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83.1.12]
महाकइपुष्फयतविरयउ महापुराणु
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तेयासीतिमो संधि
सहुँ भायरहिं समिद्ध णायाणाय णिहालइ। पहु समुद्दविजयकु महिमंडलु परिपालइ || धुवकं ॥
एक्कहिं दिणि आरूढउ' करिवरि गावइ ससहरु उइउ* महीहरि। असहसणयणु णाइ कुलिसाउहु अकुसुमसरु णं सई कुसुमाउहु। णं अखारु सलवणु रयणायरु अकवडणिलउ णाई दामोयरु। अमलदेहु णावइ उग्गउ' इणु जगसंखोहकारि णावइ जिणु। 'चामरछत्तचिंधसिरिसोहिउ' विविहाहरणविसेसपसाहिउ । सो वसुएउ" कुमारु पुरंतरि हिंडइ हट्टमग्गि घरि चच्चरि । सो ण पुरिसु में दिट्टि ण ढोइय सा ण दिट्टि जा तहु ण पराइय। मणुल देर सो काम ण भावद संचरंतु तरुणीयणु तावइ ।
घत्ता-का वि कुमारु णियंति रोमि रोमि पुलइज्जइ।
___ अलहंती तहु चित्तु पुणरवि तिलु तिलु खिज्जइ ॥१॥
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तेरासीवीं सन्धि अपने भाइयों से समृद्ध समुद्रविजय न्याय-अन्याय को देखता है और इस प्रकार वह पृथ्वीमण्डल का पालन करता है।
एक दिन श्रेष्ठ हाथी पर आसीन वह ऐसा लग रहा था जैसे उदगिरि पर चन्द्रमा हो, जैसे हजार नेत्रों के बिना इन्द्र हो, जो मानो बिना पुष्पबाणों के कामदेव हो, जो मानो क्षाररहित सुन्दर समुद्र हो, जो मानो कपटरूपी घर के बिना दामोदर हो, जो स्वच्छ देहवाला उगा हुआ सूर्य हो, जो मानो विश्व को स्पन्दित करनेवाला जिनवर हो। चामरों, छत्र और चिह्नों की शोभा से शोभित और विशेष आभरणों से प्रसाधित वह वसुदेव कुमार नगर और बाजारभागों, घर और चौराहों में घूमता फिरता है। ऐसा एक भी पुरुष नहीं है जो अपनी दृष्टि का उपहार उसे नहीं देता। ऐसी एक भी दृष्टि नहीं है जो उस तक नहीं पहुँचती। वह मनुष्य-देव किसे अच्छा नहीं लगता जो संचरण करता हुआ युवतीजनों को संतप्त कर देता है।
घत्ता-कोई कुमार को देखकर रोम-रोम से पुलकित हो उठती है और उसकी समागम प्राप्ति न हो सकने के कारण वह मन में तिल-तिल दुःखी हो उठती है।
(1) 1. 5 आरूट । 2. APS उययमही । 1. A सहसणयगु णावह। 4. Bणामि। 5. R उग्गओ। 5. AP "चिंधु। 7. 5 तिर" | 8. S विविहाहरण । 9.5 वसुदेव । 10. Somits ण!