संक्षेप में सुनो। समय बीतने पर वह पुष्पदन्त मर गया और पुष्कलावती देश के धवल-गृहों और जयलक्ष्मी से युक्त पुण्डरीकिणी नगरी में राजा विजयन्धर (उत्पन्न हुआ। उसकी विजयावती देवी से, भाग्य में अन्यून (महान्) तू जयरथ नाम का पहला पुत्र हुआ। एक दिन तू वनक्रीड़ा के लिए गया हुआ था और एक कमलसरोवर के तट पर बैठा हुआ था। वहाँ तूने एक बाल हंस को विचरण करते हुए देखा। भयरस से थर-थर काँपते हुए उसे तुम पकड़कर ले आये। उसके माला-पिता आकाश में मँडराते हुए अपनी भाषा में 'हा सुत, हा सुत !' कह रहे थे। तब संसार की दीर्घ परम्परा में घूमनेवाले तुम्हारे एक सेवक ने क्रोध में आकर तीर से वेधकर हंस के उस पिता को मार दिया। इससे तुम्हारी माँ को करुणा हुई। वह बोली, "हे पुत्र ! जीवों को नहीं मारना चाहिए, दुर्विनीत जन दुर्गति में जाते हैं।" अपनी माँ के इन शब्दों को सुनकर महादरणीय उसने धर्म स्वीकार कर लिया। सोलहवें दिन उसने हंस को छोड़ दिया। वह बालहंस जाकर अपनी माता से मिला। चिरकाल तक राजलक्ष्मी का भोग कर, दिनकर के (17) 1. A सच्चु । 2. AP जंग कालि। 3. AP सुय लवंति। 4. बंधेवि मारायिर हंसताउ: P बंधेवि मारिउ सो हंसताउ । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 99.18.31 पहाकइपुष्फयतविरयड महापुराणु [ 369 20 25 मुउ संभूयउ सहसारसग्गि अट्ठारहसायरभुत्तभोग्गि। त्याउ एय आज सि घर सिरिविजयादेविहि पुरिसपवर । जो मारिउ तुह भिच्चेण हंसु संसारि भमिवि सो विमलवंसु । संजायउ कटुंगारमंति तुह जणणु णिहउ तें चंदकति । पाइलपिल्लवहु महंतसोउ जं सोलहवासरकयविओउ। सोलह वरिसाइं ण जोइओ सि तं तुहुँ' बुधुहं विच्छोइओ सि। ता राएं विज्जाहरु पवुत्तु तुहं मज्झु बप्प कल्लाणमित्तु । इय भासिवि जियरविमंडलेहि पुज्जिउ मणिकंचणकुंडलेहि। कडिसुत्तमउडहाराइएहिं माणिक्कमऊहविराइएहि । पट्ठविउ गयणगइ पत्थिवेण हेमाहणयरि भुजियसिवेण। कउ वासु जाम परियलइ कालु ता' अण्णु जि होइ कहतरालु। घत्ता-पुच्छिय महुराइहिं सयलहिं भाइहिं कहिं सो केसरिकंधरु। गंदड्दु णिसुंदरु सुहलक्खणधरु कहिं कुमारु जीवंधरु ॥17॥ (18) भणु भणु सामिणि गंधव्वदत्ति णवकयलीकंदलसरिसगत्ति। सा भासइ सुयण मणोज्जदेसि हेमाहणयरि मणहरपवेसि। णिवसति संत' दोण्णि वि कुमार कामावयार संसारसार । समान तेजस्वी जयरथ ने तपश्चरण ग्रहण कर लिया। मरकर वह सहस्रार स्वर्ग में उत्पन्न हुआ और अठारह सागर पर्यन्त सुखों को भोग कर, वहाँ से आकर, हे पुरुषश्रेष्ठ ! तुम श्रीमती विजयादेवी से उत्पन्न हुए हो। तुम्हारे भृत्य ने जिस हंस को मारा था, वह संसार में परिभ्रमण करता हुआ विमलवंश का काष्ठांगार मन्त्री हुआ। हे चन्द्रकान्तिवाले ! उसने तुम्हारे पिता का वध किया। तुमने सोलह दिन के वियोग का जो भारी शोक हंस के शिशु को दिया, उसी से सोलह वर्षों तक तुम भी नहीं देखे गये, और तुम भी अपने भाइयों से वियुक्त रहे।" यह सुनकर राजा जीवन्धर ने विद्याधर से कहा- "हे सुभट ! तुम मेरे कल्याण मित्र हो।" यह कहकर उसने सूर्यमण्डल को पराजित करनेवाले मणिस्वर्ण कुण्डलों और माणिक्य की किरणों से विराजित कटिसूत्र तथा मुकुटहारों से उसका सत्कार किया। राजा ने विद्याधर को विदा दी। सुख का भोग करनेवाले उसने हेमाभनगर में निवास किया, तो एक और कथान्तर घटित हो गया। ___घत्ता-मधुर, बकुल आदि भाइयों ने पूछा कि सिंह के समान कन्धोंवाला नन्दाढ्य और मनुष्यों में सुन्दर तथा शुभ लक्षणों को धारण करनेवाला कुमार जीवन्धर दोनों कहाँ गये ? (18) हे नवकदली के सार के समान देहवाली स्वामिनी गन्धर्वदत्ते ! बताओ, बताओ। वह स्वजनों से कहती है कि काम के अवतार, संसार में श्रेष्ठ दोनों कुमार मनोज्ञ देश के हेमामनगर के मनोहर प्रदेश में निवास 5. AP ते तुटुं मि बप्प बिच्छो । 6. AP वत्यहि मुहगंधविराइएहिं। 7. A तावगु वि ता अणु वि। (18) 1. AP सति। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3703 महाकपुष्फयंतचिरयउ महापुराणु [99.18.4 तं णिसुणियि गय भायर तुरंत दंडयवणु तुंगतमालु पत्त। तहिं दिट्ठ देवि तावसणिवासि जीवंधरजणणि महापयासि । आलाव जाय जाणिय समाय को पावइ जणणिहि तणिय छाय। बोल्लिउ देविइ भो करह तेम सुउ जीवंधरु महुँ मिलइ जेम। सइ दिवि गय ते णं गइंद आलग्गा ताहं महापुलिंद। ते जित्त जति जा पुरसमीउ पुणु सवरणिवहु हरिहरिणजीउ। अभिट्टउ तहिं संपाइएण जीवंधरेण अवराइएण। 10 रक्खिय ओलक्खिय गलियगव्य सज्जणवच्छल महुराइ सव्व । गय हेमाहहु थिय का वि कालु शु तेहिं पयोल्लिउ सामिसालु। रायउरहु चल्लिउ सो तुरंतु दंडयवणु पत्तउ' गुणमहंतु। पत्ता-तहिं जोइवि मायरि विजयासुंदरि बंधुवग्गु रोमंचिउ । घणपणयपवण्णे चुयथणयपणे गंदणु मायइ सिंचिउ ॥18॥ (19) जीवंधरेण जीवति दिट्ट पणमिय परमेसरि सुटु इट। पभणइ दीहाउसु होहि पुत्त आयण्णहि संगरभारजुत्त। दुविणीएं दुज्जसगारपण - तुह पिउ हउ कटुंगारएण। मंतें होइवि सई गहिउं रज्जु तुहं सउलपराहयु' हरहि अज्जु । करते हैं। यह सुनकर भाई तुरन्त गये और ऊँचे तमाल वृक्षोंवाले दण्डकवन में पहुँचे। वहाँ महापयास तापसनिवास (आश्रम) में जीवन्धर की माँ विजयादेवी को उन्होंने देखा। देवी ने कहा-"अरे ! तुम लोग ऐसा करो जिससे जीवन्धर मुझे मिल जाये।" उस सती की वन्दना कर, वे लोग गये मानो गजेन्द्र गये हों। उनके पीछे बड़े-बड़े भील लग गये। कुमारों ने उन्हें जीत लिया। तब नगर के समीप तक जाते हुए उन्हें पशुओं के जीव का अपहरण करनेवाला शबरसमूह फिर से मिला और भिड़ गया। वहाँ आये हुए अपराजित जीवन्धर कुमार ने उनकी रक्षा की और सज्जनों से वात्सल्य रखनेवाले, गर्वरहित मधुर आदि सभी भाइयों को पहचान लिया। वे लोग हेमाभनगर गये और वहाँ कुछ समय तक रहे। फिर उन्होंने स्वामीश्रेष्ठ से कहा। गुणों से महान् बह तुरन्त राजपुर के लिए चल पड़ा और दण्डकवन पहुँचा।। ___घत्ता-वहाँ अपनी माँ विजयासुन्दरी को देखकर बन्धुवर्ग रोमांचित हो गया। सघन स्नेह से परिपूर्ण झरते स्तन-स्तन्य (दूध) से माँ ने पुत्र को सींच दिया। (19) कुमार जीवन्धर ने अपनी माँ को जीवित देखा। अत्यन्त इष्ट उस परमेश्वरी को प्रणाम किया। माता बोली-“हे संग्रामभार से युक्त पुत्र ! तुम दीर्घायु होओ। तुम सुनो, दुर्विनीत अपयश करनेवाले काष्ठांगार ने तुम्हारे पिता को मार डाला है। मन्त्री होकर भी उसने सारा राज्य हड़प लिया है। तुम अपने कुल के 2. A सबरविंदु। 9. A यहरिण | 1. A अट्टराइएण। 5. A पत्तर सो महंतु। (19) 1. A सप्लु पराभउ; 7 सउलु पराहत । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 99.19.201 महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराण [371 5 10 तं णिसुणिवि रोसहुयासु जलिउ परिवाययवेसें कुंबरु चलिउ। पच्छइ णहयलपरिघुलियकेउ णंदटु णिहिउ साहणसमेउ। णियवहरिभवणि दियवेसधारि अवयरिवि पर्यपइ चित्तहारि। भोयणु भुजवि अग्गासणत्यु पुणु वक्खाणि वसियरणसत्थु । गुणमालहि 'बालहि गेहु ढुक्कु हिवउल्लउं तहि बसि करिवि मुक्कु। जाणिउ जीवंधरु दिण्ण सासु गुणमालिणि णं रइ वम्महासु। वणिवेसें रइरसरमणधुत्ति पुणु परिणिय सायरदत्तपुत्ति। तं कण्णाजुवलु करेण धरिवि विजयइरिकरिंदारुहण करिवि । पइसइ पहु गंधुक्कडणिवासि कुद्धउ परवई पडिवक्खतोसि । जणवइ विदेहि पुरवरि विदेहि गोविंदु राउ पडिवण्णदेहि।। पुहईसुंदरि पिय बीय सीय तहि रयणवइ त्ति सुरूव धीय। सा चंदयवेहि सयंवरेण परिणिय णियपुरि जीबंधरेण। आढत्ती हरहुं णरेसरेहि खलकढुंगारयकिंकरेहि। भड भिडिन हरवि जायउ रणु भीसणु गलियसहिरु । घत्ता-तहिं तेण कुमारें विक्कमसारें करिवरु ।"पाएं पेल्लिङ। सो कलुगारउ भडु भल्लारउ चक्के छिदिवि घल्लिङ ॥19॥ 15 20 पराभव को दूर करो।" यह सुनकर कुमार की क्रोधाग्नि भड़क उठी। कुमार परिव्राजक का रूप बनाकर चला। जिसकी पताकाएँ आकाश में व्याप्त हैं, ऐसे नन्दाढ्य को सेना के साथ पीछे रख लिया। सुन्दर ब्राह्मण वेशधारी वह शत्रु के घर में प्रवेश करके बोला तथा सबसे आगे बैठकर उसके साथ भोजन किया और वशीकरण शास्त्र का व्याख्यान किया। फिर गुणमाला के घर पहुंचा और उसके हृदय को वश में करके छोड़ दिया। जब यह पता चला कि वह जीवन्धर कुमार है तो उसे गुणमाला दी गयी, मानो कामदेव को रति दे दी गयी हो। वणिक् के रूप में उसने रतिरस के रमण में कुशल सागरदत्त की पुत्री विमला से विवाह कर लिया। उन दोनों कन्याओं का हाथ पकड़कर, विजयगिरि महागज पर बैठकर वह गन्धोत्कट के निवास पर पहुंचा। शत्रु के हर्ष (प्रगति) से राजा क्रुद्ध हो उठा। विदेह जनपद में विदेह नगर है। उसमें प्रजा के द्वारा मान्य गोपेन्द्र नाम का राजा था। उसकी पृथ्वीसुन्दरी नाम की पत्नी थी। उसकी रत्नावली नाम की स्वरूपवती कन्या थी, जो मानो दूसरी सीता थी। जीवन्धर चन्द्रकवेध के द्वारा उसका वरण कर उसे अपने नगर ले आये। दुष्ट काष्ठांगार के अनुचर राजाओं ने उसके अपहरण का प्रयास किया। योद्धा भिड़ गये। जो दिये गये दृढ़ प्रहारों से विधुर है तथा जिसमें रक्त की धारा बह रही है, ऐसा भीषण युद्ध हुआ। घत्ता-तब उस युद्ध में विक्रमश्रेष्ठ कुमार जीवन्धर ने अपने हाथी को पैरों से चलाया और उस काष्ठांगार शत्रु को चक्र से काटकर फेंक दिया। 2. AP कमरू। 3. A बालहे ससुह। 4. P पुण पालिणि। 5. AP रमणपुत्ति। 5. AP पडिवक्त तासि। 7. AP डिवणणेहेि। 8. A सुरून सोय। ५. P चिहरु; 10. AP पायहि। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372 ] महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [99.20.1 (20) अप्पुणु' पुणु जणणासणि णिविठु दारावइपुरवरि णाइ विठ्ठ। णं पोयणपट्टणि चिरु तिविठु थिउ सिरि रमंतु णं सइं दुविछु। अठ्ठहिं मइएविहिं सहुँ जणिछु णं संकरिसणु परिउटुसिटुं'। पुणु कालें जंतें कोवणि? वणि 'कइजुवलउं जुज्झतु दिछु । संसारु घोरु बुज्झिवि अणिंदु वंदेवि वंकचारणु मुणिंदु। ढोएवि वसुह हरिकंधरा णियतणयह अत्ति वसुंधगसु । पावइउ णमंसिवि वड्डमाणु जीवंधरमुणि भवतरुकिसाणु। विजयाएविइ सुललियभुयाइ चंदणहि पासि सुरवरथुयाइ। अट्ठ वि तहु घरिणिउ दिक्खियाउ । सत्थंगोवंगई सिक्खियाउ। सच्चंधरसुउ सुवकेवलित्तु पत्तउ पुणु राय तिदेहचत्तु । जाही णिव्वाणहु मागहेस पई पुच्छिय मई अक्खिय असेस। कह' जासु परमजोईसरासु सो कुणउ मज्झु मिच्छत्तणासु। जीवंधरु देउ समाहि बोहि विद्धंसउ पणइणिपेम्मवाहि । 10 (20) वह स्वयं पिता के सिंहासन पर बैठा जैसे द्वारावती में स्वयं कृष्ण बैठे हों, मानो पहले पोदनपुर में त्रिपृष्ठ बैठा हो। मानो श्री का रमण करता हुआ स्वयं द्विपृष्ठ हो। लोगों के लिए प्रिय, आठों महादेवियों के साथ यद ऐसा लगता था मानो प्रजा को सन्तुष्ट करनेवाला संकर्षण हो। फिर समय बीतने पर, उसने वन में क्रोध सहित लड़ते हुए दो वानरों को देखा। संसार को भयंकर समझकर तथा अनिन्ध प्रशस्त चारण ऋद्धिधारी मुनीन्द्र की वन्दना कर, सिंह के समान हैं कन्धे जिसके ऐसे वसुन्धर नाम के अपने पुत्र को धरती सौंपकर, संसाररूपी वृक्ष के लिए आग के समान मुनि जीवन्धर कुमार ने वर्धमान को प्रणाम कर दीक्षा ग्रहण कर ली। सुन्दर बाँहोंवाली देवों के द्वारा संस्तुत विजयादेवी आदि उनकी आठौं पलियों ने आर्यिका चन्दना के पास दीक्षा ग्रहण कर ली एवं अंग-उपांग सहित शास्त्रों की शिक्षा ग्रहण की। हे राजन् (श्रेणिक) ! इस समय शरीरों का त्याग करनेवाले तीनों (सत्यन्धर के पुत्र) श्रुतकेवली हो चुके हैं। वे निर्वाण को प्राप्त होंगे। हे मागधेश ! तुमने पूछा और मैंने समस्त कथन कर दिया। जिस परम ज्योतीश्वर की कथा (गणधर ने की) वह जीवन्धर स्वापी, मेरे मिथ्यात्व का नाश करें। वे मुझे समाधि और ज्ञान दें तथा स्त्रियों में होनेवाली प्रेमव्याधि दूर करें। (20) I. APणण। 2.A पोरणे परदरं । 3. A परिनु 4.A कनिजुनजर P कयजयल। 5. P कंक 1 6. A विजयादेविहे। 7.P कट्ठ जासु। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 99.20.15] [ 373 पहाकइपुण्फवंतविरयड महापुराणु घत्ता-जिह भरहु अजिंदहु रिसहजिणिंदहु पणविउ भडपंचाणणु । तिह अइगंभीरहु सेणिउ वीरहु पुष्फदंतधवलाणणु ॥20॥ इप महापुराणे तिसधिमहपुरिसगुणालंकारे महाभधभरहाणुमण्णिए महाकापुष्फयंतयिरइए महाकब्बे जीवंधरभवायण्णण' णाम णवणउदिमो परिच्छेओ समत्ती ॥५॥ घत्ता-जिस प्रकार भटश्रेष्ठ भरत ऋषभ जिनेन्द्र के लिए प्रणत था, उसी प्रकार पुष्पदन्त के समान धवल मुखवाला राजा श्रेणिक अत्यन्त गम्भीर महावीर स्वामी के लिए है। इस प्रकार त्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त इस महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वास विरचित एवं महाभष्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का जीवन्धर-भव-वर्णन नाम का निन्यानवेयाँ परिच्छेद समाप्त हुआ। 8. A भववष्णणं। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 . नहः । इसरियड महापुराणु [100.1.7 सयमो संधि आहिँडिवि मंडिबि सयल महि धम्में रिसि परमेसरु। ससिरिहि' विउन्नइरिहि आइयउ कालें वीरजिणेसरु । ध्रुवकं ।। सेणिउ गउ पुणु वंदणहत्तिइ सुरतरुतलि सिलवीदि णिविट्ठउ झाणारूढउ भिउडियलोयणु पुच्छिउ गोत्तमु सिवरामाणणु भणइ गणेसरु अंगइ मंडलि होतउ एहु साहु धणरिद्धउ वीरहु पासि धम्मु आयण्णिवि णियतणयह कुलगयणससंकहु अप्पुणु तबु लइकउं परमत्थे । दहविहधम्मरुईइ पयासिउ" तुम्हारइ पुरवरि हिरवज्जें समवसरणु संजायतें' भत्तिइ। धम्मरुइ त्ति णाम रिसि दिदउ । राएं तेण सणाणविलोयणु। कि दीसइ भो' मुणि भीमाणणु । चंपापुरवरि ण वि आहंडलि। राउ सेयवाहणु सुपसिद्धम्। तणसमाणु' मेइणियलु मण्णिवि । दिष्णउ विमलवाहणामकहु। वड्डमाणपयमजलियहत्थें। धम्मरुइ त्ति मुणिहिं उब्भासिउ। अज्जु पइट्ठउ भोयणकज्जें। 10 सौवीं सन्धि समस्त धरती का परिभ्रमण कर और उसे धर्म से अलंकृत कर, परम ऋषि वीर जिनेश्वर, समय के साथ शिखरों से युक्त विपुलगिरि पर्वत पर आये। राजा श्रेणिक फिर से वन्दना भक्ति के लिए गया। भक्ति के साथ समवसरण को देखते हुए अशोक वृक्ष के नीचे शिलापीठ पर बैठे हुए उसने ध्यान में लीन, जुड़ी हुई भौंहोंवाले धर्मरुचि नाम के मुनि को देखा। उस राजा ने ज्ञाननेवाले और मुक्तिरूपी रमा को प्राप्त करनेवाले गौतम मुनि से पूछा--"ये मुनि भीषण मुखवाले क्यों दिखाई देते हैं ?" गौतम गणधर कहते हैं-"अंगदेश की चम्पानगरी के समान दूसरी नगरी इस पृथ्वीमण्डल पर नहीं है। यह मुनि वहाँ के धनसम्पन्न श्वेतवाहन नाम के प्रसिद्ध राजा थे। भगवान महावीर के पास धर्म का श्रवण कर, पृथ्वी को तिनके के समान समझकर, कुलरूपी आकाश के चन्द्रमा विमलवाहन नाम के अपने पुत्र को राज्य देकर, वर्धमान भगवान के चरणों में हाथ जोड़े हुए परमार्थ भाव से स्वयं इन्होंने सप ग्रहण कर लिया। मुनियों ने दसधर्म की कान्ति से प्रकाशित उन्हें धर्मरुचि नाम से उद्घोषित किया। (1) I. A सिहरिहि। 2. वि विउलएरिहे। 3. AP पुणु गठ। 4. AP जोते। 5. AP सुणाण" | 6. AP सिसिरिमाणणु। 7.AP सो। *.A रिणि । 9. AP तिण" | 10. A पसंसिर । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100.2.6] महाकपुष्यंतथिरय महापुराणु तहिं तिहिं पुरसहिं सो अवलोइड एवं सामुद्दे पुहईस अवरेक्कें बोल्लिउ भो जेहउं डिंभु" एण परभवि अवयारिउ पावयम्मु इहु भिक्खु ण चुच्चइ लक्खणधरु भणेवि पोमाइउ" । किं णउ जायउ एहु जईसरु | पई वृत्तउ बहुमहिवइ" तेहउं । मंतिहिं हित्तु रज्जु तं मारिउ छ । एयहु केरी तत्तिविमुच्चइ । घत्ता - आयणिवि तं मणिवि अवि भुंजंतु णियत्तउ । परमेट्टिहि सुहदिडिहि समवसरण संपत्तउ || 1 || (2) सेणिय अइरोसें पज्जालिउ परमाणु दुक्कम्मु णिरोहहि तं णिसुणिवि 'जाइवि अणुराएं तेण वि तं नियचित्ति णिहित्तउं उप्पाइउं केवलु सलामलु तं अवलोइवि धम्मुच्छाहें पद्मं रउद्दझाणत्थु णिहालिउ । रिसि जाइवि तुहुं हुं संबोहहि । धम्मवयणु तहु भासिउं राएं। अट्टरउद्दझाणु परिचत्तउं । इसि इसिणाहु पहूयउ णिम्मलु । सेणिउ स पुजिउ सुरणाहें । 1375 15 20 11. A पोमहत्व | 12. AP एहु महिवह 13. A डिंभएण धरभरि अवचारिवि 14 A हियउ 15 मारिवि । ( 2 ) 1 A जायअणुराएं। 2 A तसु। 3 A इसि इष्हि णाणु । 5 तुम्हारे नगर में आज निरवद्य भोजन के लिए उन्होंने प्रवेश किया। वहाँ तीन व्यक्तियों ने उन्हें देखा और "वे शुभ लक्षणों से युक्त हैं यह कहकर प्रशंसा की। उनमें से एक कहा कि सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार यह पृथ्वीश्वर हैं। फिर योगीश्वर क्यों हो गये ? एक और ने कहा- "तुमने जैसा कहा है, वह उसी तरह प्रचुर धरती के स्वामी हैं, परन्तु दूसरे कारण ( राज्य कारण ) से पुत्र को अवतरित कर दिया। मन्त्रियों ने राज्य का अपहरण कर पुत्र को मार डाला। यह पापकर्मा है, इसे भिक्षु नहीं कहा जा सकता, इसका सन्तोष दूर करना चाहिए ? छत्ता - यह सुनकर क्रोध कर भोजन नहीं करते हुए (ये) लौट गये और शुभदृष्टि परमेष्ठि महावीर के समवसरण में आये। (2) हे श्रेणिक ! अत्यन्त क्रोध से प्रज्वलित इन्हें तुमने रौद्र में स्थित देखा है। इनके फैलते हुए दुष्कर्म को तुम रोको मुनि को जाकर तुम शीघ्र समझाओ" यह सुनकर और प्रेम से जाकर राजा ने उनसे धर्मवचन कहे। उन्होंने भी उन वचनों को अपने मन में धारण कर अत्यन्त आर्तध्यान का त्याग कर दिया । सम्पूर्ण पवित्र केवलज्ञान उन्हें उत्पन्न हो गया और ऋषि पवित्र ऋषिनाथ हो गये। यह देखकर हे श्रेणिक ! स्वयं Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376 ] महाकइपुष्फयंतबिरयड महापुराणु | 100.2.7 पण नादिर में पोसह . देव चरमकेवलि को होसइ। भारहवरिसि गणेसरु भासइ एहु सु विजुमालि सुरु दीसड़। भूसिउ अच्छराहिं गुणवंतहिं विज्जुवेयविज्जुलियाकंतहिं। पिक्क सालिछेत्तु 'जलिओ सिहि । मयमत्तउ करिटु बहुमयणिहि। देवदिण्णजंबूहलदायइ इय सिविणयदंसणि संजायइ। अरुहयासवणियहु' घणथणियहि । सुरवरु जिणदासिहि सेट्ठिणियहि। सत्तमदिवहि गब्भि थएसइ जंबूसुरहु पुज्ज पावेसइ। जंबूसामि णाम इहु होसइ तक्कालइ णिव्वुइ जाएसइ। वडमाणु पावापुरसरवणि णिद्धणीलणवचउरंगुलतणि' । तइयतुं जाएसइ णिव्वाणहु अचलहु केवलणाणपहाणहु। घत्ता-हडं केवलु अइणिम्मलु पाविवि समउं सुहम्में। एउं जि पुरु तोसियसुरु आवेसमि हयकम्में ॥2॥ सुणि सेणिय कूणिउ तुह' णंदणु जंवूसामि वि तहिं आवेसइ संबोहेसमि' सुयणाणंदणु। अरुहदिक्ख भत्तिइ मग्गेसइ। देवेन्द्र ने उनकी पूजा की।" मगधनरेश राजा श्रेणिक फिर उनसे पूछता है-'हे देव ! भारतवर्ष में अन्तिम केवली कौन होगा ?" गौतम गणधर कहते हैं- "यह जो विद्युन्माली देव दिखाई देता है जो गुणवती विधुदुवेगा, विद्युल्लता, विद्युत्कान्ता आदि अप्सराओं से भूषित है। पका हुआ धान्य क्षेत्र, प्रज्वलित आग, मतवाला प्रचुरमद का निधि गजराज और जिसमें देवों द्वारा दिये गये जम्बूफल हैं, ऐसे स्वप्नदर्शन' के होने पर अहंदूदास सेठ की सघन स्तनोंवाली सेठानी जिनदासी के गर्भ में, आज से सात दिन बाद यह सुरवर स्थित होगा और जम्बूकुमार देवों द्वारा पूजा जाएगा।" इसका नाम जम्बूस्वामी होगा और महावीर के काल में मोक्ष प्राप्त करेगा। स्निग्ध, नीले, और नौ-चार अंगुल के विस्तारवाले पावापुर के सरोवरवन में जब महावीर केवलज्ञान-प्रधान अचल निर्वाण को प्राप्त होंगे, (तब) पत्ता-सुधर्मा के साथ अतिनिर्मल केवलज्ञान प्राप्त कर कर्मों का नाश करनेवाला मैं देवों को सन्तुष्ट करनेवाले इस नगर में आऊँगा। हे श्रेणिक सुनो ! स्वजनों को आनन्द देनेवाले तुम्हारे पुत्र कुणिक (चेलना के पुत्र) को सम्बोधित करूँगा। 