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________________ 122 । महाकइपुप्फयंतयिस्यड महापुराणु [87.5.3 अण्णु वि सुउ जरसिंधहु' केरउ विहलियसुयणह सुहृई जणेरउ। कालु व वइरिवीरजीवियहरु । उद्विउ कालजमणु दहाहरु। पभणइ ताय ताय आयण्णहि दीण वइरि' किं हिययइ मण्णहि। पित्तिएहि सहुं समरि धरेप्पिणु आणमि गंदगोउ बंधेप्पिणु। पुलउ जणंतु णराहिवदेहहु सहुं सेण्णेण विणिग्गउ गेहहु। जलि थलि णहयलि कहिं मि ण माइड सो सरोसु सहरिसु उद्धाइउ। गपिणु पिसुणचरिउं जं दिहां तं तिह हरिहि चरेण उबइठ्ठउं । तं णितुणेपिणु जाणियणाए सहु मतिहि सुह सुहिसंघाएं। बंधुवग्गु मंतणइ पइट्टर मंतिइ" मंतु महंतउ दिद्वत। जइ सबलेहिं अबलु आढप्पइ तो णासइ जइ सो पडिकुप्पइ । बेण्णि जि- होंति विणासह अंतरु तप्पवेसु': अहवा देसंतरु। तहि पहिलारउ अज्जु ण जुज्जइ देसगमणु पुणु णिच्छउँ किज्जइ। हरि असमत्थु दइउ' का जाणइ को समरंगणि जयसिरि माणइ। 15 खतरामाहिरामसुविरामें तं णिसुणेप्पिणु अलिउलसामें। घत्ता-बोल्लिउं महुमहणेण हउं असमत्थु ण वुच्चमि। मई मेल्लह रणरंगि एक्कु जि रिउहं पहुच्चमि ॥5॥ में यशरूपी पट के ध्वस्त होने पर, जरासन्ध का दूसरा पुत्र कालयवन, जो विह्वल स्वजनों को सुख देनेवाला तथा काल के समान शत्रुवीरों के जीवन का अपहरण करनेवाला था, अपने होंठ भींचता हुआ उठा। वह पिता से बोला-“हे पिता ! सुनिए, सुनिए, दीन शत्रु को आप अपने मन में बड़ा क्यों मानते हैं ? युद्ध में चाचाओं के साथ पकड़कर और बाँधकर मैं नन्दगोप को ले आऊँगा।" । इस प्रकार राजा के शरीर में पुलक उत्पन्न करता हुआ। सैन्य के साथ वह अपने घर से निकला। जल, थल और आकाश में, यह कहीं भी नहीं समा सका, क्रोध और हर्ष के साथ वह शीघ्र दौड़ा। जब दूत ने उस दुष्ट का चरित जैसा देखा, वैसा हरि से निवेदित किया । यह सुनकर न्याय-नीति जाननेवाले बन्धुवर्ग ने सुधिसमूह और पण्डितों के साथ मन्त्रणा की। मन्त्री ने यह महान् परामर्श दिया कि यदि कोई अबल सबलों के द्वारा मारा जाता है, तो जो (दुर्बल) प्रतिरोध (प्रतिक्रोध) करता है, वह नाश को प्राप्त होता है। यद्यपि दोनों विनाश के लिए हैं, चाहे तपस्वी वेश हो या देशान्तर गमन । इसलिए आज पहला ठीक नहीं है, देशगमन निश्चित रूप से करना चाहिए। हरि असमर्थ हैं ? देव को कौन जानता है ? कौन युद्ध में विजयश्री को मानता है ? शत्रुओं की स्त्रियों के सौन्दर्य को विराम देनेवाले भ्रमरकुल की तरह श्याम कृष्ण ने यह सुनकर कहा__घत्ता-कृष्ण ने कहा- मैं कहता हूँ कि मैं असमर्थ नहीं हूँ, मुझे तुम युद्धभूमि में छोड़ दो, अकेला ही मैं शत्रु के लिए पहुँचता हूँ। 4. PS जग्सेंधही। 5. A विडिय" | 6. AP दीणजयगु । 7. K पित्तिएण, burgloss पितृत्यैनंबभिः सह। B.Sआणेवि। 9. B चरें एय| 10. AP णिसणेवि वियाणियाणाएं: 5 णिसुणेविण जाणियणाएं। ।।. P यतिज पतु महतहिं। 12 A वि। 19. " हप्पवितु। 11. P इबु। 15. P रिउहें ।
SR No.090277
Book TitleMahapurana Part 5
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages433
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size10 MB
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