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91.6.12 )
महाकपुष्यंतविरयल महापुराणु
घत्ता - आयणिवि धम्मु भवसंसरणहु " संकियउ । विमलप्पहपासि अरुहदासु दिक्खकिय || 5 ||
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महु कीडय बद्धसणेहभाव'
ता अवरकंपपुरवई पसण्णु आयउ किर किंकरु महुहि पासु पीपत्थणि णामें कणयमाल असतें पहुणा सरपिसक्कु जडु दुजङतवसिपयमूलि थक्कु कणबरहें सोसिउ निययकार वंदेवि भंडारण विमलबाहु परियाणिवि तच्चु तवेण तेहिं चिरु दहमइ सग्गि महापसत्यु हरिमहाएविहि रुप्पिणिहि गमि महु संभूयउ पज्जुष्णु गामु
गयउरि संजाया" बे वि राय । करहु णाम' कणयारवण्णुः । ता तेण वि इच्छिय घरिणि तासु । पहुमणि उग्गय मयणग्गिजाल | उद्दालय बहु वियलियविवक्कु" । तियसोएं" कउ तउ" "भेसियक्कु । विसहिउ दूसह पंचग्गिताउ । दुद्धरवव संजनवारिवाहु | इंदत्तु पत्तु महुकीडवेहिं" । मणु रंजिवि भुंजिवि इंदियत्थु । चंदु व संचरियउ" पविमलब्धि | पसरियपयाउ रामाहिरामु ।
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यत्ता -- भवभ्रमण से शंकित अरुहदास ने धर्म सुनकर विमलप्रभ के पास दीक्षा ग्रहण कर ली ।
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स्नेहभाव से बँधे हुए मधु और क्रीड़क दोनों गजपुर के राजा हो गये। इसी समय अमरकम्पपुर का राजा कनकरथ अत्यन्त प्रसन्न और कनेर के पुष्प के रंग का था। मधु के पास उसका अनुचर आया। उसने भी उसकी गृहिणी पीनस्तनवाली कनकमाला को पसन्द कर लिया। राजा मधु के मन में काम की ज्वाला भड़क उटी । कामदेव के तीर सहन न कर सकने के कारण राजा ने उस वधू को उड़ा लिया। विवेकशून्य होकर मूर्ख कनकरथ जटावाले तपस्वी के चरणों में बैठ गया और पत्नी के वियोग से दुःखी होकर उसने पंचाग्नि तप तपा । कनकरथ ने अपना शरीर सुखा डाला। उसने असह्य पंचाग्निताप सहा दुर्धरव्रत और संयम के मेघ, विमलबाहु मुनि की वन्दना कर, तत्त्व को जानकर उन दोनों मधु और क्रीड़क ने तप से इन्द्रपद प्राप्त किया। बहुत समय तक दसवें स्वर्ग में महाप्रशस्त मन का रंजन कर तथा इन्द्रियार्थ भोगकर कृष्ण की महादेवी रुक्मणी के गर्भ से मधु स्त्रियों के लिए रमणीय, प्रसरित प्रतापवाला प्रद्युम्न वैसे ही उत्पन्न हुआ, जैसे स्वच्छमेघों में से चन्द्रमा ।
10. AP संसारहो।
( 6 ) 1. PS भाय । 2. AS जाया ते बे वि; P ते जाया बे वि3. AB अमरकम्प: P अवरकंक 14. Pामु। 5. A कण्णयार: 5 कणियार । 6. AP पली 7 मही मणि; P मधुमणि । 8. B वित्तक्कु । 9. 13 दुजड़ 10 5 तृय ।।1.5 तबु। 12. नियइ 13. P कीडएहिं । 11. AP चरियउ विमल अब्धि ।