1. AP जि। 5. AP जलियउ । G. AP असहदास"17. A पहु। R. A पठमाणुफ 9. Pomits गया। (3)1. A णियणंदणु। 2. A संबोहेसह । S. AP मंडइ। 4. AP सलक्खण। • यस्तुतः प्रियदर्शना, सुदर्शना, विपुढेगा और प्रभावेगा। ये वार देवियाँ थीं। + हाथी, सरोपर, चाबलों का लेत. ऊपर शिखावाली घूमरहित अग्नि से पांचों शुभ स्वप्न हैं। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100.3.16] [377 महाकइपुष्फयंतविस्यउ महापुराणु सयणहिं सो णिज्जेसइ मड्डइ णियपुरि सतभूमिथियमंडइ। तहु विवाहु तहिं पारंभेव्बउ तेण वि णियमणि अवहेरिव्बट। सायरदत्ततणय पोमावइ अवर सुलक्खण' सुरगयवरगइ। पोमसिरि त्ति कणयसिरि सुंदर विणयसिरि ति अवर वर धणसिरि । भवणमज्झि माणिक्कपईवइ रयणचुण्णरंगावलिभावइ। एयहिं "सहुं तहिं अच्छइ मणहरु उपणाविय' इय णवकंकणकरु। वरु" वहयह करयल करि ढोयइ जणणि तास पच्छण्ण पलोयइ। तहिं अवसरि सुरम्मदेसंतरि विज्जुरायसुउ पोयणपुरवरि। विज्जुप्पहु णामें सुहडग्गिणि कुद्धउ सो अरिगिरिसोदामणि। केण वि कारणेण णं दिग्गउ णियपुरु मेल्लिवि सहसा णिग्गउ । असणु कवाडउग्याडणु सिक्खिवि लोयबुद्धिणिद्धाडणु। विज्जुचोरु णियणा" कहेप्पिणु पंचसायई सहायहं लेप्पिणु। घत्ता-बलवंतहि मंतहिं तं "तहिं गाविउ ढुक्कउ तक्करु। अंधारई घोरइ पसरियइ रयणिहि दूसियभक्खरु ॥3॥ 15 उस अवसर पर जम्बूस्वामी आएगा और भक्तिभाव से अरहन्त दीक्षा माँगेगा। स्वजनों के द्वारा वह बलपूर्वक ले जाया जाएगा, और उसके अपने नगर में सातभूमियोंवाले मण्डप में उसका विवाह प्रारम्भ किया जाएगा। वह भी अपने मन में इसकी उपेक्षा करेगा। सागरदत्त और पद्मावती की सुलक्षणोंवाली ऐरावत गज के समान गतिवाली पद्मश्री, कनकश्री, सुन्दरी, विनयश्री तथा एक और धनश्री ये सुन्दर पुत्रियाँ होंगी। रत्नचूर्ण की रंगोली से सम्पन्न तथा माणिक्यों से आलोकित भवन में बह सुन्दर इनके साथ बैठा होगा; वर नवकंकणों से युक्त हाथ उठाएगा और वधुओं के करतल में हाथ देगा। उसकी माँ छिपकर देखेगी। उसी अवसर पर, सुरम्यदेश के पोदनपुर नगर के विद्युद्राज का विद्युप्रभ नामक सुभटों में अग्रणी पुत्र पहाड़ी बिजली के समान किसी कारण से क्रुद्ध हो गया। दिग्गज के समान वह सहसा अपना घर छोड़कर नगर से बाहर निकल पड़ा। अदर्शन (छिप जाना, दिखाई नहीं देना), किवाड़ों को खोल लेना, लोगों की बुद्धि का उच्चाटन कर देना, आदि बातें सीखकर अपना नाम विद्युत्चोर बताकर, अपने पाँच सौ सहायक लेकर, पत्ता-वहाँ बलवान मन्त्रियों से छिपकर तथा सूर्य को दूषित करनेवाला वह रात्रि में सघन अन्धकार फैलने पर वहाँ पहुँचा। 5. A तह घण 1 6. AP सहु अछसइ मणहरू। 7. AP उपणाविर इय। 8. A वरवहुवह। 9. AP करयलि करु। 10. APणियणामु । II. AP तहि पि। 12. A गोविउ। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3781 महाकइपुप्फयंतविरपउ महापुराणु [100.4.1 5 माणवेण णउ केण वि दिवउ अरुहदासवणिभवणि पइट। दिट्टी तेण तेत्थु पसरियजस जिणवरदासि पणिहालस। पुच्छिय कुसुमालें किं चेयसि- भणु भणु माइरि' किं णउ सोवसि। ताइ पबोल्लिउ महुं सुय सुहमणु परइ बप्प पइसरइ तवोवणु। पुत्तविओयदुक्खु तणु तावइ तेण णिद्द महुं किं पि वि णावई। बुद्धिमंतु तुई बुहविण्णायहिं एहु णिवारहि सुहडोवायहिं। पई हउं बंधवु परमु वियप्पमिजं मग्गहि तं दविणु समप्पमि। तं णिसुनियि णिरुक्कु गउ तेत्ताहे अच्छइ सहुं बाहें वरु जेत्तहि । जंपइ भो कुमार णउ जुज्जइ जणु परलोयगहेण जि खिज्जइ। णियडु ण माणइ दूरु जि पेच्छइ पल्ल' तणु मुएवि महुं बंछइ। णिवडिउ कक्करि सेलि सिलायलि जिह सो तिह तुहं मरहि मणिप्फलि। तवि किं लग्गहि माणहि कपणउ ता पभणइ वरु 'तुहं वि जि सुण्णउ। जीवहु तित्ति भोए पउ विज्जइ इंदियसोक्खें तिठ्ठ ण छिज्जइ। धत्ता-ता घोरें चोरें बोल्लियां सवरें विद्धउ कुंजरु। सो भिल्लु ससल्लु दुमासिएण फणिणा दहउ दुद्धरु ॥4॥ 10 15 उसे कोई मनुष्य नहीं देख सका। वह अहहास के भवन में घुस गया। वहाँ उस चोर ने प्रसरित यशवाली, नष्ट है नींद और आलस्य जिसका ऐसी अर्हद्दास की पत्नी से पूछा-- "हे माँ ! तुम क्यों जाग रही हो ? हे माँ ! बताओ, बताओ, तुम क्यों जाग रही हो ?' उसने उत्तर दिया, "मेरा शुभमन के समान पुत्र कल तपोवन में प्रवेश करेगा। पुत्र के वियोग के दुःख से मेरा शरीर जल रहा है। इसी कारण मुझे जरा भी नींद नहीं आ रही है। तुम बुद्धिमान हो, तरह-तरह के विज्ञानों और सुभट वचनों से इसको रोको। मैं तुम्हें अपना भाई मानूंगी और जितना धन माँगोगे, उतना धन दूंगी।" यह सुनकर वह चोर वहाँ गया जहाँ वधुओं के साथ वह बैठा हुआ था। वह कहता है-“हे कुमार ! यह ठीक नहीं है। लोग परलोकरूपी ग्रह से ही नष्ट होते हैं। अपने निकट की चीज को नहीं मानते, दूर की चीज देखते हैं। पत्ते और तिनकों को छोड़कर, मध चाहते हैं। इस तरह जिस प्रकार कठोर पहाडी चट्टान पर गिरकर ऊँट मर जाता है, उसी भी निष्फल मर जाओगे। इसलिए तम तप में क्यों लगते हो ? इन कन्याओं को मानो (यह आनन्द लो।" इस पर वर उत्तर देता है-"तुम भी कोरे हो। जीवों की तृप्ति भोग से नहीं होती। इन्द्रियसुख से तृष्णा शान्त नहीं होती।" घत्ता-तब उस भयंकर चोर ने उत्तर दिया कि भील से हाथी घायल हुआ तथा पेड़ पर बैठे हुए नाग के द्वारा दुर्धर भील इस लिया गया। (4) 1. P तेत्थु तेण। 2. A वैयहि। . AP मायरि। 4. A सोबहि। 3. Aण आवइ । 6. AP णिरिक्छ । 7. A एलउ तरु सुएयि; Pएलउ तण मएवि। . A सेलसिलावले । 9. AP बरहतु जि सुण्णर। 15. गा विउ गर्थितः। 15. "भक्ख सभास्करपतापः । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100.5.15] महाकइपुष्फवंतविरयर महापुराणु [ 379 तेण वि सो ते' मारिउ विसहरु मुउ करि मुउ सकरुल्लु धणुद्धरु। तेत्यु 'समीहिवि मासाहारउ तहिं अवसरि आयउ कोट्ठारउ । लुद्धउ णियतणु लोहें रंजइ चावसिंथणाऊ' किर भुंजइ। तुट्टणिबंधणि मुहरुह मोडिइ तालु विहिण्णु सरासणकोडिइ । मुउ जंबुङ अइतिट्लइ भग्गउ जिह तिहीं सो परलोयहु भग्गउ। म मरु म मरु रद्दसुहं अणुहुजहि भणइ तरुणु तक्कर पडिवज्जहि। सुलहई पेच्छिवि विविहई रयणई गउ पंधिउ ढंकिवि णियणयणई। जिणवरवयणु जीउ णउ भावइ संसरंतु विविहाबइ पावइ। कोहें लोहें पोहें मुज्झड़ .. अट्रपयारें कम्में बज्झइ। कहइ थेणु एक्केण सियालें। मासखंडु 'छंडिवि तिहालें। तणु घल्लिय उप्परि परिहच्छहुतीरिणिससिलुच्छलियहु मच्छहु। आमिसु 'गहियउं पक्खिणिणाहें सो कडिवि णिउ सलिलपवाहें। मुउ गोमाउ मच्छु जलि अच्छिउ ता लपेक्खु वरें णिच्छिउ। वणिवरु पथि को वि सुहं सुत्तर रयणकरंडउ तह तहिं हित्तउ। वणि तुम्हारिसेहिं अण्णाणहिं सो कुसीलु' कउ हिंसियपाणहिं । 15 उस भील ने भी उस साँप को मार डाला। इस प्रकार हाथी भी मर गया और धनुर्धारी भील भी मारा गया। उसी अवसर पर एक सियार आया। वह लोभी अपने शरीर को लोभ से रंजित करता है और प्रत्यंचा की ताँत को खाना प्रारम्भ करता है। बन्धन टूट जाने से दाँतों द्वारा मोड़ी गयी धनुष की प्रत्यंचा से उसका तालू नष्ट हो गया। सियार मारा गया। इस प्रकार अतितृष्णा से जैसे वह नष्ट हुआ, उसी प्रकार परलोक को जीव नष्ट करता है। इसलिए तुम मरो मत, मरो मत। तुम रतिसुख का अनुभव करो।" तब युवा जम्बू तस्कर को मना करता हुआ कहता है-"एक पापिष्ठ अपने सुलभ रत्नों को देखकर, अपनी आँखें बन्द करके सो जाता है, इसी प्रकार इस जीव को जिनवर के वचन सुनकर अच्छे नहीं लगते, वह संसार में घूमता हुआ अनेक प्रकार की आपत्तियाँ उठाता है; वह क्रोध, लोभ और मोह से मुग्ध होता है और आठ प्रकार के कर्मों से बँधता है।" इस पर चोर कहता है-"तृष्णा से व्यागुल एक सियार ने मांस-खण्ड छोड़कर, नदी के जल में उछलती हुई चंचल मछली पर अपना शरीर गिरा दिया। गीध ने मांसखण्ड खा लिया, सियार जल के प्रवाह में बहकर मर गया, मछली जल में रह गयी।" वह चोर कुमार की भर्त्सना करता है। तब कुमार कहता है-“कोई सेठ पथ में सोया हुआ था। उसके रत्नों के पिटारे का चोरों ने अपहरण कर लिया। वन में तुम जैसे अज्ञानी, प्राणों की हिंसा करनेवालों ने उसे निर्धन बना दिया। (5) 1. AP तहिं । 2. AP सीहिय 1. A लद्धउ णियमणि लोहें: ' णियमणु लोहें। 4. A चायसित्षणाओ । चावसिय ता किर जा भुजङ्ग । 5. AP सो तिट । 6. AP विधि। 7. A) गहिज। १. A पछि। 9. A तकालें खयरें णिमच्छिउ। 10. A तहिं तहो। 11.A कुसील कर। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380] महाकइपुष्फयंतविरयत महापुराणु [100.5.17 घत्ता-दुप्पेखें दुक्खें पीडियउ वणिवइ आवइ पत्तउ। जिणवयणे रयणें वज्जियउ जीउ वि परइ णिहित्तउ ॥5॥ 5 गउ पाविठु दुर्छ' उम्मग्गे तं आयण्णिवि परधणहारें सासुय कुद्ध सुण्ह गहणालइ णिसुणि सुवण्णदारु पाडहिएं मरणोवाउ सिठ्ठ धवलच्छिहि मद्दलि पाय दिण्णु गलि पासउ सो मुउ जोइवि णीसासुण्हइ जिह सो मुउ घणकंकणमोहें भणइ कुमारु वुत्तु' ललियंगउ तं जोति का वि मणिमेहल आणिउ धाइइ पच्छिमदारें| राएं जाणिउ सो ल्हिक्काविउ वियकसायचोरसंसग्गें। उत्तरु विष्णु बुद्धिवित्थारें। मरणकाम दिट्ठी तरुमूलइ। आहरणहु लोहें मइरहिएं। गयमयणहि' घरपंकयलच्छिहि। तण्णिवाइ मुउ दुळु दुरासउ । गेहगमणु पडिवण्णउं सुण्हइ । तिह तुहं म मरु मोक्खसुहलोहें। एक्कहिं णयरि अस्थि रइरंगउ । कय' मयणे महएवि विसंठुल। देविइ रमिउ मुणिउं परिवारें। असुइपण्णि विवरि घल्लाविउ। 10 घत्ता-दुदर्शनीय दुःख से पीड़ित होकर वह सेठ वन में आपत्ति को प्राप्त हुआ। इसी प्रकार जिनवचनरूपी रत्नों से रहित यह जीव नरक में जाता है। विषय और कषायरूपी चोरों के संसर्ग से वह दुष्ट पापापत्मा उन्मार्ग पर जाता है।" यह सुनकर दूसरे के धन का अपहरण करनेवाले तथा बुद्धिविस्तारवाले चोर ने उत्तर दिया-"एक बहू अपनी सास से क्रुद्ध होकर जंगल में मरने की इच्छा से वृक्ष के नीचे देखी गयी। सुनो, स्वर्णदारु नाम के एक मूर्ख मृदंग बजानेवाले ने सोने के लोभ से धवल आँखोंवाली, विरक्त, गृहरूपी कमल की लक्ष्मी उस वधू को मरने का उपाय बताया। उसने मृदंग पर पैर रखा और गले में फाँसी लगा ली। इस प्रकार खोटे आशयवाला वह दुष्ट मृदंग-बजानेवाला मृत्यु को प्राप्त हुआ। उसे मरा हुआ देखकर, गर्म-गर्म उच्छ्वास लेनेवाली उस वधू ने अपने घर जाना स्वीकार कर लिया। जिस प्रकार वह कंगनों के सघन मोह में मर गया, उसी प्रकार तुम भी मोक्ष-सुख के लोभ में मत मरो।" तब कुमार कहता है-"एक नगर में रति-रस का लम्पट ललितांग नाम का एक धूर्त रहता था। उसे कोई मणिमेखलावाली रानी देख लेती है और कामदेव से पीड़ित हो जाती है। धाय उस धूर्त को पश्चिम के द्वार से ले आयी। देवी ने उससे रमण किया। परिवार ने यह बात जान ली। राजा को भी यह मालूम हो गया। उसने (ललितांग को) छिपा दिया और अत्यन्त अपवित्रता से परिपूर्ण छेद में घुसा दिया। (6) 1.AP पिटुटु। 2. AP गवगमणहि। ५. कंकणलोहें। 5. AP धुत्तु। 5. A रइचंगउ । H. A तें। 7. Pomits this line: Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100.7.1]] महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु 1381 किमिखज्जंतु दुक्खु पार्वप्पिणु गउ सो णरयहु पाण' मुएप्पिणु। जिह सो तिह जणु भोयासत्तर मरइ बप्प णारियणहु रत्तउ। धत्ता-णियइच्छड़ पच्छइ भीरुयह जीवहु वेयसमग्गउ । ___णासंतहु जंतहु भवगहणि मच्चुणाम करि लग्गउ ॥6॥ 15 णिवडिउ जम्मकूइ विहिविहियइ लंबमाणु परमाउसुवेल्लिहि । कालें कसणसिएहिं विहिण्णी णिवडिउ णरयभीमविसहरमुहि इय आयण्णिवि तहु आहासिउं जणिइ 'तक्करेण वरकण्णहिं ता' अंबरि उग्गमिउ दिवायरु कूणिण गएं गणपति सिविवहि रयणकिरणविष्फुरियहि णाणासुरतरुकुसुमपसत्थइ बंभणवणियहिं पत्थिवपुत्तहिं कुलतरुमूलजालसंपिहियइ। पंचिंदियमहुबिंदुसुहेल्लिहि। सा दियहुंदुरेहि- विच्छिण्णी। पंचपयारघोरदावियदुहि। सव्वहिं धम्मि सहियर णिवेसिउं। मरगयमणहरकंचणवण्णहिं। जंबूदेउ पराइउ सायरु। णितखवणाहिसेउ किउ सामिहि । आरूढउ 'वरमंगलभरियहि । विउलि विउलधरणीहरमत्थइ। पुत्तकलत्तमोहपरिचत्तहिं। 10 कीड़ों से खाया गया, दुःख उठाकर वह प्राण छोड़कर नरक में गया। जिस प्रकार वह मरा, उसी प्रकार बेचारे दूसरे भी नारीजन में आसक्त होकर मरते हैं। यत्ता-भीरु जीव के पीछे, वेग से परिपूर्ण मृत्यु नाम का महागज देखता है और संसाररूपी वन में नष्ट होते हुए जीव के पीछे लग जाता है। वह विधाता के द्वारा रचित कुलतरुमूल और जाल से आच्छादित जन्मरूपी कुए में गिरता है। पाँचों इन्द्रियरूपी मधुबिन्दुओं से सुखद परम आयुरूपी लता से लटका हुआ है। काल के द्वारा, काले और सफेद रात-दिनरूपी चूहों के द्वारा खण्डित वह आयुरूपी लता नष्ट हो जाती है। जीव पाँच प्रकार के घोर दुःखों को दिखानेवाले, नरकों के भीम विषधर मुखों में गिरता है।" उसका यह कहा सुनकर माता, विद्युन्माली चोर और मरकत के समान सुन्दर एवं स्वर्णवर्ण उन श्रेष्ठ कन्याओं (इस प्रकार सब) ने धर्म में अपना हृदय लगा लिया। इसी बीच आकाश में सूर्योदय हो गया। जम्बूदेव भी सादर पहुँच गये। राजा कुणिक ने अपने गजगामी स्वामी का दीक्षाभिषेक किया। उत्तम मंगलों से युक्त रत्नकिरणों से विस्फुरित शिविका पर वह आरूढ़ हुए। नाना प्रकार के कल्पवृक्ष के फूलों से प्रशस्त एवं विशाल पर्वतों में श्रेष्ठ विपुलाचल पर्वत पर, पुत्र-कलत्र 8. P मउ। 9. AP पाण। 10. A तेय, (7) 1. A पंचेंद्रियः । 2. AP दियदिरेहि। 3. AP ताफरेटिं। 4. AP तावंतरि। 5. AP बहुमंगल । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382 । महाकइपुप्फयंतविरय महापुराणु [100.7.12 विज्जूचोर समउ सुतेयउ चोरहं पंचसएहिं समेयउ। णिच्चाराहियवीरजिणिंदहु पासि सुधम्महु धम्माणंदहु। घत्ता-तउ लेसइ होसइ परजई' होएप्पिणु सुयकेवलि। हयकम्मि सुधम्मि सुणिव्वुयइ जिणपयविरइयपंजलि ॥7॥ ___15 ( 8 ) 5 पत्तइ बारहमइ संवच्छरि पंचमु णाणु एहु पावेसइ तेण समउं महियलि' विहरेसइ वरिसई धम्मु सबभब्योहह' अंतिमकेवलि उप्पज्जेसड़ . इच मणि माणवि णच्चिउ सुरवरु पुच्छइ सेणिउ सुरु किं णच्चइ आसि कालि ससहरकरणिम्मलि धम्मइठ्ठ वणि गुणदेवीवइ वसणवसंगउ दुक्खें खंडिउ चित्तपरिट्विइ वियलियमच्छरि। भवु णामेण महारिसि होसई। दहगुणियई चत्तारि कहेसइ। विद्धसियबहुमिच्छामोहहं। महु पहुवंसहु उपणइ होसइ। परमाणदें दिसिपसरियकरु । बुधु केउ ता गणहरु सुच्चइ। जंबूसामिसि वणिवरकुलि। अरुहदासु तहु सुर णिरु दुम्मइ । चिंतइ हउं णियदप्में दंडिउ। 10 और मोह से परित्यक्त राजपुत्र ब्राह्मण, वणिक् एवं पाँच सौ चोरों के साथ विद्युत्-चोर वीर जिनेन्द्र की निरन्तर आराधना करनेवाले धर्मानन्द सुधर्मा आचार्य के पास, ____घत्ता-तप ग्रहण करेगा और श्रुतकेवली परम तपस्वी होकर सुधर्माचार्य के कर्मों का नाश कर निर्वाण प्राप्त कर लेने पर जिनचरणों में अंजली बाँधनेवाला यह, (8) बारहवौं वर्ष प्राप्त होने पर, ईर्ष्या से रहित चित्त के होने पर पाँचवाँ ज्ञान (केवलज्ञान) प्राप्त करेगा और “भव' नाम का महामुनि होगा। उनके (जम्बूस्वामी के साथ धरती पर बिहार करेगा। चालीस वर्षों तक, अत्यन्त मिथ्या मोह का नाश करनेवाले भव्यों के समूह के लिए धर्म का कथन करेगा। वह अन्तिम श्रुत केवली होगा। मेरे और धीरस्वामी के वंश की उससे उन्नति होगी।' अपने मन में यह मानकर वह सुरवर दिशाओं में अपने हाथ फैलाकर परम आनन्द से नाचने लगा। श्रेणिक पूछता है-यह देव क्यों नाच रहा है ? यह आपका बन्धु कैसे ? गणधर सूचित करते हैं-चन्द्रमा की किरणों के समान निर्मल, जम्बूस्वामी के वंश के श्रेष्टी-कुल में गुणदेवी का पति धर्मप्रिय नामक सेठ था। उसका अर्हद्दास नाम का अत्यन्त खोटी बुद्धिवाला पुत्र था। व्यसनों के अधीन होकर वह दुःख से खण्डित हो गया। वह अपने मन में सोचता है कि मैं अपने ही दर्प के कारण दण्डित हुआ हूँ। मुझ मूर्ख ने पिता की एक भी सीख नहीं मानी। इस समय fi. A विज्जयोरें। 7. AP परमजद्द । (8) 1. पहियल। 2. AP सब्बु । 3. AP केप। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100.99 1383 महाकइपुष्फयंतावरवउ महापुराणु पिउसिक्खिविउ ण किउ मई मुखें एवहिं काई जियतें दुक्खें। इय चिंतइ चित्तेण पसण्णे वितरसुरकुलि जायउ पुण्णे। तहिं सम्मत्तु एण पडिवण्णउं कह णिसुणिवि हियउल्लउ भिण्णउं । णच्चिङ जिणवरधम्मुच्छाहें ता पडिजंपिउं मागहणाहें। घत्ता-भो णित्तम गोत्तम कहहि महुँ पहपच्छइयससंके। गयगारवि चिरभवि किं कयउं विज्जमालिणाम ॥8॥ (9) भणइ भडारउ पुलविदेहइ वीयसोयपुरि इह सुहगेहइ'। पुक्खलवइदेसंतरि राणा पउमु णामु पउमाइ पहाणउ । तहु वणमाल देवि खलमद्दणु सिवकुमारु णामें पियणंदणु। सो एक्कहिं दिणि गउ णंदणवणु आवतेण दिछु णायरजणु। णाणामंगलदव्वविहत्याउ पुच्छिउ मंति तेण 'सुयसत्थउ। कहिं संचलिउ लोउ अइसायरु ता सो तहु भासइ मइसायरु। रिसि परमेसरु इंदियबलबलि सायरदत्तु णाम सुयकेवलि। कयमासोववासु खीणंगउ दित्तितवेण' दित्तिभावं गउ। पिंडणिमित्तें मणि संतुट्ठ कामसमुदइ णयरि पइट्टउ । दुःश्व उठाकर जीवित रहने से क्या ? इस प्रकार सोचता हुआ, चित्त में प्रसन्न वह पुण्य के कारण व्यन्तरदेव के कुल में उत्पन्न हुआ। वहाँ सम्यक्त्व ग्रहण कर लिया। यह कथा सुनकर उसका हृदय प्रसन्नता से भर उठा और जिनवर के धर्म-उत्साह से नाच पड़ा।" तब मागधनाथ ने प्रश्न किया--- यत्ता- "हे गज्ञान-तम से रहित गौतम ! बताइए कि अपनी प्रभा से चन्द्रमा को तिरस्कृत करनेवाले एवं गतगर्व विद्युन्माली ने पूर्वजन्म में क्या किया था ?" आदरणीय गणधर कहते हैं-"पूर्वविदेह में पुष्कलावती देश के अन्तर्गत शुभ ग्रहों से युक्त वीतशोक नगर में पद्यों में प्रधान महापद्म नाम का राजा था। उसकी वनमाला नाम की देवी थी और दुष्टों का दलन करनेवाला शिवकुमार नाम का प्रियपुत्र था। एक दिन वह नन्दनवन के लिए गया । जाते हुए उसने नागर-समूह को देखा जो अपने हाथ में नाना मंगल द्रव्य लिये हुए था। उसने शास्त्रों को सुननेवाले अपने मन्त्री से पूछा"ये लोग अत्यन्त आदर के साथ कहाँ जा रहे हैं ?" तब यह मतिसागर मन्त्री बताता है-"इन्द्रियों के बल को नष्ट करनेवाले बलवान सागरदत्त नामक श्रुतकेवली, जो एक माह के उपवास के कारण क्षीण हैं, दीप्त नामक तप के कारण दीप्त भाव को प्राप्त हुए हैं। अपने मन में सन्तुष्ट (वह) आहार के लिए कामसमुद्र HAI' 'मसंकार ::. दिनमानि । i. APणामकार। (9) I.AP सिवर्गहए। 2. A सुपसत्थर। 3. AP दित्ततवेण। 4. AP काममिदा Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 384 1 महाकइपुप्फयंतविरयत महापुराणु [100.9.10 वणिणा दिष्णु दाणु संमत्तिई जायइ पंचच्छेरयवित्तिइ। रयणचुट्टि" णिरु' हुई तह घरि मुणिवरु उववणि थक्कु मणोहरि। घत्ता-इहु गच्छइ पेच्छइ तासु पय फुल्लहत्थु णायरजणु। तं णिसुणिवि पिसुणइ पुणु वि सिसु उवसममेण णिम्मलमणु ॥७॥ (10) किह संजुत्तउ इच्छियसिद्धिहिं सायरदत्तु भडारउ रिद्धिहिं। तं आयपिणवि घोसइ मइवरु पुक्खलवइ णामें देसंतरु। तेत्थु 'पुंडरिंगिणि णामें पुरि वज्जदंतु चक्केसरु णरहरि। देवि जसोहर गभभरालस गय णियमणमग्गियकीलारस । सीयाणइसायरवरसंगमि कर जलकेलि ताइ दुहणिग्गमि। सहुँ सहीहिं पडिआगय गेहहु णवमासहिं णीसरियउ देहहु। चरमदेहु दइवें अवयारिउ सायरदत्तु पुत्तु हक्कारिउ। णवजोव्वणि णाडउं अवलोइड 'तेण तासु भिच्चे मुहं जोइउं। पेच्छु कुमार मेहु णं सुरागार धवलत्ते णिज्जियससहरसिरि। तं णिसुणिवि सो उग्गीवाणणु जोयइ जाम पुरिसपंचाणणु। 10 ताम मेहु सहस त्ति पणट्ठउ भणइ तरुणु हउं मोहें मुट्ठउ। नगर में प्रविष्ट हुए। सेट ने भक्तिपूर्वक उन्हें दान दिया, जिससे पाँच आश्चर्य वृत्तियाँ उत्पन्न हुईं। उसके घर में निरन्तर रत्नों की वर्षा हुई। मुनिवर मनोहर उद्यान में विराजमान हैं। ___ छत्ता-यह नागरसमूह जाता है और हाथ में फूल लेकर उनके चरणों के दर्शन करता है। यह सुनकर उपशम भाव को प्राप्त बालक पूछता है । 10) आदरणीय सागरदत्त इच्छित सिद्धियोंवाली ऋद्धियों से युक्त किस प्रकार हैं ? यह सुनकर मतिसागर मन्त्री कहते हैं- 'पुष्कलावती नाम का देशान्तर है। उसकी पुण्डरीकिणी नाम की नगरी में वज्रदन्त नाम का श्रेष्ठ चक्रवर्ती राजा है। उसकी पत्नी यशोधरा गर्भभार से आलस्यवती थी। अपने मन की क्रीड़ारति (दोहद रूप) चाहती हुई वह सीतानदी और समुद्र के संगम पर गयी। वहाँ पर उसने दुःखों से रहित जलक्रीड़ा की। अपनी सखियों के साथ वह घर वापस आ गयी। नौ माह के बाद उसके शरीर से देव द्वारा अवतारित चरमशरीरी सागरदत्त नाम का पुत्र हुआ। नवयौवन में उसने नाटक देखा। उसके अनुचर ने उसका मुख देखा और कहा-हे कुमार ! देखिए, यह मेघ मानो सुमेरु पर्वत है। उसने अपनी धवलिमा से चन्द्रमा को पराजित कर दिया है। यह सुनकर जैसे ही वह पुरुषसिंह अपना मुँह और गर्दन ऊँची करके देखता है, तब तक वह मेघ अचानक नष्ट हो जाता है। वह युवक सोचता है कि मोह के द्वारा प्रवंचित हूँ, इस मेघ के समान S.AP भनिए। 6. AP स्वविदि। 7. APP तहु। 9. A पहु। (10) I.AP डकिणि। 2. AP कीलावस । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100.10.15] [ 385 महाकइपुप्फयतविरपर महापुराणु जिह विडिउ घणु तिह घरु परियणु जाएसइ महु केरउं जोव्वणु। णिव्वेइउ संसारविराएं गउ णदणवणु सहं णियताएं। घत्ता-णिउ णिदिवि वंदिवि दुरियहरु तित्थु अमियसायरजिणु । णियवित्तिइ दित्तिइ परियरिउ पुष्फदंतभारहतणु 10॥ 15 इप महापुराणे तिसद्विमहापुरिसगुणालंकारे महाभवभरहाणमण्णिए महाकइपुष्फयंतविरइए महाकव्ये जंबूसामिदिक्खयण्णणं णाम 'परिच्छेयसयं समत्तं ॥10॥ घर, परिजन और मेरा यौवन चला जाएगा। इस प्रकार वह संसार से विरक्त अपने पिता के साथ विरक्त होकर नन्दनवन चला गया। धत्ता--अपनी निम्मा कर, घोर पापों का हरण करनेवाले अमृतसागर जिनवर की वन्दना कर, सूर्य और चन्द्रमा की कान्ति से आच्छादित वह अपनी वृत्तियों और कान्तियों से परिवेष्ठित हो गया। इस प्रकार प्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का जम्बूस्वामी-दीक्षा-वर्णन नाम का सोचौ परिच्छेद समाप्त हुआ। 3. A तेथु; P तत्यु। 4. A जंबुसामिदीक्षावर्णन 3. A सयमो परिच्छेओ सम्पत्ती। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386 महाकइपुष्फयंतविरयऊ महापुराणु [101.1.1 एकोत्तरसयमो संधि तहु णियड घम्म आयण्णिवि गुणवंतें। तउ लइयऊ तेण खेतदयावहुकंतें ॥ ध्रुवकं ॥ जायर मणपज्जयणाणवंतु भासंतु धम्मु महियलि भमंतु । एस्थायउ जइवरु जसविसाल भो णियकुलकमलायरमराल । इय मंतिवयणु णिसुणिवि कुमारु गउ मुणिहि 'पासि संसारसारु। घाँदेवि आण्णिवि परमधम्म पुणु पुच्छिउ तेण विमुक्कछम्मु। तुह दंसणि जायउ मज्झु णेहु पुलएण सव्यु कंटइउ देहु। किं कारणु पभणहि वीयराय सुरसिरमणिमउडणिहिट्ठपाय। तं णिसुणिवि पभणई' रिसि पवित्ति इह जंबुदीवि' इह भरहखेत्ति। सिरिवुलगामि जयलच्छिठाणु णरधइ' वि रहकूडाहिहाणु। रेवइघरिणिहि भयदत्तु पुत्तु भवदेउ अबरु तहु मुणिणिउत्तु। तहु जेहें सुष्ट्रियगुरुहि पासि तउ लइय णिव धम्माहिलासि । महि विहरिवि कालें दिव्यधामु आयउ पुणु सो णियजम्मगामु। 10 एक सौ पहली सन्धि शान्ति और दयारूपी वधू के स्वामी उस गुणवान ने उनके निकट धर्म सुनकर तप ग्रहण कर लिया। वह पनःपर्ययज्ञानी हो गये और धर्म का व्याख्यान करते हुए धरती पर विहार करनेवाले हैं। यश से विशाल और अपने कुलरूपी सरोवर के हंस हे कुमार ! वह यतिवर यहाँ आये हुए हैं"-मन्त्री के इन शब्दों को सुनकर कुमार मुनिवर के पास गया। संसार में श्रेष्ठ मुनि की वन्दना कर एवं परमधर्म को सुनकर, फिर उसने क्रोध से रहित उनसे पूछा कि आपके दर्शन से मुझे स्नेह उत्पन्न हो गया है। पुलक से समस्त शरीर रोमांचित है। देवों के शिरोमणियों से घर्षितचरण, हे वीतराग ! बताइए, क्या कारण है ?" यह सुनकर उन पवित्र मुनि ने कहा - "इस जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र के श्रीवृद्ध गाँव में विजयरूपी लक्ष्मी का घर राष्ट्रकूट नाम का राजा था। उसकी रेवती नाम की पत्नी से भगदत्त नाम का पुत्र हुआ। मुनि के द्वारा उक्त दूसरा भवदेव है। हे राजा श्रेणिक ! धर्म की अभिलाषा होने पर उसके बड़े भाई ने सुस्थित गुरु के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। धरती पर विहार करते हुए वह समय के साथ दिव्यधाम, अपने जन्मगाँव में आये। उस गाँव में गृहस्वामी दुर्मर्षण था जो गुणों से महान् था। उसकी सुमित्रा नाम की प्रसिद्ध पत्नी थी। उसने अपनी वागश्री 11) | AP पासु। 2.A पसगा। : AP जंवृदीया भर | 4.AP RAP नइ जणियधम्मा'| 6. A निळ'। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101.2.7] महाकपुप्फयंतविरयउ महापुराणु गहवई' दुम्परिसणु गुणमहंत णायसिरि धीय "हालियवरेण भयदत्तु भडारज बंघवेहिं भवदेवेण वि भवणासणेण तें भणिउ भाइ तवचरणु करहि तहु णाम पसिद्ध सुमित्त कंत । दिण्णी भवदेवहु आयरेण । बंदिउ मुहणिग्गयजयरवेहिं ओहुल्लियमणु" तहु सासणेण । मा धणधणियासागुत्तु मरहि । I पत्ता- तें भणिउ" मुणिंद आगच्छमि घरु गच्छिवि । उ" लेबि गितु गियरोहिणि आउच्छिवि ॥1॥ (2) मणि भणइ सभज्जापासलग्गु ता नियभायरउवरोहण तेणेव होउ होउ त्ति भणिउं पियगुरुसामीवs दिण्ण दिक्ख बारह संवच्छर दिव्यभिक्खु अण्णाहिं दिणि मेल्लिवि सगुरुधामु आउच्छ्रिय तहिं सुव्वय सुखंति जणु मरइ सबु कामेण भग्गु । 'अविसज्जियकामिणिमोहएण । भयदत्ते सो सच्चउं जि गणिउं । विणु मणसुद्धिइ कहिं धम्मसिक्ख । हिंड घरिणि पभरंतु मुक्खु । एक्कु जि. तं आयउ बुडगामु । णयसिरि का वि जियचंदकति । [ 387 15 20 5 नाम कन्या भवदेव को आदरपूर्वक दे दी। जिनके मुख से जय-जय शब्द निकल रहा है, ऐसे बन्धुजनों के द्वारा आदरणीय भवदत्त की वन्दना की गयी। संसार का नाश करनेवाले भवदेव ने भी वन्दना की। उसके उपदेश से भवदेव का मन पसीज उठा। भवदत्त ने कहा- “हे भाई! तपश्चरण कर धन और स्त्री की आशा में मत मर।" घत्ता - उसने ( भवदेव ने कहा- "हे मुनीन्द्र ! घर जाकर आता हूँ। अपनी पत्नी से पूछकर निश्चित रूप से व्रत लेता हूँ ।" (2) मुनि ने कहा कि अपनी पत्नी के पाश में बँधे हुए सभी जन काम से नाश को प्राप्त होते हैं। तब अपने भाई के हठ के कारण स्त्री-मोह को अपने वश में नहीं करनेवाले उसने भी 'हाँ-हाँ' कह दिया। भवदत्त ने उसे सच मान लिया और अपने गुरु के निकट उसे दीक्षा दिलवा दी। परन्तु मन की शुद्धि के बिना धर्म की शिक्षा नहीं होती है। वह मूर्ख भिक्षु बारह वर्ष तक अपनी पत्नी की याद कर घूमता रहा। एक दिन अपने गुरु का स्थान छोड़कर वह अकेला अपने वृद्ध ग्राम आया। वहाँ उसने सुव्रता आर्यिका से पूछा कि चन्द्रमा की कान्ति को जीतनेवाली कोई नागश्री थी, वह कहाँ है ? उसने चित्त में विचार कर उससे पूछा । 2. P गिरुवइ 8 A गाउं पसिद्ध मेतकेत P जाय पसिद्धु मित्तकंत: 9 AP हालिणिवरेण । 10. A गमेग्गयजयरवेहिं 11 A सोउनियमणु । 12. APA | 13. AP वर लेमि । (2) 1 A आसासिय कार्मिणि । 2. A भययं । 3. AP दव्यभिक्खु । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388 ] महाकाइपुष्फयंतविरयज महापुराणु [101.2.8 10 सा कहिं ता ताइ मुणिवि चित्तु पच्किरण ति मंध वन। में सबंधु वुत्तु। जाणिवि तं तह कंदप्पमूलु णिउ गुणवइखंतिहि पायमूलु। ठिदिकरणक्खाणउ ताइ सिठ्ठ वणि सव्वसमिद्ध महाविसिटु। तह दासीणंदणु दारुयंकु अइसई भुक्खिउ णिब्बूढसंकु। तहु मायइ दिण्णउं सरसु भत्तु' उच्चिट्ठउं सेष्टिणितणउं भुत्तु। तं वंतउं ते जणणीइ गहिउ ढंकेवि कंसवत्तम्मि णिहिउ। पुणु छुहियहु तं ताकि ताई माण गदुलह होउ गई। किह अँजिज्जई तं वंतगासु कंटइउ मज्झु देहावयासु। घत्ता-इय दीसइ लोए रिसि संसारहु बीहइ । जे मुक्का भोय ते किं को वि समीहइ ॥2॥ 15 अवरु वि णिसुणहि णरपालु राउ णेवाविउ तेण अयाणएण तें कुक्कुरेण णियरसणइट्ठ ओयरियउ सिवियइ जंतु जंतु दंडग्गे ताडिउ पत्थिवेण तें पोसिउ कोड्डे सारमेउ। मणिकंचणसिक्यिाजाणएण । अण्णहिं दिणि डिभामेज्झ दिट्छ। सो सुणहु असुइ जीहइ लिहंतु। मुणि पुज्जणिज्जु सवें जणेण। उसने अपना सम्बन्ध बता दिया । आर्यिका भी उसके कामदेव के मूल कारण को जानकर उसे गुणवती आर्यिका के चरणमूल में ले गयी। उसने स्थितिकरण (मुनि पद में स्थिति की दृढ़ता) के लिए एक आख्यान कहा-एक महाविशिष्ट सर्वसमृद्ध नाम का सेठ था। दारुक नाम का उसका दासीपुत्र था। शंकाओं का निर्वहन करनेवाला वह अत्यन्त भूखा हो उठा। उसकी माता के द्वारा दिया गया सेठानी का जूठा सरस भात उसने खाया और उसे उगल दिया। माता ने उसे ले लिया और उसे काँसे के पात्र में रख दिया। पुनः उस भूखे बालक को उसने वह भात दिया। पुत्र ने कहा-हे माँ ! इस भात को रहने दो। वह उगला हुआ अन्न कैसे खाया जा सकता है ? मेरे सारे शरीर के रोंगटे खड़े हो गये हैं। __घत्ता-लोक में ऐसा दिखाई देता है कि जो मुनि संसार से डरता है, जो भोगों को छोड़ चुका है, क्या वह उन्हें दुबारा चाहता है ? ___ और भी सुनो। एक राजा नरपाल था। उसने कौतुक से एक कुत्ता पाला। वह अज्ञानी उसे मणि-कांचन शिविकायान में ले गया। एक दिन उस कत्ते ने बच्चे का विष्टा देखा जो कि उसकी जीभ के लिए बहुत प्यारा था। शिविका (पालकी) से जाते-जाते वह उतरा। वह कुत्ता उस अपवित्र पदार्थ को जीभ से चाटने लगा। राजा ने उसे डण्डे के अगले भाग से मारा। मुनि सब लोगों के द्वारा पूज्य होता है। यदि वह सुभट 6. A' मो हिंडड घरिणि भरंतु। 6. A महाबसिछु। 7. A भोज्जु। B. P खुहियको तहो दिणाम ताए। 9. AP भुजिण्याइ वतण्णमासु। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101.3.21] महाकइपुष्फयंतविस्यउ महापुराणु [389 जइ मुक्ककामरइ' करइ बप्प तो जिंदणिज्जु सो णिब्बियप्प। आयण्णहि सुंदर कहिं मि कालि सुहं पंथिउ जंतु वणंतरालि। दलकुसुमफलाचलिरससलग्धि णिवडिउ उम्मग्गि महादुलघि । सो घोरे वग्धे खज्जमाणु जरकूवइ पडिउ पधावमाणु। तहिं णयणचरणपसरेण मुक्कु फणिविच्छियकीडयसयविलुक्कु । 10 "णिग्गमणोवायरिपज्जियं हि येजें मेहम कित तासु सरीरु समिद्धकरणु होतउ विणिवारिउ झत्ति मरणु। संठविउ सच्चरमणीयमग्गि जिह पुणु वि पडइ णरु कूवदुम्गि । तिह रिसि यि परमजिणमग्गभछु । भणु तमतमपहि 'को णउ पइछ । णायसिरि वण्णलायण्णरहिय। दक्खालिय गुरुदालिद्दमहिय। तं पेच्छिवि मुणि संजमु धरेवि भाएं सहुं सुहझाणे मरेवि। उप्पण्णउ कयकंदप्पदप्पि । बलहविमाणि चउत्थकप्पि। अच्छिय सत्तोवहि जीवमाण तेत्थाउ मुएप्पिणु दह वि पाण। हउं जायउ सायरदत्तु तेत्यु तुहं रायकुमार कुमारु एत्थु। ता दिखंकिउ 'सुउ वीरराउ वारिउ पियरेहिं महाणुभाउ। 20 पुरवरि पइछु गुणगणविसालु सावज्जु भोज्जु इच्छइ ण बालु। (मुनि) मुक्त कामरति करता है, तो वह बिना किसी विकल्प के निन्दनीय है। हे सुन्दर ! सुनो किसी समय एक पथिक वन के भीतर सुख से जा रहा था। वह पत्तों, फूलों और फलों के रस से श्लाघ्य, महादुर्लघ्य खोटे मार्ग में पड़ गया। एक भयंकर बाघ के द्वारा खाया जाता हुआ और दौड़ता हुआ वह पुराने कुएँ में गिर पड़ा। वहाँ यह नेत्रों और चरणों के प्रसार से मुक्त हो गया। सैकड़ों साँपों, बिच्छुओं और कीड़ों ने उसे काट खाया। उसका शरीर निकलने के उपाय से रहित था। एक वैद्य ने उसे निकाला और दवाइयों के प्रयोग से उसके शरीर को पुष्ट कर दिया, उसकी होनेयाली मौत को टाल दिया और उसे सबके लिए रमणीय मार्ग पर स्थापित कर दिया। जिस प्रकार वह आदमी पुनः कुएँ के दुर्गम स्थान में गिरता है, उसी प्रकार परम जिनमार्ग से भ्रष्ट कौन-सा ऋषि तमतमःप्रभा नरक में नहीं जाता ? फिर उसने उसे (भवदेव मुनि को) अत्यन्त गरीबी से मण्डित एवं रंग-रूप से रहित मागश्री बतायी। उसे देखकर, वह मुनि संयम धारण कर और शुभ भाव के साथ शुभध्यान से मरकर, कामदेव के दर्प को धारण करनेवाले चौथे स्वर्ग के बलभद्र विमान में जन्मा। यहाँ सात सागर पर्यन्त जीवित रहकर, वहाँ से भी दसों प्राणों को छोड़कर मैं वहाँ सागरदत्त हुआ और तुम यहाँ राजकुमार हुए। दीक्षा के लिए कृतसंकल्प महानुभाव वीरराज पुत्र को माता-पिता ने मना कर दिया। गुणगण से विशाल यह नगर में आया। बालक सावध (जो प्राशुक नहीं है) भोजन नहीं खाता। (3) I. AP मुक्कामु रह। 2. A णिग्गय मणि याय। 3. AP 3 को। 4. A सउवीयराउ: P सुउ वीयराउ । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390 ] महाकइपुप्फयंतबिरयड महापुराणु [101.3.22 घत्ता-ता पडहु णिवेण देवाविउ धणु देसमि। भुंजावइ पुत्तु जो तह दुक्खु हरेसमि ॥3॥ परिचत्तकारियणुमोयणेण दढधम्में पासुयभोयणेण। भुंजाविउ सुंदरु उवणिएण णिच्च पि जीवजीवियहिएण। सों वट्टइ णिब्बियडिल्लाएण बारहवरिसइं णिस्सल्लएण। दुब्बलु हूयउ तिव्ये तवेण मुउ संणासें सोसियभवेण। संभूयउ सो बंभिंदसग्गि सुरु विज्जमालि' मणिदित्तमग्गि । चनारि वि तहु प्रवरच्छराउ जंबूणामहु रइकोच्छराउ। जावउ भज्जाउ मनोहराउ देविउ उत्तुंगपयोहराउ। जाएसइ सो संपण्णणाणु मेल्लेचि असंजमु चरमठाणु। जिह सो तिह भुजिवि सग्गसोक्खु जाएसइ सायरदत्तु मोक्छु। इय भासिउ सयलु वि गोत्तमेण मगहेसह संतें सत्तमेण । अण्णहिं दिणि सम्मइसमवसरणि पभणइ सेणिउ तेलोक्कसरणि । गुणपुंगम बहुकलिमलहरेण किं कयउं आसि पीईकरेण। जेणेहउं दीसइ चारु गत्तु ता सच्चउ भासइ मारसत्तु । 10 तास घत्ता-तब राजा ने यह मुनादी करायी-"जो मेरे पुत्र को भोजन करा देगा उसे मैं धन दूंगा और उसका दुःख दूर कर दूंगा।" दृढ़वर्मा ने कृत, कारित और अनुमोदना से रहित, जीव के जीवन के लिए हितकारी प्राशुक भोजन ले जाकर प्रतिदिन उस सुन्दर को कराया। वह बारह वर्ष तक विकाररहित निःशल्यभाव से रहा। तीव्रतप से वह दुर्वल हो गया और संसार को नष्ट करनेवाले संन्यास से मरण को प्राप्त हुआ और मणियों से प्रदीप्त मार्गवाले ब्रह्मेन्द्र स्वर्ग में विद्युन्माली देव हुआ। उसकी चार प्रमुख अप्सराएँ जम्बूस्वामी को कामकुतूहल उत्पन्न करनेवाली, ऊँचे स्तनोंवाली, सुन्दर पत्नियाँ होंगी। असंयम को छोड़कर, सम्पूर्ण ज्ञान को उपलब्ध कर वह वरम स्थान (मोक्ष स्थान) को प्राप्त होगा। जिस प्रकार वह, उसी प्रकार सागरदत्त भी स्वर्गसुख को भोगकर मोक्ष जाएगा।" इस प्रकार शान्त और उत्तम गौतम गणधर ने मागधेश श्रेणिक के लिए यह सब कथन किया। एक अन्य दिन, त्रिलोक के शरणरूप महावीर के समवसरण में राजा श्रेणिक कहता है-“हे गुणश्रेष्ठ ! कति के अनेक पापों का हरण करनेवाले प्रीतिंकर मुनि ने ऐसा (पूर्वजन्म में) क्या किया कि जिससे वह सुन्दरशरीर हुआ है ?" इस पर कामशत्रु गणधर उससे सच-सच कहते हैं ६.P-जा पुत्तु । (4) I.AP णीसतएण। 2. विज्जुमालि। 3. A परपठाणु। 4. P सग्गु सोक्षु। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101.5.12] पहाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [391 घत्ता-इह देसि पसण्णि सेणिय राय तुहारइ। मणितोरणदारु सुप्पइछु पुरु सारइ ॥4॥ (5) तहिं णिवसइ सिरिजयसेणु राउ वणि सायरक्खु पहयरिसहाउ । सुउ ताहं पहूयउ णायदत्तु अण्णेक्कु वि बालु कुबेरदत्तु । गहियई सयहिं सावयवयाई णवियाई पंचदेवहं पयाई। दप्पेण पमाएण ब' पमत्तु पर धम्मु ण गिण्हइ णायदत्तु । कालें जंतें सुरहियदियंति सदलि धरणीभूसणवर्णति। मुणि सायरसेणु पराइएहि जयकारिउ जयसेणाइएहिं। पुच्छिउ स धम्मु तेणुत्तु एव जिणधम्में होंति महदि देव। तित्थंकर चारण चक्कवट्टि पडिवासुदेव खलमइयवट्टि। जिणधम्में मोक्खहु जति जीव मिच्छत्तें णरइ पति पाव । आयण्णियि हाई लइड पम्प यत्तु मि.फम्म। घत्ता-मुणिवरु वंदेवि मिच्छामलपरिचत्तें। णियआउपमाणु पुच्छिउ सायरदत्तें ॥5॥ घत्ता-हे श्रेणिक ! तुम्हारे इस प्रसन्न (खुशहाल) श्रेष्ठ देश में मणि के तोरणद्वारवाला सुप्रतिष्ठ नगर [5) उसमें श्री जयसेन नाम का राजा निवास करता था। सागरदत्त नाम का सेठ था और प्रभाकरी सेठानी, उसकी सहायिका (सहधर्मिणी) थी। उन दोनों का पुत्र नागदत्त था। एक और दूसरा बालक कुबेरदत्त था। उन सबने श्रावकव्रत ग्रहण कर लिये और पाँचों देवों के चरणों को प्रणाम किया। घमण्ड से या प्रमाद से प्रमत्त नागदत्त ने धर्म ग्रहण नहीं किया। समय बीतने पर, जिसमें दिशाएँ सुरभित हैं ऐसे सुन्दर पत्तोंवाले धरणीभूषण वन में पहुँचकर सागरदत्तादि ने मुनि सागरसेन का जय-जयकार किया। उनसे धर्म पूछा। उन्होंने इस प्रकार कहा-"जिनधर्म से महाऋद्धि-सम्पन्न देव होते हैं, तीर्थंकर, चारण मनि, चक्रवर्ती, क्षेत्र की मिट्टी का मर्दन करनेवाले काष्ठ के समान प्रतिवासुदेव होते हैं। जिनधर्म से जीव मोक्ष जाता है। पापी मिथ्यात्व से नरक में पड़ते हैं।" सुनकर उन्होंने यह धर्म स्वीकार कर लिया और लोगों ने हिंसादि कर्मों का परित्याग कर दिया। घत्ता-मिथ्यात्व-मल से रहित सागरदत्त ने मुनिवर की वन्दना कर अपनी आयु का प्रमाण पूछा। 5. दारे । 6. AP सुपरपुरे। (5) 1. AP वि। 2. AP सुधम्मु। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392 ] महाकइपुष्फयंलविश्वर महापुराणु [101.6.1 तेणक्खिउँ जोविङ मासमेतु तुह दीसइ भो वणिवइ' णिरुत्तु । आयण्णिवि तं पइसरिवि परि मणु फेडिवि धयसंणिहियमयरि । अहिसित्तई कलिमलवज्जियाई जिणबिंबई वणिणा पुज्जियाई।। संताणि णिहिउ सुउ णायदत्तु अप्पुणु आहरु सरीरु चत्तु। मुउ वीसदिवससंणासणेण हुउ सुरवरु भूसिउ भूसणेण। भाएं पुच्छियउ कुबेरदत्तु भणु पिउणा किं तुह सारवित्तु । संदरिसिउं णेहपरब्बसेण ता तेण वुत्तु णित्तामसेण। तुहं पढमलोहभावेण गत्यु किं जिंदहि जणणु जए कपत्थु। धणु दाणे देहु वि णिरसणेण णिट्टविउ जेण जिणगयमणेण । तहु 'तुहूं किं दूसणु करहि भाय जसु वंदणिज्ज जगि जाय पाय। अण्णहिं दिणि सरस सुमिट्ठ तिख सायरसेणहु तें दिण्ण भिक्ख। दढभत्तिइ लहुए भायरेण धणमित्तइ सहुँ मउलिकरण। पुणु पुच्छिउ जइवइ मज्झु पुत्तु कि होइ ण होइ गुणोहजुत्तु । ___घत्ता-जइ डिंभु ण होइ तो सरीरु तक्तावें। .... आसोसमि देव ता गुरु कहइ अगावें ॥6॥ ___10 उन्होंने कहा- "हे सेठ ! तुम्हारा जीवन (निश्चयपूर्वक) एक माह का और दिखाई देता है।" यह सुनकर और नगर में प्रवेश कर, काम से अपने मन को दूर कर सेठ ने कलिमल से रहित जिनबिम्बों का अभिषेक और पूजन किया। कुलपरम्परा में नागदत्त को स्थापित किया और खुद ने आहार एवं शरीर का त्याग कर दिया। बीस दिन के संन्यासमरण के बाद वह मृत्यु को प्राप्त हो गया और अलंकारों से अलंकृत देव हुआ। भाई (नागदत्त) ने कुबेरदत्त से पूछा-'बताओ तुम्हें पिता ने कितना श्रेष्ठ धन दिया ?" तामसभाव से रहित स्नेहभाव से अभिभूत होकर उसने कहा- "तुम पहले से ही लोभभाव से ग्रस्त हो, विश्व में कृतार्थ अपने पिता की निन्दा क्यों करते हो ? जिनदेव भगवान में लीन मन होकर जिन्होंने दान से धन और अनशन से शरीर त्याग दिया, जिनके चरण पूज्य हो गये हैं, हे भाई ! तुम उनके लिए दोष क्यों लगाते हो ?" एक दूसरे दिन, दृढभक्त छोटे भाई ने धनमित्रा के साथ हाथ जोड़कर सागरसेन मुनि के लिए सरस, मीठा और तीखा आहार दिया। फिर उसने यतिवर से पूछा-"मेरा गुणसमूह से युक्त पुत्र होगा या नहीं ?" ____घत्ता-यदि पुत्र नहीं होना है, तो हे देव ! मैं शरीर को तप के ताप से सुखा डालूँगा।" तब गुरु बिना किसी अहंकार के कहते हैं (6) | A पणियर। 2. A सहि। 9. AP मलु। 4. घयसणिहयसिहरि। 5. Pणाएं। 6. A घत्यु। 7.AP किं दूसणु तुई। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101.8.3] महाकइपुप्फयंतविरघउ महापुराणु [ 393 लक्खणलक्खिउ जयलच्छिगेहु तव' होसइ तणुरुहु चरमदेहु। तं णिसुणिवि मायापियरवाई संतुट्टई णियमंदिरु गयाइं। ता बिहिं मि तेहिं बहुपुण्णवंतु णवमासहि सुउ संजणिउ कंतु। किं वणिज्जइ पीइंकररखु विहवेण इंदु स्वेण जक्खु। संपुण्णहिं पंचहिं बच्छरेहि जणणीजणणेहिं सुहिच्छिरेहि। अप्पिउ पयपुज्जहु मुणिवरासु उवइटउ चिरु आएतु तासु। इहु होसइ सुंदरु तुज्झु सीसु कम्मक्खयगारउ जयविहीसु। धण्णउरि परिट्टिउ सयलु सत्यु उवइट्वउ तह मुणिणा महत्थु । आसण्णु भव्यु सो महइ दिक्ख मेल्लिवि घरु चरमि' मुणिंद भिक्ख'। गुरु भासइ वयह ण एहु कालु अज्ज वि तुहं कामेलदेहु बालु । धत्ता-तं वयणु सुणेवि गुरु वंदिवि गउ तेत्तहिं।। णियपियरई बे वि णाणासवणई जेत्तहिं ॥7॥ (8) णिसुणंतह लोयह कहइ अत्थु सो चट्टवेसधरु दिसइ सत्यु। संमाणिउ राएं गुणणिहाणु धणु अज्जवि सुंदरु मण्णमाणु। णउ परिणइ कण्णरयणु जाम अण्णहिं वासरि सुहिपुरिस ताम। 10 "तुम्हारा लक्षणों से युक्त एवं विजयलक्ष्मी का घर पुत्र होगा।" यह सुनकर माता-पिता सन्तुष्ट होकर अपने घर चले गये। उसके बाद उन दोनों का नौवें माह में प्रचुर पुण्यवाला सुन्दर पुत्र उत्पन्न हुआ। उस प्रीतिकर का क्या वर्णन किया जाए ! वह वैभव में इन्द्र और रूप में यक्ष था। पाँच वर्ष का होने पर शुभ चाहनेवाले माता-पिता ने उसे पूज्यपाद मुनिवर को सौंप दिया और इस प्रकार उनके पुराने आदेश को उन्होंने बताया कि यह तुम्हारा सुन्दर शिष्य होगा, कर्म का क्षय करनेवाला और जय से हँसनेवाला शिष्य। धान्यपुर में रहकर उन मुनि ने उसे महार्थ वाले शास्त्रों का उपदेश दिया। वह आसन्न भव्य था। वह दीक्षा की अभिलाषा करता है और कहता है-“हे मुनीन्द्र ! घर छोड़कर भिक्षा का आचरण करूँगा।" गुरु कहते हैं-"यह व्रत का समय नहीं है। तुम आज भी कोमल-शरीर बालक हो।" घत्ता-यह वचन सुनकर और गुरु की वन्दना कर वह वहाँ गया जहाँ उसके माता-पिता और स्वजन थे। शिष्य का रूप धारण किये हुए वह श्रोताओं को अर्थ बताता है और शास्त्र का उपदेश करता है। उस गुणनिधान का राजा ने सम्मान किया। धन कमाने को ही सुन्दर मानते हुए उसने कन्यारत्न से विवाह नहीं (1) I. A तु P तउ । 2. A पियंकरक्छु । 3. AP घरेमि। 4. A सिक्ख । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 394 ] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु आउच्छिवि गउ बोहित्यएण' । सहं णावरेहिं रंजियजएहिं* गुरु लिहिउं पत्तु नियकण्णि करिवि भूतिलउ णामु बहुधरविसि नूरहिं वज्जंतहिं पय णवंतु आसकिय वणिवर काइ एल्यु पीइंकरु पभणइ हउं समत्यु ता दिट्ठउं जिणहरु गिरि व तुंगु तहिं णिग्गउ पेच्छइ जुज्झरंगु अवरेक्क कण्ण रोवंति जति पहसंतहिं जलकीलारएहिं । करिमयररउदु समुदु तरिवि । गरिवरवेढि पट्टणु पइठु । जणु सउहुं पराइउ जय भगंतु । उत्तरु दिज्जेस को महत्थु । मा 'करह किं पि संदेहु एत्थु । वंदिउ जिणु तवसिहिहुयणिरंगु । भडरूंडखंडचुयरुहिररंगु' | तहि पच्छइ गउ सो चंदकति । घत्ता - - भवगणु गंपि णवचामीयरवण्णइ । आसणु कण्णाए दिण्णउं तासु पसण्णइ ॥8॥ ( 9 ) तें पुच्छिय सुंदरि कहहि गुज्झ भणु भणु मा भी भीवसंगि किं उ पुरवरु तेण तुज्झु । णियणयणपरज्जियवणकुरंगि । [ 101.8.4 5 (8) [. AP add after this उन्मियसीहजडपसत्वरण 2. AP रजियपरेहिं । 3. P करो। 1. A खंड (9) 1. AP ण जुज्यु - AP किं भणु मणु। 5. A मा भीही वरंगि: P मा बीहहि यरंगि। 10 15 किया। दूसरे दिन सुधी पुरुष वह पूछकर जहाज के साथ गया । विश्व को रंजित करनेवाले, जलक्रीड़ा में रत हँसते हुए नागरिकों के साथ, गुरु के द्वारा लिखित पत्र को अपने कानों में कर (सुनकर ), जलगजों और भगरों से भयंकर समुद्र को पारकर वह बहुत से घरों से विशिष्ट और गिरिवर से घिरे हुए भूतिलक नामक नगर में पहुँचा । बजते हुए नगाड़ों के साथ पैर पड़ता हुआ और जयकार करता हुआ जनसमूह सामने आया । वणिक्लोग आशंकित हो उठे कि यह क्या ? कौन महार्थ इसका उत्तर देगा ? प्रीतिंकर कहता है- मैं समर्थ हूँ, आप लोग इसमें कुछ भी सन्देह न करें। उसने जाकर पहाड़ की तरह ऊँचा जिनमन्दिर देखा और तप की ज्वाला में कामदेव को नष्ट कर देनेवाले जिनदेव की वन्दना की। वहाँ से निकलकर वह युद्ध का दृश्य देखता है, जो योद्धाओं के धड़ों के खण्डों से गिरते हुए रक्त से रंजित था। एक और कन्या रोती हुई जा रही थी । चन्द्रमा के समान कान्तिवाला वह उसके पीछे-पीछे गया । घत्ता - भवन के आँगन में जाकर नवस्वर्ण के समान रंगवाली उस प्रसन्न कन्या ने उसके लिए आसन दिया । ( 9 ) उसने पूछा - "हे सुन्दरी ! अपना रहस्य समझाओ, कैसे तुम्हारा पुरवर नष्ट हो गया है ? अपने नेत्रों Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' 101.10.2 ] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु कण्णा पबोल्लिउं सुणि कुमार खगरायहु अलयाईसरासु हरिबल महसेणु वि मुक्कसंकु तहु पणइणीहि आबद्धपणउ तहु सिरिमइसइहिं हिरण्णवम्मु दुत्थियसज्ज कइकामधे वरसेणु अवरु हउं सुय ण भति वितरदेवय णिज्जिणिवि पवरु महु* भायहु दिण्णी भीमकाय अलमाउरिराएं हरिबलेण विलमइणामचारणहु पासि लीलावलोय पच्चक्खमार। णियतेययपरज्जियणेसरासु । भूतिलउ पुत्तु णियकुलससंकु । धारणियहि जायउ भीमु तणउ । सुउ संभूयउ सोहग्गरम्भु । सुंदरिमहसेणह उग्गसेणु । णामेण वसुंधरि पर कहति । महु ताएं णिम्मिउं पउरु गरु । विज्जा खेयरसंदिण्णराय । तवचरणु लइजं मणि णिम्मलेन । गउ मोक्खहु थिउ भुवणग्गवासि । I पत्ता- भीम वि रज्जु करंतु विज्जाकारणि' कुद्धर । रणि हिरण्णवम्मस्स लग्गउ सिहि व समिद्धउ ||१|| ( 10 ) णासिवि हिरण्णवम्मउ' असंकु यिनयरि परिट्टि भीमराउ संमेयमहीहरि मज्झि धक्कु । वरि वि सपिउव्वहु पासि आउ । [ 395 5 10 4. 1. K सहसेणडु। 5. AP एवं 6 A यहु सायहो । लहुभावहो। 7. P बिज्जाकरर्णे । ( 10 ) 1. AP हिरण्णत्रम्मुवि असक्कु । 15 से बन - हिरनी को पराजित करनेवाली हे भयशीले ! तुम कहो, कहो, डरो मत।" कन्या बोली- हे लीलापूर्वक देखनेवाले प्रत्यक्ष कामकुमार ! सुनो। अपने तेज से सूर्य को पराजित करनेवाले अलकापुरी के स्वामी विद्याधर राजा के हरिबल और महासेन शंकाओं से मुक्त एवं अपने कुल का चन्द्रमा भूतिलक पुत्र थे । हरिबल की प्रणयिनी धारिणी से प्रणतों ( नतमस्तकों) को आबद्ध करनेवाला भीम नाम का पुत्र हुआ । उसकी दूसरी रानी श्रीमती सती से सौभाग्य रमणीय हिरण्यवर्मा नाम का पुत्र हुआ। वह विस्थापितों के लिए सज्जन और कवियों के लिए कामधेनु था। महासेन और सुन्दरी से उग्रसेन, वरसेन पुत्र और मैं पुत्री उत्पन्न हुए, इसमें भ्रान्ति नहीं है। नाम से लोग मुझे वसुन्धरा कहते हैं । प्रवर व्यन्तरदेव को जीतकर मेरे पिता ने इस विशाल नगर की रचना की थी। छोटे भाई के लिए भीमकाय विद्याधर संदिन्नराग की विद्या देकर मन से निर्मल, अलकापुरी के राजा, हरिबल ने विमलमति नामक चारणमुनि के पास तपश्चरण ग्रहण कर लिया। वह मोक्ष गये और लोक के अग्रभाग में स्थित हो गये । छत्ता -- भीम भी राज्य करता हुआ विद्या के कारण क्रुद्ध हो गया। आग की तरह जलता हुआ वह हिरण्यवर्मा युद्ध में भिड़ गया। से (10) अशंक हिरण्यवर्मा को नष्ट कर वह सम्मेदशिखर पर्वत पर जाकर रुका। भीम राजा अपनी नगरी में Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 396 | [101.10.3 महाकइपुष्फयंतविस्यउ महापुराणु तं णिसुणिवि तंणिहणेक्कणिर्छ। दट्ठोठु दुछु आरुट्ठ सुठ्ठ। महसेणहु पेसिउ तेण पत्तु कि धरियउं पई महुं तणउ सत्तु । तं णिसुणिवि महुं ताएण समरि । जुज्ञप्पिणु चालियचारुचमरि। सो भीमु धरिवि संखलहिं बद्ध बलवंतु वि कुलकलहेण खद्ध । पुणु मित्तु करेवि हिरण्णवम्मु सो मुक्कउ दिण्णउं रज्जु रम्मु। णउ खमइ तो वि आबद्धरोसु इच्छइ हिरण्णवम्महु विणासु । संसाहिय रक्खसविज्ज तेण । मारिउ हिरण्णवम्मउ खणेण। विद्धंसिउ पुरु महु जणणु बद्ध आवेसइ जोयहुं मई मयंधु । तं णिसुणिवि सिरिपीइंकरेण सयणत्यु खग्गु लइयां करेण। स जातु हत्धि जो जिणइ जुज्झु इंदहु वि ण संगरि होइ वज्झु। थिउ गोउरि सुंदरु छण्णदेहु । एत्यंतरि भडु संपत्तु एहु। णियविज्ज भीम आइट्ठ तासु रणि वग्गंतहु असिवरकरासु । घत्ता-विज्जाइ पवुत्तु चरमदेहु किह मारमि । मणु भणु णरणाह अवरु को वि संघारमि ou 15 प्रतिष्ठित हो गया। शत्रु (हिरण्यवा) अपने चाचा के पास आया। यह सुनकर कि हिरण्यवर्मा का निधन हो गया है, उसका एकमात्र निष्ठावान दुष्ट भीम ओठ चबाता हुआ, एकदम क्रुद्ध हो उठा। उसने महासेन के लिए पत्र भेजा कि तुमने मेरे शत्रु को अपने यहाँ क्यों रखा ? यह पढ़कर मेरे पिता ने, जिसमें सुन्दर चमर चल रहे हैं, ऐसे युद्ध में लड़कर उस भीम को श्रृंखलाओं से बाँध लिया। बलवान व्यक्ति भी कुलकलह से नष्ट हो जाता है। फिर उसने हिरण्यवर्मा को मित्र बनाकर उसे मुक्त कर उसका (भीम का) सुन्दर राज्य दे दिया। लेकिन आबद्ध-क्रोध भीम तब भी क्षमा नहीं करता है और हिरण्यवर्मा का विनाश चाहता है। उसने राक्षस विद्या सिद्ध कर ली और एक क्षण में हिरण्यवर्मा को मार डाला। उसने नगर को ध्वस्त कर दिया और मेरे पिता को मार डाला। वह मदान्ध अब मुझे देखने के लिए आएगा। यह सुनकर श्री प्रीतिंकर ने सेज. पर पड़ी हुई तलवार अपने हाथ में ले ली। वह तलवार जिसके हाथ में होती है, वह युद्ध में इन्द्र से भी वध्य नहीं होता। वह सुन्दर छिपकर गोपुर में खड़ा हो गया। इसी बीच यहाँ वह सुभट आया। युद्ध में असिवर हाथ में लेकर गरजते हुए उस पर (प्रीतिकर पर) भीम ने अपनी विद्या को आदेश दिया। पत्ता-विद्या ने कहा-वह चरमशरीरी है। उसे कैसे मारूँ ? हे स्वामी ! कहिए कहिए, किसी और का मैं संहार कर सकती हूँ। 2. AP Bणणेकणिछ। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101.12.4] महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [ 397 ता मुक्क विज्ज गय कहिं मि जाम अप्पुणु' दुक्क्छ सो भीम ताम। रे रे कुमार हणु हणु भणंतु असि भामिळ भीसणु धगधगंतु। तं वंचिवि' सुहडें दिण्णु घाउ घाएण जि णिवडिउ खयरराउ । कण्णइ पोमाइउ गयविलेब तुहं साहसरयणणिहाणु देव । पई होतें हउं हुई सलग्य णिण्णाह वि लइ वट्टमि महग्य । इय भणिवि ताई भासणत्यु अहिसिंचिउ सिरिकलसहिं पसत्थु। परिहाविउ दिव्बई अंबराई मणिकणयमउडकुंडलवराई। पुच्छंतहु तरुणहु हारिणीहिं अक्खिउं वरचामरधारिणीहिं। घत्ता-सहुं रज्जेण कुमारि पणयंगई णिरु पोसइ । अम्हारी पहु धूय तुम्हहं पणइणि होसइ ॥11॥ (12) ता भणइ कुमारि' सुवणवण ताएण दिण्ण जगि होइ कण्ण। इयरह कह परिणिज्जइ अजुत्तु ता संकमियउ तहिं णायदत्तु । ते सहसा णिग्गय पुरवराउ णं बंधुर सिंधुर 'सरबराउ। अवियाणियदूसहपिसुणचारु पुणु पुरपहि पल्लट्टउ कुमारू। तब उसने विद्या छोड़ी। वह जब तक कहीं जाये, तब तक भीम स्वयं वहाँ आ गया। 'हे कुमार ! मार मार' कहते हुए, उसने धकधक करती हुई अपनी भीषण तलवार घुमायी। उसे बचाकर सुभट कुमार ने आघात पहुँचाया, और विद्याधर राजा उस आघात से धरती पर गिर पड़ा। कन्या ने उसकी प्रशंसा की कि हे गवरहित देव ! तुम साहस रूपी रत्न के खजाने हो। तुम्हारे होने से मैं श्लाघनीय हो उठी। बिना स्वामी के होते हुए भी मैं इस समय महाघ हूँ (मूल्यवान हूँ)। यह कहकर, भद्रासन पर बैठे हुए प्रशस्त उसका उसने श्रीकलशों से अभिषेक किया। उसे दिव्य वस्त्र, मणि, कनक-मुकुट और श्रेष्ठ कुण्डल पहिनाये। कुमार के पूछने पर, उत्तम चामर धारण करनेवाली दासियों ने कहा__घत्ता-कुमारी राज्य के साथ स्नेहांगों का पोषण करेगी। हे राजन् ! हमारी यह कन्या तुम्हारी प्रणयिनी होगी। ( 12 ) तब स्वर्णवर्णवाली वह कुमारी कहती है कि पिता के द्वारा दी गयी कन्या से विवाह किया जाता है। दूसरे ढंग से विवाह करना अयुक्त है। इतने में नागदत्त वहाँ आ गया। वे शीघ्र ही उस श्रेष्ठ नगर से निकले, (11) 1. AP अप्पणु। 2. A चित। 3. AP मणिकडय। 4. A कुंडलधराई। 5. AP कुमार। (12) 1. AP कुमारु। 2 P इयरह परिणिज्जड़ णिरुत्तु। 3. AP सुरसराउ। Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398 | महाकपुष्फवंतविरया महापुराणु [101.12.5 10 वीसरियउ कण्णाहरणु लेवि जामावइ ता बचणु करेवि। गउ णायदत्तु धणु' वहू हरेवि णउ जाणहुं होसइ किं मरेवि । मोणब्वउ लइयउ सुंदरीइ इय चिंतिउं "बहुगुणजलसरीइ। कि जंपमि विणु पीइंकरेण मणभवणणिवासें मणहरेण' । सा मूई तें मण्णिय जडेण ओहारियपरकंचणघडेण । संणिहियदव्यरक्खणणिओइ पत्तउ पुरु पुच्छिउ कहइ लोइ । विभुल्लउ अम्हहं कमलचक्खु णवि जाणहुँ कहिं पीईकरक्खु । एत्तहि पेच्छिवि सायरह तीस गउ पुणु भूतिलयहु मेरुधीरु। जिणभवणु णिहालिउं धुउ जिणिंदु मज्झत्थु समुक्खयदुक्खकंदु । पुणु सुत्तर सुंदरु सालसंगु आणंदु महाणंदु वि सुसंगु। संपत्तु जक्खजुबलर सुवंतु" तहु तेहिं णिहालिउ कपणवत्तु। त वाइवे सुअरिये पुबजम्मु देवेहिं वियाणिउं सुकिउ कम्मु । घत्ता-गुरुयणआएसु अम्हही3 करहुं णिरुत्तउ । भो माणुसु एउं गरुयउं गुणसंजुत्तउं ||12|| 15 मानो सुन्दर गज सरोवर से निकले हों। उस दुष्ट के असह्य आचरण को नहीं जानता हुआ कुमार नगरपथ की ओर मुड़ा। और जब तक वह कन्या के भूले हुए गहने लेकर आता है, तब तक धोखा देकर नागदत्त, बहू और धन लेकर चला गया। मैं नहीं जानता कि मरने के बाद उसका क्या होगा। उस सुन्दर ले लिया। अनेक गणरूपी जल की नदी उसने अपने मन में विचार किया कि अपने मनरूपी भवन में करनेवाले सुन्दर प्रीतिकर के बिना, मैं क्या बोलूँ ? दूसरे के सोने के घड़े का अपहरण करनेवाले उस मूर्ख ने यह समझा लिया कि वह गूंगी है। वह नगर पहुंचता है। जिसका द्रव्य के रक्षण का नियोग है, ऐसे लोक से पूछने पर वह कहता है कि कमलनयन प्रीतिंकर हमसे भटक गया है, तुम नहीं जानते कि वह कहाँ है। यहाँ पर समुद्र का किनारा देखकर मेरु के समान धीर वह प्रीतिकर पुनः भूतिलक चला गया। उसने जिनभवन को देखा और जिनेन्द्र की स्तुति की जो मध्यस्थ और दुःखसमूह का नाश करनेवाले हैं। फिर अलसाए शरीरवाला वह सो गया। इतने में वहाँ आनन्द और महानन्द नामक सुन्दरमुखवाले यक्ष का जोड़ा आया। उन्होंने उसके कान में बँधा हुआ पत्र देखा। उसे पढ़कर और पूर्वजन्म का स्मरण कर देतों ने अपना पुण्य कम जान लिया। धत्ता-हम लोग निश्चित रूप से गुरुजनों के आदेश का पालन करें। अरे, यह मनुष्य महान् और गुणों से संयुक्त है। 1. A यधणु। ...A मोगेला माणुवर। 6. बहाणजलसिरीए: P पहुणयजलसरीए । 7. APायरेण | B. AP परवंचणघडेण। 9. A कि पोईकरक्खु P कि पीएंकायन। 10. AP सुचत्तु । II. A कपणे उत्त: P काणपत्तु। 19. AP अहई । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101.13.15] [399 महाकइमुप्फयंतविरया महापुराण (13) पाविज्जइ इच्छिउ णयरु तेम्ब अम्हहं तूसइ परमेट्टि जेम्व। वाणारसिपुरवरि सच्चदिदि जिणवत्त घरिणि धणयत्तु सेट्ठि। अम्हई बेण्णि वि जण पुत्त तार्ह संसिक्खिय सत्थई 'तक्खराह। परदव्यहरणरय पावबुद्धि णउ सक्किउ गुरु विरयह णिसिद्धि। णिब्वेएं छड्डिवि सव्यसंगु अम्हारउ पिउ तवचरणि लग्गु। सिहिगिरिवरि सीलपसत्थएण सायरसेणहु सामथएण। आसण्णु वि सिग्घु' पराइएहिं जणु खज्जइ णउ वग्याइएहिं। तें वयणे अम्हहं जणिउ चोज्जु गय बंदिउ रिसि किउ' धम्मकज्जु । जगपुज्जें भयवंतें अवज्जु छंडाविउ तें महु मंसु मज्जु । गउ गुरु' पुरु भिक्खहि कहिं मि जाम सद्लें विणिहय बे वि ताम। सुरजाचारवें जित्तमयणु लइ एव्वहिं कीरइ ताहं वयणु। इय जाणिवि विरएप्पिणु विमाणु आरोहिउ सो तहिं सुहडभाणु। बहुदव्वें सहुँ "कुलणहमयंकु अकलंकु अवंकु विमुक्कसंकु। सुपइट्ठणयरिणियडइ सुठाणु गिरि धरणीभूसणु विउलसाणु । तहिं णिहिउ तेहिं जक्खामरेहि अहिमुहं जाइवि णायरणरेहि। 10 (13) हम इसे इच्छित नगर उसी प्रकार प्राप्त करा दें, जिससे हमारे गुरु सन्तुष्ट हों। वाराणसी नगरी में सत्यदृष्टि सेठ था। जिनदत्ता उसकी गृहिणी थी। हम दोनों उनके पुत्र थे। दोनों ने चौर्यविद्या के शास्त्र की शिक्षा ग्रहण की। दूसरों के धन का अपहरण करने में रत हम पापबुद्धि थे। पिता मना करने में समर्थ नहीं हो सके। निर्वेद के कारण सब परिग्रह छोड़कर हमारे पिता तपश्चरण में लग गये। शिखि पर्वत पर सागरसेन मुनि के शील से प्रशस्त सामर्थ्य से निकट रहने पर भी, लोगों को आये हुए व्याघ्रादि वन्यपशु नहीं खाते थे। इस वचन से हमें आश्चर्य हुआ। हम वन्दना करने गये। ऋषि ने धर्मकार्य किया। विश्वपूज्य ज्ञानवान उन्होंने निन्दनीय कर्म, मधु, मांस और मद्य छुड़वा दिया। जब गुरु सुप्रतिष्ठ नगर में भिक्षा के लिए गये, तब एक सिंह ने हम दोनों को मार डाला। हम लोग देवरूप में उत्पन्न हुए। सो इस समय हमें उनका काम को जीतनेवाला वचन करना चाहिए। यह जानकर और विमान बनाकर, उन लोगों ने उस सुभटसूर्य को उस पर बैठाया और प्रचुर धन के साथ कुलरूपी आकाश के उस अकलंक, अबक्र और विमुक्त-शंक चन्द्र (चन्द्र कलंकवाला और टेढ़ा होता है) को सुप्रतिष्ठ नगर के निकट जहाँ अच्छे स्थान तथा विपुल शिखरोंवाला धरणीभूषण पर्वत था, वहाँ यक्ष देवों ने उसे रख दिया। तब नागर जन राजा और सादर स्वजन सामने जाकर बजते (13). ' तकराई। 2. AP ठंडेवि। . AP सुद्ध। 4. AP क्रय धम्म । 5. A पुरवस; ? पुरु गुरु। 6. AP णियकुलपयंक। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 ] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु णरणा सयहिं सायरेहिं आणिउ पुरु पइसारिउ णिवासि ताडियतूरहिं मंगलसरेहिं । हिमकुंदचंदगोखीरभासि । घत्ता - ढोएवि कुमारु सयणहुं सूरपयासें । गय बेणि वि जक्ख सहसा विमलायासें ॥13॥ ( 14 ) पीइंकरु' जयमंगलरवेण पइसारिउ पुरवरु राणएण वरणहिं दियहि कुमारमाय णियसुहहि भूसणु देहुं चलिय णियभूसासंदोहउ जणासु महुं भूसणाई इय बज्जरेवि विउसेहिं पलक्खिय' णउ पिसाइ सुहलक्खणलक्खियदिव्वदेह को लंघइ चिह्निबद्धउ सणेहु तावि तहु पेसिउ गूढलेहु गंभीरभेरिसद्दुच्छलेण । पुज्जिउ रयणहिं बहुजाणएण । रहवरि आरूढी दिष्णछाय । पियमित्त' पंथि मूईइ खलिय । दावइ सणइ विभियमणासु । थिय सुंदरि पहि रहघुर धरेवि । अंगुलियई दावइ सच्चमूइ । आहरणु महारउं भणइ एह । अप्पाहिय कुमरें रायगेहु । जं णावदत्तविलसिउ दुमेह | [101.13.16 5 (14) 1 P पीरू 2 AP धगमित्त 3. A भूषण । 4. A उयसक्खिय: P लक्खिय। 5. AP सब्बु मूह | 10 हुए नगाड़ों और मंगल स्वरों के साथ उसे नगर में ले आये तथा हिम चन्द्रकिरण और दूध के समान कान्तिवाले निवास में उसे प्रवेश कराया। घत्ता - कुमार को स्वजनों के पास पहुँचाकर, वे दोनों यक्ष सूर्य से प्रकाशित आकाश मार्ग से सहसा चले गये । (14) जयमंगल ध्वनि और गम्भीर भेरी के उछलते हुए शब्द के साथ राजा के द्वारा प्रीतिंकर को नगर में प्रवेश कराया गया। अनेक रत्नों और यानों से उसकी पूजा की गयी। दूसरे दिन आभा से दीप्त कुमार की माँ (बड़ी माँ) श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ हो गयी और अपनी बहू के लिए आभूषण देने के लिए चली। लेकिन रास्ते में गूँगी ने उसे रोक लिया। विस्मितमन लोगों के लिए उसने संकेत से अपने आभूषणों का पिटारा बताया । 'ये मेरे आभूषण हैं' - यह संकेत कर और रथ की धुरा पकड़कर वह सुन्दरी रास्ते में खड़ी हो गयी। विद्वानों ने लक्षित किया कि यह पिशाची नहीं है, यह सचमुच गूँगी है और अँगुलियाँ दिखाती है। शुभ लक्षणों से लक्षित शरीरवाली यह कहती है कि आभूषण हमारे हैं। विधाता के द्वारा बद्ध स्नेह का कौन उल्लंघन कर सकता है ? कुमार ने राजगृह को सिखा दिया। उसने भी उसके लिए गूढ़ लेख भेजा, जिसमें नागमणि की दुष्ट मति का उल्लेख था । वह कुमारी राजभवन ले जाई गयी । अत्यन्त विलक्षण न्यायकर्ता Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101.15.5] [40] 15 महाकइपुष्कयंतविरयउ महापुराण णियां परवइभवणहु सा कुमारि कोक्किय सुविवक्खण 'णायकारि। वइवरु आउच्छिउ धम्मजुत्तु महिणाहें सो घणमित्तपुत्तु। से णियपरियाणिउ सिठ्ठी सव्यु पुणु भणि वयणु परिगलियगव्यु'। पुचि देवय कि । पंदिवि पुज्जिवि भत्तीभरण। परियाणइ एह ण का वि भंति ता राएं पुजिवि सा सुयंति। पुच्छिय जबणीइ तिरोहियोग को पावइ देविहि तणिय भंगि। तहु णायदत्तचिलसियाई कहियाई महायणणिरसियाई। कपदोसह पाविट्ठहु अणि? तं णिसुणिवि परवइ तासु रुठ्ठ। किर हरइ दब्बु दंडइ अणेउ ता बारिउ कुंअरें तरणितेउ। तं पेच्छिवि तहु सुयणत्तसारु महिवइणा जाणिबि णिब्वियारु। घत्ता-तहु णियसुय दिग्ण पिहिवीसुंदर णामें। परिणिय पसयच्छि णं मिलति रइ कामें ॥14॥ (15) बहुरइसुहसासवसुंधराइ कण्णाई समेउ वसुंधराइ । अण्णु वि दिण्णउ सुललियभुवाउ बावीस तासु वणिवरसुयाउ। अवरु वि तहु दिपण अद्धरज्जु पुण्णेण कासु सिज्झइ ण कज्जु । अण्णहिं दिणि सायरसेणसूरि मुउ संणासेण अणंगवेरि । अण्णहिं दिणि चारणभुयणचंद रिउ विउलमइ ति महामुणिंद 20 बुलवाया गया। राजा ने धनमित्र के पुत्र प्रीतिंकर से धर्मयुक्त वृत्तान्त पूछा। उसने अपना जाना सारा वृत्तान्त बता दिया। और फिर उसने गर्व से रहित ये शब्द कहे-दूसरों से क्या, भक्तिभाव से पूजा और बन्दना कर देवी से ही पूछा जाए; क्योंकि यह जानती है, इसमें जरा भी भ्रान्ति नहीं है। तब राजा ने सुकान्तर की पूजा कर परदे में प्रच्छन्न शरीरवाली उससे पूछा। उस देवी की भंगिमा को कौन पा सकता है ? उसने महाजनों द्वारा निन्दनीय नागदत्त की चेष्टाओं का वर्णन किया। दोष करनेवाले उस पाधी के उस अनिष्ट को सुनकर राजा उस पर अत्यधिक कुपित हो गया। राजा (उसके) धन का अपहरण करता है और उस अन्यायी को ण्ट देता है। तब कुमार ने (सूयी के समान तेजवाले उसे (राजा को) मना किया। उसकी इस सुजन श्रेष्ठता को देखकर और उसे निर्दोष जानकर, वत्ता-उसे अपनी पृथ्वीसुन्दरी नाम की कन्या दे दी। विशाल आँखोंवाली वह ब्याह दी गयी, मानो रति काम से मिली हो। (15) प्रचुर रतिसुखरूपी धान्य की भूमि वसुन्धरा कन्या के साथ उसे और भी बाईस सुन्दर भुजाओंवाली वणिक्वर कन्याएँ दी गयीं। और भी, उसे आधा राज्य दिया गया। पुण्य से किसका काम सिद्ध नहीं होता। दूसरे दिन कामदेव के शत्रु सागरसेन मुनि संन्यास से मृत्यु को प्राप्त हुए। एक दिन चारणऋद्धिधारी मुनियों में 6. AP गय। 7. AP णायघारि। B. A सिद्ध: 9. AP परिगलिउ गछु । 10. AP जवर्णीयणिरोफियंगि। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 ] महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [101.15.6 मणहरवणि आया बणिवरेण परिपुच्छिय धम्मु विसुद्धभाव घरि' धम्मु होइ एयारहंगु किं वण्णमि विद्धसियअणंगु खममद्दवाइगुणगणणिहाणु भणु भणु भयवंत भवंतराई ता भासइ रिउमइ मुणि विरोइ वैदिउ पुज्जिउ राएं जणेण इहु को वि भुयाउ धल्लेिउ गरोह वफामि अज्जु ता गयइ लोइ टुक्कळ गोमाउ तुरंतु जाम चिरदुक्किएण जायउ सियालु मुई मुइ एबहिं पाविट्ट पाबु तं णिसुणिवि जंबुउ उवसमेण इसिणाहें चिंतिउं भव्बु एहु इय चिंतिवि भासिउ लेण तासु जाइवि बंदिवि मउलियकरण। रिजुमइ भासइ भो गलियगाव । दसणवयसामाइयपसंगु। जइधम्मु वि वज्जियसव्वसंगु। ता पमणइ वणिवइ भावभाणु। महुं चरियई परितोसियणराई। गुरु सायरसेणु तवंतु जोइ। पडपडहसंखकयणीसणेण। पुरवरबाहिरि भेरीसरेहि। णिरु' णिच्चल मुणि वि समंतजोइ। मुणिणा मुयजोए वुत्तु ताम' । तुहुं अज्जु वि दुग्णयभावणालु । मा पावें पावहि तिव्वतावु। थिउ परियाणियणाणक्कमेण। सिज्झेसइ होसइ लहु अदेहु। तुहुं मुइवि ण सक्कहि किं पि मासु। 15 20 श्रेष्ठ ऋजुपति और विपुलमति नामक महामुनि मनोहर उद्यान में आये। सेठ ने जाकर हाथ जोड़कर बन्दना की और धर्म पूछा। गलितगर्व और विशुद्धभाव ऋजुमति मुनि कहते हैं- "दर्शन, व्रत और सामायिक से सहित गृहस्थ-धर्म ग्यारह प्रकार का होता है। कामदेव को ध्वस्त करनेवाले और सब प्रकार के परिग्रह से रहित यतिधर्म का क्या वर्णन करूँ जो क्षमा, मार्दव आदि गुणसमूह का निधान है।" तब सेठ पूछता है कि हे पदार्थ-प्रकाशक ज्ञानवान ! मेरे जन्मान्तरों और लोगों को सन्तुष्ट करनेवाले मेरे चरित्रों का कथन करिए। इस पर रागरहित ऋजुमति मुनि कहते हैं-"गुरु सागरसेन योगतप कर रहे थे। राजा और जनों ने उनकी पटुपटह और शंखों के शब्दों के साथ पूजा-वन्दना की। (सियार सोचता है) मनुष्यों ने भेरी के शब्दों के साथ किसी मरे हुए व्यक्ति को नगरबर के बाहिर फेंक दिया है। लोगों के चले जाने पर आज मैं स्वाद से इसे खाऊँगा। उसे निश्चल समझकर सियार तुरन्त वहाँ जैसे ही पहुँचा मुनि ने मन के योग से कहा"तुम पुराने पाप से सियार हुए हो, आज भी तुम दुर्भावनावाले हो। हे पापात्मा ! तुम इस समय पाप छोड़ो, छोड़ो। पाप से तम तीव्र ताप को प्राप्त मत होओ।" यह सनकर सियार उपशमभाव से स्थित हो गया। ज्ञानक्रम से जाननेवाले मनिनाथ ने यह जान लिया कि यह भव्य है। यह सिद्धि को प्राप्त होगा और शीघ्र ही अशरीरी होगा। यह सोचकर उन्होंने उससे कहा क्या तुम मांस भी नहीं छोड़ सकते ? (15) I. घरधम्। 2. AP परिजोलिय" | 3. A फफायिय अन्ज । 4. AP थिउ णिच्चलु मुणि सम्मत्तजोइ। 5. A ताम; A adds after this : मय पण्यवत आला | H. A गयजाएं। 7. A adds after this : मा णासहित जम्मु पलासणेण । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | 101.16.13] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु पत्ता - लइ लइ वउ मई दिण्णु होहि धम्मसद्धालुउ । रतिहि किं पिम खाइ इ वा ॥5॥ ( 16 ) तं गिणिवि कय मासहु णिवित्ति बंदिउ गुरु दिष्णपयाहिणेण णिउ कालु तेण तिव्वें तवेण एक्कहिं दिणि सुक्खाहारु' भुत्तु अत्थवणकालि' कूयंतरालु" ता पेच्छइ उ रविकिरणभारु णिग्गउ पुणु पेच्छिवि' सूरदित्ति कूयइ पइसइ णीसरइ जाम अत्यमि भाणु संजाय कालि मुउ तण्डइ सुद्धइ भावणाई एवं कुबेरदत्तहु सुचक्खु तं णिसुणिविरइणिब्विण्णदेहु णियसिरि णिवणयणाणंदणासु पडिवण्ण तेण तवचरणवित्ति । संखीणु वणासइभोयणेण । परिणामें सुद्धे णवणवेण । तहु तहs सोसिउ सब्बु गतु । किर पइसइ जा तिसियउ सियालु । अवलोइउ तेण घणधयारु । कूवइ पड़ठु पुणु नियइ रत्ति । दो तिणिण पंच धाराउ ताम । गिज्जियतमालि पसरियतमालि । संचियसुहाइ खचियमणाइ । धमित्तहि सुउ पीइंकरक्खु । वयहलु मणिवि आयउ सगेहु । संदिण्ण वसुंधरणंदणासु । [ 403 5 10 मत्ता - मेरा दिया हुआ व्रत ले लो, धर्म में श्रद्धालु बनो। रात्रि में तुम कुछ भी मत खाना, चाहे तुम्हें खूब भूख भी लगी हो ।" 16) यह सुनकर उसने मांस से निवृत्ति ले ली। उसने तप के आचरण की वृत्ति स्वीकार कर ली। प्रदक्षिणा करते हुए उसने गुरु की बन्दना की । वनस्पति के भोजन से वह अत्यन्त दुबला-पतला हो गया। उसने तीव्रतप और नये-नये शुद्धभावों से अपना समय बिताया। एक दिन उसने सूखा आहार लिया। प्यास से उसका सारा शरीर सूख गया। सूर्यास्त के समय प्यासा श्रृंगाल जैसे ही कुँए के भीतर प्रवेश करता है, वैसे ही उसे सूर्य का किरणभार दिखाई नहीं दिया। उसने घना अन्धकार देखा। वह बाहर निकला और वहाँ सूर्य का प्रकाश देखकर वह फिर कुएँ में घुस गया। फिर, वहाँ रात्रि देखता है। इस प्रकार वह दो-तीन, पाँच बार जब तक कुँए में घुसता है और उससे निकलता है, तब तक सूर्य डूब जाता है और तमाल को जीतनेवाली और तम की पंक्ति को फैलाती हुई रात हो गयी। प्यास से सुख का संचय करनेवाली, मन का नियन्त्रण करनेवाली भावना से वह मर गया। इस प्रकार वह कुबेरदत्त और धनमित्रा का प्रीतिंकर नाम का सुनयन पुत्र हुआ ।" यह सुनकर रति से निवृत्त है देह जिसकी ऐसा वह सेठ व्रत के फल को मानकर अपने घर आया। उसने अपने नेत्रों के लिए आनन्ददायक अपनी लक्ष्मी वसुन्धरा के पुत्र को दे दी। वह मगधेश्वर के श्रेष्ठ नगर ( 16 ) 1. AP सुकाहार | 2. AP अत्यवणचालि । 3. AP कूवंतरालु। 4. AP पेक्खिये AP रत्ति B. A पसरियउ महारयतिमिरयत्तिः P पसरिय तमालणिह तिमिरयत्ति । 7. A कुबेरदेवहो । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404] [101.16.14 महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु मगहेसरपुरुबरु एउं आउ सहुं बंधुहं बंदिउ बीयराउ। संजमभरखड्डियकंधरेण वउ लइयउं सिरिपीइंकरेण ।। पत्ता-भरहु व चरमंगु वयहलेण अइसोहिउ । जंबुड* संजाऊ पुष्पदंततेयाहिउ ॥16॥ इस महापुराणे तिसहिमहापुरिसगुणालंकारे महाभचभरहाणुमणिए महाकड़पुष्फर्यतविरइए महाकव्ये पीइंकरक्खाणं णाम सयमेकोत्तर परिच्छेयाणं समत्तं ॥10॥ -- - ----- में आया और भाइयों सहित वीतराग की वन्दना की। संयम के भार को अपने कन्धों से उठानेवाले उनसे प्रीतिंकर ने व्रत ग्रहण कर लिया। ___घना-चरमशरीरी वह भरत के समान व्रतफल से अत्यन्त शोभित था। वह सियार सूर्य-चन्द्र के तेज से भी अधिक तेजवाला हो गया। इस प्रकार रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित और महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाष्य का प्रीतिकर-आख्यान नाम का एक सा पहला परिच्छेद समाप्त हुआ। H. Aजंदल, उयं। ". APएकोत्तरसइपी परिक्षेत्री तमन Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102.1.13] पहाकइपुष्फयंतविरयड महापुराण । 405 दुत्तरसयमो संधि वहुजाणउ राणउ पुणु भणइ सेणिउ गोत्तम अम्हहं ।। अवसप्पिणि 'वगणहु सप्पिणि ब दरिसणि भावइ' तुम्हहं ॥ ध्रुवकं । ओसप्पिणि एवहि भणु मुणिवर गणिय' भणइ हो णिसुणि महाणर। 'भो दसारकेसरि तुटुच्छर जइयहुं थंति तिणि संवच्छर। तझ्यहं आसोयंतइ ससिमुह सिद्ध होइ सिद्धत्थहु तणुरुहु । एक्कवीससहसइँ सम्मत्तइं। दुस्समु कालु पहोसइ दुम्मड़। तहिं होहिंति परिद सतामस सयवरिसाउस सयल बि माणुस । सत्तरणितणु लावावज्जिय पेम्मपरव्यस इंदिवणिज्जिय। ताहं भुक्ख रसु लोहिउं सोसइ तित्ति" तिकालाहारें होसइ। पावकम्मु बहुदोसभयंकर दीसिहिति चउवण्ण ससंकर। सुद्ध" ण राय ण वणिय ण दियवर खल होहिंति सयल णिग्घिणयर। वरिससहसमाणइ गइ दुस्समि साइलिउत्तगवरिपरसंग। सिसुपालें पुहईमहाएविहि होसइ पुत्तु" खुदु सियसेविहि । 10 एक सौ दूसरी सन्धि बहुज्ञानी राजा श्रेणिक फिर कहता है-हे गौतम ! हम लोगों का अवसर्पिणी काल आपके शब्दों और आपके दर्शन से उत्सर्पिणी के समान जान पड़ता है। हे मुनिवर ! इस समय अवसर्पिणी बताइए। गौतम गणधर कहते हैं-हे महामानव ! सुनो। हे कुलसिंह और अप्सराओं को सन्तुष्ट करनेवाले (श्रेणिक) : जब चतुर्थकाल के तीन साल बाकी बचते हैं, तब दक्षिणापथ की अपेक्षा कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी के दिन (आसोयंतइ) सिद्धार्थ के पुत्र महावीर सिद्ध होते हैं। इसके बाद इक्कीस हजार वर्ष में समाप्त होनेवाला दुर्मति दुःखमा काल होगा। उसमें राजा लोग तामसी स्वभाव के होंगे। सभी मनुष्य सौ वर्ष की आयुवाले होंगे। सात हाथ शरीरवाले और कान्ति से रहित। प्रेम के वशीभूत और इन्द्रियों के अधीन। भूख उनके रक्त और रस का शोषण करेगी। तीन बार भोजन करने से तृप्ति होगी। चारों वर्ण पापकर्मा बहुदोषों से भयंकर और वर्णसंकर से सहित दिखाई देंगे। न राजा शुद्ध होगा और न वणिक और न ब्राह्मण। सभी दुष्ट और निघृणतर (क्रूर) होंगे। दुःखमा काल के एक हजार वर्ष बीत जाने पर मनुष्यों के संगम पाटलिपुत्र नगर में राजा शिशुपाल और श्री से सेवित पृथ्वी महादेवी से एक क्षुद्र पुत्र होगा। .-. (1)। Aणयगहे। 2. AP दीसह । 5. A भणु एवहिं। 4. A गणि पभणह। 5. Aदुच्छर । HAP सिद्धत्ययतणुरुह । 7.AP सहसः जिणु भासद। R. AP नरिसहो दुस्तमु काल पहासइ। . A धममहोण सुहझाणपिग्लिय। 10. AP तित्ति नि कचनाहारें। I]. AP पायम। 12. A सुदु । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406 ] महाकइपुम्कयतविरपर महापुराणु {102.1.14 15 घत्ता-अइदुम्मुह चउमुहु णाम सुउ सयल पुहइ भुंजेसइ। सामरिसहं वरिसई पीणभुउ सो सत्तरि जीवेसइ ॥३॥ (2) सो चालीस वरिस रज्जेसरु तीस वरिस कुमरत्तें सुंदरु। वसि णेसइ सयलई पासंडई मासगासमइरारससोंडई। दरिसियमोक्खमहापुरपंथह पडिकूलउ होसइ णिग्गंथहं।। वसि ण होति किं मझु दियंबर । मंति भणंति देव कयसंवर। करभोयण' गिरिकंदरमंदिर पभणइ णई णवंतु महुँ मुणिवर। एयहं पाणिपत्तदिण्णोवणु हिप्पट्ट परघरलद्धउं भोयणु। तं णिसुणेवि सरिच्छ जमवेसें भई जाहिति सरायाएसें। ते हरिहिति गासु भयवंतहं णिभयाहं परघरि भुजंतह। तं पेच्छिवि अधम्मु णिच्छयगणि । भुंजिहिँति णउ भोज्जु महामुणि। जाइवि गावपावसंघायहु किंकरहिं अक्खिउ णियरायहु। देव दु? णिग्गंथ तुहाणइ । णउ जीवंति सगुरुसंताणइ । तं णिसुणिवि दंडहुं 'जइणरवइ । तियखदंडु जाएसइ णरवई। मुक्कधम्मु खग्गे दारेव्वउ सो केण वि असुरें मारेवउ । 10 घत्ता-अत्यन्त दुर्मुख चतुर्मुख नाम का वह पुत्र समस्त धरती का उपभोग करेगा। स्थूलबाहु वह (कल्कि अमर्ष, अक्षमादि से भरा हुआ सत्तर वर्ष जीवित रहेगा। चालीस वर्ष राज्येश्वर के रूप में और तीस वर्ष कौमार्य के रूप में। वह सुन्दर मांसाहार और मदिरारस से उन्मत्त सभी सम्प्रदायों को अपने वश में कर लेगा। लेकिन मोक्षरूपी महानगर का पथ प्रदर्शन करनेवाले निर्ग्रन्थ (दिगम्बर) साधुओं के विरुद्ध हो जाएगा। (वह पूछेगा) कि क्या दिगम्बर मेरे वश में नहीं होंगे ? मन्त्री कहेंगे-हे देव । ये संवर करनेवाले, हाथ में भोजन करनेवाले और गिरिगुफाओं में निवास करनेवाले हैं। राजा कहेगा ये मुनिवर मुझे नमस्कार नहीं करते। इनका हाध रूपी पात्र का भात और दूसरे के घर से प्राप्त भोजन छीन लिया जाये। यह सुनकर, यमरूप के समान योद्धा अपने राजा के आदेश से जाएँगे और ज्ञानवान, निर्भय, दूसरे घर भोजन कर रहे उनका आहार छीन लेंगे। यह अधर्म देखकर, निश्चयगुणी महामुनि आहार ग्रहण नहीं करेंगे। अनुचर गर्वरूपी पाप के समूह अपने राजा से जाकर कहेंगे-हे देव दुष्ट निर्ग्रन्थ मुनि आपकी आज्ञा से नहीं, परन्तु अपने गुरु की परम्परा से जीवित रहते हैं। यह सुनकर वह राजा जैनमुनियों को दण्डित करने के लिए तीव्र दण्डवाला हो जाएगा। मुक्तधर्म वह तलवार से नष्ट होगा। समय (शास्त्र सिद्धान्त, जिनसिद्धान्त) की प्रभावना के गुण का स्मरण करते हुए जिनशासन के भक्तों द्वारा सहन 19.AP खुद्द पुतु। 11. A/ दुमड। (2) I. A कयभीषण। 2. AP परघरे दिग्णाः । * AP जङ। 4. AP पायगाव । 5. AP जडवरबइ। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102.3.7] महाकइपुण्यंतविरयउ महापुराणु जिणसासणभत्तें असतें । एक्कु समुद्दोवमु जीवेसइ । किह जिणसासणु णउ पणविज्जइ । वसुद्धबुद्धिपरिणामें । अभयदाणु बहुजीवहुं दिउं। थिउ महि भुंजमाणु णीसल्लउ । घत्ता - पुणु होसइ घोसइ गणपवरु" मइ चउमुहि कयहरिसहं । जलमंथणु दुज्जणु अवरु पहु वीसहं सहसहं वरिसहं ॥2॥ ( 3 ) समयपहावण गुण सुअरंतें पढमणरयगुरुविचार पडेसइ खद्धउ पावें सो किं किज्जइ तहु पुत्तें अजियंजवणामें जिणसम्मत्तु तच्चु पण्उिं रक्खउ देवें लक्खिउ भल्लउ पच्छिमसूरि णाम वीरंगउ संजइ सव्वसिरि त्ति मुणेज्जसु फग्गुसेण सावइ अइसुब्बय दुस्समति होर्हिति णिरुत्तउ जयहुँ थक्कर पंचमकालउ अणु वि तहिं पण्णारह वासर कत्तियमासपदमपक्खतइ होसइ तवसिहि 'हुणिवि अगंगउ । अग्गलु सावउ हियइ घरेज्जसु । कोसलणयरिणिवासि गिरावय । एवं सम्भइाहें बुत्तउ । चउयालीसमाससंखालउ । तइयहुं भो' सेणिय माणियघर । साइरिक्खि दिणयरि 'उवसंतइ । [ 407 15 20 6. A गुणपवरु। (3) IAP हुलियागंगर। 2. AP अगव्यय । 3. AP एउं। 4. AP हो। 5. A उपयंतए P उदयंतए । 5 नहीं होने पर वह किसी असुर के द्वारा गारा जाएगा। वह प्रथम नरक के महाविवर में पड़ेगा और एक सागर प्रमाण जीवित रहेगा। वह पाप से क्षय को प्राप्त होगा। सो क्या किया जाय ? जिनशासन को क्यों नहीं प्रणाम किया जाये ? जिसका शुद्ध बुद्धि का परिणाम बढ़ गया है, ऐसे अजितंजय नाम का उसका पुत्र जिनेन्द्र द्वारा सम्मत तत्त्व ग्रहण करेगा और बहुत से जीवों को अभयदान देगा। देव से रक्षित वह भला लगेगा और निःशल्य होकर धरती का भोग करेगा। धत्ता - गणप्रवर (गौतम) घोषित करते हैं कि चतुर्मुख की मृत्यु के बाद हर्ष से भरे बीस हजार वर्ष बीतने पर एक और दुर्जन जलमन्थन ( अन्तिम कल्कि) राजा होगा । ( 3 ) अन्तिम मुनि वीरांगद होंगे जो तप की ज्वाला में कामदेव को नष्ट करेंगे। तुम सर्वश्री आर्यिका को मानोगे और अग्निल श्रावक (अन्तिम) को हृदय में धारण करोगे। फल्गुसेना अन्तिम श्राविका होगी। सुव्रतों को धारण करनेवाले निरापद ये अयोध्यानगरी के निवासी होंगे। ये दुःखमा काल के अन्त में होंगे, ऐसा निश्चय रूप से सम्मतिनाथ ने कहा है। और जब पंचमकाल के चवालीस भाह और पन्द्रह दिन शेष रह जाएँगे, तब धरती को माननेवाले हे श्रेणिक ! कार्तिक माह के प्रथम पक्ष (कृष्णपक्ष ) में स्वातिनक्षत्र में सूर्य के अस्त होने पर, संन्यासपूर्वक अपने शरीरों को छोड़कर, सद्भाव से जिनवर का ध्यान कर, वे चारों धर्मनिष्ठ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 ] महाकइपुष्फयंतविरयउ महापुराणु [102.3.8 संणासणेण मुएवि कलेवरु समभावें णिज्झाइवि जिणवरु। चत्तारि वि जणाई धम्मिट्ठइं पढमसग्गु जाहिंति वरिटई। मज्झण्हइ पत्थिउ णासेसइ बभणधम्मु खयह जाएसइ। चाउवण्णु कुलधम्मु गलेसइ देसधम्मु जिम्मूलु हवेसइ। घत्ता-पासंडि तिढि ण तवसि तहिं पउ तहिं खत्तियसासणु। अवरण्हइ उपहइ मंदिरहु णासइ झत्ति हुयासणु ॥3॥ 5 तइयह अइदुस्समु पइसेसइ भणिउ तिअद्धहत्यमाणंगउ णरयतिरिक्खहं होतउ आवइ कालें तें माणवसत्थे परिहेव्वउं तरुपल्लवणिवसणु भो भूवइ भविस्सपरमेसर वीरिउ बलु आउ वि ओहट्टइ असुहहं दुब्भगदुस्सररुक्खह खंचियभोयहं पसरियरोयह जइयहं छहकालपरमावहि माणुसु वीसवरिस जीवेसइ। बहुवेलासणु पावपसंगउ'। मुउ तहिं जि पुणु संभउ पावइ। विणु कप्पासविणिम्मिववत्थे। फलभोयणु अवरु वि णग्गत्तणु। अइदुस्समकालति णरेसर। सोलहवरिसइं जीविउ चट्टइ। कसणसरीरहं दीणहं मुक्खहं। हत्थमेतु तणु होसई लोयह। तइयहुं फरुसत्तें फुट्टइ महि। और वरिष्ठ प्रथम स्वर्ग में जाएँगे। मध्याह्न में राजा का नाश हो जाएगा। ब्राह्मणधर्म क्षय को प्राप्त होगा। चातुर्वर्ण्य व्यवस्था और कुलधर्म नष्ट हो जाएगा। देशधर्म भी निर्मूल हो जाएगा। __घत्ता-पाखण्डी, त्रिदण्डी होंगे, तपस्वी नहीं होंगे और न वहाँ क्षत्रिय-शासन होगा। उष्ण अपराह्न में घर से आग नष्ट (विलीन) हो जाएगी। तब से अतिदुःखमा काल प्रारम्भ होगा। मनुष्य बीस वर्ष जीवित रहेगा। वह साढ़े तीन हाथ के बराबर शरीरवाला कहा गया है, उनेक वार भोजन करनेवाला और पापों से लिप्त। नरक और तिर्यंच गतियों से होकर आएगा और मरकर, फिर वहीं जन्म प्राप्त करेगा। समय बीतने पर मानवसमूह, कपास से निर्मित वस्त्रों के बिना, तरुपल्लयों के वस्त्र पहिनेगा, फलों का भोजन करेगा, और नग्न रहेगा। हे भावी परमेश्वर राजन् ! अतिदुःखमा काल में वीर्य, बल और आयु भी घट जाती है। केवल सोलह वर्ष का जीवन रहता है। अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, रूखे, कृष्णशरीर, दीन, मूर्ख, भोगों से युक्त, रोगों से व्याप्त लोगों का एक हाथ का शरोर होगा। जव छठे काल की अन्तिम अवधि समाप्त होगी, तब कठोरता से धरती फट जाएगी। वृक्षों 5. बंउ धम्म; । धम् 7. Krecurds ap: अथवा हेउधम्मु युक्तिस्वरूपम्। (4) 1. रावसपसंगर। 2. A1 °दुस्सरदुक्रवहं। Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J 102.5.6] महाकपुष्प- तिथिरच महापुराणु महिरुहवेल्लिजालु उच्छ्रिज्जइ सुरसिंधुहि सिंधुहि खयरडहु जीविहिंति पर पावसरीरें डायार होण जड़ माणव के वि खुद्द विबर पइसेप्पणु विससमाणु जलहरु वरसेसइ सत्त सत्त दियहई जइ भासइ अवसप्पिणि किर एत्थु समप्पइ जीवहु पलयकालु संपज्जइ । आसंधिवि बेइय वेयहु । सरिजलसंभवजीवाहारें । दुत्थिय बाहत्तरिकुलसंभव । अच्छिहिंति अप्पाणु भरेष्पिणु । खारु तिक्खु पाणिउ वरिसेसइ । चित्ता णाम भूमि सम दीसइ । पुणु वि भडारउ भणइ वियप्पs | घत्ता - अइदुस्समु दुग्गमु पइसरइ ओसप्पिणिहि पवेसइ । माउं विकाउ वि मई भणिउ चिरसंखाइ समासइ ॥4॥ (5) वरिसिहिंति पुणु खीरपओहर' अमयमेह सिंचंति धरायलु रसवरिसें रसु धरणि धरेसइ कमपवुद्धि* पुणु दुस्समि पावइ तिरयणियद्धरयणिदेहुल्लउ पहिलउ चउहत्थुण्णइ काएं तेत्तिय दियहई जणवयदुहहर । होसइ सयलु सयलु संचियफलु । णीरणियरु विचरहु सिइ । बरिसई वीस जाम ता जीवइ । कालें जंतें होसइ भल्लउ । कुलयरु भासिउ वियलियराएं। [ 409 15 20 ५. उज्ज। 4. AP विरसेसइ । (5) 1. AP छीर। 2. AP गरणियरउं 3. कमे पवृद्धि 41 हत्येने काएं हत्थूर्ण काएं। 5 और लताओं का जाल उच्छिन्न हो जाएगा। जीव के लिए प्रलयकाल होगा। गंगा और सिन्धु नदियों के तटों पर और विजयार्थ पर्वत की वेदी पर आश्रय लेकर कुछ मनुष्य अपने पापशरीर से तथा नदीजल में उत्पन्न जीवों के आहार से जीवित रहेंगे। नष्टाचार, हीन और मूर्ख मनुष्य दुःस्थित एवं बहत्तर कुलों में जन्म लेनेवाले होंगे। कोई क्षुद्र बिलों में प्रवेश कर अपना भरण-पोषण करते रहेंगे। मेघ विष के समान बरसेंगे । खारा और कड़वा पानी गिरेगा, सात-सात दिन तक ऐसा यतिवर कहते हैं। यहाँ आकर अवसर्पिणी काल समाप्त होगा। आदरणीय गणधर फिर कहते हैं और उसका विस्तार करते हैं- घत्ता - फिर उत्सर्पिणीकाल में दुर्गम अतिदुःखमा काल प्रवेश करेगा। मनुष्य की आयु और शरीर भी वही होगा जो पुरानी संख्या में संक्षेप से कहा है । (5) फिर, उतने ही दिन जनपदों का दुःख दूर करनेवाले दूध के मेघ बरसेंगे। अमृत मेघ धरती का सिंचन करेंगे। समस्त कलायुक्त संचित फल होगा। जल की वर्षा से धरती रस को धारण करेगी। विवरों से जलसमूह निकलेगा । दुःखमा काल में क्रमशः इसकी वृद्धि होगी और मनुष्य बीस वर्ष तक जीवित रहेगा। साढ़े तीन Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410 महाकापुष्फयंतविरयउ महापुराणु [ 102.5.7 10 तहत्थपरिमाणे दिछु ण चुक्कइ केवलणाणे। पढमु कणउ बीयउ कणयप्पहु कणयराउ कणयउ णरपहु।। अबरु कणयपुंगमु णलिणंकउ णलिणप्पहु कुलगयणससंकउ। णलिणराउ अवरु वि णलिणद्धउ रु णावइ सई मयरद्ध। राज पलिणपुंगमु पउमक्खउ पउमप्पहु 'वसंतु पच्चक्खउ । पउमराय पउमद्धउ राणउ णिवइ पउमपुंगमु बहुजाणउ। अवरु महापउनु वि सोलहमउ कहइ महामुणि दूरुज्झियमउ। एयहुं कालि कालि गंदइ पय णरणाहहं परिवहइ संपय। जणवउ होसइ सन्बु सुसीलउ सिहिासेद्धण्णे भोयणयालउ। घत्ता-सुहमेलइ कालई तइयइ संपत्तइ सउ अद्दहं। पाउ' जीउ धरति मरंति ण वि वयणुण्णडई जिणिदह ॥5॥ पय जे होहिंति तेत्यु तित्थंकर बद्धउँ जेहिं कम्मु जगखोहणु ताह महापुरसिहं मणि मण्णह बूढदप्प कंदप्पखयंकर। अरहतत्तणु मोक्खारोहणु। णामई चउवीसहं आयण्णह। हाथ का उसका शरीर होगा। समय बीतने पर उसका भला होगा। पहला कुलकर शरीर से चार हाथ उन्नत होगा, ऐसा वीतराग और अन्तिम कुलकर सात हाथ प्रमाण का भगवान ने कहा है। केवलज्ञान द्वारा देखा गया कभी गलत नहीं होता। पहला कनक, दूसरा कनकप्रभ, फिर कनकराज, कनकध्वज कुलकर, फिर एक और (पाँचवाँ) कनकपुंगम, फिर नलिन, फिर कुलरूपी गगन का चन्द्र नलिनप्रभ, नलिनराज, एक और नलिनध्वज जो रूप में मानो स्वयं कामदेव होगा, राजा (दसवाँ) नलिनपुंगम, पद्य, पद्मप्रभ जो मानो प्रत्यक्ष वसन्त था, राजा (तेरहवाँ) पद्मराज और राजा पद्मध्वज, और राजा बहुज्ञानी पद्मपुंगम। और एक दूसरा सोलहवाँ महापद्य-जिन्होंने मद को दूर से छोड़ दिया है, ऐसे महामुनि कहते हैं। इनके समय में प्रजा प्रसन्न होगी, राजाओं की सम्पत्ति बढ़ेगी। समस्त जनपद सुशील होगा। आग से पका हुआ अनाज उनका भोजन होगा। पत्ता-सुख की योजना करनेवाले तीसरे काल के प्रारम्भ होने पर जब सौ वर्ष पूरे होंगे, तो जीव न तो दूसरों को मारेंगे और न आत्मघात करेंगे। जिनेन्द्र भगवान के वचनों की उन्नति होगी। (6) उसमें जो दर्प काम का क्षय करनेवाले तीर्थकर होंगे जिन्होंने जग को क्षुब्ध करनेवाली और मोक्ष का आरोहण करानेवाली अर्हन्त प्रकृति का बन्ध किया है, उन महापुरुषों को तुम मन में मानो। उन चौबीस के नाम सुनो-1. श्रेणिक प्रभु, 2. सुपार्श्व, 3. उदक, 4. प्रोष्ठिल, 5. शंका को आहत करनेवाले कटपू, 5. A पक्षणपंचक्खन। 6. AP तइया, कालए। 7. AP पर। 8. AP वयणु ण टला। 9. AP रिसिंदह। Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102.7.41 महाकइपुप्फयंतविस्यउ महापुराणु [411 सेणिउ पहु सुपासु उययंकर पोट्टिलु कडचंचु वि हयसंकउ। खत्तिउ सर्छ "णाम संखालउ णंदणु पुणु सुणंदु सुगुणालउ । पुणु ससंकु केसउ धमकिउ पेम्भकम्मु तोरणसण्णंकिउ। रेवउ वासुएउ बलु अवरु वि भगलि विगलि दीवायणु णररवि। कणयक्खउ पायंतउ णारउ चारुपाउ सच्चइसुउ सारउ। आइजिणेसरु तहिं महु भावइ सउ परिसहं सोलत्तरु जीवइ। जाणमि सत्तरयणिमाणंग छेइल्लउ दूरुज्झियसंग। पंचसयाइं तुंगु धणुदंडहं दिहि हरंतु मयरद्धयकंडह। पुबह कोड़ि देउ जीवेसइ णामावलिय ताहं जई घोसइ । माह --उ परपु महाफामु जि ना पुणु एग्देट सुसासणु। हयपासु सुपासु सयंपहु वि सव्य भूइ मलणासणु ॥6॥ देवउत्तु कुलउत्तु उअंका मुणिसुबउ पावारि विरायउ' चित्तगुत्तु जिणु विरइयसंवरु अणियत्ति वि णामें रिसिसारउ पोटिलु जयकित्ति वि गयपंकउ। णिक्कसाउ सुविउलु हयमायउ। अरुहु समाहिगुत्तु ससयंवरु। विमलु वि जर सुरपाउ भडारउ । 6. क्षत्रिय, 7. श्रेष्ठी, 8. शंख, 9, नन्दन, 10. सद्गुणालय सुनन्द, फिर, 11. शशांक, धर्म से युक्त, 12. केशव, 13. प्रेमकर्म, 14. तोरण नाम से अंकित, 15. रैवत, 16. बलवान वासुदेव, एक और, 17. भगलि, 18. विगलि, 19. द्वैपायन, 20. कनकपाद, 21. नारद, 22. चारुपाद, 23. श्रेष्ठ और 24. सत्यकिपुत्र । उनमें आदि तीर्थंकर सोलहवें कुलकर. (महापद्य) मुझे अच्छे लगते हैं, वह सोलह अधिक सौ (116) वर्ष जीवित रहेंगे। मैं जानता हूँ उनका शरीर सात हाथ ऊँचा होगा। वे चतुर होंगे और परिग्रह से दूर होंगे। उनमें अन्तिम तीर्थंकर (अनन्तवीर्य) का शरीर पाँच सौ धनुष ऊँचा होगा और वह कामदेव के तीरों के धैर्य का हरण करनेवाले होंगे। देव एक करोड़ वर्ष पूर्व जीवित रहेंगे। यति उनकी नामावलि की घोषणा इस प्रकार करते हैं घत्ता-!. शाश्वत श्रीवाले पहले महापद्म, फिर 2. सुशासनवाले सुरदेव, 3. बन्धन को नष्ट करनेवाले सुपार्श्व, 4, स्वयंप्रभ, और 5. मल का नाश करनेवाले सर्वात्मभूत । 6. देवपुत्र, 7. कुलपुत्र, 8. उदक, ५. प्रौष्ठिल, 10. गतपंक जयकीर्ति, 11. विशेषरूप से शोभित पापारि मुनिसुव्रत, 12. अरनाथ, 13. अपाप, 14. निष्कषाय, 15. सुविपुल, 16. निर्मल, 17. संवर की रचना करनेवाले चित्रगुप्त, 18. स्वयं का वरण करनेवाले-समाधिगुप्त, 19. स्वयम्भू, 20. ऋषिश्रेष्ठ अनिवर्ति, 21. विमल, (6) 1. A कइयतु । कवडचंचु । 2. AP सेखु सडु And gleass षष्ठः। 9. AP संखणामालउ। 4. AP गिलि विगिलि । S. AP सच्च। 17)1. A विद्यारउ वियराउ। 2. P रिसिसाया । ३. A सुरयाउ। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 महाकपुष्यंतविरय महापुराणु चक्कवट्टिणामावलि' गिज्जइ । लंबदंतु पहु भणिउतईयउ । सिरिभूइ बि सिरिकंतु अदीणउ । अवरु वि चित्तपुव्वु भणु वाहणु । णिव' अरिट्ठसेणु सव्वंतिउ । चंदु महाचंदु वि विष्णासमि । पत्ता - चक्कहरु मिहरु णं उग्गमिउ हउं अक्खमि महमंदु वि। हरिचंदु सीहचंदु वि अवरु पुण्णिमचंदु सुचंदु वि ॥ 7 ॥ (8) चरमु अनंतवीरु वंदिज्जइ भरहु दीहदंतु वि पुणु बीयउ गूदु चउत्थउ पुणु सिरिसेणउ पउम महापमंकु संसंतणु विमलबाहु णरणाहं सुखतिउ वि" भविस्ससीरि वि णव भासमि सिरिचंदु वि ए भासिय हलहर गंदि दिमित्तु' वि जाणिज्जइ दिभूइ हरि होइ चउत्थउ छट्टु महाबलु सत्तम् अइबलु णवम् दुविट्टु चिट्ठ णरकेसरि कालसमइ तइयम्मि समत्तइ णव होहित मणोहर सिरिहर । नंदसिएणु तिज्जउ "भाणिज्जइ । पंचमु बलु संगामसमत्थउ । अमु भूतिविट्टु पालियछलु । ताहं वइरि तेत्तिय से पडिहरि । सुसमदुसमकालइ संपत्तइ । | 102.7.5 5 1. मावि णामलि बि 5. AP सुसंत। 6. AP सुखति। 7. A नृय नु । 9 AP महिल ( 8 ) 1A दुमित्तु । 2 A पर्याणि । 10 5 22. जय, 23. देवपाल और अन्तिम 24 अनन्तवीर्य । इनकी बन्दना की जाएगी। अब चक्रवर्तियों की नामावलि कही जाती है - पहला भरत, दूसरा दीर्घदन्त, तीसरा फिर लम्बदन्त कहा जाता है। चौथा गूढ़दन्त और पाँचवाँ श्रीषेण, छठा श्रीभूति, सातवाँ अदीन श्रीकान्त, आठवाँ पद्म, नौवाँ शान्त महापद्म, दसवाँ विचित्रवाहन, ग्यारहवाँ क्षमावान राजा विमलवाहन और सबसे अन्तिम ( अर्थात् बारहवाँ ) राजा अरिष्टसेन है। हे राजन् ! मैं भावी बलभद्रों का भी कथन करता हूँ - 1. चन्द्र और 2. महाचन्द्र का भी वर्णन करता हूँ । यत्ता -- 3. चक्रधर चक्रवर्ती सूर्य की तरह उदित होता है, मन्दमति होते हुए भी मैं उनका वर्णन करता हूँ। 4. हरिश्चन्द्र 5. सिंहचन्द्र, 6 वरचन्द्र, 7 पूर्णचन्द्र तथा 8 सुचन्द्र (8) और 9. श्रीचन्द्र भी हैं, जो हलधर ( बलभद्र ) कहे जाते हैं ये नौ ही मनोहर एवं श्री को धारण करनेवाले होते हैं। पहला नन्दी, दूसरा नन्दीमित्र को जानिए। तीसरा नम्दीसेन कहा जाता है, नन्दीभूति नारायण चौथा है, संग्राम में सुप्रसिद्धबल पाँचवाँ नारायण है, छठा महाबल और सातवाँ अतिबल आठवाँ छल का पालन करनेवाला त्रिपृष्ठ, और नरसिंह द्विपृष्ठ नौवाँ नारायण होगा। इतने ही उनके शत्रु प्रतिनारायण होंगे। तीसरा Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102.9.8] महाकइपुष्फयतविरक्त महापुराणु | 413 चावह पंचसयई देहुण्णइ एम्ब भडारउ भासइ सम्मइ । पंचहं घणुसयाहं बड्डेसह साहिय पुबकोडि जीवेसइ। यत्ता-असरालइ कालइ आइयइ जीवेसइ पल्लोवमु। फडु होसइ दीसइ एत्यु जणु अहमभोयसुहसंगमु ॥8॥ 10 पंचमि मज्झिम छट्टइ उत्तिम इह जिह तिह णिव णवहिं मि खेत्तहिं कालु विदेहहिं एक्कु जि दीसइ जिणवर चक्कवट्टि हरि हलहर होति सटु सउ तेत्थु बहुत्तें उम्किट्टे सर सत्तरिजुत्तर चउगइ अणुहवंति तहिं घिरकर कम्मभूमिजाया मिगमाणुस भोयभूमि धुउ होसइ णित्तम। भरहेरावयणामविहत्तहिं। धणुसयपंचु ण' उपणइ णासइ। छिण्णछिण्णजयसिरिपसरियकर । वीस वियाणहि अइतुच्छत्तें। सव्वभूइभवजिणहं पवुत्तउ । सति चमगामिय परपर । होति भोयभूमिसु' णियकयवस। 5 काल समाप्त होने पर और सुखमा दुःखमा काल जाने पर मनुष्यों की ऊँचाई पाँच सौ धनुष बढ़ जाएगी। एक करोड़ वर्ष पूर्व की आयु होगी। ___घत्ता-बहुत समय बीत जाने पर मनुष्य एक पल्य के बराबर जीवित रहेगा। फिर, शीघ्र ही मनुष्य स्पष्ट रूप से जघन्य भोगभूमि हो युक्त होगा। 19 पाँचवें काल में मध्यम भोगभूमि और छठे काल में निश्चय से उत्तम भोगभूमि होगी। हे राजन् ! जिस प्रकार यहाँ. उसी प्रकार, भरत ऐरावत आदि नामों से विभक्त नौ क्षेत्रों में ये ही प्रवत्तियौं दिखाई देंगी। विदेह-क्षेत्र में एक ही काल दिखाई देता है। वहाँ शरीर की पाँच सौ धनुष ऊँचाई नष्ट नहीं होती। जिनवर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण, विभिन्न क्षेत्रों के अनुसार विजयश्री के लिए अपने हाथों का प्रसार करते हैं। वहाँ (विदेह क्षेत्रों में) तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलभद्र और नारायण अधिक से अधिक एक सौ साठ होते हैं, और कम से कम बीस जानो'। उत्कृष्ट रूप से कर्मभूमियों में समस्त ऐश्वर्य और संसार को जीतनेवाले तीर्थकर आदि महापुरुष एक सौ सत्तर होते हैं। इनमें चारों गतियों के जीव उत्पन्न होते हैं। स्थिरकर मनुष्य पाँचों गतियों में जन्म ले सकते हैं। पशु और मनुष्य अपने द्वारा किये गये पुण्य के वश से भोगभूमि में उत्पन्न हो सकते हैं। भोगभूमि के मनुष्य मरकर पहले दो स्वर्गों में, अथवा भवनवासी, व्यंतरवासी, A. A पुप्तपाई। (9) I.A सणइं: P पिउणार । 2. AP सच्चभूमिभव 1 3. AP मुअ हति। 4. AP भोय भूमिहि। -अकाई द्वीप में पाच यि क्षेत्र है और एक-एक विदह क्षेत्र के 32-82 भेद हैं। सब मिलाकर 150 क्षेत्र होते हैं। यदि तीर्थकर आदि (चक्रवर्ती बलभद, गगयण) शलाका परुष प्रत्येक विदेह क्षेत्र में 1-1 होवें तो 10 होते हैं और कम-से-कम महाविदेह को 4-4 नगरियों में अवश्यमेव होने के कारण श्रीस ही होते हैं। सभी कर्मभूनियों में पिताकर अधिक-से-अधिक एक सौ सत्तर हो सकते हैं। (उत्तरपुराण, 76, 406-98) Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4141 महाकइपुष्फयंतविस्यउ महापुराणु [102.9.9 आइकप्पजुयलइ जणमणहरि भावणवाणामरजोइसघरि। भोयभूमिणर होति मरेप्पिणु कम्मभूमिरुह कहमि गणेप्पिणु । पवर सलायपुरिस मयरद्धय विज्जाहरसुरवरपुज्जियपय । छट्ठइ कात्ति दुट्ठ सुकणिट्ठा माणव वीरजिणिदें दिट्ठा। पत्ता-एक्कोरुय पीरुय मूय णर सक्कुलिकण्णा अण्ण वि। कपणाचिय भाविय जिणवरिण लंबकण्ण ससकण्ण वि ॥७॥ (10) आससीहमहिसयकोलाणण वग्घउलूयवयण सुहमाणण। मक्कडमुह' थहमुह मसिणिहमुह गयमुह गोमुह घणमुह तडिमुह । आदसणमुह लंगूलंकिय वेसाणिय कुमणुय जिणपुक्किय । एए अंतरदीवणिवासिय गोत्तमेण मगहेसह भासिय। अंततित्थणाहु वि महि विहरिवि जणदुरियाई दुलंघई पहरिवि । पावापुरवरु' पत्तल मणहरि णवतरुपल्लवि वणि बहुसरवरि। संठिउ पविमलरयणसिलायलि रायहंसु णावइ पंकयदलि। दोण्णि दियह पविहारु मुएप्पिणु सुक्कझाणु' तिजउ झाएप्पिणु । घत्ता-णिब्यत्तिइ कत्तिइ तमकसणि पक्खि चउद्दसिवासरि । थिइ ससहरि दुहहरि' साइचइ पच्छिमरयणिहि अवसरि ॥10॥ 10 ज्योतिषवासी-इन तीन निकायों में उत्पन्न होते हैं। अब मैं कर्मभूमि में उत्पन्न होनेवाले मनुष्यों की गणना करके बताता हूँ। श्रेष्ठ शलाकापुरुष कामदेव, और देवों तथा विद्याधरों से पूजितपद मनुष्य, तथा छठे काल में दुष्ट और नीच मनुष्य वीर जिनेन्द्र ने देखे हैं। यत्ता-एक पैरवाले, बिना पैरवाले, मूक, शत्कुली (कीली, शंकु) के समान कानवाले, और भी कानों के आवरणवाले लम्बवर्ण, शशकर्ण (खरगोरा के समान कानवाले) मनुष्यों को जिन भगवान ने देखा है। (10) अश्व, सिंह, भैंस और सुअर के मुखवाले, बाघ, उल्लू के मुखवाले, शुभ मुखवाले, वानर मुख, मेषमुख, गजमुख, गोमुख, घनमुख, तडिन्मुख, दर्पणमुख, पूँछ से युक्त, सींग से सहित और ऊँचा बोलनेवाले कुमनुष्य जो अन्तर्वीप के निवासी हैं। गौतम ने मागधेश से कहा कि अन्तिम तीर्थंकर महावीर धरती पर विहार कर और लोगों के दुर्लध्य पापों को नष्ट कर पावापुर पहुँचे और सुन्दर, अनेक और नववृक्ष पल्लवों से युक्त वन में एक विमल रत्नशिलातल पर इस प्रकार बैठ गये, मानो कमलदल पर राजहंस हो। विहार छोड़कर, दो दिन तक तीसरे शुक्लध्यान का ध्यान कर___घत्ता-कार्तिक माह के कृष्णपक्ष की चौदस को चन्द्रमा के दुःखहर स्वातिनक्षत्र में स्थित रहने पर रात्रि के अन्तिम प्रहर में5. AP "सुरवर । 6. एए भासिय णिच जिणवरेण । (10) 1. A मकडमुह वामुह मसिणहमुह न ममइपच्छयमुह पसिणिहमुह। 2. A जिणधुक्किय। 3. A तिनु तित्यणाहु महि। 4. AP "पुरयारे। 5. AP सुझझाणु तश्य। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102.11.151 [415 महाकइपुष्फयंतविरया महापुराणु (11) कयतिजोयसुणिरोहु' अणिवउ किरियाछिण्णई झाणि परिहिउ । णिहयाघाइचउक्कु अदेहउ । वसुसमगुणसरीरु णिपणेहउ । रिसिसहसेण समउं रयछिंदणु' सिद्धउ जिणु सिद्धत्यहु णंदणु। तियसविलासिणि णच्चिउ तालहिं । अमरिंदहिं णवकुवलयमालहिं। णिव्वुइ वीरि गलियमयरायउ इंदभूइ गणि केवलि जायउ। सो विउलइरिहि गउ णिव्वाणहु कम्मविमुक्कउ सासयठाणहु ।। तहिं वासरि उप्पण्णउं केवलु . मुणिहि सुधम्महु पक्खालियमलु । तण्णिव्वाणइ जबूणाम पंचम दिवणाणु हयकामहु । दि सु दिमित्तु अवरु वि मुणि । गोवद्धणु चउत्यु जलहरझुणि। ए पच्छइ समत्थ सुयपारय णिरसियमिच्छायम णिरु णीरय । पुणु वि विसहजइ पोट्ठिलु खत्तिउ जउ गाउ वि सिद्धत्यु हयत्तिज। दिहिसेणंकु विजउ बुद्धिल्लउ गंगु धम्मसेणु वि णीसल्लउ। पुणु णक्खत्तउ पुणु जसवालउ पंडु णाम धुवसेणु गुणालउ। घत्ता--अणुकसर अप्पउ जिणिवि थिउ पुणु सुहदु जणसुहयरु। जसभदु अखुटु" अमंदमइ णाणे णावइ गणहरु ॥11॥ 10 तीनों योगों का निरोध कर अमुक्तरूप वह समुच्छिन्न क्रियापाती नामक चौथे शुक्ल ध्यान में स्थित हुए। चार धातिया कर्मों का नाश कर वह अदेह आठ गुणों के शरीरवाले एवं रागरहित हो गये। एक हजार मुनियों के साथ पापबल का छेदन कर सिद्धार्थनन्दन सिद्ध हो गये। नवकुवलयमाला के समान इन्द्रों और तालों के साथ देवांगना ने नृत्य किया। भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्त कर लेने पर मद और राग से रहित गौतम गणधर केवली हो गये। कर्मों से विमुक्त वह भी विपुलाचल पर्वत पर शाश्वत स्थानवाले निर्वाण गये। उसी दिन सुधर्मा मुनि को पापों को प्रक्षालित करनेवाला केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। उनके निर्वाण प्राप्त कर लेने पर काम को नष्ट करनेवाले, जम्बूस्वामी को पाँचवाँ ज्ञान (केवलज्ञान) प्राप्त हुआ। नन्दी, नन्दीमित्र, मुनि अपराजित और मेघ के सामन ध्वनिवाले चौथे गोवर्धन मुनि हुए। बाद में ये श्रुतज्ञान में पारंगत, मिथ्यात्वतम का नाश करनेवाले अत्यन्त निष्पाप और समर्थ हुए। फिर विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नागसेन, पीड़ा का हरण करनेवाले सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिल्ल, गंगदेव, निःशल्य धर्मसेन, ये द्वादशांग का अर्थ कहने में कुशल हुए, फिर नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु और गुणालय धुवसेन, ___घत्ता-बाद में कंसार्य (ग्यारह अंगों के जानकार) आत्मा को जीतकर स्थित थे। फिर, जनों का कल्याण करनेवाले महान् सुभद्र और यशोभद्र हुए, अमन्द बुद्धिवाले जो ज्ञान में गणधर के समान थे। 6. A क्रन्तियतमणिसिहि। 7. A दुलारे। (1) I. A "सुणिरोह अणिष्टिक “सुणिरोहें प्रणिहिउ2. AP किरियाछणए। 3. AP णिहयअघाइ। 4. A अरिजिंदणु। 5. AP अगिदहिं अधिक सिहिजाला। 6. A "पिचामचभय णीरय; "मियामय भव णीस्य । 7. A पुणु विसाहु जयपोदिलु खतिउ। 8. A अणुकंपउ। 9. A सुहद्दजिणु सुञहरू। 10.A सखदु मंदगइ णाणे। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4161 महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु [102.12.1 (12) भद्दबाहु लोहंकु भडारउ आयारंगधारि' 'जगसारउ । एयहिं सब्बु सत्थु मणि माणिउ सेसहिं एक्कु देसु परियाणिउ । जिणसेणेण वीरसेणेण वि जिणसासणु सेविवि मय ते ण वि। पुथ्व्यानि सुई णिगय भरहें राएं रिउवहुदावियविरहें। पुणु सयरेण सच्चवीरंके पुहईसेण सगोत्तससकें। भावमित्तमित्तइयवीरें जमजुइणा वि सुछ गंभीरें। धम्मदाणवीरहिं मघवंतें जुज्झवीरणरणाही हसंते। सीमंधरराएण तिविट्टे अरुहवयणु आयपिणउं इलें। पुणु सयंभु पुरिसुत्तमु णामें पुरिसपुंडरीएं जयणामें" || पुरिदत्तपस्थिवेण" कुणालें गोविंदेण गंदगोवालें। णिवसुभोमणामें विक्खाएं अजियजएण वि जएं वि महाएं। उग्गसेण "महसेणे इच्छा आजिएं। सेणिएण पई पच्छइ। एम्व रायपरिवाडिइ णिसुणिउ धम्मु महामुणिणाहहिं पिसुणिउ । सेणियराउ धम्मसोयारह पच्छिल्लउ वज्जियभयभारहे। ताहं वि पच्छइ बहुरसणडिया भरहें काराविउ पद्धडियइ। पढिवि सुणिवि आयपिवि णिम्मलि पचडिउं 'मामइएं इय महियलि। 15 (12) भद्रबाहु और आदरणीय लोहाचार्य विश्व में श्रेष्ठ आचारांग धारण करनेवाले थे। इन आचार्यों ने शास्त्रों को अपने मन में धारण कर लिया था। शेष लोग, उनके एक भाग को जानते थे। जिनसेन और वीरसेन भी जिनशासन की सेवा करके संसार से विदा हो चुके हैं। पूर्वकाल में शत्रुओं की पत्नियों को विरह दिखानेवाले भरत ने शास्त्र सुना था। फिर, सागर, सत्यवीर, अपने गोत्र का चन्द्र पृथ्वीसेन, मित्रभाव, सूर्य के समान कान्तिवाले और गम्भीर मित्रवीर्य, धर्मवीर्य, दानवीर्य, मघवा, युद्धवीर्य, राजा सीमन्धर और त्रिपृष्ठ ने इष्ट अरहन्त के वचन सुने। फिर, स्वयम्भू, पुरुषोत्तम, प्रसिद्ध पुरुष पुण्डरीक, राजा सत्यदत्त, राजा कुणाल, नारायण, विख्यात राजा सुभौम, अजितंजय, विजय, उग्रसेन, महासेन और बाद में स्वेच्छा से अजित (प्रश्न करनेवालों में श्रेष्ठ) हैं। इस प्रकार क्रमबद्ध परिपाटी से महामुनियों द्वारा कथित धर्म को सुना। धर्म के भयभार से रहित, श्रोताओं के साथ बाद में राजा श्रेणिक हुआ। उसके भी बहुत बाद में नवरस से संकुल, पद्धडिया शैली में इसकी रचना मन्त्री भरत ने करवायी। उसे पढ़-सुन कर, मामइया द्वारा धरती पर प्रगट किया गया। (12) 1. A एयारंगधारि। . A जयसार; P जसमाग्छ । १. AP सेकि मयगिरिपवि। . A पुब्बघालि णिणि सुइभरहें; P पुयपालि जितागाई मई परहें। 3. A बहुरि। 6. A सच्छवीरके 17. A पहई सेस | B. K मित्ताइविवीरें and eloss मित्रवीर्यः 19. APPणरणाहें संते। 10. AP जयकामें। ]]. A पुरिसदत्तमायेण; पुरिसदमपत्थियेण। 12. A omits this line. IS. A महमेण डियस्थे। 14. A णिच्चलमाणसेहि पुणु पत्थे। 15. A "भवभारई। 15. A भवकलि स्यकले। 17. A धम्ममहरःP मम्महार। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102.13.6] महाकइपुयंता वेरयउ महापुराणु एम्व महापुराणु भई सिङउं । बुद्धिविहीणें जं मई साहिउं । अरुहुग्गय" सुयएवि भडारी । देंतु समाहि बोहि तित्यंकर । घत्ता- दुहुं छिंदउ गंदउ भुयणयति णिरुवमु कण्णरसायणु । आयण्णउ मण्णउ ताम जणु जाम चंदु तारायणु ।।12।। ( 13 ) कम्मक्खचकारण गणिदिउं एत्थु जिविंदमग्गि ऊणाहिजं तं महु खमहु तिलोयहु सारी चवीस वि महुं कलुसखयंकर बरिसउ मेहजाल वसुहारहिं दउ सासणु वीरजिणेसहु लगउ हवणारंभ सुरबई दउ देसु सुहिक्खु वियंभउ पडिवण्णियपरिपालणसूरहु' होउ संति बहुगुणगणवंतहं महि पिच्चउ' बहुधण्णपयारहिं । सेणिउ णिग्गउ णरयणिवासहु । नंदउ पय सुहुंर णंदउ णरवइ । जणमिच्छत्तु दुचित्तु णिसुंभउ । होउ संति भरह 'वरवीरहु । संतहं दयवंतहं भयवंत । [ 417 20 कर्मक्षय का कारण, गणधरों के द्वारा उपदिष्ट, इस महापुराण की मैंने रचना की है। यहाँ जिनेन्द्रमार्ग में, मुझ बुद्धिविहीन ने हीनाधिक जो कुछ कहा है, उसे अरहन्त भगवान से उत्पन्न आदरणीय सरस्वती क्षमा करें। कलुष का नाश करनेवाले चौबीसों तीर्थंकर मुझे समाधि और ज्ञान प्रदान करें। 5 घता - यह महापुराण दुःख दूर करे, भुवनतल पर प्रसन्नता का प्रसार हो, अनुपम कर्ण-रसायन को लोग तब तक सुनें और भानें, जब तक चन्द्रमा और तारागण हैं। तासु जि पुत्तहो सिरिदेयिल्लाहो । जें पपव्यउ सयले धरायले । ( 13 ) अनेक धाराओं से मेघ की वर्षा हो, बहुत प्रकार के धान्य से यह धरती पकती रहे। वीरजिनेन्द्र का शासन नन्दित हो । राजा श्रेणिक नरक निवास से निकलें, जलाभिषेक के प्रारम्भ में इन्द्र लगें। प्रजा सुख से प्रसन्न रहे, राजा प्रसन्न रहे । देश प्रसन्न रहे, सुभिक्ष बढ़ता रहे, लोगों का मिध्यात्व और हृदय की दुष्टता नष्ट हो । अपनी स्वीकृतियों का प्रतिपालन करते हुए वह वीर भरत (मन्त्री) को शान्ति हो । अनेक गुणसमूह से युक्त, दया से सहित और भय का नाश करनेवाले सन्तों को शान्ति प्राप्त हो । सज्जनों को शान्ति प्राप्त भर परमसभावसुमित्तहो । होउ सति णिरु णिरुयमचरियहो । कुलबलवच्छल (A कुलवच्छल सामत्यमर्हतहो । होउ संति सोहणगुणवम्मट (A धम्महो। 18. A अरुहंगय | (13) 1. A पच्चउ । बहुधणकणभारहिं । 2. A सुहि 13. A जणु मिच्छत्तदुचित्तु णिसुंम Pomits जण । 4. AP पडियण्णए 5. AF गिरिधीरहो । 6. A omits this line. 7. AP add after this: होउ साँस बहुगुणहिं महत्सहो एवं महापुराणु रयणुज्जले विदाज्जयकपचित्तहो भोगल्लहो जयजसवित्थरियहो होउ साँते णष्णही गुणवंतडो णिच्चमेव पालियजिणधम्म (A धम्महो) Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418 ] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु [102.13.7 होउ° संति संतह' दंगइयहु होउ संति सुयणहु संतइयहु । जिणपयपणमणवियलियगव्यहं होउ संति पीसेसहं भव्यहं । धत्ता-इय दिव्यहु कचहु तणउं फलु लहुं जिणणाहु पयच्छउ । सिरिभरहहु अरुहहु जहिं गमणु पुष्फयंतु तहिं गच्छउ ॥13॥ 10 5 सिद्धिविलासिणिमणहरदूएं गिद्धणसघणलोयसमचित्तें सद्दसलिलपरिवड्डियसोत्ते विमलसरासयजणियविलासे कलिमलपबलपडलपरिचत्तें णइवावीतलायकयण्हाणे धीरे धूलीधूसरियों महिसयणयलें करपंगुरणे मण्णखेडपुरवरि णिवसंते भरहसण्णणिज्जें णयणिलएं पुष्प माइ... "जुगों मुद्धाएवीतणुसंभूएं। सब्बजीवणिक्कारणमितें। केसवपुत्ते कासवगोत्तें। सुण्णभवणदेवलयणिवासें। णिग्घरेण णिप्पुत्तकलतें। जरचीवरवक्कलपरिहाणें। दूरयरुन्झियदुज्जणसंगें। मग्गियपंडियपंडियमरणें। मणि अरहंतधम्मु' झायतें। कव्वपबंधजणियजणपुलए। लइ अहिमाणमेरुणामकें। हो। जिनका गर्व नष्ट हो गया है और जो जिनवर के चरणकमलों में नमन करनेवाले हैं, ऐसे सभी भव्यजीवों को शान्ति प्राप्त हो। घत्ता-इस दिव्य काव्य का फल शीघ्र जिन भगवान् को अर्पित हो। श्री भरत और अर्हन्त का जहाँ गमन है, पुष्पदन्त वहाँ जाये। सिद्धिरूपी विलासिनी के सुन्दर दूत, मुग्धादेवी के शरीर से उत्पन्न, निर्धन और धनवान में समान चित्त धारण करनेवाले, समस्त जीवों के अकारण मित्र, शब्दरूपी जल के बढ़ते हुए स्रोत से युक्त, केशव के पुत्र, कश्यपगोत्रवाले, विमल सरस्वती से विलास करनेवाले, शून्यमवन और देवमन्दिरों में निवास करनेवाले, कलिमल के प्रबल पटल से दूर, पुत्रकलत्र से रहित, नदी, बावड़ी और तालाब के जल में स्नान करनेवाले, पुराने वस्त्र और वल्कलों के परिधानों को धारण करनेवाले, धीर, धूलधूसरित शरीर, दूर्जन के संग को दूर से छोड़नेवाले, धरतीरूपी शय्या और हाथ के प्रावरणवाले पण्डितों से पण्डितमरण माँगनेवाले, मान्यखट नगरी में निवास करनेवाले, अपने मन में अर्हन्त का ध्यान करनेवाले, भरत के अपने गृह में निवास करनेवाले, नय के घर 8. Areads a as band basa.9. AP सुपणहो। 10. A संतहो। (14) सण। 2. P "सरासह 15. AP "देवउल । 4. P"सरहाणे। 5. A वीरें। 6. A दूरुनिमय 7. P अरहंतु देव । 8. AP "मण्णणिज्जे णियणिलए। 9.A कन्नबंधपयणिव' | 10. AP कयणा। 11. AP घुपपकें। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102.14.15] महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु [419 कयउं कव्वु भित्तिढ़ें परमत्थे जिणपयपंकयमउलियहत्थें । कोहणसंधच्छारे आसाढ पहम दिवहे यंदरइरूढइ। घत्ता-णिरु णिरहहु“ भरहहु बहुगुणहु कइकुलतिलएं भणियउं"। सुपहाणु पुराणु तिसहिहिं मि पुरिसहं चरिउ "समाणियउं ॥14॥ 15 इय महापुराणे तिसहिमहापुरिसगुणालंकारे महाकइपुष्फपतविरइए महाभषमरहाणुमण्णिए महाकबे जिणिंदणिबाणगमणं" णाम "दुत्तरसयपरिच्छेयाणं महापुराणं समत्तं ॥10॥ काव्य रचना से लोगों को पुलक उत्पन्न करनेवाले, पाप से रहित, लोक में अभिमानमेरु नाम से विख्यात, जिनवर के चरणकमलों में हाथ जोड़े हुए परमार्थ और भक्ति में स्थित पुष्पदन्त ने क्रोधन संवत्सर के असाढ़ माह की चन्द्रमा की कान्ति से युक्त दसवीं के दिन इस काव्य की रचना की। ___ घता-अत्यन्त निष्पाप बहुगुणी भरत के लिए कविकुलतिलक ने कहा और त्रेसठ महापुरुषों के प्रधान पुराणचरित की रचना की। इस प्रकार प्रेसठ महापुरुषों के गुणों और अलंकारों से युक्त इस महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा रचित और महामण्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य में जिनेन्द्रनिर्वाण-नामन नामक एक सौ दूसरा परिच्छेदवाला महापुराण समाप्त हुआ। 12. AP भत्तिए। 13. P छसय छडोत्तर कयसामत्थे। 14. A सिरिणिरहो; A सिरिअरुहको।।5. AP भासिउं। 16, AP समासि। 17. AP omit जिणिणियाणगमणं णाम। 1. AP दुत्तरसइमो परिच्छेओ समतो। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420 महाकपुष्फयंतविरयउ महापुराणु NOTES LXXXI 1. 25 frag-The narrative of Nemi, the twenty-second fact of the Jainas, contains an important episode, viz., the fight of gut and Tree According to the TALENT the fight of u and is regarded as the most important feature of the life of कृष्ण, while जरासन्ध is killed by भीम। कृष्ण is mentioned as having run away from the battlefield and founded GI in order to escape the attacks by RIHET I In MP the word FI appears in thrce different forms, जरासन्ध, जरासिन्ध and जरसेन्ध । of these the first two are promiscuously used in my text and the third almost ignored as there is no consistency in Mss. 2. The poet states, as in MP I, that he does not possess necessary qualifications to undertake the composition of हरिवंश। 15 देसिलेसु, fragmentary or elementary knowledge of देशी words or lexicons. 6. a सुवंतु तिवतु (सुबन्त, तिङन्त) noun inflexion and verbal inflexion. 11-12 The poet feels confident that his fame as poet wil place her feet on the necks of the wicked and wander heyond the three worlds. 3. सीहरि णराहिउ अरुहदासु-It will be better if the reader remembers that the poct is giving here the narrative of the previous births of 314, not in their chronological order but in the order of strikinguess. These previous births chronologically are:-ATA, C, Erta, forma, retarica, 31931, ata सुप्रतिष्ठ and जयन्तदेव। The poet starts with the life of अपराजित here. He then takes up the story of fans and his two brothers. Then he proceeds to sfratat proper to give the parentage of 7 4. 11 , i.e., FATTI 13 Y Incans HETA. 5. 7 HUME, + GRIETIM 3G mcatis articles of food. 10 3940us hier before his destined time of deatí, premature death. 6. 5 णहपलि मुर्णिद-The चारणमुनिs are those who are able to travel through space as a result of their spiritual powers. They are lis brothers of the previous birth. 8. 2a-bणीसेस वि णियपयमूलि धित्त विजाहर-She. i.e., प्रीतिमती, tranpled under her foot or humbled down the pride of all fans as they came to woe her, but were unable to complete the three प्रदक्षिणाs of मेरु। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकपुष्फयंतविरयउ महापुराजु 9. 1 तुह here stands for तुहं. 10 जीवइ दुक्खसिहि, etc. The fire of sufferings of the poor etc. is extinguished if they cling to the lotus-like feet of the revered Jinas. 421 3 तिरीविराप्पि goes with माहिंदकप्पि and means heaven as 't says. 15 दूरिलई, stationed at a distance; this word is to be construed with s 12. 14. 18. 53. food. 12 इयर्स, the merchant सुमुह । 14 f, i... father. 1 बहुबरु, the couple सिंहकेतु or मार्कण्ड and विद्युन्माला 12 Note how the narrative runs over to the next Samdhi. LXXXII 1. 4 मुड ताइ, the children of सुभद्रा and अन्धकवृष्णि are enumerated here. They had ten sons and two daughters. 9 b-13b These lines enumerate the lives of the first nine sons of अन्धकवृष्णि वसुदेव is the youngest and his narrative is continued later. 2. 8- मच्छउतरायसुय सच्यवह of TRIER, is a princess of the the difference in the accounts of births of the gas and as as given here and in the महाभारत. According to the jain version, सत्यवती, the wife country and not a fisherman's daughter. Note 3. 8 a grafta, white or bright like a blooming lotus. 5. Ia segues etc. Note how the first boru son off was disposed off. He had a pair of ear-rings, a gold armour and a letter containing information about his parentage. He became the adopted son of king fet and queen of and seems to have succeeded his father to the throne of T. 6. 5 6 सुयजनल to अन्धकवृष्णि and नरपतिवृष्णि । 9. 8a, the name of a Brahmin priest of the family. 16. 1 वसुदेवायरणु, the previous births of वसुदेव. 4 नियमाउलउ, his maternal uncle. 8 a gefus, ascending the lofty peak of the mountain from which he wanted to throw himself down. 9 6 -These are destined to be कृष्ण and बलराम in the subsequent birth. 11 कायछाय गरहु, the shadow of a human being. 17. 11 दुरिडं दिसावलि दिज्जइ - If you practise penance according to Jain principles, you can scatter your miseries in different directions. fefer, offering to or scattering in Pans, i... quarters or cardinal points. Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422 महाकड्गुण्यतविश्यत महापुराणु LXXXIII 1. 5 1995, ocean not saltish, yet beautiful. Note the double meaning of सलवणु । 3. 1-2 Note how a lady, looking at t, put under her arms a cat instead of her own child, and thus supplied to the people a comic situation. 4. 6 bar, his improper conduct. 6. 1 b बालें, by young वसुदेव । 7. 10 8 प आपेक्खिवि नयणु वि दूह Compared with you, even god of love looked ugly (s, t). 14 barford, water respected or used by a mass of fish, ie, fresh running water or a stream. 8. 13 etc.-Fresh and young leaves came out or appeared on old and withered trees as if on account of the prowess of the merit of the visitor (पथिक), viz. वसुदेव 11. 6 aftale, by shouting "get out." 48 दुडियावरु, the husband of your daughter. 13 समरसहिं अभागी, सामरि who never knew defeat in hundred battles. 15. granite-The town of became famous as the birthplace of वासुपूज्य, the 12th तीर्थंकर । 16. 14 सवहं सीरिंग जनउच्छिउं वित्त He threw on the heads of monks the leavings of food of people who were fed at the sacrifice. The story of af and his conquest by the monk fg by asking him to give him earth measured by three steps will remind the reader of the corresponding story as found in Hindu mythology. 14 bf, a traveller or foreigner. 36 अधिवारिय (अवि रिता), without being killed. LXXXIV 1. ab नहिणीय resting or living in soil. 17 ह ज करेसमि भोयणु, I myself shall feed this monk by giving him alms. Although the king said so, he did not give him alms and the monk had to go without food. 1bgur fire broke out in the city in the first month, a maddened elephant teased the people in the second month, and a threatening letter from king जरासंघ was received by king उग्रसेन in the third month. 6 परु बारह सर्व जाहारु दे He prevents others giving alms to the monk but he himself does not give food to the - monk. 86, by a young lady of a wine-shopkeeper (m). 12 a Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकइपुप्फयतविरवड महापुराणु 423 वसुएचसीसु-कंस became a pupil of यसुदेव who is frequently referred to as प्रहरणसूरि, W14, at etc. 19 T H Te, he will win (the hand of) my daughter. 5. la सउहद्देएं, by वसुदेव who was the son of सुभद्रा. 6. 51 रणि णियगुरुगंतरि पइसरेवि-When वसुदेव and सिंहस्थ were fighting, कंस stood between them and captured fancy. 12. 7 a u to F 4250 4-fach, brother of , renounced the world when their father उग्रसेन was imprisoned by कंस. 14. 1. वरु दिण्णउ-वसुदेव was pleased with the exploit of his pupil कस when the latter caught here and gave him a boon wliich kept in reserve. 37TH CE34, to-day is the time to get the boon fulfilled. 17. 11 a four 14 7 ut ift, the god from GILET heaven, who, in his previous birth, was a monk tiamed. Auf 18. 10 दिउ, one of the frequently used nanmes of कृष्ण or विष्णु. LXXXV 1. 54 कण्हु मासि सत्तमि संजायउ-कृष्ण was born in the seventh month after conception, he had a premature birth, and hence was not watchful to put him to death as soon as born. 2. Note the polic beauty of this 454, nay, of the whole Fit, which is one of the finest compositions of the poet. 3. 3 महु कतइ etc.-नन्द says that his wife यशोदा begged a son of a deity, but she gave her a girl. He wanted to return the girl to the deity, if the deity would give him a sou, the desire of his wife would be fulfilled. 4. S afe vifty falalerife, having crushed the nose of the girl and thus deformed her, pur her into a cellar. B. 10 ता तहिं देवयाउ संपत्तउ--The deities which now came to कस were the same, as, when in his previous brith as a monk, had appeared before him. For reference see LXXXIV. 2. 9-11. It is these deities which assumed different forms such as GT and made attempts to kill shot at 's bidding, 12. 15-16 B el etc. who had just vanquished the bull (i. e., demon sfe), was glorified in the cowherds' colony in songs styled Tert. Who will not praise the most glorfied member of the house, the bright among the brightests? E149 is a kind of fold-songs composed in a metre which is named af. The theme of these songs is usually the glorification of ot and they are sung by गोपीs. हेमचन्द्र in this छन्दोनुशासन V. 46, mentions some four types of धबल and names them as यशोधवल, कीर्तिधबल, गुणधवल etc. Some of these are अर्धसम, with first Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424 महाकइपुष्फयंतविरया महापुराणु and third line and 2nd & fourth agreeing, while there is one more type in which first and second are similar and third and fourth are again similar. Among the HET poets these is, or cad as they are called, seem to be well-known, and those of 66 are now edited and published by Y. K Deshpande under the title 'आध मराठी कवयित्री'. They type of her ढवळे ayrees with the last named scheme, viz., Ist and 3rd line : 6+4+4+4=18, + 2 or 3 3rd and 4th. : 4+4+4+4+4=20, + 2 OT 3 13. 10-159. These lines describes a secret visit of वसुदेव and देवकी to कृष्ण, 16. A find description of the rainfall. 17. 11-12 णायामिज्जइ etc. Astrologer वरुण says to कंस that he who is not frightened by sleeping on the bed of a snake, blows a conch with his own breath and strings the bow, will show to the city of the god of death; and that he will release उग्रसेन and kill जरासंध. 20. 8-9 हउं मि जामि etc. कृष्ण says he would also go to मथुरा and do all the three things; whether he will inarry 's daughter, he could not say; for a cowherd-boy (Fiffen) may not care for the princess. 22. a अग्गि व अंबरेण ढंकेप्पिणु, having covered fire in clothes. भानु and सुभानु, the sons of THEF, brothers-in-law and allies of , took set with them to . 23. 10 b a , by or, who was taken to be some unknown servant of THE LXXXVI 1. 23 a fac, i.e., Bot. The name of you is expressed here by all synonyms of विष्णु. Compare पुरिसोत्तम and महसूयण below, 3. 4 bणउ बीहइ सप्पह गरुडकेट-कृष्ण, with hisemblem of गरुड, is not frightened by 44. The entity between T65 and is well-known. 5. 10 gerurena , the crowd of cowherd boys caused the earth to tremble on account of mutual clashing 7. 19 a ha t , both it and run 10. 3 4 भजिवि णियलाई, having broken or removed the fetters which कंस had put on and quaeft. ____ll. 2 b इहजम्महु महुं तुहं ताय ताउ-Addressing नन्द, कृष्ण says to him that नन्द is his father in this birth because he fostered liim. Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 महाकपुष्यंतविरय महापुराणु LXXXVII 1. 9 af rufa fa-Like Northern India, where there is no town bearing the name of (Canjeevaram of South India), er, having lost her husband, did not put on, girdle, which is used only by those ladies whose husband is alive. 425 2. 1-12 जीवंजसा describes to her father जरासंध the various exploits of कृष्ण. 14 अलीस तिणि सयई अपराजित, a son of जरासंध, made three hundred and fortysix attacks or attempts on 7, but was defeated. 4. 14 6 देवगमणु, leaving the country or going to another country. कालयवन being very powerful, the advisers of ur proposed to him not to give a straight fight to, but to withdraw from 4g and go towards the western ocean. 6. 15 हरिकुलदेविसेखहिं रइयई Certain guardian deities of हरिवंश palyed a trick on him. They set fire to a region where dead bodies were seen burning, and the deities cried bewailing the loss of यादवs कालयवन then thought that कृष्ण and other areas were dead and returned to his father. 7. 15 आहावे सउहुं भिडेवि मई जसु जिणिविण लद्ध कालयवन regrets that यादवs died of fire and that he lost the opportunity of obtaining fame by vanquishing them in a face-to-face fight. 10. 6 विवर्ट सेण्णु etc - This was the site on which द्वारावती was built by कुबेर as it was to be the birth-place off, the twenty-seconds. 13. 4 पउरंदरियड आणइ at the command of पुरंदर, ie इन्द्र 17. 2 णेमि सहिओ - The would be तीर्थंकर was named नेमि, because he was the af, the rim, that protects the great chariot of Law. LXXXVIII 1. This कड़वक summarizes events since कृष्ण left मथुरा down to his founding द्वारावती. 2. 10 a दुव्वाएं जलजाणु ण भग्गउं, fortunately my ship did not wreck although it met a stormy wind (दुर्वात). 3. 2 णवरज्ज = णवर + अज्ज. 4. 10 h दे आपसुकृष्ण asks the permission of his elder brother बलराम before he starts. 5. 16 a-bes etc.-The poet says that the dust raised in the sky was the smoke of the fire of rivalry of warriors. Note a fine set of fancies on the dust raised on the battle-field in the next as as well. Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426 महाकइपुष्फयंतविस्यउ महापुराणु 9. | गोदाल-जरासंघ uddresses कृष्ण as गोपाल. See the spirited answer of कृष्ण below in lines 15 and 16, पई मारिवि etc. गोमंडल पालमि, गोउ हउं, I protect the earth (iga), and so I am a 114. 16. 13-14 These lines give the list of seven gems which a rica possesses. 17. %b afers HETTE PART46 - CT had sixteen thousand wives. 8 This line metions the four gems which a बलदेव possesses. Is a कसमहुवइरिउ-कृष्ण is called here the enemy of कंस and महु, i.e., जरासंध. 19. 15 होसि होसि etc.-सत्यभामा says to नेमि "] know you are my husband's brother, but are you GTIGT ?" 22. 104णियह कारणु-If नेमि sees some cause which would creatc in him disgust for संसार, he would practise penance, and become a तीर्थंकर. 12-13 रायमइ or राजीमती is said to be the daughter of उग्रसेन and जयवती. Elsewhere she is said to be the daughter of भोगराज or भोजराज. Compare अहं च भोगरायस्स in the उत्तराध्ययन, 24. 43 trio is mentioned as her brother, but this H and his father and seem to be different from the enemy eset, as T suggests. LXXXIX 1. 3-4 ha fata fufa etc. I do not like to eat flesh because, one (the cater) gets only a momentary satisfaction by eating flesli, while the other (animal killed) loses its life. Haragat, Eating flesh causes the loss of spititual life in one, while the other actually loses its present life. 9 a u g darife after, tliese creatures were placed on the way of in order to cause in him disgust for life. 6. 15 पी सीरिणा is to be construed with पुच्छिउ in the second line of the next कडवक. 8. 7 tri etc.-The portion beginning with this line and ending with this Samdhi deals with the previous lives of देवकी, बलदेव and कृष्ण, 7 वरदत्तु, the first गणधर of नेमि. 9. 15 मंगिया-The narrative of मंगिया, the wife of वज्रमुष्टि, is interesting. She was very badly treated by her mother-in-law, Her husband loved her dearly, but she ultimately proved to be faithless. 18. सो संख वि सह णिण्णामएण-These two monks were born later as बलदेव and so XC 1. 5 to 3. 9 This portion narrates the previous lives of 4141, the most Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु proud and impetuous wife of . The narrative contains a small episode of Justeru, a Brahmin, who abused the Jain doctrine and recommended to people the Brahmanic practices such as gifts of earth, cows etc. 3. 10 bir finitely: Kanads word which the poet has used. Those who want to argue that the poet lived in South, say, at art, should note that this word does not occur in Tamil or in any other South Indian languages except Kannada. It is natural that the poet who lived under a mixed influence of 46RZ and we should use occasionally a word or two from either language, and words from a weaker language would be those that are most commonly known words. I stick to my view that the poet came from Northern India, probably from Berar, as suggested by Pandit Nathuram Premi. 3. 10 to 7. 14. Past lives of 4. 4 / उंबरकुट्ठइ, with leprosy. उंबरकुष्ठ is one of the 1s types of कुष्ट in which the body gets the colour of the ripe fruit of g, fig. 18 artit, with spiced waters. 15 to 10. 12. Previous births of t 13 to 12. 10. Past lives of AT. 10. 12. 1 to 14. 2 Past lives of 14. 427 3 to 15. 9. The same of ma 15. 10 to 16. 11. The same of . 16. 11 to 199. The same of पद्मावती 10 b अविपणियतरुहलहु आवागहु, a vow not to eat a fruit the name of which is not known. See how the lady died as slie could not get fruits of known names in a famine. 19. 10 af erg etc.-How can I narrate to you the series of births when the art is beginningless. The soul dances like an actor on the stage, taking different roles. XCI 2. 10 at mga -If persons who kill animals would go to heaven, then, the butcher should be the first man to go to heaven. 6. 6 fret, on account of grief at the loss of his wife. 12 पज्जु नामु-मधु in his previous births, was अग्निभूति, पुण्यभद्र or पूर्णभद्र and bacame प्रद्युम्न, the son of रुक्मिणी. He was taken away by कनकरथ whose wife had been abducted by मधु प्रद्युम्न was handed over to his queen काञ्चनमाला by कनकरथ. The He later fell in love with g, who rejected her love. The queen thereupon raised a false alarm that she was insulted by her so-called son. 16. 7 हरिपुत्तहु to प्रद्युम्न the son of कृष्ण. 8 ah These are the names of Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 महाकइपुप्फयंतविरयउ महापुराणु the five arrows of god of love whose incarnation 4 was. 21.94 भाणुमायदेवीणिकेउ, to the house of सत्यभामा, the mother of prince भानु, 12 b 1 tsta THG 458-The Brahmin who has visited our house is in reality, a demon; that is why he eats 30 much and is not still satiated. XCII 1. 12-13 जइयहुं etc.-Both रुक्मिणी and सत्यभामा gave birth to sons at one and tlie same time. The maids of both went to you to announce the birth, but as on was sleeping, one maid sat on the side of his head and the other on the side of his feet. Shu got up and saw the maid who was sitting at his feet; the maid (of 40t) then announeed the birth of a son to T T, and zo said that that son would be the heir-apparent. 6. | नेमि informs बलदेव how द्वारावती would be burnt and how कृष्ण would meet liis death. 8-10. The story of the us in outline, and of the aimereziar. 14-15. Previews births of the mos. 18. 6 Previous births ot ara, beginning with liat of a 1447. 21. 7 a The story of T T, the twelfth and last chalta XCIII 1. 8 d i IT-The wicked demon is no other than 40, who caused several उपसर्गs to मरुभूति, destined to be पार्श्व, The chronological order through which the souls of eura, and 745 passed must be noted, and it is 4646 वज्रघोषहस्ती, सहस्रारदेव, रश्मिवेग or अग्निवेग, अच्युतदेव, वजनाभि, ग्रैवेयकदेव, आनन्द, आनतेन्द्र, and पार्श्व; कमट, कुक्कुटसर्प, पञ्चमनारक, अजगर, भिल्ल, षष्ठनारक, सिंह, नारक and महीपाल, of these only first two births of each are treated in this na. XCTV l. 12 Wars, the other, i. e., the elephant at. 4. 263950ft, plucked by another, or fallen from tree; as the elephant had taken the vows, he does not do injury even to trees. 12. 12-13 The narrative of 1991 begins with this line. XCV 1. 15 a ण पेम्मे णिसष्णो -According to the Digambaras, महावीर did not marry Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकइपुष्फतविरया पहापुराण 429 and hence the poet says that he did not fall in love with beautiful ladies. 2.6 ATTU H 3 014-460N in his earliest known birth, was a forester named gaat. 5. " सबरामरु-पुरुरवस् was first a शबर and after death became a god. 12 Tema de, the twenty-five principles of the nic system. 8. I TEHTI . e., fifa. 14. This art recapitulatcs some of the previous births of the lion who was the po XCVI 1. 3 a forgote, lion who controlled his tongue. 10. « E -TEIT was named that by yods. 15 E-TECO vave to TFT another name, viz., te, because he was found to be fearless in the presence of a huge snakc. 11. fait, on seeing a young boy, i. c.. THE SERIE XCVII 3. 7 "The poet gives here the story of RFI, the daughter of king con 4. tafakur Faufen-F2, the wife of the merchant, became jealous of that as she possessed all the qualities such as beauty, youth etc. of a rival. She suspected that RI would soon be her rival. XCVW I. 11 h 37 Pori PE TEE 13-The monk gave to the forester all rules of conduct and tokl him that there were no other rules of conduct than those mentioned by hi. Ilorus on flic lead is regarded as most prominent characteristic of an object. Compare the water. 2. 10 uf f ff -The forester took a vow that he would not eat the Nesh of a crow. 8. 6 a fost are 3 3-According to Hindu mythology Z is the son oll Trees from a fisherwoman; hui according to Jain view he is the son of a princess of the मत्स्यदेश. 9. According to this 2:57, king ces of terroft bad several sons and seven daughters. Of these daughters, I was the eldest and most beautiful. Fler sisters were married to famous kings, c. E., 184bftraft was married to fhgiat of Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 430 महाकइपुष्फयंतविरया महापुराणु कुण्डपुर and was the mother of महावीरमृगायती was given to शतानीक; सुप्रभा was married to दशरथ; and प्रभावती was married to उदायण of सिंधुसोचीर country; and चेल्लणा was married to king श्रेणिक. 10. 10 a g is probably the other South Indian word used by the poet. It means a bull. IC The whole Samdhi is devoted to the life-story of जीवंधर. 3. पदोहउ, प्रभुदोहकः, hating the king. 5 ब्रहिउ, an instance of insertion of रेफ, where it is not to be found in the original Sk. word. Compare हेम. अभूतोपि क्वचित् IV. 399. The whole Samdhi is devoted to the story of जम्बू, the pupil of सुधर्मस्वामिन्, 8. दहगुणियई चत्तारि, four hundred years. The life-story of statent forms the subject of this Samdhi. CHI The dark future to be followed by a golden age is the subject matter of this Sumdhi. 13. The text of the last कडवक, particularly after 5 b, is somewhat confused. I think 4946's first version is as given in the printed text, and is supported by my best mis. K. The portion in A and P is clearly a later addition, of course by the poet himself, but the order of lines in not quite loigcal. I propose the following version of the amplified text from line 5पडिवणियपरिपालणसूरहु होउ संति परहहु वरवीरहु। होउ संति बहुगुणहि महल्लहो तासु जि पुत्तहो सिरिदेदिल्लहो। एउ महापुराणु रपांजलि जे पयडेबउं सयलि घरायलि। चजविहदाणुज्जयकत्यचित्तहो परह परमसदमावसुमित्तहो। भोगल्लहो जयसिवित्थरियहो होउ सति णिक णिरुवमचरियहो। होउ संति णण्णहो गुणवतहो कुलवच्छलसामत्यमहतहो। णिच्यमेव पालियजिणधम्मस् होउ संति सोहणगुणवम्मह। होउ संति संतहु दंगइयहु होउ सति सुयणहु संतइयहु । होउ संति बहुगुणगणवंतई संतहं दयवंतह पयर्वतहं। जिणपयपणमणचियलियगन्नह होउ सति णीसेसह भब्बह। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकइपुप्फयंतबिरयत महापुराणु 431 This passage now conveys to us the following information-farmer was the son of भरत and was charged by his father to publish the महापुराणु. भोगल्ल, the second 50n of 481, looked to the charitable establishment of the king or of ura, and was a sincere friend of the poet. Tot is the son of a who held the responsibilities of the family and so naturally succeeded his father, 91147 and 417 are props sons and liad pious tendencies. 154 and 1954 are probably the poet's assistants. Lastly comes a general mention of the noble and pious men. 14. 12 b My Ms. P rcads 5 STK HART, but is not supported by K. nor by A, which latter, in my opinion, is the youngest of the three versions known to me. It is likely that there may be stili younger Mss. of the work as metioned by Pandit Premi in his article : महाकवि पुष्पदन्त.